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| स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। चितन के स्तर पर अध्यात्मशास्त्र, व्यवस्था के स्तर पर धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए । इन विषयों को वर्तमान में अंग्रेजी संज्ञाओं के अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता है । पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत, पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव, अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं। वे समग्र के अंश हैं समग्र नहीं। अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना चाहिए । | | स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। चितन के स्तर पर अध्यात्मशास्त्र, व्यवस्था के स्तर पर धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए । इन विषयों को वर्तमान में अंग्रेजी संज्ञाओं के अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता है । पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत, पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव, अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं। वे समग्र के अंश हैं समग्र नहीं। अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना चाहिए । |
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− | इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशास्त्र । आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है । इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है । इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्वत की संकल्पना एकदूसरे में ओतप्रोत हैं। आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है। अनुभूति भी आत्मतत्त्व के समान खास भारतीय विषय है। इस अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है। कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सके हैं। हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और फिर भी धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा । | + | इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशास्त्र । आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है । इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है । इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्वत की संकल्पना एकदूसरे में ओतप्रोत हैं। आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है। अनुभूति भी आत्मतत्त्व के समान खास भारतीय विषय है। इस अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है। कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सके हैं। हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और तथापि धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा । |
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| इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं । | | इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं । |
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| इसको श्रीमदभगवद्गीता<ref>श्रीमदभगवद्गीता ७.११</ref> में<blockquote>बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।</blockquote><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>अर्थात् “सर्व प्राणियों में धर्म के अविस्द्ध जो काम है वह मैं (परमात्मा) हूँ ' कहकर उसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । | | इसको श्रीमदभगवद्गीता<ref>श्रीमदभगवद्गीता ७.११</ref> में<blockquote>बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।</blockquote><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>अर्थात् “सर्व प्राणियों में धर्म के अविस्द्ध जो काम है वह मैं (परमात्मा) हूँ ' कहकर उसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । |
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− | अतः अर्थ पुरुषार्थ का और अर्थशास्त्र का विचार आवश्यकतापूर्ति के सन्दर्भ में करना होता है, इच्छापूर्ति के सन्दर्भ में नहीं । यह सम्भव है कि एक ही पदार्थ, एक ही क्रिया एक सन्दर्भ में इच्छा और अन्य सन्दर्भ में आवश्यकता होगी । अतः इच्छा और आवश्यकता में विवेक करना हर समय आवश्यक ही है । | + | अतः अर्थ पुरुषार्थ का और अर्थशास्त्र का विचार आवश्यकतापूर्ति के सन्दर्भ में करना होता है, इच्छापूर्ति के सन्दर्भ में नहीं । यह सम्भव है कि एक ही पदार्थ, एक ही क्रिया एक सन्दर्भ में इच्छा और अन्य सन्दर्भ में आवश्यकता होगी । अतः इच्छा और आवश्यकता में विवेक करना हर समय आवश्यक ही है । अर्थशास्त्र का जीवनशास्त्र के सन्दर्भ में विचार करना आवश्यक है। इसका अर्थ है जीवनशास्त्र के अन्यान्य पहलुओं से सम्बन्धित जो शास्त्र हैं उनके साथ अर्थशास्त्र का समायोजन होना चाहिये । उदाहरण के लिये समाजशास्त्र पर्यावरण, तकनीकी, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र आदि के साथ अर्थशास्त्र का अनुकूल सम्बन्ध होना चाहिये । अर्थशास्त्र की सार्थकता एवं उपादेयता हेतु ऐसा होना अपरिहार्य है। इस दृष्टि से अर्थशास्र का विचार करते समय निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है । |
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− | अर्थशास्त्र का जीवनशास्त्र के सन्दर्भ में विचार करना आवश्यक है । इसका अर्थ है जीवनशास्त्र के अन्यान्य पहलुओं से सम्बन्धित जो शास्त्र हैं उनके साथ अर्थशास्त्र का समायोजन होना चाहिये । उदाहरण के लिये समाजशास्त्र पर्यावरण, तकनीकी, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र आदि के साथ अर्थशास्त्र का अनुकूल सम्बन्ध होना चाहिये । अर्थशास्त्र की सार्थकता एवं उपादेयता हेतु ऐसा होना अपरिहार्य है ।
| + | ==== प्रभूत उत्पादन ==== |
| + | सर्वजन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संसाधन चाहिये । संसाधनों की उपलब्धता वस्तुओं के उत्पादन पर निर्भर करती है। अतः उत्पादन प्रभूत मात्रा में होना चाहिये । उत्पादन हेतु तीन बातों की आवश्यकता होती है । |
| + | * प्राकृतिक स्रोत: भूमि की उर्वरता, जलवायु की अनुकूलता, खानों खदानों में प्राप्त खनिज, अरण्यों में प्राप्त वनस्पति, समुद्र में प्राप्त रत्न आदि । |
| + | * मानवीय कौशल: मनुष्य की बुद्धि और हाथ की निर्माण क्षमता । |
| + | * विनियोग का विवेक: उत्पादित सामग्री का वितरण, रखरखाव, गुणवत्ता, उपभोग आदि की समझ । |
| + | एक बात ध्यान में रखने योग्य है। आवश्यकताओं के सन्दर्भ में ही प्रभूतता का विचार किया जा सकता है, इच्छाओं के सन्दर्भ में नहीं । क्यों कि जैसा पूर्व में कहा गया है आवश्यकतायें सीमित होती हैं और शीघ्र संतुष्ट हो जाती हैं। मनुष्य भूख होती है उतना ही खाता है, एक साथ एक ही वस्त्र पहनता है आदि, परन्तु इच्छायें असीमित होती हैं, कभी भी पूरणीय नहीं होती । |
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− | ''... २. उत्पादन, व्यवसाय और अर्थार्जन''
| + | इस दृष्टि से मनःसंयम अर्थव्यवस्था के लिये बहुत बड़ा सहायक और प्रेरक तत्त्व है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर हमें economy of abundance - प्रभूतता का अर्थशास्त्र की संकल्पना को प्रस्थापित और प्रतिष्ठित करना चाहिये । वर्तमान अर्थशास्त्र economy of want - अभाव का अर्थशास्त्र है । वही बाजार को चालना देता है, उत्पादन को प्रभावित करता है, वितरण को नियंत्रित करता है और कीमतों का निर्धारण करता है। इसके स्थान पर प्रभूतता का अर्थशास्त्र प्रतिष्ठित होने से स्थितियाँ बहुत बदल जायेंगी । |
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− | ''चीजों के उत्पादन हेतु भिन्न भिन्न व्यवसायों की''
| + | ==== उत्पादन, व्यवसाय और अर्थार्जन ==== |
| + | चीजों के उत्पादन हेतु भिन्न भिन्न व्यवसायों की निश्चिति होती है। इसे उत्पादन को व्यवस्थित करना कह सकते हैं । उत्पादन के साथ मनुष्यों का सम्बन्ध है। अतः हर मनुष्य का उत्पादन में सहभागी होना आवश्यक है। उत्पादन उपभोग के लिये होता है। इसलिये समाज की आवश्यकताओं ने उत्पादन का निर्धारण और नियमन करना चाहिये । |
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− | ''इस दृष्टि es are st Sa et FT pa होती है । इसे उत्पादन को व्यवस्थित करना कह''
| + | इस नियमन का स्वरूप इस प्रकार बनेगा - |
| + | * समाज की आवश्यकता हेतु उत्पादन होना चाहिये। |
| + | * उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्यवस्था होनी चाहिये। |
| + | वास्तव में किसी भी वस्तु का निर्माण इसीलिये होता है क्यों कि उसकी इच्छा या आवश्यकता होती है । जब यह निर्माण स्वयं के लिये व्यक्ति स्वयं ही बनाता है तब तो समस्या पैदा नहीं होती, परंतु एक की आवश्यकता के लिये दूसरा बनाता है तब प्रश्न पैदा होते हैं । जब दूसरा बनाता है तब एक को वस्तु मिलती है, दूसरे को पैसा । इसलिये अर्थार्जन और आवश्यकता ये दोनों बातें उत्पादन के साथ जुड जाती हैं । अब प्रश्न यह होता है कि उत्पादन अर्थार्जन के लिये करना या आवश्यकता की पूर्ति के लिये। यदि अर्थार्जन को ही प्राथमिकता दी जायेगी तो अनावश्यक वस्तु का भी उत्पादन होगा, आवश्यक वस्तु का नहीं होगा। अनावश्यक वस्तु का उत्पादन करने पर उन्हें कोई लेने वाला नहीं होगा तो उत्पादन बेकार जायेगा, अर्थार्जन भी नहीं होगा । फिर अनावश्यक वस्तु के लिये कृत्रिम रूप से आवश्यकता निर्माण की जायेगी। इससे मनुष्य की बुद्धि, मन, शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और समाजजीवन में अनवस्था निर्माण होगी । आज यही हो रहा है। उत्पादक अर्थर्जन का हेतु मन में रखकर उत्पादन करता है और ग्राहक को येन केन प्रकारेण उसे खरीदने पर विवश करता है । |
| + | * उत्पादन में हर व्यक्ति की सहभागिता होनी चाहिये । यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है। उत्पादन हेतु जो भी व्यवसाय होते हैं उनमें जुडे हर व्यक्ति का स्थान सहभागिता का होना चाहिये । यह सहभागिता स्वामित्वयुक्त होनी चाहिये, नौकरी करने की नहीं । व्यवसाय के स्वामित्व में सहभागिता होने से व्यक्ति का सम्मान, गौरव और स्वतंत्रता बनी रहती है । ये व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक आवश्यकतायें होती हैं। स्वामित्व के भाव के कारण उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादित वस्तु के साथ भी आत्मीयता का भाव आता है और उत्पादन के श्रम में आनंद का अनुभव होता है । ये सब सुसंस्कृत जीवन के निर्देशांक हैं । |
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− | ''निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है । सकते हैं । उत्पादन के साथ मनुष्यों का सम्बन्ध है । अतः''
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− | ''१. प्रभूत उत्पादन हर मनुष्य का उत्पादन में सहभागी होना आवश्यक है ।''
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− | ''उत्पादन उपभोग के लिये होता है । इसलिये समाज की''
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− |
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− | ''सर्वजन की की आवश्यकताओं की पूर्ति बम लिये संसाधन आवश्यकताओं ने उत्पादन का निर्धारण और नियमन करना''
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− |
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− | ''चाहिये । संसाधनों की उपलब्धता वस्तुओं के उत्पादन पर चाहिये ।''
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− |
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− | ''निर्भर करती है । अतः उत्पादन प्रभूत मात्रा में होना चाहिये ।''
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− |
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− | ''बातों इस नियमन का स्वरूप इस प्रकार बनेगा -''
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− |
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− | ''उत्पादन हेतु तीन बातों की आवश्यकता होती है ।''
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− |
| |
− | ''०... समाज की आवश्यकता हेतु उत्पादन होना चाहिये ।''
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− |
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− | ''प्राकृतिक स्रोत : भूमि की उर्वरता, जलवायु की... ०... उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्यवस्था''
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− |
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− | ''अनुकूलता, खानों खदानों में प्राप्त खनिज, अरण्यों में प्राप्त होनी चाहिये ।''
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− | ''वनस्पति, समुद्र में प्राप्त रत्न आदि । वास्तव में किसी भी वस्तु का निर्माण इसीलिये होता''
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− | ''मानवीय कौशल : मनुष्य की बुद्धि और हाथ की... है क्यों कि उसकी इच्छा या आवश्यकता होती है । जब यह''
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− | ''निर्माणक्षमता । निर्माण स्वयं के लिये व्यक्ति स्वयं ही बनाता है तब तो''
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− | ''विनियोग का विवेक : उत्पादित सामग्री का वितरण, ... समस्या पैदा नहीं होती, परंतु एक की आवश्यकता के लिये''
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− | ''रखरखाव, गुणवत्ता, उपभोग आदि की समझ । दूसरा बनाता है तब प्रश्न पैदा होते हैं । जब दूसरा बनाता है''
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− | ''एक बात ध्यान में रखने योग्य है । आवश्यकताओं के... ब एक को वस्तु मिलती है, दूसरे को पैसा । इसलिये''
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− | ''सन्दर्भ में ही प्रभूतता का विचार किया जा सकता है, अधथर्जिन और आवश्यकता ये दोनों बातें उत्पादन के साथ''
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− | ''इच्छाओं के सन्दर्भ में नहीं । जुड़ जाती हैं । अब प्रश्न यह होता है कि उत्पादन अर्थार्जन''
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− | ''क्यों कि जैसा पूर्व में कहा गया है आवश्यकता्ें के लिये करना या आवश्यकता की पूर्ति के लिये । यदि''
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− | ''सीमित होती हैं और शीघ्र संतुष्ट हो जाती हैं । मनुष्य भूख अर्थार्जन को ही प्राथमिकता दी जायेगी तो अनावश्यक वस्तु''
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− | ''होती है उतना ही खाता है, एक साथ एक ही वख्र पहनता. भी उत्पादन होगा, आवश्यक वस्तु का नहीं होगा ।''
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− | ''है... आदि, परन्तु इच्छायें असीमित होती हैं, कभी भी. नविश्यक वस्तु का उत्पादन करने पर उन्हें कोई लेने वाला''
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− | ''पूरणीय नहीं होती । ः नहीं होगा तो उत्पादन बेकार जायेगा, Basia भी नहीं''
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− | ''यम अर्थव्यवस्था होगा । फिर अनावश्यक वस्तु के लिये कृत्रिम रूप से''
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− | ''इस दृष्टि से मनःसंयम अर्थव्यवस्था के लिये जईत जड़ी. आवश्यकता निर्माण की जायेगी । इससे मनुष्य की बुद्धि,''
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− | ''सहायक और प्रेरक तत्त्व है । इस तथ्य को ध्यान में रखकर''
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− | ''हमें , मन, शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और समाजजीवन में''
