Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "फिर भी" to "तथापि"
Line 21: Line 21:  
स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। चितन के स्तर पर अध्यात्मशास्त्र, व्यवस्था के स्तर पर धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए । इन विषयों को वर्तमान में अंग्रेजी संज्ञाओं के अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता है । पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत, पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव, अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं। वे समग्र के अंश हैं समग्र नहीं। अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना चाहिए ।  
 
स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। चितन के स्तर पर अध्यात्मशास्त्र, व्यवस्था के स्तर पर धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए । इन विषयों को वर्तमान में अंग्रेजी संज्ञाओं के अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता है । पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत, पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव, अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं। वे समग्र के अंश हैं समग्र नहीं। अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना चाहिए ।  
   −
इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशास्त्र । आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है । इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है । इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्वत की संकल्पना एकदूसरे में ओतप्रोत हैं। आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है। अनुभूति भी आत्मतत्त्व के समान खास भारतीय विषय है। इस अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है। कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सके हैं। हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और फिर भी धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा ।
+
इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशास्त्र । आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है । इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है । इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्वत की संकल्पना एकदूसरे में ओतप्रोत हैं। आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है। अनुभूति भी आत्मतत्त्व के समान खास भारतीय विषय है। इस अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है। कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सके हैं। हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और तथापि धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा ।
    
इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।
 
इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।
Line 88: Line 88:  
* उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्यवस्था होनी चाहिये।
 
* उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्यवस्था होनी चाहिये।
 
वास्तव में किसी भी वस्तु का निर्माण इसीलिये होता है क्यों कि उसकी इच्छा या आवश्यकता होती है । जब यह निर्माण स्वयं के लिये व्यक्ति स्वयं ही बनाता है तब तो समस्या पैदा नहीं होती, परंतु एक की आवश्यकता के लिये दूसरा बनाता है तब प्रश्न पैदा होते हैं । जब दूसरा बनाता है तब एक को वस्तु मिलती है, दूसरे को पैसा । इसलिये अर्थार्जन और आवश्यकता ये दोनों बातें उत्पादन के साथ जुड जाती हैं । अब प्रश्न यह होता है कि उत्पादन अर्थार्जन के लिये करना या आवश्यकता की पूर्ति के लिये। यदि अर्थार्जन को ही प्राथमिकता दी जायेगी तो अनावश्यक वस्तु का भी उत्पादन होगा, आवश्यक वस्तु का नहीं होगा। अनावश्यक वस्तु का उत्पादन करने पर उन्हें कोई लेने वाला नहीं होगा तो उत्पादन बेकार जायेगा, अर्थार्जन भी नहीं होगा । फिर अनावश्यक वस्तु के लिये कृत्रिम रूप से आवश्यकता निर्माण की जायेगी। इससे मनुष्य की बुद्धि, मन, शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और समाजजीवन में अनवस्था निर्माण होगी । आज यही हो रहा है। उत्पादक अर्थर्जन का हेतु मन में रखकर उत्पादन करता है और ग्राहक को येन केन प्रकारेण उसे खरीदने पर विवश करता है ।
 
