Difference between revisions of "विविध आलेख"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
Line 111: Line 111:
 
==== १०. मनुस्मृति और स्त्री ====
 
==== १०. मनुस्मृति और स्त्री ====
 
<blockquote>'''परपत्नी त्या स्त्री स्यात् असम्बन्धा च योनितः ।'''</blockquote><blockquote>'''तां ब्रूयात् भवतीत्येवम् सुभगे भगिनीति वा ।।'''  '''२.१२९''' </blockquote><blockquote>जो स्त्री परपत्नी है अथवा योनिसम्बन्ध से सम्बन्धित नहीं है उसे 'भवति', 'सुभगे' अथवा 'भगिनी' ऐसा सम्बोधन करना चाहिये (अर्थात् उससे आदरपूर्वक बात करनी चाहिये )। </blockquote><blockquote>'''उपाध्यायात् दशाचार्यः आचार्याणां शतं पिता । २.१४५''' </blockquote><blockquote>'''सहस्रं तु पितृन् माता गौरवेणाऽतिरिच्यते ॥''' </blockquote><blockquote>उपाध्याय (पैसे लेकर पढाने वाले) से आचार्य का गौरव दसगुना अधिक है, आचार्य से सौ गुना पिता का और पिता से सहस्र गुना माता का गौरव अधिक है। </blockquote><blockquote>'''स्त्रीधनानि तु ये: मोहात् उपजीवन्ति बान्धवाः ।''' </blockquote><blockquote>'''नारी यानानि वस्त्रं वा ते पाणा यान्त्यधोगतिम् ।।३.५२''' </blockquote><blockquote>'''पितृभिः भ्रातृभिश्चैताः पतिभिस्वेदरैस्तथा ।''' </blockquote><blockquote>'''पूज्याः भूषयितव्याश्च बहु कल्याणमिप्सुभिः ।। ३.५५''' </blockquote><blockquote>\अत्यन्त कल्याण चाहने वाले पिता, भाई, पति, देवर आदि ने स्त्री का सम्मान करना चाहिये और आभरण आदि अनेक प्रकार से उसे आभूषित करना चाहिये । </blockquote><blockquote>'''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।''' </blockquote><blockquote>'''यौतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफलाः क्रियाः ।। ३.५६''' </blockquote><blockquote>जहाँ त्रियों का सम्मान किया जाता है वहाँ देवता प्रसन्न होकर रहते हैं । जहाँ उनका सम्मान नहीं होता वहाँ किसी कामकाज का फल नहीं मिलता। </blockquote><blockquote>'''पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।''' </blockquote><blockquote>'''रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ।।''' '''९.३'''</blockquote><blockquote>स्त्री की रक्षा कुमारी अवस्था में पिता, यौवनावस्था में पति और वृद्धावस्थामां पुत्रने करनी चाहिये । स्त्री को असुरक्षित नहीं रखनी चाहिये ।</blockquote>'''अन्य सुभाषित'''<blockquote>'''न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुच्यते ।'''</blockquote><blockquote>'''गृहं तु गृहिणीहीन कान्तारादतिरिच्यते ॥''' </blockquote>मकान को घर नहीं कहते, गृहिणी को ही गृह कहते हैं। बिना गृहिणी के घर बीहड जंगल से भी। अधिक बीहड होता है।
 
<blockquote>'''परपत्नी त्या स्त्री स्यात् असम्बन्धा च योनितः ।'''</blockquote><blockquote>'''तां ब्रूयात् भवतीत्येवम् सुभगे भगिनीति वा ।।'''  '''२.१२९''' </blockquote><blockquote>जो स्त्री परपत्नी है अथवा योनिसम्बन्ध से सम्बन्धित नहीं है उसे 'भवति', 'सुभगे' अथवा 'भगिनी' ऐसा सम्बोधन करना चाहिये (अर्थात् उससे आदरपूर्वक बात करनी चाहिये )। </blockquote><blockquote>'''उपाध्यायात् दशाचार्यः आचार्याणां शतं पिता । २.१४५''' </blockquote><blockquote>'''सहस्रं तु पितृन् माता गौरवेणाऽतिरिच्यते ॥''' </blockquote><blockquote>उपाध्याय (पैसे लेकर पढाने वाले) से आचार्य का गौरव दसगुना अधिक है, आचार्य से सौ गुना पिता का और पिता से सहस्र गुना माता का गौरव अधिक है। </blockquote><blockquote>'''स्त्रीधनानि तु ये: मोहात् उपजीवन्ति बान्धवाः ।''' </blockquote><blockquote>'''नारी यानानि वस्त्रं वा ते पाणा यान्त्यधोगतिम् ।।३.५२''' </blockquote><blockquote>'''पितृभिः भ्रातृभिश्चैताः पतिभिस्वेदरैस्तथा ।''' </blockquote><blockquote>'''पूज्याः भूषयितव्याश्च बहु कल्याणमिप्सुभिः ।। ३.५५''' </blockquote><blockquote>\अत्यन्त कल्याण चाहने वाले पिता, भाई, पति, देवर आदि ने स्त्री का सम्मान करना चाहिये और आभरण आदि अनेक प्रकार से उसे आभूषित करना चाहिये । </blockquote><blockquote>'''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।''' </blockquote><blockquote>'''यौतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफलाः क्रियाः ।। ३.५६''' </blockquote><blockquote>जहाँ त्रियों का सम्मान किया जाता है वहाँ देवता प्रसन्न होकर रहते हैं । जहाँ उनका सम्मान नहीं होता वहाँ किसी कामकाज का फल नहीं मिलता। </blockquote><blockquote>'''पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।''' </blockquote><blockquote>'''रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ।।''' '''९.३'''</blockquote><blockquote>स्त्री की रक्षा कुमारी अवस्था में पिता, यौवनावस्था में पति और वृद्धावस्थामां पुत्रने करनी चाहिये । स्त्री को असुरक्षित नहीं रखनी चाहिये ।</blockquote>'''अन्य सुभाषित'''<blockquote>'''न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुच्यते ।'''</blockquote><blockquote>'''गृहं तु गृहिणीहीन कान्तारादतिरिच्यते ॥''' </blockquote>मकान को घर नहीं कहते, गृहिणी को ही गृह कहते हैं। बिना गृहिणी के घर बीहड जंगल से भी। अधिक बीहड होता है।
 +
[[File:Capture२०० .png|none|thumb|797x797px]]
 +
[[File:Capture२०१ .png|none|thumb|757x757px]]
  
 
==References==
 
==References==

Revision as of 12:03, 15 January 2020

अध्याय ४८

१. असुरो का संहार

जगत में तारकासुर का आतंक बढ गया । तब देवों को प्रतीति हुई कि भगवान शिव और सती पार्वती का पुत्र ही देवों का सेनापति बनकर उनका नाश कर सकता है । देवों ने प्रार्थना की, शिव और पार्वती ने तपश्चर्या की, कार्तिकेय का जन्म हुआ, वह देवों का सेनापति बना और तारकासुर का नाश हुआ। जगत पर वृत्रासुर नामक असुर का आतंक छा गया था। वह महाबलवान था। उसे मार सके ऐसा शस्त्र किसी के पास नहीं था । उसे मारने के लिये वज्र की आवश्यकता थी जो तपश्चर्या और त्याग से ही प्राप्त हो सकता था । देव तपस्वी मुनि दधीचि के पास गये, उन्हें प्रार्थना की, मुनिने अपनी हड्डियाँ प्रदान की, उन हड्डियों से वज्र बना जिससे इन्द्र ने वृत्रासुर का नास किया। भस्मासुर ने उग्र तपश्चर्या की और भगवान शंकर को प्रसन्न किया । भगवान शंकर से वर मांगा कि वह जिसके सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जायेगा । प्रसन्न हुए भगवान शंकर ने वर दिया । अब भस्मासुर हाथ रखता था और लोग मरते थे। उस का नाश करने के लिये भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया, वे नृत्य करने लगे और भस्मासुर को भी अपने साथ नृत्य करने हेतु विवश किया । नृत्य करते करते भगवान विष्णुने अपने सिर पर हाथ रखा । उनके अनुसरण में भस्मासुर ने भी अपना हाथ सिर पर रखा और वह भस्म हो गया । स्वर्ग मुक्त हुआ। महिषासुर ने भगवती दुर्गा से अपने साथ विवाह करने हेतु आग्रह किया । डराया, धमकाया भी। भगवती दुर्गा ने कहा कि यदि वह उनसे युद्ध कर रण में जीतेगा तो वह उससे विवाह करेगी। महिषासुर को लगा कि एक स्त्री को युद्ध में जीतना सरल है। उसने हाँ कहा, दोनों में युद्ध हुआ । भगवती दुर्गा ने उस युद्ध में अपने शस्त्र से महिषासुर को परास्त किया और उसका वध किया। आज भारत को शिव और पार्वती जैसे समर्थ सन्तान को जन्म देने वाले समर्थ मातापिता की, दधीचि जैसे तपस्वी और त्यागी की, मोहिनी रूप धारण करनेवाले विष्णु की और अनिष्ट का नाश करने वाली दुर्गा जैसी स्त्रियों की एक साथ आवश्यकता है। तभी पश्चिमासुर का नाश होकर विश्व के सुख और शान्ति की रक्षा हो सकती है।

२. जीवन के आधार है...

  • एकात्म जीवनदृष्टि जीवन को एक और अखण्ड देखती है, चर और अचर सृष्टि को एक मानती है और सबके हित और सुख की कामना करती है ।
  • ज्ञान जो जीवन और जगत के व्यवहार के सारे रहस्यों को प्रकट करता है और उसके प्रकाश में कैसे व्यवहार करना यह भी सिखाता है।
  • धर्म जो विश्व को धारण करता है, किसी का नाश नहीं होने देता, सबकी रक्षा करता है और सारे व्यवहारों हेतु व्यवस्था प्रदान करता है ।
  • सत्य जो सम्पूर्ण विश्व के आपसी संवाद और सम्बन्ध के लिये प्रमाणभूत सन्दर्भ है और न्याय, नीति, ऋजुता, सद्भावना और प्रामाणिकता के रूप में धर्म को प्रकट करता है।
  • प्रेम जो सबके साथ एकात्मता की अनुभूति करवाता है, सबके शुभ और मंगल की कामना करता है । दूसरे को अपने से प्रथम मानने की प्रेरणा देता है।
  • तप जो जगत के कल्याण हेतु कष्ट, असुविधा, अवरोध, कठिनाई झेलने के लिये उद्यत होता है, जो सर्व प्रकार के संयम और आत्मत्याग का सार है और सर्व प्रकार की सिद्धियों हेतु अनिवार्य है।
  • सेवा जो अपने लिये किसी प्रकार की अपेक्षा किये बिना अपने निःशेष सामर्थ्य के अनुसार, छोटे बडे का विचार न करते हुए दूसरों के लिये उपयोगी बनने हेतु प्रेरित करती है।
  • त्याग जो जगत के किसी भी चरअचर पदार्थ, प्राणी या मनुष्य के लिये अपनी किसी भी वस्तु को छोड़ने में लेशमात्र संकोच नहीं करता है।

३. भारत की वैश्विकता

अयं निज परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।

यह अपना है और यह पराया ऐसा तो छोटे मन वाला मानता है। जिसका अन्तःकरण उदार है उसके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक छोटा कुटुम्ब ही है

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।

जगत में जो भी कुछ है उसमें ईश्वर का वास है । अतः त्यागपूर्वक उपभोग करो, किसी का भी धन छीनो नहीं।

यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते ।

जो भूत मात्र का आत्यन्तिक हित है उसे ही सत्य कहते हैं।

ॐ द्यौः शान्तिः । अन्तरिक्षं शान्तिः । पृथिवी शान्तिः । आपः शान्तिः । ओषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिः । विश्वेदेवाता शान्तिः । ब्रह्म शान्तिः । सर्व शान्तिः । शान्तिरेव शान्तिः । सा मा शान्तिरेधि । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

आकाश, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, वनस्पति, औषधी, विश्वदेव, ब्रह्म सर्वत्र शान्ति हो । शान्ति भी शान्त हो।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाक्भवेत् ।।

सब सुखी हों, सब निरामय हों, सब का कल्याण हो, कोई भी दुःखी न हो ।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।

अठारह पुराणों का सार व्यास के ये दो वचन हैं कि परोपकार से पुण्य मिलता है, परपीडा से पाप ।