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− | ''ं “economy of abundance - S4Y{ddl Al अर्थशास्त्र' की अनवस्था निर्माण होगी । आज यही A a रहा है । उत्पादक''
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− | ''संकल्पना को प्रस्थापित और प्रतिष्ठित करना चाहिये । अधथर्जिन का हेतु मन में रखकर उत्पादन करता है और ग्राहक''
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− | ''वर्तमान अर्थशास्त्र economy of want - AHA का को येन केन प्रकारेण उसे खरीदने पर विवश करता है ।''
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− | ''अर्थशास्त्र है । वही बाजार को चालना देता है, उत्पादन को... ०». उत्पादन में हर व्यक्ति की सहभागिता होनी''
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− | ''प्रभावित करता है, वितरण को नियंत्रित करता है और कीमतों चाहिये ।''
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− | ''का निर्धारण करता है। इसके स्थान पर प्रभूतता का''
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− | ''स्थितियां aah यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है । उत्पादन हेतु जो''
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− | ''अर्थशास्त्र प्रतिष्ठित होने से ँ बहुत बदल जायेंगी ।''
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− | ''भी व्यवसाय होते हैं उनमें जुडे हर व्यक्ति का स्थान सहभागिता''
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− | ''रद्द''
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− | का होना चाहिये । यह सहभागिता स्वामित्वयुक्त होनी चाहिये, नौकरी करने की नहीं । व्यवसाय के स्वामित्व में सहभागिता होने से व्यक्ति का सम्मान, गौरव और स्वतंत्रता बनी रहती है । ये व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक आवश्यकतायें होती हैं। स्वामित्व के भाव के कारण उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादित वस्तु के साथ भी आत्मीयता का भाव आता है और उत्पादन के श्रम में आनंद का अनुभव होता है । ये सब सुसंस्कृत जीवन के निर्देशांक हैं ।
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| * '''उत्पादन में सहभागिता हेतु व्यक्ति स्वयं सक्षम होना चाहिये ।''' | | * '''उत्पादन में सहभागिता हेतु व्यक्ति स्वयं सक्षम होना चाहिये ।''' |
| * किसी भी व्यक्ति को परावंलबी बनना अच्छा भी नहीं लगता, और उसने परावलंबी होना भी नहीं चाहिये । अपने और दूसरों के निर्वाह हेतु किसी न किसी प्रकार से उत्पादन करने की क्षमता हर व्यक्ति में होनी चाहिये । | | * किसी भी व्यक्ति को परावंलबी बनना अच्छा भी नहीं लगता, और उसने परावलंबी होना भी नहीं चाहिये । अपने और दूसरों के निर्वाह हेतु किसी न किसी प्रकार से उत्पादन करने की क्षमता हर व्यक्ति में होनी चाहिये । |
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| === उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण === | | === उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण === |
− | उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से | + | उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से: |
− | # उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना अति आवश्यक है । यह अन्तर जितनी मात्रा में बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है, उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव, अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम का, धन का विनियोग करना पड़ता है । उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वस्त्र, लकड़ी, स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर दूर तक फैले हुए हों तो परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव, विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं । ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास (pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं । भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है । आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition), सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र - यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते हैं। इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है । वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये १०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक महँगा होता है ।
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− | # ''भारत में लंका के... हवस नहीं होना चाहिये । इस दृष्टि से व्यवसाय में सहभागी''
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− | ''अथवा बसरा के मोती अधिक महँगे होते हैं । यह महँगा होना... स्वामित्व होना अपेक्षित है । विचार करने पर ध्यान में आता''
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− | | |
− | ''स्वाभाविक है । परन्तु गुजरात के गाँव में बनने वाला कपडे... है कि परिवारगत व्यवसाय और सहभागी स्वामित्व एक ही''
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− | | |
− | ''धोने का चूर्ण जिसका उत्पादक मूल्य बहुत साधारण है, जो... सिक्के के दो पहलू हैं ।''
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− | ''पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर अति साधारण''
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− | | |
− | ''माना जायेगा वह यदि भारत के कोने कोने में बिकने हेतु''
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− | ''जायेगा तो उसका मूल्य बीस गुना बढ जायगा । यह मूल्य''
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− | | |
− | ''अनुत्पादक है ।''
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− | | |
− | ''आज की अर्थव्यवस्था में परिवहन, विज्ञापन, आडत,''
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− | | |
− | ''पैकिंग आदि अनुत्पादक बातें हैं जो अर्थव्यवस्था पर बोझ''
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− | | |
− | ''बनकर उसे आभासी बनाती है ।''
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− | | |
− | ''जिस देश में ठोस की अपेक्षा आभासी''
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− | ''अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है वह देश''
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− | | |
− | ''उतनी ही अधिक मात्रा में दरिद्र होता है ।''
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− | | |
− | ''(४) उत्पादन में मनुष्य और यन्त्र''
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− | ''सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में और वितरण व्यवस्था में''
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− | | |
− | ''मनुष्य मुख्य है इसलिये सम्पूर्ण रचना मनुष्य et और''
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− | | |
− | ''मनुष्य आधारित होना अपेक्षित है । यन्त्र मनुष्य द्वारा निर्मित''
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− | | |
− | ''होते हैं और मनुष्य के सहायक होते हैं । उनकी भूमिका''
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− | ''सहायक की ही होनी चाहिये । इसलिये सारे के सारे यन्त्र''
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− | | |
− | ''मनुष्य के अधीन रहें और मनुष्य की सर्वोपरिता बनी रहे इस''
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− | ''प्रकार की व्यवसाय रचना होनी चाहिये ।''
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− | ''यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार होते हैं ।''
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− | ''उनको काम नहीं मिलता है । भावात्मकता कम होती है ।''
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− | ''(२) उत्पादन का 'विकेन्द्रीकरण अधीनता बढती है । कौशलों का हास होने लगता है ।''
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− | ''कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी चीजों के इसके और भी परिणाम eid & fare SH side effects''
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− | ''और कह सकते हैं ।''
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− | ''sere मी व्यवस्था स्थनिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये । जैसे जैसे यंत्र बढ़ते हैं बडे बडे कारखानों की''
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− | ''आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या''
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− | ''०. उत्पादन के लिये मानवश्रम सुलभ होगा । जो जाते हैं उन्हे''
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− | ''० लागत कम होगी । कम होती है परन्तु जो भी मनुष्य काम करने जाते हैं उन्हें घर''
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− | ''आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें छोड़कर व्यवसाय केन्द्र पर जाना पड़ता है । परिवहन की''
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− | ''०. स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो .''
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− | ''जयेंगी । समस्या भी बढती है । दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है । यंत्र''
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− | ''और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है ।''
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− | ''(३) उत्पादक का स्वामित्व मनुष्य स्वाधीन नहीं रहता, यंत्र के अधीन और व्यवस्था का''
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− | ''दास बन जाता है । इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य''
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− | ''पर विपरीत प्रभाव पडता है । मनुष्य शुष्क, कठोर, असन्तुष्ट''
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− | ''मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है । उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय''
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− | ''हालत में सम्भव होनी चाहिये । अतः मनुष्य को व्यवसाय बातों में दिलासा खोजता है । isi नं''
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− | ''का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहें तो इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो''
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− | ''विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में नौकरियाँ कम से कम और... जा खर्च होती है उससे FEA बड़ी पर्यावरणीय असन्तुलन''
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− | ''स्वामित्व की मात्रा अधिक से अधिक होनी चाहिये। . दा होता है । इससे तो संपूर्ण सृष्टि का जीवन संकट में''
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− | ''व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार... है।''
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− | ''को अपने योगक्षेम हेतु अर्थार्जन दोनों समाविष्ट हैं । इसकी... ७... व्यवसाय, उत्पादन और पर्यावरण''
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− | ''व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवनसिद्धान्त बताती''
| + | ==== उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना अति आवश्यक है ==== |
| + | यह अन्तर जितनी मात्रा में बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है, उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव, अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम का, धन का विनियोग करना पड़ता है । उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वस्त्र, लकड़ी, स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर दूर तक फैले हुए हों तो परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव, विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं । ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास (pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं। भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है । आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition), सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र - यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते हैं। इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है । वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये १०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक महँगा होता है। |
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− | ''यह एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य''
| + | भारत में लंका के अथवा बसरा के मोती अधिक महँगे होते हैं । यह महँगा होना स्वाभाविक है। परन्तु गुजरात के गाँव में बनने वाला कपडे धोने का चूर्ण जिसका उत्पादक मूल्य बहुत साधारण है, जो पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर अति साधारण माना जायेगा वह यदि भारत के कोने कोने में बिकने हेतु जायेगा तो उसका मूल्य बीस गुना बढ जायगा । यह मूल्य अनुत्पादक है । आज की अर्थव्यवस्था में परिवहन, विज्ञापन, आडत, पैकिंग आदि अनुत्पादक बातें हैं जो अर्थव्यवस्था पर बोझ बनकर उसे आभासी बनाती है । जिस देश में ठोस की अपेक्षा आभासी अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है वह देश उतनी ही अधिक मात्रा में दरिद्र होता है । |
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− | ''है । विकेन्ट्रित उत्पादन व्यवस्था का यह बहुत बड़ा लाभ है ।''
| + | ==== उत्पादन का विकेन्द्रीकरण ==== |
| + | कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी चीजों के उत्पादन की व्यवस्था स्थानिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये । उत्पादन विकेन्द्रित होने से |
| + | * उत्पादन के लिये मानवश्रम सुलभ होगा । |
| + | * लागत कम होगी । |
| + | * स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो जायेंगी । |
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− | ''२७०''
| + | ==== उत्पादक का स्वामित्व ==== |
| + | यह एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य है। विकेन्द्रित उत्पादन व्यवस्था का यह बहुत बड़ा लाभ है । मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है। उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर हालत में सम्भव होनी चाहिये । अत: मनुष्य को व्यवसाय का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहे तो विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में नौकरियाँ कम से कम और स्वामित्व की मात्रा अधिक से अधिक होनी चाहिये । व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार को अपने योगक्षेम हेतु अर्थार्जन दोनों समाविष्ट हैं। इसकी व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का हास नहीं होना चाहिये । इस दृष्टि से व्यवसाय में सहभागी स्वामित्व होना अपेक्षित है । विचार करने पर ध्यान में आता है कि परिवारगत व्यवसाय और सहभागी स्वामित्व एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । |
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− | ............. page-287 .............