वास्तव में किसी भी वस्तु का निर्माण इसीलिये होता है क्यों कि उसकी इच्छा या आवश्यकता होती है । जब यह निर्माण स्वयं के लिये व्यक्ति स्वयं ही बनाता है तब तो समस्या पैदा नहीं होती, परंतु एक की आवश्यकता के लिये दूसरा बनाता है तब प्रश्न पैदा होते हैं । जब दूसरा बनाता है तब एक को वस्तु मिलती है, दूसरे को पैसा । इसलिये अर्थार्जन और आवश्यकता ये दोनों बातें उत्पादन के साथ जुड जाती हैं । अब प्रश्न यह होता है कि उत्पादन अर्थार्जन के लिये करना या आवश्यकता की पूर्ति के लिये। यदि अर्थार्जन को ही प्राथमिकता दी जायेगी तो अनावश्यक वस्तु का भी उत्पादन होगा, आवश्यक वस्तु का नहीं होगा। अनावश्यक वस्तु का उत्पादन करने पर उन्हें कोई लेने वाला नहीं होगा तो उत्पादन बेकार जायेगा, अर्थार्जन भी नहीं होगा । फिर अनावश्यक वस्तु के लिये कृत्रिम रूप से आवश्यकता निर्माण की जायेगी। इससे मनुष्य की बुद्धि, मन, शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और समाजजीवन में अनवस्था निर्माण होगी । आज यही हो रहा है। उत्पादक अर्थर्जन का हेतु मन में रखकर उत्पादन करता है और ग्राहक को येन केन प्रकारेण उसे खरीदने पर विवश करता है ।
* उत्पादन में हर व्यक्ति की सहभागिता होनी चाहिये । यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है। उत्पादन हेतु जो भी व्यवसाय होते हैं उनमें जुड़े हर व्यक्ति का स्थान सहभागिता का होना चाहिये । यह सहभागिता स्वामित्वयुक्त होनी चाहिये, नौकरी करने की नहीं । व्यवसाय के स्वामित्व में सहभागिता होने से व्यक्ति का सम्मान, गौरव और स्वतंत्रता बनी रहती है । ये व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक आवश्यकतायें होती हैं। स्वामित्व के भाव के कारण उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादित वस्तु के साथ भी आत्मीयता का भाव आता है और उत्पादन के श्रम में आनंद का अनुभव होता है । ये सब सुसंस्कृत जीवन के निर्देशांक हैं ।
+
* उत्पादन में हर व्यक्ति की सहभागिता होनी चाहिये । यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है। उत्पादन हेतु जो भी व्यवसाय होते हैं उनमें जुडे हर व्यक्ति का स्थान सहभागिता का होना चाहिये । यह सहभागिता स्वामित्वयुक्त होनी चाहिये, नौकरी करने की नहीं । व्यवसाय के स्वामित्व में सहभागिता होने से व्यक्ति का सम्मान, गौरव और स्वतंत्रता बनी रहती है । ये व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक आवश्यकतायें होती हैं। स्वामित्व के भाव के कारण उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादित वस्तु के साथ भी आत्मीयता का भाव आता है और उत्पादन के श्रम में आनंद का अनुभव होता है । ये सब सुसंस्कृत जीवन के निर्देशांक हैं ।
    
* '''उत्पादन में सहभागिता हेतु व्यक्ति स्वयं सक्षम होना चाहिये ।'''
 
* '''उत्पादन में सहभागिता हेतु व्यक्ति स्वयं सक्षम होना चाहिये ।'''
Line 121: Line 121:     
=== उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण ===
 
=== उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण ===
उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन जुड़े हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से:
+
उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से:
    
==== उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना अति आवश्यक है ====
 
==== उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना अति आवश्यक है ====
Line 179: Line 179:  
* वैज्ञानिकता का सही अर्थ है शास्त्रीयता । यह बुद्धि का क्षेत्र है, तर्क का क्षेत्र है, भारतीय परंपरा से देखें तो न्याय का क्षेत्र है, तत्त्वज्ञान का क्षेत्र है । यहाँ व्याकरण चलता है । जो तर्क से नहीं सिद्ध होता वह वैज्ञानिक नहीं है। आज जो भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता वह मान्य नहीं होता है। इससे मुक्त कर विज्ञान को व्यापक बनाने की आवश्यकता है ।
 
* वैज्ञानिकता का सही अर्थ है शास्त्रीयता । यह बुद्धि का क्षेत्र है, तर्क का क्षेत्र है, भारतीय परंपरा से देखें तो न्याय का क्षेत्र है, तत्त्वज्ञान का क्षेत्र है । यहाँ व्याकरण चलता है । जो तर्क से नहीं सिद्ध होता वह वैज्ञानिक नहीं है। आज जो भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता वह मान्य नहीं होता है। इससे मुक्त कर विज्ञान को व्यापक बनाने की आवश्यकता है ।
 
* आज का विज्ञान सभी बातों का मापदण्ड नहीं हो सकता । वास्तव में सामाजिकता ही वैज्ञानिकता का भी मापदण्ड बनाना चाहिए । विज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया है । प्रक्रिया कभी निर्णायक नहीं हो सकती । ज्ञान ही निर्णायक होता है । देखा जाय तो विज्ञान सभ्यता के विकास हेतु है और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती है। इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत मूलगामी परिवर्तन है ।
 
* आज का विज्ञान सभी बातों का मापदण्ड नहीं हो सकता । वास्तव में सामाजिकता ही वैज्ञानिकता का भी मापदण्ड बनाना चाहिए । विज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया है । प्रक्रिया कभी निर्णायक नहीं हो सकती । ज्ञान ही निर्णायक होता है । देखा जाय तो विज्ञान सभ्यता के विकास हेतु है और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती है। इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत मूलगामी परिवर्तन है ।
* फिर भी भावना, क्रिया, विचार आदि की अपेक्षा बुद्धि की प्रतिष्ठा विशेष है। अन्य सभी आयामों को बुद्धिनिष्ठ बनाना चाहिए परंतु बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए । इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की जो भाषा बोली जाती है उसे ठीक करना चाहिए । विज्ञान और अध्यात्म तुल्यबल संकल्पनायें नहीं हैं। विज्ञान अध्यात्म का एक हिस्सा है। उसके निकष अध्यात्म में ही हैं। यही भारतीय विज्ञानदृष्टि होगी।
+
* तथापि भावना, क्रिया, विचार आदि की अपेक्षा बुद्धि की प्रतिष्ठा विशेष है। अन्य सभी आयामों को बुद्धिनिष्ठ बनाना चाहिए परंतु बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए । इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की जो भाषा बोली जाती है उसे ठीक करना चाहिए । विज्ञान और अध्यात्म तुल्यबल संकल्पनायें नहीं हैं। विज्ञान अध्यात्म का एक हिस्सा है। उसके निकष अध्यात्म में ही हैं। यही भारतीय विज्ञानदृष्टि होगी।
 
* भौतिक विज्ञान को पंचमहाभूतात्मक संकल्पना का आधार देना चाहिए। ऐसा करने से हमारे भौतिक विज्ञान के आकलन में बहुत अंतर आ सकता है । उदाहरण के लिए सृष्टि विज्ञान में अष्टधा प्रकृति की कल्पना जुड़ते ही सत्त्व, रज, तम ऐसे तीन गुण जुड़ जाएँगे। जो पदार्थ का स्वरूप ही बदल देगा।  
 
* भौतिक विज्ञान को पंचमहाभूतात्मक संकल्पना का आधार देना चाहिए। ऐसा करने से हमारे भौतिक विज्ञान के आकलन में बहुत अंतर आ सकता है । उदाहरण के लिए सृष्टि विज्ञान में अष्टधा प्रकृति की कल्पना जुड़ते ही सत्त्व, रज, तम ऐसे तीन गुण जुड़ जाएँगे। जो पदार्थ का स्वरूप ही बदल देगा।  
 
* प्राणिविज्ञान के क्षेत्र में प्राण का विचार करना ही पड़ेगा । प्राण का विचार करते ही शरीरविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, प्राणिविज्ञान का स्वरूप बदल जाएगा ।
 
* प्राणिविज्ञान के क्षेत्र में प्राण का विचार करना ही पड़ेगा । प्राण का विचार करते ही शरीरविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, प्राणिविज्ञान का स्वरूप बदल जाएगा ।
Line 197: Line 197:     
== भाषा ==
 
== भाषा ==
मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है। इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के लिये निकटतम होती है। जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है; क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं। उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ सकता है फिर भी उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह ग्रहण बिना किसी गलती का होता है। इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक सक्रिय होता है।
+
मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है। इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के लिये निकटतम होती है। जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है; क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं। उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ सकता है तथापि उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह ग्रहण बिना किसी गलती का होता है। इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक सक्रिय होता है।
    
भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं कहा जा सकता। “या भाष्यते सा भाषा' - जो बोली जाती है वह भाषा है - ऐसा भाषा का अर्थ बताया जाता है। मनुष्य को छोड़कर अन्य जीव बोलते नहीं है इसलिये उनकी भाषा भी नहीं होती।
 
भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं कहा जा सकता। “या भाष्यते सा भाषा' - जो बोली जाती है वह भाषा है - ऐसा भाषा का अर्थ बताया जाता है। मनुष्य को छोड़कर अन्य जीव बोलते नहीं है इसलिये उनकी भाषा भी नहीं होती।
Line 203: Line 203:  
आज हम भाषा के दो रूप मानते हैं। एक है मौखिक और दूसरा है लिखित। परन्तु भाषा का मूल रूप मौखिक ही है। लिखित रूप गौण है, अत्यन्त गौण है। विश्व में गूँगों को छोड़कर लगभग सभी बोल सकते हैं परन्तु उनके अनुपात में बहुत कम लोग लिख सकते हैं। मनुष्य अपने जीवन में भी पहले बोलने लगता है, बाद में लिखने। लिखना न भी आये तो चलता है, बोलना नहीं आया तो नहीं चलता। बोलना तो बरबस होता है, लिखना प्रयास से होता है। अतः: भाषा मूलत: बोलना ही है। बोलने से ही उसकी परिभाषा बनी है।
 
आज हम भाषा के दो रूप मानते हैं। एक है मौखिक और दूसरा है लिखित। परन्तु भाषा का मूल रूप मौखिक ही है। लिखित रूप गौण है, अत्यन्त गौण है। विश्व में गूँगों को छोड़कर लगभग सभी बोल सकते हैं परन्तु उनके अनुपात में बहुत कम लोग लिख सकते हैं। मनुष्य अपने जीवन में भी पहले बोलने लगता है, बाद में लिखने। लिखना न भी आये तो चलता है, बोलना नहीं आया तो नहीं चलता। बोलना तो बरबस होता है, लिखना प्रयास से होता है। अतः: भाषा मूलत: बोलना ही है। बोलने से ही उसकी परिभाषा बनी है।
   −
भाषा का केवल वाचिक रूप ही नहीं होता है। वह भावात्मक भी होता है। शिशु अवस्था में, जब तक शिशु बोलना नहीं सीखता वह भाषा का भावात्मक रूप ग्रहण करता है। शब्द और अर्थ मिलकर भाषा बनती है। वह भाषा का अर्थरूप पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, शब्द रूप संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। शब्द का उच्चारण करने के लिये उसका ध्वनितन्त्र पर्याप्त रूप से सक्षम चाहिये। जन्म के समय वह उतना सक्षम नहीं होता है। उसे सक्रिय बनाने की दिशा में उसका अखण्ड पुरुषार्थ चलता है। रोना, चिल्लाना, हँसना, तरह तरह की आवाजें निकालना, शब्द के उच्चारण की ही पूर्व तैयारी होती है। जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वह पूर्ण रूप से उच्चारण सीखता जाता है।
+
भाषा का केवल वाचिक रूप ही नहीं होता है। वह भावात्मक भी होता है। शिशु अवस्था में, जब तक शिशु बोलना नहीं सीखता वह भाषा का भावात्मक रूप ग्रहण करता है। शब्द और अर्थ मिलकर भाषा बनती है। वह भाषा का अर्थरूप पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, शब्द रूप संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। शब्द का उच्चारण करने के लिये उसका ध्वनितन्त्र पर्याप्त रूप से सक्षम चाहिये। जन्म के समय वह उतना सक्षम नहीं होता है। उसे सक्रिय बनाने की दिशा में उसका अखण्ड पुरुषार्थ चलता है। रोना, चिल्लाना, हँसना, तरह तरह की आवाजें निकालना, शब्द के उच्चारण की ही पूर्व तैयारी होती है। जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वह पूर्ण रूप से उच्चारण सीखता जाता है। स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण, बल, हस्व और दीर्घ, आरोह, अवरोह आदि वह सुनकर ही सीखता है। सुनने के अलावा भाषा सीखने का और कोई तरीका नहीं है। जो सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता यह सार्वत्रिक नियम है। जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है।
   −
''स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण, बल, हस्व.. वाक्‌ और अर्थ जुड़े हैं उसी प्रकार''
+
भाषा का सम्बन्ध नाद से है। नाद का अर्थ है वाणी, अर्थात्‌ आवाज। नाद सृष्टि की उत्पत्ति का आदि कारण है। उसे नादब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म नादस्वरूप है ऐसा उसका अर्थ है। सृष्टि जैसे जैसे फैलने लगी और विविध रूप धारण करने लगी बैसे वैसे नाद भी विविध रूप धारण करने लगा। सर्व प्रकार की ध्वनियों का मूल रूप है ॐ। इसलिये वह भी ब्रह्म का ही वाचक है। ध्वनि के विविध रूप सृष्टि के विविध रूपों के साथ आन्तरिक रूप से ही जुड़े हुए हैं। इस सम्बन्ध का कभी विच्छेद नहीं हो सकता। एक बात समझने योग्य है कि ३७ अनेक ध्वनियों में से एक ध्वनि नहीं है, वह सभी ध्वनियों का मूल रूप है। सारे ध्वनि रूप उसमें से निःसृत हुए हैं।
