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==== ३. भारत की वैश्विकता ====
 
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<blockquote>'''अयं निज परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।'''</blockquote><blockquote>'''उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।'''</blockquote>यह अपना है और यह पराया ऐसा तो छोटे मन वाला मानता है। जिसका अन्तःकरण उदार है उसके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक छोटा कुटुम्ब ही है <blockquote>'''ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।'''</blockquote><blockquote>'''तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।'''</blockquote>जगत में जो भी कुछ है उसमें ईश्वर का वास है । अतः त्यागपूर्वक उपभोग करो, किसी का भी धन छीनो नहीं।<blockquote>'''यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते ।'''</blockquote>जो भूत मात्र का आत्यन्तिक हित है उसे ही सत्य कहते हैं।<blockquote>'''ॐ द्यौः शान्तिः । अन्तरिक्षं शान्तिः । पृथिवी शान्तिः । आपः शान्तिः । ओषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिः । विश्वेदेवाता शान्तिः । ब्रह्म शान्तिः । सर्व शान्तिः । शान्तिरेव शान्तिः । सा मा शान्तिरेधि । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।'''</blockquote>आकाश, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, वनस्पति, औषधी, विश्वदेव, ब्रह्म सर्वत्र शान्ति हो । शान्ति भी शान्त हो।<blockquote>'''सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।'''</blockquote><blockquote>'''सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाक्भवेत् ।।'''</blockquote>सब सुखी हों, सब निरामय हों, सब का कल्याण हो, कोई भी दुःखी न हो ।<blockquote>'''अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।''' </blockquote><blockquote>                '''परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।'''</blockquote>अठारह पुराणों का सार व्यास के ये दो वचन हैं कि परोपकार से पुण्य मिलता है, परपीडा से पाप ।
 
<blockquote>'''अयं निज परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।'''</blockquote><blockquote>'''उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।'''</blockquote>यह अपना है और यह पराया ऐसा तो छोटे मन वाला मानता है। जिसका अन्तःकरण उदार है उसके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक छोटा कुटुम्ब ही है <blockquote>'''ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।'''</blockquote><blockquote>'''तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।'''</blockquote>जगत में जो भी कुछ है उसमें ईश्वर का वास है । अतः त्यागपूर्वक उपभोग करो, किसी का भी धन छीनो नहीं।<blockquote>'''यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते ।'''</blockquote>जो भूत मात्र का आत्यन्तिक हित है उसे ही सत्य कहते हैं।<blockquote>'''ॐ द्यौः शान्तिः । अन्तरिक्षं शान्तिः । पृथिवी शान्तिः । आपः शान्तिः । ओषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिः । विश्वेदेवाता शान्तिः । ब्रह्म शान्तिः । सर्व शान्तिः । शान्तिरेव शान्तिः । सा मा शान्तिरेधि । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।'''</blockquote>आकाश, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, वनस्पति, औषधी, विश्वदेव, ब्रह्म सर्वत्र शान्ति हो । शान्ति भी शान्त हो।<blockquote>'''सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।'''</blockquote><blockquote>'''सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाक्भवेत् ।।'''</blockquote>सब सुखी हों, सब निरामय हों, सब का कल्याण हो, कोई भी दुःखी न हो ।<blockquote>'''अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।''' </blockquote><blockquote>                '''परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।'''</blockquote>अठारह पुराणों का सार व्यास के ये दो वचन हैं कि परोपकार से पुण्य मिलता है, परपीडा से पाप ।
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=== ४. पश्चिम से जन्मे ऐसे अनिष्ट जो आकर्षक लगते हैं ===
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* '''गति''' : सब कुछ जल्दी करने की चाह में वाहनों की और संचार माध्यमों की खोज हुई । गति की यह चाह मन की अस्थिरता का स्वरूप है । सर्वाधिक गति वाला वाहन भी मन की गति की बराबरी नहीं कर सकता।
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* '''नवीनता''' : नित्य नये की चाह मन के सन्तोष गुण के अभाव से जन्मी है । यह विश्व को व्यर्थ परिश्रम में उलझाती है और अपव्यय का कारण बनती है। अपव्यय दारिद्य को जन्म देता है।
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* '''स्पर्धा''' : सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह ने स्पर्धा को जन्म दिया है। स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से नाश की ओर गति होती है।
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* '''सुविधा''' : मनुष्य की अनेक क्षमताओं का क्षरण और प्रकृति का शोषण सुविधा के आकर्षण का परिणाम है । स्वतन्त्रता के नाम पर मनुष्य पराधीन, दुर्बल और रोगी बन गया है।
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* '''विकास''' : निरन्तर आगे बढना, अमर्याद रूप से अधिक चाहना, अनन्त वृद्धि चाहना, पश्चिम को विकास का पर्याय लगता है। इसका परिणाम अपने आधार से पैर उखड जाना और हवा में लटक जाना ही है।
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* '''मनोरंजन''' : अस्थिर, अशान्त, आसक्त, कामपूर्ण मन को अधिक अशान्त, अधिक अस्थिर, अधिक आसक्त, अधिक कामी बनानेवाला, उसी मन को खुश करने हेतु सौन्दर्य और सौन्दर्यबोध को विकृत बना देने वाला तत्त्व पश्चिम के लिये मनोरंजन है तो वास्तिविक विकास के मार्गों को अवरुद्ध कर देता है।
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* '''समृद्धि''' : दारिद्य, हीनता और विनाश की ओर ले जाने वाला भौतिक पदार्थों का आधिक्य जो प्रथम दूसरों का और अन्त में स्वयं का भी नाश करता है।
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* '''ज्ञान''' : भौतिक जगत के जडतापूर्ण रहस्यों को जानने की और गति, विकास, समृद्धि आदि को प्राप्त करने हेतु जानकारी का प्रयोग करने की शक्ति जो मुक्ति के स्थान पर शक्ति का संचय कर नाश का कारण बनती
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* '''विज्ञान''' : यह एक तात्त्विक मोहजाल से निकली संकल्पना है जिसने सारे चेतनायुक्त अस्तित्वों को जड सिद्ध कर दिया है और जगत को अनिष्टों के जाल में फंसा दिया है।
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* '''आधुनिकता''' : अत्यन्त आकर्षक लगने वाली यह संकल्पना वास्तव में चर्चसत्ता और राज्यसत्ता के संघर्ष से जन्मी निधार्मिक संकल्पना है जिसमें 'विज्ञान' की भी भूमिका है। भौतिकता, संस्कारहीनता, अमानवीयता आदि का विचित्र मिश्रण है । इसका न कोई सार्थक आधार है न स्वरूप ।
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'''भारत को चाहिये कि इन सभी सुन्दर शब्दों के सही अर्थ विश्व के समक्ष प्रस्तुत करे ।'''
  
 
==References==
 
==References==

Revision as of 11:05, 15 January 2020

अध्याय ४८

१. असुरो का संहार

जगत में तारकासुर का आतंक बढ गया । तब देवों को प्रतीति हुई कि भगवान शिव और सती पार्वती का पुत्र ही देवों का सेनापति बनकर उनका नाश कर सकता है । देवों ने प्रार्थना की, शिव और पार्वती ने तपश्चर्या की, कार्तिकेय का जन्म हुआ, वह देवों का सेनापति बना और तारकासुर का नाश हुआ। जगत पर वृत्रासुर नामक असुर का आतंक छा गया था। वह महाबलवान था। उसे मार सके ऐसा शस्त्र किसी के पास नहीं था । उसे मारने के लिये वज्र की आवश्यकता थी जो तपश्चर्या और त्याग से ही प्राप्त हो सकता था । देव तपस्वी मुनि दधीचि के पास गये, उन्हें प्रार्थना की, मुनिने अपनी हड्डियाँ प्रदान की, उन हड्डियों से वज्र बना जिससे इन्द्र ने वृत्रासुर का नास किया। भस्मासुर ने उग्र तपश्चर्या की और भगवान शंकर को प्रसन्न किया । भगवान शंकर से वर मांगा कि वह जिसके सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जायेगा । प्रसन्न हुए भगवान शंकर ने वर दिया । अब भस्मासुर हाथ रखता था और लोग मरते थे। उस का नाश करने के लिये भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया, वे नृत्य करने लगे और भस्मासुर को भी अपने साथ नृत्य करने हेतु विवश किया । नृत्य करते करते भगवान विष्णुने अपने सिर पर हाथ रखा । उनके अनुसरण में भस्मासुर ने भी अपना हाथ सिर पर रखा और वह भस्म हो गया । स्वर्ग मुक्त हुआ। महिषासुर ने भगवती दुर्गा से अपने साथ विवाह करने हेतु आग्रह किया । डराया, धमकाया भी। भगवती दुर्गा ने कहा कि यदि वह उनसे युद्ध कर रण में जीतेगा तो वह उससे विवाह करेगी। महिषासुर को लगा कि एक स्त्री को युद्ध में जीतना सरल है। उसने हाँ कहा, दोनों में युद्ध हुआ । भगवती दुर्गा ने उस युद्ध में अपने शस्त्र से महिषासुर को परास्त किया और उसका वध किया। आज भारत को शिव और पार्वती जैसे समर्थ सन्तान को जन्म देने वाले समर्थ मातापिता की, दधीचि जैसे तपस्वी और त्यागी की, मोहिनी रूप धारण करनेवाले विष्णु की और अनिष्ट का नाश करने वाली दुर्गा जैसी स्त्रियों की एक साथ आवश्यकता है। तभी पश्चिमासुर का नाश होकर विश्व के सुख और शान्ति की रक्षा हो सकती है।

२. जीवन के आधार है...

  • एकात्म जीवनदृष्टि जीवन को एक और अखण्ड देखती है, चर और अचर सृष्टि को एक मानती है और सबके हित और सुख की कामना करती है ।
  • ज्ञान जो जीवन और जगत के व्यवहार के सारे रहस्यों को प्रकट करता है और उसके प्रकाश में कैसे व्यवहार करना यह भी सिखाता है।
  • धर्म जो विश्व को धारण करता है, किसी का नाश नहीं होने देता, सबकी रक्षा करता है और सारे व्यवहारों हेतु व्यवस्था प्रदान करता है ।
  • सत्य जो सम्पूर्ण विश्व के आपसी संवाद और सम्बन्ध के लिये प्रमाणभूत सन्दर्भ है और न्याय, नीति, ऋजुता, सद्भावना और प्रामाणिकता के रूप में धर्म को प्रकट करता है।
  • प्रेम जो सबके साथ एकात्मता की अनुभूति करवाता है, सबके शुभ और मंगल की कामना करता है । दूसरे को अपने से प्रथम मानने की प्रेरणा देता है।
  • तप जो जगत के कल्याण हेतु कष्ट, असुविधा, अवरोध, कठिनाई झेलने के लिये उद्यत होता है, जो सर्व प्रकार के संयम और आत्मत्याग का सार है और सर्व प्रकार की सिद्धियों हेतु अनिवार्य है।
  • सेवा जो अपने लिये किसी प्रकार की अपेक्षा किये बिना अपने निःशेष सामर्थ्य के अनुसार, छोटे बडे का विचार न करते हुए दूसरों के लिये उपयोगी बनने हेतु प्रेरित करती है।
  • त्याग जो जगत के किसी भी चरअचर पदार्थ, प्राणी या मनुष्य के लिये अपनी किसी भी वस्तु को छोड़ने में लेशमात्र संकोच नहीं करता है।

३. भारत की वैश्विकता

अयं निज परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।

यह अपना है और यह पराया ऐसा तो छोटे मन वाला मानता है। जिसका अन्तःकरण उदार है उसके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक छोटा कुटुम्ब ही है

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।

जगत में जो भी कुछ है उसमें ईश्वर का वास है । अतः त्यागपूर्वक उपभोग करो, किसी का भी धन छीनो नहीं।

यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते ।

जो भूत मात्र का आत्यन्तिक हित है उसे ही सत्य कहते हैं।

ॐ द्यौः शान्तिः । अन्तरिक्षं शान्तिः । पृथिवी शान्तिः । आपः शान्तिः । ओषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिः । विश्वेदेवाता शान्तिः । ब्रह्म शान्तिः । सर्व शान्तिः । शान्तिरेव शान्तिः । सा मा शान्तिरेधि । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

आकाश, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, वनस्पति, औषधी, विश्वदेव, ब्रह्म सर्वत्र शान्ति हो । शान्ति भी शान्त हो।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाक्भवेत् ।।

सब सुखी हों, सब निरामय हों, सब का कल्याण हो, कोई भी दुःखी न हो ।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।

अठारह पुराणों का सार व्यास के ये दो वचन हैं कि परोपकार से पुण्य मिलता है, परपीडा से पाप ।

४. पश्चिम से जन्मे ऐसे अनिष्ट जो आकर्षक लगते हैं

  • गति : सब कुछ जल्दी करने की चाह में वाहनों की और संचार माध्यमों की खोज हुई । गति की यह चाह मन की अस्थिरता का स्वरूप है । सर्वाधिक गति वाला वाहन भी मन की गति की बराबरी नहीं कर सकता।
  • नवीनता : नित्य नये की चाह मन के सन्तोष गुण के अभाव से जन्मी है । यह विश्व को व्यर्थ परिश्रम में उलझाती है और अपव्यय का कारण बनती है। अपव्यय दारिद्य को जन्म देता है।
  • स्पर्धा : सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह ने स्पर्धा को जन्म दिया है। स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से नाश की ओर गति होती है।
  • सुविधा : मनुष्य की अनेक क्षमताओं का क्षरण और प्रकृति का शोषण सुविधा के आकर्षण का परिणाम है । स्वतन्त्रता के नाम पर मनुष्य पराधीन, दुर्बल और रोगी बन गया है।
  • विकास : निरन्तर आगे बढना, अमर्याद रूप से अधिक चाहना, अनन्त वृद्धि चाहना, पश्चिम को विकास का पर्याय लगता है। इसका परिणाम अपने आधार से पैर उखड जाना और हवा में लटक जाना ही है।
  • मनोरंजन : अस्थिर, अशान्त, आसक्त, कामपूर्ण मन को अधिक अशान्त, अधिक अस्थिर, अधिक आसक्त, अधिक कामी बनानेवाला, उसी मन को खुश करने हेतु सौन्दर्य और सौन्दर्यबोध को विकृत बना देने वाला तत्त्व पश्चिम के लिये मनोरंजन है तो वास्तिविक विकास के मार्गों को अवरुद्ध कर देता है।
  • समृद्धि : दारिद्य, हीनता और विनाश की ओर ले जाने वाला भौतिक पदार्थों का आधिक्य जो प्रथम दूसरों का और अन्त में स्वयं का भी नाश करता है।
  • ज्ञान : भौतिक जगत के जडतापूर्ण रहस्यों को जानने की और गति, विकास, समृद्धि आदि को प्राप्त करने हेतु जानकारी का प्रयोग करने की शक्ति जो मुक्ति के स्थान पर शक्ति का संचय कर नाश का कारण बनती
  • विज्ञान : यह एक तात्त्विक मोहजाल से निकली संकल्पना है जिसने सारे चेतनायुक्त अस्तित्वों को जड सिद्ध कर दिया है और जगत को अनिष्टों के जाल में फंसा दिया है।
  • आधुनिकता : अत्यन्त आकर्षक लगने वाली यह संकल्पना वास्तव में चर्चसत्ता और राज्यसत्ता के संघर्ष से जन्मी निधार्मिक संकल्पना है जिसमें 'विज्ञान' की भी भूमिका है। भौतिकता, संस्कारहीनता, अमानवीयता आदि का विचित्र मिश्रण है । इसका न कोई सार्थक आधार है न स्वरूप ।

भारत को चाहिये कि इन सभी सुन्दर शब्दों के सही अर्थ विश्व के समक्ष प्रस्तुत करे ।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे