Difference between revisions of "विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप"

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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
भारतीय ज्ञानधारा का मूल अधिष्ठान आधात्मिक है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। वह जब नियम और व्यवस्था में रूपान्तरित होता है तब वह धर्म का स्वरूप धारण करता है और व्यवहार की शैली में उतरता है तब संस्कृति बनता है । हमारे विद्यालयों में, घरों में, विचारों के आदानप्रदान के सर्व प्रकार के कार्यक्रमों में औपचारिक, अनौपचारिक पद्धति से जो ज्ञानधारा प्रवाहित होती है उसका स्वरूप सांस्कृतिक होना अपेक्षित है | यदि वह भौतिक है तो भारतीय नहीं है, सांस्कृतिक है तो भारतीय है ऐसा स्पष्ट विभाजन किया जा सकता है।
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भारतीय ज्ञानधारा का मूल अधिष्ठान आधात्मिक है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। वह जब नियम और व्यवस्था में रूपान्तरित होता है तब वह धर्म का स्वरूप धारण करता है और व्यवहार की शैली में उतरता है तब संस्कृति बनता है । हमारे विद्यालयों में, घरों में, विचारों के आदानप्रदान के सर्व प्रकार के कार्यक्रमों में औपचारिक, अनौपचारिक पद्धति से जो ज्ञानधारा प्रवाहित होती है उसका स्वरूप सांस्कृतिक होना अपेक्षित है यदि वह भौतिक है तो भारतीय नहीं है, सांस्कृतिक है तो भारतीय है ऐसा स्पष्ट विभाजन किया जा सकता है।
  
 
ज्ञानधारा का सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप का विरोधी नहीं है, वह भौतिक स्वरूप के लिए भी अधिष्ठान है । सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से कुछ आगे ही है। शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञाधारा विषय, विषयों के पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु, उसके अनुरूप निर्मित पाठ्यपुस्तकों के पाठ, अन्य साधनसामाग्री, अध्ययन अध्यापन पद्धति, अध्ययन हेतु की गई भौतिक तथा अन्य व्यवस्थायें आदि सभीमें व्यक्त होती है। अतः सभी पहलुओं का एकसाथ विचार करना आवश्यक हो जाता है। किसी एक पहलू का भारतीयकरण करना और शेष वैसे का वैसे  रहने देना फलदायी नहीं होता । उनका तालमेल ही नहीं बैठता । इस अध्याय में हम विषयों के सांस्कृतिक स्वरूप की बात करेंगे ।
 
ज्ञानधारा का सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप का विरोधी नहीं है, वह भौतिक स्वरूप के लिए भी अधिष्ठान है । सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से कुछ आगे ही है। शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञाधारा विषय, विषयों के पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु, उसके अनुरूप निर्मित पाठ्यपुस्तकों के पाठ, अन्य साधनसामाग्री, अध्ययन अध्यापन पद्धति, अध्ययन हेतु की गई भौतिक तथा अन्य व्यवस्थायें आदि सभीमें व्यक्त होती है। अतः सभी पहलुओं का एकसाथ विचार करना आवश्यक हो जाता है। किसी एक पहलू का भारतीयकरण करना और शेष वैसे का वैसे  रहने देना फलदायी नहीं होता । उनका तालमेल ही नहीं बैठता । इस अध्याय में हम विषयों के सांस्कृतिक स्वरूप की बात करेंगे ।
  
 
== विषयों का वरीयता क्रम ==
 
== विषयों का वरीयता क्रम ==
वास्तव में व्यक्तित्व विकास की हमारी संकल्पना के अनुसार विषयों का वरीयता क्रम निश्चित होना चाहिए | यह क्रम कुछ ऐसा बनेगा:
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वास्तव में व्यक्तित्व विकास की हमारी संकल्पना के अनुसार विषयों का वरीयता क्रम निश्चित होना चाहिए यह क्रम कुछ ऐसा बनेगा:
# परमेष्ठि से संबन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे | ये विषय हैं अध्यात्म शास्त्र, धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान और संस्कृति ।  
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# परमेष्ठि से संबन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे ये विषय हैं अध्यात्म शास्त्र, धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान और संस्कृति ।  
 
# सृष्टि से संबन्धित विषय: भौतिक विज्ञान (इसमें रसायन, खगोल, भूगोल, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि सभी विज्ञान विषयों का समावेश होगा ।), पर्यावरण, सृष्टिविज्ञान
 
# सृष्टि से संबन्धित विषय: भौतिक विज्ञान (इसमें रसायन, खगोल, भूगोल, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि सभी विज्ञान विषयों का समावेश होगा ।), पर्यावरण, सृष्टिविज्ञान
 
# समष्टि से संबन्धित विषय: यह क्षेत्र सबसे व्यापक रहेगा । इनमें सभी सामाजिक शास्त्र यथा अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशास्त्र (जिसमें सर्व प्रकार की कारीगरी, तंत्रज्ञान, कृषि आदि का समावेश है), गृहशास्र आदि का समावेश हो । इनके विषय उपविषय अनेक हो सकते हैं ।
 
# समष्टि से संबन्धित विषय: यह क्षेत्र सबसे व्यापक रहेगा । इनमें सभी सामाजिक शास्त्र यथा अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशास्त्र (जिसमें सर्व प्रकार की कारीगरी, तंत्रज्ञान, कृषि आदि का समावेश है), गृहशास्र आदि का समावेश हो । इनके विषय उपविषय अनेक हो सकते हैं ।
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== अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, तत्त्वज्ञान ==
 
== अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, तत्त्वज्ञान ==
ये सब आधारभूत विषय हैं। गर्भावस्‍था से लेकर बड़ी आयु तक की शिक्षा में, सभी विषयों में ये विषय अनुस्यूत रहते हैं। इनके बारे में पढ़ने से पूर्व सभी विषयों का अधिष्ठान ये विषय बने ऐसा कथन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि शेष सभी विषय इन विषयों के प्रकाश में ही होने चाहिए। तभी उन्हें सांस्कृतिक कहा जायगा | उदाहरण के लिए भाषा हो या साहित्य, भौतिक विज्ञान हो या तंत्रज्ञान, अर्थशासत्र हो या राजशासत्र, इतिहास हो या संगणक, सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म आदि के अविरोधी रहेगा और उन्हें पूछे गए किसी भी प्रश्न का खुलासा इन शास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार दिया जाएगा ।
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ये सब आधारभूत विषय हैं। गर्भावस्‍था से लेकर बड़ी आयु तक की शिक्षा में, सभी विषयों में ये विषय अनुस्यूत रहते हैं। इनके बारे में पढ़ने से पूर्व सभी विषयों का अधिष्ठान ये विषय बने ऐसा कथन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि शेष सभी विषय इन विषयों के प्रकाश में ही होने चाहिए। तभी उन्हें सांस्कृतिक कहा जायगा उदाहरण के लिए भाषा हो या साहित्य, भौतिक विज्ञान हो या तंत्रज्ञान, अर्थशासत्र हो या राजशासत्र, इतिहास हो या संगणक, सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म आदि के अविरोधी रहेगा और उन्हें पूछे गए किसी भी प्रश्न का खुलासा इन शास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार दिया जाएगा ।
  
 
उदाहरण के लिए उत्पादन शास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने चाहिए कि नहीं अथवा यंत्रों का कितना उपयोग करना चाहिए यह निश्चित करते समय धर्म और अध्यात्म क्‍या कहते हैं यह पहले देखा जाएगा । यदि उनकी सम्मति है तो करना चाहिए, नहीं है तो छोड़ना चाहिए । आहार शास्त्र हेतु धर्म, संस्कार, प्रदूषण, आरोग्यशास्त्र आदि सभी विषयों का विचार किया जाना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या या विद्यालय का समयनिर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है यह विचार में लेना चाहिए ।
 
उदाहरण के लिए उत्पादन शास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने चाहिए कि नहीं अथवा यंत्रों का कितना उपयोग करना चाहिए यह निश्चित करते समय धर्म और अध्यात्म क्‍या कहते हैं यह पहले देखा जाएगा । यदि उनकी सम्मति है तो करना चाहिए, नहीं है तो छोड़ना चाहिए । आहार शास्त्र हेतु धर्म, संस्कार, प्रदूषण, आरोग्यशास्त्र आदि सभी विषयों का विचार किया जाना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या या विद्यालय का समयनिर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है यह विचार में लेना चाहिए ।
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स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। चितन के स्तर पर अध्यात्मशास्त्र, व्यवस्था के स्तर पर धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए । इन विषयों को वर्तमान में अंग्रेजी संज्ञाओं के अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता है । पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत, पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव, अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं। वे समग्र के अंश हैं समग्र नहीं। अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना चाहिए ।  
 
स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। चितन के स्तर पर अध्यात्मशास्त्र, व्यवस्था के स्तर पर धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए । इन विषयों को वर्तमान में अंग्रेजी संज्ञाओं के अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता है । पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत, पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव, अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं। वे समग्र के अंश हैं समग्र नहीं। अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना चाहिए ।  
  
इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशास्त्र । आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है । इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है । इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्वत की संकल्पना एकदूसरे में ओतप्रोत हैं। आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है। अनुभूति भी आत्मतत्त्व के समान खास भारतीय विषय है। इस अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है। कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सके हैं। हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और फिर भी धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा ।
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इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशास्त्र । आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है । इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है । इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्वत की संकल्पना एकदूसरे में ओतप्रोत हैं। आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है। अनुभूति भी आत्मतत्त्व के समान खास भारतीय विषय है। इस अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है। कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सके हैं। हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और तथापि धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा ।
  
 
इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।
 
इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।
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आचार और विचार प्रक्रिया आध्यात्मिक बनाने के बाद इनके बारे में शास्त्रीय पद्धति से पढ़ना चाहिए । केवल शास्त्र पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा । आत्मतत्त्व, ईश्वर, धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, कर्मकाण्ड आदि विषयों में तुलनात्मक अध्ययन करना, देशविदेशों में इन सब क्षेत्रों में क्या चल रहा है इसका आकलन करना, इनको लेकर क्या समस्या है यह पहचानना, उन समस्याओं का निराकरण कैसे हो सकता है इसका ज्ञानात्मक विचार करना इन विषयों के अंतर्गत ही आता है । उदाहरण के लिए इस दुनिया में सहअस्तित्वमें मानने वाले, इसका आग्रहपूर्वक पुरस्कार करने वाले और कट्टरता से नहीं मानने वाले समुदाय है । संचार माध्यमों के कारण छोटे हुए विश्व में इन परस्पर विरोधी समुदायों का क्या होगा ? ये एकदूसरे के साथ कैसे पेश आयेंगे ? उन्होंने कैसे पेश आना चाहिए ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए । वर्तमान में विश्वसंस्कृति, विश्वधर्म, विश्वनागरिकता की बात की जाती है । यह क्या है? भारतीय अध्यात्मसंकल्पना के अनुसार इसका क्या तात्पर्य है इसे भी समझना चाहिए ।
 
आचार और विचार प्रक्रिया आध्यात्मिक बनाने के बाद इनके बारे में शास्त्रीय पद्धति से पढ़ना चाहिए । केवल शास्त्र पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा । आत्मतत्त्व, ईश्वर, धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, कर्मकाण्ड आदि विषयों में तुलनात्मक अध्ययन करना, देशविदेशों में इन सब क्षेत्रों में क्या चल रहा है इसका आकलन करना, इनको लेकर क्या समस्या है यह पहचानना, उन समस्याओं का निराकरण कैसे हो सकता है इसका ज्ञानात्मक विचार करना इन विषयों के अंतर्गत ही आता है । उदाहरण के लिए इस दुनिया में सहअस्तित्वमें मानने वाले, इसका आग्रहपूर्वक पुरस्कार करने वाले और कट्टरता से नहीं मानने वाले समुदाय है । संचार माध्यमों के कारण छोटे हुए विश्व में इन परस्पर विरोधी समुदायों का क्या होगा ? ये एकदूसरे के साथ कैसे पेश आयेंगे ? उन्होंने कैसे पेश आना चाहिए ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए । वर्तमान में विश्वसंस्कृति, विश्वधर्म, विश्वनागरिकता की बात की जाती है । यह क्या है? भारतीय अध्यात्मसंकल्पना के अनुसार इसका क्या तात्पर्य है इसे भी समझना चाहिए ।
  
संक्षेप में ये ऐसे मूल विषय हैं जिनकी हमने घोर उपेक्षा की है और अन्यों ने गलत समझा है । आज भी पाश्चात्य विद्वान हमारे शास्त्र ग्रंथों का अर्थ प्रस्तुत करते हैं और उन्हें अधिकृत मनवाने का आग्रह करते हैं । हमारे विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल उन्हें अधिकृत मान भी लेते हैं । मेक्समूलर के समय से शुरू हुई यह परंपरा आज
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संक्षेप में ये ऐसे मूल विषय हैं जिनकी हमने घोर उपेक्षा की है और अन्यों ने गलत समझा है । आज भी पाश्चात्य विद्वान हमारे शास्त्र ग्रंथों का अर्थ प्रस्तुत करते हैं और उन्हें अधिकृत मनवाने का आग्रह करते हैं । हमारे विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल उन्हें अधिकृत मान भी लेते हैं । मेक्समूलर के समय से शुरू हुई यह परंपरा आज भी कायम है । हमें इससे मुक्त होने के लिए अध्ययन करने की आवश्यकता है । भारत की पहचान आध्यात्मिक देश की है, भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है, भारत की संस्कृति सर्वसमावेशक है इस बात को ज्ञानात्मक दृष्टि से समझना इस विषय के अध्ययन का मूल काम है ।
 
 
भी कायम है । हमें इससे मुक्त होने के लिए अध्ययन करने की आवश्यकता है । भारत की पहचान आध्यात्मिक देश की है, भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है, भारत की संस्कृति सर्वसमावेशक है इस बात को ज्ञानात्मक दृष्टि से समझना इस विषय के अध्ययन का मूल काम है ।
 
  
 
== समाजशास्त्र ==
 
== समाजशास्त्र ==
 
समाजशास्त्र भारतीय ज्ञानक्षेत्र में स्मृति के नाम से परिचित है और उसे मानवधर्मशास्त्र कहा गया है । अपने आप में यह महत्त्वपूर्ण संकेत है । समाजशास्त्र मनुष्य के मनुष्य के साथ रहने की व्यवस्था का शास्त्र है। ऐसी व्यवस्था के लिए धर्म आधारभूत तत्त्व है यह बात इससे ध्यान में आती है । सांस्कृतिक समाजशास्त्र के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार होंगे ।
 
समाजशास्त्र भारतीय ज्ञानक्षेत्र में स्मृति के नाम से परिचित है और उसे मानवधर्मशास्त्र कहा गया है । अपने आप में यह महत्त्वपूर्ण संकेत है । समाजशास्त्र मनुष्य के मनुष्य के साथ रहने की व्यवस्था का शास्त्र है। ऐसी व्यवस्था के लिए धर्म आधारभूत तत्त्व है यह बात इससे ध्यान में आती है । सांस्कृतिक समाजशास्त्र के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार होंगे ।
  
समाजव्यवस्था करार सिद्धान्त के आधार पर नहीं बनी है । वह परिवार के सिद्धान्त पर बनी है । यह एक मूल अन्तर है जो आगे की सारी बातें बदल देता है । करार व्यवस्था का मूल भाव क्या है ? दो व्यक्ति या दो समूहों का हित अथवा लाभ जब एकदूसरे पर आधारित होता है तब उन्हें लेनदेन करनी ही पड़ती है । तब दूसरा व्यक्ति या समूह अपने से अधिक लाभान्वित न हो जाय अथवा अपने को धोखा न दे जाय इस दृष्टि से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है । बहुत ध्यान देकर ऐसी व्यवस्था की जाती है । इसे करार कहते हैं । जब कभी अपना लाभ दूसरे से कम दिखाई दे तो करार भंग किया जाता है और नये व्यक्ति अथवा नये समूह के साथ करार किया जाता है । करार भंग करने की कीमत भी चुकानी होती है। यह कीमत अधिकतर पैसे के रूप में होती है । सम्पूर्ण समाजव्यवस्था जब इस सिद्धान्त पर बनी होती है तब उसे सामाजिक करार सिद्धान्त कहते हैं । इस विचारधारा में मनुष्य स्व को केन्द्र में रखकर ही व्यवहार करेगा और अपने सुख को ही वरीयता देगा और उसे सुरक्षित करने का प्रयास करेगा यह बात स्वाभाविक मानी गई है । एक ही नहीं सभी मनुष्य इसी प्रकार से व्यवहार करेंगे यह भी स्वाभाविक ही माना जाता है । अत: सबको अपने अपने हित को सुरक्षित करने की चिन्ता स्वयं ही करनी चाहिए यह स्वाभाविक सिद्धान्त बनता है । भारत में यह सिद्धान्त मूल रूप से स्वीकार्य नहीं है ।  
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समाजव्यवस्था करार सिद्धान्त के आधार पर नहीं बनी है। वह परिवार के सिद्धान्त पर बनी है । यह एक मूल अन्तर है जो आगे की सारी बातें बदल देता है । करार व्यवस्था का मूल भाव क्या है ? दो व्यक्ति या दो समूहों का हित अथवा लाभ जब एकदूसरे पर आधारित होता है तब उन्हें लेनदेन करनी ही पड़ती है । तब दूसरा व्यक्ति या समूह अपने से अधिक लाभान्वित न हो जाय अथवा अपने को धोखा न दे जाय इस दृष्टि से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है । बहुत ध्यान देकर ऐसी व्यवस्था की जाती है । इसे करार कहते हैं । जब कभी अपना लाभ दूसरे से कम दिखाई दे तो करार भंग किया जाता है और नये व्यक्ति अथवा नये समूह के साथ करार किया जाता है । करार भंग करने की कीमत भी चुकानी होती है। यह कीमत अधिकतर पैसे के रूप में होती है । सम्पूर्ण समाजव्यवस्था जब इस सिद्धान्त पर बनी होती है तब उसे सामाजिक करार सिद्धान्त कहते हैं । इस विचारधारा में मनुष्य स्व को केन्द्र में रखकर ही व्यवहार करेगा और अपने सुख को ही वरीयता देगा और उसे सुरक्षित करने का प्रयास करेगा यह बात स्वाभाविक मानी गई है। एक ही नहीं सभी मनुष्य इसी प्रकार से व्यवहार करेंगे यह भी स्वाभाविक ही माना जाता है । अत: सबको अपने अपने हित को सुरक्षित करने की चिन्ता स्वयं ही करनी चाहिए यह स्वाभाविक सिद्धान्त बनता है । भारत में यह सिद्धान्त मूल रूप से स्वीकार्य नहीं है ।  
  
भारत में समाजव्यवस्था परिवार के सिद्धान्त पर बनी है। परिवार का केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । आत्मीयता का केन्द्रवर्ती तत्त्व है प्रेम । प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है दूसरे का विचार प्रथम करना । दूसरे से मुझे क्या और कितना मिलेगा उससे अधिक मैं दूसरे को क्या और कितना दे सकता हूँ इसकी चिन्ता करना परिवारभावना का मूल तत्त्व है। सम्पूर्ण व्यवस्था विश्वास के आधार पर होती है । इसी कारण से मानवधर्मशास्त्र हर व्यक्ति के या समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं । सब अपने अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर सब विश्वास करेंगे यह व्यवस्था का मूल सूत्र है । यह बात प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य को अपने आपको उन्नत बनाना होता है । प्रेम के स्तर पर पहुँचने के लिये भी साधना करनी होती है । परन्तु समाज प्राकृत मनुष्यों से नहीं बनता अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों का ही बनता है । इस विषय में एक उक्ति है<ref>शब्दकल्पद्रुम</ref>:<blockquote>पशूनाम्‌ पशुसमानानाम्‌ मूर्खाणाम समूह: समज: ।</blockquote><blockquote>पशुभिन्नानाम्‌ अनेकेषाम्‌ प्रामाणिक जनानाम्‌ ।</blockquote><blockquote>वासस्थानम्‌ तथा सभा समाज ।।</blockquote>अर्थात्‌ जो पशु होते हैं, पशुतुल्य होते हैं उनके समूह को समज कहा जाता है परन्तु पशुओं से भिन्न, सुसंस्कृत लोगों के समूह को ही समाज कहा जाता है। अत: सुसंस्कृत होना समाज के सदस्य बनने लिये प्रथम आवश्यकता है । समाजव्यवस्था के सभी संबन्ध अधिकार नहीं अपितु कर्तव्य, लेना नहीं अपितु देना, स्वार्थ नहीं अपितु परार्थ के विचार पर ही बने हैं । मालिक नौकर, राजा प्रजा, शिक्षक विद्यार्थी, व्यापारी ग्राहक आदि पिता पुत्र जैसा व्यवहार करें यह अपेक्षित है ।
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भारत में समाजव्यवस्था परिवार के सिद्धान्त पर बनी है। परिवार का केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । आत्मीयता का केन्द्रवर्ती तत्त्व है प्रेम । प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है दूसरे का विचार प्रथम करना। दूसरे से मुझे क्या और कितना मिलेगा उससे अधिक मैं दूसरे को क्या और कितना दे सकता हूँ इसकी चिन्ता करना परिवारभावना का मूल तत्त्व है। सम्पूर्ण व्यवस्था विश्वास के आधार पर होती है। इसी कारण से मानवधर्मशास्त्र हर व्यक्ति के या समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं । सब अपने अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर सब विश्वास करेंगे यह व्यवस्था का मूल सूत्र है। यह बात प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य को अपने आपको उन्नत बनाना होता है। प्रेम के स्तर पर पहुँचने के लिये भी साधना करनी होती है। परन्तु समाज प्राकृत मनुष्यों से नहीं बनता अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों का ही बनता है । इस विषय में एक उक्ति है<ref>शब्दकल्पद्रुम</ref>:<blockquote>पशूनाम्‌ पशुसमानानाम्‌ मूर्खाणाम समूह: समज: ।</blockquote><blockquote>पशुभिन्नानाम्‌ अनेकेषाम्‌ प्रामाणिक जनानाम्‌ ।</blockquote><blockquote>वासस्थानम्‌ तथा सभा समाज ।।</blockquote>अर्थात्‌ जो पशु होते हैं, पशुतुल्य होते हैं उनके समूह को समज कहा जाता है परन्तु पशुओं से भिन्न, सुसंस्कृत लोगों के समूह को ही समाज कहा जाता है। अत: सुसंस्कृत होना समाज के सदस्य बनने लिये प्रथम आवश्यकता है । समाजव्यवस्था के सभी संबन्ध अधिकार नहीं अपितु कर्तव्य, लेना नहीं अपितु देना, स्वार्थ नहीं अपितु परार्थ के विचार पर ही बने हैं । मालिक नौकर, राजा प्रजा, शिक्षक विद्यार्थी, व्यापारी ग्राहक आदि पिता पुत्र जैसा व्यवहार करें यह अपेक्षित है ।
 
* गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
 
* गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
* गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं।  एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु  
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* गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं।  एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है। विवाहसंस्कार इसका प्रमुख  कारक है। विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थर्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है।  
* है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है। विवाहसंस्कार इसका प्रमुख  कारक है। विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशासत्र, धर्मशाख्तर  और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थर्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है। * समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है।  शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है। दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं। एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर बसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर बसूलती है। एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है | एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है। शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का ।  * भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है। स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है। हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं । * भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है। त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता, कृतज्ञता आदि समाजधारणा हेतु आवश्यक तत्त्व लोकमानस में प्रतिष्ठित किए जाते हैं। पाप और पुण्य की संकल्पना  परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है। दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है। * व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में  ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती  है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक  चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो  शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था ।  * धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये  है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो  उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी  यह उसका सीधासादा कारण है । *» वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था भारतीय समाज के मूल तत्त्व हैं। इन सबके दायित्व बहुत  विस्तार से धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं। ऋषिक्रण,  पितृक्रण और देवक्रण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्पपा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी  गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है। इन क्रणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है। ये पाँच महायज्ञ हैं ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, ;पितृयज्ञ और मनुप्ययज्ञ ।  मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह  संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है। मनुष्य के  जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की  संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है । इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व बताने का प्रयास यहाँ हुआ है । वर्तमान दुविधा यह है कि यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है
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* समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है।  शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है। दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं। एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर वसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर वसूलती है। एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है। शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का।
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* भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है। स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है। हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं।  
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* भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है। त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता, कृतज्ञता आदि समाजधारणा हेतु आवश्यक तत्त्व लोकमानस में प्रतिष्ठित किए जाते हैं। पाप और पुण्य की संकल्पना  परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है। दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है।  
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* व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में  ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती  है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक  चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो  शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था।
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* धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये  है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो  उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी  यह उसका सीधासादा कारण है।  
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* ऋषिऋणपितृऋण और देवऋण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्परा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी  गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है, इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है। इन ऋणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है। ये पाँच महायज्ञ हैं: ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, ;पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ। मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह  संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है। मनुष्य के  जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की  संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है । इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व बताने का प्रयास यहाँ हुआ है। वर्तमान दुविधा यह है कि यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है और इसकी इतनी दुर्गति हुई है कि हम जानते ही नहीं है कि हमने क्या क्‍या गंवा दिया है। जो शास्त्र बचे हैं, जो परम्परायें बची हैं वे एक ओर तो विकृत हो गईं हैं और दूसरी ओर बदनाम हुई है। बदनामी का मुख्य माध्यम शिक्षा है। अत: आज पुनः पाश्चात्य आधुनिक विचार के भूत से पिंड छुड़ाकर नये सिरे से अध्ययन और अनुसन्धान कर युगानुकूल रचना बनानी होगी। शिक्षाक्षेत्र की यह बड़ी चुनौती है।
 
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* ''है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है । विवाहसंस्कार इसका प्रमुख कारक है । विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थार्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है ।''
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== अर्थशास्त्र ==
* ''समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है। शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है । दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं । एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर वसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर वसूलती है । एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है । एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है । शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का ।''
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वर्तमान समय में जीवन अर्थनिष्ठ बन गया है और अर्थ ने केन्द्रवर्ती स्थान ग्रहण कर लिया है। साथ ही मनुष्य अर्थप्राप्ति के लिये इतना परेशान हो गया है कि समाज का तो वह विचार ही नहीं कर सकता । चारों ओर से संकट उसे घेर रहे हैं और जिस दिशा में वह जा रहा है या घसीटा जा रहा है उसका अन्त कहाँ होगा इस विषय में अनिष्ट आशंकायें उठ रही हैं। इस संदर्भ में सांस्कृतिक अर्थशास्त्र के कुछ बिन्दु यहाँ दिये गए हैं ।
* ''भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है । स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है । हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं ।''
 
* ''भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है । त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता,  कृतज्ञता आदि प्रतिष्ठित किए जाते हैं परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है । दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है।''
 
* ''व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था ।''
 
* ''धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी यह उसका सीधासादा कारण है ।''
 
*  ''ऋषिऋण, पितृऋण और देवऋण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्परा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है । इन ऋणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है । ये पाँच महायज्ञ हैं ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ । मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है । मनुष्य के जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है ।''
 
''इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व बताने का प्रयास यहाँ हुआ है । वर्तमान दुविधा यह है कि  । पाप और पुण्य की संकल्पना ... यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है''
 
 
 
''और इसकी इतनी दुर्गति हुई है कि हम. मुख्य माध्यम शिक्षा है। अत: आज पुन: पाश्चात्य''
 
 
 
''जानते ही नहीं है कि हमने कया क्या गंवा दिया है। जो... “आधुनिक' विचार के भूत से पिंड छुड़ाकर नये सिरे से''
 
 
 
''शास्त्र बचे हैं, जो परम्परायें बची हैं वे एक ओर तो विकृत ... अध्ययन और अनुसन्धान कर युगानुकूल रचना बनानी''
 
 
 
''हो गईं हैं और दूसरी ओर बदनाम हुई है । बदनामी का... होगी । शिक्षाक्षेत्र की यह बड़ी चुनौती है ।''
 
 
 
== ''अर्थशास्त्र'' ==
 
''वर्तमान समय में जीवन अर्थनिष्ठ बन गया है और है । मोक्ष साध्य है, प्रत्येक मनुष्य का जाने अनजाने, चाहे''
 
 
 
''अर्थ ने केन्द्रवर्ती स्थान ग्रहण कर लिया है । साथ ही मनुष्य... अनचाहे जीवनलक्ष्य है । मोक्ष परिणति है, त्रिवर्ग साधन हैं ।''
 
 
 
''अर्थप्राप्ति के लिये इतना परेशान हो गया है कि समाज का. व्यवहार में साध्य को, लक्ष्य को ठीक करने की आवश्यकता''
 
 
 
''तो वह विचार ही नहीं कर सकता । चारों ओर से संकट. नहीं होती, साधन को ही ठीक करने की आवश्यकता होती''
 
 
 
''उसे घेर रहे हैं और जिस दिशा में वह जा रहा है या घसीटा. है।''
 
 
 
''जा रहा है उसका अन्त कहाँ होगा इस विषय में अनिष्ट त्रिर्ग के तीन पुरुषार्थों का एकदूसरे के साथ''
 
 
 
''आशरंकायें उठ रही हैं । इस संदर्भ में सांस्कृतिक अर्थशास्त्र. समायोजन इस प्रकार है -''
 
 
 
''के कुछ बिन्दु यहाँ दिये गए हैं । काम मनुष्य की जन्मजात - प्राकृत - प्रवृत्ति है । काम''
 
 
 
''का अर्थ है कामना । कामना का अर्थ है इच्छा । इच्छा मन''
 
 
 
''का स्वभाव है । इच्छाएँ अनन्त, असीम होती हैं । अपूरणीय''
 
 
 
''होती हैं । उन्हें कभी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता । इस सन्दर्भ''
 
 
 
''में महाभारत का यह श्लोक मननीय है -''
 
 
 
''न जातु काम: कामानाम्‌ू उपभोगेन शाम्यते ।''
 
 
 
''हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाशिवर्धते ।।''
 
 
 
''अर्थात्‌''
 
 
 
''fra ver aff 4 हवि डालने से असि शान्त होने''
 
 
 
''के स्थान पर अधिक प्रज्वलित होती है उसी प्रकार किसी भी''
 
 
 
''जन्म लिये हुए व्यक्ति की कामनाओं की शान्ति (तृप्ति)''
 
 
 
''उपभोग से अर्थात्‌ उन कामनाओं की पूर्ति से नहीं होती ।''
 
 
 
''यह काम, पूर्व में बताया गया है कि, मनुष्य की''
 
 
 
=== ''अर्थ, स्वरूप एवं व्याप्ति'' ===
 
''अर्थशास्त्र का विचार करना है तो उसे "६८०ा0705'''
 
 
 
''के अनुवाद के रूप में नहीं लेना चाहिये । भारतीय''
 
 
 
''विचारपद्धति में पुरुषार्थ चतुश्य की संकल्पना में “अर्थ'''
 
 
 
''पुरुषार्थ दिया गया है, उस “अर्थ के साथ सम्बन्धित''
 
 
 
''“अर्थशास््र' का विचार करना चाहिये । ऐसा करने से उसका''
 
 
 
''स्वरूप, व्याप्ति, परिभाषाएँ आदि बदलेंगी । इस परिवर्तन के''
 
 
 
''परिणाम स्वरूप वह (अर्थशास्त्र) भारतीय मानस, भारतीय''
 
 
 
''मानस के अनुसार बनते व्यवहार और उन व्यवहारों को सुकर''
 
 
 
''एवं सुगम बनाने हेतु निर्मित व्यवस्थाओं के साथ समरस''
 
 
 
''होगा । परिणाम स्वरूप भारतीय जीवन स्वस्थ और समृद्ध''
 
 
 
''ही य विश्वकल्याण के अपने लक्ष जन्मजात प्रकृति है और उसकी पूर्ति जन्मजात प्रवृत्ति है ।''
 
  
''इस काम को त्रिवर्ग का एक पुरुषार्थ माना गया है ।''
+
=== अर्थ, स्वरूप एवं व्याप्ति ===
 +
अर्थशास्त्र का विचार करना है तो उसे "Economics" के अनुवाद के रूप में नहीं लेना चाहिये। भारतीय विचारपद्धति में पुरुषार्थ चतुष्टय की संकल्पना में "अर्थ" पुरुषार्थ दिया गया है, उस अर्थ के साथ सम्बन्धित "अर्थशास्त्र" का विचार करना चाहिये । ऐसा करने से उसका स्वरूप, व्याप्ति, परिभाषाएँ आदि बदलेंगी । इस परिवर्तन के परिणाम स्वरूप वह (अर्थशास्त्र) भारतीय मानस, भारतीय मानस के अनुसार बनते व्यवहार और उन व्यवहारों को सुकर एवं सुगम बनाने हेतु निर्मित व्यवस्थाओं के साथ समरस होगा । परिणाम स्वरूप भारतीय जीवन स्वस्थ और समृद्ध होगा । स्वस्थ और समृद्ध भारत विश्वकल्याण के अपने लक्ष्य की प्राप्ति में यशस्वी होगा
  
=== ''पुरुषार्थ चतुष्टय'' ===
+
=== पुरुषार्थ चतुष्टय ===
''कामनापूर्ति के लिये जो भी प्रयास किये जाते हैं और''
+
चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष । इनके दो भाग किये गये हैं। एक भाग में हैं धर्म, अर्थ और काम । दूसरे भाग में है मोक्ष । धर्म, अर्थ, काम को “त्रिवर्ग' कहा गया है, मोक्ष को अपवर्ग ।  त्रिवर्ग का सम्बन्ध मनुष्य के जीवन व्यवहार के साथ है। मोक्ष साध्य है, प्रत्येक मनुष्य का जाने अनजाने, चाहे अनचाहे जीवनलक्ष्य है । मोक्ष परिणति है, त्रिवर्ग साधन हैं । व्यवहार में साध्य को, लक्ष्य को ठीक करने की आवश्यकता नहीं होती, साधन को ही ठीक करने की आवश्यकता होती है।
  
''चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष । इनके जो भी संसाधन जुटाये जाते हैं वे अर्थ हैं और जो भी किया''
+
त्रिवर्ग के तीन पुरुषार्थों का एकदूसरे के साथ समायोजन इस प्रकार है:
  
''दो भाग किये गये हैं । एक भाग में हैं धर्म, अर्थ और काम । ता है वह सब आर्थिक व्यवहार है । ये प्रयास व्यक्तिगत''
+
काम मनुष्य की जन्मजात - प्राकृत - प्रवृत्ति है। काम का अर्थ है कामना । कामना का अर्थ है इच्छा । इच्छा मन का स्वभाव है । इच्छाएँ अनन्त, असीम होती हैं । अपूरणीय होती हैं । उन्हें कभी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता । इस सन्दर्भ में महाभारत का यह श्लोक<ref>महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 75, श्लोक 50</ref> मननीय है -<blockquote>न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। </blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌</blockquote>जिस प्रकार अग्नि में हवि डालने से अग्नि शान्त होने के स्थान पर अधिक प्रज्वलित होती है उसी प्रकार किसी भी जन्म लिये हुए व्यक्ति की कामनाओं की शान्ति (तृप्ति) उपभोग से अर्थात्‌ उन कामनाओं की पूर्ति से नहीं होती । यह काम, पूर्व में बताया गया है कि, मनुष्य की जन्मजात प्रकृति है और उसकी पूर्ति जन्मजात प्रवृत्ति है । इस काम को त्रिवर्ग का एक पुरुषार्थ माना गया है कामनापूर्ति के लिये जो भी प्रयास किये जाते हैं और जो भी संसाधन जुटाये जाते हैं वे अर्थ हैं और जो भी किया जाता है वह सब आर्थिक व्यवहार है । ये प्रयास व्यक्तिगत भी होते हैं और समष्टिगत भी होते हैं। अतः संसाधन, संसाधनों की प्राप्ति और संसाधनों का विनियोग ये तीनों मिलकर अर्थ पुरुषार्थ बनता है ।
  
''x धर्म, अर्थ भी होते हैं और समष्टिगत भी होते हैं । अतः संसाधन''
+
कामनापूर्ति और कामनापूर्ति के लिये संसाधनों की प्राप्ति को सर्वजनहित और सर्वजनसुख तथा जन्मजात लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के अनुकूल बनाने के लिये जो सार्वभौम नियम व्यवस्था है वह धर्म पुरुषार्थ है । अतः अर्थ और काम धर्म के अनुकूल हों, धर्म के अविरोधी हों यह अनिवार्य आवश्यकता है । किसी भी शास्त्र का धर्म के अविरोधी होना अथवा धर्माधारित होना स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी।
 
 
''दूसरे भाग में है मो , अर्थ, al ‘Bal’ संसाधनों साधनों ,''
 
 
 
''गया है, ! एम i | ऊन, काम न कही संसाधनों की प्राप्ति और संसाधनों का विनियोग ये तीनों''
 
 
 
''त्रिवर्ग का सम्बन्ध मनुष्य के जीवन व्यवहार के साथ मिलकर अर्थ पुरषार्थ बनता है |''
 
 
 
''श्घ्ढ''
 
 
 
............. page-281 .............
 
 
 
पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
 
 
कामनापूर्ति और कामनापूर्ति के लिये संसाधनों की
 
 
 
प्राप्ति को सर्वजनहित और सर्वजनसुख तथा जन्मजात लक्ष्य
 
 
 
मोक्ष की प्राप्ति के अनुकूल बनाने के लिये जो सार्वभौम
 
 
 
नियम व्यवस्था है वह धर्म पुरुषार्थ है ।
 
 
 
अतः अर्थ और काम धर्म के अनुकूल हों, धर्म के
 
 
 
अविरोधी हों यह अनिवार्य आवश्यकता है ।
 
 
 
किसी भी शास्त्र का धर्म के अविरोधी होना अथवा
 
 
 
धर्माधारित होना स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी ।
 
  
 
=== इच्छा और आवश्यकता ===
 
=== इच्छा और आवश्यकता ===
काम पुरुषार्थ की चर्चा करते समय बताया गया कि
+
काम पुरुषार्थ की चर्चा करते समय बताया गया कि कामना कभी भी सन्तुष्ट नहीं होती । यह भी कहा गया कि कामनापूर्ति के लिये संसाधन उपलब्ध करना और करवाना
 
 
कामना कभी भी सन्तुष्ट नहीं होती । यह भी कहा गया कि
 
 
 
कामनापूर्ति के लिये संसाधन उपलब्ध करना और करवाना
 
 
 
यह अर्थ पुरुषार्थ है ।
 
 
 
परन्तु यह तो असम्भव को सम्भव मानने वाला कथन
 
  
हुआ । यह व्यवहार में कभी सिद्ध नहीं हो सकता । यह
+
यह अर्थ पुरुषार्थ है। परन्तु यह तो असम्भव को सम्भव मानने वाला कथन हुआ । यह व्यवहार में कभी सिद्ध नहीं हो सकता । यह आकाशकुसुम जैसा अथवा शशश्रुंग जैसा अतार्किक (illogical) कथन होगा। इसको आधार मानकर कुछ भी करेंगे तो सर्वजनहित और सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा । सर्वजनहित और सर्वजनसुख तो दूर की बात है, एक व्यक्ति का हित और सुख भी प्राप्त होना असम्भव है।
  
आकाशकुसुम जैसा अथवा शशशुंग जैसा अतार्किक
+
इसलिये प्रथम तो इच्छा अथवा कामना का ही सन्दर्भ ठीक करना आवश्यक है । इस सन्दर्भ में "इच्छा" और "आवश्यकता" (desires and needs) का अन्तर समझना आवश्यक है । इच्छा मन से सम्बन्धित है, आवश्यकता शरीर और प्राण से सम्बन्धित है । आहार, निद्रा, आश्रय, सुरक्षा, आराम ये शरीर और प्राण की आवश्यकताएँ हैं परन्तु विलास, संग्रह और परिग्रह, स्वामित्व ये मन की इच्छा है । अन्न, वस्त्र, निवास, प्राणरक्षा के जितने भी साधन हैं वे आवश्यकता हैं परन्तु विविध प्रकार के वस्त्र, विभिन्न स्वाद युक्त मिष्ठान्न, शोभा की वस्तुएँ, कोष में धन, सुवर्ण-रत्न-माणिक्य के अलंकार, अनेक वाहन, धनसम्पत्ति ये सब इच्छायें हैं । आवश्यकतायें सीमित होती हैं, इच्छायें असीमित ।
  
(illogical) FIA EFT | gael STI मानकर कुछ भी
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आवश्यकता की पूर्ति हर व्यक्ति का (अथवा जिनको भी प्राणरक्षा करनी है, अपना अस्तित्व बनाये रखना है उन सबका) जन्मसिद्ध अधिकार है । इच्छाओं के अधीन नहीं होना, इच्छाओं को संयमित और नियन्त्रित करना हर व्यक्ति का कर्तव्य है । ऐसा भी नहीं है कि इच्छाओं की पूर्ति सर्वथा निषिद्ध है । यदि ऐसा होता तो वस्त्रालंकार और सुखचैन के साधनों का निर्माण कभी होता ही नहीं । वैभव संपन्नता कभी आती ही नहीं । कलाकारीगरी का विकास कभी होता ही नहीं । और भारत में तो वैभवसंपन्नता बहुत रही है, वस्त्रालंकार, खानपान, आमोदप्रमोद आदि का वैविध्य विपुल मात्रा में रहा है। इसलिये इच्छाओं को संयमित और नियमित करने का अर्थ उन्हें कम करना या सर्वथा त्याग करना नहीं है । इसका अर्थ यह है कि आवश्यकताओं को तो हम अधिकार के रूप में ले सकते हैं परन्तु इच्छाओं को सर्वजनसुख और सर्वजनहित रूपी धर्म के द्वारा नियंत्रित करके ही पूर्ण किया जा सकता है ।
  
करेंगे तो सर्वजनहित और सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं
+
इसको श्रीमदभगवद्गीता<ref>श्रीमदभगवद्गीता ७.११</ref> में<blockquote>बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।</blockquote><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>अर्थात्‌ “सर्व प्राणियों में धर्म के अविस्द्ध जो काम है वह मैं (परमात्मा) हूँ ' कहकर उसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है ।
  
होगा सर्वजनहित और सर्वजनसुख तो दूर की बात है, एक
+
अतः अर्थ पुरुषार्थ का और अर्थशास्त्र का विचार आवश्यकतापूर्ति के सन्दर्भ में करना होता है, इच्छापूर्ति के सन्दर्भ में नहीं यह सम्भव है कि एक ही पदार्थ, एक ही क्रिया एक सन्दर्भ में इच्छा और अन्य सन्दर्भ में आवश्यकता होगी । अतः इच्छा और आवश्यकता में विवेक करना हर समय आवश्यक ही है । अर्थशास्त्र का जीवनशास्त्र के सन्दर्भ में विचार करना आवश्यक है। इसका अर्थ है जीवनशास्त्र के अन्यान्य पहलुओं से सम्बन्धित जो शास्त्र हैं उनके साथ अर्थशास्त्र का समायोजन होना चाहिये । उदाहरण के लिये समाजशास्त्र पर्यावरण, तकनीकी, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र आदि के साथ अर्थशास्त्र का अनुकूल सम्बन्ध होना चाहिये । अर्थशास्त्र की सार्थकता एवं उपादेयता हेतु ऐसा होना अपरिहार्य है। इस दृष्टि से अर्थशास्र का विचार करते समय निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है
  
व्यक्ति का हित और सुख भी प्राप्त होना असम्भव 2 |
+
==== प्रभूत उत्पादन ====
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सर्वजन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संसाधन चाहिये । संसाधनों की उपलब्धता वस्तुओं के उत्पादन पर निर्भर करती है। अतः उत्पादन प्रभूत मात्रा में होना चाहिये । उत्पादन हेतु तीन बातों की आवश्यकता होती है ।
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* प्राकृतिक स्रोत: भूमि की उर्वरता, जलवायु की अनुकूलता, खानों खदानों में प्राप्त खनिज, अरण्यों में प्राप्त वनस्पति, समुद्र में प्राप्त रत्न आदि ।
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* मानवीय कौशल: मनुष्य की बुद्धि और हाथ की निर्माण क्षमता ।
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* विनियोग का विवेक: उत्पादित सामग्री का वितरण, रखरखाव, गुणवत्ता, उपभोग आदि की समझ ।
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एक बात ध्यान में रखने योग्य है। आवश्यकताओं के सन्दर्भ में ही प्रभूतता का विचार किया जा सकता है, इच्छाओं के सन्दर्भ में नहीं । क्यों कि जैसा पूर्व में कहा गया है आवश्यकतायें सीमित होती हैं और शीघ्र संतुष्ट हो जाती हैं। मनुष्य भूख होती है उतना ही खाता है, एक साथ एक ही वस्त्र पहनता है आदि, परन्तु इच्छायें असीमित होती हैं, कभी भी पूरणीय नहीं होती ।
  
इसलिये प्रथम तो इच्छा अथवा कामना का ही सन्दर्भ
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इस दृष्टि से मनःसंयम अर्थव्यवस्था के लिये बहुत बड़ा सहायक और प्रेरक तत्त्व है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर हमें economy of abundance - प्रभूतता का अर्थशास्त्र की संकल्पना को प्रस्थापित और प्रतिष्ठित करना चाहिये । वर्तमान अर्थशास्त्र economy of want - अभाव का अर्थशास्त्र है । वही बाजार को चालना देता है, उत्पादन को प्रभावित करता है, वितरण को नियंत्रित करता है और कीमतों का निर्धारण करता है। इसके स्थान पर प्रभूतता का अर्थशास्त्र प्रतिष्ठित होने से स्थितियाँ बहुत बदल जायेंगी ।
  
ठीक करना आवश्यक है इस सन्दर्भ में “इच्छा” और
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==== उत्पादन, व्यवसाय और अर्थार्जन ====
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चीजों के उत्पादन हेतु भिन्न भिन्न व्यवसायों की निश्चिति होती है। इसे उत्पादन को व्यवस्थित करना कह सकते हैं उत्पादन के साथ मनुष्यों का सम्बन्ध है। अतः हर मनुष्य का उत्पादन में सहभागी होना आवश्यक है। उत्पादन उपभोग के लिये होता है। इसलिये समाज की आवश्यकताओं ने उत्पादन का निर्धारण और नियमन करना चाहिये ।
  
<nowiki>*</nowiki>आवश्यकता” (1९९७५ 800 0९565) का अन्तर समझना
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इस नियमन का स्वरूप इस प्रकार बनेगा -
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* समाज की आवश्यकता हेतु उत्पादन होना चाहिये।
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* उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्यवस्था होनी चाहिये।
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वास्तव में किसी भी वस्तु का निर्माण इसीलिये होता है क्यों कि उसकी इच्छा या आवश्यकता होती है । जब यह निर्माण स्वयं के लिये व्यक्ति स्वयं ही बनाता है तब तो समस्या पैदा नहीं होती, परंतु एक की आवश्यकता के लिये दूसरा बनाता है तब प्रश्न पैदा होते हैं । जब दूसरा बनाता है तब एक को वस्तु मिलती है, दूसरे को पैसा । इसलिये अर्थार्जन और आवश्यकता ये दोनों बातें उत्पादन के साथ जुड जाती हैं । अब प्रश्न यह होता है कि उत्पादन अर्थार्जन के लिये करना या आवश्यकता की पूर्ति के लिये। यदि अर्थार्जन को ही प्राथमिकता दी जायेगी तो अनावश्यक वस्तु का भी उत्पादन होगा, आवश्यक वस्तु का नहीं होगा। अनावश्यक वस्तु का उत्पादन करने पर उन्हें कोई लेने वाला नहीं होगा तो उत्पादन बेकार जायेगा, अर्थार्जन भी नहीं होगा । फिर अनावश्यक वस्तु के लिये कृत्रिम रूप से आवश्यकता निर्माण की जायेगी। इससे मनुष्य की बुद्धि, मन, शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और समाजजीवन में अनवस्था निर्माण होगी । आज यही हो रहा है। उत्पादक अर्थर्जन का हेतु मन में रखकर उत्पादन करता है और ग्राहक को येन केन प्रकारेण उसे खरीदने पर विवश करता है ।
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* उत्पादन में हर व्यक्ति की सहभागिता होनी चाहिये । यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है। उत्पादन हेतु जो भी व्यवसाय होते हैं उनमें जुडे हर व्यक्ति का स्थान सहभागिता का होना चाहिये । यह सहभागिता स्वामित्वयुक्त होनी चाहिये, नौकरी करने की नहीं । व्यवसाय के स्वामित्व में सहभागिता होने से व्यक्ति का सम्मान, गौरव और स्वतंत्रता बनी रहती है । ये व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक आवश्यकतायें होती हैं। स्वामित्व के भाव के कारण उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादित वस्तु के साथ भी आत्मीयता का भाव आता है और उत्पादन के श्रम में आनंद का अनुभव होता है । ये सब सुसंस्कृत जीवन के निर्देशांक हैं ।
  
आवश्यक है ।
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* '''उत्पादन में सहभागिता हेतु व्यक्ति स्वयं सक्षम होना चाहिये ।'''
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* किसी भी व्यक्ति को परावंलबी बनना अच्छा भी नहीं लगता, और उसने परावलंबी होना भी नहीं चाहिये । अपने और दूसरों के निर्वाह हेतु किसी न किसी प्रकार से उत्पादन करने की क्षमता हर व्यक्ति में होनी चाहिये ।
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* '''व्यक्ति को उत्पादन में सहभागी होने के लिये सक्षम बनाने हेतु समाज द्वारा व्यवस्था बननी चाहिये।'''
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* '''उत्पादन में सहभागी होने के फलस्वरूप व्यक्ति को धन की प्राप्ति जो उसे अपने योगक्षेम हेतु आवश्यक है वह होनी चाहिये ।'''
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इस प्रकार से समष्टि की आवश्यकता यह प्रारम्भ बिन्दु बनना आवश्यक है । यदि यह दिशा बदलकर व्यक्ति की अर्थार्जन की प्रवृत्ति को प्रारम्भ बिन्दु बनाया जाता है तो सर्वजनहित सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता । व्यक्ति जन्म से ही उत्पादन करना, अर्थात्‌ वस्तुओं का निर्माण करना सीखकर नहीं आता । उसे निर्माण कार्य सीखना पड़ता है । हर व्यक्ति को यह सिखाने की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है । अतः उत्पादन व्यवस्था और उस हेतुसे उसकी शिक्षा देने की व्यवस्था समाजव्यवस्था का अभिन्न अंग है । आज के शिक्षाक्रम में सभी को साक्षर बनाने को तो अग्रक्रम दिया जाता है परन्तु सभी को निर्माणक्षम बनाने की व्यवस्था नहीं दिखाई देती है । उल्टे साक्षर होने के चक्कर में संभावित निर्माण क्षमता भी नष्ट होती है और निर्माण के अवसर भी नहीं मिलते । साथ ही निर्माण की मानसिकता को भी हानि होती है ।
  
इच्छा मन से सम्बन्धित है, आवश्यकता शरीर और
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=== व्यवसाय, परिवार, वर्ण ===
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व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु परिवारगत होना लाभदायी होता है। भारतीय समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं अपितु परिवार माना गया है। जिस समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं अपितु परिवार को माना गया है वहाँ व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु परिवारगत होना उचित है । अर्थव्यवस्था को इस आधार पर रखने से बहुत सारे सन्दर्भ बदल जाते हैं ।
  
प्राण से सम्बन्धित है । आहार, निद्रा, आश्रय, सुरक्षा,
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==== परिवार की समरसता बनी रहती है । ====
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वर्तमान में समाजव्यवस्था व्यक्तिकेंद्री बन गई है, उस प्रकार से व्यवसाय - चाहे उत्पादन हो चाहे नौकरी - भी व्यक्तिकेन्द्रित बन गये हैं। इस कारण से परिवार दो वर्गों में विभाजित हो गया है । एक होता है व्यवसाय करने वाले और उसके फलस्वरूप अर्थार्जन करने वाले व्यक्तियों का विभाग और दूसरा होता है अर्थार्जन नहीं करने वाले व्यक्तियों का विभाग। अर्थार्जन नहीं करने वाले व्यक्ति अर्थार्जन करने वाले के आश्रित हो जाते हैं । परिवार की समरसता भंग होने का यह एक कारण है । परिवार में बच्चों को छोड़कर और कोई आश्रित रहना नहीं चाहता । उससे अर्थार्जन की अपेक्षा भी की जाती है । परिवार में यदि सभी सदस्य एकदूसरे से भिन्न और स्वतंत्र व्यवसाय करते हैं तो उनके व्यवसाय के स्थान, परिवेश, रुचि, मित्रपरिवार, समय, अवकाश आदि सब भिन्न होते हैं । समरसता खण्डित होने का यह दूसरा कारण है । आश्रयदाता और आश्रित का सम्बन्ध कभी भी समरस नहीं हो सकता है । इसलिये पूरे परिवार का एक व्यवसाय होना लाभकारी रहता है ।
  
आराम ये शरीर और प्राण की आवश्यकताएँ हैं परन्तु
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==== हर व्यक्ति का योगक्षेम सुरक्षित रहता है । ====
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व्यवसाय परिवारगत होने के कारण से परिवार के हर व्यक्ति की व्यवसाय में सहभागिता होती है । परिवार में जन्म लेने वाले बालक को भी भविष्य के जीवन की चिन्ता नहीं रहती । साथ ही व्यवसाय के साथ उसका मानसिक जुडाव बन जाता है ।
  
विलास, संग्रह और परिग्रह, स्वामित्व ये मन की इच्छा है ।
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==== व्यवसाय अपने आप वंशानुगत हो जाता है । ====
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एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को स्वाभाविक क्रम में वह हस्तान्तरित होता रहता है । इससे दोहरा लाभ होता है । एक ओर तो नयी पीढ़ी अर्थार्जन की दृष्टि से सुरक्षित और निश्चित होती है, दूसरी ओर व्यवसाय को भी नष्ट होने का भय नहीं रहता। व्यवसाय में आत्मीयता के भाव से जुडने और कुशल लोगों का अभाव न रहने के कारण व्यवसाय को हानि नहीं पहुँचती । आज व्यवसाय परिवारगत नहीं होने से ये सारे संकट दिखाई दे रहे हैं । एक वैज्ञानिक को अपनी प्रयोगशाला, एक डॉक्टर को अपना अस्पताल, एक अध्यापक को अपना पुस्तकालय सम्हालने वाला और अपनी विज्ञान, स्वास्थ्यरक्षा और ज्ञान की परम्परा को आगे ले लाने वाला कोई नहीं मिलता । परम्परा खण्डित हो जाती है । दूसरी ओर नये वैज्ञानिक या अध्यापक या डाक्टर को विरासत में कुछ नहीं मिलता । उसे नये सिरे से संसाधन भी जुटाने पड़ते हैं और अनुभव भी प्राप्त करना पड़ता है । व्यक्ति, व्यवसाय और समाज तीनों को हानि उठानी पड़ती है ।
  
अन्न, वस्त्र, निवास, प्राणरक्षा के जितने भी साधन हैं वे
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==== व्यवसाय वंशानुगत होने से व्यावसायिक कुशलता बढती है ====
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व्यवसाय वंशानुगत होने से व्यावसायिक कुशलता बढती है और उत्पादन की गुणवत्ता भी बढ़ती है । परिवार में जन्म लेने वाले बालक को जन्मजात संस्कार के रूप में व्यवसाय की कुशलता प्राप्त होती है । बचपन से ही वह उस वातावरण में रहता है । श्रवनेंद्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय आदि के माध्यम से वह व्यवसायगत संवेदनात्मक अनुभव प्राप्त करता रहता है । व्यवसाय विषयक बातें सुनता है और समझता है । व्यवसाय से जुड़े खेल खेलता है। आयु बढ़ने के साथ व्यवसाय में सहयोगी होने लगता है और बिना आयास और बिना खर्च के व्यवसाय सीखा जाता है । यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि व्यवसाय के वंशानुगत होने से करने वाले की कुशलता और उत्पादन की गुणवत्ता बढती है ।
  
आवश्यकता हैं परन्तु विविध प्रकार & aa, विभिन्न
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व्यवसाय के वंशानुगत होने से समाजव्यवस्था में वर्णव्यवस्था भी साहजिक रूप से निर्माण होती है। प्रत्येक परिवार के योगक्षेम की एवं व्यवसाय की सुरक्षा, निश्चितता और निश्चिन्तता होती है । अर्थव्यवस्था को सुरक्षित करने का यह व्यावहारिक उपाय है । वंशानुगत जो भी व्यवसाय मिला है उसे सामान्य रूप से कोई छोड़ता नहीं है । छोड़ने की आवश्यकता भी नहीं है । भारत की समाज व्यवस्था में यह नियम भी बनाया गया था कि कोई बिना किसी उचित कारण से अपना व्यवसाय बदल नहीं सकता था । अन्यों के व्यवसाय की सुरक्षा उत्पादन व्यवस्था की निश्चितता, उत्पादन की गुणवत्ता आदि कई कारण होते हैं जिससे व्यवसाय बदलना हितकारक नहीं होता है ।
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# समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की भी निश्चितता एवं निश्चिन्तता बनी रहती है ।
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# व्यवसायगत. कौशल,  उत्कृष्टता,  सृजनशीलता, व्यवसायनिष्ठा, व्यवसायगौरव आदि बहुमूल्य तत्त्वों की सुरक्षा बनी रहती है । कोई अपना व्यवसाय छोड़ता नहीं है इसलिये समाज को अभाव का अनुभव नहीं करना पड़ता है ।
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# व्यवसायनिष्ठा के साथ साथ व्यवसाय के माध्यम से जो सामाजिक दायित्व प्राप्त हुआ है उसका बोध बना रहता है । व्यवसाय से यद्यपि अर्थार्जन होता है तथापि वह समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु है यह स्मरण हमेशा बना रहता है । वह बना रहे ऐसी व्यवस्था भी की जाती है । भारत में समाज को एक जीवमान इकाई मानकर समाजपुरुष की कल्पना की गई है । परिवारों के व्यवसायों पर इस समाजपुरुष का अधिकार रहता है । इस समाजपुरुष की सेवा हेतु व्यवसाय किया जाता है ।
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वास्तव में ये सब संस्कृति के सूचकांक (index of culture) हैं । व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में इसे व्यक्ति के अपना व्यवसाय चुनने के स्वातंत्रय पर आघात माना जाता है । परन्तु यह स्वतंत्रता की हानि नहीं है, यह व्यवस्था द्वारा नियमन है। उल्टे व्यक्ति को व्यवसाय चुनने और छोड़ने की “स्वतंत्रता” देने से आर्थिक अनिश्चितता, अव्यवस्था और दायित्वबोध के संकट निर्माण हो जाते हैं ।
  
स्वाद्युक्त मिष्टान्र, शोभा की वस्तुएँ, कोष में धन, सुवर्ण-
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=== कुछ बातों का क्रयविक्रय के दायरे से बाहर होना ===
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विद्या, अन्न (भोजन), जल, औषध, रुग्णपरिचर्या, शिशुसंगोपन, पूजा, धार्मिक अनुष्ठान आदि को क्रयविक्रय के दायरे से बाहर रखना चाहिये । ये सभी काम सेवा के हैं । इनका मूल्य भौतिक नहीं है, सांस्कृतिक है । ये मनुष्य के सांस्कृतिक विकास के सूचकांक हैं । ये आदरपात्र और पवित्र कार्य हैं । इनको भौतिक स्तर तक नीचे उतार देने से समाज और संस्कृति का पतन होता है । इन सबको व्यवसाय नहीं मानना चाहिये और अर्थार्जन के साथ नहीं जोडना चाहिये । अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों के साथ है । सेवा, अध्यापन, परिचर्या, प्रेम आदि अभौतिक तत्त्व हैं । पवित्रता, पुण्य आदि संकल्पनायें भी अभौतिक हैं । अन्न, जल आदि प्राकृतिक संसाधन हैं। तैयार किये गये भोजन को पवित्र माना गया है । इन सब को भौतिक संसाधनों के समकक्ष मानना अस्वाभाविक है । अर्थव्यवस्था में वस्तु-वस्तु अथवा वस्तु-श्रम के विनिमय की प्रथा थी तब भी ज्ञान, सेवा आदि को विनिमय के अन्तर्गत नहीं माना जाता था । आज अब नकद सिक्कों के माध्यम से लेन देन होता है तब सब कुछ सिक्कों में परिवर्तित हो जाता है । Everything is converted and computed into money. भौतिक के साथ साथ अत्यन्त यांत्रिक व्यवस्था है । प्रेम, सेवा, ज्ञान, संगोपन आदि को यांत्रिक पद्धति से सिक्कों में परिवर्तित करना अस्वाभाविक, अव्यावहारिक और अमनोवैज्ञानिक है । आज असंभव लगने वाली यह व्यवस्था दीर्घकाल तक भारत में व्यवहार में थी अतः इस चर्चा को काल्पनिक नहीं मानना चाहिये ।
  
रत्न-माणिक्य के अलंकार, अनेक वाहन, धनसम्पत्ति ये सब
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=== उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण ===
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उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से:
  
इच्छायें हैं ।
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==== उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना अति आवश्यक है ====
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यह अन्तर जितनी मात्रा में बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है, उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव, अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम का, धन का विनियोग करना पड़ता है । उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वस्त्र, लकड़ी, स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर दूर तक फैले हुए हों तो परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव, विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं । ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास (pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं। भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है । आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition), सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र - यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते हैं। इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है । वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये १०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक महँगा होता है।
  
आवश्यकतायें सीमित होती हैं, इच्छायें असीमित
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भारत में लंका के अथवा बसरा के मोती अधिक महँगे होते हैं । यह महँगा होना स्वाभाविक है। परन्तु गुजरात के गाँव में बनने वाला कपडे धोने का चूर्ण जिसका उत्पादक मूल्य बहुत साधारण है, जो पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर अति साधारण माना जायेगा वह यदि भारत के कोने कोने में बिकने हेतु जायेगा तो उसका मूल्य बीस गुना बढ जायगा । यह मूल्य अनुत्पादक है । आज की अर्थव्यवस्था में परिवहन, विज्ञापन, आडत, पैकिंग आदि अनुत्पादक बातें हैं जो अर्थव्यवस्था पर बोझ बनकर उसे आभासी बनाती है । जिस देश में ठोस की अपेक्षा आभासी अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है वह देश उतनी ही अधिक मात्रा में दरिद्र होता है
  
REQ
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==== उत्पादन का विकेन्द्रीकरण ====
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कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी चीजों के उत्पादन की व्यवस्था स्थानिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये । उत्पादन विकेन्द्रित होने से
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* उत्पादन के लिये मानवश्रम सुलभ होगा ।
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* लागत कम होगी ।
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* स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो जायेंगी ।
  
आवश्यकता की पूर्ति हर व्यक्ति का
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==== उत्पादक का स्वामित्व ====
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यह एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य है। विकेन्द्रित उत्पादन व्यवस्था का यह बहुत बड़ा लाभ है । मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है। उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर हालत में सम्भव होनी चाहिये । अत: मनुष्य को व्यवसाय का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहे तो विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में नौकरियाँ कम से कम और स्वामित्व की मात्रा अधिक से अधिक होनी चाहिये । व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार को अपने योगक्षेम हेतु अर्थार्जन दोनों समाविष्ट हैं। इसकी व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का हास नहीं होना चाहिये । इस दृष्टि से व्यवसाय में सहभागी स्वामित्व होना अपेक्षित है । विचार करने पर ध्यान में आता है कि परिवारगत व्यवसाय और सहभागी स्वामित्व एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
  
(अथवा जिनको भी प्राणरक्षा करनी है, अपना अस्तित्व
+
==== उत्पादन में मनुष्य और यन्त्र ====
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सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में और वितरण व्यवस्था में मनुष्य मुख्य है इसलिये सम्पूर्ण रचना मनुष्य केन्द्री और मनुष्य आधारित होना अपेक्षित है । यन्त्र मनुष्य द्वारा निर्मित होते हैं और मनुष्य के सहायक होते हैं। उनकी भूमिका सहायक की ही होनी चाहिये । इसलिये सारे के सारे यन्त्र मनुष्य के अधीन रहें और मनुष्य की सर्वोपरिता बनी रहे इस प्रकार की व्यवसाय रचना होनी चाहिये । यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार होते हैं । उनको काम नहीं मिलता है । भावात्मकता कम होती है। अधीनता बढती है । कौशलों का हास होने लगता है। इसके और भी परिणाम होते हैं जिन्हें हम side effects कह सकते हैं ।
  
बनाये रखना है उन सबका) जन्मसिद्ध अधिकार है ।
+
जैसे जैसे यंत्र बढते हैं बडे बडे कारखानों की आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या कम होती है परन्तु जो भी मनुष्य काम करने जाते हैं उन्हें घर छोड़कर व्यवसाय केन्द्र पर जाना पड़ता है। परिवहन की समस्या भी बढती है। दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है। यंत्र और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है। मनुष्य स्वाधीन नहीं रहता, यंत्र के अधीन और व्यवस्था का दास बन जाता है । इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पडता है। मनुष्य शुष्क, कठोर, असन्तुष्ट बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय बातों में दिलासा खोजता है। इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो ऊर्जा खर्च होती है उससे बहुत बड़ा पर्यावरणीय असन्तुलन भी पैदा होता है । इससे तो संपूर्ण सृष्टि का जीवन संकट में पड़ जाता है ।
  
इच्छाओं के अधीन नहीं होना, इच्छाओं को संयमित और
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=== व्यवसाय, उत्पादन ओर पर्यावरण ===
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भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवन सिद्धान्त बताती है। इस दृष्टि से मनुष्य का अन्य मनुष्यों से तो सम्बन्ध है ही, साथ ही प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पंचभौतिक सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध है । कहा गया है कि परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। इस कारण से उसे अपने से कनिष्ठ सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण और पोषण का दायित्व दिया गया है। उत्पादन और व्यवसाय में इस दायित्व का स्मरण रहना आवश्यक है । इस दृष्टि से निम्न बिन्दु विचारणीय हैं ।
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# किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति का दोहन करना, शोषण नहीं । प्रकृति का शोषण करना भावात्मक दृष्टि से हिंसा है, बौद्धिक दृष्टि से अदूरदर्शिता और अन्याय है, व्यावहारिक दृष्टि से घाटे का सौदा है । इसके उदाहरण देखने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। भूमि हमारी सर्व प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है परन्तु रासायनिक खाद का प्रयोग करने के कारण उसकी उर्वरता कम होती है, जो धान्य-फल-सब्जी उगते हैं उसकी पोषकता कम होती है । कालानुक्रम से भूमि बंजर बन जाती है, धान्य का अभाव होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य खराब होता है और समाज दरिद्र बनता है । भूमि से पेट्रोलियम निकालने का उपक्रम भी इसी का उदाहरण है । जंगल काटकर कारखाने, बड़े बड़े मॉल, चौड़ी सडकें और आकाशगामी भवन बनाना भी इसी का उदाहरण है ।
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# प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने वाले किसी भी प्रकार के उत्पादन तन्त्र को अनुमति नहीं होनी चाहिये । जब प्रकृति का दोहन किया जाता है तब प्रकृति अपने आप संसाधनों का सृजन कर क्षतिपूर्ति कर देती है और सन्तुलन बनाये रखती है । परन्तु जब शोषण होता है तब प्रकृति असहाय हो जाती है । जब संतुलन बिगड़ जाता है तब अभाव, असंतोष और अस्वास्थ्य का चक्र शुरू हो जाता है ।
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# मनुष्य का स्वास्थ्य खराब करने वाला उत्पादन तन्त्र तथा उस प्रकार की चीजों के उत्पादन भी अनुमति के पात्र नहीं हैं । खाद्यपदार्थों में विभिन्न प्रकार के रसायनों का प्रयोग, शीतागार में संग्रह (cold storage), रसायनों का प्रयोग कर फल पकाने की प्रक्रिया, जल शुद्धीकरण की प्रक्रिया, विभिन्न प्रकार के कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधन, वस्त्र, उपकरण, फर्नीचर आदि में अधिकाधिक प्लेंस्टिक का प्रयोग, सिमेन्ट-क्रॉँक्रीट की वास्तु आदि अनगिनत चीजें ऐसी हैं जिनका मनुष्य के स्वास्थ्य पर अत्यंत घातक प्रभाव पड़ता है । इन चीजों का उत्पादन अर्थव्यवस्था को भी घातक ही बनाता है ।
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# प्राणियों की हिंसा को बढ़ावा देने वाला उत्पादन तन्त्र भी अनुमत नहीं है । खाद्य पदार्थ, वस्त्र प्रावरण एवं सौंदर्य प्रसाधनों में प्राणियों के साथ अतिशय अमानवीय व्यवहार किया जाता है । प्लेंस्टिक की थैलियाँ खाकर गायें मरती हैं । माँस के निर्यात के लिये बूचडखाने चलाये जाते हैं । यह सब हिंसक अर्थव्यवस्था के उदाहरण हैं ।
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# सृष्टि की विभिन्न प्रकार की चक्रीयता को तोड़ने वाला उत्पादन तन्त्र भी अनुमत नहीं है । सम्पूर्ण अर्थव्यवहार में सर्जन-विसर्जन-सर्जन का चक्र अबाध गति से चलना चाहिये । जंगल तोड़े जाते हैं और प्राणवायु - कार्बनडाई ऑक्साईड - प्राणवायु का चक्र टूट जाता है । घरों के आँगन में मिट्टी नहीं अपितु पत्थर होने से जमीन की नमी समाप्त हो जाती है । भूमिगत जल निष्कासन (underground drainage) पद्धति से जलचक्र टूट जाता है और जलस्तर नीचे से और नीचे चला जाता है । इस कारण से वृक्ष का जीवनचक्र टूट जाता है । प्रकृति और मनुष्य का स्नेहसंबंध भी समाप्त हो जाता है ।
  
नियन्त्रित करना हर व्यक्ति का कर्तव्य है ।
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=== व्यवसाय, वितरण, व्यक्ति, परिवार, समाज और राज्य ===
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व्यवसाय एवं वितरण के सम्बन्ध में अब तक चर्चा की है । व्यक्ति की भूमिका व्यावसायिक कुशलता प्राप्त करने की है। परिवार के पास व्यवसाय का स्वामित्व होना चाहिये । परन्तु सम्पूर्ण तन्त्र में समाज की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । व्यवसायतन्त्र का नियन्त्रण और नियमन समाज के अधीन होना चाहिये, राज्य के अधीन नहीं । उत्पादन के एवं व्यापार के क्षेत्र में राज्य को नहीं पडना चाहिये । मूल्यनिर्धारण, वितरण व्यवस्था, उत्पादन आदि में वर्णों की, व्यवसाय समूहों की अपनी व्यवस्था होनी चाहिये । जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार से अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम होनी चाहिये । शस्त्रों, अन्य युद्ध सामग्री एवं इसी प्रकार की अन्य सामग्री के उत्पादन, संग्रह एवं विनियोग की व्यवस्था राज्य के अधीन हो सकती है । अन्यथा समाज ही नियमन करेगा
  
ऐसा भी नहीं है कि इच्छाओं की पूर्ति सर्वथा निषिद्ध
+
=== कर, संग्रह एवं अनुदान ===
 
+
राज्य की भूमिका विशेष समय पर होगी
है । यदि ऐसा होता तो वस्त्रालंकार और सुखचैन के साधनों
+
# शासन, प्रशासन, न्याय, सैन्य आदि के लिये राज्य को जो धन चाहिये उसके लिये कर (tax) व्यवस्था होती है। करव्यवस्था को राज्यसंचालन में समाज की सहभागिता का स्वरूप देना चाहिये । करव्यवस्था भी प्रजा के शोषण के नहीं अपितु दोहन के सिद्धान्त पर बननी चाहिये ।
 
+
# अकाल, अतिदृष्टि जैसी प्राकृतक आपदाओं के समय में प्रजा को अन्न प्राप्त हो सके इस दृष्टि से राज्य ने धान्य का संग्रह करना अपेक्षित है । वह धान्य व्यापार के लिये नहीं, निःशुल्क वितरण के लिये ही होगा । राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिये राज्य व्यापार करने लगता है तब अर्थव्यवस्था में घोर संकट पैदा होते हैं। एक लोकोक्ति है, 'जहाँ राजा व्यापारी वहाँ प्रजा भिखारी । अंग्रेजों के शासनकाल का यही मुख्य लक्षण है। अंग्रेजों से पूर्व भारत में राजाओं का शासन था। बीच बीच में कहीं कहीं गणतंत्र भी था। परन्तु भारत के सुदीर्घ इतिहास में राजा ही राज्य करता था। राजा अच्छे या बुरे होते थे। तानाशाह भी बन जाते थे। विलासी, दुश्नरित्र, निर्वीय भी बन जाते थे। अधिक करसंपादन करके प्रजा का शोषण भी करते थे। परन्तु व्यापार कभी भी नहीं करते थे। केवल अंग्रेज शासन व्यापारियों का शासन था। उस दृष्टि से देखें तो साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद आदि सब अर्थव्यवस्था पर आधारित शासनव्यवस्था है। यह समाजव्यवस्था के लिये अत्यन्त घातक है। राज्य और अर्थ दोनों एकदूसरे के अधीन नहीं होने चाहिये। राजा का काम, शासन का काम रक्षण, सहायता और अनुकूलता निर्माण करने का है।
का निर्माण कभी होता ही नहीं । वैभव संपन्नता कभी आती
+
# ज्ञानसाधना, विद्यादान, सांस्कृतिक अनुष्ठान, रुग्णसेवा, औषध योजना आदि कार्य अबाधरूप से चले इस दृष्टि से राज्य ने दान-अनुदान की व्यवस्था करनी होती है। प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही यह व्यवस्था होती है । इसलिये इन सब कार्यों -विद्यादानादि- पर राज्य का नियन्त्रण का अधिकार नहीं होता ।
 
+
# सज्जन परित्राण एवं दुष्टनिर्दालन हेतु राज्य को जिन संसाधनों की आवश्यकता पडती है वह प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही प्राप्त होती है । करविधान भी दोहनसिद्धान्त से ही होता है, शोषणसिद्धान्त से नहीं । इसमें अध्ययन, अनुसन्धान के साथ साथ उद्योजकों तथा राज्य दोनों का प्रबोधन करना भी आवश्यक है ।
ही नहीं । कलाकारीगरी का विकास कभी होता ही नहीं ।
 
 
 
और भारत में तो वैभवसंपन्नता बहुत रही है, वख्रालंकार,
 
 
 
खानपान, आमोदप्रमोद आदि का वैविध्य विपुल मात्रा में रहा
 
 
 
है । इसलिये इच्छाओं को संयमित और नियमित करने का
 
 
 
अर्थ उन्हें कम करना या सर्वथा त्याग करना नहीं है ।
 
 
 
इसका अर्थ यह है कि आवश्यकताओं को तो हम
 
 
 
अधिकार के रूप में ले सकते हैं परन्तु इच्छाओं को
 
 
 
सर्वजनसुख और सर्वजनहित रूपी धर्म के द्वारा नियंत्रित करके
 
 
 
ही पूर्ण किया जा सकता है ।
 
 
 
इसको श्रीमदूभगवद्गीता में
 
 
 
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामो5स्मि भरतर्षभ |
 
 
 
अर्थात्‌ “सर्व प्राणियों में धर्म के अविस्द्ध जो काम है
 
 
 
वह मैं (परमात्मा) हूँ ' कहकर उसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया
 
 
 
गया है ।
 
 
 
अतः अर्थ पुरुषार्थ का और अर्थशास्त्र का विचार
 
 
 
आवश्यकतापूर्ति के सन्दर्भ में करना होता है, इच्छापूर्ति के
 
 
 
सन्दर्भ में नहीं ।
 
 
 
यह सम्भव है कि एक ही पदार्थ, एक ही क्रिया एक
 
 
 
सन्दर्भ में इच्छा और अन्य सन्दर्भ में आवश्यकता होगी ।
 
 
 
अतः इच्छा और आवश्यकता में विवेक करना हर समय
 
 
 
आवश्यक ही है ।
 
 
 
अर्थशास्त्र का जीवनशास्त्र के सन्दर्भ में विचार करना
 
 
 
आवश्यक है । इसका अर्थ है जीवनशासख्र के aes
 
 
 
पहलुओं से सम्बन्धित जो शास्त्र हैं उनके साथ अर्थशास्त्र का
 
 
 
समायोजन होना चाहिये । उदाहरण के लिये समाजशास्त्र
 
 
 
पर्यावरण, तकनीकी, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र
 
 
 
आदि के साथ अर्थशास्त्र का अनुकूल सम्बन्ध होना चाहिये ।
 
 
 
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
agra की सार्थकता एवं उपादेयता ... २. उत्पादन, व्यवसाय और अथर्जिन
 
 
 
हेतु ऐसा होना अपरिहार्य है । चीजों के उत्पादन हेतु भिन्न भिन्न व्यवसायों की
 
 
 
इस दृष्टि es are st Sa et FT pa होती है । इसे उत्पादन को व्यवस्थित करना कह
 
 
 
निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है । सकते हैं । उत्पादन के साथ मनुष्यों का सम्बन्ध है । अतः
 
 
 
१. प्रभूत उत्पादन हर मनुष्य का उत्पादन में सहभागी होना आवश्यक है ।
 
 
 
उत्पादन उपभोग के लिये होता है । इसलिये समाज की
 
 
 
सर्वजन की की आवश्यकताओं की पूर्ति बम लिये संसाधन आवश्यकताओं ने उत्पादन का निर्धारण और नियमन करना
 
 
 
चाहिये । संसाधनों की उपलब्धता वस्तुओं के उत्पादन पर चाहिये
 
 
 
निर्भर करती है । अतः उत्पादन प्रभूत मात्रा में होना चाहिये ।
 
 
 
बातों इस नियमन का स्वरूप इस प्रकार बनेगा -
 
 
 
उत्पादन हेतु तीन बातों की आवश्यकता होती है ।
 
 
 
०... समाज की आवश्यकता हेतु उत्पादन होना चाहिये ।
 
 
 
प्राकृतिक स्रोत : भूमि की उर्वरता, जलवायु की... ०... उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्यवस्था
 
 
 
अनुकूलता, खानों खदानों में प्राप्त खनिज, अरण्यों में प्राप्त होनी चाहिये ।
 
 
 
वनस्पति, समुद्र में प्राप्त रत्न आदि । वास्तव में किसी भी वस्तु का निर्माण इसीलिये होता
 
 
 
मानवीय कौशल : मनुष्य की बुद्धि और हाथ की... है क्यों कि उसकी इच्छा या आवश्यकता होती है । जब यह
 
 
 
निर्माणक्षमता । निर्माण स्वयं के लिये व्यक्ति स्वयं ही बनाता है तब तो
 
 
 
विनियोग का विवेक : उत्पादित सामग्री का वितरण, ... समस्या पैदा नहीं होती, परंतु एक की आवश्यकता के लिये
 
 
 
रखरखाव, गुणवत्ता, उपभोग आदि की समझ | दूसरा बनाता है तब प्रश्न पैदा होते हैं । जब दूसरा बनाता है
 
 
 
एक बात ध्यान में रखने योग्य है । आवश्यकताओं के... ब एक को वस्तु मिलती है, दूसरे को पैसा । इसलिये
 
 
 
सन्दर्भ में ही प्रभूतता का विचार किया जा सकता है, अधथर्जिन और आवश्यकता ये दोनों बातें उत्पादन के साथ
 
 
 
इच्छाओं के सन्दर्भ में नहीं । जुड़ जाती हैं । अब प्रश्न यह होता है कि उत्पादन अथर्जिन
 
 
 
क्यों कि जैसा पूर्व में कहा गया है आवश्यकता्ें के लिये करना या आवश्यकता की पूर्ति के लिये । यदि
 
 
 
सीमित होती हैं और शीघ्र संतुष्ट हो जाती हैं । मनुष्य भूख अथर्जिन को ही प्राथमिकता दी जायेगी तो अनावश्यक वस्तु
 
 
 
होती है उतना ही खाता है, एक साथ एक ही वख्र पहनता. भी उत्पादन होगा, आवश्यक वस्तु का नहीं होगा ।
 
 
 
है... आदि, परन्तु इच्छायें असीमित होती हैं, कभी भी. नविश्यक वस्तु का उत्पादन करने पर उन्हें कोई लेने वाला
 
 
 
पूरणीय नहीं होती । ः नहीं होगा तो उत्पादन बेकार जायेगा, Basia भी नहीं
 
 
 
यम अर्थव्यवस्था होगा । फिर अनावश्यक वस्तु के लिये कृत्रिम रूप से
 
 
 
इस दृष्टि से मनःसंयम अर्थव्यवस्था के लिये जईत जड़ी. आवश्यकता निर्माण की जायेगी । इससे मनुष्य की बुद्धि,
 
 
 
सहायक और प्रेरक तत्त्व है । इस तथ्य को ध्यान में रखकर
 
 
 
हमें , मन, शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और समाजजीवन में
 
 
 
ं “economy of abundance - S4Y{ddl Al अर्थशाख्र' की अनवस्था निर्माण होगी । आज यही A a रहा है । उत्पादक
 
 
 
संकल्पना को प्रस्थापित और प्रतिष्ठित करना चाहिये | अधथर्जिन का हेतु मन में रखकर उत्पादन करता है और ग्राहक
 
 
 
वर्तमान अर्थशास्त्र economy of want - AHA का को येन केन प्रकारेण उसे खरीदने पर विवश करता है ।
 
 
 
अर्थशाख्र है । वही बाजार को चालना देता है, उत्पादन को... ०». उत्पादन में हर व्यक्ति की सहभागिता होनी
 
 
 
प्रभावित करता है, वितरण को नियंत्रित करता है और कीमतों चाहिये ।
 
 
 
का निर्धारण करता है। इसके स्थान पर प्रभूतता का
 
 
 
स्थितियां aah यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है । उत्पादन हेतु जो
 
 
 
अर्थशास्त्र प्रतिष्ठित होने से ँ बहुत बदल जायेंगी ।
 
 
 
भी व्यवसाय होते हैं उनमें जुडे हर व्यक्ति का स्थान सहभागिता
 
 
 
रद्द
 
 
 
............. page-283 .............
 
 
 
पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
 
 
का होना चाहिये । यह सहभागिता स्वामित्वयुक्त होनी चाहिये,
 
 
 
नौकरी करने की नहीं । व्यवसाय के स्वामित्व में सहभागिता
 
 
 
होने से व्यक्ति का सम्मान, गौरव और स्वतंत्रता बनी रहती
 
 
 
है । ये व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक आवश्यकतायें होती
 
 
 
हैं। स्वामित्व के भाव के कारण उत्पादन प्रक्रिया और
 
 
 
उत्पादित वस्तु के साथ भी आत्मीयता का भाव आता है और
 
 
 
उत्पादन के श्रम में आनंद का अनुभव होता है । ये सब
 
 
 
सुसंस्कृत जीवन के निर्देशांक हैं ।
 
 
 
०... उत्पादन में सहभागिता हेतु व्यक्ति स्वयं सक्षम
 
 
 
होना चाहिये ।
 
 
 
किसी भी व्यक्ति को परावंलबी बनना अच्छा भी नहीं
 
 
 
लगता, और उसने परावलंबी होना भी नहीं चाहिये । अपने
 
 
 
और दूसरों के निर्वाह हेतु किसी न किसी प्रकार से उत्पादन
 
 
 
करने की क्षमता हर व्यक्ति में होनी चाहिये ।
 
 
 
व्यक्ति को उत्पादन में सहभागी होने के लिये
 
 
 
सक्षम बनाने हेतु समाज द्वारा व्यवस्था बननी
 
 
 
चाहिये ।
 
 
 
उत्पादन में सहभागी होने के फलस्वरूप व्यक्ति
 
 
 
को धन की प्राप्ति जो उसे अपने योगक्षेम हेतु
 
 
 
आवश्यक है वह होनी चाहिये
 
 
 
इस प्रकार से सम्टि की आवश्यकता यह प्रारम्भ बिन्दु
 
 
 
बनना आवश्यक है । यदि यह दिशा बदलकर व्यक्ति की
 
 
 
अथर्जिन की प्रवृत्ति को प्रारम्भ बिन्दु बनाया जाता है तो
 
 
 
सर्वजनहित सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता ।
 
 
 
व्यक्ति जन्म से ही उत्पादन करना, अर्थात्‌ वस्तुओं का
 
 
 
निर्माण करना सीखकर नहीं आता । उसे निर्माण कार्य सीखना
 
 
 
पड़ता है । हर व्यक्ति को यह सिखाने की व्यवस्था करना
 
 
 
समाज का दायित्व है । अतः उत्पादन व्यवस्था और उस
 
 
 
हेतुसे उसकी शिक्षा देने की व्यवस्था समाजव्यवस्था का
 
 
 
अभिन्न अंग है । आज के शिक्षाक्रम में सभी को साक्षर बनाने
 
 
 
को तो अग्रक्रम दिया जाता है परन्तु सभी को निर्माणक्षम
 
 
 
बनाने की व्यवस्था नहीं दिखाई देती है । उल्टे साक्षर होने के
 
 
 
चक्कर में संभावित निर्माण क्षमता भी नष्ट होती है और निर्माण
 
 
 
के अवसर भी नहीं मिलते । साथ ही निर्माण की मानसिकता
 
 
 
को भी हानि होती है ।
 
 
 
२६७
 
 
 
३. व्यवसाय, परिवार, वर्ण
 
 
 
(१) व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु परिवारगत होना
 
 
 
लाभदायी होता है ।
 
 
 
भारतीय समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं
 
 
 
अपितु परिवार माना गया है
 
 
 
जिस समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं अपितु
 
 
 
परिवार को माना गया है वहाँ व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु
 
 
 
परिवारगत होना उचित है ।
 
 
 
अर्थव्यवस्था को इस आधार पर रखने से बहुत सारे
 
 
 
सन्दर्भ बदल जाते हैं ।
 
 
 
१. परिवार की समरसता बनी रहती है ।
 
 
 
वर्तमान में समाजव्यवस्था व्यक्तिकेन्ट्री बन गई है, उस
 
 
 
प्रकार से व्यवसाय - चाहे उत्पादन हो चाहे नौकरी - भी
 
 
 
व्यक्तिकेन्ट्रित बन गये हैं । इस कारण से परिवार दो वर्गों में
 
 
 
विभाजित हो गया है । एक होता है व्यवसाय करने वाले और
 
 
 
उसके फलस्वरूप अथर्जिन करने वाले व्यक्तियों का विभाग
 
 
 
और दूसरा होता है अथर्जिन नहीं करने वाले व्यक्तियों का
 
 
 
विभाग । sata नहीं करने वाले व्यक्ति अथर्जिन करने
 
 
 
वाले के आश्रित हो जाते हैं । परिवार की समरसता भंग होने
 
 
 
का यह एक कारण है ।
 
 
 
परिवार में बच्चों को छोड़कर और कोई आश्रित रहना
 
 
 
नहीं चाहता । उससे अथार्जिन की अपेक्षा भी की जाती है ।
 
 
 
परिवार में यदि सभी सदस्य एकदूसरे से भिन्न और स्वतंत्र
 
 
 
व्यवसाय करते हैं तो उनके व्यवसाय के स्थान, परिवेश,
 
 
 
रुचि, मित्रपरिवार, समय, अवकाश आदि सब भिन्न होते हैं ।
 
 
 
समरसता खण्डित होने का यह दूसरा कारण है ।
 
 
 
आश्रयदाता और आश्रित का सम्बन्ध कभी भी समरस
 
 
 
नहीं हो सकता है । इसलिये पूरे परिवार का एक व्यवसाय
 
 
 
होना लाभकारी रहता है ।
 
 
 
२. हर व्यक्ति का योगक्षेम सुरक्षित रहता है ।
 
 
 
व्यवसाय परिवारगत होने के कारण से परिवार के हर
 
 
 
व्यक्ति की व्यवसाय में सहभागिता होती है । परिवार में जन्म
 
 
 
लेने वाले बालक को भी भविष्य के जीवन की चिन्ता नहीं
 
 
 
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रहती । साथ ही व्यवसाय के साथ
 
 
 
उसका मानसिक जुडाव बन जाता है ।
 
 
 
व्यवसाय अपने आप वंशानुगत हो जाता है ।
 
 
 
एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को स्वाभाविक क्रम में वह
 
 
 
हस्तान्तरित होता रहता है । इससे दोहरा लाभ होता है । एक
 
 
 
ait at ag thet stats Al ofS से सुरक्षित और निश्चित
 
 
 
होती है, दूसरी ओर व्यवसाय को भी नष्ट होने का भय नहीं
 
 
 
रहता । व्यवसाय में आत्मीयता के भाव से जुडने और कुशल
 
 
 
लोगों का अभाव न रहने के कारण व्यवसाय को हानि नहीं
 
 
 
पहुँचती |
 
 
 
आज व्यवसाय परिवारगत नहीं होने से ये सारे संकट
 
 
 
दिखाई दे रहे हैं । एक वैज्ञानिक को अपनी प्रयोगशाला, एक
 
 
 
डॉक्टर को अपना अस्पताल, एक अध्यापक को अपना
 
 
 
पुस्तकालय सम्हालने वाला और अपनी विज्ञान, स्वास्थ्यरक्षा
 
 
 
और ज्ञान की परम्परा को आगे ले लाने वाला कोई नहीं
 
 
 
मिलता । परम्परा खण्डित हो जाती है । दूसरी ओर नये
 
 
 
वैज्ञानिक या अध्यापक या डाक्टर को विरासत में कुछ नहीं
 
 
 
मिलता । उसे नये सिरे से संसाधन भी जुटाने पड़ते हैं और
 
 
 
अनुभव भी प्राप्त करना पड़ता है । व्यक्ति, व्यवसाय और
 
 
 
समाज तीनों को हानि उठानी पड़ती है ।
 
 
 
%.
 
 
 
() व्यवसाय वंशानुगत होने से व्यावसायिक
 
 
 
कुशलता बढती है और उत्पादन की गुणवत्ता भी
 
 
 
बढ़ती है ।
 
 
 
परिवार में जन्म लेने वाले बालक को जन्मजात
 
 
 
संस्कार के रूप में व्यवसाय की कुशलता प्राप्त होती है ।
 
 
 
बचपन से ही वह उस वातावरण में रहता है । श्रवणेन्ट्रिय,
 
 
 
ज्ञानेन्द्रिय, स्पर्शन्ट्रिय आदि के माध्यम से वह व्यवसायगत
 
 
 
संवेदनात्मक अनुभव प्राप्त करता रहता है । व्यवसाय विषयक
 
 
 
बातें सुनता है और समझता है । व्यवसाय से जुड़े खेल
 
 
 
Gad है । आयु बढ़ने के साथ व्यवसाय में सहयोगी होने
 
 
 
लगता है और बिना आयास और बिना खर्च के व्यवसाय
 
 
 
सीखा जाता है । यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि व्यवसाय
 
 
 
के वंशानुगत होने से करने वाले की कुशलता और उत्पादन
 
 
 
3.
 
 
 
२६८
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
की गुणवत्ता बढती है ।
 
 
 
(२) व्यवसाय के वंशानुगत होने से समाजव्यवस्था में
 
 
 
वर्णव्यवस्था भी साहजिक रूप से निर्माण होती
 
 
 
है।
 
 
 
प्रत्येक परिवार के योगक्षेम की एवं व्यवसाय की
 
 
 
सुरक्षा, निश्चितता और निश्चिन्तता होती है ।
 
 
 
अर्थव्यवस्था को सुरक्षित करने का यह व्यावहारिक
 
 
 
उपाय है । वंशानुगत जो भी व्यवसाय मिला है उसे सामान्य
 
 
 
रूप से कोई छोड़ता नहीं है । छोड़ने की आवश्यकता भी नहीं
 
 
 
है । भारत की समाज व्यवस्था में यह नियम भी बनाया गया
 
 
 
था कि कोई बिना किसी उचित कारण से अपना व्यवसाय
 
 
 
बदल नहीं सकता था । अन्यों के व्यवसाय की सुरक्षा
 
 
 
उत्पादन व्यवस्था की निश्चितता, उत्पादन की गुणवत्ता आदि
 
 
 
कई कारण होते हैं जिससे व्यवसाय बदलना हितकारक नहीं
 
 
 
होता है ।
 
 
 
२... समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की भी निश्चितता
 
 
 
एवं निश्चिन्तता बनी रहती है ।
 
 
 
3. व्यवसायगत. कौशल,  उत्कृष्टता,  सृजनशीलता,
 
 
 
व्यवसायनिष्ठा, Sa, व्यवसायगौरब आदि
 
 
 
बहुमूल्य तत्त्वों की सुरक्षा बनी रहती है ।
 
 
 
कोई अपना व्यवसाय छोड़ता नहीं है इसलिये समाज
 
 
 
को अभाव का अनुभव नहीं करना पड़ता है ।
 
 
 
व्यवसायनिष्ठा के साथ साथ व्यवसाय के माध्यम से
 
 
 
जो सामाजिक दायित्व प्राप्त हुआ है उसका बोध बना
 
 
 
रहता है ।
 
 
 
व्यवसाय से यद्यपि अथार्जिन होता है तथापि वह समाज
 
 
 
की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु है यह स्मरण हमेशा बना
 
 
 
रहता है । वह बना रहे ऐसी व्यवस्था भी की जाती है । भारत
 
 
 
में समाज को एक जीवमान इकाई मानकर समाजपुरुष की
 
 
 
कल्पना की गई है । परिवारों के व्यवसायों पर इस समाजपुरुष
 
 
 
का अधिकार रहता है । इस समाजपुरुष की सेवा हेतु
 
 
 
व्यवसाय किया जाता है ।
 
 
 
रे.
 
 
 
वास्तव में ये सब संस्कृति के सूचकांक (01069 01 0७1-
 
 
 
(धा€) हैं । व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में इसे व्यक्ति के अपना
 
 
 
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
 
 
व्यवसाय चुनने के स्वातंत्रय पर आघात माना जाता है । परन्तु
 
 
 
यह स्वतंत्रता की हानि नहीं है, यह व्यवस्था द्वारा नियमन
 
 
 
है। उल्टे व्यक्ति को व्यवसाय चुनने और छोड़ने की
 
 
 
“स्वतंत्रता” देने से आर्थिक अनिश्चितता, अव्यवस्था और
 
 
 
दायित्वबोध के संकट निर्माण हो जाते हैं ।
 
 
 
५... कुछ बातों का क्रयविक्रय के दायरे से बाहर होना
 
 
 
विद्या, अन्न (भोजन), जल, औषध, रुग्णपरिचर्या,
 
 
 
शिशुसंगोपन, पूजा, धार्मिक अनुष्ठान आदि को क्रयविक्रय के
 
 
 
दायरे से बाहर रखना चाहिये । ये सभी काम सेवा के हैं ।
 
 
 
इनका मूल्य भौतिक नहीं है, सांस्कृतिक है । ये मनुष्य के
 
 
 
सांस्कृतिक विकास के सूचकांक हैं । ये आदरपात्र और पवित्र
 
 
 
कार्य हैं । इनको भौतिक स्तर तक नीचे उतार देने से समाज
 
 
 
और संस्कृति का पतन होता है । इन सबको व्यवसाय नहीं
 
 
 
मानना चाहिये और अथर्जिन के साथ नहीं जोडना चाहिये ।
 
 
 
अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों के साथ है ।
 
 
 
सेवा, अध्यापन, परिचर्या, प्रेम आदि अभौतिक तत्त्व हैं ।
 
 
 
पवित्रता, पुण्य आदि संकल्पनायें भी अभौतिक हैं । अन्न,
 
 
 
जल आदि प्राकृतिक संसाधन हैं। तैयार किये
 
 
 
गये भोजन को पवित्र माना गया है । इन सब को भौतिक
 
 
 
संसाधनों के समकक्ष मानना अस्वाभाविक है । अर्थव्यवस्था
 
 
 
में वस्तु-वस्तु अथवा वस्तु-श्रम के विनिमय की प्रथा थी
 
 
 
तब भी ज्ञान, सेवा आदि को विनिमय के अन्तर्गत नहीं माना
 
 
 
जाता था । आज अब नकद सिक्कों के माध्यम से लेन देन
 
 
 
होता है तब सब कुछ सिक्कों में परिवर्तित हो जाता है । £५४-
 
 
 
erything is converted and computed into money. 4é
 
 
 
भौतिक के साथ साथ अत्यन्त यांत्रिक व्यवस्था है । प्रेम,
 
 
 
सेवा, ज्ञान, संगोपन आदि को यांत्रिक पद्धति से सिक्कों में
 
 
 
परिवर्तित करना अस्वाभाविक,  अव्यावहारिक. और
 
 
 
आअमनोवैज्ञानिक है ।
 
 
 
आज असंभव लगने वाली यह व्यवस्था दीर्घकाल तक
 
 
 
भारत में व्यवहार में थी अतः इस चर्चा को काल्पनिक नहीं
 
 
 
मानना चाहिये ।
 
 
 
उत्पादन और वितरण एवं विकेन्ट्रीकरण
 
 
 
उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन
 
 
 
&.
 
 
 
जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना
 
 
 
और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और
 
 
 
कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से
 
 
 
(१) उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना
 
 
 
अति आवश्यक है । यह अन्तर जितनी मात्रा में
 
 
 
बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित
 
 
 
व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते
 
 
 
हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है,
 
 
 
उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव,
 
 
 
अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम
 
 
 
का, धन का विनियोग करना पड़ता है ।
 
 
 
उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वख्र, लकड़ी,
 
 
 
स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके
 
 
 
प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर
 
 
 
दूर तक फैले हुए हों तो
 
 
 
परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव,
 
 
 
विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च
 
 
 
बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं ।
 
 
 
ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास
 
 
 
(pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं ।
 
 
 
भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई
 
 
 
परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है ।
 
 
 
आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा
 
 
 
प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition),
 
 
 
सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र
 
 
 
- यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं
 
 
 
वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते
 
 
 
हैं।
 
 
 
इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और
 
 
 
अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है ।
 
 
 
वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और
 
 
 
उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये
 
 
 
१०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी
 
 
 
से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे
 
 
 
कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक
 
 
 
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
महँगा होता है । भारत में लंका के... हवस नहीं होना चाहिये । इस दृष्टि से व्यवसाय में सहभागी
 
 
 
अथवा बसरा के मोती अधिक महँगे होते हैं । यह महँगा होना... स्वामित्व होना अपेक्षित है । विचार करने पर ध्यान में आता
 
 
 
स्वाभाविक है । परन्तु गुजरात के गाँव में बनने वाला कपडे... है कि परिवारगत व्यवसाय और सहभागी स्वामित्व एक ही
 
 
 
धोने का चूर्ण जिसका उत्पादक मूल्य बहुत साधारण है, जो... सिक्के के दो पहलू हैं ।
 
 
 
पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर अति साधारण
 
 
 
माना जायेगा वह यदि भारत के कोने कोने में बिकने हेतु
 
 
 
जायेगा तो उसका मूल्य बीस गुना बढ जायगा । यह मूल्य
 
 
 
अनुत्पादक है ।
 
 
 
आज की अर्थव्यवस्था में परिवहन, विज्ञापन, आडत,
 
 
 
पैकिंग आदि अनुत्पादक बातें हैं जो अर्थव्यवस्था पर बोझ
 
 
 
बनकर उसे आभासी बनाती है ।
 
 
 
जिस देश में ठोस की अपेक्षा आभासी
 
 
 
अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है वह देश
 
 
 
उतनी ही अधिक मात्रा में दरिद्र होता है ।
 
 
 
(४) उत्पादन में मनुष्य और यन्त्र
 
 
 
सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में और वितरण व्यवस्था में
 
 
 
मनुष्य मुख्य है इसलिये सम्पूर्ण रचना मनुष्य et और
 
 
 
मनुष्य आधारित होना अपेक्षित है । यन्त्र मनुष्य द्वारा निर्मित
 
 
 
होते हैं और मनुष्य के सहायक होते हैं । उनकी भूमिका
 
 
 
सहायक की ही होनी चाहिये । इसलिये सारे के सारे यन्त्र
 
 
 
मनुष्य के अधीन रहें और मनुष्य की सर्वोपरिता बनी रहे इस
 
 
 
प्रकार की व्यवसाय रचना होनी चाहिये ।
 
 
 
यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार होते हैं ।
 
 
 
उनको काम नहीं मिलता है । भावात्मकता कम होती है ।
 
 
 
(२) उत्पादन का 'विकेन्द्रीकरण अधीनता बढती है । कौशलों का हास होने लगता है ।
 
 
 
कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी चीजों के इसके और भी परिणाम eid & fare SH side effects
 
 
 
और कह सकते हैं ।
 
 
 
sere मी व्यवस्था स्थनिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये | जैसे जैसे यंत्र बढ़ते हैं बडे बडे कारखानों की
 
 
 
आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या
 
 
 
०. उत्पादन के लिये मानवश्रम सुलभ होगा । जो जाते हैं उन्हे
 
 
 
० लागत कम होगी । कम होती है परन्तु जो भी मनुष्य काम करने जाते हैं उन्हें घर
 
 
 
आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें छोड़कर व्यवसाय केन्द्र पर जाना पड़ता है । परिवहन की
 
 
 
०. स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो .
 
 
 
जयेंगी | समस्या भी बढती है । दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है । यंत्र
 
 
 
और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है ।
 
 
 
(३) उत्पादक का स्वामित्व मनुष्य स्वाधीन नहीं रहता, यंत्र के अधीन और व्यवस्था का
 
 
 
दास बन जाता है । इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य
 
 
 
पर विपरीत प्रभाव पडता है । मनुष्य शुष्क, कठोर, असन्तुष्ट
 
 
 
मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है । उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय
 
 
 
हालत में सम्भव होनी चाहिये । अतः मनुष्य को व्यवसाय बातों में दिलासा खोजता है | isi नं
 
 
 
का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहें तो इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो
 
 
 
विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में नौकरियाँ कम से कम और... जा खर्च होती है उससे FEA बड़ी पर्यावरणीय असन्तुलन
 
 
 
स्वामित्व की मात्रा अधिक से अधिक होनी चाहिये। . दा होता है । इससे तो संपूर्ण सृष्टि का जीवन संकट में
 
 
 
व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार... है।
 
 
 
को अपने योगक्षेम हेतु अथार्जिन दोनों समाविष्ट हैं । इसकी... ७... व्यवसाय, उत्पादन और पर्यावरण
 
 
 
व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवनसिद्धान्त बताती
 
 
 
यह एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य
 
 
 
है । विकेन्ट्रित उत्पादन व्यवस्था का यह बहुत बड़ा लाभ है ।
 
 
 
२७०
 
 
 
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
 
 
है । इस दृष्टि से मनुष्य का अन्य मनुष्यों से तो सम्बन्ध है ही,
 
 
 
साथ ही प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पंचभौतिक सृष्टि के
 
 
 
साथ भी सम्बन्ध है । कहा गया है कि परमात्मा की सृष्टि
 
 
 
में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है । इस कारण से
 
 
 
उसे अपने से कनिष्ठ सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण और पोषण का
 
 
 
दायित्व दिया गया है ।
 
 
 
उत्पादन और व्यवसाय में इस दायित्व का स्मरण रहना
 
 
 
आवश्यक है । इस दृष्टि से निम्न बिन्दु विचारणीय हैं ।
 
 
 
9. किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति
 
 
 
का दोहन करना, शोषण नहीं
 
 
 
प्रकृति का शोषण करना भावात्मक दृष्टि से हिंसा है,
 
 
 
बौद्धिक दृष्टि से अदूरदर्शिता और अन्याय है, व्यावहारिक दृष्टि
 
 
 
से घाटे का सौदा है
 
 
 
इसके उदाहरण देखने के लिये कहीं दूर जाने की
 
 
 
आवश्यकता नहीं है। भूमि हमारी सर्व प्रकार की
 
 
 
आवश्यकताओं की पूर्ति करती है परन्तु रासायनिक खाद का
 
 
 
प्रयोग करने के कारण उसकी उर्वरता कम होती है, जो
 
 
 
धान्य-फल-सब्जी उगते हैं उसकी पोषकता कम होती है ।
 
 
 
कालानुक्रम से भूमि बंजर बन जाती है, धान्य का अभाव
 
 
 
होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य खराब होता है और समाज दरिद्ः
 
 
 
बनता है ।
 
 
 
भूमि से पेट्रोलियम निकालने का उपक्रम भी इसी का
 
 
 
उदाहरण है ।
 
 
 
जंगल काटकर कारखाने, बड़े बड़े मॉल, चौड़ी Ash
 
 
 
और आकाशगामी भवन बनाना भी इसी का उदाहरण है ।
 
 
 
२. . प्रकृति का सन्तुलन बिगाडने वाले किसी भी प्रकार
 
 
 
के उत्पादन तन्त्र को अनुमति नहीं होनी चाहिये ।
 
 
 
जब प्रकृति का दोहन किया जाता है तब प्रकृति
 
 
 
अपने आप संसाधनों का सृजन कर क्षतिपूर्ति कर देती है
 
 
 
और सन्तुलन बनाये रखती है । परन्तु जब शोषण होता है
 
 
 
तब प्रकृति असहाय हो जाती है । जब संतुलन बिगड़ जाता
 
 
 
है तब अभाव, असंतोष और अस्वास्थ्य का चक्र शुरू हो
 
 
 
जाता है ।
 
 
 
३... मनुष्य का स्वास्थ्य खराब करने वाला उत्पादन तन्त्र
 
 
 
तथा उस प्रकार की चीजों के उत्पादन भी अनुमति
 
 
 
२७१
 
 
 
के पात्र नहीं हैं ।
 
 
 
खाद्यपदार्थों में विभिन्न प्रकार के रसायनों का प्रयोग,
 
 
 
शीतागार में संग्रह (८०10 5६07886), रसायनों का प्रयोग कर
 
 
 
फल पकाने की प्रक्रिया, जल शुद्धीकरण की प्रक्रिया, विभिन्न
 
 
 
प्रकार के कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधन, वस्त्र, उपकरण, फर्नीचर
 
 
 
आदि में अधिकाधिक प्लेंस्टिक का प्रयोग, सिमेन्ट-क्रॉँक्रीट
 
 
 
की वास्तु आदि अनगिनत चीजें ऐसी हैं जिनका मनुष्य के
 
 
 
स्वास्थ्य पर अत्यंत घातक प्रभाव पड़ता है । इन चीजों का
 
 
 
उत्पादन अर्थव्यवस्था को भी घातक ही बनाता है ।
 
 
 
४. प्राणियों की हिंसा को बढ़ावा देने वाला उत्पादन
 
 
 
तन्त्र भी अनुमत नहीं है ।
 
 
 
खाद्य पदार्थ, वस्त्र प्रावरण एवं सौंदर्य प्रसाधनों में
 
 
 
प्राणियों के साथ अतिशय अमानवीय व्यवहार किया जाता
 
 
 
है । प्लेंस्टिक की थैलियाँ खाकर गायें मरती हैं । माँस के
 
 
 
निर्यात के लिये बूचडखाने चलाये जाते हैं । यह सब हिंसक
 
 
 
अर्थव्यवस्था के उदाहरण हैं ।
 
 
 
५... सृष्टि की विभिन्न प्रकार की चक्रीयता को तोड़ने
 
 
 
वाला उत्पादन तन्त्र भी अनुमत नहीं है ।
 
 
 
सम्पूर्ण अर्थव्यवहार में सर्जन-विसर्जन-सर्जन का
 
 
 
चक्र अबाध गति से चलना चाहिये ।
 
 
 
जंगल तोड़े जाते हैं और प्राणवायु - कार्बनडाई
 
 
 
ऑक्साईड - प्राणवायु का चक्र टूट जाता है । घरों के आँगन
 
 
 
में मिट्टी नहीं अपितु पत्थर होने से जमीन की नमी समाप्त हो
 
 
 
जाती है | भूमिगत जल निष्कासन (undergdound drain-
 
 
 
98४) पद्धति से जलचक्र टूट जाता है और जलस्तर नीचे से
 
 
 
और नीचे चला जाता है । इस कारण से वृक्ष का जीवनचफ्र
 
 
 
टूट जाता है । प्रकृति और मनुष्य का स्नेहसंबंध भी समाप्त
 
 
 
हो जाता है ।
 
 
 
८... व्यवसाय, वितरण, व्यक्ति, परिवार, समाज और
 
 
 
राज्य
 
 
 
व्यवसाय एवं वितरण के सम्बन्ध में अब तक चर्चा
 
 
 
की है । व्यक्ति की भूमिका व्यावसायिक कुशलता प्राप्त करने
 
 
 
की है।
 
 
 
परिवार के पास व्यवसाय का स्वामित्व होना चाहिये ।
 
 
 
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
परन्तु सम्पूर्ण तन्त्र में समाज की भूमिका... भिखारी |
 
 
 
महत्त्वपूर्ण है । अंग्रेजों के शासनकाल का यही मुख्य लक्षण है ।
 
 
 
व्यवसायतन्त्र का नियन्त्रण और नियमन समाज के... अंग्रेजों से पूर्व भारत में राजाओं का शासन था । बीच बीच
 
 
 
अधीन होना चाहिये, राज्य के अधीन नहीं । में कहीं कहीं गणतंत्र भी था । परन्तु भारत के सुदीर्घ इतिहास
 
 
 
उत्पादन के एवं व्यापार के क्षेत्र में राज्य को नहीं पड़ना... में राजा ही राज्य करता था । राजा अच्छे या बुरे होते थे ।
 
 
 
चाहिये । मूल्यनिर्धारण, वितरण व्यवस्था, उत्पादन आदि में... तानाशाह भी बन जाते थे । विलासी, दुश्चरित्र, निर्वीय भी बन
 
 
 
वर्णों की, व्यवसाय समूहों की अपनी व्यवस्था होनी चाहिये । ..... जाते थे । अधिक करसंपादन करके प्रजा का शोषण भी करते
 
 
 
जिस प्रकार समाजन्यवस्था की मूल इकाई परिवार है... थे । परन्तु व्यापार कभी भी नहीं करते थे ।
 
 
 
उस प्रकार से अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम होनी केवल अंग्रेज शासन व्यापारियों का शासन था । उस
 
 
 
चाहिये । दृष्टि से देखें तो साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद आदि सब
 
 
 
wel, अन्य युद्ध सामग्री एवं इसी प्रकार की अन्य... अर्थव्यवस्था पर. आधारित शासनव्यवस्था है। यह
 
 
 
सामग्री के उत्पादन, संग्रह एवं विनियोग की व्यवस्था राज्य... समाजव्यवस्था के लिये अत्यन्त घातक है । राज्य और अर्थ
 
 
 
के अधीन हो सकती है । अन्यथा समाज ही नियमन करेगा । दोनों एकदूसरे के अधीन नहीं होने चाहिये । राजा का काम,
 
 
 
९... कर, संग्रह एवं अनुदान शासन का काम रक्षण, सहायता और अनुकूलता निर्माण
 
 
 
राज्य की भूमिका विशेष समय पर होगी । करने का है । सांस्कृतिक
 
 
 
3. ज्ञानसाधना, विद्यादान, सांस्कृतिक अनुष्ठान, रुग्णसेवा,
 
 
 
१, शासन, प्रशासन, न्याय, सैन्य आदि के लिये राज्य को
 
 
 
जो धन चाहिये उसके लिये कर (६००0 व्यवस्था होती औषध योजना आदि कार्य अबाधरूप से चले इस दृष्टि
 
 
 
है। करव्यवस्था को राज्यसंचालन में समाज की से राज्य ने दान-अनुदान की व्यवस्था करनी होती है ।
 
 
 
सहभागिता का स्वरूप देना चाहिये । प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही यह व्यवस्था होती
 
 
 
करव्यवस्था भी प्रजा के शोषण के नहीं अपितु दोहन uv इसलिये इन सब कार्यों - विद्यादानादि - पर
 
 
 
के सिद्धान्त पर बननी चाहिये । राज्य का नियन्त्रण का अधिकार नहीं होता ।
 
 
 
४... सज्जन परित्राण एवं दुष्टनिर्दालन हेतु राज्य को जिन
 
 
 
में प्रजा को अन्न प्राप्त हो सके इस दृष्टि से राज्य ने संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है वह प्रजा के द्वारा
 
 
 
धान्य का संग्रह करना अपेक्षित है । वह धान्य व्यापार दिये गये कर से ही प्राप्त होती है ।
 
 
 
के लिये नहीं, निःशुल्क वितरण के लिये ही होगा | करविधान भी दोहनसिद्धान्त से ही होता है,
 
 
 
राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिये । राज्य शोषणसिद्धान्त से नहीं । उद्योजकों
 
 
 
व्यापार करने लगता है तब अर्थव्यवस्था में घोर संकट पैदा इसमें अध्ययन, अनुसन्धान के साथ साथ उद्योजकों
 
 
 
होते हैं । एक लोकोक्ति है, जहाँ राजा व्यापारी वहाँ प्रजा तथा राज्य दोनों का प्रबोधन करना भी आवश्यक है ।
 
 
 
२... अकाल, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय
 
  
 
== इतिहास ==
 
== इतिहास ==
इतिहास को हम राजकीय इतिहास के रूप में ही... प्रशासन के ही हाथ में हमने दे दी है । अथवा ब्रिटिश
+
इतिहास को हम राजकीय इतिहास के रूप में ही पढ़ाते हैं। शासन, प्रशासन, राजनीति आदि हमारे लिये इतने महत्त्वपूर्ण मामले हो गये हैं कि इतिहास इसी से बनता है ऐसा हमें लगता है। आज भी सारी सत्ता शासन और प्रशासन के ही हाथ में हमने दे दी है। अथवा ब्रिटिश शासन ने समाज की स्वायत्तता का भंग कर सत्ता अपने हाथ में ले ली। तबसे हमारी मानसिकता धीरे धीरे शासनकेन्द्रित अर्थात्‌ राज्यकेंद्रित बन गई है। राजाओं या शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय का वर्णन करना हमारे लिये इतिहास है । भारतीय ज्ञानपरंपरा में महाभारत को और पुराणों को इतिहास कहा गया है । आज इनके सामने बड़ी आपत्ति उठाई जा रही है। इन्हें काल्पनिक कहा जा रहा है। भारतीय विद्वान इन्हें इतिहास के नाते प्रस्थापित कर ही नहीं पा रहे हैं क्योंकि इतिहास की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा को स्वीकार कर अपने ग्रन्थों को लागू करने से वे इतिहास ग्रंथ सिद्ध नहीं होते हैं । एक बहुत ही छोटा तबका इन्हें इतिहास मान रहा है परन्तु विद्वतक्षेत्र के मुख्य प्रवाह में अभी भी ये धर्मग्रंथ हैं, इतिहास नहीं । इतिहास की भारतीय परिभाषा है{{Citation needed}}<blockquote>धर्मार्थिकाममो क्षाणाम्‌ उपदेशसमन्वितम्‌ ।</blockquote><blockquote>पुरावृत्तं कथारूप॑ इतिहासं प्रचक्षते ।।</blockquote>अर्थात्‌ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का उपदेश जिसमें मिलता है, जो पूर्व में हो गया है, जो कथा के रूप में बताया गया है वह इतिहास है । इतिहास पढ़ने का प्रयोजन स्पष्ट है । वह मनुष्य को सही जीवन जीने का मार्गदर्शन करने वाला होना चाहिए ।  इस दृष्टि से प्रेरक चरित्र और प्रेरक घटनाओं का महत्त्व है । वह रोचक ढंग से बताया हुआ होना चाहिए । उदाहरण के लिये{{Citation needed}} “रामादिवत् वर्तितव्यं न तु रावणादीवत्" अर्थात राम आदि की तरह व्यवहार करना चाहिए, रावण आदि की तरह नहीं ऐसा उपदेश ही इतिहास का लक्ष्य है ।
 
 
पढ़ाते हैं । शासन, प्रशासन, राजनीति आदि हमारे लिये. शासन ने समाज की स्वायत्तता का भंग कर सत्ता अपने
 
 
 
इतने महत्त्वपूर्ण मामले हो गये हैं कि इतिहास इसीसे बनता. हाथ में ले ली । तबसे हमारी मानसिकता धीरे धीरे
 
 
 
है ऐसा हमें लगता है । आज भी सारी सत्ता शासन और. शासनकेन्द्रित अर्थात्‌ राज्यकेंद्रित बन गई है । राजाओं या
 
 
 
ROR
 
 
 
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
 
 
शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय का वर्णन
 
 
 
करना हमारे लिये इतिहास है ।
 
 
 
भारतीय ज्ञानपरंपरा में महाभारत को और पुराणों को
 
 
 
इतिहास कहा गया है । आज इनके सामने बड़ी आपत्ति
 
 
 
उठाई जा रही है। इन्हें काल्पनिक कहा जा रहा है।
 
 
 
भारतीय विद्वान इन्हें इतिहास के नाते प्रस्थापित कर ही नहीं
 
 
 
पा रहे हैं क्योंकि इतिहास की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा
 
 
 
को स्वीकार कर अपने ग्रन्थों को लागू करने से वे इतिहास
 
 
 
ग्रंथ सिद्ध नहीं होते हैं । एक बहुत ही छोटा तबका इन्हें
 
 
 
इतिहास मान रहा है परन्तु विट्रतक्षेत्र के मुख्य प्रवाह में
 
 
 
अभी भी ये धर्मग्रंथ हैं, इतिहास नहीं ।
 
 
 
इतिहास की भारतीय परिभाषा है
 
 
 
धर्मार्थिकाममो क्षाणाम्‌ उपदेशसमन्वितम्‌ ।
 
 
 
पुरावृत्तं कथारूप॑ इतिहासं प्रचक्षते ।।
 
 
 
अर्थात्‌ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों
 
 
 
का उपदेश जिसमें मिलता है, जो पूर्व में हो गया है, जो
 
 
 
कथा के रूप में बताया गया है वह इतिहास है ।
 
 
 
इतिहास पढ़ने का प्रयोजन स्पष्ट है । वह मनुष्य को
 
  
सही जीवन जीने का मार्गदर्शन करने वाला होना चाहिए
+
इसलिये सांस्कृतिक इतिहास राजाओं का नहीं अपितु संस्कृति का इतिहास है सांस्कृतिक परम्परा का निरूपण करना इतिहास का मुख्य लक्ष्य है। इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार के विषय उसमें आना अपेक्षित है:
  
इस दृष्टि से प्रेरक चरित्र और प्रेरक घटनाओं का महत्त्व है
+
धर्म की रक्षा हेतु किए गये कार्य जिनमें युद्ध, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में किए गये सृजन एवं अनुसन्धान, यज्ञकार्य, उत्सव आदि का समावेश होता है । उदाहरण के लिये कुंभ मेले का प्रारम्भ, वेद्कालीन दाशराज्ञ युद्ध, रामायण का युद्ध, श्रीमद्धगवद्दीता का उपदेश, भगवान शंकराचार्य का शास्त्रार्थ, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंदसिंह और शिवाजी महाराज के धर्मरक्षा के प्रयास, अठारहवीं शताब्दी का गोरक्षा आंदोलन ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में प्रेरक सिद्ध होते हैं
  
वह रोचक ढंग से बताया हुआ होना चाहिए
+
साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य आदि क्षेत्र की उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के आविष्कार, शास्त्रों और ज्ञानपरंपरा के महत्त्वपूर्ण आयाम आदि भी इतिहास का विषय बन सकते हैं। भारत द्वारा विदेशों पर किया हुआ सांस्कृतिक विजय इतिहास का महत्त्वपूर्ण विषय है । उसी प्रकार विश्व का सांस्कृतिक इतिहास, विश्व के सांस्कृतिक मंच पर भारत का स्थान एवं मानवता की प्रगति में भारत की भूमिका भी इतिहास का विषय बनता है । देश की सांस्कृतिक एकात्मता दर्शाने वाले सभी तत्त्व इतिहास के अध्ययन के विषय हैं। उदाहरण के लिये राज्यों की, भाषाओं की, तापमान की, खानपान की, रूपरंग की भिन्नता होने पर भी भारत सांस्कृतिक दृष्टि से हमेशा के लिये एक राष्ट्र रहा है इस बात पर सर्वाधिक बल देना आवश्यक है संक्षेप में राजाओं और राजकुलों का नहीं अपितु राष्ट्र का, संस्कृति का, समाज का इतिहास सांस्कृतिक इतिहास है।
  
उदाहरण के लिये “रामादिवद्ट्तितव्यम्‌ न रावणादीवत्‌'
+
अन्य विषयों की तरह इस विषय पर भी पाश्चात्य विद्वानों की इतिहासदृष्टि का गहरा साया पड़ा हुआ है। समयनिर्धारण एक ऐसी समस्या बनाई गई है जिसके आधार पर किसी भी बात को नकारा जा सकता है । वही मूलगत दोष है कि भारतीय ज्ञानधारा को अभारतीय मापदण्डों पर सही बताने के प्रयास करना ही विद्वतक्षेत्र अपना पुरुषार्थ का विषय मानता है। इससे उबरना होगा । अपने आपको या अन्य किसीको नकारने के स्थान पर अपना स्वयं के लिये और दूसरों का दूसरों के लिये स्वीकार करना ही उचित रहेगा।
 
 
अर्थात राम आदि कि तरह व्यवहार करना चाहिए, रावण
 
 
 
आदि की तरह नहीं ऐसा उपदेश ही इतिहास का लक्ष्य है ।
 
 
 
इसलिये सांस्कृतिक इतिहास राजाओं का नहीं अपितु
 
 
 
संस्कृति का इतिहास है ।
 
 
 
सांस्कृतिक परम्परा का निरूपण करना इतिहास का
 
 
 
मुख्य लक्ष्य है। इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार के विषय
 
 
 
उसमें आना अपेक्षित है ...
 
 
 
धर्म की रक्षा हेतु किए गये कार्य जिनमें युद्ध,
 
 
 
ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में किए गये सृजन एवं अनुसन्धान,
 
 
 
यज्ञकार्य, उत्सव आदि का समावेश होता है । उदाहरण के
 
 
 
लिये कुंभ मेले का प्रारम्भ, वेद्कालीन दाशराज्ञ युद्ध,
 
 
 
२७३
 
 
 
रामायण का युद्ध, श्रीमद्धगवद्दीता का
 
 
 
उपदेश, भगवान शंकराचार्य का शाख््रार्थ, महाराणा प्रताप,
 
 
 
गुरु गोविंदर्सिह और शिवाजी महाराज के धर्मरक्षा के प्रयास,
 
 
 
अठारहवीं शताब्दी का गोरक्षा आंदोलन ऐतिहासिक
 
 
 
घटनाओं के रूप में प्रेरक सिद्ध होते हैं ।
 
 
 
साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य आदि क्षेत्र की
 
 
 
उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के आविष्कार, शास्त्रों
 
 
 
और ज्ञानपरंपरा के महत्त्वपूर्ण आयाम आदि भी इतिहास का
 
 
 
विषय बन सकते हैं ।
 
 
 
भारत ने विदेशों पर किया हुआ सांस्कृतिक विजय
 
 
 
इतिहास का महत्त्वपूर्ण विषय है । उसी प्रकार विश्व का
 
 
 
सांस्कृतिक इतिहास, विश्व के सांस्कृतिक मंच पर भारत का
 
 
 
स्थान एवं मानवता की प्रगति में भारत की भूमिका भी
 
 
 
इतिहास का विषय बनता है ।
 
 
 
देश की सांस्कृतिक एकात्मता दर्शनि वाले सभी तत्त्व
 
 
 
इतिहास के अध्ययन के विषय हैं । उदाहरण के लिये राज्यों
 
 
 
की, भाषाओं की, तापमान की, खानपान की, रूपरंग की
 
 
 
भिन्नता होने पर भी भारत सांस्कृतिक दृष्टि से हमेशा के
 
 
 
लिये एक राष्ट्र रहा है इस बात पर सर्वाधिक बल देना
 
 
 
आवश्यक है ।
 
 
 
संक्षेप में राजाओं और राजकुलों का नहीं अपितु राष्ट्र
 
 
 
का, संस्कृति का, समाज का इतिहास सांस्कृतिक इतिहास
 
 
 
है।
 
 
 
अन्य विषयों की तरह इस विषय पर भी पाश्चात्य
 
 
 
विद्वानों की इतिहासदृष्टि का गहरा साया पड़ा हुआ है।
 
 
 
समयनिर्धारण एक ऐसी समस्या बनाई गई है जिसके आधार
 
 
 
पर किसी भी बात को नकारा जा सकता है । वही मूलगत
 
 
 
दोष है कि भारतीय ज्ञानधारा को अभारतीय मापदण्डों पर
 
 
 
सही बताने के प्रयास करना ही विद्वतक्षेत्र अपना पुरुषार्थ का
 
 
 
विषय मानता है। इससे उबरना होगा । अपने आपको या
 
 
 
अन्य किसीको नकारने के स्थान पर अपना स्वयं के लिये
 
 
 
और दूसरों का दूसरों के लिये स्वीकार करना ही उचित
 
 
 
रहेगा।
 
 
 
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
  
 
== विज्ञान ==
 
== विज्ञान ==
आज का युग विज्ञान और वैज्ञानिकता का है ऐसा
+
इस विषय पर [[Dharmik Scientific Temperament and Modern Science (धार्मिक शोध दृष्टि एवं आधुनिक विज्ञान)|यह लेख]] भी देखें।
 
 
बहुत उत्साह से कहा जाता है ।आज के युग का देवता ही
 
 
 
विज्ञान है । बुद्धिमान और श्रेष्ठ लोग ही विज्ञान पढ़ते हैं
 
 
 
ऐसी हवा है । इस संदर्भ में सांस्कृतिक दृष्टि से कुछ बातें
 
 
 
विचारणीय हैं ।
 
 
 
आज जिसे विज्ञान कहा जा रहा है वह भौतिक
 
 
 
विज्ञान है। भारतीय संकल्पना के अनुसार केवल
 
 
 
अन्ननरसमय और प्राणमय जगत को ही विज्ञान नाम दिया
 
 
 
जाता है । यह एक अधूरी और अनुचित संकल्पना है ।
 
 
 
वास्तव में विज्ञान का दायरा भौतिक विज्ञान से लेकर
 
 
 
आत्मविज्ञान तक का है जिसमें मनोविज्ञान का भी समावेश
 
 
 
हो जाता है ।
 
 
 
०... वैज्ञानिकता का सही अर्थ है शास्त्रीयता । यह बुद्धि
 
 
 
का क्षेत्र है, तर्क का क्षेत्र है, भारतीय परंपरा से देखें
 
 
 
तो न्याय का क्षेत्र है, तत्त्वज्ञान का क्षेत्र है । यहाँ
 
 
 
व्याकरण चलता है । जो तर्क से नहीं सिद्ध होता वह
 
 
 
वैज्ञानिक नहीं है। आज जो भौतिक विज्ञान की
 
 
 
प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता वह मान्य नहीं होता
 
 
 
है। इससे मुक्त कर विज्ञान को व्यापक बनाने की
 
 
 
आवश्यकता है ।
 
 
 
आज का विज्ञान सभी बातों का मापदण्ड नहीं हो
 
 
 
सकता । वास्तव में सामाजिकता ही वैज्ञानिकता का
 
 
 
भी मापदण्ड बनाना चाहिए । विज्ञान ज्ञान नहीं है,
 
 
 
ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया है । प्रक्रिया कभी
 
 
 
निर्णायक नहीं हो सकती । ज्ञान ही निर्णायक होता
 
 
 
है । देखा जाय तो विज्ञान सभ्यता के विकास हेतु है
 
 
 
और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती
 
 
 
@ | इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति
 
 
 
विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत
 
 
 
मूलगामी परिवर्तन है ।
 
 
 
फिर भी भावना, क्रिया, विचार आदि की अपेक्षा
 
 
 
बुद्धि की प्रतिष्ठा विशेष है । अन्य सभी आयामों को
 
 
 
Rox
 
 
 
बुद्धिनिष्ठ बनाना चाहिए परंतु बुद्धि को आत्मनिष्ठ
 
 
 
बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को
 
 
 
अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए |
 
 
 
इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के
 
 
 
समन्वय की जो भाषा बोली जाती है उसे ठीक करना
 
 
 
चाहिए । विज्ञान और अध्यात्म तुल्यबल संकल्पनायें नहीं
 
 
 
हैं। विज्ञान अध्यात्म का एक हिस्सा है । उसके निकष
 
 
 
अध्यात्म में ही हैं । यही भारतीय विज्ञानदृष्टि होगी ।
 
 
 
०... भौतिक विज्ञान को पंचमहाभूतात्मक संकल्पना का
 
 
 
आधार देना चाहिए । ऐसा करने से हमारे भौतिक
 
 
 
विज्ञान के आकलन में बहुत अंतर आ सकता है ।
 
 
 
उदाहरण के लिए सृष्टि विज्ञान में अष्टधा प्रकृति की
 
 
 
संकल्पना जुड़ते ही सत्त्व, रज, तम ऐसे तीन गुण
 
 
 
जुड़ जाएँगे । जो पदार्थ का स्वरूप ही बदल देगा ।
 
 
 
प्राणिविज्ञान के क्षेत्र में प्राण का विचार करना ही
 
 
 
पड़ेगा । प्राण का विचार करते ही शरीरविज्ञान,
 
 
 
वनस्पतिविज्ञान, प्राणिविज्ञान का. स्वरूप बदल
 
 
 
जाएगा ।
 
 
 
मन और मानसिक प्रक्रियाओं का भौतिक जगत पर
 
 
 
क्या प्रभाव होता है इसका अध्ययन किए बिना
 
 
 
भौतिक विज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन अधूरा ही
 
 
 
रहेगा । उदाहरण के लिए अब इस तथ्य का स्वीकार
 
 
 
होने लगा है कि जितने भी रोग होते हैं उनका उद्म
 
 
 
मन में होता है और वे प्रकट शरीर में होते हैं । अत:
 
 
 
उनका उपचार भी मन को ध्यान में लिए बिना नहीं
 
 
 
हो सकता है ऐसा कहना वैज्ञानिक कथन ही होगा ।
 
 
 
यदि इस विचार को प्रतिष्ठित किया तो चिकित्साशास्त्र
 
 
 
का स्वरूप बहुत भारी मात्रा में बदल जाएगा ।
 
 
 
मनुष्य के शरीर कि प्रक्रियाओं को चक्र प्रभावित
 
 
 
करते हैं । ये प्राण के क्षेत्र हैं, केवल शरीर के नहीं ।
 
 
 
साथ ही मानसिक प्रक्रियाओं का इन पर बहुत प्रभाव
 
 
 
है । इस बात का विचार अवश्य करना चाहिए ।
 
 
 
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
 
 
साथ ही भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत की क्या
 
  
उपलब्धि रही है इसका इतिहास तो वर्तमान संदर्भ
+
आज का युग विज्ञान और वैज्ञानिकता का है ऐसा बहुत उत्साह से कहा जाता है। आज के युग का देवता ही विज्ञान है। बुद्धिमान और श्रेष्ठ लोग ही विज्ञान पढ़ते हैं ऐसी हवा है । इस संदर्भ में सांस्कृतिक दृष्टि से कुछ बातें विचारणीय हैं । आज जिसे विज्ञान कहा जा रहा है वह भौतिक विज्ञान है। यह एक अधूरी और अनुचित संकल्पना है। भारतीय संकल्पना के अनुसार केवल अन्ननरसमय और प्राणमय जगत को ही विज्ञान नाम दिया जाता है ।
  
ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम का हिस्सा होना ही
+
वास्तव में विज्ञान का दायरा भौतिक विज्ञान से लेकर आत्मविज्ञान तक का है जिसमें मनोविज्ञान का भी समावेश हो जाता है ।
 
+
* वैज्ञानिकता का सही अर्थ है शास्त्रीयता । यह बुद्धि का क्षेत्र है, तर्क का क्षेत्र है, भारतीय परंपरा से देखें तो न्याय का क्षेत्र है, तत्त्वज्ञान का क्षेत्र है । यहाँ व्याकरण चलता है । जो तर्क से नहीं सिद्ध होता वह वैज्ञानिक नहीं है। आज जो भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता वह मान्य नहीं होता है। इससे मुक्त कर विज्ञान को व्यापक बनाने की आवश्यकता है ।
चाहिए । कारण यह है कि आज भारत में और विश्व
+
* आज का विज्ञान सभी बातों का मापदण्ड नहीं हो सकता । वास्तव में सामाजिकता ही वैज्ञानिकता का भी मापदण्ड बनाना चाहिए । विज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया है । प्रक्रिया कभी निर्णायक नहीं हो सकती । ज्ञान ही निर्णायक होता है । देखा जाय तो विज्ञान सभ्यता के विकास हेतु है और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती है। इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत मूलगामी परिवर्तन है ।
 
+
* तथापि भावना, क्रिया, विचार आदि की अपेक्षा बुद्धि की प्रतिष्ठा विशेष है। अन्य सभी आयामों को बुद्धिनिष्ठ बनाना चाहिए परंतु बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए । इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की जो भाषा बोली जाती है उसे ठीक करना चाहिए । विज्ञान और अध्यात्म तुल्यबल संकल्पनायें नहीं हैं। विज्ञान अध्यात्म का एक हिस्सा है। उसके निकष अध्यात्म में ही हैं। यही भारतीय विज्ञानदृष्टि होगी।
में ऐसी समझ बनी है कि विज्ञान और वैज्ञानिक
+
* भौतिक विज्ञान को पंचमहाभूतात्मक संकल्पना का आधार देना चाहिए। ऐसा करने से हमारे भौतिक विज्ञान के आकलन में बहुत अंतर आ सकता है । उदाहरण के लिए सृष्टि विज्ञान में अष्टधा प्रकृति की कल्पना जुड़ते ही सत्त्व, रज, तम ऐसे तीन गुण जुड़ जाएँगे। जो पदार्थ का स्वरूप ही बदल देगा।
 
+
* प्राणिविज्ञान के क्षेत्र में प्राण का विचार करना ही पड़ेगा । प्राण का विचार करते ही शरीरविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, प्राणिविज्ञान का स्वरूप बदल जाएगा ।
दृष्टिकोण पाश्चात्य जगत का ही विषय है, भारत तो
+
* मन और मानसिक प्रक्रियाओं का भौतिक जगत पर क्या प्रभाव होता है इसका अध्ययन किए बिना भौतिक विज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन अधूरा ही रहेगा । उदाहरण के लिए अब इस तथ्य का स्वीकार होने लगा है कि जितने भी रोग होते हैं उनका उद्गम मन में होता है और वे प्रकट शरीर में होते हैं । अत: उनका उपचार भी मन को ध्यान में लिए बिना नहीं हो सकता है ऐसा कहना वैज्ञानिक कथन ही होगा । यदि इस विचार को प्रतिष्ठित किया तो चिकित्साशास्त्र का स्वरूप बहुत भारी मात्रा में बदल जाएगा।
 
+
* मनुष्य के शरीर की प्रक्रियाओं को चक्र प्रभावित करते हैं। ये प्राण के क्षेत्र हैं, केवल शरीर के नहीं । साथ ही मानसिक प्रक्रियाओं का इन पर बहुत प्रभाव है । इस बात का विचार अवश्य करना चाहिए। साथ ही भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत की क्या उपलब्धि रही है इसका इतिहास तो वर्तमान संदर्भ ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम का हिस्सा होना ही चाहिए। कारण यह है कि आज भारत में और विश्व में ऐसी समझ बनी है कि विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पाश्चात्य जगत का ही विषय है, भारत तो ध्यान, भक्ति, भावना, कल्पना आदि की दुनिया में ही विहार करता है। भारत में साहित्य और कला की तो उपासना हो सकती है, विज्ञाननिष्ठा नहीं। इस भ्रांति को दूर करने हेतु पुरुषार्थ करने की महती आवश्यकता है।
ध्यान, भक्ति, भावना, कल्पना आदि की दुनिया में
+
* साथ ही भारत की विज्ञान के अध्ययन और अनुसन्धान की पद्धतियाँ क्या रही होंगी इसका भी अनुसन्धान आवश्यक है । उदाहरण के लिए आज के चिकित्साविज्ञान का विकास नहीं हुआ था तब भी भारत में शल्यचिकित्सा होती थी । दूसरा उदाहरण देखें तो मनुष्य के शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं यह हमारे ऋषियों ने कैसे जाना होगा यह विषय ज्ञातव्य है। इस प्रकार विज्ञान, वैज्ञानिकता और वैज्ञानिक पद्धतियों के बारे में नए से अनुसन्धान होने की आवश्यकता है ।
 
 
ही विहार करता है । भारत में साहित्य और कला की
 
 
 
तो उपासना हो सकती है, विज्ञाननिष्ठा नहीं । इस
 
 
 
भ्रांति को दूर करने हेतु पुरुषार्थ करने की महती
 
 
 
आवश्यकता है ।
 
  
 
== तंत्रज्ञान ==
 
== तंत्रज्ञान ==
विज्ञान की ही तरह तंत्रज्ञान का भूत भी हमारे
+
[[Dharmik Science and Technology (धार्मिक विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान दृष्टि)|इस लेख]] को भी देखें।
 
 
मस्तिष्क पर सवार हो गया है। यंत्रों के नए नए
 
 
 
आविष्कारों में ही हमारे सारे पुरुषार्थ की परिसीमा हमें
 
 
 
लगती है । परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से इस संदर्भ में कुछ इस
 
 
 
प्रकार विचार करने की आवश्यकता है ।
 
 
 
तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान के साथ
 
 
 
जुड़ा हुआ नहीं । भौतिक विज्ञान का संबंध केवल
 
 
 
यंत्र बनाने की पद्धति और वह काम कैसे करता है
 
 
 
यह जानने के जितना सीमित है । यंत्रों का क्या
 
 
 
करना यह तय करने का काम समाजशाख््र का है ।
 
 
 
आज जिस टेकनोलोजी से हम प्रभावित हुए हैं वह है
 
 
 
यंत्रों का प्रयोग करने का शास्त्र । इतिहास में देखें तो
 
 
 
भारत में अद्भुत यंत्रसामग्री बनी है । इसकी जानकारी
 
 
 
आज की दुनिया को देने की आवश्यकता है ।
 
 
 
यंत्रों के उपयोग के संबंध में विशेष ध्यान देने योग्य
 
 
 
बात यह है कि वह मनुष्य की सहायता के लिए होने
 
 
 
चाहिए, मनुष्य के कष्ट कम करने के लिए होने
 
 
 
चाहिए, मनुष्य का स्थान लेने वाले, उसकी काम
 
 
 
करने की कुशलता कम करने वाले, उसका हुनर नष्ट
 
 
 
२७५
 
 
 
साथ ही भारत की विज्ञान के
 
 
 
अध्ययन और अनुसन्धान की पद्धतियाँ क्या रही
 
 
 
होंगी इसका भी अनुसन्धान आवश्यक है । उदाहरण
 
 
 
के लिए आज के चिकित्साविज्ञान का विकास नहीं
 
 
 
हुआ था तब भी भारत में शल्यचिकित्सा होती थी ।
 
 
 
दूसरा उदाहरण देखें तो मनुष्य के शरीर में बहत्तर
 
 
 
हजार नाड़ियाँ हैं यह हमारे ऋषियों ने कैसे जाना
 
 
 
होगा यह विषय ज्ञातव्य है ।
 
 
 
इस प्रकार विज्ञान, वैज्ञानिकता और वैज्ञानिक
 
 
 
पद्धतियों के बारे में नए से अनुसन्धान होने की
 
 
 
आवश्यकता है ।
 
 
 
करने वाले और उसकी काम करने की वृत्ति क्षीण
 
 
 
कर उसे आलसी और निकम्मा बना देने के लिए नहीं
 
 
 
हैं। आज ऐसा ही हो रहा है यह एक भारी चुनौती
 
 
 
हमारे सामने है ।
 
 
 
साथ ही यंत्रों के आविष्कार ने पर्यावरण को नष्ट
 
 
 
करने वाले राक्षस का काम किया है । मनुष्य का
 
 
 
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी नष्ट होता जा
 
 
 
रहा है । अर्थतन्त्र को भयंकर रूप से विनाशक बना
 
 
 
दिया है ।
 
 
 
अर्थात्‌ यंत्र निर्जीव है, वह यह सब नहीं कर सकता
 
 
 
है । उसका उपयोग करने वाली बुद्धि का स्वामी
 
 
 
मनुष्य है । उसे ही ठीक करने की आवश्यकता है ।
 
 
 
इसीलिए  तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान
 
 
 
का नहीं ।
 
 
 
मनुष्य की बुद्धि ठीक हो जाने के बाद जिस प्रकार
 
 
 
की तकनीकी का विकास होगा उसके लिए भारत को
 
 
 
नए से कुछ नहीं करना पड़ेगा क्योंकि इस क्षेत्र का
 
 
 
भारत का इतिहास समृद्ध है ।
 
 
 
............. page-292 .............
 
  
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
+
विज्ञान की ही तरह तंत्रज्ञान का भूत भी हमारे मस्तिष्क पर सवार हो गया है। यंत्रों के नए नए आविष्कारों में ही हमारे सारे पुरुषार्थ की परिसीमा हमें लगती है । परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से इस संदर्भ में कुछ इस प्रकार विचार करने की आवश्यकता है।
 +
* तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान के साथ जुड़ा हुआ नहीं । भौतिक विज्ञान का संबंध केवल यंत्र बनाने की पद्धति और वह काम कैसे करता है यह जानने के जितना सीमित है । यंत्रों का क्या करना यह तय करने का काम समाजशास्त्र का है।
 +
* आज जिस टेकनोलोजी से हम प्रभावित हुए हैं वह है यंत्रों का प्रयोग करने का शास्त्र। इतिहास में देखें तो भारत में अद्भुत यंत्रसामग्री बनी है। इसकी जानकारी आज की दुनिया को देने की आवश्यकता है।
 +
* यंत्रों के उपयोग के संबंध में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह मनुष्य की सहायता के लिए होने चाहिए, मनुष्य के कष्ट कम करने के लिए होने चाहिए, मनुष्य का स्थान लेने वाले, उसकी काम करने की कुशलता कम करने वाले, उसका हुनर नष्ट करने वाले और उसकी काम करने की वृत्ति क्षीण कर उसे आलसी और निकम्मा बना देने के लिए नहीं हैं। आज ऐसा ही हो रहा है यह एक भारी चुनौती हमारे सामने है।
 +
* साथ ही यंत्रों के आविष्कार ने पर्यावरण को नष्ट करने वाले राक्षस का काम किया है । मनुष्य का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी नष्ट होता जा रहा है। अर्थतन्त्र को भयंकर रूप से विनाशक बना दिया है।
 +
* अर्थात्‌ यंत्र निर्जीव है, वह यह सब नहीं कर सकता है । उसका उपयोग करने वाली बुद्धि का स्वामी मनुष्य है । उसे ही ठीक करने की आवश्यकता है । इसीलिए  तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान का नहीं । मनुष्य की बुद्धि ठीक हो जाने के बाद जिस प्रकार की तकनीकी का विकास होगा उसके लिए भारत को नए से कुछ नहीं करना पड़ेगा क्योंकि इस क्षेत्र का भारत का इतिहास समृद्ध है ।
  
 
== भाषा ==
 
== भाषा ==
मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के
+
मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है। इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के लिये निकटतम होती है। जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है; क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं। उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ सकता है तथापि उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह ग्रहण बिना किसी गलती का होता है। इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक सक्रिय होता है।
 
 
समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं
 
 
 
की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता
 
 
 
है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब
 
 
 
से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता
 
 
 
से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है।
 
 
 
इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के
 
 
 
समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति
 
 
 
के लिये निकटतम होती है।
 
 
 
जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर
 
 
 
उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा
 
 
 
पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है;
 
 
 
क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था
 
 
 
में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे
 
 
 
अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार
 
 
 
इंट्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इंट्रियाँ, मन,
 
 
 
बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं।
 
 
 
उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में
 
 
 
ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ
 
 
 
सकता है फिर भी उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप
 
 
 
से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक
 
 
 
अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह
 
 
 
ग्रहण बिना किसी गलती का होता है।
 
 
 
इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध
 
 
 
भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क
 
 
 
मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम
 
 
 
सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है
 
 
 
परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक
 
 
 
सक्रिय होता है।
 
 
 
2.
 
 
 
भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम
 
 
 
२७६
 
 
 
है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी
 
 
 
अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं
 
 
 
कहा जा सकता। “या भाष्यते सा भाषा' - जो बोली जाती
 
 
 
है वह भाषा है - ऐसा भाषा का अर्थ बताया जाता है।
 
 
 
मनुष्य को छोड़कर अन्य जीव बोलते नहीं है इसलिये
 
 
 
उनकी भाषा भी नहीं होती।
 
 
 
3.
 
 
 
आज हम भाषा के दो रूप मानते हैं। एक है मौखिक
 
 
 
और दूसरा है लिखित। परन्तु भाषा का मूल रूप मौखिक
 
 
 
ही है। लिखित रूप गौण है, अत्यन्त गौण है। विश्व में गूँगों
 
 
 
को छोड़कर लगभग सभी बोल सकते हैं परन्तु उनके
 
 
 
अनुपात में बहुत कम लोग लिख सकते हैं। मनुष्य अपने
 
 
 
जीवन में भी पहले बोलने लगता है, बाद में लिखने।
 
 
 
लिखना न भी आये तो चलता है, बोलना नहीं आया तो
 
 
 
नहीं चलता। बोलना तो बरबस होता है, लिखना प्रयास से
 
 
 
होता है। अतः: भाषा मूलत: बोलना ही है। बोलने से ही
 
 
 
उसकी परिभाषा बनी है।
 
 
 
रे,
 
 
 
भाषा का केवल वाचिक रूप ही नहीं होता है। वह
 
 
 
भावात्मक भी होता है। शिशु अवस्था में, जब तक शिशु
 
 
 
बोलना नहीं सीखता वह भाषा का भावात्मक रूप ग्रहण
 
 
 
करता है। शब्द और अर्थ मिलकर भाषा बनती है। वह
 
 
 
भाषा का अर्थरूप पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, शब्द रूप
 
 
 
संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है।
 
 
 
शब्द का उच्चारण करने के लिये उसका ध्वनितन्त्र
 
 
 
पर्याप्त रूप से सक्षम चाहिये। जन्म के समय वह उतना
 
 
 
सक्षम नहीं होता है। उसे सक्रिय बनाने की दिशा में उसका
 
 
 
अखण्ड पुरुषार्थ चलता है। रोना, चिछ्ठाना, हँसना, तरह
 
 
 
तरह की आवाजें निकालना, शब्द के उच्चारण की ही पूर्व
 
 
 
तैयारी होती है। जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वह पूर्ण
 
 
 
रूप से उच्चारण सीखता जाता है।
 
 
 
............. page-293 .............
 
 
 
पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
 
 
स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण, बल, हस्व.. वाक्‌ और अर्थ जुड़े हैं उसी प्रकार
 
 
 
और दीर्घ, आरोह, अवरोह आदि वह सुनकर ही सीखता. एकदूसरे से जुड़े हुए जगत के मातापिता पार्वती और
 
 
 
है। सुनने के अलावा भाषा सीखने का और कोई तरीका... परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। पार्वती और परमेश्वर
 
 
 
नहीं है। जो सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता यह... एकदूसरे के साथ कितने एकात्म भाव से जुड़े हुए हैं यह
 
 
 
सार्वत्रिक नियम है। जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है। हम सब जानते हैं। उनके सम्बन्ध का वर्णन करने के लिए
 
 
 
शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की उपमा दी जाती है। यही
 
 
 
शब्द और अर्थ की एकात्मता का द्योतक है। इसका तात्पर्य
 
 
 
भाषा का सम्बन्ध नाद से है। नाद का अर्थ है वाणी, .. यह है कि भाषा का विचार करते समय हमें ध्वनि और
 
 
 
अर्थात्‌ आवाज। नाद सृष्टि की उत्पत्ति का आदि कारण है।... अर्थ दोनों का अलग अलग और एकसाथ विचार करना
 
 
 
उसे नादब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म नाद्स्वरूप है ऐसा उसका... होगा।
 
 
 
अर्थ है। सृष्टि जैसे जैसे फैलने लगी और विविध रूप धारण
 
 
 
करने लगी वैसे वैसे नाद भी विविध रूप धारण करने लगा। 9:
 
 
 
सर्व प्रकार की ध्वनियों का मूल रूप है 35। इसलिये वह भाषा के शब्द रूप की बात करें तो प्रथम हमें देखना
 
 
 
भी ब्रह्म का ही वाचक है। ध्वनि के विविध रूप सृष्टि के... होगा कि ध्वनि का सम्बन्ध कहाँ कहाँ किन किन से किस
 
 
 
विविध रूपों के साथ आन्तरिक रूप से ही जुड़े हुए हैं। इस. किस प्रकार का है। ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ
 
 
 
सम्बन्ध का कभी विच्छेद्‌ नहीं हो सकता। एक बात... है। पंचमहाभूत हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश।
 
 
 
समझने योग्य है कि 3 अनेक ध्वनियों में से एक ध्वनि... इनमें शब्द आकाश का विषय है। सभी भूतों में आकाश
 
 
 
नहीं है, वह सभी ध्वनियों का मूल रूप है। सारे ध्वनि रूप... सूक्ष्मतम है अर्थात्‌ व्यापकतम है। वह शेष सभी भूतों को
 
 
 
उसमें से निःसृत हुए हैं। भी व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है
 
 
 
इसका अर्थ यह है कि वह आकाश के माध्यम से गति
 
 
 
दे करता है। आकाश अनन्त है इसलिये शब्द भी अनन्त है।
 
 
 
व्यवहार में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसके... भाषा के ध्वनिरूप को अक्षर कहा जाता है। अक्षर वह है
 
 
 
दो आयाम हैं। ये दो आयाम एक सिक्के के दो पहलू जैसे जिसका कभी क्षरण नहीं होता अर्थात्‌ नाश नहीं होता।
 
 
 
हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता है। ये दो पहलू हैं... अक्षर भी ब्रह्म का ही नाम है। भाषा के शब्दमय पहलू की
 
 
 
शब्द और अर्थ। शब्द है वाकू अर्थात्‌ वाणी अर्थात्‌ ध्वनि... लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनिरूप होता है इसलिए
 
 
 
और अर्थ है उसका व्यावहारिक सन्दर्भ। व्यावहारिक जीवन. उसका उच्चारण होता है। उच्चारण के सन्दर्भ में अक्षर का
 
 
 
में विचार, भावनायें, इच्छायें,  अपेक्षायें, deh, AAA, सम्बन्ध वाकू नाम की कर्मेन्ट्रिय से है। ध्वनि शब्द है
 
 
 
संवेदनायें आदि सब होते हैं। जब इन सबको ध्वनि रूप... इसलिये उसका सम्बन्ध श्रवणेन्ट्रिय से है। श्रवणेन्द्रिय और
 
 
 
प्राप्त होता है तब भाषा जन्म लेती है। व्यावहारिक सन्दर्भ. वागीन्ट्रिय दोनों से संबन्धित होने के कारण सुनने और
 
 
 
अर्थात्‌ अर्थ और शब्द का सम्बन्ध कितना एकात्म है यह... बोलने की प्रक्रिया बनती है। सुनने और बोलने के सम्बन्ध
 
 
 
दर्शाते हुए कविकुलगुरू कालिदास ने पार्वती और शंकर के... से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है।
 
 
 
&,
 
 
 
सम्बन्ध का वर्णन किया है। वे लिखते हैं यही संवाद का माध्यम है। अक्षर अक्षर से बनी भाषा
 
 
 
वागर्थाविव सम्पूक्ती वागर्थप्रतिपत्तये । मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध का एक बहुत बड़ा सशक्त माध्यम
 
 
 
जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी ।। (रघुवंश १-१) बनती है।
 
 
 
अर्थात्‌ वाणी के अर्थ की सिद्धि हेतु जिस प्रकार भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण
 
 
 
२७७
 
 
 
............. page-294 .............
 
 
 
है। शारीरिक दृष्टि से स्वर्यन्त्र ठीक
 
 
 
होना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही श्वसन की सही पद्धति,
 
 
 
बैठने की सही पद्धति और छाती में दम होना अत्यन्त
 
 
 
आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दुर्बल
 
 
 
होता है। यदि श्वसन अभ्यास ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट
 
 
 
नहीं होता है। यदि स्वरयन्त्र ठीक नहीं है तो उच्चारण
 
 
 
अशुद्ध होता है।
 
 
 
अभ्यास का महत्त्व अनन्यसाधारण है। अभ्यास से
 
 
 
भाषा प्रभावी बनती है।
 
 
 
 
 
 
ध्वनिरूप में अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के
 
 
 
भीतर के प्राण के साथ भी है और सृष्टि के प्राणतत्त्व के
 
 
 
साथ भी है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है।
 
 
 
अत: प्राणशक्ति के बलवान होने और नहीं होने का प्रभाव
 
 
 
अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है। अक्षर का सम्बन्ध
 
 
 
मनस्तत्त्व के साथ भी है। व्यक्ति के भीतर मनस्तत्त्व के
 
 
 
साथ भी और सृष्टि के मनस्तत्त्व के साथ भी। अक्षर का
 
 
 
सम्बन्ध शरीर के भीतर के अन्यान्य चक्रों के साथ है,
 
 
 
अन्यान्य अंगों के साथ भी है। विभिन्न अंगों के साथ
 
 
 
सम्बन्धित होकर मूल ध्वनि भिन्न भिन्न रूप धारण करती है
 
 
 
यथा ओष्ट के साथ सम्बन्धित होकर प, फ, ब, भ, म
 
 
 
बनता है; दाँत के साथ सम्बन्धित होकर त, थ, द, ध, न
 
 
 
बनता है आदि। ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर
 
 
 
शरीर के भीतर के विभिन्न चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं।
 
 
 
इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं,
 
 
 
भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। संक्षेप में अक्षर का
 
 
 
सम्बन्ध मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के साथ बनता है, साथ ही
 
 
 
वह मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ भी
 
 
 
सम्बन्ध बनाता है।
 
 
 
8.
 
 
 
भाषा की मूल इकाई अक्षर है परन्तु इसकी व्याप्ति
 
 
 
सम्पूर्ण जीवन है। सम्पूर्ण जीवनरूपी भवन की एक एक ईट
 
 
 
अक्षर है। इस अक्षर के भिन्न भिन्न पदार्थों के साथ जुड़ने के
 
 
 
२७८
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
कारण अनेक रूप बनते हैं। इसलिये अक्षरों के उच्चारण का
 
 
 
बहुत बड़ा शास्त्र बना है। उस शास्त्र को शिक्षा कहा गया
 
 
 
है। आज हम अंग्रेजी शब्द एज्यूकेशन को शिक्षा कहते हैं
 
 
 
उस अर्थ में यह शिक्षा नहीं है। वेद के जो छः अंग हैं उनमें
 
 
 
एक अंग शिक्षा है। वह उच्चारणशास्त्र है। अनेक विद्वानों
 
 
 
के शिक्षाग्रन्थ उपलब्ध हैं यथा पाणिनीय शिक्षा,
 
 
 
याज्ञवल्क्यशिक्षा आदि। इन ग्रन्थों में अक्षर के विभिन्न रूप
 
 
 
और उनके उच्चारण की पद्धति का विस्तारपूर्वक निरूपण
 
 
 
किया गया है।
 
 
 
Ro.
 
 
 
जिस प्रकार अव्यक्त ब्रह्म व्यक्त रूप धारण करता है
 
 
 
तब वह अनेक रूपों से युक्त विश्वरूप धारण करता है, उसी
 
 
 
प्रकार शब्द भी अव्यक्त से व्यक्त रूप धारण करता है। यह
 
 
 
एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के चार चरण हैं। अक्षर के या
 
 
 
वाकू के, या शब्द के, या वाणी के चार रूप हैं। परा,
 
 
 
पश्यन्ति, मध्यमा और dat! परावाणी का ब्रह्मरूप है।
 
 
 
इस स्तर पर वह नादब्रह्म है। पश्यन्ति वाणी का मूल
 
 
 
व्यक्तरूप है जिसका सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ है। इस
 
 
 
स्तर पर शब्द संकल्पना का रूप धारण करता है। तीसरा
 
 
 
मध्यमा वाणी का भाव रूप है। इसका सम्बन्ध अनाहत
 
 
 
चक्र से है जो हृदयस्थान भी है। चौथा वैखरी रूप पूर्ण
 
 
 
व्यक्त रूप है। यह श्रवणेन्द्रिय को सुनाई देता है। वेद का
 
 
 
अंग शिक्षा परा वाणी को वैखरी तक लाने की प्रक्रिया
 
 
 
सिखाने वाला शास्त्र है।
 
 
 
भाषा के चार कौशल गिनाये जाते हैं। ये हैं श्रवण,
 
 
 
भाषण, पठन और लेखन। इनमें मूल श्रवण और भाषण हैं।
 
 
 
पठन और लेखन वाचिक स्वरूप का वर्ण रूप में रूपान्तरण
 
 
 
है। श्रवण दूसरे के भाषण का अनुसरण करता है और पठन
 
 
 
दूसरे के लेखन का अनुसरण करता है। अतः: भाषा कभी भी
 
 
 
अकेले में नहीं सीखी जाती, दो मिलकर ही सीखी जाती है।
 
 
 
अत: भाषा सीखने में सिखाने वाले की भूमिका बहुत
 
 
 
महत्त्वपूर्ण रहती है।
 
 
 
............. page-295 .............
 
 
 
पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
 
 
 
श्श्,
 
 
 
भाषा का दूसरा अंग है पद । पद को शब्द भी कहा
 
 
 
जाता है। यहाँ शब्द का अर्थ केवल ध्वनि नहीं है, ध्वनि के
 
 
 
उपरान्त कुछ और भी है। ध्वनिरूप अक्षरों के साथ जब
 
 
 
जीवन में व्याप्त अर्थ जुड़ता है तब वह ध्वनिसमूह पद
 
 
 
बनता है। पदों की रचना का भी एक बहुत विस्तृत शास्त्र
 
 
 
है। पदों की स्वना को व्युत्पत्ति कहते हैं और व्युत्पत्ति के
 
 
 
शास्त्र को निरूक्त कहते हैं। पद एक व्यवस्था तो है परन्तु
 
 
 
वह अनुरणन, आकार, क्रिया आदि अनेक बातों से सम्बन्ध
 
 
 
रखने वाली व्यवस्था है। वह कृत्रिम व्यवस्था नहीं है। एक
 
 
 
दो उदाहरण सहायक होंगे। 'हृदय' पद तीन क्रियाओं का
 
 
 
वाचक है। आहरति अर्थात्‌ लाता है का “ह', ददाति अर्थात
 
 
 
देता है का 'द' और यमयति अर्थात्‌ नियमन करता है का
 
 
 
<nowiki>*</nowiki>य' ऐसे तीन अक्षरों से हृदय पद बना है। ये तीनों हृदय के
 
 
 
कार्य हैं। इस प्रकार पदों की निश्चिति भी जीवन के साथ
 
 
 
सम्बन्ध जोड़कर होती है।
 
 
 
82.
 
 
 
पदों को जोड़ जोड़ कर वाक्य बनता है। कहने का
 
 
 
आशय व्यक्त करने के लिये जो व्यवस्था की गई है वह
 
 
 
व्याकरण कहलाती है। व्याकरणशास्त्र भी बहुत विस्तृत
 
 
 
शास्त्र है। इस शास्त्र की मूल इकाई वाक्य है। अनेक
 
 
 
ara से फिर अनुच्छेद बनता है। अनुच्छेदों की स्वना
 
 
 
आशय को ध्यान में रखकर ही होती है।
 
 
 
भाषा का व्याकरण भी शिशु अवस्था में ही अवगत
 
 
 
हो जाता है। उसका रूप क्रियात्मक होता है, शास्त्रीय नहीं।
 
 
 
भाषा प्रयोग के समय अंगविन्यास भी महत्त्वपूर्ण है।
 
 
 
अंगविन्यास भी शिशु अधिकांश देखकर और कुछ मात्रा में
 
 
 
बोलने की स्वाभाविक आवश्यकता के रूप में सीख लेता है।
 
 
 
जब तक भाषा का अनुभव जीवनक्रम के साथ
 
 
 
स्वाभाविक रूप में जुड़ा रहता है तब तक सीखना अनायास
 
 
 
होता है, अर्थात्‌ आवश्यकता के अनुसार भाषा अवगत
 
 
 
होती रहती है। परन्तु जब औपचारिक शिक्षा शुरू होती है
 
 
 
भाषा की शिक्षा कुछ मात्रा में कृत्रिम होती जाती है।
 
 
 
२७९
 
 
 
जीवन के समस्त पहलुओं को शब्दों में व्यक्त करने
 
 
 
का साधन भाषा है। जीवन में घटनायें होती हैं, स्थितियाँ
 
 
 
होती हैं, सजीव निर्जीव पदार्थ होते हैं, व्यवस्थायें होती हैं,
 
 
 
मनोभाव होते हैं, संवेग और आवेग होते हैं, विचार होते
 
 
 
हैं, संस्कार होते हैं। इस सूचि को भिन्न भिन्न व्यक्ति भिन्न
 
 
 
भिन्न पद्धति से बना सकते हैं। संक्षेप में यह ऐसा सबकुछ है
 
 
 
जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में तथा समष्टिगत जीवन में
 
 
 
होता है। भाषा इन सभी की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। इस
 
 
 
प्रकार भाषा का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है।
 
 
 
RY.
 
 
 
देखा तो यह गया है कि जीवन का अनुभव जितना
 
 
 
व्यापक और गहरा होता है, अर्थ का बोध उतनी ही मात्रा
 
 
 
में गहरा होता है । भाषा अपने आप उसे व्यक्त करने योग्य
 
 
 
हो जाती है। महाराष्ट्र की बहिणाबाई और सन्त कबीर जैसे
 
 
 
कवि अशिक्षित थे परन्तु उनकी भाषा उनके अनुभव को
 
 
 
व्यक्त करने में समर्थ थी। तात्पर्य यह है कि भाषा जीवन के
 
  
बोध का अनुसरण करती है, शब्द रूप साधन की समृद्धि
+
भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं कहा जा सकता। “या भाष्यते सा भाषा' - जो बोली जाती है वह भाषा है - ऐसा भाषा का अर्थ बताया जाता है। मनुष्य को छोड़कर अन्य जीव बोलते नहीं है इसलिये उनकी भाषा भी नहीं होती।
  
का नहीं। बिना अनुभव के अलंकूृत शब्द निररर्थकता का
+
आज हम भाषा के दो रूप मानते हैं। एक है मौखिक और दूसरा है लिखित। परन्तु भाषा का मूल रूप मौखिक ही है। लिखित रूप गौण है, अत्यन्त गौण है। विश्व में गूँगों को छोड़कर लगभग सभी बोल सकते हैं परन्तु उनके अनुपात में बहुत कम लोग लिख सकते हैं। मनुष्य अपने जीवन में भी पहले बोलने लगता है, बाद में लिखने। लिखना न भी आये तो चलता है, बोलना नहीं आया तो नहीं चलता। बोलना तो बरबस होता है, लिखना प्रयास से होता है। अतः: भाषा मूलत: बोलना ही है। बोलने से ही उसकी परिभाषा बनी है।
  
आभास करवाते ही हैं।
+
भाषा का केवल वाचिक रूप ही नहीं होता है। वह भावात्मक भी होता है। शिशु अवस्था में, जब तक शिशु बोलना नहीं सीखता वह भाषा का भावात्मक रूप ग्रहण करता है। शब्द और अर्थ मिलकर भाषा बनती है। वह भाषा का अर्थरूप पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, शब्द रूप संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। शब्द का उच्चारण करने के लिये उसका ध्वनितन्त्र पर्याप्त रूप से सक्षम चाहिये। जन्म के समय वह उतना सक्षम नहीं होता है। उसे सक्रिय बनाने की दिशा में उसका अखण्ड पुरुषार्थ चलता है। रोना, चिल्लाना, हँसना, तरह तरह की आवाजें निकालना, शब्द के उच्चारण की ही पूर्व तैयारी होती है। जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वह पूर्ण रूप से उच्चारण सीखता जाता है। स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण, बल, हस्व और दीर्घ, आरोह, अवरोह आदि वह सुनकर ही सीखता है। सुनने के अलावा भाषा सीखने का और कोई तरीका नहीं है। जो सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता यह सार्वत्रिक नियम है। जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है।
  
gu,
+
भाषा का सम्बन्ध नाद से है। नाद का अर्थ है वाणी, अर्थात्‌ आवाज। नाद सृष्टि की उत्पत्ति का आदि कारण है। उसे नादब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म नादस्वरूप है ऐसा उसका अर्थ है। सृष्टि जैसे जैसे फैलने लगी और विविध रूप धारण करने लगी बैसे वैसे नाद भी विविध रूप धारण करने लगा। सर्व प्रकार की ध्वनियों का मूल रूप है ॐ। इसलिये वह भी ब्रह्म का ही वाचक है। ध्वनि के विविध रूप सृष्टि के विविध रूपों के साथ आन्तरिक रूप से ही जुड़े हुए हैं। इस सम्बन्ध का कभी विच्छेद नहीं हो सकता। एक बात समझने योग्य है कि ३७ अनेक ध्वनियों में से एक ध्वनि नहीं है, वह सभी ध्वनियों का मूल रूप है। सारे ध्वनि रूप उसमें से निःसृत हुए हैं।
  
जितने भी प्रकार के अभिव्यक्ति के माध्यम हैं उनमें
+
व्यवहार में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसके दो आयाम हैं। ये दो आयाम एक सिक्‍के के दो पहलू जैसे हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता है। ये दो पहलू हैं शब्द और अर्थ। शब्द है वाक्‌ अर्थात्‌ वाणी अर्थात्‌ ध्वनि और अर्थ है उसका व्यावहारिक सन्दर्भ। व्यावहारिक जीवन में विचार, भावनायें, इच्छायें, अपेक्षायें, तर्क, अनुमान, संवेदनायें आदि सब होते हैं। जब इन सबको ध्वनि रूप प्राप्त होता है तब भाषा जन्म लेती है। व्यावहारिक सन्दर्भ अर्थात्‌ अर्थ और शब्द का सम्बन्ध कितना एकात्म है यह दर्शाते हुए कविकुलगुरू कालिदास ने पार्वती और शंकर के सम्बन्ध का वर्णन किया है। वे लिखते हैं<ref>रघुवंश १-१</ref><blockquote>वागर्थाविव सम्पृक्तौ वार्थप्रतिपत्तये ।</blockquote><blockquote>जगत: पितरौ बन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ || </blockquote>अर्थात्‌ वाणी के अर्थ की सिद्धि हेतु जिस प्रकार वाक्‌ और अर्थ जुड़े हैं उसी प्रकार एकदूसरे से जुड़े हुए जगत के मातापिता पार्वती और परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। पार्वती और परमेश्वर एक दूसरे के साथ कितने एकात्म भाव से जुड़े हुए हैं यह हम सब जानते हैं। उनके सम्बन्ध का वर्णन करने के लिए शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की उपमा दी जाती है। यही शब्द और अर्थ की एकात्मता का द्योतक है। इसका तात्पर्य यह है कि भाषा का विचार करते समय हमें ध्वनि और अर्थ दोनों का अलग अलग और एकसाथ विचार करना होगा।
  
भाषा श्रेष्ठतम है। उदाहरण के लिये चित्र, संगीत, अभिनय
+
भाषा के शब्द रूप की बात करें तो प्रथम हमें देखना होगा कि ध्वनि का सम्बन्ध कहाँ कहाँ किन किन से किस किस प्रकार का है। ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ है। पंचमहाभूत हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश। इनमें शब्द आकाश का विषय है। सभी भूतों में आकाश सूक्ष्मतम है अर्थात्‌ व्यापकतम है। वह शेष सभी भूतों को भी व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है इसका अर्थ यह है कि वह आकाश के माध्यम से गति करता है। आकाश अनन्त है इसलिये शब्द भी अनन्त है। भाषा के ध्वनिरूप को अक्षर कहा जाता है। अक्षर वह है जिसका कभी क्षरण नहीं होता अर्थात्‌ नाश नहीं होता। अक्षर भी ब्रह्म का ही नाम है। भाषा के शब्दमय पहलू की लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनिरूप होता है इसलिए उसका उच्चारण होता है। उच्चारण के सन्दर्भ में अक्षर का सम्बन्ध वाक्‌ नाम की कर्मन्द्रिय से है। ध्वनि शब्द है इसलिये उसका सम्बन्ध श्रवणेन्द्रिय से है। श्रवणेन्द्रिय और वागीन्द्रिय दोनों से संबन्धित होने के कारण सुनने और बोलने की प्रक्रिया बनती है। सुनने और बोलने के सम्बन्ध से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है।
  
आदि अभिव्यक्ति के माध्यम हैं परन्तु भाषा उन सबसे श्रेष्ठ
+
यही संवाद का माध्यम है। अक्षर अक्षर से बनी भाषा मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध का एक बहुत बड़ा सशक्त माध्यम बनती है। भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। शारीरिक दृष्टि से स्वर्यन्त्र ठीक होना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही श्वसन की सही पद्धति, बैठने की सही पद्धति और छाती में दम होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दुर्बल होता है। यदि श्वसन अभ्यास ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट नहीं होता है। यदि स्वरयन्त्र ठीक नहीं है तो उच्चारण अशुद्ध होता है। अभ्यास का महत्त्व अनन्यसाधारण है। अभ्यास से भाषा प्रभावी बनती है।
  
है। कारण यह है कि वह नादबव्रह्म का आविष्कार है, अपने
+
ध्वनिरूप में अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के भीतर के प्राण के साथ भी है और सृष्टि के प्राणतत्त्व के साथ भी है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है। अत: प्राणशक्ति के बलवान होने और नहीं होने का प्रभाव अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है। अक्षर का सम्बन्ध मनस्तत्त्व के साथ भी है। व्यक्ति के भीतर मनस्तत्त्व के साथ भी और सृष्टि के मनस्तत्त्व के साथ भी। अक्षर का सम्बन्ध शरीर के भीतर के अन्यान्य चक्रों के साथ है, अन्यान्य अंगों के साथ भी है। विभिन्न अंगों के साथ सम्बन्धित होकर मूल ध्वनि भिन्न भिन्न रूप धारण करती है यथा ओष्ट के साथ सम्बन्धित होकर प, फ, ब, भ, म बनता है; दाँत के साथ सम्बन्धित होकर त, थ, द, ध, न बनता है आदि। ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर शरीर के भीतर के विभिन्न चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं। इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं, भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। संक्षेप में अक्षर का सम्बन्ध मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के साथ बनता है, साथ ही वह मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध बनाता है।
  
भौतिक स्वरूप में भी वह सूक्ष्मतम है और उसमें अनंत
+
भाषा की मूल इकाई अक्षर है परन्तु इसकी व्याप्ति सम्पूर्ण जीवन है। सम्पूर्ण जीवनरूपी भवन की एक एक ईंट अक्षर है। इस अक्षर के भिन्न भिन्न पदार्थों के साथ जुड़ने के कारण अनेक रूप बनते हैं। इसलिये अक्षरों के उच्चारण का बहुत बड़ा शास्त्र बना है। उस शास्त्र को शिक्षा कहा गया है। आज हम अंग्रेजी शब्द एज्यूकेशन को शिक्षा कहते हैं उस अर्थ में यह शिक्षा नहीं है। वेद के जो छः अंग हैं उनमें एक अंग शिक्षा है। वह उच्चारणशास्त्र है। अनेक विद्वानों के शिक्षाग्रन्थ उपलब्ध हैं यथा पाणिनीय शिक्षा, याज्ञवल्क्यशिक्षा आदि। इन ग्रन्थों में अक्षर के विभिन्न रूप और उनके उच्चारण की पद्धति का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है।
  
सृजनशीलता है। समाधि अवस्था के अनुभव की
+
जिस प्रकार अव्यक्त ब्रह्म व्यक्त रूप धारण करता है तब वह अनेक रूपों से युक्त विश्वरूप धारण करता है, उसी प्रकार शब्द भी अव्यक्त से व्यक्त रूप धारण करता है। यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के चार चरण हैं। अक्षर के या वाकू के, या शब्द के, या वाणी के चार रूप हैं। परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी। परा वाणी का ब्रह्मरूप है। इस स्तर पर वह नादब्रह्म है। पश्यन्ति वाणी का मूल व्यक्त रूप है जिसका सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ है। इस स्तर पर शब्द संकल्पना का रूप धारण करता है। तीसरा मध्यमा वाणी का भाव रूप है। इसका सम्बन्ध अनाहत चक्र से है जो हृदयस्थान भी है। चौथा वैखरी रूप पूर्ण व्यक्त रूप है। यह श्रवणेन्द्रिय को सुनाई देता है। वेद का अंग शिक्षा परा वाणी को वैखरी तक लाने की प्रक्रिया सिखाने वाला शास्त्र है।
  
अभिव्यक्ति के समय वह मंत्र रूप में प्रकट होती है।
+
भाषा के चार कौशल गिनाये जाते हैं। ये हैं श्रवण, भाषण, पठन और लेखन। इनमें मूल श्रवण और भाषण हैं। पठन और लेखन वाचिक स्वरूप का वर्ण रूप में रूपान्तरण है। श्रवण दूसरे के भाषण का अनुसरण करता है और पठन दूसरे के लेखन का अनुसरण करता है। अतः: भाषा कभी भी अकेले में नहीं सीखी जाती, दो मिलकर ही सीखी जाती है। अत: भाषा सीखने में सिखाने वाले की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रहती है।
  
श्दद्,
+
भाषा का दूसरा अंग है पद । पद को शब्द भी कहा जाता है। यहाँ शब्द का अर्थ केवल ध्वनि नहीं है, ध्वनि के उपरान्त कुछ और भी है। ध्वनिरूप अक्षरों के साथ जब जीवन में व्याप्त अर्थ जुड़ता है तब वह ध्वनिसमूह पद बनता है। पदों की रचना का भी एक बहुत विस्तृत शास्त्र है। पदों की स्वना को व्युत्पत्ति कहते हैं और व्युत्पत्ति के शास्त्र को निरूक्त कहते हैं। पद एक व्यवस्था तो है परन्तु वह अनुरणन, आकार, क्रिया आदि अनेक बातों से सम्बन्ध रखने वाली व्यवस्था है। वह कृत्रिम व्यवस्था नहीं है। एक दो उदाहरण सहायक होंगे। 'हृदय' पद तीन क्रियाओं का वाचक है। आहरति अर्थात्‌ लाता है का "ह", ददाति अर्थात देता है का "द" और यमयति अर्थात्‌ नियमन करता है का "य" ऐसे तीन अक्षरों से हृदय पद बना है। ये तीनों हृदय के कार्य हैं। इस प्रकार पदों की निश्चिति भी जीवन के साथ सम्बन्ध जोड़कर होती है।
  
इतनी विभिन्न अभिव्यक्तियों में भाषा के साथ
+
पदों को जोड़ जोड़ कर वाक्य बनता है। कहने का आशय व्यक्त करने के लिये जो व्यवस्था की गई है वह व्याकरण कहलाती है। व्याकरणशास्त्र भी बहुत विस्तृत शास्त्र है। इस शास्त्र की मूल इकाई वाक्य है। अनेक वाक्यों से फिर अनुच्छेद बनता है। अनुच्छेदों की रचना आशय को ध्यान में रखकर ही होती है। भाषा का व्याकरण भी शिशु अवस्था में ही अवगत हो जाता है। उसका रूप क्रियात्मक होता है, शास्त्रीय नहीं। भाषा प्रयोग के समय अंगविन्यास भी महत्त्वपूर्ण है। अंगविन्यास भी शिशु अधिकांश देखकर और कुछ मात्रा में बोलने की स्वाभाविक आवश्यकता के रूप में सीख लेता है। जब तक भाषा का अनुभव जीवनक्रम के साथ स्वाभाविक रूप में जुड़ा रहता है तब तक सीखना अनायास होता है, अर्थात्‌ आवश्यकता के अनुसार भाषा अवगत होती रहती है। परन्तु जब औपचारिक शिक्षा शुरू होती है भाषा की शिक्षा कुछ मात्रा में कृत्रिम होती जाती है।
  
उच्चारणशास्त्र, _ व्युत्पत्तिशास्त्र, _ व्याकरणशास्त्र और
+
जीवन के समस्त पहलुओं को शब्दों में व्यक्त करने का साधन भाषा है। जीवन में घटनायें होती हैं, स्थितियाँ होती हैं, सजीव निर्जीव पदार्थ होते हैं, व्यवस्थायें होती हैं, मनोभाव होते हैं, संवेग और आवेग होते हैं, विचार होते हैं, संस्कार होते हैं। इस सूचि को भिन्न भिन्न व्यक्ति भिन्न भिन्न पद्धति से बना सकते हैं। संक्षेप में यह ऐसा सबकुछ है जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में तथा समष्टिगत जीवन में होता है। भाषा इन सभी की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। इस प्रकार भाषा का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है।
  
अलंकारशास्त्र जुड़ हुए हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द और
+
देखा तो यह गया है कि जीवन का अनुभव जितना व्यापक और गहरा होता है, अर्थ का बोध उतनी ही मात्रा में गहरा होता है । भाषा अपने आप उसे व्यक्त करने योग्य हो जाती है। महाराष्ट्र की बहिणाबाई और सन्त कबीर जैसे कवि अशिक्षित थे परन्तु उनकी भाषा उनके अनुभव को व्यक्त करने में समर्थ थी। तात्पर्य यह है कि भाषा जीवन के बोध का अनुसरण करती है, शब्द रूप साधन की समृद्धि का नहीं। बिना अनुभव के अलंकूृत शब्द निररर्थकता का आभास करवाते ही हैं।
  
............. page-296 .............
+
जितने भी प्रकार के अभिव्यक्ति के माध्यम हैं उनमें भाषा श्रेष्ठतम है। उदाहरण के लिये चित्र, संगीत, अभिनय आदि अभिव्यक्ति के माध्यम हैं परन्तु भाषा उन सबसे श्रेष्ठ है। कारण यह है कि वह नादबव्रह्म का आविष्कार है, अपने भौतिक स्वरूप में भी वह सूक्ष्मतम है और उसमें अनंत सृजनशीलता है। समाधि अवस्था के अनुभव की अभिव्यक्ति के समय वह मंत्र रूप में प्रकट होती है।
  
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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इतनी विभिन्न अभिव्यक्तियों में भाषा के साथ उच्चारणशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र, व्याकरणशास्त्र और अलंकारशास्त्र जुड़े हुए हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द और अलंकार
  
अलंकार तथा उनके विनियोग के... भाषा के पठन पाठन में इन बातों की ओर ध्यान देना
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''तथा उनके विनियोग के... भाषा के पठन पाठन में इन बातों की ओर ध्यान देना''
  
कारण निष्पन्न होने वाली शैली अलंकारशास्त्र का विषय है।... आवश्यक है।
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''कारण निष्पन्न होने वाली शैली अलंकारशास्त्र का विषय है।... आवश्यक है।''
  
सन्धि उच्चारणशास्त्र का अंग है, समास शब्दरचना से
+
''सन्धि उच्चारणशास्त्र का अंग है, समास शब्दरचना से''
  
सम्बन्धित विषय है, पदलालित्य, अर्थगौरव भी शैली के ही ८,
+
''सम्बन्धित विषय है, पदलालित्य, अर्थगौरव भी शैली के ही ८,''
  
अंग हैं। दुन्यवी सन्दर्भ में व्यापक वाचन शब्दसंपत्ति बढ़ाने में
+
''अंग हैं। दुन्यवी सन्दर्भ में व्यापक वाचन शब्दसंपत्ति बढ़ाने में''
  
उपयोगी है, व्याकरण का अध्ययन शुद्ध भाषा के लिये
+
''उपयोगी है, व्याकरण का अध्ययन शुद्ध भाषा के लिये''
  
उपयोगी है, अलंकारशास्त्र का अध्ययन शैली का विकास
+
''उपयोगी है, अलंकारशास्त्र का अध्ययन शैली का विकास''
  
शुद्ध भाषा, मधुर भाषा, ललित भाषा, प्रभावी. करने में उपयोगी होता है, व्याकरण ak fen a
+
''शुद्ध भाषा, मधुर भाषा, ललित भाषा, प्रभावी. करने में उपयोगी होता है, व्याकरण ak fen a''
  
भाषा, सार्थक भाषा, भावपूर्ण भाषा आदि भाषा को... अध्ययन शुद्धता और अर्थवाहिता हेतु उपयोगी है, काव्य
+
''भाषा, सार्थक भाषा, भावपूर्ण भाषा आदि भाषा को... अध्ययन शुद्धता और अर्थवाहिता हेतु उपयोगी है, काव्य''
  
शोभायमान बनाने वाले पहलू हैं। बुद्धि, मन, चित्त आदि... का अध्ययन सृजनशीलता के लिये उपयोगी है। परन्तु यदि
+
''शोभायमान बनाने वाले पहलू हैं। बुद्धि, मन, चित्त आदि... का अध्ययन सृजनशीलता के लिये उपयोगी है। परन्तु यदि''
  
अन्तःकरण और हृदय भाषा को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण. जीवन के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं है तो यह सारा
+
''अन्तःकरण और हृदय भाषा को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण. जीवन के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं है तो यह सारा''
  
Ro.
+
''Ro.''
  
योगदान देते हैं। अध्ययन बिना एक के शून्य जैसा है।
+
''योगदान देते हैं। अध्ययन बिना एक के शून्य जैसा है।''
  
संगीत भाषा की मधुरता के लिये अत्यन्त भाषा सिखाने के लिये मूल से प्रारम्भ करना चाहिये।
+
''संगीत भाषा की मधुरता के लिये अत्यन्त भाषा सिखाने के लिये मूल से प्रारम्भ करना चाहिये।''
  
उपकारक है। सीधा व्याकरण पढ़ना या केवल चार कौशलों पर ध्यान
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''उपकारक है। सीधा व्याकरण पढ़ना या केवल चार कौशलों पर ध्यान''
  
जीवन का घनिष्ठतम अनुभव भाषा को समृद्ध बनाता... केन्द्रित करना या प्रश्नोत्तर के स्वाध्याय करवाना बहुत
+
''जीवन का घनिष्ठतम अनुभव भाषा को समृद्ध बनाता... केन्द्रित करना या प्रश्नोत्तर के स्वाध्याय करवाना बहुत''
  
है। ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनक्षमता, मन की शान्ति, बुद्धि की... सार्थक सिद्ध नहीं होता है। भाषा सभी आधारभूत विषयों
+
''है। ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनक्षमता, मन की शान्ति, बुद्धि की... सार्थक सिद्ध नहीं होता है। भाषा सभी आधारभूत विषयों''
  
तेजस्विता और चित्तशुद्धि जीवन के घनिष्ठतम अनुभव हेतु. का आधारभूत विषय है। उसका महत्त्व समझकर उसके
+
''तेजस्विता और चित्तशुद्धि जीवन के घनिष्ठतम अनुभव हेतु. का आधारभूत विषय है। उसका महत्त्व समझकर उसके''
  
आवश्यक हैं। जीवन में रुचि होना भाषा को सार्थक बनाता... अध्ययन अध्यापन की योजना करनी चाहिये।
+
''आवश्यक हैं। जीवन में रुचि होना भाषा को सार्थक बनाता... अध्ययन अध्यापन की योजना करनी चाहिये।''
  
है। पंचमहाभूतों के साथ आत्मीयता, वनस्पति और
+
''है। पंचमहाभूतों के साथ आत्मीयता, वनस्पति और''
  
प्राणिजगत के प्रति स्नेह और मनुष्यों के प्रति सद्भाव १९.
+
''प्राणिजगत के प्रति स्नेह और मनुष्यों के प्रति सद्भाव १९.''
  
जीवन का सार्थक अनुभव प्रदान करते हैं। भाषा इसका सृष्टि की अनन्त असीम विविधताओं को मनुष्य
+
''जीवन का सार्थक अनुभव प्रदान करते हैं। भाषा इसका सृष्टि की अनन्त असीम विविधताओं को मनुष्य''
  
अनुसरण करती है। व्यावहारिक प्रयोजन के लिये व्यवस्था में बाँधता है। ऐसा
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''अनुसरण करती है। व्यावहारिक प्रयोजन के लिये व्यवस्था में बाँधता है। ऐसा''
  
भाषा सीखने का अर्थ है ये सारी बातें सीखना। भाषा... करते समय वह मूल के साथ कितना निष्ठावान रहता है
+
''भाषा सीखने का अर्थ है ये सारी बातें सीखना। भाषा... करते समय वह मूल के साथ कितना निष्ठावान रहता है''
  
केवल श्रवण, भाषण, पठन और लेखन के ale dH उसके ऊपर उस व्यवस्था की शुद्धि का आधार होता है।
+
''केवल श्रवण, भाषण, पठन और लेखन के ale dH उसके ऊपर उस व्यवस्था की शुद्धि का आधार होता है।''
  
सीमित नहीं है। शुद्ध, मधुर, प्राणवान और अर्थपूर्ण अतः व्यवस्था बनाते समय इस मूल को समझना अनिवार्य
+
''सीमित नहीं है। शुद्ध, मधुर, प्राणवान और अर्थपूर्ण अतः व्यवस्था बनाते समय इस मूल को समझना अनिवार्य''
  
उच्चारण, शास्त्रशुद्ध व्याकरण, आशय के अनुरूप शैली. रूप से आवश्यक होता है। भाषा के सम्बन्ध में भी यही
+
''उच्चारण, शास्त्रशुद्ध व्याकरण, आशय के अनुरूप शैली. रूप से आवश्यक होता है। भाषा के सम्बन्ध में भी यही''
  
और परावाणी से अनुस्यूत वैखरी भाषाप्रभुत्व के लक्षण हैं। . सत्य है।
+
''और परावाणी से अनुस्यूत वैखरी भाषाप्रभुत्व के लक्षण हैं। . सत्य है।''
  
== उपसंहार ==
+
== ''उपसंहार'' ==
यहाँ कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप देने का प्रयास हुआ है। हर विषय के बारे में इस प्रकार से विचार करना
+
''यहाँ कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप देने का प्रयास हुआ है। हर विषय के बारे में इस प्रकार से विचार करना''
  
चाहिए । भारतीय ज्ञानधारा को परिष्कृत कर विश्वकल्याण हेतु उसे पुनर्प्रवाहित करने हेतु भारतीय ज्ञानक्षेत्र को महती
+
''चाहिए । भारतीय ज्ञानधारा को परिष्कृत कर विश्वकल्याण हेतु उसे पुनर्प्रवाहित करने हेतु भारतीय ज्ञानक्षेत्र को महती''
  
ज्ञानसाधना करने की आवश्यकता है इतना ही कहना प्राप्त है ।
+
''ज्ञानसाधना करने की आवश्यकता है इतना ही कहना प्राप्त है ।''
  
२८०
+
''२८०''
  
 
==References==
 
==References==

Latest revision as of 21:54, 23 June 2021

प्रस्तावना

भारतीय ज्ञानधारा का मूल अधिष्ठान आधात्मिक है[1]। वह जब नियम और व्यवस्था में रूपान्तरित होता है तब वह धर्म का स्वरूप धारण करता है और व्यवहार की शैली में उतरता है तब संस्कृति बनता है । हमारे विद्यालयों में, घरों में, विचारों के आदानप्रदान के सर्व प्रकार के कार्यक्रमों में औपचारिक, अनौपचारिक पद्धति से जो ज्ञानधारा प्रवाहित होती है उसका स्वरूप सांस्कृतिक होना अपेक्षित है । यदि वह भौतिक है तो भारतीय नहीं है, सांस्कृतिक है तो भारतीय है ऐसा स्पष्ट विभाजन किया जा सकता है।

ज्ञानधारा का सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप का विरोधी नहीं है, वह भौतिक स्वरूप के लिए भी अधिष्ठान है । सांस्कृतिक स्वरूप भौतिक स्वरूप से कुछ आगे ही है। शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञाधारा विषय, विषयों के पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु, उसके अनुरूप निर्मित पाठ्यपुस्तकों के पाठ, अन्य साधनसामाग्री, अध्ययन अध्यापन पद्धति, अध्ययन हेतु की गई भौतिक तथा अन्य व्यवस्थायें आदि सभीमें व्यक्त होती है। अतः सभी पहलुओं का एकसाथ विचार करना आवश्यक हो जाता है। किसी एक पहलू का भारतीयकरण करना और शेष वैसे का वैसे रहने देना फलदायी नहीं होता । उनका तालमेल ही नहीं बैठता । इस अध्याय में हम विषयों के सांस्कृतिक स्वरूप की बात करेंगे ।

विषयों का वरीयता क्रम

वास्तव में व्यक्तित्व विकास की हमारी संकल्पना के अनुसार विषयों का वरीयता क्रम निश्चित होना चाहिए । यह क्रम कुछ ऐसा बनेगा:

  1. परमेष्ठि से संबन्धित विषय प्रथम क्रम में आयेंगे । ये विषय हैं अध्यात्म शास्त्र, धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान और संस्कृति ।
  2. सृष्टि से संबन्धित विषय: भौतिक विज्ञान (इसमें रसायन, खगोल, भूगोल, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि सभी विज्ञान विषयों का समावेश होगा ।), पर्यावरण, सृष्टिविज्ञान
  3. समष्टि से संबन्धित विषय: यह क्षेत्र सबसे व्यापक रहेगा । इनमें सभी सामाजिक शास्त्र यथा अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उत्पादनशास्त्र (जिसमें सर्व प्रकार की कारीगरी, तंत्रज्ञान, कृषि आदि का समावेश है), गृहशास्र आदि का समावेश हो । इनके विषय उपविषय अनेक हो सकते हैं ।
  4. व्यष्टि से संबन्धित विषय । इनमें योग, शारीरिक शिक्षा, आहारशास्त्र, मनोविज्ञान, तत्त्वज्ञान, गणित, संगीत, साहित्य आदि अनेक विषयों का समावेश होगा ।

व्यापकता के आधार पर हम विषयों की वरीयता निश्चित कर सकते हैं। वरीयता में जो विषय जितना ऊपर होता है उतना ही छोटी आयु से पढ़ाना चाहिए । पढ़ाते समय भी विषयों का परस्पर संबंध ध्यान में रखकर पढ़ाना चाहिए। इतनी प्रस्तावना के बाद हम कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप कैसा होता है इसका विचार करेंगे ।

अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, तत्त्वज्ञान

ये सब आधारभूत विषय हैं। गर्भावस्‍था से लेकर बड़ी आयु तक की शिक्षा में, सभी विषयों में ये विषय अनुस्यूत रहते हैं। इनके बारे में पढ़ने से पूर्व सभी विषयों का अधिष्ठान ये विषय बने ऐसा कथन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि शेष सभी विषय इन विषयों के प्रकाश में ही होने चाहिए। तभी उन्हें सांस्कृतिक कहा जायगा । उदाहरण के लिए भाषा हो या साहित्य, भौतिक विज्ञान हो या तंत्रज्ञान, अर्थशासत्र हो या राजशासत्र, इतिहास हो या संगणक, सभी विषयों का स्वरूप अध्यात्म आदि के अविरोधी रहेगा और उन्हें पूछे गए किसी भी प्रश्न का खुलासा इन शास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार दिया जाएगा ।

उदाहरण के लिए उत्पादन शास्त्र में यंत्र आधारित उद्योग होने चाहिए कि नहीं अथवा यंत्रों का कितना उपयोग करना चाहिए यह निश्चित करते समय धर्म और अध्यात्म क्‍या कहते हैं यह पहले देखा जाएगा । यदि उनकी सम्मति है तो करना चाहिए, नहीं है तो छोड़ना चाहिए । आहार शास्त्र हेतु धर्म, संस्कार, प्रदूषण, आरोग्यशास्त्र आदि सभी विषयों का विचार किया जाना चाहिए। व्यक्ति की दिनचर्या या विद्यालय का समयनिर्धारण करते समय धर्म क्या कहता है यह विचार में लेना चाहिए ।

स्वतंत्र रूप से भी इनका अध्ययन आवश्यक है। चितन के स्तर पर अध्यात्मशास्त्र, व्यवस्था के स्तर पर धर्मशास्त्र और व्यवहार के स्तर पर संस्कृति शिशु अवस्था से उच्च शिक्षा तक सर्वत्र अनिवार्य होने चाहिए । इन विषयों को वर्तमान में अंग्रेजी संज्ञाओं के अनुवाद के रूप में लिया जाता है। अध्यात्म को स्पिरिच्युयल अथवा मेटाफिजिक्स, धर्म को रिलीजन अथवा एथिक्स और संस्कृति को कल्चर के रूप में समझा जाता है । पहली आवश्यकता इस अँग्रेजी अर्थ से इन्हें मुक्त करने की है। हमारी शब्दावली के अनुसार समझना है तो स्पिरिचुयल आनंदमय आत्मा के स्तर की, रिलीजन मत, पंथ अथवा संप्रदाय के स्तर की तथा कल्चर उत्सव, अलंकार, वेषभूषा आदि के स्तर की संज्ञायें हैं। वे समग्र के अंश हैं समग्र नहीं। अतः प्रथम तो इन संज्ञाओं के बंधन से मुक्त होकर इन्हें भारतीय अर्थ प्रदान करना चाहिए ।

इन तीनों में सबका अंगी है अध्यात्मशास्त्र । आत्मतत्त्व की संकल्पना एक मात्र भारत की विशेषता है । इस संकल्पना के स्रोत से समस्त ज्ञानधारा प्रवाहित हुई है । इसके ही आधार पर जीवनदृष्टि बनी है, अथवा भारतीय जीवनदृष्टि और आत्मतत्त्वत की संकल्पना एकदूसरे में ओतप्रोत हैं। आत्मतत्त्व अनुभूति का विषय है। अनुभूति भी आत्मतत्त्व के समान खास भारतीय विषय है। इस अध्याय के लेखक या पाठक अनुभूति के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं तथापि अनुभूति का अस्तित्व हम स्वीकार करके चलते हैं । अनुभूति को बौद्धिक स्तर पर निरूपित करने के प्रयास से तत्त्वज्ञान का विषय बना है। कई बार अँग्रेजी फिलोसोफी का अनुवाद हम दर्शन संज्ञा से करते हैं । यह ठीक नहीं है । फिलोसोफी के स्तर की संज्ञा तत्त्वज्ञान हो सकती है, दर्शन नहीं । आत्मतत्त्व की तरह दर्शन या अनुभूति का भी अँग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता । अध्यात्मशास्त्र हमारे लिए प्रमाणव्यवस्था देता है । यह सत्य है कि प्रमाण के लिए हमें बौद्धिक स्तर पर उतरना पड़ेगा परंतु अनुभूति आधारित शास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण मानने पड़ेंगे क्योंकि हम अनुभूति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सके हैं। हमारे शास्त्रों पर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं, उनमें से अनेक विद्वान तो भारतीयता के पक्षधर भी होते हैं, परन्तु अधिकांश शास्त्रों के गंभीर अध्ययन का अभाव और उससे भी बढ़कर उन्हें युगानुकूल पद्धति से समझने के प्रयास का अभाव ही कारणभूत होता है। यह दर्शाता है कि अध्ययन और अनुसन्धान का विशाल क्षेत्र इन विषयों में हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रकार धर्म को प्रथम तो वाद से मुक्त करने की आवश्यकता है । अलग अलग संदर्भों में यह कभी अँग्रेजी का “ड्यूटी' है तो कभी एथिक्स, कभी रिलीजन है तो कभी नेचर (स्वभाव अथवा गुणधर्म), कभी लॉ है तो कभी ऑर्डर । और तथापि धर्म धर्म है । इसे स्पष्ट रूप से बौद्धिक जगत में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है। यह भी अध्ययन और अनुसन्धान का क्षेत्र है । संस्कृति जीवनशैली है, केवल सौन्दर्य और मनोरंजन का विषय नहीं । अभी तो भारत सरकार का सांस्कृतिक मंत्रालय और विश्वविद्यालय दोनों संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम में ही सीमित रख रहे है। इससे इनको मुक्त करना होगा । अध्यात्म के अभाव में संस्कृति मनोरंजन में कैद हो रही है । उसे इस कैद से मुक्त करना होगा ।

इन विषयों पर वर्तमान में वैश्विकता का साया पड़ा हुआ है । अत: वैश्विकता का भी भारतीय संस्कृतिक अर्थ समझना होगा । वास्तव में भारत हमेशा सांस्कृतिक वैश्विकता का ही पक्षधर और पुरस्कर्ता रहा है । अतः वैश्विकता के भारतीय अर्थ को प्रस्थापित कर इन विषयों को भी न्याय देना चाहिए । हम ऐसा मानते हैं कि ये विषय बहुत गंभीर और कठिन हैं । अत: छोटी आयु में नहीं सिखाये जा सकते । उच्च शिक्षा में भी कुछ छात्र ही इन्हें समझ पाएंगे । परन्तु ऐसा नहीं है । इन संज्ञाओं के बारे में पढ़ने से पूर्व इन्हें संस्कार, आचार, विचार के स्तर पर लाना चाहिए । यहाँ इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।

आचार और विचार प्रक्रिया आध्यात्मिक बनाने के बाद इनके बारे में शास्त्रीय पद्धति से पढ़ना चाहिए । केवल शास्त्र पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा । आत्मतत्त्व, ईश्वर, धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, कर्मकाण्ड आदि विषयों में तुलनात्मक अध्ययन करना, देशविदेशों में इन सब क्षेत्रों में क्या चल रहा है इसका आकलन करना, इनको लेकर क्या समस्या है यह पहचानना, उन समस्याओं का निराकरण कैसे हो सकता है इसका ज्ञानात्मक विचार करना इन विषयों के अंतर्गत ही आता है । उदाहरण के लिए इस दुनिया में सहअस्तित्वमें मानने वाले, इसका आग्रहपूर्वक पुरस्कार करने वाले और कट्टरता से नहीं मानने वाले समुदाय है । संचार माध्यमों के कारण छोटे हुए विश्व में इन परस्पर विरोधी समुदायों का क्या होगा ? ये एकदूसरे के साथ कैसे पेश आयेंगे ? उन्होंने कैसे पेश आना चाहिए ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए । वर्तमान में विश्वसंस्कृति, विश्वधर्म, विश्वनागरिकता की बात की जाती है । यह क्या है? भारतीय अध्यात्मसंकल्पना के अनुसार इसका क्या तात्पर्य है इसे भी समझना चाहिए ।

संक्षेप में ये ऐसे मूल विषय हैं जिनकी हमने घोर उपेक्षा की है और अन्यों ने गलत समझा है । आज भी पाश्चात्य विद्वान हमारे शास्त्र ग्रंथों का अर्थ प्रस्तुत करते हैं और उन्हें अधिकृत मनवाने का आग्रह करते हैं । हमारे विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल उन्हें अधिकृत मान भी लेते हैं । मेक्समूलर के समय से शुरू हुई यह परंपरा आज भी कायम है । हमें इससे मुक्त होने के लिए अध्ययन करने की आवश्यकता है । भारत की पहचान आध्यात्मिक देश की है, भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है, भारत की संस्कृति सर्वसमावेशक है इस बात को ज्ञानात्मक दृष्टि से समझना इस विषय के अध्ययन का मूल काम है ।

समाजशास्त्र

समाजशास्त्र भारतीय ज्ञानक्षेत्र में स्मृति के नाम से परिचित है और उसे मानवधर्मशास्त्र कहा गया है । अपने आप में यह महत्त्वपूर्ण संकेत है । समाजशास्त्र मनुष्य के मनुष्य के साथ रहने की व्यवस्था का शास्त्र है। ऐसी व्यवस्था के लिए धर्म आधारभूत तत्त्व है यह बात इससे ध्यान में आती है । सांस्कृतिक समाजशास्त्र के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार होंगे ।

समाजव्यवस्था करार सिद्धान्त के आधार पर नहीं बनी है। वह परिवार के सिद्धान्त पर बनी है । यह एक मूल अन्तर है जो आगे की सारी बातें बदल देता है । करार व्यवस्था का मूल भाव क्या है ? दो व्यक्ति या दो समूहों का हित अथवा लाभ जब एकदूसरे पर आधारित होता है तब उन्हें लेनदेन करनी ही पड़ती है । तब दूसरा व्यक्ति या समूह अपने से अधिक लाभान्वित न हो जाय अथवा अपने को धोखा न दे जाय इस दृष्टि से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है । बहुत ध्यान देकर ऐसी व्यवस्था की जाती है । इसे करार कहते हैं । जब कभी अपना लाभ दूसरे से कम दिखाई दे तो करार भंग किया जाता है और नये व्यक्ति अथवा नये समूह के साथ करार किया जाता है । करार भंग करने की कीमत भी चुकानी होती है। यह कीमत अधिकतर पैसे के रूप में होती है । सम्पूर्ण समाजव्यवस्था जब इस सिद्धान्त पर बनी होती है तब उसे सामाजिक करार सिद्धान्त कहते हैं । इस विचारधारा में मनुष्य स्व को केन्द्र में रखकर ही व्यवहार करेगा और अपने सुख को ही वरीयता देगा और उसे सुरक्षित करने का प्रयास करेगा यह बात स्वाभाविक मानी गई है। एक ही नहीं सभी मनुष्य इसी प्रकार से व्यवहार करेंगे यह भी स्वाभाविक ही माना जाता है । अत: सबको अपने अपने हित को सुरक्षित करने की चिन्ता स्वयं ही करनी चाहिए यह स्वाभाविक सिद्धान्त बनता है । भारत में यह सिद्धान्त मूल रूप से स्वीकार्य नहीं है ।

भारत में समाजव्यवस्था परिवार के सिद्धान्त पर बनी है। परिवार का केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । आत्मीयता का केन्द्रवर्ती तत्त्व है प्रेम । प्रेम का व्यावहारिक पक्ष है दूसरे का विचार प्रथम करना। दूसरे से मुझे क्या और कितना मिलेगा उससे अधिक मैं दूसरे को क्या और कितना दे सकता हूँ इसकी चिन्ता करना परिवारभावना का मूल तत्त्व है। सम्पूर्ण व्यवस्था विश्वास के आधार पर होती है। इसी कारण से मानवधर्मशास्त्र हर व्यक्ति के या समूह के कर्तव्य की बात करता है, अधिकार की नहीं । सब अपने अपने कर्तव्य निभायेंगे और इस बात पर सब विश्वास करेंगे यह व्यवस्था का मूल सूत्र है। यह बात प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य को अपने आपको उन्नत बनाना होता है। प्रेम के स्तर पर पहुँचने के लिये भी साधना करनी होती है। परन्तु समाज प्राकृत मनुष्यों से नहीं बनता अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों का ही बनता है । इस विषय में एक उक्ति है[2]:

पशूनाम्‌ पशुसमानानाम्‌ मूर्खाणाम समूह: समज: ।

पशुभिन्नानाम्‌ अनेकेषाम्‌ प्रामाणिक जनानाम्‌ ।

वासस्थानम्‌ तथा सभा समाज ।।

अर्थात्‌ जो पशु होते हैं, पशुतुल्य होते हैं उनके समूह को समज कहा जाता है परन्तु पशुओं से भिन्न, सुसंस्कृत लोगों के समूह को ही समाज कहा जाता है। अत: सुसंस्कृत होना समाज के सदस्य बनने लिये प्रथम आवश्यकता है । समाजव्यवस्था के सभी संबन्ध अधिकार नहीं अपितु कर्तव्य, लेना नहीं अपितु देना, स्वार्थ नहीं अपितु परार्थ के विचार पर ही बने हैं । मालिक नौकर, राजा प्रजा, शिक्षक विद्यार्थी, व्यापारी ग्राहक आदि पिता पुत्र जैसा व्यवहार करें यह अपेक्षित है ।

  • गृहव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था इन तीन व्यवस्थाओं से समाजव्यवस्था बनती है। इन तीनों आयामों में सम्पूर्ण व्यवस्था हो जाती है ।
  • गृहव्यवस्था समाजव्यवस्था की लघुतम व्यावहारिक इकाई है । पतिपत्नी इस व्यवस्था के केन्द्रवर्ती घटक हैं। एकात्म संबन्ध सिद्ध करने का यह प्रारम्भ बिन्दु है। इस बिन्दु से उसका विस्तार होते होते सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचता है। विवाहसंस्कार इसका प्रमुख कारक है। विवाह भी भारतीय समाजव्यवस्था में संस्कार है, करार नहीं। अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र और संस्कृति का प्रयोगस्थान गृह है और गृहसंचालन गृहिणी का कर्तव्य है। जीवनयापन की अन्य व्यवस्थाओं के समान अर्थर्जन भी गृहव्यवस्था का ही अंग है।
  • समाज का सांस्कृतिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था है और व्यावहारिक रक्षण और नियमन करने वाली व्यवस्था राज्यव्यवस्था है। शिक्षाव्यवस्था धर्मव्यवस्था की प्रतिनिधि है और राज्यव्यवस्था उसे लागू करवाने वाली व्यवस्था है। दोनों एकदूसरे की सहायक और पूरक हैं। एक कानून बनाती है, दूसरी कानून का पालन करवाती है। एक कर वसूलने के नियम बनाती है, दूसरी प्रत्यक्ष में कर वसूलती है। एक का काम निर्णय करने का है, दूसरी का निर्णय का पालन करवाना है । एक परामर्शक है, दूसरी शासक है । एक उपदेश करती है, दूसरी शासन करती है। शिक्षा का क्षेत्र धर्म का क्षेत्र है, न्यायालय राज्य का।
  • भारतीय समाजव्यवस्था हमेशा स्वायत्त रही है। स्वायत्तता का मूल तत्त्व है जिसका काम है वह सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी से, कर्तव्यबुद्धि से, सेवाभाव से, स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से करता है। अपनी समस्‍यायें स्वयं ही सुलझाता है। हर प्रकार के नियम, व्यवस्था, समस्या समाधान के उपाय छोटी से छोटी इकाइयों में विभाजित होते हैं।
  • भारतीय समाजव्यवस्था में लोकशिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम है। कथा, मेले, सत्संग, तीर्थयात्रा, उत्सव, यज्ञ आदि अनेक आयोजनों के माध्यम से लोकशिक्षा होती है। त्याग, दान, परोपकार, सेवा, निःस्वार्थता, कृतज्ञता आदि समाजधारणा हेतु आवश्यक तत्त्व लोकमानस में प्रतिष्ठित किए जाते हैं। पाप और पुण्य की संकल्पना परोपकार और परपीड़ा के संदर्भ में ही समझाई जाती है। दूसरों का हित करना ही उत्तम व्यवहार है यह सिखाया जाता है। ऐसे लोकशिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था भी समाज ही करता है, राज्य के अनुदान का विषय ही नहीं होता है।
  • व्यावहारिक शिक्षा का अधिकांश हिस्सा परिवार में ही होता है, केवल शास्त्रीय शिक्षा विद्यालयों में होती है यह भारत की पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था रही है। आज की तरह राज्य को शिक्षा कि इतनी अधिक चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षा का काम तो शिक्षक और धर्माचार्य ही करते थे, राज्य हमेशा सहायक की भूमिका में रहता था।
  • धर्म समाज के लिये नहीं अपितु समाज धर्म के लिये है यह एक मूल सूत्र है । धर्म यदि विश्वनियम है तो उसका अनुसरण करते हुए ही समाजव्यवस्था बनेगी यह उसका सीधासादा कारण है।
  • ऋषिऋण, पितृऋण और देवऋण के माध्यम से वंशपरम्परा और ज्ञानपरम्परा निभाने की तथा सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी गृहस्थ को दी गई है, और यह ज़िम्मेदारी निभाने वाला श्रेष्ठ है, इसलिये गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है। इन ऋणों से मुक्त होने के लिये पंचमहायज्ञों का भी विधान बताया गया है। ये पाँच महायज्ञ हैं: ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, ;पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ। मनुष्य के जीवन को संस्कारित करने के लिये सोलह संस्कारों की व्यवस्था भी बताई गई है। मनुष्य के जन्म पूर्व से मनुष्य के मृत्यु के बाद तक की संस्कारव्यवस्था का समावेश इसमें होता है । इस प्रकार सांस्कृतिक समाजव्यवस्था के मूलतत्त्व बताने का प्रयास यहाँ हुआ है। वर्तमान दुविधा यह है कि यह व्यवस्था और यह विचार इतना छिन्नभिन्न हो गया है और इसकी इतनी दुर्गति हुई है कि हम जानते ही नहीं है कि हमने क्या क्‍या गंवा दिया है। जो शास्त्र बचे हैं, जो परम्परायें बची हैं वे एक ओर तो विकृत हो गईं हैं और दूसरी ओर बदनाम हुई है। बदनामी का मुख्य माध्यम शिक्षा है। अत: आज पुनः पाश्चात्य आधुनिक विचार के भूत से पिंड छुड़ाकर नये सिरे से अध्ययन और अनुसन्धान कर युगानुकूल रचना बनानी होगी। शिक्षाक्षेत्र की यह बड़ी चुनौती है।

अर्थशास्त्र

वर्तमान समय में जीवन अर्थनिष्ठ बन गया है और अर्थ ने केन्द्रवर्ती स्थान ग्रहण कर लिया है। साथ ही मनुष्य अर्थप्राप्ति के लिये इतना परेशान हो गया है कि समाज का तो वह विचार ही नहीं कर सकता । चारों ओर से संकट उसे घेर रहे हैं और जिस दिशा में वह जा रहा है या घसीटा जा रहा है उसका अन्त कहाँ होगा इस विषय में अनिष्ट आशंकायें उठ रही हैं। इस संदर्भ में सांस्कृतिक अर्थशास्त्र के कुछ बिन्दु यहाँ दिये गए हैं ।

अर्थ, स्वरूप एवं व्याप्ति

अर्थशास्त्र का विचार करना है तो उसे "Economics" के अनुवाद के रूप में नहीं लेना चाहिये। भारतीय विचारपद्धति में पुरुषार्थ चतुष्टय की संकल्पना में "अर्थ" पुरुषार्थ दिया गया है, उस अर्थ के साथ सम्बन्धित "अर्थशास्त्र" का विचार करना चाहिये । ऐसा करने से उसका स्वरूप, व्याप्ति, परिभाषाएँ आदि बदलेंगी । इस परिवर्तन के परिणाम स्वरूप वह (अर्थशास्त्र) भारतीय मानस, भारतीय मानस के अनुसार बनते व्यवहार और उन व्यवहारों को सुकर एवं सुगम बनाने हेतु निर्मित व्यवस्थाओं के साथ समरस होगा । परिणाम स्वरूप भारतीय जीवन स्वस्थ और समृद्ध होगा । स्वस्थ और समृद्ध भारत विश्वकल्याण के अपने लक्ष्य की प्राप्ति में यशस्वी होगा ।

पुरुषार्थ चतुष्टय

चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष । इनके दो भाग किये गये हैं। एक भाग में हैं धर्म, अर्थ और काम । दूसरे भाग में है मोक्ष । धर्म, अर्थ, काम को “त्रिवर्ग' कहा गया है, मोक्ष को अपवर्ग । त्रिवर्ग का सम्बन्ध मनुष्य के जीवन व्यवहार के साथ है। मोक्ष साध्य है, प्रत्येक मनुष्य का जाने अनजाने, चाहे अनचाहे जीवनलक्ष्य है । मोक्ष परिणति है, त्रिवर्ग साधन हैं । व्यवहार में साध्य को, लक्ष्य को ठीक करने की आवश्यकता नहीं होती, साधन को ही ठीक करने की आवश्यकता होती है।

त्रिवर्ग के तीन पुरुषार्थों का एकदूसरे के साथ समायोजन इस प्रकार है:

काम मनुष्य की जन्मजात - प्राकृत - प्रवृत्ति है। काम का अर्थ है कामना । कामना का अर्थ है इच्छा । इच्छा मन का स्वभाव है । इच्छाएँ अनन्त, असीम होती हैं । अपूरणीय होती हैं । उन्हें कभी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता । इस सन्दर्भ में महाभारत का यह श्लोक[3] मननीय है -

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।

अर्थात्‌

जिस प्रकार अग्नि में हवि डालने से अग्नि शान्त होने के स्थान पर अधिक प्रज्वलित होती है उसी प्रकार किसी भी जन्म लिये हुए व्यक्ति की कामनाओं की शान्ति (तृप्ति) उपभोग से अर्थात्‌ उन कामनाओं की पूर्ति से नहीं होती । यह काम, पूर्व में बताया गया है कि, मनुष्य की जन्मजात प्रकृति है और उसकी पूर्ति जन्मजात प्रवृत्ति है । इस काम को त्रिवर्ग का एक पुरुषार्थ माना गया है । कामनापूर्ति के लिये जो भी प्रयास किये जाते हैं और जो भी संसाधन जुटाये जाते हैं वे अर्थ हैं और जो भी किया जाता है वह सब आर्थिक व्यवहार है । ये प्रयास व्यक्तिगत भी होते हैं और समष्टिगत भी होते हैं। अतः संसाधन, संसाधनों की प्राप्ति और संसाधनों का विनियोग ये तीनों मिलकर अर्थ पुरुषार्थ बनता है ।

कामनापूर्ति और कामनापूर्ति के लिये संसाधनों की प्राप्ति को सर्वजनहित और सर्वजनसुख तथा जन्मजात लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के अनुकूल बनाने के लिये जो सार्वभौम नियम व्यवस्था है वह धर्म पुरुषार्थ है । अतः अर्थ और काम धर्म के अनुकूल हों, धर्म के अविरोधी हों यह अनिवार्य आवश्यकता है । किसी भी शास्त्र का धर्म के अविरोधी होना अथवा धर्माधारित होना स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी।

इच्छा और आवश्यकता

काम पुरुषार्थ की चर्चा करते समय बताया गया कि कामना कभी भी सन्तुष्ट नहीं होती । यह भी कहा गया कि कामनापूर्ति के लिये संसाधन उपलब्ध करना और करवाना

यह अर्थ पुरुषार्थ है। परन्तु यह तो असम्भव को सम्भव मानने वाला कथन हुआ । यह व्यवहार में कभी सिद्ध नहीं हो सकता । यह आकाशकुसुम जैसा अथवा शशश्रुंग जैसा अतार्किक (illogical) कथन होगा। इसको आधार मानकर कुछ भी करेंगे तो सर्वजनहित और सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा । सर्वजनहित और सर्वजनसुख तो दूर की बात है, एक व्यक्ति का हित और सुख भी प्राप्त होना असम्भव है।

इसलिये प्रथम तो इच्छा अथवा कामना का ही सन्दर्भ ठीक करना आवश्यक है । इस सन्दर्भ में "इच्छा" और "आवश्यकता" (desires and needs) का अन्तर समझना आवश्यक है । इच्छा मन से सम्बन्धित है, आवश्यकता शरीर और प्राण से सम्बन्धित है । आहार, निद्रा, आश्रय, सुरक्षा, आराम ये शरीर और प्राण की आवश्यकताएँ हैं परन्तु विलास, संग्रह और परिग्रह, स्वामित्व ये मन की इच्छा है । अन्न, वस्त्र, निवास, प्राणरक्षा के जितने भी साधन हैं वे आवश्यकता हैं परन्तु विविध प्रकार के वस्त्र, विभिन्न स्वाद युक्त मिष्ठान्न, शोभा की वस्तुएँ, कोष में धन, सुवर्ण-रत्न-माणिक्य के अलंकार, अनेक वाहन, धनसम्पत्ति ये सब इच्छायें हैं । आवश्यकतायें सीमित होती हैं, इच्छायें असीमित ।

आवश्यकता की पूर्ति हर व्यक्ति का (अथवा जिनको भी प्राणरक्षा करनी है, अपना अस्तित्व बनाये रखना है उन सबका) जन्मसिद्ध अधिकार है । इच्छाओं के अधीन नहीं होना, इच्छाओं को संयमित और नियन्त्रित करना हर व्यक्ति का कर्तव्य है । ऐसा भी नहीं है कि इच्छाओं की पूर्ति सर्वथा निषिद्ध है । यदि ऐसा होता तो वस्त्रालंकार और सुखचैन के साधनों का निर्माण कभी होता ही नहीं । वैभव संपन्नता कभी आती ही नहीं । कलाकारीगरी का विकास कभी होता ही नहीं । और भारत में तो वैभवसंपन्नता बहुत रही है, वस्त्रालंकार, खानपान, आमोदप्रमोद आदि का वैविध्य विपुल मात्रा में रहा है। इसलिये इच्छाओं को संयमित और नियमित करने का अर्थ उन्हें कम करना या सर्वथा त्याग करना नहीं है । इसका अर्थ यह है कि आवश्यकताओं को तो हम अधिकार के रूप में ले सकते हैं परन्तु इच्छाओं को सर्वजनसुख और सर्वजनहित रूपी धर्म के द्वारा नियंत्रित करके ही पूर्ण किया जा सकता है ।

इसको श्रीमदभगवद्गीता[4] में

बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।

अर्थात्‌ “सर्व प्राणियों में धर्म के अविस्द्ध जो काम है वह मैं (परमात्मा) हूँ ' कहकर उसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है ।

अतः अर्थ पुरुषार्थ का और अर्थशास्त्र का विचार आवश्यकतापूर्ति के सन्दर्भ में करना होता है, इच्छापूर्ति के सन्दर्भ में नहीं । यह सम्भव है कि एक ही पदार्थ, एक ही क्रिया एक सन्दर्भ में इच्छा और अन्य सन्दर्भ में आवश्यकता होगी । अतः इच्छा और आवश्यकता में विवेक करना हर समय आवश्यक ही है । अर्थशास्त्र का जीवनशास्त्र के सन्दर्भ में विचार करना आवश्यक है। इसका अर्थ है जीवनशास्त्र के अन्यान्य पहलुओं से सम्बन्धित जो शास्त्र हैं उनके साथ अर्थशास्त्र का समायोजन होना चाहिये । उदाहरण के लिये समाजशास्त्र पर्यावरण, तकनीकी, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र आदि के साथ अर्थशास्त्र का अनुकूल सम्बन्ध होना चाहिये । अर्थशास्त्र की सार्थकता एवं उपादेयता हेतु ऐसा होना अपरिहार्य है। इस दृष्टि से अर्थशास्र का विचार करते समय निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है ।

प्रभूत उत्पादन

सर्वजन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संसाधन चाहिये । संसाधनों की उपलब्धता वस्तुओं के उत्पादन पर निर्भर करती है। अतः उत्पादन प्रभूत मात्रा में होना चाहिये । उत्पादन हेतु तीन बातों की आवश्यकता होती है ।

  • प्राकृतिक स्रोत: भूमि की उर्वरता, जलवायु की अनुकूलता, खानों खदानों में प्राप्त खनिज, अरण्यों में प्राप्त वनस्पति, समुद्र में प्राप्त रत्न आदि ।
  • मानवीय कौशल: मनुष्य की बुद्धि और हाथ की निर्माण क्षमता ।
  • विनियोग का विवेक: उत्पादित सामग्री का वितरण, रखरखाव, गुणवत्ता, उपभोग आदि की समझ ।

एक बात ध्यान में रखने योग्य है। आवश्यकताओं के सन्दर्भ में ही प्रभूतता का विचार किया जा सकता है, इच्छाओं के सन्दर्भ में नहीं । क्यों कि जैसा पूर्व में कहा गया है आवश्यकतायें सीमित होती हैं और शीघ्र संतुष्ट हो जाती हैं। मनुष्य भूख होती है उतना ही खाता है, एक साथ एक ही वस्त्र पहनता है आदि, परन्तु इच्छायें असीमित होती हैं, कभी भी पूरणीय नहीं होती ।

इस दृष्टि से मनःसंयम अर्थव्यवस्था के लिये बहुत बड़ा सहायक और प्रेरक तत्त्व है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर हमें economy of abundance - प्रभूतता का अर्थशास्त्र की संकल्पना को प्रस्थापित और प्रतिष्ठित करना चाहिये । वर्तमान अर्थशास्त्र economy of want - अभाव का अर्थशास्त्र है । वही बाजार को चालना देता है, उत्पादन को प्रभावित करता है, वितरण को नियंत्रित करता है और कीमतों का निर्धारण करता है। इसके स्थान पर प्रभूतता का अर्थशास्त्र प्रतिष्ठित होने से स्थितियाँ बहुत बदल जायेंगी ।

उत्पादन, व्यवसाय और अर्थार्जन

चीजों के उत्पादन हेतु भिन्न भिन्न व्यवसायों की निश्चिति होती है। इसे उत्पादन को व्यवस्थित करना कह सकते हैं । उत्पादन के साथ मनुष्यों का सम्बन्ध है। अतः हर मनुष्य का उत्पादन में सहभागी होना आवश्यक है। उत्पादन उपभोग के लिये होता है। इसलिये समाज की आवश्यकताओं ने उत्पादन का निर्धारण और नियमन करना चाहिये ।

इस नियमन का स्वरूप इस प्रकार बनेगा -

  • समाज की आवश्यकता हेतु उत्पादन होना चाहिये।
  • उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की व्यवस्था होनी चाहिये।

वास्तव में किसी भी वस्तु का निर्माण इसीलिये होता है क्यों कि उसकी इच्छा या आवश्यकता होती है । जब यह निर्माण स्वयं के लिये व्यक्ति स्वयं ही बनाता है तब तो समस्या पैदा नहीं होती, परंतु एक की आवश्यकता के लिये दूसरा बनाता है तब प्रश्न पैदा होते हैं । जब दूसरा बनाता है तब एक को वस्तु मिलती है, दूसरे को पैसा । इसलिये अर्थार्जन और आवश्यकता ये दोनों बातें उत्पादन के साथ जुड जाती हैं । अब प्रश्न यह होता है कि उत्पादन अर्थार्जन के लिये करना या आवश्यकता की पूर्ति के लिये। यदि अर्थार्जन को ही प्राथमिकता दी जायेगी तो अनावश्यक वस्तु का भी उत्पादन होगा, आवश्यक वस्तु का नहीं होगा। अनावश्यक वस्तु का उत्पादन करने पर उन्हें कोई लेने वाला नहीं होगा तो उत्पादन बेकार जायेगा, अर्थार्जन भी नहीं होगा । फिर अनावश्यक वस्तु के लिये कृत्रिम रूप से आवश्यकता निर्माण की जायेगी। इससे मनुष्य की बुद्धि, मन, शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और समाजजीवन में अनवस्था निर्माण होगी । आज यही हो रहा है। उत्पादक अर्थर्जन का हेतु मन में रखकर उत्पादन करता है और ग्राहक को येन केन प्रकारेण उसे खरीदने पर विवश करता है ।

  • उत्पादन में हर व्यक्ति की सहभागिता होनी चाहिये । यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है। उत्पादन हेतु जो भी व्यवसाय होते हैं उनमें जुडे हर व्यक्ति का स्थान सहभागिता का होना चाहिये । यह सहभागिता स्वामित्वयुक्त होनी चाहिये, नौकरी करने की नहीं । व्यवसाय के स्वामित्व में सहभागिता होने से व्यक्ति का सम्मान, गौरव और स्वतंत्रता बनी रहती है । ये व्यक्ति की मानसिक और आत्मिक आवश्यकतायें होती हैं। स्वामित्व के भाव के कारण उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादित वस्तु के साथ भी आत्मीयता का भाव आता है और उत्पादन के श्रम में आनंद का अनुभव होता है । ये सब सुसंस्कृत जीवन के निर्देशांक हैं ।
  • उत्पादन में सहभागिता हेतु व्यक्ति स्वयं सक्षम होना चाहिये ।
  • किसी भी व्यक्ति को परावंलबी बनना अच्छा भी नहीं लगता, और उसने परावलंबी होना भी नहीं चाहिये । अपने और दूसरों के निर्वाह हेतु किसी न किसी प्रकार से उत्पादन करने की क्षमता हर व्यक्ति में होनी चाहिये ।
  • व्यक्ति को उत्पादन में सहभागी होने के लिये सक्षम बनाने हेतु समाज द्वारा व्यवस्था बननी चाहिये।
  • उत्पादन में सहभागी होने के फलस्वरूप व्यक्ति को धन की प्राप्ति जो उसे अपने योगक्षेम हेतु आवश्यक है वह होनी चाहिये ।

इस प्रकार से समष्टि की आवश्यकता यह प्रारम्भ बिन्दु बनना आवश्यक है । यदि यह दिशा बदलकर व्यक्ति की अर्थार्जन की प्रवृत्ति को प्रारम्भ बिन्दु बनाया जाता है तो सर्वजनहित सर्वजनसुख का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता । व्यक्ति जन्म से ही उत्पादन करना, अर्थात्‌ वस्तुओं का निर्माण करना सीखकर नहीं आता । उसे निर्माण कार्य सीखना पड़ता है । हर व्यक्ति को यह सिखाने की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है । अतः उत्पादन व्यवस्था और उस हेतुसे उसकी शिक्षा देने की व्यवस्था समाजव्यवस्था का अभिन्न अंग है । आज के शिक्षाक्रम में सभी को साक्षर बनाने को तो अग्रक्रम दिया जाता है परन्तु सभी को निर्माणक्षम बनाने की व्यवस्था नहीं दिखाई देती है । उल्टे साक्षर होने के चक्कर में संभावित निर्माण क्षमता भी नष्ट होती है और निर्माण के अवसर भी नहीं मिलते । साथ ही निर्माण की मानसिकता को भी हानि होती है ।

व्यवसाय, परिवार, वर्ण

व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु परिवारगत होना लाभदायी होता है। भारतीय समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं अपितु परिवार माना गया है। जिस समाजव्यवस्था में मूल इकाई व्यक्ति नहीं अपितु परिवार को माना गया है वहाँ व्यवसाय व्यक्तिगत नहीं अपितु परिवारगत होना उचित है । अर्थव्यवस्था को इस आधार पर रखने से बहुत सारे सन्दर्भ बदल जाते हैं ।

परिवार की समरसता बनी रहती है ।

वर्तमान में समाजव्यवस्था व्यक्तिकेंद्री बन गई है, उस प्रकार से व्यवसाय - चाहे उत्पादन हो चाहे नौकरी - भी व्यक्तिकेन्द्रित बन गये हैं। इस कारण से परिवार दो वर्गों में विभाजित हो गया है । एक होता है व्यवसाय करने वाले और उसके फलस्वरूप अर्थार्जन करने वाले व्यक्तियों का विभाग और दूसरा होता है अर्थार्जन नहीं करने वाले व्यक्तियों का विभाग। अर्थार्जन नहीं करने वाले व्यक्ति अर्थार्जन करने वाले के आश्रित हो जाते हैं । परिवार की समरसता भंग होने का यह एक कारण है । परिवार में बच्चों को छोड़कर और कोई आश्रित रहना नहीं चाहता । उससे अर्थार्जन की अपेक्षा भी की जाती है । परिवार में यदि सभी सदस्य एकदूसरे से भिन्न और स्वतंत्र व्यवसाय करते हैं तो उनके व्यवसाय के स्थान, परिवेश, रुचि, मित्रपरिवार, समय, अवकाश आदि सब भिन्न होते हैं । समरसता खण्डित होने का यह दूसरा कारण है । आश्रयदाता और आश्रित का सम्बन्ध कभी भी समरस नहीं हो सकता है । इसलिये पूरे परिवार का एक व्यवसाय होना लाभकारी रहता है ।

हर व्यक्ति का योगक्षेम सुरक्षित रहता है ।

व्यवसाय परिवारगत होने के कारण से परिवार के हर व्यक्ति की व्यवसाय में सहभागिता होती है । परिवार में जन्म लेने वाले बालक को भी भविष्य के जीवन की चिन्ता नहीं रहती । साथ ही व्यवसाय के साथ उसका मानसिक जुडाव बन जाता है ।

व्यवसाय अपने आप वंशानुगत हो जाता है ।

एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को स्वाभाविक क्रम में वह हस्तान्तरित होता रहता है । इससे दोहरा लाभ होता है । एक ओर तो नयी पीढ़ी अर्थार्जन की दृष्टि से सुरक्षित और निश्चित होती है, दूसरी ओर व्यवसाय को भी नष्ट होने का भय नहीं रहता। व्यवसाय में आत्मीयता के भाव से जुडने और कुशल लोगों का अभाव न रहने के कारण व्यवसाय को हानि नहीं पहुँचती । आज व्यवसाय परिवारगत नहीं होने से ये सारे संकट दिखाई दे रहे हैं । एक वैज्ञानिक को अपनी प्रयोगशाला, एक डॉक्टर को अपना अस्पताल, एक अध्यापक को अपना पुस्तकालय सम्हालने वाला और अपनी विज्ञान, स्वास्थ्यरक्षा और ज्ञान की परम्परा को आगे ले लाने वाला कोई नहीं मिलता । परम्परा खण्डित हो जाती है । दूसरी ओर नये वैज्ञानिक या अध्यापक या डाक्टर को विरासत में कुछ नहीं मिलता । उसे नये सिरे से संसाधन भी जुटाने पड़ते हैं और अनुभव भी प्राप्त करना पड़ता है । व्यक्ति, व्यवसाय और समाज तीनों को हानि उठानी पड़ती है ।

व्यवसाय वंशानुगत होने से व्यावसायिक कुशलता बढती है

व्यवसाय वंशानुगत होने से व्यावसायिक कुशलता बढती है और उत्पादन की गुणवत्ता भी बढ़ती है । परिवार में जन्म लेने वाले बालक को जन्मजात संस्कार के रूप में व्यवसाय की कुशलता प्राप्त होती है । बचपन से ही वह उस वातावरण में रहता है । श्रवनेंद्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय आदि के माध्यम से वह व्यवसायगत संवेदनात्मक अनुभव प्राप्त करता रहता है । व्यवसाय विषयक बातें सुनता है और समझता है । व्यवसाय से जुड़े खेल खेलता है। आयु बढ़ने के साथ व्यवसाय में सहयोगी होने लगता है और बिना आयास और बिना खर्च के व्यवसाय सीखा जाता है । यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि व्यवसाय के वंशानुगत होने से करने वाले की कुशलता और उत्पादन की गुणवत्ता बढती है ।

व्यवसाय के वंशानुगत होने से समाजव्यवस्था में वर्णव्यवस्था भी साहजिक रूप से निर्माण होती है। प्रत्येक परिवार के योगक्षेम की एवं व्यवसाय की सुरक्षा, निश्चितता और निश्चिन्तता होती है । अर्थव्यवस्था को सुरक्षित करने का यह व्यावहारिक उपाय है । वंशानुगत जो भी व्यवसाय मिला है उसे सामान्य रूप से कोई छोड़ता नहीं है । छोड़ने की आवश्यकता भी नहीं है । भारत की समाज व्यवस्था में यह नियम भी बनाया गया था कि कोई बिना किसी उचित कारण से अपना व्यवसाय बदल नहीं सकता था । अन्यों के व्यवसाय की सुरक्षा उत्पादन व्यवस्था की निश्चितता, उत्पादन की गुणवत्ता आदि कई कारण होते हैं जिससे व्यवसाय बदलना हितकारक नहीं होता है ।

  1. समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की भी निश्चितता एवं निश्चिन्तता बनी रहती है ।
  2. व्यवसायगत. कौशल, उत्कृष्टता, सृजनशीलता, व्यवसायनिष्ठा, व्यवसायगौरव आदि बहुमूल्य तत्त्वों की सुरक्षा बनी रहती है । कोई अपना व्यवसाय छोड़ता नहीं है इसलिये समाज को अभाव का अनुभव नहीं करना पड़ता है ।
  3. व्यवसायनिष्ठा के साथ साथ व्यवसाय के माध्यम से जो सामाजिक दायित्व प्राप्त हुआ है उसका बोध बना रहता है । व्यवसाय से यद्यपि अर्थार्जन होता है तथापि वह समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु है यह स्मरण हमेशा बना रहता है । वह बना रहे ऐसी व्यवस्था भी की जाती है । भारत में समाज को एक जीवमान इकाई मानकर समाजपुरुष की कल्पना की गई है । परिवारों के व्यवसायों पर इस समाजपुरुष का अधिकार रहता है । इस समाजपुरुष की सेवा हेतु व्यवसाय किया जाता है ।

वास्तव में ये सब संस्कृति के सूचकांक (index of culture) हैं । व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में इसे व्यक्ति के अपना व्यवसाय चुनने के स्वातंत्रय पर आघात माना जाता है । परन्तु यह स्वतंत्रता की हानि नहीं है, यह व्यवस्था द्वारा नियमन है। उल्टे व्यक्ति को व्यवसाय चुनने और छोड़ने की “स्वतंत्रता” देने से आर्थिक अनिश्चितता, अव्यवस्था और दायित्वबोध के संकट निर्माण हो जाते हैं ।

कुछ बातों का क्रयविक्रय के दायरे से बाहर होना

विद्या, अन्न (भोजन), जल, औषध, रुग्णपरिचर्या, शिशुसंगोपन, पूजा, धार्मिक अनुष्ठान आदि को क्रयविक्रय के दायरे से बाहर रखना चाहिये । ये सभी काम सेवा के हैं । इनका मूल्य भौतिक नहीं है, सांस्कृतिक है । ये मनुष्य के सांस्कृतिक विकास के सूचकांक हैं । ये आदरपात्र और पवित्र कार्य हैं । इनको भौतिक स्तर तक नीचे उतार देने से समाज और संस्कृति का पतन होता है । इन सबको व्यवसाय नहीं मानना चाहिये और अर्थार्जन के साथ नहीं जोडना चाहिये । अर्थव्यवस्था का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों के साथ है । सेवा, अध्यापन, परिचर्या, प्रेम आदि अभौतिक तत्त्व हैं । पवित्रता, पुण्य आदि संकल्पनायें भी अभौतिक हैं । अन्न, जल आदि प्राकृतिक संसाधन हैं। तैयार किये गये भोजन को पवित्र माना गया है । इन सब को भौतिक संसाधनों के समकक्ष मानना अस्वाभाविक है । अर्थव्यवस्था में वस्तु-वस्तु अथवा वस्तु-श्रम के विनिमय की प्रथा थी तब भी ज्ञान, सेवा आदि को विनिमय के अन्तर्गत नहीं माना जाता था । आज अब नकद सिक्कों के माध्यम से लेन देन होता है तब सब कुछ सिक्कों में परिवर्तित हो जाता है । Everything is converted and computed into money. भौतिक के साथ साथ अत्यन्त यांत्रिक व्यवस्था है । प्रेम, सेवा, ज्ञान, संगोपन आदि को यांत्रिक पद्धति से सिक्कों में परिवर्तित करना अस्वाभाविक, अव्यावहारिक और अमनोवैज्ञानिक है । आज असंभव लगने वाली यह व्यवस्था दीर्घकाल तक भारत में व्यवहार में थी अतः इस चर्चा को काल्पनिक नहीं मानना चाहिये ।

उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण

उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से:

उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना अति आवश्यक है

यह अन्तर जितनी मात्रा में बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है, उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव, अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम का, धन का विनियोग करना पड़ता है । उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वस्त्र, लकड़ी, स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर दूर तक फैले हुए हों तो परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव, विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं । ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास (pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं। भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है । आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition), सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र - यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते हैं। इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है । वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये १०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक महँगा होता है।

भारत में लंका के अथवा बसरा के मोती अधिक महँगे होते हैं । यह महँगा होना स्वाभाविक है। परन्तु गुजरात के गाँव में बनने वाला कपडे धोने का चूर्ण जिसका उत्पादक मूल्य बहुत साधारण है, जो पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर अति साधारण माना जायेगा वह यदि भारत के कोने कोने में बिकने हेतु जायेगा तो उसका मूल्य बीस गुना बढ जायगा । यह मूल्य अनुत्पादक है । आज की अर्थव्यवस्था में परिवहन, विज्ञापन, आडत, पैकिंग आदि अनुत्पादक बातें हैं जो अर्थव्यवस्था पर बोझ बनकर उसे आभासी बनाती है । जिस देश में ठोस की अपेक्षा आभासी अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है वह देश उतनी ही अधिक मात्रा में दरिद्र होता है ।

उत्पादन का विकेन्द्रीकरण

कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी चीजों के उत्पादन की व्यवस्था स्थानिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये । उत्पादन विकेन्द्रित होने से

  • उत्पादन के लिये मानवश्रम सुलभ होगा ।
  • लागत कम होगी ।
  • स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो जायेंगी ।

उत्पादक का स्वामित्व

यह एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य है। विकेन्द्रित उत्पादन व्यवस्था का यह बहुत बड़ा लाभ है । मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है। उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर हालत में सम्भव होनी चाहिये । अत: मनुष्य को व्यवसाय का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहे तो विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में नौकरियाँ कम से कम और स्वामित्व की मात्रा अधिक से अधिक होनी चाहिये । व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार को अपने योगक्षेम हेतु अर्थार्जन दोनों समाविष्ट हैं। इसकी व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का हास नहीं होना चाहिये । इस दृष्टि से व्यवसाय में सहभागी स्वामित्व होना अपेक्षित है । विचार करने पर ध्यान में आता है कि परिवारगत व्यवसाय और सहभागी स्वामित्व एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।

उत्पादन में मनुष्य और यन्त्र

सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में और वितरण व्यवस्था में मनुष्य मुख्य है इसलिये सम्पूर्ण रचना मनुष्य केन्द्री और मनुष्य आधारित होना अपेक्षित है । यन्त्र मनुष्य द्वारा निर्मित होते हैं और मनुष्य के सहायक होते हैं। उनकी भूमिका सहायक की ही होनी चाहिये । इसलिये सारे के सारे यन्त्र मनुष्य के अधीन रहें और मनुष्य की सर्वोपरिता बनी रहे इस प्रकार की व्यवसाय रचना होनी चाहिये । यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार होते हैं । उनको काम नहीं मिलता है । भावात्मकता कम होती है। अधीनता बढती है । कौशलों का हास होने लगता है। इसके और भी परिणाम होते हैं जिन्हें हम side effects कह सकते हैं ।

जैसे जैसे यंत्र बढते हैं बडे बडे कारखानों की आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या कम होती है परन्तु जो भी मनुष्य काम करने जाते हैं उन्हें घर छोड़कर व्यवसाय केन्द्र पर जाना पड़ता है। परिवहन की समस्या भी बढती है। दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है। यंत्र और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है। मनुष्य स्वाधीन नहीं रहता, यंत्र के अधीन और व्यवस्था का दास बन जाता है । इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पडता है। मनुष्य शुष्क, कठोर, असन्तुष्ट बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय बातों में दिलासा खोजता है। इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो ऊर्जा खर्च होती है उससे बहुत बड़ा पर्यावरणीय असन्तुलन भी पैदा होता है । इससे तो संपूर्ण सृष्टि का जीवन संकट में पड़ जाता है ।

व्यवसाय, उत्पादन ओर पर्यावरण

भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवन सिद्धान्त बताती है। इस दृष्टि से मनुष्य का अन्य मनुष्यों से तो सम्बन्ध है ही, साथ ही प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पंचभौतिक सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध है । कहा गया है कि परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। इस कारण से उसे अपने से कनिष्ठ सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण और पोषण का दायित्व दिया गया है। उत्पादन और व्यवसाय में इस दायित्व का स्मरण रहना आवश्यक है । इस दृष्टि से निम्न बिन्दु विचारणीय हैं ।

  1. किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति का दोहन करना, शोषण नहीं । प्रकृति का शोषण करना भावात्मक दृष्टि से हिंसा है, बौद्धिक दृष्टि से अदूरदर्शिता और अन्याय है, व्यावहारिक दृष्टि से घाटे का सौदा है । इसके उदाहरण देखने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। भूमि हमारी सर्व प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है परन्तु रासायनिक खाद का प्रयोग करने के कारण उसकी उर्वरता कम होती है, जो धान्य-फल-सब्जी उगते हैं उसकी पोषकता कम होती है । कालानुक्रम से भूमि बंजर बन जाती है, धान्य का अभाव होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य खराब होता है और समाज दरिद्र बनता है । भूमि से पेट्रोलियम निकालने का उपक्रम भी इसी का उदाहरण है । जंगल काटकर कारखाने, बड़े बड़े मॉल, चौड़ी सडकें और आकाशगामी भवन बनाना भी इसी का उदाहरण है ।
  2. प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने वाले किसी भी प्रकार के उत्पादन तन्त्र को अनुमति नहीं होनी चाहिये । जब प्रकृति का दोहन किया जाता है तब प्रकृति अपने आप संसाधनों का सृजन कर क्षतिपूर्ति कर देती है और सन्तुलन बनाये रखती है । परन्तु जब शोषण होता है तब प्रकृति असहाय हो जाती है । जब संतुलन बिगड़ जाता है तब अभाव, असंतोष और अस्वास्थ्य का चक्र शुरू हो जाता है ।
  3. मनुष्य का स्वास्थ्य खराब करने वाला उत्पादन तन्त्र तथा उस प्रकार की चीजों के उत्पादन भी अनुमति के पात्र नहीं हैं । खाद्यपदार्थों में विभिन्न प्रकार के रसायनों का प्रयोग, शीतागार में संग्रह (cold storage), रसायनों का प्रयोग कर फल पकाने की प्रक्रिया, जल शुद्धीकरण की प्रक्रिया, विभिन्न प्रकार के कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधन, वस्त्र, उपकरण, फर्नीचर आदि में अधिकाधिक प्लेंस्टिक का प्रयोग, सिमेन्ट-क्रॉँक्रीट की वास्तु आदि अनगिनत चीजें ऐसी हैं जिनका मनुष्य के स्वास्थ्य पर अत्यंत घातक प्रभाव पड़ता है । इन चीजों का उत्पादन अर्थव्यवस्था को भी घातक ही बनाता है ।
  4. प्राणियों की हिंसा को बढ़ावा देने वाला उत्पादन तन्त्र भी अनुमत नहीं है । खाद्य पदार्थ, वस्त्र प्रावरण एवं सौंदर्य प्रसाधनों में प्राणियों के साथ अतिशय अमानवीय व्यवहार किया जाता है । प्लेंस्टिक की थैलियाँ खाकर गायें मरती हैं । माँस के निर्यात के लिये बूचडखाने चलाये जाते हैं । यह सब हिंसक अर्थव्यवस्था के उदाहरण हैं ।
  5. सृष्टि की विभिन्न प्रकार की चक्रीयता को तोड़ने वाला उत्पादन तन्त्र भी अनुमत नहीं है । सम्पूर्ण अर्थव्यवहार में सर्जन-विसर्जन-सर्जन का चक्र अबाध गति से चलना चाहिये । जंगल तोड़े जाते हैं और प्राणवायु - कार्बनडाई ऑक्साईड - प्राणवायु का चक्र टूट जाता है । घरों के आँगन में मिट्टी नहीं अपितु पत्थर होने से जमीन की नमी समाप्त हो जाती है । भूमिगत जल निष्कासन (underground drainage) पद्धति से जलचक्र टूट जाता है और जलस्तर नीचे से और नीचे चला जाता है । इस कारण से वृक्ष का जीवनचक्र टूट जाता है । प्रकृति और मनुष्य का स्नेहसंबंध भी समाप्त हो जाता है ।

व्यवसाय, वितरण, व्यक्ति, परिवार, समाज और राज्य

व्यवसाय एवं वितरण के सम्बन्ध में अब तक चर्चा की है । व्यक्ति की भूमिका व्यावसायिक कुशलता प्राप्त करने की है। परिवार के पास व्यवसाय का स्वामित्व होना चाहिये । परन्तु सम्पूर्ण तन्त्र में समाज की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । व्यवसायतन्त्र का नियन्त्रण और नियमन समाज के अधीन होना चाहिये, राज्य के अधीन नहीं । उत्पादन के एवं व्यापार के क्षेत्र में राज्य को नहीं पडना चाहिये । मूल्यनिर्धारण, वितरण व्यवस्था, उत्पादन आदि में वर्णों की, व्यवसाय समूहों की अपनी व्यवस्था होनी चाहिये । जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार से अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम होनी चाहिये । शस्त्रों, अन्य युद्ध सामग्री एवं इसी प्रकार की अन्य सामग्री के उत्पादन, संग्रह एवं विनियोग की व्यवस्था राज्य के अधीन हो सकती है । अन्यथा समाज ही नियमन करेगा ।

कर, संग्रह एवं अनुदान

राज्य की भूमिका विशेष समय पर होगी ।

  1. शासन, प्रशासन, न्याय, सैन्य आदि के लिये राज्य को जो धन चाहिये उसके लिये कर (tax) व्यवस्था होती है। करव्यवस्था को राज्यसंचालन में समाज की सहभागिता का स्वरूप देना चाहिये । करव्यवस्था भी प्रजा के शोषण के नहीं अपितु दोहन के सिद्धान्त पर बननी चाहिये ।
  2. अकाल, अतिदृष्टि जैसी प्राकृतक आपदाओं के समय में प्रजा को अन्न प्राप्त हो सके इस दृष्टि से राज्य ने धान्य का संग्रह करना अपेक्षित है । वह धान्य व्यापार के लिये नहीं, निःशुल्क वितरण के लिये ही होगा । राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिये । राज्य व्यापार करने लगता है तब अर्थव्यवस्था में घोर संकट पैदा होते हैं। एक लोकोक्ति है, 'जहाँ राजा व्यापारी वहाँ प्रजा भिखारी । अंग्रेजों के शासनकाल का यही मुख्य लक्षण है। अंग्रेजों से पूर्व भारत में राजाओं का शासन था। बीच बीच में कहीं कहीं गणतंत्र भी था। परन्तु भारत के सुदीर्घ इतिहास में राजा ही राज्य करता था। राजा अच्छे या बुरे होते थे। तानाशाह भी बन जाते थे। विलासी, दुश्नरित्र, निर्वीय भी बन जाते थे। अधिक करसंपादन करके प्रजा का शोषण भी करते थे। परन्तु व्यापार कभी भी नहीं करते थे। केवल अंग्रेज शासन व्यापारियों का शासन था। उस दृष्टि से देखें तो साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद आदि सब अर्थव्यवस्था पर आधारित शासनव्यवस्था है। यह समाजव्यवस्था के लिये अत्यन्त घातक है। राज्य और अर्थ दोनों एकदूसरे के अधीन नहीं होने चाहिये। राजा का काम, शासन का काम रक्षण, सहायता और अनुकूलता निर्माण करने का है।
  3. ज्ञानसाधना, विद्यादान, सांस्कृतिक अनुष्ठान, रुग्णसेवा, औषध योजना आदि कार्य अबाधरूप से चले इस दृष्टि से राज्य ने दान-अनुदान की व्यवस्था करनी होती है। प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही यह व्यवस्था होती है । इसलिये इन सब कार्यों -विद्यादानादि- पर राज्य का नियन्त्रण का अधिकार नहीं होता ।
  4. सज्जन परित्राण एवं दुष्टनिर्दालन हेतु राज्य को जिन संसाधनों की आवश्यकता पडती है वह प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही प्राप्त होती है । करविधान भी दोहनसिद्धान्त से ही होता है, शोषणसिद्धान्त से नहीं । इसमें अध्ययन, अनुसन्धान के साथ साथ उद्योजकों तथा राज्य दोनों का प्रबोधन करना भी आवश्यक है ।

इतिहास

इतिहास को हम राजकीय इतिहास के रूप में ही पढ़ाते हैं। शासन, प्रशासन, राजनीति आदि हमारे लिये इतने महत्त्वपूर्ण मामले हो गये हैं कि इतिहास इसी से बनता है ऐसा हमें लगता है। आज भी सारी सत्ता शासन और प्रशासन के ही हाथ में हमने दे दी है। अथवा ब्रिटिश शासन ने समाज की स्वायत्तता का भंग कर सत्ता अपने हाथ में ले ली। तबसे हमारी मानसिकता धीरे धीरे शासनकेन्द्रित अर्थात्‌ राज्यकेंद्रित बन गई है। राजाओं या शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय का वर्णन करना हमारे लिये इतिहास है । भारतीय ज्ञानपरंपरा में महाभारत को और पुराणों को इतिहास कहा गया है । आज इनके सामने बड़ी आपत्ति उठाई जा रही है। इन्हें काल्पनिक कहा जा रहा है। भारतीय विद्वान इन्हें इतिहास के नाते प्रस्थापित कर ही नहीं पा रहे हैं क्योंकि इतिहास की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा को स्वीकार कर अपने ग्रन्थों को लागू करने से वे इतिहास ग्रंथ सिद्ध नहीं होते हैं । एक बहुत ही छोटा तबका इन्हें इतिहास मान रहा है परन्तु विद्वतक्षेत्र के मुख्य प्रवाह में अभी भी ये धर्मग्रंथ हैं, इतिहास नहीं । इतिहास की भारतीय परिभाषा है[citation needed]

धर्मार्थिकाममो क्षाणाम्‌ उपदेशसमन्वितम्‌ ।

पुरावृत्तं कथारूप॑ इतिहासं प्रचक्षते ।।

अर्थात्‌ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का उपदेश जिसमें मिलता है, जो पूर्व में हो गया है, जो कथा के रूप में बताया गया है वह इतिहास है । इतिहास पढ़ने का प्रयोजन स्पष्ट है । वह मनुष्य को सही जीवन जीने का मार्गदर्शन करने वाला होना चाहिए । इस दृष्टि से प्रेरक चरित्र और प्रेरक घटनाओं का महत्त्व है । वह रोचक ढंग से बताया हुआ होना चाहिए । उदाहरण के लिये[citation needed] “रामादिवत् वर्तितव्यं न तु रावणादीवत्" अर्थात राम आदि की तरह व्यवहार करना चाहिए, रावण आदि की तरह नहीं ऐसा उपदेश ही इतिहास का लक्ष्य है ।

इसलिये सांस्कृतिक इतिहास राजाओं का नहीं अपितु संस्कृति का इतिहास है । सांस्कृतिक परम्परा का निरूपण करना इतिहास का मुख्य लक्ष्य है। इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार के विषय उसमें आना अपेक्षित है:

धर्म की रक्षा हेतु किए गये कार्य जिनमें युद्ध, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में किए गये सृजन एवं अनुसन्धान, यज्ञकार्य, उत्सव आदि का समावेश होता है । उदाहरण के लिये कुंभ मेले का प्रारम्भ, वेद्कालीन दाशराज्ञ युद्ध, रामायण का युद्ध, श्रीमद्धगवद्दीता का उपदेश, भगवान शंकराचार्य का शास्त्रार्थ, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंदसिंह और शिवाजी महाराज के धर्मरक्षा के प्रयास, अठारहवीं शताब्दी का गोरक्षा आंदोलन ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में प्रेरक सिद्ध होते हैं ।

साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य आदि क्षेत्र की उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान के क्षेत्र के आविष्कार, शास्त्रों और ज्ञानपरंपरा के महत्त्वपूर्ण आयाम आदि भी इतिहास का विषय बन सकते हैं। भारत द्वारा विदेशों पर किया हुआ सांस्कृतिक विजय इतिहास का महत्त्वपूर्ण विषय है । उसी प्रकार विश्व का सांस्कृतिक इतिहास, विश्व के सांस्कृतिक मंच पर भारत का स्थान एवं मानवता की प्रगति में भारत की भूमिका भी इतिहास का विषय बनता है । देश की सांस्कृतिक एकात्मता दर्शाने वाले सभी तत्त्व इतिहास के अध्ययन के विषय हैं। उदाहरण के लिये राज्यों की, भाषाओं की, तापमान की, खानपान की, रूपरंग की भिन्नता होने पर भी भारत सांस्कृतिक दृष्टि से हमेशा के लिये एक राष्ट्र रहा है इस बात पर सर्वाधिक बल देना आवश्यक है । संक्षेप में राजाओं और राजकुलों का नहीं अपितु राष्ट्र का, संस्कृति का, समाज का इतिहास सांस्कृतिक इतिहास है।

अन्य विषयों की तरह इस विषय पर भी पाश्चात्य विद्वानों की इतिहासदृष्टि का गहरा साया पड़ा हुआ है। समयनिर्धारण एक ऐसी समस्या बनाई गई है जिसके आधार पर किसी भी बात को नकारा जा सकता है । वही मूलगत दोष है कि भारतीय ज्ञानधारा को अभारतीय मापदण्डों पर सही बताने के प्रयास करना ही विद्वतक्षेत्र अपना पुरुषार्थ का विषय मानता है। इससे उबरना होगा । अपने आपको या अन्य किसीको नकारने के स्थान पर अपना स्वयं के लिये और दूसरों का दूसरों के लिये स्वीकार करना ही उचित रहेगा।

विज्ञान

इस विषय पर यह लेख भी देखें।

आज का युग विज्ञान और वैज्ञानिकता का है ऐसा बहुत उत्साह से कहा जाता है। आज के युग का देवता ही विज्ञान है। बुद्धिमान और श्रेष्ठ लोग ही विज्ञान पढ़ते हैं ऐसी हवा है । इस संदर्भ में सांस्कृतिक दृष्टि से कुछ बातें विचारणीय हैं । आज जिसे विज्ञान कहा जा रहा है वह भौतिक विज्ञान है। यह एक अधूरी और अनुचित संकल्पना है। भारतीय संकल्पना के अनुसार केवल अन्ननरसमय और प्राणमय जगत को ही विज्ञान नाम दिया जाता है ।

वास्तव में विज्ञान का दायरा भौतिक विज्ञान से लेकर आत्मविज्ञान तक का है जिसमें मनोविज्ञान का भी समावेश हो जाता है ।

  • वैज्ञानिकता का सही अर्थ है शास्त्रीयता । यह बुद्धि का क्षेत्र है, तर्क का क्षेत्र है, भारतीय परंपरा से देखें तो न्याय का क्षेत्र है, तत्त्वज्ञान का क्षेत्र है । यहाँ व्याकरण चलता है । जो तर्क से नहीं सिद्ध होता वह वैज्ञानिक नहीं है। आज जो भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता वह मान्य नहीं होता है। इससे मुक्त कर विज्ञान को व्यापक बनाने की आवश्यकता है ।
  • आज का विज्ञान सभी बातों का मापदण्ड नहीं हो सकता । वास्तव में सामाजिकता ही वैज्ञानिकता का भी मापदण्ड बनाना चाहिए । विज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया है । प्रक्रिया कभी निर्णायक नहीं हो सकती । ज्ञान ही निर्णायक होता है । देखा जाय तो विज्ञान सभ्यता के विकास हेतु है और सभ्यता संस्कृति के निकष पर ही न्याय्य होती है। इसलिए विज्ञान संस्कृति के लिए है संस्कृति विज्ञान के लिए नहीं । दृष्टिकोण का यह एक बहुत मूलगामी परिवर्तन है ।
  • तथापि भावना, क्रिया, विचार आदि की अपेक्षा बुद्धि की प्रतिष्ठा विशेष है। अन्य सभी आयामों को बुद्धिनिष्ठ बनाना चाहिए परंतु बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना अपेक्षित है । इस दृष्टि से भी विज्ञान को अध्यात्मनिष्ठ बनाना चाहिए । इस संदर्भ में देखें तो आज विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की जो भाषा बोली जाती है उसे ठीक करना चाहिए । विज्ञान और अध्यात्म तुल्यबल संकल्पनायें नहीं हैं। विज्ञान अध्यात्म का एक हिस्सा है। उसके निकष अध्यात्म में ही हैं। यही भारतीय विज्ञानदृष्टि होगी।
  • भौतिक विज्ञान को पंचमहाभूतात्मक संकल्पना का आधार देना चाहिए। ऐसा करने से हमारे भौतिक विज्ञान के आकलन में बहुत अंतर आ सकता है । उदाहरण के लिए सृष्टि विज्ञान में अष्टधा प्रकृति की कल्पना जुड़ते ही सत्त्व, रज, तम ऐसे तीन गुण जुड़ जाएँगे। जो पदार्थ का स्वरूप ही बदल देगा।
  • प्राणिविज्ञान के क्षेत्र में प्राण का विचार करना ही पड़ेगा । प्राण का विचार करते ही शरीरविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, प्राणिविज्ञान का स्वरूप बदल जाएगा ।
  • मन और मानसिक प्रक्रियाओं का भौतिक जगत पर क्या प्रभाव होता है इसका अध्ययन किए बिना भौतिक विज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन अधूरा ही रहेगा । उदाहरण के लिए अब इस तथ्य का स्वीकार होने लगा है कि जितने भी रोग होते हैं उनका उद्गम मन में होता है और वे प्रकट शरीर में होते हैं । अत: उनका उपचार भी मन को ध्यान में लिए बिना नहीं हो सकता है ऐसा कहना वैज्ञानिक कथन ही होगा । यदि इस विचार को प्रतिष्ठित किया तो चिकित्साशास्त्र का स्वरूप बहुत भारी मात्रा में बदल जाएगा।
  • मनुष्य के शरीर की प्रक्रियाओं को चक्र प्रभावित करते हैं। ये प्राण के क्षेत्र हैं, केवल शरीर के नहीं । साथ ही मानसिक प्रक्रियाओं का इन पर बहुत प्रभाव है । इस बात का विचार अवश्य करना चाहिए। साथ ही भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत की क्या उपलब्धि रही है इसका इतिहास तो वर्तमान संदर्भ ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम का हिस्सा होना ही चाहिए। कारण यह है कि आज भारत में और विश्व में ऐसी समझ बनी है कि विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पाश्चात्य जगत का ही विषय है, भारत तो ध्यान, भक्ति, भावना, कल्पना आदि की दुनिया में ही विहार करता है। भारत में साहित्य और कला की तो उपासना हो सकती है, विज्ञाननिष्ठा नहीं। इस भ्रांति को दूर करने हेतु पुरुषार्थ करने की महती आवश्यकता है।
  • साथ ही भारत की विज्ञान के अध्ययन और अनुसन्धान की पद्धतियाँ क्या रही होंगी इसका भी अनुसन्धान आवश्यक है । उदाहरण के लिए आज के चिकित्साविज्ञान का विकास नहीं हुआ था तब भी भारत में शल्यचिकित्सा होती थी । दूसरा उदाहरण देखें तो मनुष्य के शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं यह हमारे ऋषियों ने कैसे जाना होगा यह विषय ज्ञातव्य है। इस प्रकार विज्ञान, वैज्ञानिकता और वैज्ञानिक पद्धतियों के बारे में नए से अनुसन्धान होने की आवश्यकता है ।

तंत्रज्ञान

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विज्ञान की ही तरह तंत्रज्ञान का भूत भी हमारे मस्तिष्क पर सवार हो गया है। यंत्रों के नए नए आविष्कारों में ही हमारे सारे पुरुषार्थ की परिसीमा हमें लगती है । परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से इस संदर्भ में कुछ इस प्रकार विचार करने की आवश्यकता है।

  • तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान के साथ जुड़ा हुआ नहीं । भौतिक विज्ञान का संबंध केवल यंत्र बनाने की पद्धति और वह काम कैसे करता है यह जानने के जितना सीमित है । यंत्रों का क्या करना यह तय करने का काम समाजशास्त्र का है।
  • आज जिस टेकनोलोजी से हम प्रभावित हुए हैं वह है यंत्रों का प्रयोग करने का शास्त्र। इतिहास में देखें तो भारत में अद्भुत यंत्रसामग्री बनी है। इसकी जानकारी आज की दुनिया को देने की आवश्यकता है।
  • यंत्रों के उपयोग के संबंध में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह मनुष्य की सहायता के लिए होने चाहिए, मनुष्य के कष्ट कम करने के लिए होने चाहिए, मनुष्य का स्थान लेने वाले, उसकी काम करने की कुशलता कम करने वाले, उसका हुनर नष्ट करने वाले और उसकी काम करने की वृत्ति क्षीण कर उसे आलसी और निकम्मा बना देने के लिए नहीं हैं। आज ऐसा ही हो रहा है यह एक भारी चुनौती हमारे सामने है।
  • साथ ही यंत्रों के आविष्कार ने पर्यावरण को नष्ट करने वाले राक्षस का काम किया है । मनुष्य का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी नष्ट होता जा रहा है। अर्थतन्त्र को भयंकर रूप से विनाशक बना दिया है।
  • अर्थात्‌ यंत्र निर्जीव है, वह यह सब नहीं कर सकता है । उसका उपयोग करने वाली बुद्धि का स्वामी मनुष्य है । उसे ही ठीक करने की आवश्यकता है । इसीलिए तंत्रज्ञान सामाजिक विषय है, भौतिक विज्ञान का नहीं । मनुष्य की बुद्धि ठीक हो जाने के बाद जिस प्रकार की तकनीकी का विकास होगा उसके लिए भारत को नए से कुछ नहीं करना पड़ेगा क्योंकि इस क्षेत्र का भारत का इतिहास समृद्ध है ।

भाषा

मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ भाषा अविभाज्य अंग के समान जुड़ी हुई है। भाषाविहीन व्यक्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जब इस जन्म की यात्रा शुरू करता है तब से भाषा उसके व्यक्तित्व का भाग बन जाती है। तब से वह भाषा सीखना शुरू करता है। उसका पिण्ड मातापिता से बनता है। इसमें रक्त, माँस की तरह भाषा भी होती है। इसलिये मातापिता की भाषा के संस्कार उसे गर्भाधान के समय से ही हो जाते हैं। इसलिये मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के लिये निकटतम होती है। जब व्यक्ति गर्भावस्था में होता है तब उसके कानों पर उसके मातापिता तथा अन्य निकट के व्यक्तियों की भाषा पड़ती है। वह उन शब्दों के अर्थ बुद्धि से नहीं समझता है; क्योंकि उसकी बुद्धि तब सक्रिय नहीं होती है। उस अवस्था में सबसे अधिक सक्रिय चित्त होता है। चित्त पर सारे अनुभव संस्कारों के रूप में गृहीत होते हैं। ये सारे संस्कार इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य होते हैं। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि तो मातापिता तथा अन्य व्यक्तियों के होते हैं। उनके ये सारे अनुभव गर्भस्थ शिशु संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। उस समय न वह बोल सकता है, न समझ सकता है तथापि उसका भाषा शिक्षण अत्यन्त प्रभावी रूप से होता है। इस समय वह न केवल भाषा का ध्वन्यात्मक अनुभव करता है, वह उसका मर्म भी ग्रहण करता है। यह ग्रहण बिना किसी गलती का होता है। इस प्रकार जब वह जन्म लेता है तब वह एक समृद्ध भाषा अनुभव का धनी होता है। उसकी अभिव्यक्ति वयस्क मनुष्य की अभिव्यक्ति के समान नहीं होती है यह तो हम सब जानते हैं। अभिव्यक्ति के मामले में वह अक्रिय होता है परन्तु इसी कारण से ग्रहण के मामले में वह अत्यधिक सक्रिय होता है।

भाषा मनुष्य की विशेषता है। भाषा संवाद का माध्यम है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी जीव एकदूसरे से अपनी अपनी पद्धति से संवाद तो करते हैं परन्तु उसे भाषा नहीं कहा जा सकता। “या भाष्यते सा भाषा' - जो बोली जाती है वह भाषा है - ऐसा भाषा का अर्थ बताया जाता है। मनुष्य को छोड़कर अन्य जीव बोलते नहीं है इसलिये उनकी भाषा भी नहीं होती।

आज हम भाषा के दो रूप मानते हैं। एक है मौखिक और दूसरा है लिखित। परन्तु भाषा का मूल रूप मौखिक ही है। लिखित रूप गौण है, अत्यन्त गौण है। विश्व में गूँगों को छोड़कर लगभग सभी बोल सकते हैं परन्तु उनके अनुपात में बहुत कम लोग लिख सकते हैं। मनुष्य अपने जीवन में भी पहले बोलने लगता है, बाद में लिखने। लिखना न भी आये तो चलता है, बोलना नहीं आया तो नहीं चलता। बोलना तो बरबस होता है, लिखना प्रयास से होता है। अतः: भाषा मूलत: बोलना ही है। बोलने से ही उसकी परिभाषा बनी है।

भाषा का केवल वाचिक रूप ही नहीं होता है। वह भावात्मक भी होता है। शिशु अवस्था में, जब तक शिशु बोलना नहीं सीखता वह भाषा का भावात्मक रूप ग्रहण करता है। शब्द और अर्थ मिलकर भाषा बनती है। वह भाषा का अर्थरूप पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, शब्द रूप संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। शब्द का उच्चारण करने के लिये उसका ध्वनितन्त्र पर्याप्त रूप से सक्षम चाहिये। जन्म के समय वह उतना सक्षम नहीं होता है। उसे सक्रिय बनाने की दिशा में उसका अखण्ड पुरुषार्थ चलता है। रोना, चिल्लाना, हँसना, तरह तरह की आवाजें निकालना, शब्द के उच्चारण की ही पूर्व तैयारी होती है। जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वह पूर्ण रूप से उच्चारण सीखता जाता है। स्वर और व्यंजनों का सही उच्चारण, बल, हस्व और दीर्घ, आरोह, अवरोह आदि वह सुनकर ही सीखता है। सुनने के अलावा भाषा सीखने का और कोई तरीका नहीं है। जो सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता यह सार्वत्रिक नियम है। जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है।

भाषा का सम्बन्ध नाद से है। नाद का अर्थ है वाणी, अर्थात्‌ आवाज। नाद सृष्टि की उत्पत्ति का आदि कारण है। उसे नादब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म नादस्वरूप है ऐसा उसका अर्थ है। सृष्टि जैसे जैसे फैलने लगी और विविध रूप धारण करने लगी बैसे वैसे नाद भी विविध रूप धारण करने लगा। सर्व प्रकार की ध्वनियों का मूल रूप है ॐ। इसलिये वह भी ब्रह्म का ही वाचक है। ध्वनि के विविध रूप सृष्टि के विविध रूपों के साथ आन्तरिक रूप से ही जुड़े हुए हैं। इस सम्बन्ध का कभी विच्छेद नहीं हो सकता। एक बात समझने योग्य है कि ३७ अनेक ध्वनियों में से एक ध्वनि नहीं है, वह सभी ध्वनियों का मूल रूप है। सारे ध्वनि रूप उसमें से निःसृत हुए हैं।

व्यवहार में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसके दो आयाम हैं। ये दो आयाम एक सिक्‍के के दो पहलू जैसे हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता है। ये दो पहलू हैं शब्द और अर्थ। शब्द है वाक्‌ अर्थात्‌ वाणी अर्थात्‌ ध्वनि और अर्थ है उसका व्यावहारिक सन्दर्भ। व्यावहारिक जीवन में विचार, भावनायें, इच्छायें, अपेक्षायें, तर्क, अनुमान, संवेदनायें आदि सब होते हैं। जब इन सबको ध्वनि रूप प्राप्त होता है तब भाषा जन्म लेती है। व्यावहारिक सन्दर्भ अर्थात्‌ अर्थ और शब्द का सम्बन्ध कितना एकात्म है यह दर्शाते हुए कविकुलगुरू कालिदास ने पार्वती और शंकर के सम्बन्ध का वर्णन किया है। वे लिखते हैं[5]

वागर्थाविव सम्पृक्तौ वार्थप्रतिपत्तये ।

जगत: पितरौ बन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ||

अर्थात्‌ वाणी के अर्थ की सिद्धि हेतु जिस प्रकार वाक्‌ और अर्थ जुड़े हैं उसी प्रकार एकदूसरे से जुड़े हुए जगत के मातापिता पार्वती और परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। पार्वती और परमेश्वर एक दूसरे के साथ कितने एकात्म भाव से जुड़े हुए हैं यह हम सब जानते हैं। उनके सम्बन्ध का वर्णन करने के लिए शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की उपमा दी जाती है। यही शब्द और अर्थ की एकात्मता का द्योतक है। इसका तात्पर्य यह है कि भाषा का विचार करते समय हमें ध्वनि और अर्थ दोनों का अलग अलग और एकसाथ विचार करना होगा।

भाषा के शब्द रूप की बात करें तो प्रथम हमें देखना होगा कि ध्वनि का सम्बन्ध कहाँ कहाँ किन किन से किस किस प्रकार का है। ध्वनि का सम्बन्ध पंचमहाभूतों के साथ है। पंचमहाभूत हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश। इनमें शब्द आकाश का विषय है। सभी भूतों में आकाश सूक्ष्मतम है अर्थात्‌ व्यापकतम है। वह शेष सभी भूतों को भी व्याप्त कर लेता है। शब्द आकाश महाभूत का विषय है इसका अर्थ यह है कि वह आकाश के माध्यम से गति करता है। आकाश अनन्त है इसलिये शब्द भी अनन्त है। भाषा के ध्वनिरूप को अक्षर कहा जाता है। अक्षर वह है जिसका कभी क्षरण नहीं होता अर्थात्‌ नाश नहीं होता। अक्षर भी ब्रह्म का ही नाम है। भाषा के शब्दमय पहलू की लघुतम इकाई अक्षर है। अक्षर ध्वनिरूप होता है इसलिए उसका उच्चारण होता है। उच्चारण के सन्दर्भ में अक्षर का सम्बन्ध वाक्‌ नाम की कर्मन्द्रिय से है। ध्वनि शब्द है इसलिये उसका सम्बन्ध श्रवणेन्द्रिय से है। श्रवणेन्द्रिय और वागीन्द्रिय दोनों से संबन्धित होने के कारण सुनने और बोलने की प्रक्रिया बनती है। सुनने और बोलने के सम्बन्ध से सुनने वाले और बोलने वाले का भी सम्बन्ध बनता है।

यही संवाद का माध्यम है। अक्षर अक्षर से बनी भाषा मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध का एक बहुत बड़ा सशक्त माध्यम बनती है। भाषा में वाणी नामक कर्मेन्द्रिय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। शारीरिक दृष्टि से स्वर्यन्त्र ठीक होना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही श्वसन की सही पद्धति, बैठने की सही पद्धति और छाती में दम होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि छाती में दम नहीं है तो उच्चारण दुर्बल होता है। यदि श्वसन अभ्यास ठीक नहीं है तो उच्चारण स्पष्ट नहीं होता है। यदि स्वरयन्त्र ठीक नहीं है तो उच्चारण अशुद्ध होता है। अभ्यास का महत्त्व अनन्यसाधारण है। अभ्यास से भाषा प्रभावी बनती है।

ध्वनिरूप में अक्षर का सम्बन्ध प्राण से है। मनुष्य के भीतर के प्राण के साथ भी है और सृष्टि के प्राणतत्त्व के साथ भी है। प्राण के बिना उच्चारण सम्भव ही नहीं है। अत: प्राणशक्ति के बलवान होने और नहीं होने का प्रभाव अक्षर के उच्चारण पर पड़ता है। अक्षर का सम्बन्ध मनस्तत्त्व के साथ भी है। व्यक्ति के भीतर मनस्तत्त्व के साथ भी और सृष्टि के मनस्तत्त्व के साथ भी। अक्षर का सम्बन्ध शरीर के भीतर के अन्यान्य चक्रों के साथ है, अन्यान्य अंगों के साथ भी है। विभिन्न अंगों के साथ सम्बन्धित होकर मूल ध्वनि भिन्न भिन्न रूप धारण करती है यथा ओष्ट के साथ सम्बन्धित होकर प, फ, ब, भ, म बनता है; दाँत के साथ सम्बन्धित होकर त, थ, द, ध, न बनता है आदि। ऐसे विभिन्न रूप धारण किए हुए अक्षर शरीर के भीतर के विभिन्न चक्रों में स्थान प्राप्त करते हैं। इन चक्रों का प्रभाव मनुष्य के संवेगों, संवेदनाओं, भावनाओं तथा क्रियाओं पर होता है। संक्षेप में अक्षर का सम्बन्ध मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के साथ बनता है, साथ ही वह मनुष्य का अन्य मनुष्य के साथ और सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध बनाता है।

भाषा की मूल इकाई अक्षर है परन्तु इसकी व्याप्ति सम्पूर्ण जीवन है। सम्पूर्ण जीवनरूपी भवन की एक एक ईंट अक्षर है। इस अक्षर के भिन्न भिन्न पदार्थों के साथ जुड़ने के कारण अनेक रूप बनते हैं। इसलिये अक्षरों के उच्चारण का बहुत बड़ा शास्त्र बना है। उस शास्त्र को शिक्षा कहा गया है। आज हम अंग्रेजी शब्द एज्यूकेशन को शिक्षा कहते हैं उस अर्थ में यह शिक्षा नहीं है। वेद के जो छः अंग हैं उनमें एक अंग शिक्षा है। वह उच्चारणशास्त्र है। अनेक विद्वानों के शिक्षाग्रन्थ उपलब्ध हैं यथा पाणिनीय शिक्षा, याज्ञवल्क्यशिक्षा आदि। इन ग्रन्थों में अक्षर के विभिन्न रूप और उनके उच्चारण की पद्धति का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है।

जिस प्रकार अव्यक्त ब्रह्म व्यक्त रूप धारण करता है तब वह अनेक रूपों से युक्त विश्वरूप धारण करता है, उसी प्रकार शब्द भी अव्यक्त से व्यक्त रूप धारण करता है। यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के चार चरण हैं। अक्षर के या वाकू के, या शब्द के, या वाणी के चार रूप हैं। परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी। परा वाणी का ब्रह्मरूप है। इस स्तर पर वह नादब्रह्म है। पश्यन्ति वाणी का मूल व्यक्त रूप है जिसका सम्बन्ध मूलाधार चक्र के साथ है। इस स्तर पर शब्द संकल्पना का रूप धारण करता है। तीसरा मध्यमा वाणी का भाव रूप है। इसका सम्बन्ध अनाहत चक्र से है जो हृदयस्थान भी है। चौथा वैखरी रूप पूर्ण व्यक्त रूप है। यह श्रवणेन्द्रिय को सुनाई देता है। वेद का अंग शिक्षा परा वाणी को वैखरी तक लाने की प्रक्रिया सिखाने वाला शास्त्र है।

भाषा के चार कौशल गिनाये जाते हैं। ये हैं श्रवण, भाषण, पठन और लेखन। इनमें मूल श्रवण और भाषण हैं। पठन और लेखन वाचिक स्वरूप का वर्ण रूप में रूपान्तरण है। श्रवण दूसरे के भाषण का अनुसरण करता है और पठन दूसरे के लेखन का अनुसरण करता है। अतः: भाषा कभी भी अकेले में नहीं सीखी जाती, दो मिलकर ही सीखी जाती है। अत: भाषा सीखने में सिखाने वाले की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रहती है।

भाषा का दूसरा अंग है पद । पद को शब्द भी कहा जाता है। यहाँ शब्द का अर्थ केवल ध्वनि नहीं है, ध्वनि के उपरान्त कुछ और भी है। ध्वनिरूप अक्षरों के साथ जब जीवन में व्याप्त अर्थ जुड़ता है तब वह ध्वनिसमूह पद बनता है। पदों की रचना का भी एक बहुत विस्तृत शास्त्र है। पदों की स्वना को व्युत्पत्ति कहते हैं और व्युत्पत्ति के शास्त्र को निरूक्त कहते हैं। पद एक व्यवस्था तो है परन्तु वह अनुरणन, आकार, क्रिया आदि अनेक बातों से सम्बन्ध रखने वाली व्यवस्था है। वह कृत्रिम व्यवस्था नहीं है। एक दो उदाहरण सहायक होंगे। 'हृदय' पद तीन क्रियाओं का वाचक है। आहरति अर्थात्‌ लाता है का "ह", ददाति अर्थात देता है का "द" और यमयति अर्थात्‌ नियमन करता है का "य" ऐसे तीन अक्षरों से हृदय पद बना है। ये तीनों हृदय के कार्य हैं। इस प्रकार पदों की निश्चिति भी जीवन के साथ सम्बन्ध जोड़कर होती है।

पदों को जोड़ जोड़ कर वाक्य बनता है। कहने का आशय व्यक्त करने के लिये जो व्यवस्था की गई है वह व्याकरण कहलाती है। व्याकरणशास्त्र भी बहुत विस्तृत शास्त्र है। इस शास्त्र की मूल इकाई वाक्य है। अनेक वाक्यों से फिर अनुच्छेद बनता है। अनुच्छेदों की रचना आशय को ध्यान में रखकर ही होती है। भाषा का व्याकरण भी शिशु अवस्था में ही अवगत हो जाता है। उसका रूप क्रियात्मक होता है, शास्त्रीय नहीं। भाषा प्रयोग के समय अंगविन्यास भी महत्त्वपूर्ण है। अंगविन्यास भी शिशु अधिकांश देखकर और कुछ मात्रा में बोलने की स्वाभाविक आवश्यकता के रूप में सीख लेता है। जब तक भाषा का अनुभव जीवनक्रम के साथ स्वाभाविक रूप में जुड़ा रहता है तब तक सीखना अनायास होता है, अर्थात्‌ आवश्यकता के अनुसार भाषा अवगत होती रहती है। परन्तु जब औपचारिक शिक्षा शुरू होती है भाषा की शिक्षा कुछ मात्रा में कृत्रिम होती जाती है।

जीवन के समस्त पहलुओं को शब्दों में व्यक्त करने का साधन भाषा है। जीवन में घटनायें होती हैं, स्थितियाँ होती हैं, सजीव निर्जीव पदार्थ होते हैं, व्यवस्थायें होती हैं, मनोभाव होते हैं, संवेग और आवेग होते हैं, विचार होते हैं, संस्कार होते हैं। इस सूचि को भिन्न भिन्न व्यक्ति भिन्न भिन्न पद्धति से बना सकते हैं। संक्षेप में यह ऐसा सबकुछ है जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में तथा समष्टिगत जीवन में होता है। भाषा इन सभी की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। इस प्रकार भाषा का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है।

देखा तो यह गया है कि जीवन का अनुभव जितना व्यापक और गहरा होता है, अर्थ का बोध उतनी ही मात्रा में गहरा होता है । भाषा अपने आप उसे व्यक्त करने योग्य हो जाती है। महाराष्ट्र की बहिणाबाई और सन्त कबीर जैसे कवि अशिक्षित थे परन्तु उनकी भाषा उनके अनुभव को व्यक्त करने में समर्थ थी। तात्पर्य यह है कि भाषा जीवन के बोध का अनुसरण करती है, शब्द रूप साधन की समृद्धि का नहीं। बिना अनुभव के अलंकूृत शब्द निररर्थकता का आभास करवाते ही हैं।

जितने भी प्रकार के अभिव्यक्ति के माध्यम हैं उनमें भाषा श्रेष्ठतम है। उदाहरण के लिये चित्र, संगीत, अभिनय आदि अभिव्यक्ति के माध्यम हैं परन्तु भाषा उन सबसे श्रेष्ठ है। कारण यह है कि वह नादबव्रह्म का आविष्कार है, अपने भौतिक स्वरूप में भी वह सूक्ष्मतम है और उसमें अनंत सृजनशीलता है। समाधि अवस्था के अनुभव की अभिव्यक्ति के समय वह मंत्र रूप में प्रकट होती है।

इतनी विभिन्न अभिव्यक्तियों में भाषा के साथ उच्चारणशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र, व्याकरणशास्त्र और अलंकारशास्त्र जुड़े हुए हैं। विभिन्न प्रकार के छन्द और अलंकार

तथा उनके विनियोग के... भाषा के पठन पाठन में इन बातों की ओर ध्यान देना

कारण निष्पन्न होने वाली शैली अलंकारशास्त्र का विषय है।... आवश्यक है।

सन्धि उच्चारणशास्त्र का अंग है, समास शब्दरचना से

सम्बन्धित विषय है, पदलालित्य, अर्थगौरव भी शैली के ही ८,

अंग हैं। दुन्यवी सन्दर्भ में व्यापक वाचन शब्दसंपत्ति बढ़ाने में

उपयोगी है, व्याकरण का अध्ययन शुद्ध भाषा के लिये

उपयोगी है, अलंकारशास्त्र का अध्ययन शैली का विकास

शुद्ध भाषा, मधुर भाषा, ललित भाषा, प्रभावी. करने में उपयोगी होता है, व्याकरण ak fen a

भाषा, सार्थक भाषा, भावपूर्ण भाषा आदि भाषा को... अध्ययन शुद्धता और अर्थवाहिता हेतु उपयोगी है, काव्य

शोभायमान बनाने वाले पहलू हैं। बुद्धि, मन, चित्त आदि... का अध्ययन सृजनशीलता के लिये उपयोगी है। परन्तु यदि

अन्तःकरण और हृदय भाषा को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण. जीवन के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं है तो यह सारा

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योगदान देते हैं। अध्ययन बिना एक के शून्य जैसा है।

संगीत भाषा की मधुरता के लिये अत्यन्त भाषा सिखाने के लिये मूल से प्रारम्भ करना चाहिये।

उपकारक है। सीधा व्याकरण पढ़ना या केवल चार कौशलों पर ध्यान

जीवन का घनिष्ठतम अनुभव भाषा को समृद्ध बनाता... केन्द्रित करना या प्रश्नोत्तर के स्वाध्याय करवाना बहुत

है। ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनक्षमता, मन की शान्ति, बुद्धि की... सार्थक सिद्ध नहीं होता है। भाषा सभी आधारभूत विषयों

तेजस्विता और चित्तशुद्धि जीवन के घनिष्ठतम अनुभव हेतु. का आधारभूत विषय है। उसका महत्त्व समझकर उसके

आवश्यक हैं। जीवन में रुचि होना भाषा को सार्थक बनाता... अध्ययन अध्यापन की योजना करनी चाहिये।

है। पंचमहाभूतों के साथ आत्मीयता, वनस्पति और

प्राणिजगत के प्रति स्नेह और मनुष्यों के प्रति सद्भाव १९.

जीवन का सार्थक अनुभव प्रदान करते हैं। भाषा इसका सृष्टि की अनन्त असीम विविधताओं को मनुष्य

अनुसरण करती है। व्यावहारिक प्रयोजन के लिये व्यवस्था में बाँधता है। ऐसा

भाषा सीखने का अर्थ है ये सारी बातें सीखना। भाषा... करते समय वह मूल के साथ कितना निष्ठावान रहता है

केवल श्रवण, भाषण, पठन और लेखन के ale dH उसके ऊपर उस व्यवस्था की शुद्धि का आधार होता है।

सीमित नहीं है। शुद्ध, मधुर, प्राणवान और अर्थपूर्ण अतः व्यवस्था बनाते समय इस मूल को समझना अनिवार्य

उच्चारण, शास्त्रशुद्ध व्याकरण, आशय के अनुरूप शैली. रूप से आवश्यक होता है। भाषा के सम्बन्ध में भी यही

और परावाणी से अनुस्यूत वैखरी भाषाप्रभुत्व के लक्षण हैं। . सत्य है।

उपसंहार

यहाँ कुछ विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप देने का प्रयास हुआ है। हर विषय के बारे में इस प्रकार से विचार करना

चाहिए । भारतीय ज्ञानधारा को परिष्कृत कर विश्वकल्याण हेतु उसे पुनर्प्रवाहित करने हेतु भारतीय ज्ञानक्षेत्र को महती

ज्ञानसाधना करने की आवश्यकता है इतना ही कहना प्राप्त है ।

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References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. शब्दकल्पद्रुम
  3. महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 75, श्लोक 50
  4. श्रीमदभगवद्गीता ७.११
  5. रघुवंश १-१