४. पश्चिम से जन्मे ऐसे अनिष्ट जो आकर्षक लगते हैं

  • गति : सब कुछ जल्दी करने की चाह में वाहनों की और संचार माध्यमों की खोज हुई । गति की यह चाह मन की अस्थिरता का स्वरूप है । सर्वाधिक गति वाला वाहन भी मन की गति की बराबरी नहीं कर सकता।
  • नवीनता : नित्य नये की चाह मन के सन्तोष गुण के अभाव से जन्मी है । यह विश्व को व्यर्थ परिश्रम में उलझाती है और अपव्यय का कारण बनती है। अपव्यय दारिद्य को जन्म देता है।
  • स्पर्धा : सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह ने स्पर्धा को जन्म दिया है। स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से नाश की ओर गति होती है।
  • सुविधा : मनुष्य की अनेक क्षमताओं का क्षरण और प्रकृति का शोषण सुविधा के आकर्षण का परिणाम है । स्वतन्त्रता के नाम पर मनुष्य पराधीन, दुर्बल और रोगी बन गया है।
  • विकास : निरन्तर आगे बढना, अमर्याद रूप से अधिक चाहना, अनन्त वृद्धि चाहना, पश्चिम को विकास का पर्याय लगता है। इसका परिणाम अपने आधार से पैर उखड जाना और हवा में लटक जाना ही है।
  • मनोरंजन : अस्थिर, अशान्त, आसक्त, कामपूर्ण मन को अधिक अशान्त, अधिक अस्थिर, अधिक आसक्त, अधिक कामी बनानेवाला, उसी मन को खुश करने हेतु सौन्दर्य और सौन्दर्यबोध को विकृत बना देने वाला तत्त्व पश्चिम के लिये मनोरंजन है तो वास्तिविक विकास के मार्गों को अवरुद्ध कर देता है।
  • समृद्धि : दारिद्य, हीनता और विनाश की ओर ले जाने वाला भौतिक पदार्थों का आधिक्य जो प्रथम दूसरों का और अन्त में स्वयं का भी नाश करता है।
  • ज्ञान : भौतिक जगत के जडतापूर्ण रहस्यों को जानने की और गति, विकास, समृद्धि आदि को प्राप्त करने हेतु जानकारी का प्रयोग करने की शक्ति जो मुक्ति के स्थान पर शक्ति का संचय कर नाश का कारण बनती
  • विज्ञान : यह एक तात्त्विक मोहजाल से निकली संकल्पना है जिसने सारे चेतनायुक्त अस्तित्वों को जड सिद्ध कर दिया है और जगत को अनिष्टों के जाल में फंसा दिया है।
  • आधुनिकता : अत्यन्त आकर्षक लगने वाली यह संकल्पना वास्तव में चर्चसत्ता और राज्यसत्ता के संघर्ष से जन्मी निधार्मिक संकल्पना है जिसमें 'विज्ञान' की भी भूमिका है। भौतिकता, संस्कारहीनता, अमानवीयता आदि का विचित्र मिश्रण है । इसका न कोई सार्थक आधार है न स्वरूप ।

भारत को चाहिये कि इन सभी सुन्दर शब्दों के सही अर्थ विश्व के समक्ष प्रस्तुत करे ।

५. इसाईयत को जानें

इसाईयत और हिंसा तथा असहिष्णुता

  • प्रभू ने आधी रात को मिडा दो के सभी पहलौठों ( नवजात बों ) - सिंहासनपर विराजमान फिराऊन के पहलौठों से लेकर बन्दीगृह मे पड़े कैदी के पहलौठे और पुओं के पहलौठों तक - को मार डाला - निर्गमन ग्रंथ १२/२९
  • प्रभू ने लोगों के बीच विषैले सांप भेजे और उनके देश से बहुत से इस्राएली मर गये - गणना ग्रंथ २१/६
  • प्रभू की ओर से अग्नि आयी और उसने ढाई सौ लोगों (यहूदी) को भस्म कर दिया, जो धूप चढाने आये थे - गणना ग्रंथ १६/३५
  • इसलिये प्रभू ने इस्राएल में महामारी भेजी । इस्राएल के सत्तर हजार लोग मर गये - पहला इतिहास ग्रंथ २१/१४
  • बेत-मेमो के कुछ निवासियों ने प्रभू की मंजूषा खोलकर उसके अन्दर झाँका, इसलिये प्रभू ने लोगों में पचास हजार सत्तर मनुष्यों को मार डाला - सॅम्युएल का पहला ग्रंथ ६/१९
  • जो व्यक्ति प्रभू के नाम को कोसता है, वह मार डाला जाये । सारा समुदाय उसे पत्थर से मार डाले-लेवी ग्रंथ २४/१६
  • छ : दिन तक काम किया जाये और सातवें दिन तुम विश्राम दिवस मनाओ । वह प्रभू का पवित्र दिन होगा । जो उस दिन काम करेगा उसे प्राणदंड दिया जायेगा - निर्गमन ग्रंथ ३५/२
  • यदि कोई स्त्री की तरह किसी पुरूष के साथ प्रसंग करे तो दोनों घृणित पाप करते हैं। उन को प्राणदंड दिया जायेगा । उनका रक्त उनके सिर पड़ेगा - लेवी ग्रंथ २०/१३
  • परन्तु यदि यह बात सत्य हो और उस लड़की के कौमार्य का कोई प्रमाण न मिले तो उस लडकी को उसके पिता के घर के द्वारपर ले जाया जाये और उस नगर के पुरूष उसे पत्थरों से मार डालें -विधि विवरण ग्रंथ २२/२०, २१
  • यदि कोई मुझ में (मेरे आश्रय) नहीं रहता, तो वह सूखी डाली की तरह फेंक दिया जाता है। लोग एसी डालियाँ बटोर लेते हैं और आग में झोंक कर जला देते हैं - सन्त योहान १५/६
  • जो विश्वास करेगा और बाप्तिस्मा ग्रहण करेगा उसे मुक्ति मिलेगी। जो विश्वास नहीं करेगा वह दोषी ठहराया जायेगा - सन्त मारक्स १६/१६
  • तुम उन राष्ट्रों के साथ यह व्यवहार करोगे- उनकी वेदियों को गिरा दोगे, उनके पवित्र स्मारकों को तोड डालोगे, उनके पूजा स्तंभों को काट दोगे और उनकी देवमूर्तियों को आग में जला दोगे - विधि विवरण ग्रंथ ७/५
  • उन मूर्तियों को दण्डवत् कर उन की पूजा मत करो; क्यों कि मैं प्रभू, तुम्हारा ईश्वर एसी बात सहन नहीं करता । जो मुझसे बैर करते हैं , मैं तीसरी और चौथी पीढीतक उनकी संतति को उनके अपराधों का दण्ड देता हूं - निर्गमन ग्रंथ २०/५
  • तलवार सडकोंपर उसकी संतति मिटा देगी । उनके घरों में आतंक बना रहेगा । नवयुवक और नवयुवतियों का वध किया जायेगा । पके बालवाले बूढ़े और दुधमुहे बच्चे समान रूप से मरे जायेंगे - विधि विवरण ग्रंथ ३२/२५
  • उनके पूर्वजों के कुकर्मों के कारण पुत्रों का वध किया जायेगा - इसायाह का ग्रंथ १४/२१
  • जो मनुष्य पूर्ण समर्पित है, वह नहीं छुड़ाया जा सकता । उसका वध करना है -लेवी ग्रंथ २७/२९
  • प्रभू ने मूसा को बुलाया और दर्दान कक्ष से उस से यह कहा, इस्राएलियों से यह कहो,' जब तुम में कोई प्रभू को चढावा अर्पित करना चाहे तो वह ढोरों या भेड़-बकरियों के झुण्डों से कोई पूछले आ सकता है। - तब वह प्रभू के सामने बछडे का वध करे और याजक हारून के पुत्र उसका रक्त चढाएं । वे उसका रक्त वर्दानकक्ष के द्वारपर वेदी के चारों ओर छिडके - लेवी ग्रंथ १/२,५
  • जो पु फटे खुरवाले और पागूर (जुगाली) करनेवाले हैं उन्हें तुम खा सकते हो

- तुम सूअर को अशुद्ध मानोगे : उसके खुर फटे होते हैं लेकिन वह पागुर नहीं करता

- सब जल-जन्तुओं में तुम इन को खा सकते हो जो पंख और छिल्क (छिलके) वाले हैं- चाहे वे समुद्र में रहते हों चाहे दरिया में

- परन्तु तुम उन पंख और चार पाँव वाले कीड़ों को खा सकते हो, जिनके पृथ्वी पर कूदने के पैर होते हैं - लेवी ग्रंथ ११/३. ७. ९. २१

  • और मेरे बैरियों को जो यह नहीं चाहते थे कि मैं उनपर राज्य करूं, इधर लाकर मेरे सामने मार डालो - सन्त लूकस १९/२७
  • बायबल मे वर्णित भिन्न भिन्न पैगंबरों ने भी कल का तूफान मचाया था। जैसे दाऊद (सॅम्युएल का दूसरा ग्रंथ १२/३१, १८/२७ ), येहू

६. इसाईयत और स्त्री

  • उसने (ईश्वरने) स्त्री से यह कहा,' मैं तुम्हारी गर्भावस्था का कष्ट बढाऊंगा और तुम पीडा में सन्तान को जन्म दोगी । तुम वासना के कारण पति में आसक्त होगी और वह तुमपर शासन करेगा - उत्पत्ति ग्रंथ ३/१६
  • पुरूष स्त्री से नही बना बल्कि स्त्री पुरूष से बनी - और पुरूष की सृष्टी स्त्री के लिये नहीं हुई बल्कि पुरूष के लिये स्त्री की सृष्टी हुई - कुरिन्थियों के नाम पहला पत्र ११/८,९
  • धर्मशिक्षा के समय स्त्रियाँ अधीनता स्वीकार करते हुवे मौन रहें - मैं नहीं चाहता कि वे शिक्षा दें या पुरुषों पर अधिकार जतायें । वे मौन ही रहें - क्यों कि आदम पहले बना हव्वा बाद में - और आदम बहकावे में नहीं पडा बल्कि हव्वा ने बहकावे में पड़कर अपराध किया - कुरिन्थियों के नाम पहला पत्र ५/११ से १४
  • जिस तरह कलिसिया मसीह के अधीन रहती है उसी तरह पत्नी को भी सब बातों में पति के अधीन रहना चाहिये - कुरिन्थियों के नाम पहला पत्र ५/२४
  • जैसा कि प्रभु-भक्तों के लिये उचित है, पत्नियाँ अपने पतियों के अधीन रहें - कलोसियों के नाम पत्र ३/१८
  • आप की धर्मसभाओं में भी स्त्रियाँ मौन रहें। उन्हें बोलने की अनुमति नहीं है। वे अपनी अधीनता स्वीकार करें जैसा कि संहिता कहती है कुरिन्थियों के नाम पहला पत्र १४/३४

- यदि वे किसी बात की जानकारी प्राप्त करना चाहती है तो वे घर में अपने पतियों से पूछे । धर्मसभामें बोलना स्त्री के लिये लज्जा की बात है - कुरिन्थियों के नाम पहला पत्र १४३५

  • यदि उसने अपराध किया और अपने पति के साथ विश्वासघात किया, तो वह शाप लानेवाला जल, जो याजक उसे पिलाता है, उस में असह्य पीडा उत्पन्न करेगा । स्त्री का पेट फूल जायेगा, उसकी जा घुल जायेंगी और उसका नाम उसके लोगों में अभिशाप्त हो जायेगा -गणना ग्रंथ ५/२७
  • यदि प्रभु, तुम्हारा ईश्वर उसे तुम्हारे हवाले करे तो उसका प्रत्येक पुरूष तलवार के घाट उतार दिया जाये - स्त्रियाँ, बच्चे, पू और जो कुछ उस नगर में है - वह सब तुम अपने अधिकार में कर लो और अपने शत्रुओं से लूटे हुए माल का उपभोग करो - विधि विवरण ग्रंथ २०/ १३, १४
  • इसलिये सब लड़कों को मार डालो और उन स्त्रीयों को भी जिनका पुरूष के साथ प्रसंग हवा है, किंतु तुम उन सब कन्याओं को जिनका पुरूषों से प्रसंग नहीं हुवा है अपने लिये जीवित रखो - गणना ग्रंथ ३१/१७,१८
  • सोलह हजार कन्याएं - इन में से प्रभू के लिये चढावा बत्तीस कन्याएं - गणना ग्रंथ ३१/४०
  • जब कोई आदमी अपनी लडकी को दासी के रूप में बेचे, तो वह दासों की तरह नही छोडी जायेगी

- - यदि वह अपने स्वामी को पसन्द न आये, जिसने उसे खरीदा है, तो वह उसे बेच सकता है। उसे किसी विदाशी व्यक्ति को न बेचा जाये, क्यों कि यह उसके साथ विश्वासघात होगा - निर्गमन ग्रंथ २१/७,८

  • न्यायाधिकरण (इन्क्विझिशन) का काम था घोर अत्याचार करना । - - उसने लाखों भाग्यहीन स्त्रियों को जादूगरनिया कहकर आग में झोंक दिया और धर्म के नामपर अनेक प्रकार के लोगों पर कई तरह के अत्याचार किए - बांड रसेल' व्हाय आय ऍम नॉट ए क्रिचियन एड अदर एसेज ऑन रिलीजन' पृष्ठ २४, ७वा संस्करण

७. विश्वकल्याण

विश्व के कल्याण हेतु

  • धर्माचार्यों को चाहिये कि वे धर्म को वादविवाद से मुक्त करें, सम्प्रदाय से ऊपर उठायें और धर्म से अविरुद्ध अर्थ और काम के स्वरूप को स्पष्ट करें।
  • विश्वविद्यालयों को चाहिये कि वे ज्ञान की पवित्रता और श्रेष्ठता की रक्षा करें, ज्ञान का संवर्धन करें और दैनन्दिन व्यवहार को ज्ञाननिष्ठ बनाना सिखायें ।
  • शासन को चाहिये कि वह धर्म ज्ञान और सत्य का सम्मान करे, समाज को स्वायत्त बनाये और सर्व व्यवस्थाओं का रक्षण और नियमन करे ।
  • सज्जनों को चाहिये कि वे दुर्जनों से अधिक सामर्थ्य प्राप्त करें और अपनी निष्क्रियता का त्याग कर लोक में सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा में सहभागी बने ।
  • धनवानों को चाहिये कि वे समाज के छोटे से छोटे व्यक्ति की आर्थिक स्वतन्त्रता को बाधित न होने दें, सब को स्वाश्रयी, स्वावलम्बी और उद्योग परायण बनना सिखायें।
  • सन्तों को चाहिये कि वे कृतिशील, समर्थ, ज्ञानयुक्त सज्जनता का उपदेश दें।
  • बलवानों को चाहिये कि वे दुर्बलों की रक्षा और आततायी को दण्ड दें, समाज को निर्वीर्य न बनने दें, बल का प्रयोग कर अन्याय न करें ।

८. विश्व के लिये भारत के व्यावहारिक आदर्श

  • आय से अधिक खर्च न करो । दान और बचत को अनिवार्य मानो।
  • किसी भी प्रकार की परम्परा को खण्डित न करो । परम्परा खण्डित करने को सामाजिक सांस्कृतिक अपराध मानो ।
  • सहअस्तित्व के सिद्धान्त की रक्षा करो । सहअस्तित्व में नहीं माननेवाले से अधिक समर्थ बनो।
  • शस्त्र, धन, सत्ता, बल से सत्य, धर्म, प्रेम और ज्ञान के सामर्थ्य को श्रेष्ठत्तर मानो । उसी सामर्थ्य को प्राप्त करो और बढाओ।
  • क्षुद्र से क्षुद्र पदार्थ की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार करो, सम्मान करो और उसकी रक्षा करो।
  • भलाई के उद्देश्य से किये गये छोटे से छोटे प्रयास की दुर्गति नहीं होती है यह निश्चय से मानो।
  • त्यागपूर्वक उपभोग करो।
  • मन के बुद्धि के और बुद्धि को आत्मा के वश में रखो।
  • अनीति से समृद्धि और सुख का नाश होता है।
  • दूसरों को गुलाम बनाने की चाह रखने वालों का तत्काल तो नहीं अपितु अल्पकाल में नाश ही होता है।

९. यन्त्रविवेक

  • यन्त्र आवश्यक हैं परन्तु उनका अविवेकपूर्ण उपयोग हानिकारक है।
  • यन्त्र मनुष्य के सहायक होने चाहिये, मनुष्य के पर्याय नहीं ।
  • यन्त्र मनुष्य के लिये है, मनुष्य यन्त्र के लिये नहीं हैं। मनुष्य मुख्य है, यन्त्र गौण ।
  • यन्त्र निर्जीव है मनुष्य सजीव । निर्जीव यन्त्र को मनुष्य प्राण की ऊर्जा से चलाता है।
  • यन्त्र अपनी ऊर्जा से नहीं चलता, मनुष्य और पशु की प्राण की ऊर्जा से चलता है।
  • यन्त्र जब प्राकृतिक गति से चलते हैं तब वे हानिकारक नहीं होते, अप्राकृतिक गति से चलने पर स्वास्थ्य, पर्यावरण और अर्थ का नाश करते
  • प्राणशक्ति के अलावा विद्युत, पेट्रोल आदि अन्य ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र आर्थिक क्षेत्र को छिन्नविच्छिन्न कर देते हैं और मनुष्य की स्वतन्त्रता का नाश करते हैं।
  • यन्त्र से मिलनेवाले आराम, सुविधा और समृद्धि आभासी होते हैं। बहुत जल्दी वे नष्ट हो जाते हैं।
  • प्राणशक्ति से चलने वाले यन्त्र मनुष्य की कल्पनाशक्ति और सृजनशीलता का आविष्कार है, अन्य ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र मनुष्य की दुर्बुद्धि का ।

१०. मनुस्मृति और स्त्री

परपत्नी त्या स्त्री स्यात् असम्बन्धा च योनितः ।

तां ब्रूयात् भवतीत्येवम् सुभगे भगिनीति वा ।। २.१२९

जो स्त्री परपत्नी है अथवा योनिसम्बन्ध से सम्बन्धित नहीं है उसे 'भवति', 'सुभगे' अथवा 'भगिनी' ऐसा सम्बोधन करना चाहिये (अर्थात् उससे आदरपूर्वक बात करनी चाहिये )।

उपाध्यायात् दशाचार्यः आचार्याणां शतं पिता । २.१४५

सहस्रं तु पितृन् माता गौरवेणाऽतिरिच्यते ॥

उपाध्याय (पैसे लेकर पढाने वाले) से आचार्य का गौरव दसगुना अधिक है, आचार्य से सौ गुना पिता का और पिता से सहस्र गुना माता का गौरव अधिक है।

स्त्रीधनानि तु ये: मोहात् उपजीवन्ति बान्धवाः ।

नारी यानानि वस्त्रं वा ते पाणा यान्त्यधोगतिम् ।।३.५२

पितृभिः भ्रातृभिश्चैताः पतिभिस्वेदरैस्तथा ।

पूज्याः भूषयितव्याश्च बहु कल्याणमिप्सुभिः ।। ३.५५

\अत्यन्त कल्याण चाहने वाले पिता, भाई, पति, देवर आदि ने स्त्री का सम्मान करना चाहिये और आभरण आदि अनेक प्रकार से उसे आभूषित करना चाहिये ।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यौतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफलाः क्रियाः ।। ३.५६

जहाँ त्रियों का सम्मान किया जाता है वहाँ देवता प्रसन्न होकर रहते हैं । जहाँ उनका सम्मान नहीं होता वहाँ किसी कामकाज का फल नहीं मिलता।

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।

रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ।। ९.३

स्त्री की रक्षा कुमारी अवस्था में पिता, यौवनावस्था में पति और वृद्धावस्थामां पुत्रने करनी चाहिये । स्त्री को असुरक्षित नहीं रखनी चाहिये ।

अन्य सुभाषित

न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुच्यते ।

गृहं तु गृहिणीहीन कान्तारादतिरिच्यते ॥

मकान को घर नहीं कहते, गृहिणी को ही गृह कहते हैं। बिना गृहिणी के घर बीहड जंगल से भी। अधिक बीहड होता है।

Capture२०० .png
Capture२०१ .png

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे