Difference between revisions of "विषयों का अंगांगी सम्बन्ध"

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निम्नलिखित वचन यही बात समझाते हैं<ref>श्रीमद भगवद्गीता ७.११  </ref> -<blockquote>बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।</blockquote><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>सभी प्राणियों में धर्म के अविरोधी काम मैं हूँ ।
 
निम्नलिखित वचन यही बात समझाते हैं<ref>श्रीमद भगवद्गीता ७.११  </ref> -<blockquote>बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।</blockquote><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>सभी प्राणियों में धर्म के अविरोधी काम मैं हूँ ।
  
“अर्थशास्त्रात तु बलवत्‌ धर्म शास्त्रं इति स्मृत: ।'
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अर्थशास्त्रात तु बलवत्‌ धर्म शास्त्रं इति स्मृत: ।{{Citation needed}}
  
 
अर्थशास्त्र से धर्मशास््र बलवान है ।
 
अर्थशास्त्र से धर्मशास््र बलवान है ।

Revision as of 14:51, 6 March 2021

इस विषय पर यह लेख भी देखें।

वर्तमान सन्दर्भ

विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले विभिन्न विषयों का प्रयोजन क्या होता है, इस विषय में व्यापक सन्दर्भ में पुनर्विचार करने की आवश्यकता निर्माण हुई है[1]। ऐसा विचार करते हैं तब ध्यान में आता है कि शिक्षा से जुड़े विभिन्न पक्ष शिक्षा को और किसी एक विषय को भिन्न भिन्न दृष्टि से देखते हैं और उसके ही अनुसार भिन्न भिन्न तरीके से पेश आते हैं ।

इस भिन्नता का वर्गीकरण कुछ इस प्रकार से किया जा सकता है:

  1. छात्र के लिये दो प्रेरक तत्त्व होते हैं । एक होता है रुचि (अथवा जिज्ञासा) । दूसरा होता है अर्थार्जन के अवसरों की उपलब्धि की आकांक्षा । इनके अनुरूप मानसिक और बौद्धिक क्षमता है कि नहीं यह एक अन्य निर्णायक कारक भी है। रुचि, जिज्ञासा और अर्थार्जन की आकांक्षा जब परस्पर अनुकूल होते हैं तब छात्र की शिक्षा व्यक्तिगत रूप से ही सही, परन्तु अर्थपूर्ण होती है । जब वे एक दूसरे के अनुकूल नहीं होते तब शिक्षा यान्त्रिक बन जाती है । रुचि, जिज्ञासा और अर्थार्जन जब परस्पर अनुकूल और अनुरूप नहीं होते हैं तब सही और उपयुक्त प्रेरक तत्त्व रुचि और जिज्ञासा होने चाहिये, न कि अर्थार्जन की आकांक्षा । परन्तु वर्तमान में वह अर्थार्जन की आकांक्षा ही बनकर रह गया है । इसके भी कई कारण हैं, परन्तु उनकी चर्चा इस लेख का विषय नहीं है ।
  2. छात्र के मातापिता और परिवार के लिये विषय निर्धारण के प्रेरक तत्त्व तीन प्रकार के होते हैं । एक होता है छात्र का ज्ञानात्मक विकास, दूसरा होता है छात्र को अर्थार्जन के अवसरों की उपलब्धि और तीसरा होता है छात्र की, और उसके कारण से परिवार की समाज में प्रतिष्ठा । इसमें भी छात्र के ज्ञानात्मक विकास के कारण समाज में प्रतिष्ठा यह परिवार और समाज दोनों के लिये सही और उपयुक्त स्थिति है। परन्तु हम देखते हैं कि वर्तमान में ऐसी स्थिति नहीं है । इसके भी कई प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण हैं ।
  3. विषयों के चयन और निर्धारण में वास्तव में समाज की भूमिका अहम होनी चाहिये । समाज को अपनी ज्ञानात्मक, सांस्कृतिक और आर्थिक समृद्धि के लिये शिक्षा की आवश्यकता होती है, इसलिये समाज निर्धारक और नियन्त्रक कारक होना चाहिये । परन्तु आज समाज की भूमिका ऐसी नहीं रही है । समाज के स्थान पर दो संस्थायें नियन्त्रक बन गई हैं । एक है शासन और दूसरी है प्रबन्ध समिति । देशव्यापी या राज्यव्यापी शिक्षाव्यवस्था में शासन नियन्त्रक है, और शिक्षासंस्था के स्तर पर प्रबन्ध समिति ।

प्रजाहित शासन का एकमात्र प्रयोजन होना अपेक्षित है । प्रजा का ज्ञानात्मक और सांस्कृतिक विकास, व्यक्ति और देश की आर्थिक समृद्धि, व्यक्तिगत और सामाजिक सुरक्षा और सम्मान यह प्रजाहित का प्रथमदर्शी स्वरूप है । साथ ही देश की आन्तरिक और सीमा सुरक्षा, विश्व में देश की प्रतिष्ठा और शासन प्रशासन की, संचालन की आवश्यकता भी राज्यव्यवस्था का प्रयोजन होता है । शिक्षासंस्थाओं के संचालकों की भूमिका शासन के इस प्रयोजन को प्राप्त करने में सहयोगी और सहभागी बनने की होती है, न कि व्यक्तिगत रूप से अर्थार्जन, प्रतिष्ठा या अन्य प्रकार के सामाजिक या राजकीय लाभ उठाने हेतु संसाधन जुटाने की । इस क्षेत्र में भी आज बहुत बड़ी अनवस्था है यह हम देखते ही हैं । विषयों के चयन और निर्धारण के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और शासकीय स्तरों की इस प्रकार की भूमिका और दृष्टि के समवेत परिणाम बहुत अनुकूल नहीं हो रहे हैं यह तो व्यक्ति की या देश की वर्तमान स्थिति देखते हुए स्पष्ट रूप से समझ में आता है । देश की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति सन्तोष और आनन्द देने वाली नहीं है यह स्पष्ट है । इसीलिये विषयों के निर्धारण और चयन के विषय में पुनर्विचार करना आवश्यक है ।

व्यापक सन्दर्भ

व्यक्ति हो या समाज सब सुख चाहते हैं । सभी पुरुषार्थों का आलम्बन यही है । सुख सबको प्रिय होता है इसलिये सुख को प्रेय कहते हैं । परन्तु प्रेय के साथ श्रेय भी जुड़ा हुआ है । श्रेय का अर्थ है कल्याण । प्रेय और श्रेय दोनों की प्राप्ति अपेक्षित है । व्यक्ति के जीवन में प्रेय का सम्बन्ध इन्द्रियों से है । श्रेय का सम्बन्ध आत्मा से है । इन्द्रियाँ जब आत्मा के अधीन होती हैं तब श्रेय भी प्रेय बन जाता है, श्रेय प्रेय एकरूप होते हैं । श्रेय को प्रेय बनाना शिक्षा का व्यक्तिगत स्तर पर मुख्य प्रयोजन है । व्यक्ति को सुरक्षा चाहिये, सम्मान चाहिये, गौरव चाहिये और स्वतन्त्रता चाहिये । इन सबका स्वरूप शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक है । अर्थात्‌ उसे इन सभी स्तरों पर सुरक्षा, सम्मान, गौरव और स्वतन्त्रता चाहिये । इन सभी में भी स्वतन्त्रता परम प्रयोजन है । इन सभी की प्राप्ति हो, यह शिक्षा का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है ।

इस सृष्टि में व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता है । उसका जीवन प्रकृति पर निर्भर होता है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचमहाभूतों के बिना उसका जीवन सम्भव नहीं होता है । सृष्टि में स्थित प्राणतत्त्व, मनस्तत्त्व, बुद्धितत्व के बिना उसके जीवन को रूप ही प्राप्त नहीं होता है। सृष्टि में अनुस्यूत चैतन्य के बिना उसके जीवन का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है । विश्व के मानव समुदाय के सहयोग, स्नेह और सद्धाव के बिना मनुष्य का भौतिक और भावनिक जीवन सम्भव नहीं होता है । प्रेय और श्रेय व्यक्ति का, मानव समुदाय का, चराचर मानवेतर सृष्टि का प्रयोजन होता है । इस प्रयोजन को प्राप्त करने का दायित्व और क्षमता मनुष्य के ही पास होते हैं। इस दायित्व को व्यक्तिगत रूप से मनुष्य को ही निभाना होता है । सम्पूर्ण मानव समुदाय और चराचर मानवेतर सृष्टि जब तक प्रेय और श्रेय को प्राप्त नहीं करती तब तक मनुष्य को व्यक्तिगत रूप से भी इनकी प्राप्ति नहीं हो सकती । इस दृष्टि से मनुष्य को व्यक्ति के रूप में शेष मानव समुदाय और चराचर सृष्टि के साथ समायोजन करना होता है । ऐसा समायोजन ही अन्ततोगत्वा व्यक्ति को अपने निज स्वरूप का बोध करवाता है । शिक्षा मनुष्य को यह समायोजन करना सिखाती है । शिक्षा का यह व्यापक सन्दर्भ है।

तात्त्विक सन्दर्भ

इस सृष्टि की रचना को समझने का प्रयास करते हैं तब तीन तत्त्वों का विचार करना प्राप्त है । ये तीन तत्त्व हैं प्रकृति, पुरुष और परमात्मा । श्रीमद्भगवद्गीता तीनों के लिये पुरुष संज्ञा का ही प्रयोग करती है और तीन विशेषणों से उनका भिन्नत्व दर्शाती है । श्लोक है[2]

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।15.16।।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।

यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।15.17।।

अर्थात्‌

इस सृष्टि में दो प्रकार के “पुरुष हैं । एक है क्षर और दूसरा अक्षर । यह सारी भौतिक सृष्टि क्षर है । वह जड़ है । उसे ही प्रकृति कहते हैं । दूसरा है चेतन तत्त्व जो सारे जड़ तत्त्व में अनुस्यूत होकर रहता है । वह स्वयं कुछ करता नहीं है, जड से करवाता है । इसलिये वह कूटस्थ है । उसे भी सांख्य दर्शन और गीता में “पुरुष' कहा है। तीसरा है उत्तम पुरुष । उसे परमात्मा कहते हैं । वह सर्वत्र व्याप्त है । उत्तम पुरुष अथवा परमात्मा ही कूटस्थ पुरुष और क्षर पुरुष अर्थात्‌ प्रकृति में विभक्त हुआ है। विभक्त होने का प्रयोजन सृष्टि की रचना करना है । सृष्टिरचना की प्रक्रिया उस अव्यक्त परमात्मा के व्यक्त होने की प्रक्रिया है । परमात्मा के व्यक्तरूप इस सृष्टि में मनुष्य का अत्यन्त विशिष्ट स्थान है । इसका कारण यह है कि मन, बुद्धि और चित्त केवल मनुष्य में ही सक्रिय रूप में व्यवहार करते हैं । इस कारण से ही मनुष्य को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति अथवा अभिव्यक्ति कहा गया है ।

इस कारण से इस सृष्टि में दो प्रकार की सृष्टियों का अस्तित्व हुआ है । एक है परमात्मा की सृष्टि और दूसरी है मनुष्य द्वारा निर्मित सृष्टि । मनुष्य को छोड़कर सारी सृष्टि प्रकृति के द्वारा नियन्त्रित होती है । वह अपने सहज स्वभाव से प्रकृति से प्रेरित होकर ही व्यवहार करती है । उदाहरण के लिये अग्नि स्वभाव से ही प्रकाश और उष्णता देती है । पानी स्वभाव से ही शीतल होता है। वह बिना किसी प्रयास से या प्रशिक्षण से ऊपर से नीचे की ओर ही बहता है । गाय कभी भी किसी भी प्रकार से माँसाहारी नहीं हो सकती । कोई भी प्राणी भूख से अधिक नहीं खाता । अर्थात्‌ सभी अपने अपने प्रकृतिदत्त स्वभाव के ही नियमन में रहकर व्यवहार करते हैं। परन्तु मनुष्य का ऐसा नहीं है। परमात्मा ने उसे शरीर, मन, बुद्धि का सामर्थ्य दिया है और स्वतन्त्रता भी दी है। स्वतन्त्रता के साथ दायित्व भी निहित होता है । दायित्व के साथ कर्तृत्व भी होता ही है । कर्तृत्व के साथ अपनी स्वतन्त्रता से प्रेरित होकर जो कुछ भी करता है उसका परिणाम भी उसे ही भोगना होता है। मनुष्य जो कुछ भी करता है उसे जानता भी है। अर्थात्‌ जानने की शक्ति भी उसे मिली है । मनुष्य में अहंकार के रूप में व्यक्त होकर परमात्मा ने उसमें स्वेच्छा और स्वतन्त्रता तथा कर्तृत्व, भोक्तर्त्व और ज्ञातृत्व दिये हैं, और दायित्व भी उसके साथ जोड़ दिया है। इन सबकी मिलकर मनुष्य की सृष्टि बनती है।

मनुष्य की इस सृष्टि में ज्ञान है, विचार है, भावना है, इच्छा है, रागद्वेष हैं, लोभमोह हैं, हर्षशोक हैं, कामक्रोध हैं, सृजन और निर्माण हैं, दया, करुणा, मैत्री, अनुकम्पा, सहानुभूति, प्रेम हैं, कल्पनाविलास है । अर्थात्‌ परमात्मा की सृष्टि के अन्तर्गत मनुष्य ने जो सृष्टि बनाई है उसके ये सब प्रेरक तत्त्व हैं । मनुष्य अपनी सृष्टि की रचना करने के लिये जो चिन्तन करता है उसका परिणाम है विभिन्न प्रकार के शास्त्र । यह उसकी बुद्धि का क्षेत्र है। परन्तु उसकी बुद्धि स्वयंपूर्ण नहीं है । उसे आत्मनिष्ठ होना है । अर्थात्‌ उसे आत्मिक अधिष्टान चाहिये । यह अनुभूति का क्षेत्र है। इस सृष्टि के मूल स्रोत परमात्मा की इस सृष्टि की, इस जीवन की, इस जगत की और अपनी स्वयं की अनुभूति होना अनिवार्य है। इस अनुभूति को उन लोगों को, जिन्हें अनुभूति नहीं हुई है, समझाने के लिये सर्व प्रकार के शास्त्रों की रचना होती है । इन शास्त्रों के आधार पर सर्व प्रकार के मानुषी व्यवहार निर्देशित होते हैं। इन व्यवहारों का सुचारू रूप से निर्वहण करने के लिये सारी व्यवस्थायें बनती हैं । शिक्षा इन व्यवस्थाओं और व्यवहारों को तथा इनके पीछे रहे चिन्तन को सर्व जन समाज तक पहुँचाने के लिये होती है । साथ ही वह इन सबको एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करने के लिये भी होती है ।

शास्त्रों की रचना और व्यवस्थिति का स्वरूप

मुख्य रूप से शास्त्र दो प्रकार के होते हैं । एक होते हैं परमात्मा की रचना समझने के लिये, और दूसरे होते हैं मनुष्य द्वारा की गई रचना को समझने के लिये । परमात्मा की रचना को प्रकृति कहते हैं जबकि मनुष्य की रचना को संस्कृति । अत: शास्त्रों के भी दो प्रकार हुए: एक प्राकृतिकशास्र और दूसरे सांस्कृतिकशास्त्र। आज जिन्हें सामान्य रूप से विज्ञान कहा जाता है, अर्थात्‌ सभी भौतिक और प्राणीविज्ञान प्राकृतिकशास्र हैं । मनुष्य के जीवन को सुखी बनाने के लिये जितने भी शास्त्र हैं वे सब सांस्कृतिकशास्त्र हैं । इन दोनों से भी पूर्व परमात्मा को समझने के लिये जो शास्त्र है वह है अध्यात्म शास्त्र। यह शास्त्र सभी प्राकृतिक और सांस्कृतिक शास्त्रों से परे है, पहले है और मूल है।

सभी प्राकृतिकशास्त्रों की व्यवस्थिति के तीन स्तर हैं। प्रथम है रचना समझना, दूसरा है उस रचना के अनुसार व्यवहार करना और तीसरा है व्यवहार की अनुकूलता बनाने के लिये व्यवस्था निर्माण करना । इस आधार पर शास्त्रों के मुख्य दो प्रकार हुए । एक शुद्धशास्त्र अथवा तात्त्विकशास्त्र और दूसरा, व्यवहारशास्त्र । व्यवहार शास्त्र के भी दो प्रकार हुए । एक मनुष्य के लिये आचरण शास्त्र और दूसरा पदार्थों और चीजवस्तुओं के निर्माण का शास्त्र । सभी सांस्कृतिकशास्त्रों की व्यवस्थिति के भी तीन स्तर होते हैं। प्रथम है तत्त्व समझना, दूसरा है व्यवहार करना और तीसरा है व्यवस्था बनाना । व्यवहार में आचरण लक्षित है, जबकि व्यवस्था में सभी सामाजिक संस्थाओं का समावेश होता है । इस कथन को उदाहरण से समझना ठीक रहेगा ।

परमात्मा को और परमात्मा की रचना को समझना अध्यात्मशास्त्र है। मनुष्य शरीर की रचना समझना शरीरविज्ञान है । शरीर को स्वस्थ रखने के लिये आवश्यक व्यवहार का शास्त्र आरोग्यशास्त्र है । शरीरस्वास्थ्य के लिये आहारनियमन आवश्यक है। यह आहारशास्त्र है। पंचमहाभूतों की स्थिति और गति जानने का शास्त्र भौतिक विज्ञान है । विभिन्न पदार्थों के व्यवहार को जानने का शास्त्र रसायनशास्त्र है । मनुष्य के मन के व्यापारों को जानने का शास्त्र मानसशास्त्र है। मनुष्य को रहने के लिये घर चाहिये । घर निर्माण करने का शास्त्र स्थापत्यशास्त्र है । प्राकृतिक शास्त्रों को विज्ञान भी कहते हैं । उसके अनुसार प्राण के व्यापार को जानने का शास्त्र प्राणविज्ञान है । वनस्पति के विषय में जानने का शास्त्र वनस्पति शास्त्र है । मनुष्य का श्रम बचाने के लिये, कठिन कामों को सुकर बनाने के लिये विभिन्न यन्त्रों का प्रयोग होता है । उन यन्त्रों के निर्माण और प्रयोग का शास्त्र तन्त्रशास्त्र या तन्त्रविज्ञान है । मनुष्य को अन्न चाहिये । इसलिये कृषिशास्त्र है । मनुष्य को भिन्न भिन्न चीजों की आवश्यकता है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भिन्न भिन्न लोग वस्तुओं का निर्माण करते हैं। इसलिये उत्पादन शास्त्र है । इन वस्तुओं का आदानप्रदान करना पड़ता है । इसलिये वाणिज्यशास्त्र है । मनुष्यों को साथ मिलकर रहना है । इसलिये समाजशास्त्र है । काम और प्रेम से प्रेरित स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध के नियमन हेतु विवाहशास्त्र है । विभिन्न परम्पराओं के सम्यक निर्वहण के लिये अधिजनन शास्त्र और अध्यापन शास्त्र हैं ।

इन सभी में अध्यात्मशास्त्र तात्त्विकशास्त्र है, शरीरविज्ञान तात्त्विकशास्त्र है, आरोग्यशास्त्र व्यवहारशास्त्र है, आहारशास्त्र व्यवहारशास्त्र है । विवाहशास्त्र संस्थात्मक है । यन्त्रनिर्माण व्यवस्था है । लोगों का आवागमन सुकर हो इस दृष्टि से की जाने वाली नगररचना है । इस प्रकार सभी शास्त्रों को हम तत्त्व, व्यवहार, व्यवस्था, संस्था, निर्माण, रचना आदि स्तरों में वर्गीकृत कर सकते हैं । एक बार सिद्धान्त समझ लिया तो यह वर्गीकरण समझना बहुत कठिन नहीं है ।

विषयों का परस्पर सम्बन्ध

विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले विषय इन शास्त्रों से ही सम्बन्धित होते हैं। इसलिये हम अब इन विषयों की ही बात करेंगे । सबसे महत्त्वपूर्ण बात इन विषयों के परस्पर सम्बन्ध को समझने की है। मुख्य बात यह है कि ये विषय एकदूसरे से समान्तर और स्वतन्त्र नहीं हैं । वे एकदूसरे पर निर्भर हैं और एकदूसरे के पूरक भी हैं। इनमें मुख्यत्व और गौणत्व है। उन्हें एकदूसरे से अनुकूलन बनाना होता है। इसी को अंग-अंगी भाव कहते हैं। विभिन्न विषयों के इस अंगांगी सम्बन्ध को समझने का प्रयास करेंगे।

सभी शास्त्रों में प्रमुख है अध्यात्मशास्त्र क्योंकि वह सृष्टि के मूल स्रोत परमात्मा को जानने का शास्त्र है । वह अंगी है। उसके अंग हैं सभी प्राकृतिकशास्त्र और सांस्कृतिकशास्त्र । समस्त मानवसमुदाय के साथ और भौतिक विश्व के साथ के मनुष्य के व्यवहार को और भावना को नियमित और निर्देशित करने वाला धर्मशास्त्र सभी सामाजिक शास्त्रों का अंगी है और सभी सामाजिकशास्त्र धर्मशास्त्र के अंग हैं । इसी तरह समाजशास्त्र अंगी है और राज्यशास्त्र और अर्थशास्त्र उसके अंग हैं । राज्यशास्त्र अंगी है और न्यायशास्त्र और दण्डविधान उसके अंग हैं। अर्थशास्त्र अंगी है और वाणिज्यशास्र और उत्पादन शास्त्र उसके अंग हैं । शरीरविज्ञान अंगी है और आरोग्यशास्त्र अंग है। आरोग्यशास्त्र अंगी है और आहारशास्त्र अंग है । प्राणविज्ञान अंगी है और प्राणिशास्त्र और वनस्पतिशास्त्र अंग हैं। इस प्रकार सभी विषय एकदूसरे से मुख्यत्व और गौणत्व, अर्थात्‌ अंगी और अंग भाव से सम्बन्धित हैं।

अंगांगी भाव को जानने का एक दूसरा भी आयाम है। जीवनरचना के मूल स्रोत परमात्मा से सम्बन्धित शास्त्र अध्यात्मशास्त्र सबसे ऊपर है क्योंकि वह कुछ मात्रा में अनुभूति से सम्बन्धित है। अनुभूति के तुरंत बाद तत्त्वचिन्तन आता है । तत्त्वचिन्तन के अनुसार व्यवहार होता है । व्यवहार के लिये व्यवस्था होती है । व्यवस्था के अनुसार रचना होती है और रचना बनाने हेतु निर्माण होता है। अनुभूति से निर्माण तक के सारे स्तर उत्तरोत्तर अंग बनते जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अनुभूति से सम्बन्धित सब कुछ अंगी है और शेष सारे उसके अंग रूप में उससे जुड़े हैं । तत्त्वचिन्तन के सभी विषय अध्यात्मशास्त्र के अंग हैं और शेष सभी के अंगी हैं । व्यवहार के सभी विषय तत्त्वचिन्तन के विषयों के अंग हैं जब कि तत्त्वचिन्तन उनके लिये अंगी है । सभी व्यवहारशास्त्र सभी तात्विक शास्त्रों के तो अंग हैं परन्तु सभी व्यवस्थाशास्त्रों के अंगी हैं । इसी प्रकार से आगे रचना और निर्माण तक शृंखला बढ़ती रहेगी । इस प्रकार से सभी विषयों के परस्पर सम्बन्ध का एक सुग्रथित जाल बनता जाता है ।

सभी विषयों की शिक्षा से सम्बन्धित एक अन्य आयाम भी विचारणीय है। इसका सम्बन्ध आयु की अवस्थाओं के साथ है । आयु की अवस्थायें इस प्रकार हैं- गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था, बालअवस्था, किशोरावस्था, तरुणावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था । इन अवस्थाओं से सम्बन्धित ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के विभिन्न रूप इस प्रकार हैं:

  • गर्भावस्‍था
  • शिशु अवस्था - संस्कार
  • बालअवस्था - क्रिया, अनुभव और प्रेरणा
  • किशोरअवस्था - विचार, विश्लेषण, निरीक्षणऔर परीक्षण
  • तरुण और युवाअवस्था चिन्तन और निर्णय

एक ही विषय का इन विभिन्न आयामों में रूपान्तरण ये ज्ञान को व्यापक रूप में प्रसारित करने के लिये और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है । इसमें भी एक विशिष्ट प्रकार का अंगांगी भाव रहता है । अध्यात्म का मूल सूत्र लेकर एक ही तत्त्व का संस्कार, कृति, अनुभव, विचार, विश्लेषण, चिन्तन एकदूसरे के साथ सम्बन्धित रहना आवश्यक होता है ।

इस प्रकार खड़ी और पड़ी - लम्ब और क्षैतिज - दोनों रूप में यह शृंखला बनती है । यह शृंखला जितनी सुदृढ़ होती है उतनी ही मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की और सामाजिक जीवन की अवस्थिति श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति की दृष्टि से अच्छी होती है ।

अंगांगी भाव से तात्पर्य क्‍या है ?

अंगांगी भाव से तात्पर्य यही है कि अंग हमेशा अंगी के अधीन और अनुकूल होना चाहिये अथवा रहना चाहिये । अंग हमेशा अंगी के अविरोधी होना चाहिये । अंगरूप विषयों के सभी तथ्यों के निकष अंगी में होंगे । अंगरूप विषयों के सभी खुलासे अंगी में मिलने चाहिये । अंग को अंगी से ही मान्यता मिलेगी । अंगरूप विषय का समर्थन यदि अंगी में नहीं है तो वह त्याज्य होगा । अर्थात्‌ धर्मशास्त्र को अध्यात्मशास्त्र का समर्थन चाहिये, समाजशास्त्र को धर्मशास्त्र का समर्थन चाहिये, अर्थशास्त्र को समाजशास्त्र का समर्थन चाहिये, आहारशास्र को आरोग्यशास्त्र का समर्थन चाहिये, भौतिक विज्ञानों को प्राणिक विज्ञानों का समर्थन चाहिये, प्राणिक विज्ञानों को मनोविज्ञान का समर्थन चाहिये और मनोविज्ञान को फिर अध्यात्मशास्त्र का समर्थन चाहिये । निर्माण के सभी शास्त्रों को रचना के सभी शास्त्रों का समर्थन चाहिये, रचना को व्यवस्था के, व्यवस्था को व्यवहार के, व्यवहार को तत्त्व के और तत्त्व को अनुभूति के शास्त्र का समर्थन चाहिये । सभी शास्त्रों की यह अन्तर्भूत प्रमाणव्यवस्था है ।

निम्नलिखित वचन यही बात समझाते हैं[3] -

बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।

सभी प्राणियों में धर्म के अविरोधी काम मैं हूँ ।

अर्थशास्त्रात तु बलवत्‌ धर्म शास्त्रं इति स्मृत: ।[citation needed]

अर्थशास्त्र से धर्मशास््र बलवान है ।

एक प्रश्न अभी भी उत्तर देने योग्य रहता है।

सामाजिकशास्त्र और प्राकृतिकशास्त्रों में भी क्या अंग अंगी

भाव रहेगा ? यदि हाँ, तो कौन सा अंग होगा और कौन

सा अंगी ? प्राकृतिक रचना परमात्मा की रचना है,

परमात्मा से निःसृत हुई है, जबकि सांस्कृतिक रचना मनुष्य

निर्मित है । मनुष्य भी प्राकृतिक रचना का एक अंग है ।

इसलिये सामाजिक शास्त्रों का निकष प्राकृतिक शास्त्रों में

होना चाहिये । प्राकृतिक शास्त्रों को ही आज विज्ञान कहा

जाता है । इसलिये आज वैज्ञानिकता को ही अन्तिम निकष

माना जाता है । परन्तु यह प्रमेय इतना सरल नहीं है । हम

इसके कुछ आयाम देखेंगे ।

मनुष्य को छोडकर सारी सृष्टि - प्राणि, वनस्पति

और पंचमहाभूत - प्रकृति के नियमन और नियन्त्रण

में रहते हैं। वे अपनी या अन्यों की स्थिति में

परिवर्तन नहीं कर सकते । परन्तु उनकी रचना को

समझना और उसका संरक्षण करना मनुष्य का

दायित्व है। इस दायित्व को निभाने की बात

सॉस्कृतिकशास््र के अन्तर्गत आती है । प्रकृति को

जानना प्राकृतिकशास्त्रों के अन्तर्गत आता है ।

प्रकृति के साथ मनुष्य को कैसा व्यवहार करना

चाहिये यह धर्मशाख्र का और उसके अन्तर्गत

नीतिशाख्त्र का विषय है ।

समस्त सृष्टि अन्नमय और प्राणमय कोश में अवस्थित

है। मनुष्य इससे ऊपर उठता हुआ मनोमय,

विज्ञानमय और आनन्दमय में अवस्थित होता है ।

उसे इन सब कोशों के आवरणों से मुक्त होकर अपने

स्वस्वरूप का बोध करना है । अत: मनुष्य जगत के

जो अन्नमय और प्राणमय कोश के विषय हैं वहाँ

प्राकृतिक विज्ञान निकष हैं परन्तु उसके मनोमय,

विज्ञानमय और आनन्दमय कोश से सम्बन्धित विषयों

के लिये सामाजिक शास्त्र ही अन्तिम निकष होते हैं ।

इस अर्थ में आज की “वैज्ञानिकता' बहुत ही सीमित

स्वरूप में निकष बन सकती है। और फिर

२५६

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

सृष्टिधारणा और समाजधारणा यह मनुष्य के सभी

व्यवहार का प्रयोजन है । व्यक्तिगत और सामुदायिक

श्रेय और प्रेय की प्राप्ति सभी व्यापारों का लक्ष्य है ।

और फिर अध्यात्म तो अन्तिम निकष है ही ।

६. वर्तमान का विचार

वर्तमान शिक्षाव्यवस्था में इस क्षेत्र की घोर अनवस्था

दिखाई देती है । इस अनवस्था के कुछ प्रमुख आयाम इस

प्रकार हैं ।

०... अध्यात्मशास्त्र पूर्णरूप से अनुपस्थित है । अत: पूर्ण

ज्ञानक्षेत्र अधिष्ठान के बिना खड़ा है । इस कारण से

उसका भटक जाना अवश्यम्भावी है ।

प्राकृतिकशास्त्रों के अन्नमय और प्राणमय कोश की

सीमितता को समझे बिना उसे सभी सामाजिक शास्त्रों

के लिये fies sa दिया गया है । एक असम्भव

बात को सम्भव बनाने के प्रयास से अनवस्था निर्माण

होना स्वाभाविक है ।

विषयों के अंगांगी भाव को विस्मृत कर सभी विषयों

का स्वतन्त्र और समान रूप से अध्ययन और

अध्यापन करना यह ज्ञान के क्षेत्र का आतंक है ।

इससे समाजजीवन में सभी प्रकार की विशृंखलता

निर्माण होना अपरिहार्य बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र

का सबसे बड़ा खतरा यही है ।

विश्वविद्यालयों , महाविद्यालयों , माध्यमिक

विद्यालयों, प्राथमिक विद्यालयों और पूर्वप्राथमिक

विद्यालयों की शिक्षायोजना में कोई आन्तरिक

विचारसूत्र नहीं दिखाई देता इसका भी कारण यही

अंगांगी भाव का विस्मरण ही है ।

समाजजीवन की सभी व्यवस्थाओं और व्यवहारों

तथा शिक्षा संस्थाओं में पढ़ाये जाने वाले विषयों में

सामंजस्य का अभाव भी इसीका परिणाम है ।

ज्ञान के क्षेत्र की यह गम्भीर समस्या है। इसे

सुलझाना हमारा प्रथम कर्तव्य होता है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. श्रीमद्भगवद्गीता १५.१६ एवं १५.१७
  3. श्रीमद भगवद्गीता ७.११