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→‎विषयों का परस्पर सम्बन्ध: लेख सम्पादित किया
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अंगांगी भाव को जानने का एक दूसरा भी आयाम है। जीवनरचना के मूल स्रोत परमात्मा से सम्बन्धित शास्त्र अध्यात्मशास्त्र सबसे ऊपर है क्योंकि वह कुछ मात्रा में अनुभूति से सम्बन्धित है। अनुभूति के तुरंत बाद तत्त्वचिन्तन आता है । तत्त्वचिन्तन के अनुसार व्यवहार होता है । व्यवहार के लिये व्यवस्था होती है । व्यवस्था के अनुसार रचना होती है और रचना बनाने हेतु निर्माण होता है। अनुभूति से निर्माण तक के सारे स्तर उत्तरोत्तर अंग बनते जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अनुभूति से सम्बन्धित सब कुछ अंगी है और शेष सारे उसके अंग रूप में उससे जुड़े हैं । तत्त्वचिन्तन के सभी विषय अध्यात्मशास्त्र के अंग हैं और शेष सभी के अंगी हैं । व्यवहार के सभी विषय तत्त्वचिन्तन के विषयों के अंग हैं जब कि तत्त्वचिन्तन उनके लिये अंगी है । सभी व्यवहारशास्त्र सभी तात्विक शास्त्रों के तो अंग हैं परन्तु सभी व्यवस्थाशास्त्रों के अंगी हैं । इसी प्रकार से आगे रचना और निर्माण तक शृंखला बढ़ती रहेगी । इस प्रकार से सभी विषयों के परस्पर सम्बन्ध का एक सुग्रथित जाल बनता जाता है ।
 
अंगांगी भाव को जानने का एक दूसरा भी आयाम है। जीवनरचना के मूल स्रोत परमात्मा से सम्बन्धित शास्त्र अध्यात्मशास्त्र सबसे ऊपर है क्योंकि वह कुछ मात्रा में अनुभूति से सम्बन्धित है। अनुभूति के तुरंत बाद तत्त्वचिन्तन आता है । तत्त्वचिन्तन के अनुसार व्यवहार होता है । व्यवहार के लिये व्यवस्था होती है । व्यवस्था के अनुसार रचना होती है और रचना बनाने हेतु निर्माण होता है। अनुभूति से निर्माण तक के सारे स्तर उत्तरोत्तर अंग बनते जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अनुभूति से सम्बन्धित सब कुछ अंगी है और शेष सारे उसके अंग रूप में उससे जुड़े हैं । तत्त्वचिन्तन के सभी विषय अध्यात्मशास्त्र के अंग हैं और शेष सभी के अंगी हैं । व्यवहार के सभी विषय तत्त्वचिन्तन के विषयों के अंग हैं जब कि तत्त्वचिन्तन उनके लिये अंगी है । सभी व्यवहारशास्त्र सभी तात्विक शास्त्रों के तो अंग हैं परन्तु सभी व्यवस्थाशास्त्रों के अंगी हैं । इसी प्रकार से आगे रचना और निर्माण तक शृंखला बढ़ती रहेगी । इस प्रकार से सभी विषयों के परस्पर सम्बन्ध का एक सुग्रथित जाल बनता जाता है ।
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सभी विषयों की शिक्षा से सम्बन्धित एक अन्य आयाम भी विचारणीय है। इसका सम्बन्ध आयु की अवस्थाओं के साथ है । आयु की अवस्थायें इस प्रकार हैं- गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था, बालअवस्था, किशोरावस्था, तरुणावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था । इन अवस्थाओं से सम्बन्धित ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के विभिन्न रूप इस प्रकार हैं ।
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सभी विषयों की शिक्षा से सम्बन्धित एक अन्य आयाम भी विचारणीय है। इसका सम्बन्ध आयु की अवस्थाओं के साथ है । आयु की अवस्थायें इस प्रकार हैं- गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था, बालअवस्था, किशोरावस्था, तरुणावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था । इन अवस्थाओं से सम्बन्धित ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के विभिन्न रूप इस प्रकार हैं:
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* गर्भावस्‍था
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* शिशु अवस्था - संस्कार
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* बालअवस्था - क्रिया, अनुभव और प्रेरणा
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* किशोरअवस्था - विचार, विश्लेषण, निरीक्षणऔर परीक्षण
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* तरुण और युवाअवस्था चिन्तन और निर्णय
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एक ही विषय का इन विभिन्न आयामों में रूपान्तरण ये ज्ञान को व्यापक रूप में प्रसारित करने के लिये और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है । इसमें भी एक विशिष्ट प्रकार का अंगांगी भाव रहता है । अध्यात्म का मूल सूत्र लेकर एक ही तत्त्व का संस्कार, कृति, अनुभव, विचार, विश्लेषण, चिन्तन एकदूसरे के साथ सम्बन्धित रहना आवश्यक होता है
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गर्भावस्‍था और
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इस प्रकार खड़ी और पड़ी - लम्ब और क्षैतिज - दोनों रूप में यह शृंखला बनती है । यह शृंखला जितनी सुदृढ़ होती है उतनी ही मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की और सामाजिक जीवन की अवस्थिति श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति की दृष्टि से अच्छी होती है ।
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शिशु अवस्था संस्कार
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== अंगांगी भाव से तात्पर्य क्‍या है ? ==
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अंगांगी भाव से तात्पर्य यही है कि अंग हमेशा अंगी के अधीन और अनुकूल होना चाहिये अथवा रहना चाहिये । अंग हमेशा अंगी के अविरोधी होना चाहिये । अंगरूप विषयों के सभी तथ्यों के निकष अंगी में होंगे । अंगरूप विषयों के सभी खुलासे अंगी में मिलने चाहिये । अंग को अंगी से ही मान्यता मिलेगी । अंगरूप विषय का समर्थन यदि अंगी में नहीं है तो वह त्याज्य होगा । अर्थात्‌ धर्मशास्त्र को अध्यात्मशास्त्र का समर्थन चाहिये, समाजशास्त्र को धर्मशास्त्र का समर्थन चाहिये, अर्थशास्त्र को समाजशास्त्र का समर्थन चाहिये, आहारशास्र को आरोग्यशास्त्र का समर्थन चाहिये, भौतिक विज्ञानों को प्राणिक विज्ञानों का समर्थन चाहिये, प्राणिक विज्ञानों को मनोविज्ञान का समर्थन चाहिये और मनोविज्ञान को फिर अध्यात्मशास्त्र का समर्थन चाहिये । निर्माण के सभी शास्त्रों को रचना के सभी शास्त्रों का समर्थन चाहिये, रचना को व्यवस्था के, व्यवस्था को व्यवहार के, व्यवहार को तत्त्व के और तत्त्व को अनुभूति के शास्त्र का समर्थन चाहिये । सभी शास्त्रों की यह अन्तर्भूत प्रमाणव्यवस्था है ।
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बालअवस्था क्रिया, अनुभव और प्रेरणा
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निम्नलिखित वचन यही बात समझाते हैं<ref>श्रीमद भगवद्गीता ७.११  </ref> -<blockquote>बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।</blockquote><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>सभी प्राणियों में धर्म के अविरोधी काम मैं हूँ ।
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किशोरअवस्था विचार, विश्लेषण, निरीक्षण
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“अर्थशास्त्रात तु बलवत्‌ धर्म शास्त्रं इति स्मृत: ।'
 
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और परीक्षण
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तरुण और युवाअवस्था चिन्तन और निर्णय
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एक ही विषय का इन विभिन्न
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आयामों में रूपान्तरण ये ज्ञान को व्यापक रूप में प्रसारित
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करने के लिये और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित
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करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है । इसमें भी एक विशिष्ट
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प्रकार का अंगांगी भाव रहता है । अध्यात्म का मूल सूत्र
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लेकर एक ही तत्त्व का संस्कार, कृति, अनुभव, विचार,
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विश्लेषण, चिन्तन एकदूसरे के साथ सम्बन्धित रहना
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आवश्यक होता है ।
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इस प्रकार खड़ी और पड़ी - लम्ब और क्षैतिज -
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दोनों रूप में यह शृंखला बनती है । यह शृंखला जितनी
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aes होती है उतनी ही मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की
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और सामाजिक जीवन की अवस्थिति श्रेय और प्रेय दोनों
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की प्राप्ति की दृष्टि से अच्छी होती है ।
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अंगांगी भाव से तात्पर्य क्‍या है ?
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यही कि अंग हमेशा अंगी के अधीन और अनुकूल
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होना चाहिये अथवा रहना चाहिये । अंग हमेशा अंगी के
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अविरोधी होना चाहिये । अंगरूप विषयों के सभी तथ्यों के
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निकष अंगी में होंगे । अंगरूप विषयों के सभी खुलासे अंगी
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में मिलने चाहिये । अंग को अंगी से ही मान्यता मिलेगी ।
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अंगरूप विषय का समर्थन यदि अंगी में नहीं है तो वह
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त्याज्य होगा । अर्थात्‌ धर्मशास्त्र को अध्यात्मशाख्र का
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समर्थन चाहिये, समाजशास्त्र को धर्मशास्त्र का समर्थन
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चाहिये, अर्थशास्त्र को समाजशास्त्र का समर्थन चाहिये,
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आहारशास्र को आरोग्यशास्त्र का समर्थन चाहिये, भौतिक
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विज्ञानों को प्राणिक विज्ञानों का समर्थन चाहिये, प्राणिक
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विज्ञानों को मनोविज्ञान का समर्थन चाहिये और मनोविज्ञान
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al fe seca ar समर्थन चाहिये । निर्माण के
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सभी शास्त्रों को रचना के सभी शास्त्रों का समर्थन चाहिये,
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Taal को व्यवस्था के, व्यवस्था को व्यवहार के, व्यवहार
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को तत्त्व के और तत्त्व को अनुभूति के शास्त्र का समर्थन
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चाहिये । सभी शास्त्रों की यह अन्तर्भूत प्रमाणव्यवस्था है ।
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निम्न लिखित वचन यही बात समझाते हैं -
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“धर्माविस्द्धो भूतेषु कामोइस्मि भरतर्षभ ।' (गीता-
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७-११) सभी प्राणियों में धर्म के अविरोधी काम मैं हूँ ।
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“अर्थशास्त्रातू तु बलवत्‌ धर्मशाख्रमू इति स्मृत: ।'
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अर्थशास्त्र से धर्मशास््र बलवान है ।
 
अर्थशास्त्र से धर्मशास््र बलवान है ।

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