| + | ==== उत्पादन में मनुष्य और यन्त्र ==== |
| + | सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में और वितरण व्यवस्था में मनुष्य मुख्य है इसलिये सम्पूर्ण रचना मनुष्य केन्द्री और मनुष्य आधारित होना अपेक्षित है । यन्त्र मनुष्य द्वारा निर्मित होते हैं और मनुष्य के सहायक होते हैं। उनकी भूमिका सहायक की ही होनी चाहिये । इसलिये सारे के सारे यन्त्र मनुष्य के अधीन रहें और मनुष्य की सर्वोपरिता बनी रहे इस प्रकार की व्यवसाय रचना होनी चाहिये । यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार होते हैं । उनको काम नहीं मिलता है । भावात्मकता कम होती है। अधीनता बढती है । कौशलों का हास होने लगता है। इसके और भी परिणाम होते हैं जिन्हें हम side effects कह सकते हैं । |
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− | है । इस दृष्टि से मनुष्य का अन्य मनुष्यों से तो सम्बन्ध है ही, साथ ही प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पंचभौतिक सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध है । कहा गया है कि परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है । इस कारण से उसे अपने से कनिष्ठ सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण और पोषण का दायित्व दिया गया है । | + | जैसे जैसे यंत्र बढते हैं बडे बडे कारखानों की आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या कम होती है परन्तु जो भी मनुष्य काम करने जाते हैं उन्हें घर छोड़कर व्यवसाय केन्द्र पर जाना पड़ता है। परिवहन की समस्या भी बढती है। दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है। यंत्र और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है। मनुष्य स्वाधीन नहीं रहता, यंत्र के अधीन और व्यवस्था का दास बन जाता है । इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पडता है। मनुष्य शुष्क, कठोर, असन्तुष्ट बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय बातों में दिलासा खोजता है। इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो ऊर्जा खर्च होती है उससे बहुत बड़ा पर्यावरणीय असन्तुलन भी पैदा होता है । इससे तो संपूर्ण सृष्टि का जीवन संकट में पड़ जाता है । |
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− | उत्पादन और व्यवसाय में इस दायित्व का स्मरण रहना आवश्यक है । इस दृष्टि से निम्न बिन्दु विचारणीय हैं । | + | === व्यवसाय, उत्पादन ओर पर्यावरण === |
| + | भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवन सिद्धान्त बताती है। इस दृष्टि से मनुष्य का अन्य मनुष्यों से तो सम्बन्ध है ही, साथ ही प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पंचभौतिक सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध है । कहा गया है कि परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। इस कारण से उसे अपने से कनिष्ठ सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण और पोषण का दायित्व दिया गया है। उत्पादन और व्यवसाय में इस दायित्व का स्मरण रहना आवश्यक है । इस दृष्टि से निम्न बिन्दु विचारणीय हैं । |
| # किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति का दोहन करना, शोषण नहीं । प्रकृति का शोषण करना भावात्मक दृष्टि से हिंसा है, बौद्धिक दृष्टि से अदूरदर्शिता और अन्याय है, व्यावहारिक दृष्टि से घाटे का सौदा है । इसके उदाहरण देखने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। भूमि हमारी सर्व प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है परन्तु रासायनिक खाद का प्रयोग करने के कारण उसकी उर्वरता कम होती है, जो धान्य-फल-सब्जी उगते हैं उसकी पोषकता कम होती है । कालानुक्रम से भूमि बंजर बन जाती है, धान्य का अभाव होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य खराब होता है और समाज दरिद्र बनता है । भूमि से पेट्रोलियम निकालने का उपक्रम भी इसी का उदाहरण है । जंगल काटकर कारखाने, बड़े बड़े मॉल, चौड़ी सडकें और आकाशगामी भवन बनाना भी इसी का उदाहरण है । | | # किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति का दोहन करना, शोषण नहीं । प्रकृति का शोषण करना भावात्मक दृष्टि से हिंसा है, बौद्धिक दृष्टि से अदूरदर्शिता और अन्याय है, व्यावहारिक दृष्टि से घाटे का सौदा है । इसके उदाहरण देखने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। भूमि हमारी सर्व प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है परन्तु रासायनिक खाद का प्रयोग करने के कारण उसकी उर्वरता कम होती है, जो धान्य-फल-सब्जी उगते हैं उसकी पोषकता कम होती है । कालानुक्रम से भूमि बंजर बन जाती है, धान्य का अभाव होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य खराब होता है और समाज दरिद्र बनता है । भूमि से पेट्रोलियम निकालने का उपक्रम भी इसी का उदाहरण है । जंगल काटकर कारखाने, बड़े बड़े मॉल, चौड़ी सडकें और आकाशगामी भवन बनाना भी इसी का उदाहरण है । |
| # प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने वाले किसी भी प्रकार के उत्पादन तन्त्र को अनुमति नहीं होनी चाहिये । जब प्रकृति का दोहन किया जाता है तब प्रकृति अपने आप संसाधनों का सृजन कर क्षतिपूर्ति कर देती है और सन्तुलन बनाये रखती है । परन्तु जब शोषण होता है तब प्रकृति असहाय हो जाती है । जब संतुलन बिगड़ जाता है तब अभाव, असंतोष और अस्वास्थ्य का चक्र शुरू हो जाता है । | | # प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने वाले किसी भी प्रकार के उत्पादन तन्त्र को अनुमति नहीं होनी चाहिये । जब प्रकृति का दोहन किया जाता है तब प्रकृति अपने आप संसाधनों का सृजन कर क्षतिपूर्ति कर देती है और सन्तुलन बनाये रखती है । परन्तु जब शोषण होता है तब प्रकृति असहाय हो जाती है । जब संतुलन बिगड़ जाता है तब अभाव, असंतोष और अस्वास्थ्य का चक्र शुरू हो जाता है । |
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| === व्यवसाय, वितरण, व्यक्ति, परिवार, समाज और राज्य === | | === व्यवसाय, वितरण, व्यक्ति, परिवार, समाज और राज्य === |
− | ''व्यवसाय एवं वितरण के सम्बन्ध में अब तक चर्चा की है । व्यक्ति की भूमिका व्यावसायिक कुशलता प्राप्त करने की है। परिवार के पास व्यवसाय का स्वामित्व होना चाहिये ।''
| + | व्यवसाय एवं वितरण के सम्बन्ध में अब तक चर्चा की है । व्यक्ति की भूमिका व्यावसायिक कुशलता प्राप्त करने की है। परिवार के पास व्यवसाय का स्वामित्व होना चाहिये । परन्तु सम्पूर्ण तन्त्र में समाज की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । व्यवसायतन्त्र का नियन्त्रण और नियमन समाज के अधीन होना चाहिये, राज्य के अधीन नहीं । उत्पादन के एवं व्यापार के क्षेत्र में राज्य को नहीं पडना चाहिये । मूल्यनिर्धारण, वितरण व्यवस्था, उत्पादन आदि में वर्णों की, व्यवसाय समूहों की अपनी व्यवस्था होनी चाहिये । जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार से अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम होनी चाहिये । शस्त्रों, अन्य युद्ध सामग्री एवं इसी प्रकार की अन्य सामग्री के उत्पादन, संग्रह एवं विनियोग की व्यवस्था राज्य के अधीन हो सकती है । अन्यथा समाज ही नियमन करेगा । |
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− | ''परन्तु सम्पूर्ण तन्त्र में समाज की भूमिका... भिखारी ।''
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− | ''महत्त्वपूर्ण है । अंग्रेजों के शासनकाल का यही मुख्य लक्षण है ।''
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− | ''व्यवसायतन्त्र का नियन्त्रण और नियमन समाज के... अंग्रेजों से पूर्व भारत में राजाओं का शासन था । बीच बीच''
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− | ''अधीन होना चाहिये, राज्य के अधीन नहीं । में कहीं कहीं गणतंत्र भी था । परन्तु भारत के सुदीर्घ इतिहास''
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− | ''उत्पादन के एवं व्यापार के क्षेत्र में राज्य को नहीं पड़ना... में राजा ही राज्य करता था । राजा अच्छे या बुरे होते थे ।''
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− | ''चाहिये । मूल्यनिर्धारण, वितरण व्यवस्था, उत्पादन आदि में... तानाशाह भी बन जाते थे । विलासी, दुश्चरित्र, निर्वीय भी बन''
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− | ''वर्णों की, व्यवसाय समूहों की अपनी व्यवस्था होनी चाहिये । ..... जाते थे । अधिक करसंपादन करके प्रजा का शोषण भी करते''
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− | ''जिस प्रकार समाजन्यवस्था की मूल इकाई परिवार है... थे । परन्तु व्यापार कभी भी नहीं करते थे ।''
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− | ''उस प्रकार से अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम होनी केवल अंग्रेज शासन व्यापारियों का शासन था । उस''
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− | ''चाहिये । दृष्टि से देखें तो साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद आदि सब''
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− | ''wel, अन्य युद्ध सामग्री एवं इसी प्रकार की अन्य... अर्थव्यवस्था पर. आधारित शासनव्यवस्था है। यह''
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− | ''सामग्री के उत्पादन, संग्रह एवं विनियोग की व्यवस्था राज्य... समाजव्यवस्था के लिये अत्यन्त घातक है । राज्य और अर्थ''
| + | === कर, संग्रह एवं अनुदान === |
| + | राज्य की भूमिका विशेष समय पर होगी । |
| + | # शासन, प्रशासन, न्याय, सैन्य आदि के लिये राज्य को जो धन चाहिये उसके लिये कर (tax) व्यवस्था होती है। करव्यवस्था को राज्यसंचालन में समाज की सहभागिता का स्वरूप देना चाहिये । करव्यवस्था भी प्रजा के शोषण के नहीं अपितु दोहन के सिद्धान्त पर बननी चाहिये । |
| + | # अकाल, अतिदृष्टि जैसी प्राकृतक आपदाओं के समय में प्रजा को अन्न प्राप्त हो सके इस दृष्टि से राज्य ने धान्य का संग्रह करना अपेक्षित है । वह धान्य व्यापार के लिये नहीं, निःशुल्क वितरण के लिये ही होगा । राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिये । राज्य व्यापार करने लगता है तब अर्थव्यवस्था में घोर संकट पैदा होते हैं। एक लोकोक्ति है, 'जहाँ राजा व्यापारी वहाँ प्रजा भिखारी । अंग्रेजों के शासनकाल का यही मुख्य लक्षण है। अंग्रेजों से पूर्व भारत में राजाओं का शासन था। बीच बीच में कहीं कहीं गणतंत्र भी था। परन्तु भारत के सुदीर्घ इतिहास में राजा ही राज्य करता था। राजा अच्छे या बुरे होते थे। तानाशाह भी बन जाते थे। विलासी, दुश्नरित्र, निर्वीय भी बन जाते थे। अधिक करसंपादन करके प्रजा का शोषण भी करते थे। परन्तु व्यापार कभी भी नहीं करते थे। केवल अंग्रेज शासन व्यापारियों का शासन था। उस दृष्टि से देखें तो साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद आदि सब अर्थव्यवस्था पर आधारित शासनव्यवस्था है। यह समाजव्यवस्था के लिये अत्यन्त घातक है। राज्य और अर्थ दोनों एकदूसरे के अधीन नहीं होने चाहिये। राजा का काम, शासन का काम रक्षण, सहायता और अनुकूलता निर्माण करने का है। |
| + | # ज्ञानसाधना, विद्यादान, सांस्कृतिक अनुष्ठान, रुग्णसेवा, औषध योजना आदि कार्य अबाधरूप से चले इस दृष्टि से राज्य ने दान-अनुदान की व्यवस्था करनी होती है। प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही यह व्यवस्था होती है । इसलिये इन सब कार्यों -विद्यादानादि- पर राज्य का नियन्त्रण का अधिकार नहीं होता । |
| + | # सज्जन परित्राण एवं दुष्टनिर्दालन हेतु राज्य को जिन संसाधनों की आवश्यकता पडती है वह प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही प्राप्त होती है । करविधान भी दोहनसिद्धान्त से ही होता है, शोषणसिद्धान्त से नहीं । इसमें अध्ययन, अनुसन्धान के साथ साथ उद्योजकों तथा राज्य दोनों का प्रबोधन करना भी आवश्यक है । |
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− | ''के अधीन हो सकती है । अन्यथा समाज ही नियमन करेगा । दोनों एकदूसरे के अधीन नहीं होने चाहिये । राजा का काम,''
| + | == इतिहास == |
| + | इतिहास को हम राजकीय इतिहास के रूप में ही पढ़ाते हैं। शासन, प्रशासन, राजनीति आदि हमारे लिये इतने महत्त्वपूर्ण मामले हो गये हैं कि इतिहास इसी से बनता है ऐसा हमें लगता है। आज भी सारी सत्ता शासन और प्रशासन के ही हाथ में हमने दे दी है। अथवा ब्रिटिश शासन ने समाज की स्वायत्तता का भंग कर सत्ता अपने हाथ में ले ली। तबसे हमारी मानसिकता धीरे धीरे शासनकेन्द्रित अर्थात् राज्यकेंद्रित बन गई है। राजाओं या शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय का वर्णन करना हमारे लिये इतिहास है । भारतीय ज्ञानपरंपरा में महाभारत को और पुराणों को इतिहास कहा गया है । आज इनके सामने बड़ी आपत्ति उठाई जा रही है। इन्हें काल्पनिक कहा जा रहा है। भारतीय विद्वान इन्हें इतिहास के नाते प्रस्थापित कर ही नहीं पा रहे हैं क्योंकि इतिहास की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा को स्वीकार कर अपने ग्रन्थों को लागू करने से वे इतिहास ग्रंथ सिद्ध नहीं होते हैं । एक बहुत ही छोटा तबका इन्हें इतिहास मान रहा है परन्तु विद्वतक्षेत्र के मुख्य प्रवाह में अभी भी ये धर्मग्रंथ हैं, इतिहास नहीं । इतिहास की भारतीय परिभाषा है{{Citation needed}}<blockquote>धर्मार्थिकाममो क्षाणाम् उपदेशसमन्वितम् ।</blockquote><blockquote>पुरावृत्तं कथारूप॑ इतिहासं प्रचक्षते ।।</blockquote>अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का उपदेश जिसमें मिलता है, जो पूर्व में हो गया है, जो कथा के रूप में बताया गया है वह इतिहास है । इतिहास पढ़ने का प्रयोजन स्पष्ट है । वह मनुष्य को सही जीवन जीने का मार्गदर्शन करने वाला होना चाहिए । इस दृष्टि से प्रेरक चरित्र और प्रेरक घटनाओं का महत्त्व है । वह रोचक ढंग से बताया हुआ होना चाहिए । उदाहरण के लिये{{Citation needed}} “रामादिवत् वर्तितव्यं न तु रावणादीवत्" अर्थात राम आदि की तरह व्यवहार करना चाहिए, रावण आदि की तरह नहीं ऐसा उपदेश ही इतिहास का लक्ष्य है । |
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− | ''९... कर, संग्रह एवं अनुदान शासन का काम रक्षण, सहायता और अनुकूलता निर्माण''
| + | इसलिये सांस्कृतिक इतिहास राजाओं का नहीं अपितु संस्कृति का इतिहास है । सांस्कृतिक परम्परा का निरूपण करना इतिहास का मुख्य लक्ष्य है। इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार के विषय उसमें आना अपेक्षित है: |
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− | ''राज्य की भूमिका विशेष समय पर होगी । करने का है । सांस्कृतिक''
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− | ''3. ज्ञानसाधना, विद्यादान, सांस्कृतिक अनुष्ठान, रुग्णसेवा,''
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− | ''१, शासन, प्रशासन, न्याय, सैन्य आदि के लिये राज्य को''
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− | ''जो धन चाहिये उसके लिये कर (६००0 व्यवस्था होती औषध योजना आदि कार्य अबाधरूप से चले इस दृष्टि''
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− | ''है। करव्यवस्था को राज्यसंचालन में समाज की से राज्य ने दान-अनुदान की व्यवस्था करनी होती है ।''
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− | ''सहभागिता का स्वरूप देना चाहिये । प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही यह व्यवस्था होती''
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− | ''करव्यवस्था भी प्रजा के शोषण के नहीं अपितु दोहन uv इसलिये इन सब कार्यों - विद्यादानादि - पर''
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− | ''के सिद्धान्त पर बननी चाहिये । राज्य का नियन्त्रण का अधिकार नहीं होता ।''
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− | ''४... सज्जन परित्राण एवं दुष्टनिर्दालन हेतु राज्य को जिन''
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− | ''में प्रजा को अन्न प्राप्त हो सके इस दृष्टि से राज्य ने संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है वह प्रजा के द्वारा''
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− | ''धान्य का संग्रह करना अपेक्षित है । वह धान्य व्यापार दिये गये कर से ही प्राप्त होती है ।''
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− | | |
− | ''के लिये नहीं, निःशुल्क वितरण के लिये ही होगा । करविधान भी दोहनसिद्धान्त से ही होता है,''
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− | | |
− | ''राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिये । राज्य शोषणसिद्धान्त से नहीं । उद्योजकों''
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− | ''व्यापार करने लगता है तब अर्थव्यवस्था में घोर संकट पैदा इसमें अध्ययन, अनुसन्धान के साथ साथ उद्योजकों''
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− | ''होते हैं । एक लोकोक्ति है, जहाँ राजा व्यापारी वहाँ प्रजा तथा राज्य दोनों का प्रबोधन करना भी आवश्यक है ।''
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− | | |
− | ''२... अकाल, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय''
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− | | |
− | == ''इतिहास'' ==
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− | ''इतिहास को हम राजकीय इतिहास के रूप में ही... प्रशासन के ही हाथ में हमने दे दी है । अथवा ब्रिटिश''
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− | ''पढ़ाते हैं । शासन, प्रशासन, राजनीति आदि हमारे लिये. शासन ने समाज की स्वायत्तता का भंग कर सत्ता अपने''
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− | ''इतने महत्त्वपूर्ण मामले हो गये हैं कि इतिहास इसीसे बनता. हाथ में ले ली । तबसे हमारी मानसिकता धीरे धीरे''
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− | ''है ऐसा हमें लगता है । आज भी सारी सत्ता शासन और. शासनकेन्द्रित अर्थात् राज्यकेंद्रित बन गई है । राजाओं या''
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− | ''ROR''
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− | ............. page-289 .............
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− | शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय का वर्णन करना हमारे लिये इतिहास है । भारतीय ज्ञानपरंपरा में महाभारत को और पुराणों को इतिहास कहा गया है । आज इनके सामने बड़ी आपत्ति उठाई जा रही है। इन्हें काल्पनिक कहा जा रहा है। भारतीय विद्वान इन्हें इतिहास के नाते प्रस्थापित कर ही नहीं पा रहे हैं क्योंकि इतिहास की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा को स्वीकार कर अपने ग्रन्थों को लागू करने से वे इतिहास ग्रंथ सिद्ध नहीं होते हैं । एक बहुत ही छोटा तबका इन्हें इतिहास मान रहा है परन्तु विद्वतक्षेत्र के मुख्य प्रवाह में अभी भी ये धर्मग्रंथ हैं, इतिहास नहीं ।
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− | इतिहास की भारतीय परिभाषा है{{Citation needed}} <blockquote>धर्मार्थिकाममो क्षाणाम् उपदेशसमन्वितम् ।</blockquote><blockquote>पुरावृत्तं कथारूप॑ इतिहासं प्रचक्षते ।।</blockquote>अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का उपदेश जिसमें मिलता है, जो पूर्व में हो गया है, जो कथा के रूप में बताया गया है वह इतिहास है । इतिहास पढ़ने का प्रयोजन स्पष्ट है । वह मनुष्य को सही जीवन जीने का मार्गदर्शन करने वाला होना चाहिए । इस दृष्टि से प्रेरक चरित्र और प्रेरक घटनाओं का महत्त्व है । वह रोचक ढंग से बताया हुआ होना चाहिए । उदाहरण के लिये{{Citation needed}} “रामादिवत् वर्तितव्यं न तु रावणादीवत्" अर्थात राम आदि की तरह व्यवहार करना चाहिए, रावण आदि की तरह नहीं ऐसा उपदेश ही इतिहास का लक्ष्य है ।
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− | इसलिये सांस्कृतिक इतिहास राजाओं का नहीं अपितु संस्कृति का इतिहास है । सांस्कृतिक परम्परा का निरूपण करना इतिहास का मुख्य लक्ष्य है। इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार के विषय उसमें आना अपेक्षित है ... | |
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| धर्म की रक्षा हेतु किए गये कार्य जिनमें युद्ध, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में किए गये सृजन एवं अनुसन्धान, यज्ञकार्य, उत्सव आदि का समावेश होता है । उदाहरण के लिये कुंभ मेले का प्रारम्भ, वेद्कालीन दाशराज्ञ युद्ध, रामायण का युद्ध, श्रीमद्धगवद्दीता का उपदेश, भगवान शंकराचार्य का शास्त्रार्थ, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंदसिंह और शिवाजी महाराज के धर्मरक्षा के प्रयास, अठारहवीं शताब्दी का गोरक्षा आंदोलन ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में प्रेरक सिद्ध होते हैं । | | धर्म की रक्षा हेतु किए गये कार्य जिनमें युद्ध, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में किए गये सृजन एवं अनुसन्धान, यज्ञकार्य, उत्सव आदि का समावेश होता है । उदाहरण के लिये कुंभ मेले का प्रारम्भ, वेद्कालीन दाशराज्ञ युद्ध, रामायण का युद्ध, श्रीमद्धगवद्दीता का उपदेश, भगवान शंकराचार्य का शास्त्रार्थ, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंदसिंह और शिवाजी महाराज के धर्मरक्षा के प्रयास, अठारहवीं शताब्दी का गोरक्षा आंदोलन ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में प्रेरक सिद्ध होते हैं । |
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− | साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य आदि क्षेत्र की उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के आविष्कार, शास्त्रों और ज्ञानपरंपरा के महत्त्वपूर्ण आयाम आदि भी इतिहास का विषय बन सकते हैं । भारत द्वारा विदेशों पर किया हुआ सांस्कृतिक विजय इतिहास का महत्त्वपूर्ण विषय है । उसी प्रकार विश्व का सांस्कृतिक इतिहास, विश्व के सांस्कृतिक मंच पर भारत का स्थान एवं मानवता की प्रगति में भारत की भूमिका भी इतिहास का विषय बनता है । देश की सांस्कृतिक एकात्मता दर्शाने वाले सभी तत्त्व इतिहास के अध्ययन के विषय हैं । उदाहरण के लिये राज्यों की, भाषाओं की, तापमान की, खानपान की, रूपरंग की भिन्नता होने पर भी भारत सांस्कृतिक दृष्टि से हमेशा के लिये एक राष्ट्र रहा है इस बात पर सर्वाधिक बल देना आवश्यक है । संक्षेप में राजाओं और राजकुलों का नहीं अपितु राष्ट्र का, संस्कृति का, समाज का इतिहास सांस्कृतिक इतिहास है। | + | साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य आदि क्षेत्र की उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के आविष्कार, शास्त्रों और ज्ञानपरंपरा के महत्त्वपूर्ण आयाम आदि भी इतिहास का विषय बन सकते हैं। भारत द्वारा विदेशों पर किया हुआ सांस्कृतिक विजय इतिहास का महत्त्वपूर्ण विषय है । उसी प्रकार विश्व का सांस्कृतिक इतिहास, विश्व के सांस्कृतिक मंच पर भारत का स्थान एवं मानवता की प्रगति में भारत की भूमिका भी इतिहास का विषय बनता है । देश की सांस्कृतिक एकात्मता दर्शाने वाले सभी तत्त्व इतिहास के अध्ययन के विषय हैं। उदाहरण के लिये राज्यों की, भाषाओं की, तापमान की, खानपान की, रूपरंग की भिन्नता होने पर भी भारत सांस्कृतिक दृष्टि से हमेशा के लिये एक राष्ट्र रहा है इस बात पर सर्वाधिक बल देना आवश्यक है । संक्षेप में राजाओं और राजकुलों का नहीं अपितु राष्ट्र का, संस्कृति का, समाज का इतिहास सांस्कृतिक इतिहास है। |
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| अन्य विषयों की तरह इस विषय पर भी पाश्चात्य विद्वानों की इतिहासदृष्टि का गहरा साया पड़ा हुआ है। समयनिर्धारण एक ऐसी समस्या बनाई गई है जिसके आधार पर किसी भी बात को नकारा जा सकता है । वही मूलगत दोष है कि भारतीय ज्ञानधारा को अभारतीय मापदण्डों पर सही बताने के प्रयास करना ही विद्वतक्षेत्र अपना पुरुषार्थ का विषय मानता है। इससे उबरना होगा । अपने आपको या अन्य किसीको नकारने के स्थान पर अपना स्वयं के लिये और दूसरों का दूसरों के लिये स्वीकार करना ही उचित रहेगा। | | अन्य विषयों की तरह इस विषय पर भी पाश्चात्य विद्वानों की इतिहासदृष्टि का गहरा साया पड़ा हुआ है। समयनिर्धारण एक ऐसी समस्या बनाई गई है जिसके आधार पर किसी भी बात को नकारा जा सकता है । वही मूलगत दोष है कि भारतीय ज्ञानधारा को अभारतीय मापदण्डों पर सही बताने के प्रयास करना ही विद्वतक्षेत्र अपना पुरुषार्थ का विषय मानता है। इससे उबरना होगा । अपने आपको या अन्य किसीको नकारने के स्थान पर अपना स्वयं के लिये और दूसरों का दूसरों के लिये स्वीकार करना ही उचित रहेगा। |
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| * वैज्ञानिकता का सही अर्थ है शास्त्रीयता । यह बुद्धि का क्षेत्र है, तर्क का क्षेत्र है, भारतीय परंपरा से देखें तो न्याय का क्षेत्र है, तत्त्वज्ञान का क्षेत्र है । यहाँ व्याकरण चलता है । जो तर्क से नहीं सिद्ध होता वह वैज्ञानिक नहीं है। आज जो भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता वह मान्य नहीं होता है। इससे मुक्त कर विज्ञान को व्यापक बनाने की आवश्यकता है । | | * वैज्ञानिकता का सही अर्थ है शास्त्रीयता । यह बुद्धि का क्षेत्र है, तर्क का क्षेत्र है, भारतीय परंपरा से देखें तो न्याय का क्षेत्र है, तत्त्वज्ञान का क्षेत्र है । यहाँ व्याकरण चलता है । जो तर्क से नहीं सिद्ध होता वह वैज्ञानिक नहीं है। आज जो भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता वह मान्य नहीं होता है। इससे मुक्त कर विज्ञान को व्यापक बनाने की आवश्यकता है । |
| * आज का विज्ञान सभी बातों का मापदण्ड नहीं हो सकता । वास्तव में सामाजिकता ही वैज्ञानिकता का भी मापदण्ड बनाना चाहिए । विज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया है । प्रक्रिया कभी निर्णायक नहीं हो सकती । ज्ञान ही निर्णायक होता है । देखा जाय तो विज्ञान सभ्यता के विकास हेतु है और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती है। इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत मूलगामी परिवर्तन है । | | * आज का विज्ञान सभी बातों का मापदण्ड नहीं हो सकता । वास्तव में सामाजिकता ही वैज्ञानिकता का भी मापदण्ड बनाना चाहिए । विज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया है । प्रक्रिया कभी निर्णायक नहीं हो सकती । ज्ञान ही निर्णायक होता है । देखा जाय तो विज्ञान सभ्यता के विकास हेतु है और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती है। इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत मूलगामी परिवर्तन है । |
− | * फिर भी भावना, क्रिया, विचार आदि की अपेक्षा बुद्धि की प्रतिष्ठा विशेष है। अन्य सभी आयामों को बुद्धिनिष्ठ बनाना चाहिए परंतु बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए । इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की जो भाषा बोली जाती है उसे ठीक करना चाहिए । विज्ञान और अध्यात्म तुल्यबल संकल्पनायें नहीं हैं। विज्ञान अध्यात्म का एक हिस्सा है। उसके निकष अध्यात्म में ही हैं। यही भारतीय विज्ञानदृष्टि होगी। | + | * तथापि भावना, क्रिया, विचार आदि की अपेक्षा बुद्धि की प्रतिष्ठा विशेष है। अन्य सभी आयामों को बुद्धिनिष्ठ बनाना चाहिए परंतु बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए । इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की जो भाषा बोली जाती है उसे ठीक करना चाहिए । विज्ञान और अध्यात्म तुल्यबल संकल्पनायें नहीं हैं। विज्ञान अध्यात्म का एक हिस्सा है। उसके निकष अध्यात्म में ही हैं। यही भारतीय विज्ञानदृष्टि होगी। |
| * भौतिक विज्ञान को पंचमहाभूतात्मक संकल्पना का आधार देना चाहिए। ऐसा करने से हमारे भौतिक विज्ञान के आकलन में बहुत अंतर आ सकता है । उदाहरण के लिए सृष्टि विज्ञान में अष्टधा प्रकृति की कल्पना जुड़ते ही सत्त्व, रज, तम ऐसे तीन गुण जुड़ जाएँगे। जो पदार्थ का स्वरूप ही बदल देगा। | | * भौतिक विज्ञान को पंचमहाभूतात्मक संकल्पना का आधार देना चाहिए। ऐसा करने से हमारे भौतिक विज्ञान के आकलन में बहुत अंतर आ सकता है । उदाहरण के लिए सृष्टि विज्ञान में अष्टधा प्रकृति की कल्पना जुड़ते ही सत्त्व, रज, तम ऐसे तीन गुण जुड़ जाएँगे। जो पदार्थ का स्वरूप ही बदल देगा। |
| * प्राणिविज्ञान के क्षेत्र में प्राण का विचार करना ही पड़ेगा । प्राण का विचार करते ही शरीरविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, प्राणिविज्ञान का स्वरूप बदल जाएगा । | | * प्राणिविज्ञान के क्षेत्र में प्राण का विचार करना ही पड़ेगा । प्राण का विचार करते ही शरीरविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, प्राणिविज्ञान का स्वरूप बदल जाएगा । |
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| == भाषा == | | == भाषा == |
− | मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है। इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के लिये निकटतम होती है। जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है; क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं। उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ सकता है फिर भी उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह ग्रहण बिना किसी गलती का होता है। इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक सक्रिय होता है। | + | मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है। इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के लिये निकटतम होती है। जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है; क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं। उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ सकता है तथापि उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह ग्रहण बिना किसी गलती का होता है। इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक सक्रिय होता है। |
− | | |
− | भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी
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− | | |
− | अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं
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− | | |
− | कहा जा सकता। “या भाष्यते सा भाषा' - जो बोली जाती
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− | | |
− | है वह भाषा है - ऐसा भाषा का अर्थ बताया जाता है।
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− | | |
− | मनुष्य को छोड़कर अन्य जीव बोलते नहीं है इसलिये
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− | | |
− | उनकी भाषा भी नहीं होती।
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− | | |
− | 3.
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− | | |
− | आज हम भाषा के दो रूप मानते हैं। एक है मौखिक
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− | | |
− | और दूसरा है लिखित। परन्तु भाषा का मूल रूप मौखिक
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− | | |
− | ही है। लिखित रूप गौण है, अत्यन्त गौण है। विश्व में गूँगों
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− | | |
− | को छोड़कर लगभग सभी बोल सकते हैं परन्तु उनके
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− | | |
− | अनुपात में बहुत कम लोग लिख सकते हैं। मनुष्य अपने
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− | | |
− | जीवन में भी पहले बोलने लगता है, बाद में लिखने।
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− | | |
− | लिखना न भी आये तो चलता है, बोलना नहीं आया तो
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− | | |
− | नहीं चलता। बोलना तो बरबस होता है, लिखना प्रयास से
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− | | |
− | होता है। अतः: भाषा मूलत: बोलना ही है। बोलने से ही
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− | उसकी परिभाषा बनी है।
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− | रे,
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− | भाषा का केवल वाचिक रूप ही नहीं होता है। वह
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− | | |
− | भावात्मक भी होता है। शिशु अवस्था में, जब तक शिशु
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− | | |
− | बोलना नहीं सीखता वह भाषा का भावात्मक रूप ग्रहण
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− | करता है। शब्द और अर्थ मिलकर भाषा बनती है। वह
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− | | |
− | भाषा का अर्थरूप पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, शब्द रूप
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− | संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है।
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− | | |
− | शब्द का उच्चारण करने के लिये उसका ध्वनितन्त्र
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− | | |
− | पर्याप्त रूप से सक्षम चाहिये। जन्म के समय वह उतना
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− | | |
− | सक्षम नहीं होता है। उसे सक्रिय बनाने की दिशा में उसका
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− | | |
− | अखण्ड पुरुषार्थ चलता है। रोना, चिछ्ठाना, हँसना, तरह
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− | | |
− | तरह की आवाजें निकालना, शब्द के उच्चारण की ही पूर्व
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− | तैयारी होती है। जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वह पूर्ण
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− | रूप से उच्चारण सीखता जाता है।
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− | पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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− | स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण, बल, हस्व.. वाक् और अर्थ जुड़े हैं उसी प्रकार
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− | और दीर्घ, आरोह, अवरोह आदि वह सुनकर ही सीखता. एकदूसरे से जुड़े हुए जगत के मातापिता पार्वती और
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− | | |
− | है। सुनने के अलावा भाषा सीखने का और कोई तरीका... परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। पार्वती और परमेश्वर
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− | | |
− | नहीं है। जो सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता यह... एकदूसरे के साथ कितने एकात्म भाव से जुड़े हुए हैं यह
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− | | |
− | सार्वत्रिक नियम है। जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है। हम सब जानते हैं। उनके सम्बन्ध का वर्णन करने के लिए
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− | | |
− | शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की उपमा दी जाती है। यही
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− | | |
− | शब्द और अर्थ की एकात्मता का द्योतक है। इसका तात्पर्य
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− | भाषा का सम्बन्ध नाद से है। नाद का अर्थ है वाणी, .. यह है कि भाषा का विचार करते समय हमें ध्वनि और
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− | | |
− | अर्थात् आवाज। नाद सृष्टि की उत्पत्ति का आदि कारण है।... अर्थ दोनों का अलग अलग और एकसाथ विचार करना
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− | | |
− | उसे नादब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म नाद्स्वरूप है ऐसा उसका... होगा।
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− | अर्थ है। सृष्टि जैसे जैसे फैलने लगी और विविध रूप धारण
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− | करने लगी वैसे वैसे नाद भी विविध रूप धारण करने लगा। 9:
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− | सर्व प्रकार की ध्वनियों का मूल रूप है 35। इसलिये वह भाषा के शब्द रूप की बात करें तो प्रथम हमें देखना
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− | भी ब्रह्म का ही वाचक है। ध्वनि के विविध रूप सृष्टि के... होगा कि ध्वनि का सम्बन्ध कहाँ कहाँ किन किन से किस
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− | विविध रूपों के साथ आन्तरिक रूप से ही जुड़े हुए हैं। इस. किस प्रकार का है। ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ
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− | सम्बन्ध का कभी विच्छेद् नहीं हो सकता। एक बात... है। पंचमहाभूत हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश।
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− | समझने योग्य है कि 3 अनेक ध्वनियों में से एक ध्वनि... इनमें शब्द आकाश का विषय है। सभी भूतों में आकाश
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− | | |
− | नहीं है, वह सभी ध्वनियों का मूल रूप है। सारे ध्वनि रूप... सूक्ष्मतम है अर्थात् व्यापकतम है। वह शेष सभी भूतों को
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− | | |
− | उसमें से निःसृत हुए हैं। भी व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है
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− | इसका अर्थ यह है कि वह आकाश के माध्यम से गति
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− | दे करता है। आकाश अनन्त है इसलिये शब्द भी अनन्त है।
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− | व्यवहार में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसके... भाषा के ध्वनिरूप को अक्षर कहा जाता है। अक्षर वह है
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− | दो आयाम हैं। ये दो आयाम एक सिक्के के दो पहलू जैसे जिसका कभी क्षरण नहीं होता अर्थात् नाश नहीं होता।
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− | हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता है। ये दो पहलू हैं... अक्षर भी ब्रह्म का ही नाम है। भाषा के शब्दमय पहलू की
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− | शब्द और अर्थ। शब्द है वाकू अर्थात् वाणी अर्थात् ध्वनि... लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनिरूप होता है इसलिए
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− | और अर्थ है उसका व्यावहारिक सन्दर्भ। व्यावहारिक जीवन. उसका उच्चारण होता है। उच्चारण के सन्दर्भ में अक्षर का
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− | में विचार, भावनायें, इच्छायें, अपेक्षायें, deh, AAA, सम्बन्ध वाकू नाम की कर्मेन्ट्रिय से है। ध्वनि शब्द है
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− | संवेदनायें आदि सब होते हैं। जब इन सबको ध्वनि रूप... इसलिये उसका सम्बन्ध श्रवणेन्ट्रिय से है। श्रवणेन्द्रिय और
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− | प्राप्त होता है तब भाषा जन्म लेती है। व्यावहारिक सन्दर्भ. वागीन्ट्रिय दोनों से संबन्धित होने के कारण सुनने और
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− | | |
− | अर्थात् अर्थ और शब्द का सम्बन्ध कितना एकात्म है यह... बोलने की प्रक्रिया बनती है। सुनने और बोलने के सम्बन्ध
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− | | |
− | दर्शाते हुए कविकुलगुरू कालिदास ने पार्वती और शंकर के... से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है।
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− | &,
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− | सम्बन्ध का वर्णन किया है। वे लिखते हैं यही संवाद का माध्यम है। अक्षर अक्षर से बनी भाषा
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− | वागर्थाविव सम्पूक्ती वागर्थप्रतिपत्तये । मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध का एक बहुत बड़ा सशक्त माध्यम
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− | जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी ।। (रघुवंश १-१) बनती है।
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− | अर्थात् वाणी के अर्थ की सिद्धि हेतु जिस प्रकार भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण
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− | २७७
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− | है। शारीरिक दृष्टि से स्वर्यन्त्र ठीक
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− | होना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही श्वसन की सही पद्धति,
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− | बैठने की सही पद्धति और छाती में दम होना अत्यन्त
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− | आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दुर्बल
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− | | |
− | होता है। यदि श्वसन अभ्यास ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट
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− | नहीं होता है। यदि स्वरयन्त्र ठीक नहीं है तो उच्चारण
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− | अशुद्ध होता है।
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− | अभ्यास का महत्त्व अनन्यसाधारण है। अभ्यास से
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− | भाषा प्रभावी बनती है।
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− | ८
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− | ध्वनिरूप में अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के
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− | भीतर के प्राण के साथ भी है और सृष्टि के प्राणतत्त्व के
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− | साथ भी है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है।
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− | अत: प्राणशक्ति के बलवान होने और नहीं होने का प्रभाव
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− | अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है। अक्षर का सम्बन्ध
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− | मनस्तत्त्व के साथ भी है। व्यक्ति के भीतर मनस्तत्त्व के
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− | साथ भी और सृष्टि के मनस्तत्त्व के साथ भी। अक्षर का
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− | | |
− | सम्बन्ध शरीर के भीतर के अन्यान्य चक्रों के साथ है,
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− | अन्यान्य अंगों के साथ भी है। विभिन्न अंगों के साथ
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− | सम्बन्धित होकर मूल ध्वनि भिन्न भिन्न रूप धारण करती है
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− | यथा ओष्ट के साथ सम्बन्धित होकर प, फ, ब, भ, म
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− | बनता है; दाँत के साथ सम्बन्धित होकर त, थ, द, ध, न
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− | बनता है आदि। ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर
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− | शरीर के भीतर के विभिन्न चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं।
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− | इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं,
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− | भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। संक्षेप में अक्षर का
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− | सम्बन्ध मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के साथ बनता है, साथ ही
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− | वह मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ भी
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− | सम्बन्ध बनाता है।
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− | 8.
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− | भाषा की मूल इकाई अक्षर है परन्तु इसकी व्याप्ति
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− | सम्पूर्ण जीवन है। सम्पूर्ण जीवनरूपी भवन की एक एक ईट
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− | अक्षर है। इस अक्षर के भिन्न भिन्न पदार्थों के साथ जुड़ने के
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− | २७८
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | कारण अनेक रूप बनते हैं। इसलिये अक्षरों के उच्चारण का
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− | बहुत बड़ा शास्त्र बना है। उस शास्त्र को शिक्षा कहा गया
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− | है। आज हम अंग्रेजी शब्द एज्यूकेशन को शिक्षा कहते हैं
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− | उस अर्थ में यह शिक्षा नहीं है। वेद के जो छः अंग हैं उनमें
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− | एक अंग शिक्षा है। वह उच्चारणशास्त्र है। अनेक विद्वानों
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− | के शिक्षाग्रन्थ उपलब्ध हैं यथा पाणिनीय शिक्षा,
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− | याज्ञवल्क्यशिक्षा आदि। इन ग्रन्थों में अक्षर के विभिन्न रूप
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− | और उनके उच्चारण की पद्धति का विस्तारपूर्वक निरूपण
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− | किया गया है।
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− | Ro.
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− | जिस प्रकार अव्यक्त ब्रह्म व्यक्त रूप धारण करता है
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− | तब वह अनेक रूपों से युक्त विश्वरूप धारण करता है, उसी
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− | प्रकार शब्द भी अव्यक्त से व्यक्त रूप धारण करता है। यह
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− | एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के चार चरण हैं। अक्षर के या
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− | वाकू के, या शब्द के, या वाणी के चार रूप हैं। परा,
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− | पश्यन्ति, मध्यमा और dat! परावाणी का ब्रह्मरूप है।
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− | | |
− | इस स्तर पर वह नादब्रह्म है। पश्यन्ति वाणी का मूल
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− | | |
− | व्यक्तरूप है जिसका सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ है। इस
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− | | |
− | स्तर पर शब्द संकल्पना का रूप धारण करता है। तीसरा
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− | मध्यमा वाणी का भाव रूप है। इसका सम्बन्ध अनाहत
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− | चक्र से है जो हृदयस्थान भी है। चौथा वैखरी रूप पूर्ण
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− | व्यक्त रूप है। यह श्रवणेन्द्रिय को सुनाई देता है। वेद का
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− | अंग शिक्षा परा वाणी को वैखरी तक लाने की प्रक्रिया
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− | सिखाने वाला शास्त्र है।
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− | भाषा के चार कौशल गिनाये जाते हैं। ये हैं श्रवण,
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− | भाषण, पठन और लेखन। इनमें मूल श्रवण और भाषण हैं।
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− | पठन और लेखन वाचिक स्वरूप का वर्ण रूप में रूपान्तरण
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− | है। श्रवण दूसरे के भाषण का अनुसरण करता है और पठन
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− | दूसरे के लेखन का अनुसरण करता है। अतः: भाषा कभी भी
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− | अकेले में नहीं सीखी जाती, दो मिलकर ही सीखी जाती है।
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− | अत: भाषा सीखने में सिखाने वाले की भूमिका बहुत
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− | महत्त्वपूर्ण रहती है।
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− | पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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− | श्श्,
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− | भाषा का दूसरा अंग है पद । पद को शब्द भी कहा
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− | जाता है। यहाँ शब्द का अर्थ केवल ध्वनि नहीं है, ध्वनि के
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− | उपरान्त कुछ और भी है। ध्वनिरूप अक्षरों के साथ जब
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− | जीवन में व्याप्त अर्थ जुड़ता है तब वह ध्वनिसमूह पद
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− | बनता है। पदों की रचना का भी एक बहुत विस्तृत शास्त्र
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− | है। पदों की स्वना को व्युत्पत्ति कहते हैं और व्युत्पत्ति के
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− | शास्त्र को निरूक्त कहते हैं। पद एक व्यवस्था तो है परन्तु
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− | वह अनुरणन, आकार, क्रिया आदि अनेक बातों से सम्बन्ध
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− | रखने वाली व्यवस्था है। वह कृत्रिम व्यवस्था नहीं है। एक
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− | दो उदाहरण सहायक होंगे। 'हृदय' पद तीन क्रियाओं का
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− | वाचक है। आहरति अर्थात् लाता है का “ह', ददाति अर्थात
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− | देता है का 'द' और यमयति अर्थात् नियमन करता है का
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− | <nowiki>*</nowiki>य' ऐसे तीन अक्षरों से हृदय पद बना है। ये तीनों हृदय के
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− | कार्य हैं। इस प्रकार पदों की निश्चिति भी जीवन के साथ
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− | सम्बन्ध जोड़कर होती है।
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− | 82.
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− | पदों को जोड़ जोड़ कर वाक्य बनता है। कहने का
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− | आशय व्यक्त करने के लिये जो व्यवस्था की गई है वह
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− | व्याकरण कहलाती है। व्याकरणशास्त्र भी बहुत विस्तृत
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− | शास्त्र है। इस शास्त्र की मूल इकाई वाक्य है। अनेक
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− | ara से फिर अनुच्छेद बनता है। अनुच्छेदों की स्वना
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− | आशय को ध्यान में रखकर ही होती है।
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− | भाषा का व्याकरण भी शिशु अवस्था में ही अवगत
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− | हो जाता है। उसका रूप क्रियात्मक होता है, शास्त्रीय नहीं।
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− | भाषा प्रयोग के समय अंगविन्यास भी महत्त्वपूर्ण है।
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− | अंगविन्यास भी शिशु अधिकांश देखकर और कुछ मात्रा में
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− | बोलने की स्वाभाविक आवश्यकता के रूप में सीख लेता है।
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− | जब तक भाषा का अनुभव जीवनक्रम के साथ
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− | स्वाभाविक रूप में जुड़ा रहता है तब तक सीखना अनायास
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− | होता है, अर्थात् आवश्यकता के अनुसार भाषा अवगत
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− | होती रहती है। परन्तु जब औपचारिक शिक्षा शुरू होती है
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− | भाषा की शिक्षा कुछ मात्रा में कृत्रिम होती जाती है।
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− | २७९
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− | जीवन के समस्त पहलुओं को शब्दों में व्यक्त करने
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− | का साधन भाषा है। जीवन में घटनायें होती हैं, स्थितियाँ
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− | होती हैं, सजीव निर्जीव पदार्थ होते हैं, व्यवस्थायें होती हैं,
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− | मनोभाव होते हैं, संवेग और आवेग होते हैं, विचार होते
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− | हैं, संस्कार होते हैं। इस सूचि को भिन्न भिन्न व्यक्ति भिन्न
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− | भिन्न पद्धति से बना सकते हैं। संक्षेप में यह ऐसा सबकुछ है
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− | जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में तथा समष्टिगत जीवन में
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− | होता है। भाषा इन सभी की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। इस
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− | प्रकार भाषा का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है।
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− | RY.
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− | देखा तो यह गया है कि जीवन का अनुभव जितना
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− | व्यापक और गहरा होता है, अर्थ का बोध उतनी ही मात्रा
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− | में गहरा होता है । भाषा अपने आप उसे व्यक्त करने योग्य
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− | हो जाती है। महाराष्ट्र की बहिणाबाई और सन्त कबीर जैसे
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− | कवि अशिक्षित थे परन्तु उनकी भाषा उनके अनुभव को
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− | व्यक्त करने में समर्थ थी। तात्पर्य यह है कि भाषा जीवन के
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− | बोध का अनुसरण करती है, शब्द रूप साधन की समृद्धि
| + | भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं कहा जा सकता। “या भाष्यते सा भाषा' - जो बोली जाती है वह भाषा है - ऐसा भाषा का अर्थ बताया जाता है। मनुष्य को छोड़कर अन्य जीव बोलते नहीं है इसलिये उनकी भाषा भी नहीं होती। |
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− | का नहीं। बिना अनुभव के अलंकूृत शब्द निररर्थकता का
| + | आज हम भाषा के दो रूप मानते हैं। एक है मौखिक और दूसरा है लिखित। परन्तु भाषा का मूल रूप मौखिक ही है। लिखित रूप गौण है, अत्यन्त गौण है। विश्व में गूँगों को छोड़कर लगभग सभी बोल सकते हैं परन्तु उनके अनुपात में बहुत कम लोग लिख सकते हैं। मनुष्य अपने जीवन में भी पहले बोलने लगता है, बाद में लिखने। लिखना न भी आये तो चलता है, बोलना नहीं आया तो नहीं चलता। बोलना तो बरबस होता है, लिखना प्रयास से होता है। अतः: भाषा मूलत: बोलना ही है। बोलने से ही उसकी परिभाषा बनी है। |
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− | आभास करवाते ही हैं।
| + | भाषा का केवल वाचिक रूप ही नहीं होता है। वह भावात्मक भी होता है। शिशु अवस्था में, जब तक शिशु बोलना नहीं सीखता वह भाषा का भावात्मक रूप ग्रहण करता है। शब्द और अर्थ मिलकर भाषा बनती है। वह भाषा का अर्थरूप पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, शब्द रूप संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। शब्द का उच्चारण करने के लिये उसका ध्वनितन्त्र पर्याप्त रूप से सक्षम चाहिये। जन्म के समय वह उतना सक्षम नहीं होता है। उसे सक्रिय बनाने की दिशा में उसका अखण्ड पुरुषार्थ चलता है। रोना, चिल्लाना, हँसना, तरह तरह की आवाजें निकालना, शब्द के उच्चारण की ही पूर्व तैयारी होती है। जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वह पूर्ण रूप से उच्चारण सीखता जाता है। स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण, बल, हस्व और दीर्घ, आरोह, अवरोह आदि वह सुनकर ही सीखता है। सुनने के अलावा भाषा सीखने का और कोई तरीका नहीं है। जो सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता यह सार्वत्रिक नियम है। जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है। |
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− | gu,
| + | भाषा का सम्बन्ध नाद से है। नाद का अर्थ है वाणी, अर्थात् आवाज। नाद सृष्टि की उत्पत्ति का आदि कारण है। उसे नादब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म नादस्वरूप है ऐसा उसका अर्थ है। सृष्टि जैसे जैसे फैलने लगी और विविध रूप धारण करने लगी बैसे वैसे नाद भी विविध रूप धारण करने लगा। सर्व प्रकार की ध्वनियों का मूल रूप है ॐ। इसलिये वह भी ब्रह्म का ही वाचक है। ध्वनि के विविध रूप सृष्टि के विविध रूपों के साथ आन्तरिक रूप से ही जुड़े हुए हैं। इस सम्बन्ध का कभी विच्छेद नहीं हो सकता। एक बात समझने योग्य है कि ३७ अनेक ध्वनियों में से एक ध्वनि नहीं है, वह सभी ध्वनियों का मूल रूप है। सारे ध्वनि रूप उसमें से निःसृत हुए हैं। |
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− | जितने भी प्रकार के अभिव्यक्ति के माध्यम हैं उनमें
| + | व्यवहार में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसके दो आयाम हैं। ये दो आयाम एक सिक्के के दो पहलू जैसे हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता है। ये दो पहलू हैं शब्द और अर्थ। शब्द है वाक् अर्थात् वाणी अर्थात् ध्वनि और अर्थ है उसका व्यावहारिक सन्दर्भ। व्यावहारिक जीवन में विचार, भावनायें, इच्छायें, अपेक्षायें, तर्क, अनुमान, संवेदनायें आदि सब होते हैं। जब इन सबको ध्वनि रूप प्राप्त होता है तब भाषा जन्म लेती है। व्यावहारिक सन्दर्भ अर्थात् अर्थ और शब्द का सम्बन्ध कितना एकात्म है यह दर्शाते हुए कविकुलगुरू कालिदास ने पार्वती और शंकर के सम्बन्ध का वर्णन किया है। वे लिखते हैं<ref>रघुवंश १-१</ref><blockquote>वागर्थाविव सम्पृक्तौ वार्थप्रतिपत्तये ।</blockquote><blockquote>जगत: पितरौ बन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ || </blockquote>अर्थात् वाणी के अर्थ की सिद्धि हेतु जिस प्रकार वाक् और अर्थ जुड़े हैं उसी प्रकार एकदूसरे से जुड़े हुए जगत के मातापिता पार्वती और परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। पार्वती और परमेश्वर एक दूसरे के साथ कितने एकात्म भाव से जुड़े हुए हैं यह हम सब जानते हैं। उनके सम्बन्ध का वर्णन करने के लिए शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की उपमा दी जाती है। यही शब्द और अर्थ की एकात्मता का द्योतक है। इसका तात्पर्य यह है कि भाषा का विचार करते समय हमें ध्वनि और अर्थ दोनों का अलग अलग और एकसाथ विचार करना होगा। |
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− | भाषा श्रेष्ठतम है। उदाहरण के लिये चित्र, संगीत, अभिनय | + | भाषा के शब्द रूप की बात करें तो प्रथम हमें देखना होगा कि ध्वनि का सम्बन्ध कहाँ कहाँ किन किन से किस किस प्रकार का है। ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ है। पंचमहाभूत हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश। इनमें शब्द आकाश का विषय है। सभी भूतों में आकाश सूक्ष्मतम है अर्थात् व्यापकतम है। वह शेष सभी भूतों को भी व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है इसका अर्थ यह है कि वह आकाश के माध्यम से गति करता है। आकाश अनन्त है इसलिये शब्द भी अनन्त है। भाषा के ध्वनिरूप को अक्षर कहा जाता है। अक्षर वह है जिसका कभी क्षरण नहीं होता अर्थात् नाश नहीं होता। अक्षर भी ब्रह्म का ही नाम है। भाषा के शब्दमय पहलू की लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनिरूप होता है इसलिए उसका उच्चारण होता है। उच्चारण के सन्दर्भ में अक्षर का सम्बन्ध वाक् नाम की कर्मन्द्रिय से है। ध्वनि शब्द है इसलिये उसका सम्बन्ध श्रवणेन्द्रिय से है। श्रवणेन्द्रिय और वागीन्द्रिय दोनों से संबन्धित होने के कारण सुनने और बोलने की प्रक्रिया बनती है। सुनने और बोलने के सम्बन्ध से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है। |
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− | आदि अभिव्यक्ति के माध्यम हैं परन्तु भाषा उन सबसे श्रेष्ठ
| + | यही संवाद का माध्यम है। अक्षर अक्षर से बनी भाषा मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध का एक बहुत बड़ा सशक्त माध्यम बनती है। भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। शारीरिक दृष्टि से स्वर्यन्त्र ठीक होना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही श्वसन की सही पद्धति, बैठने की सही पद्धति और छाती में दम होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दुर्बल होता है। यदि श्वसन अभ्यास ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट नहीं होता है। यदि स्वरयन्त्र ठीक नहीं है तो उच्चारण अशुद्ध होता है। अभ्यास का महत्त्व अनन्यसाधारण है। अभ्यास से भाषा प्रभावी बनती है। |
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− | है। कारण यह है कि वह नादबव्रह्म का आविष्कार है, अपने | + | ध्वनिरूप में अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के भीतर के प्राण के साथ भी है और सृष्टि के प्राणतत्त्व के साथ भी है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है। अत: प्राणशक्ति के बलवान होने और नहीं होने का प्रभाव अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है। अक्षर का सम्बन्ध मनस्तत्त्व के साथ भी है। व्यक्ति के भीतर मनस्तत्त्व के साथ भी और सृष्टि के मनस्तत्त्व के साथ भी। अक्षर का सम्बन्ध शरीर के भीतर के अन्यान्य चक्रों के साथ है, अन्यान्य अंगों के साथ भी है। विभिन्न अंगों के साथ सम्बन्धित होकर मूल ध्वनि भिन्न भिन्न रूप धारण करती है यथा ओष्ट के साथ सम्बन्धित होकर प, फ, ब, भ, म बनता है; दाँत के साथ सम्बन्धित होकर त, थ, द, ध, न बनता है आदि। ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर शरीर के भीतर के विभिन्न चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं। इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं, भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। संक्षेप में अक्षर का सम्बन्ध मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के साथ बनता है, साथ ही वह मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध बनाता है। |
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− | भौतिक स्वरूप में भी वह सूक्ष्मतम है और उसमें अनंत
| + | भाषा की मूल इकाई अक्षर है परन्तु इसकी व्याप्ति सम्पूर्ण जीवन है। सम्पूर्ण जीवनरूपी भवन की एक एक ईंट अक्षर है। इस अक्षर के भिन्न भिन्न पदार्थों के साथ जुड़ने के कारण अनेक रूप बनते हैं। इसलिये अक्षरों के उच्चारण का बहुत बड़ा शास्त्र बना है। उस शास्त्र को शिक्षा कहा गया है। आज हम अंग्रेजी शब्द एज्यूकेशन को शिक्षा कहते हैं उस अर्थ में यह शिक्षा नहीं है। वेद के जो छः अंग हैं उनमें एक अंग शिक्षा है। वह उच्चारणशास्त्र है। अनेक विद्वानों के शिक्षाग्रन्थ उपलब्ध हैं यथा पाणिनीय शिक्षा, याज्ञवल्क्यशिक्षा आदि। इन ग्रन्थों में अक्षर के विभिन्न रूप और उनके उच्चारण की पद्धति का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है। |
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− | सृजनशीलता है। समाधि अवस्था के अनुभव की
| + | जिस प्रकार अव्यक्त ब्रह्म व्यक्त रूप धारण करता है तब वह अनेक रूपों से युक्त विश्वरूप धारण करता है, उसी प्रकार शब्द भी अव्यक्त से व्यक्त रूप धारण करता है। यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के चार चरण हैं। अक्षर के या वाकू के, या शब्द के, या वाणी के चार रूप हैं। परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी। परा वाणी का ब्रह्मरूप है। इस स्तर पर वह नादब्रह्म है। पश्यन्ति वाणी का मूल व्यक्त रूप है जिसका सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ है। इस स्तर पर शब्द संकल्पना का रूप धारण करता है। तीसरा मध्यमा वाणी का भाव रूप है। इसका सम्बन्ध अनाहत चक्र से है जो हृदयस्थान भी है। चौथा वैखरी रूप पूर्ण व्यक्त रूप है। यह श्रवणेन्द्रिय को सुनाई देता है। वेद का अंग शिक्षा परा वाणी को वैखरी तक लाने की प्रक्रिया सिखाने वाला शास्त्र है। |
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− | अभिव्यक्ति के समय वह मंत्र रूप में प्रकट होती है।
| + | भाषा के चार कौशल गिनाये जाते हैं। ये हैं श्रवण, भाषण, पठन और लेखन। इनमें मूल श्रवण और भाषण हैं। पठन और लेखन वाचिक स्वरूप का वर्ण रूप में रूपान्तरण है। श्रवण दूसरे के भाषण का अनुसरण करता है और पठन दूसरे के लेखन का अनुसरण करता है। अतः: भाषा कभी भी अकेले में नहीं सीखी जाती, दो मिलकर ही सीखी जाती है। अत: भाषा सीखने में सिखाने वाले की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रहती है। |
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− | श्दद्,
| + | भाषा का दूसरा अंग है पद । पद को शब्द भी कहा जाता है। यहाँ शब्द का अर्थ केवल ध्वनि नहीं है, ध्वनि के उपरान्त कुछ और भी है। ध्वनिरूप अक्षरों के साथ जब जीवन में व्याप्त अर्थ जुड़ता है तब वह ध्वनिसमूह पद बनता है। पदों की रचना का भी एक बहुत विस्तृत शास्त्र है। पदों की स्वना को व्युत्पत्ति कहते हैं और व्युत्पत्ति के शास्त्र को निरूक्त कहते हैं। पद एक व्यवस्था तो है परन्तु वह अनुरणन, आकार, क्रिया आदि अनेक बातों से सम्बन्ध रखने वाली व्यवस्था है। वह कृत्रिम व्यवस्था नहीं है। एक दो उदाहरण सहायक होंगे। 'हृदय' पद तीन क्रियाओं का वाचक है। आहरति अर्थात् लाता है का "ह", ददाति अर्थात देता है का "द" और यमयति अर्थात् नियमन करता है का "य" ऐसे तीन अक्षरों से हृदय पद बना है। ये तीनों हृदय के कार्य हैं। इस प्रकार पदों की निश्चिति भी जीवन के साथ सम्बन्ध जोड़कर होती है। |
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− | इतनी विभिन्न अभिव्यक्तियों में भाषा के साथ
| + | पदों को जोड़ जोड़ कर वाक्य बनता है। कहने का आशय व्यक्त करने के लिये जो व्यवस्था की गई है वह व्याकरण कहलाती है। व्याकरणशास्त्र भी बहुत विस्तृत शास्त्र है। इस शास्त्र की मूल इकाई वाक्य है। अनेक वाक्यों से फिर अनुच्छेद बनता है। अनुच्छेदों की रचना आशय को ध्यान में रखकर ही होती है। भाषा का व्याकरण भी शिशु अवस्था में ही अवगत हो जाता है। उसका रूप क्रियात्मक होता है, शास्त्रीय नहीं। भाषा प्रयोग के समय अंगविन्यास भी महत्त्वपूर्ण है। अंगविन्यास भी शिशु अधिकांश देखकर और कुछ मात्रा में बोलने की स्वाभाविक आवश्यकता के रूप में सीख लेता है। जब तक भाषा का अनुभव जीवनक्रम के साथ स्वाभाविक रूप में जुड़ा रहता है तब तक सीखना अनायास होता है, अर्थात् आवश्यकता के अनुसार भाषा अवगत होती रहती है। परन्तु जब औपचारिक शिक्षा शुरू होती है भाषा की शिक्षा कुछ मात्रा में कृत्रिम होती जाती है। |
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− | उच्चारणशास्त्र, _ व्युत्पत्तिशास्त्र, _ व्याकरणशास्त्र और
| + | जीवन के समस्त पहलुओं को शब्दों में व्यक्त करने का साधन भाषा है। जीवन में घटनायें होती हैं, स्थितियाँ होती हैं, सजीव निर्जीव पदार्थ होते हैं, व्यवस्थायें होती हैं, मनोभाव होते हैं, संवेग और आवेग होते हैं, विचार होते हैं, संस्कार होते हैं। इस सूचि को भिन्न भिन्न व्यक्ति भिन्न भिन्न पद्धति से बना सकते हैं। संक्षेप में यह ऐसा सबकुछ है जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में तथा समष्टिगत जीवन में होता है। भाषा इन सभी की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। इस प्रकार भाषा का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है। |
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− | अलंकारशास्त्र जुड़ हुए हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द और
| + | देखा तो यह गया है कि जीवन का अनुभव जितना व्यापक और गहरा होता है, अर्थ का बोध उतनी ही मात्रा में गहरा होता है । भाषा अपने आप उसे व्यक्त करने योग्य हो जाती है। महाराष्ट्र की बहिणाबाई और सन्त कबीर जैसे कवि अशिक्षित थे परन्तु उनकी भाषा उनके अनुभव को व्यक्त करने में समर्थ थी। तात्पर्य यह है कि भाषा जीवन के बोध का अनुसरण करती है, शब्द रूप साधन की समृद्धि का नहीं। बिना अनुभव के अलंकूृत शब्द निररर्थकता का आभास करवाते ही हैं। |
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− | ............. page-296 .............
| + | जितने भी प्रकार के अभिव्यक्ति के माध्यम हैं उनमें भाषा श्रेष्ठतम है। उदाहरण के लिये चित्र, संगीत, अभिनय आदि अभिव्यक्ति के माध्यम हैं परन्तु भाषा उन सबसे श्रेष्ठ है। कारण यह है कि वह नादबव्रह्म का आविष्कार है, अपने भौतिक स्वरूप में भी वह सूक्ष्मतम है और उसमें अनंत सृजनशीलता है। समाधि अवस्था के अनुभव की अभिव्यक्ति के समय वह मंत्र रूप में प्रकट होती है। |
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| + | इतनी विभिन्न अभिव्यक्तियों में भाषा के साथ उच्चारणशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र, व्याकरणशास्त्र और अलंकारशास्त्र जुड़े हुए हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द और अलंकार |
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− | अलंकार तथा उनके विनियोग के... भाषा के पठन पाठन में इन बातों की ओर ध्यान देना
| + | ''तथा उनके विनियोग के... भाषा के पठन पाठन में इन बातों की ओर ध्यान देना'' |
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− | कारण निष्पन्न होने वाली शैली अलंकारशास्त्र का विषय है।... आवश्यक है। | + | ''कारण निष्पन्न होने वाली शैली अलंकारशास्त्र का विषय है।... आवश्यक है।'' |
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− | सन्धि उच्चारणशास्त्र का अंग है, समास शब्दरचना से | + | ''सन्धि उच्चारणशास्त्र का अंग है, समास शब्दरचना से'' |
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− | सम्बन्धित विषय है, पदलालित्य, अर्थगौरव भी शैली के ही ८, | + | ''सम्बन्धित विषय है, पदलालित्य, अर्थगौरव भी शैली के ही ८,'' |
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− | अंग हैं। दुन्यवी सन्दर्भ में व्यापक वाचन शब्दसंपत्ति बढ़ाने में | + | ''अंग हैं। दुन्यवी सन्दर्भ में व्यापक वाचन शब्दसंपत्ति बढ़ाने में'' |
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− | उपयोगी है, व्याकरण का अध्ययन शुद्ध भाषा के लिये | + | ''उपयोगी है, व्याकरण का अध्ययन शुद्ध भाषा के लिये'' |
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− | उपयोगी है, अलंकारशास्त्र का अध्ययन शैली का विकास | + | ''उपयोगी है, अलंकारशास्त्र का अध्ययन शैली का विकास'' |
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− | शुद्ध भाषा, मधुर भाषा, ललित भाषा, प्रभावी. करने में उपयोगी होता है, व्याकरण ak fen a | + | ''शुद्ध भाषा, मधुर भाषा, ललित भाषा, प्रभावी. करने में उपयोगी होता है, व्याकरण ak fen a'' |
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− | भाषा, सार्थक भाषा, भावपूर्ण भाषा आदि भाषा को... अध्ययन शुद्धता और अर्थवाहिता हेतु उपयोगी है, काव्य | + | ''भाषा, सार्थक भाषा, भावपूर्ण भाषा आदि भाषा को... अध्ययन शुद्धता और अर्थवाहिता हेतु उपयोगी है, काव्य'' |
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− | शोभायमान बनाने वाले पहलू हैं। बुद्धि, मन, चित्त आदि... का अध्ययन सृजनशीलता के लिये उपयोगी है। परन्तु यदि | + | ''शोभायमान बनाने वाले पहलू हैं। बुद्धि, मन, चित्त आदि... का अध्ययन सृजनशीलता के लिये उपयोगी है। परन्तु यदि'' |
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− | अन्तःकरण और हृदय भाषा को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण. जीवन के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं है तो यह सारा | + | ''अन्तःकरण और हृदय भाषा को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण. जीवन के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं है तो यह सारा'' |
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− | Ro. | + | ''Ro.'' |
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− | योगदान देते हैं। अध्ययन बिना एक के शून्य जैसा है। | + | ''योगदान देते हैं। अध्ययन बिना एक के शून्य जैसा है।'' |
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− | संगीत भाषा की मधुरता के लिये अत्यन्त भाषा सिखाने के लिये मूल से प्रारम्भ करना चाहिये। | + | ''संगीत भाषा की मधुरता के लिये अत्यन्त भाषा सिखाने के लिये मूल से प्रारम्भ करना चाहिये।'' |
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− | उपकारक है। सीधा व्याकरण पढ़ना या केवल चार कौशलों पर ध्यान | + | ''उपकारक है। सीधा व्याकरण पढ़ना या केवल चार कौशलों पर ध्यान'' |
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− | जीवन का घनिष्ठतम अनुभव भाषा को समृद्ध बनाता... केन्द्रित करना या प्रश्नोत्तर के स्वाध्याय करवाना बहुत | + | ''जीवन का घनिष्ठतम अनुभव भाषा को समृद्ध बनाता... केन्द्रित करना या प्रश्नोत्तर के स्वाध्याय करवाना बहुत'' |
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− | है। ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनक्षमता, मन की शान्ति, बुद्धि की... सार्थक सिद्ध नहीं होता है। भाषा सभी आधारभूत विषयों | + | ''है। ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनक्षमता, मन की शान्ति, बुद्धि की... सार्थक सिद्ध नहीं होता है। भाषा सभी आधारभूत विषयों'' |
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− | तेजस्विता और चित्तशुद्धि जीवन के घनिष्ठतम अनुभव हेतु. का आधारभूत विषय है। उसका महत्त्व समझकर उसके | + | ''तेजस्विता और चित्तशुद्धि जीवन के घनिष्ठतम अनुभव हेतु. का आधारभूत विषय है। उसका महत्त्व समझकर उसके'' |
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− | आवश्यक हैं। जीवन में रुचि होना भाषा को सार्थक बनाता... अध्ययन अध्यापन की योजना करनी चाहिये। | + | ''आवश्यक हैं। जीवन में रुचि होना भाषा को सार्थक बनाता... अध्ययन अध्यापन की योजना करनी चाहिये।'' |
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− | है। पंचमहाभूतों के साथ आत्मीयता, वनस्पति और | + | ''है। पंचमहाभूतों के साथ आत्मीयता, वनस्पति और'' |
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− | प्राणिजगत के प्रति स्नेह और मनुष्यों के प्रति सद्भाव १९. | + | ''प्राणिजगत के प्रति स्नेह और मनुष्यों के प्रति सद्भाव १९.'' |
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− | जीवन का सार्थक अनुभव प्रदान करते हैं। भाषा इसका सृष्टि की अनन्त असीम विविधताओं को मनुष्य | + | ''जीवन का सार्थक अनुभव प्रदान करते हैं। भाषा इसका सृष्टि की अनन्त असीम विविधताओं को मनुष्य'' |
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− | अनुसरण करती है। व्यावहारिक प्रयोजन के लिये व्यवस्था में बाँधता है। ऐसा | + | ''अनुसरण करती है। व्यावहारिक प्रयोजन के लिये व्यवस्था में बाँधता है। ऐसा'' |
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− | भाषा सीखने का अर्थ है ये सारी बातें सीखना। भाषा... करते समय वह मूल के साथ कितना निष्ठावान रहता है | + | ''भाषा सीखने का अर्थ है ये सारी बातें सीखना। भाषा... करते समय वह मूल के साथ कितना निष्ठावान रहता है'' |
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− | केवल श्रवण, भाषण, पठन और लेखन के ale dH उसके ऊपर उस व्यवस्था की शुद्धि का आधार होता है। | + | ''केवल श्रवण, भाषण, पठन और लेखन के ale dH उसके ऊपर उस व्यवस्था की शुद्धि का आधार होता है।'' |
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− | सीमित नहीं है। शुद्ध, मधुर, प्राणवान और अर्थपूर्ण अतः व्यवस्था बनाते समय इस मूल को समझना अनिवार्य | + | ''सीमित नहीं है। शुद्ध, मधुर, प्राणवान और अर्थपूर्ण अतः व्यवस्था बनाते समय इस मूल को समझना अनिवार्य'' |
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− | उच्चारण, शास्त्रशुद्ध व्याकरण, आशय के अनुरूप शैली. रूप से आवश्यक होता है। भाषा के सम्बन्ध में भी यही | + | ''उच्चारण, शास्त्रशुद्ध व्याकरण, आशय के अनुरूप शैली. रूप से आवश्यक होता है। भाषा के सम्बन्ध में भी यही'' |
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− | और परावाणी से अनुस्यूत वैखरी भाषाप्रभुत्व के लक्षण हैं। . सत्य है। | + | ''और परावाणी से अनुस्यूत वैखरी भाषाप्रभुत्व के लक्षण हैं। . सत्य है।'' |
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− | == उपसंहार == | + | == ''उपसंहार'' == |
− | यहाँ कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप देने का प्रयास हुआ है। हर विषय के बारे में इस प्रकार से विचार करना | + | ''यहाँ कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप देने का प्रयास हुआ है। हर विषय के बारे में इस प्रकार से विचार करना'' |
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− | चाहिए । भारतीय ज्ञानधारा को परिष्कृत कर विश्वकल्याण हेतु उसे पुनर्प्रवाहित करने हेतु भारतीय ज्ञानक्षेत्र को महती | + | ''चाहिए । भारतीय ज्ञानधारा को परिष्कृत कर विश्वकल्याण हेतु उसे पुनर्प्रवाहित करने हेतु भारतीय ज्ञानक्षेत्र को महती'' |
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− | ज्ञानसाधना करने की आवश्यकता है इतना ही कहना प्राप्त है । | + | ''ज्ञानसाधना करने की आवश्यकता है इतना ही कहना प्राप्त है ।'' |
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− | २८० | + | ''२८०'' |
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| ==References== | | ==References== |