   −
''और दीर्घ, आरोह, अवरोह आदि वह सुनकर ही सीखता. एकदूसरे से जुड़े हुए जगत के मातापिता पार्वती और''
+
व्यवहार में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसके दो आयाम हैं। ये दो आयाम एक सिक्‍के के दो पहलू जैसे हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता है। ये दो पहलू हैं शब्द और अर्थ। शब्द है वाक्‌ अर्थात्‌ वाणी अर्थात्‌ ध्वनि और अर्थ है उसका व्यावहारिक सन्दर्भ। व्यावहारिक जीवन में विचार, भावनायें, इच्छायें, अपेक्षायें, तर्क, अनुमान, संवेदनायें आदि सब होते हैं। जब इन सबको ध्वनि रूप प्राप्त होता है तब भाषा जन्म लेती है। व्यावहारिक सन्दर्भ अर्थात्‌ अर्थ और शब्द का सम्बन्ध कितना एकात्म है यह दर्शाते हुए कविकुलगुरू कालिदास ने पार्वती और शंकर के सम्बन्ध का वर्णन किया है। वे लिखते हैं<ref>रघुवंश १-१</ref><blockquote>वागर्थाविव सम्पृक्तौ वार्थप्रतिपत्तये ।</blockquote><blockquote>जगत: पितरौ बन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ || </blockquote>अर्थात्‌ वाणी के अर्थ की सिद्धि हेतु जिस प्रकार वाक्‌ और अर्थ जुड़े हैं उसी प्रकार एकदूसरे से जुड़े हुए जगत के मातापिता पार्वती और परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। पार्वती और परमेश्वर एक दूसरे के साथ कितने एकात्म भाव से जुड़े हुए हैं यह हम सब जानते हैं। उनके सम्बन्ध का वर्णन करने के लिए शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की उपमा दी जाती है। यही शब्द और अर्थ की एकात्मता का द्योतक है। इसका तात्पर्य यह है कि भाषा का विचार करते समय हमें ध्वनि और अर्थ दोनों का अलग अलग और एकसाथ विचार करना होगा।
   −
''है। सुनने के अलावा भाषा सीखने का और कोई तरीका... परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। पार्वती और परमेश्वर''
+
भाषा के शब्द रूप की बात करें तो प्रथम हमें देखना होगा कि ध्वनि का सम्बन्ध कहाँ कहाँ किन किन से किस किस प्रकार का है। ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ है। पंचमहाभूत हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश। इनमें शब्द आकाश का विषय है। सभी भूतों में आकाश सूक्ष्मतम है अर्थात्‌ व्यापकतम है। वह शेष सभी भूतों को भी व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है इसका अर्थ यह है कि वह आकाश के माध्यम से गति करता है। आकाश अनन्त है इसलिये शब्द भी अनन्त है। भाषा के ध्वनिरूप को अक्षर कहा जाता है। अक्षर वह है जिसका कभी क्षरण नहीं होता अर्थात्‌ नाश नहीं होता। अक्षर भी ब्रह्म का ही नाम है। भाषा के शब्दमय पहलू की लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनिरूप होता है इसलिए उसका उच्चारण होता है। उच्चारण के सन्दर्भ में अक्षर का सम्बन्ध वाक्‌ नाम की कर्मन्द्रिय से है। ध्वनि शब्द है इसलिये उसका सम्बन्ध श्रवणेन्द्रिय से है। श्रवणेन्द्रिय और वागीन्द्रिय दोनों से संबन्धित होने के कारण सुनने और बोलने की प्रक्रिया बनती है। सुनने और बोलने के सम्बन्ध से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है।
   −
''नहीं है। जो सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता यह... एकदूसरे के साथ कितने एकात्म भाव से जुड़े हुए हैं यह''
+
यही संवाद का माध्यम है। अक्षर अक्षर से बनी भाषा मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध का एक बहुत बड़ा सशक्त माध्यम बनती है। भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। शारीरिक दृष्टि से स्वर्यन्त्र ठीक होना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही श्वसन की सही पद्धति, बैठने की सही पद्धति और छाती में दम होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दुर्बल होता है। यदि श्वसन अभ्यास ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट नहीं होता है। यदि स्वरयन्त्र ठीक नहीं है तो उच्चारण अशुद्ध होता है। अभ्यास का महत्त्व अनन्यसाधारण है। अभ्यास से भाषा प्रभावी बनती है।
 
  −
''सार्वत्रिक नियम है। जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है। हम सब जानते हैं। उनके सम्बन्ध का वर्णन करने के लिए''
  −
 
  −
''शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की उपमा दी जाती है। यही''
  −
 
  −
''शब्द और अर्थ की एकात्मता का द्योतक है। इसका तात्पर्य''
  −
 
  −
''भाषा का सम्बन्ध नाद से है। नाद का अर्थ है वाणी, .. यह है कि भाषा का विचार करते समय हमें ध्वनि और''
  −
 
  −
''अर्थात्‌ आवाज। नाद सृष्टि की उत्पत्ति का आदि कारण है।... अर्थ दोनों का अलग अलग और एकसाथ विचार करना''
  −
 
  −
''उसे नादब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म नाद्स्वरूप है ऐसा उसका... होगा।''
  −
 
  −
''अर्थ है। सृष्टि जैसे जैसे फैलने लगी और विविध रूप धारण''
  −
 
  −
''करने लगी वैसे वैसे नाद भी विविध रूप धारण करने लगा। 9:''
  −
 
  −
''सर्व प्रकार की ध्वनियों का मूल रूप है 35। इसलिये वह भाषा के शब्द रूप की बात करें तो प्रथम हमें देखना''
  −
 
  −
''भी ब्रह्म का ही वाचक है। ध्वनि के विविध रूप सृष्टि के... होगा कि ध्वनि का सम्बन्ध कहाँ कहाँ किन किन से किस''
  −
 
  −
''विविध रूपों के साथ आन्तरिक रूप से ही जुड़े हुए हैं। इस. किस प्रकार का है। ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ''
  −
 
  −
''सम्बन्ध का कभी विच्छेद्‌ नहीं हो सकता। एक बात... है। पंचमहाभूत हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश।''
  −
 
  −
''समझने योग्य है कि 3 अनेक ध्वनियों में से एक ध्वनि... इनमें शब्द आकाश का विषय है। सभी भूतों में आकाश''
  −
 
  −
''नहीं है, वह सभी ध्वनियों का मूल रूप है। सारे ध्वनि रूप... सूक्ष्मतम है अर्थात्‌ व्यापकतम है। वह शेष सभी भूतों को''
  −
 
  −
''उसमें से निःसृत हुए हैं। भी व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है''
  −
 
  −
''इसका अर्थ यह है कि वह आकाश के माध्यम से गति''
  −
 
  −
''दे करता है। आकाश अनन्त है इसलिये शब्द भी अनन्त है।''
  −
 
  −
''व्यवहार में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसके... भाषा के ध्वनिरूप को अक्षर कहा जाता है। अक्षर वह है''
  −
 
  −
''दो आयाम हैं। ये दो आयाम एक सिक्के के दो पहलू जैसे जिसका कभी क्षरण नहीं होता अर्थात्‌ नाश नहीं होता।''
  −
 
  −
''हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता है। ये दो पहलू हैं... अक्षर भी ब्रह्म का ही नाम है। भाषा के शब्दमय पहलू की''
  −
 
  −
''शब्द और अर्थ। शब्द है वाकू अर्थात्‌ वाणी अर्थात्‌ ध्वनि... लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनिरूप होता है इसलिए''
  −
 
  −
''और अर्थ है उसका व्यावहारिक सन्दर्भ। व्यावहारिक जीवन. उसका उच्चारण होता है। उच्चारण के सन्दर्भ में अक्षर का''
  −
 
  −
''में विचार, भावनायें, इच्छायें,  अपेक्षायें, deh, AAA, सम्बन्ध वाकू नाम की कर्मेन्ट्रिय से है। ध्वनि शब्द है''
  −
 
  −
''संवेदनायें आदि सब होते हैं। जब इन सबको ध्वनि रूप... इसलिये उसका सम्बन्ध श्रवणेन्ट्रिय से है। श्रवणेन्द्रिय और''
  −
 
  −
''प्राप्त होता है तब भाषा जन्म लेती है। व्यावहारिक सन्दर्भ. वागीन्ट्रिय दोनों से संबन्धित होने के कारण सुनने और''
  −
 
  −
''अर्थात्‌ अर्थ और शब्द का सम्बन्ध कितना एकात्म है यह... बोलने की प्रक्रिया बनती है। सुनने और बोलने के सम्बन्ध''
  −
 
  −
''दर्शाते हुए कविकुलगुरू कालिदास ने पार्वती और शंकर के... से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है।''
  −
 
  −
''&,''
  −
 
  −
''सम्बन्ध का वर्णन किया है। वे लिखते हैं यही संवाद का माध्यम है। अक्षर अक्षर से बनी भाषा''
  −
 
  −
''वागर्थाविव सम्पूक्ती वागर्थप्रतिपत्तये । मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध का एक बहुत बड़ा सशक्त माध्यम''
  −
 
  −
''जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी ।। (रघुवंश १-१) बनती है।''
  −
 
  −
''अर्थात्‌ वाणी के अर्थ की सिद्धि हेतु जिस प्रकार भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण''
  −
 
  −
''२७७''
  −
 
  −
............. page-294 .............
  −
 
  −
है। शारीरिक दृष्टि से स्वर्यन्त्र ठीक होना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही श्वसन की सही पद्धति, बैठने की सही पद्धति और छाती में दम होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दुर्बल होता है। यदि श्वसन अभ्यास ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट नहीं होता है। यदि स्वरयन्त्र ठीक नहीं है तो उच्चारण अशुद्ध होता है। अभ्यास का महत्त्व अनन्यसाधारण है। अभ्यास से भाषा प्रभावी बनती है।
      
ध्वनिरूप में अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के भीतर के प्राण के साथ भी है और सृष्टि के प्राणतत्त्व के साथ भी है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है। अत: प्राणशक्ति के बलवान होने और नहीं होने का प्रभाव अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है। अक्षर का सम्बन्ध मनस्तत्त्व के साथ भी है। व्यक्ति के भीतर मनस्तत्त्व के साथ भी और सृष्टि के मनस्तत्त्व के साथ भी। अक्षर का सम्बन्ध शरीर के भीतर के अन्यान्य चक्रों के साथ है, अन्यान्य अंगों के साथ भी है। विभिन्न अंगों के साथ सम्बन्धित होकर मूल ध्वनि भिन्न भिन्न रूप धारण करती है यथा ओष्ट के साथ सम्बन्धित होकर प, फ, ब, भ, म बनता है; दाँत के साथ सम्बन्धित होकर त, थ, द, ध, न बनता है आदि। ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर शरीर के भीतर के विभिन्न चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं। इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं, भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। संक्षेप में अक्षर का सम्बन्ध मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के साथ बनता है, साथ ही वह मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध बनाता है।
 
ध्वनिरूप में अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के भीतर के प्राण के साथ भी है और सृष्टि के प्राणतत्त्व के साथ भी है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है। अत: प्राणशक्ति के बलवान होने और नहीं होने का प्रभाव अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है। अक्षर का सम्बन्ध मनस्तत्त्व के साथ भी है। व्यक्ति के भीतर मनस्तत्त्व के साथ भी और सृष्टि के मनस्तत्त्व के साथ भी। अक्षर का सम्बन्ध शरीर के भीतर के अन्यान्य चक्रों के साथ है, अन्यान्य अंगों के साथ भी है। विभिन्न अंगों के साथ सम्बन्धित होकर मूल ध्वनि भिन्न भिन्न रूप धारण करती है यथा ओष्ट के साथ सम्बन्धित होकर प, फ, ब, भ, म बनता है; दाँत के साथ सम्बन्धित होकर त, थ, द, ध, न बनता है आदि। ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर शरीर के भीतर के विभिन्न चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं। इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं, भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। संक्षेप में अक्षर का सम्बन्ध मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के साथ बनता है, साथ ही वह मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध बनाता है।

Navigation menu