Difference between revisions of "विद्यालय में अध्ययन विचार"

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=== अध्याय १२ ===
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==== अध्ययन हेतु सुविधा का विचार ====
 
==== अध्ययन हेतु सुविधा का विचार ====
१. विद्यालय में निम्नलिखित सुविधायें /व्सव्धायें किस प्रकार से बना सकते हैं ?  
+
१. विद्यालय में निम्नलिखित सुविधायें /व्यवस्थाये किस प्रकार से बना सकते हैं ?  
 
# तापमान  
 
# तापमान  
 
# वायु   
 
# वायु   
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# प्रेम
 
# प्रेम
 
# प्रसन्नता
 
# प्रसन्नता
सहभागिता किस प्रकार बने ? सरस्वती का मंदिर है हम मंदिर का पवित््य समझते है
+
. इन सभी व्यवस्थाओं का शैक्षिक मूल्य क्या है ?
¥. इन सुविधाओं के आर्थिक पक्ष में किस प्रकार से इसलिये विद्यालय तो पवित्र होता ही है । शौचालय
 
  
विचार करना चाहिये ? की व्यवस्था छात्र छात्रायें शिक्षक कर्मचारी सबके
+
. इन सभी व्यवस्थाओं में छात्रों एवं आचार्यों की सहभागिता किस प्रकार बने ?
4. इन व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में शास्त्रीय या लिये अलग अलग होना आवश्यक है ।
 
  
वैज्ञानिक दृष्टि कया है ? २... विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त होती है परन्तु व्यवस्था का
+
. इन सुविधाओं के आर्थिक पक्ष में किस प्रकार से विचार करना चाहिये ?
६. क्या ऐसा होगा कि वैज्ञानिक दृष्टि से सही भी कोई शैक्षिक मूल्य होता है यह बात समझ नहीं
 
  
व्यवस्थायें _ व्यावहारिक नहीं होंगी. और पाते ।
+
. इन व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में शास्त्रीय या वैज्ञानिक दृष्टि क्या है ?
  
१९६
+
६. क्या ऐसा होगा कि वैज्ञानिक दृष्टि से सही व्यवस्थायें व्यावहारिक नहीं होंगी और व्यावहारिक होंगी वे वैज्ञानिक नहीं होंगी ?
 
  
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+
. तब क्या किया जाय ?
  
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
+
शिक्षकों के साथ वार्तालाप करके इस प्रश्नावली के उत्तर प्राप्त किये है। वह इस प्रकार है।
  
... आचार्योने सारी व्यवस्था बनाने में उचित समय पर
+
. विद्यालय में विद्यार्थी ज्ञान ग्रहण करते हैं। अतः तापमान हवा प्रकाश ध्वनि इत्यादि की बाबत अच्छी से अच्छी सुविधा प्राप्त होती तो पढाई अच्छी होगी। सुन्दरता, स्वच्छता तो अनिवार्य ही है। शिक्षक उनके प्रेरक व्यक्तित्व होने चाहिये। छात्र शिक्षक के मानसपुत्र कहलाते है, तो मातापिता और पुत्र में प्रेम होता ही है। बात रही पवित्रता की तो विद्यालय तो सरस्वती का मंदिर है हम मंदिर को  पवित्र्य समझते है, इसलिये विद्यालय तो पवित्र होता ही है। शौचालय की व्यवस्था छात्र छात्रायें शिक्षक कर्मचारी सबके लिये अलग अलग होना आवश्यक है।
छात्रों को निर्देश देने चाहिये यह भी सबके अध्यापन
 
काही भाग समझना चाहिये । स्थान स्थान पर
 
सुविचारो के फलक लगाना चाहिये । फिर भी जो
 
छात्र व्यवस्थाओ में बाधा डालता है. उसे दण्डित
 
करना चाहिये ऐसा मत व्यक्त हुआ |
 
  
¥. सुविधा बनाये रखने में व्यय तो होगा ही परन्तु
+
. विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त होती है, परन्तु व्यवस्था का भी कोई शैक्षिक मूल्य होता है यह बात समझ नही पाते
अच्छी सुविधा के fet ser. फिल्टर पेय जल, पंखे
 
आदि के लिये अभिभावक ख़ुशी से धन देने तैयार है
 
क्योंकी उनके ही बच्चे इस सुविधा का उपभोग
 
लेनेवाले है ।
 
  
प्र. ५, ६ व ७ प्रश्नों का उत्तर किसि से प्राप्त नहीं हुआ |
+
. आचार्योंने सारी व्यवस्था बनाने में उचित समय पर छात्रों को निर्देश देने चाहिये यह भी सबके अध्यापन काही भाग समझना चाहिये । स्थान स्थान पर सुविचारो के फलक लगाना चाहिये । तथापि जो छात्र व्यवस्थाओ में बाधा डालता है उसे दण्डित करना चाहिये ऐसा मत व्यक्त हुआ
  
अभिमत
+
४. सुविधा बनाये रखने में व्यय तो होगा ही परन्तु अच्छी सुविधा के लिये उदा. फिल्टर पेय जल, पंखे आदि के लिये अभिभावक खुशी से धन देने तैयार है क्योंकी उनके ही बच्चे इस सुविधा का उपभोग लेनेवाले है। प्र. ५, ६ व ७ प्रश्नो का उत्तर किसी से प्राप्त नहीं हुआ।
  
जबाब सुनकर ऐसा लगा वास्तव में ज्ञानार्जन यह
+
==== अभिमत ====
साधना है और साधना कभी भी अच्छे सुख सुविधाओं से
+
जबाब सुनकर ऐसा लगा वास्तव में ज्ञानार्जन यह साधना है और साधना कभी भी अच्छे सुख सुविधाओं से प्राप्त नहीं होती। यह बात आज समाज भूल गया है, ऐसा लगा । शिक्षक केवल पढाई का तथा व्यवस्था के संदर्भ में निर्देश देने का कार्य करेंगे ऐसा उनका मन बन गया है। अतः व्यवस्था निर्माण करने के प्रत्यक्ष सहयोग का विचार भी उनके मन में आता नहीं। आजकल शहरो में भीड के स्थान पर विद्यालय होते हैं, अतः ध्वनि, प्रकाश, हवा, तापमान आदि के विषय में शास्त्रीय विचार जानते हुए भी सब शहरवासियों को वह असंभव लगता है, और गाँव में विद्यालय की जगह निसर्ग की गोद में तो होती है। परंतु सारी व्यवस्था शास्त्रीय होते हुए भी उन्हें शास्त्र तो समझमे नहीं आता उल्टा शहर जैसे मंजिल के भवन आदि बनाने के लिये वे भी प्रयत्नशील रहते है। बिना कॉम्प्यूटर के अपना विद्यालय पिछडा है, ऐसा हीनता का भाव उनके मन में होता है। जहा पवित्रता नहीं होती उस स्थान पर प्रसन्नता और शान्ति भी नहीं रहती यह तो सब जानते हैं।
प्राप्त नहीं होती । यह बात आज समाज भूल गया है ऐसा
 
लगा । शिक्षक केवल पढाई का तथा व्यवस्था के संदर्भ में
 
निर्देश देने का कार्य करेंगे ऐसा उनका मन बन गया है ।
 
अतः व्यवस्था निर्माण करने के प्रत्यक्ष सहयोग का विचार
 
भी उनके मन में आता नहीं । आजकल शहरों में भीड के
 
स्थान पर विद्यालय होते हैं अतः ध्वनि, प्रकाश, हवा,
 
तापमान आदि के विषय में शास्त्रीय विचार जानते हुए भी
 
सब शहरवासियों को वह असंभव लगता है और गाँव में
 
विद्यालय की जगह निसर्ग की गोद में तो होती है परंतु सारी
 
व्यवस्था शास्त्रीय होते हुए भी उन्हें शास्त्र तो समझमे नहीं
 
आता उल्टा शहर जैसे मंजिल के भवन आदि बनाने के
 
लिये वे भी प्रयत्नशील रहते है । बिना कॉम्प्यूटर के अपना
 
विद्यालय पिछडा है ऐसा हीनता का भाव उनके मन में
 
होता है । जहा पवित्रता नहीं होती उस स्थान पर प्रसन्नता
 
और शान्ति भी नहीं रहती यह तो सब जानते हैं ।
 
  
सुविधा किसे चाहिए
+
==== सुविधा किसे चाहिए ====
, अध्ययन हेतु सुविधा का विचार गौण रूप से ही
+
. अध्ययन हेतु सुविधा का विचार गौण रूप से ही करना चाहिये।
करना चाहिये ।
 
  
श्९७
+
एक दो सुभाषित इस सन्दर्भ में ध्यान में लेने लायक हैं ...<blockquote>सुखार्थी चेतू त्यजेत्‌ विद्याम्‌</blockquote><blockquote>विद्यार्थी चेतू त्यजेतू सुखम्‌ ।</blockquote><blockquote>सुखार्थिन: कुत्तो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तों सुखम्‌ ।।</blockquote>अर्थात सुख की इच्छा करने वाले को विद्या की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या कैसे मिल सकती है और विद्या चाहने वाले को सुख कैसे मिल सकता है ? <blockquote>कामातुराणामू न भयम्‌ न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणांमू न गुरुर्न बंधु:</blockquote><blockquote>विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा</blockquote><blockquote>क्षुधातुराणां न रुचीर्न पक्वम्  ॥।</blockquote>अर्थात्‌ जो काम से आहत हो गया है उसे भय की लज्जा नहीं होती, जो अर्थ के पीछे पड़ गया है उसे कोई गुरु नहीं होता न कोई स्वजन, जिसे विद्या की चाह है उसे सुख या निद्रा की चाह नहीं होती और जो भूख से पीड़ित है उसे स्वाद की या पदार्थ पका है कि नहीं उसकी परवाह नहीं होती ।
  
       
+
विद्या प्राप्त करने के लिये इच्छुक व्यक्ति को सुविधाभोगी नहीं होना चाहिये यह सदा से कहा
 
 
एक दो सुभाषित इस सन्दर्भ में
 
ध्यान में लेने लायक हैं ...
 
सुखार्थी चेतू त्यजेत्‌ विद्याम्‌
 
विद्यार्थी चेतू त्यजेतू सुखम्‌ ।
 
सुखार्थिन: कुत्तो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तों सुखम्‌ ।।
 
अर्थात सुख की इच्छा करने वाले को विद्या की
 
अपेक्षा नहीं करनी चाहिये और विद्या की इच्छा रखने
 
वाले को सुख की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये क्योंकि
 
सुख चाहने वाले को विद्या कैसे मिल सकती है और
 
विद्या चाहने वाले को सुख कैसे मिल सकता है ?
 
कामातुराणामू न भयम्‌ू न लज्जा
 
 
 
अर्थातुराणांमू न et बंधु:
 
 
 
विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा
 
 
 
क्षुधातुराणां न रुचीर्न पक्‍्वमू ॥।
 
 
 
अर्थात्‌ जो काम से आहत हो गया है उसे भय की
 
लज्जा नहीं होती, जो अर्थ के पीछे पड़ गया है उसे
 
कोई गुरु नहीं होता न कोई स्वजन, जिसे विद्या की
 
चाह है उसे सुख या निद्रा की चाह नहीं होती और
 
जो भूख से पीड़ित है उसे स्वाद की या पदार्थ पका
 
है कि नहीं उसकी परवाह नहीं होती ।
 
 
 
विद्या प्राप्त करने के लिये इच्छुक व्यक्ति को
 
सुविधाभोगी नहीं होना चाहिये यह हमेशा से कहा
 
 
गया । प्राचीन काल में तो विद्याध्यायन करने वाले
 
गया । प्राचीन काल में तो विद्याध्यायन करने वाले
छात्र को ब्रह्मचारी ही कहा जाता था और ब्रह्मचारी
+
छात्र को ब्रह्मचारी ही कहा जाता था और ब्रह्मचारी के लिये अनेक सुविधाओं का निषेध बताया गया था । सर्व प्रकार के शृंगार उसके लिये निषिद्ध थे । उसका मनोवैज्ञानिक कारण था । यदि मन उन सुखों में रहेगा तो अध्ययन में एकाग्र होकर लगेगा ही नहीं । साथ ही यह भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मन जब अध्ययन में एकाग्र हुआ होता है तब अन्य सुखसुविधाओं का स्मरण भी नहीं होता । विद्याध्यायन का आनन्द बुद्धि का आनन्द है । जब बुद्धि का आनन्द प्राप्त होता है तब इंद्रियों का आनन्द सुख नहीं देता । इसलिये भी विद्याध्यायन के समय और बातों का स्मरण नहीं होता और श्रृंगार आदि की आवश्यकता नहीं लगती।
के लिये अनेक सुविधाओं का निषेध बताया गया
 
था । सर्व प्रकार के शृंगार उसके लिये निषिद्ध थे ।
 
उसका मनोवैज्ञानिक कारण था । यदि मन उन सुखों
 
में रहेगा तो अध्ययन में एकाग्र होकर लगेगा ही
 
नहीं । साथ ही यह भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मन
 
जब अध्ययन में एकाग्र हुआ होता है तब अन्य
 
सुखसुविधाओं का स्मरण भी नहीं होता ।
 
विद्याध्यायन का आनन्द बुद्धि का आनन्द है । जब
 
बुद्धि का आनन्द प्राप्त होता है तब इंद्रियों का आनन्द
 
सुख नहीं देता । इसलिये भी विद्याध्यायन के समय
 
 
 
 
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८ न
 
८ ५८५५७
 
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और बातों का स्मरण नहीं होता और
+
==== सुविधा का प्रश्न ====
शुंगार आदि की आवश्यकता नहीं लगती ।
+
और बातों का स्मरण नहीं होता और शृंगार आदि की आवश्यकता नहीं लगती ।
  
 
सुविधा का प्रश्न
 
सुविधा का प्रश्न
 +
* वर्तमान में ऐसी धारणा बन गई है कि अध्ययन करने के लिये सुविधा चाहिये । घर से लेकर विद्यालय तक सर्वत्र अनेक प्रकार की सुविधाओं का विचार होता है। कुछ उदहारण देखे  ...
 +
* घर से विद्यालय जाने के लिये वाहन चाहिये । यह बाइसिकल, ओटोरीक्षा, स्कूलबस, कार आदि कोई भी हो सकता है। वाहन की आवश्यकता क्यों होती है ? इसलिये कि अब पैदल चलना असंभव लगता है। वास्तव में घर से विद्यालय पैदल चलकर ही जाना चाहिये । पाँच से सात वर्ष के छात्र एक किलोमीटर. आठ से दस वर्ष के छात्र तीन किलोमीटर, दस से अधिक आयु के छात्र पाँच किलोमीटर और महाविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र आठ किलोमीटर पैदल चलकर विद्यालय जाते हैं तो उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। परन्तु आज इसे अत्यंत अस्वाभाविक माना जाता है। इनके कारण विभिन्न प्रकार के बताए जाते हैं।  जैसे की
 +
* रास्ते इतने भीड़ भरे होते हैं कि छोटे छात्रों का उन पर चलना सुरक्षित नहीं होता। 
 +
* आजकल बच्चोंं का हरण करने वाले गुंडे भी होते हैं अतः बच्चोंं की असुरक्षा बढ़ गई है। उन्हें अकेले विद्यालय जाने देना उचीत नहीं होता। 
 +
* एक किलोमीटर से अधिक चलना बड़ों को भी आज अच्छा नहीं लगता। एक कारण शारीरिक दुर्बलता है। वे थक जाते हैं । यह कारण सत्य भी है और मानसिक दुर्बलता का द्योतक भी, क्योंकि चलना पहले मन को अच्छा नहीं लगता, बाद में शरीर को । 
 +
लोग कहते हैं कि विद्यालय तक चलने में ही यदि थकान हो जाती है तो फिर पढ़ेंगे कैसे । अत: वाहन तो अति आवश्यक है । साथ ही समय बर्बाद होता है । आज इतना समय है ही नहीं इसलिये वाहन चाहिये ।
  
वर्तमान में ऐसी धारणा बन गई है कि अध्ययन करने
+
ये सारे तर्क जो वाहन की सुविधा के लिये दिये जाते हैं वे अनुचित हैं क्योंकि हम देखते हैं कि चलने के अभाव में छात्रों का शारीरिक श्रम नहीं होता है इसका स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव होता है । छात्र अवस्था से नहीं चलने की आदत हो जाने से लोग बड़ी आयु में कार्यालयों में भी चलकर नहीं जाते हैं इसलिये रास्तों पर वाहनों की भीड़ हो जाती है और असुरक्षा, समय
के लिये सुविधा चाहिये । घर से लेकर विद्यालय तक
 
सर्वत्र अनेक प्रकार की सुविधाओं का विचार होता है
 
और पढ़ाई का अधिकांश खर्च इन सुविधाओं के
 
लिये ही होता है । कुछ उदाहरण देखें ...
 
 
 
घर से विद्यालय जाने के लिये वाहन चाहिये । यह
 
बाइसिकल, ओटोरीक्षा, स्कूलबस, कार आदि कोई
 
भी हो सकता है । वाहन की आवश्यकता क्यों होती
 
है ? इसलिये कि अब पैदल चलना असंभव लगता
 
है । वास्तव में घर से विद्यालय पैदल चलकर ही जाना
 
चाहिये । पाँच से सात वर्ष के छात्र एक किलोमीटर,
 
आठ से दस वर्ष के छात्र तीन किलोमीटर, दस से
 
अधिक आयु के छात्र पाँच किलोमीटर और
 
महाविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र आठ किलोमीटर
 
पैदल चलकर विद्यालय जाते हैं तो उसमें कुछ भी
 
अस्वाभाविक नहीं है। परन्तु आज इसे अत्यंत
 
अस्वाभाविक माना जाता है । इनके कारण विभिन्न
 
प्रकार के बताए जाते हैं । जैसे की
 
 
 
रास्ते इतने भीड़ भरे होते हैं कि छोटे छात्रों का उन
 
पर चलना सुरक्षित नहीं होता ।
 
 
 
आजकल बच्चों का हरण करने वाले गुंडे भी होते हैं
 
अत: बच्चों की असुरक्षा बढ़ गई है । उन्हें अकेले
 
विद्यालय जाने देना उचीत नहीं होता ।
 
 
 
एक किलोमीटर से अधिक चलना बड़ों को भी आज
 
अच्छा नहीं लगता । एक कारण शारीरिक दुर्बलता
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
   
 
 
 
है। वे थक जाते हैं । यह कारण सत्य भी है और
 
मानसिक दुर्बलता का द्योतक भी, क्योंकि चलना
 
पहले मन को अच्छा नहीं लगता, बाद में शरीर को ।
 
लोग कहते हैं कि विद्यालय तक चलने में ही यदि
 
थकान हो जाती है तो फिर पढ़ेंगे कैसे । अत: वाहन
 
तो अति आवश्यक है । साथ ही समय बर्बाद होता है ।
 
आज इतना समय है ही नहीं इसलिये वाहन चाहिये ।
 
ये सारे तर्क जो वाहन की सुविधा के लिये दिये जाते हैं
 
वे अनुचित हैं क्योंकि हम देखते हैं कि चलने के
 
अभाव में छात्रों का शारीरिक श्रम नहीं होता है इसका
 
स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव होता है । छात्र अवस्था से
 
नहीं चलने की आदत हो जाने से लोग बड़ी आयु में
 
कार्यालयों में भी चलकर नहीं जाते हैं इसलिये रास्तों
 
पर वाहनों की भीड़ हो जाती है और असुरक्षा, समय
 
और पैसों की बरबादी तथा प्रदूषण बढ़ता हैं । ये सर्व
 
प्रकार की हानि ही है ।
 
 
 
जो समय की बरबादी का बहाना बनाते हैं वे अन्य
 
प्रकार से समय का सदुपयोग करते हैं ऐसा तो दिखाई
 
नहीं देता है । टीवी, होटल, सैर आदि में इतना समय
 
व्यतीत होता है कि वास्तव में अध्ययन के लिये
 
समय ही नहीं बचता है । अत: वाहन की सुविधा
 
सुविधा है ही नहीं ।
 
 
 
शिक्षक, संचालक और अभिभावक कहते हैं कि
 
छात्रों के लिये सुविधा नहीं होगी तो वे पढ़ने में मन
 
नहीं लगा सकेंगे । घर में भी पढ़ने के लिये विशेष
 
कुर्सी टेबल, लेंप आदि की सुविधा चाहिये ।
 
विद्यालय में भी टेबल कुर्सी नहीं होगी तो पढ़ेंगे कैसे
 
ऐसा तर्क दिया जाता है ।
 
 
 
 
 
 
विद्यालय में प्रतियोगितायें
 
 
 
प्रतियोगिताओं का शैक्षिक मूल्य क्या है ?
 
प्रतियोगिताओं का व्यावहारिक मूल्य क्या है ?
 
प्रतियोगिताओं के प्रति सही दृष्टिकोण कैसे
 
विकसित करें ?
 
 
 
प्रतियोगिता की भावना कम करने के क्‍या उपाय
 
करें ?
 
 
 
प्रतियोगितायें लाभ के स्थान पर हानि कैसे करती
 
हैं?
 
 
 
 
............. page-215 .............
 
  
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
+
और पैसों की बरबादी तथा प्रदूषण बढ़ता हैं । ये सर्व प्रकार की हानि ही है। जो समय की बरबादी का बहाना बनाते हैं वे अन्य प्रकार से समय का सदुपयोग करते हैं ऐसा तो दिखाई नहीं देता है । टीवी, होटल, सैर आदि में इतना समय व्यतीत होता है कि वास्तव में अध्ययन के लिये समय ही नहीं बचता है। अतः वाहन की सुविधा व्यतीत होता है कि वास्तव में अध्ययन के लिये समय ही नहीं बचता है। अतः वाहन की सुविधा सुविधा है ही नहीं। शिक्षक, संचालक और अभिभावक कहते हैं कि छात्रों के लिये सुविधा नहीं होगी तो वे पढ़ने में मन नहीं लगा सकेंगे । घर में भी पढ़ने के लिये विशेष कुर्सी टेबल, लेंप आदि की सुविधा चाहिये । विद्यालय में भी टेबल कुर्सी नहीं होगी तो पढ़ेंगे कैसे ऐसा तर्क दिया जाता है।
  
६... प्रतियोगितायें लाभकारी बनें इसलिये क्या क्या
+
=== विद्यालय में प्रतियोगितायें ===
करना चाहिये ?
+
. प्रतियोगिताओं का शैक्षिक मूल्य क्या है ?  
प्रश्नावली से पाप्त उत्तर
 
  
wa yaad के कुल छः प्रश्न है । इस विषय पर
+
२. प्रतियोगिताओं का व्यावहारिक मूल्य क्या है ?
aga fia, a प्रधानाचार्य, दो संस्थाचालक एवं
 
इकतालीस अभिभावकों ने अपने मत प्रदर्शित किये ।
 
१, लगभग ४० प्रतिशत शिक्षक एवं अभिभावक प्रतियोगिता
 
के शैक्षिक एवं व्यावहारिक मूल्य संबंध मे अनभिज्ञ
 
है । ४० प्रतिशत लोग शारीरिक मानसिक विकास ऐसा
 
उत्तर देते है । परंतु उत्तरों से उन्हे कोई अर्थबोध नही
 
हुआ ऐसा लगता है । बाकी अन्योने स्पर्धा से उत्साह
 
आत्मविश्वास प्रयत्नशीलता बढती है, आंतरिक गुण
 
प्रकट होते हैं, लक्ष्य तक पहुंचने का सातत्य आता है,
 
इस प्रकार से प्रतिपादन किया है
 
स्पर्धा के प्रति योग्य दूष्ठीकोन विकसित करने के लिए
 
सकारात्मक दृष्टिकोन अपनाना चाहिये यह उत्तर
 
  
दिया ।
+
३. प्रतियोगिताओं के प्रति सही दृष्टिकोण कैसे विकसित करें ?
  
   
+
४. प्रतियोगिता की भावना कम करने के क्या उपाय करें ?
 
 
  
प्रदर्शित हुआ ।
+
५. प्रतियोगितायें लाभ के स्थान पर हानि कैसे करती?
हार जीत समान है यह भावना निर्माण करे तथा स्पर्धा
 
निष्पक्ष भाव से और निकोप वातावरण मे हो ऐसा
 
भी सुझाव आया |
 
स्पर्धा लाभकारी हो इसलिए उनमे से इर्ष्या और
 
हिंसाभाव नष्ट करे, अपयश प्राप्त स्पर्धकों को चिडाना
 
(उपहास करना) बंद करे तथा सभी स्पर्धकों को
 
पुरस्कार देना ऐसा लिखा है ।
 
स्पर्धा से होने वाली हानि बताने से बालकों के मन में
 
न्यूनता की भावना निर्माण होती है इसलिए दूसरों का
 
विजय सहर्ष स्वीकृत करे ऐसा भाव उत्पन्न करे । बहुत
 
से लोगोंने प्रतियोगिता का अर्थ परीक्षा ऐसा भी किया |
 
अभिमत : आजकल शिशु कक्षाओं से लेकर बड़ी
 
कक्षाओं तक स्पर्धाका आयोजन होता है । यह अत्यंत गलत
 
बात है । साधारणतः कक्षा ६, ७ के बाद स्पर्धा जीतने का
 
भाव निर्माण होता है तबसे कुछ मात्रा मे प्रतियोगिता हो
 
सकती है । विद्यार्थियों में खिलाड़ीवृत्ति निर्माण करे । जीवन
 
की हारजीत पचाना इससे ही आता है क्रोध इर्ष्या न बढ़े
 
उसकी सावधानी आचार्य और अभिभावकों के मन में हो ।
 
भोजन मे जिस मात्रा मे लवण आवश्यक है उसी
 
मात्रा मे जीवन में स्पर्धा आवश्यक है ।
 
  
अध्ययन क्षेत्र का एक अवरोध : परस्पर अविश्वास
+
६. प्रतियोगितायें लाभकारी बनें इसलिये क्या क्या करना चाहिये ?
  
३. . प्रतियोगिता होनी ही चाहिये ऐसा कुछ लोग लिखते
+
==== प्रश्नावली से पाप्त उत्तर ====
है।
+
इस प्रश्नावली के कुल छः प्रश्न है। इस विषय पर अठ्ठाईस शिक्षक, दो प्रधानाचार्य, दो संस्थाचालक एवं इकतालीस अभिभावको ने अपने मत प्रदर्शित किये।
  
¥. प्रतियोगिताए खुले दिल से होनी चाहिए यह भी मत
+
. लगभग ४० प्रतिशत शिक्षक एवं अभिभावक प्रतियोगिता के शैक्षिक एवं व्यावहारिक मूल्य संबंध मे अनभिज्ञ है । ४० प्रतिशत लोग शारीरिक मानसिक विकास ऐसा उत्तर देते है । परंतु उत्तरों से उन्हे कोई अर्थबोध नही हआ ऐसा लगता है। बाकी अन्योने स्पर्धा से उत्साह आत्मविश्वास प्रयत्नशीलता बढती है, आंतरिक गुण प्रकट होते हैं, लक्ष्य तक पहुचने का सातत्य आता है, इस प्रकार से प्रतिपादन किया है।
  
शिक्षक पर भरोसा नहीं है
+
२. स्पर्धा के प्रति योग्य दृष्टीकोन विकसित करने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोन अपनाना चाहिये यह उत्तर दिया।
  
दूसरी कक्षा में पढने वाला सात वर्ष का एक विद्यार्थी
+
३. प्रतियोगिता होनी ही चाहिये ऐसा कुछ लोग लिखते है।
गणित की लिखित परीक्षा देकर घर आया । परीक्षा में
 
कितने अंक मिलेंगे यह जानने की उत्सुकता विद्यार्थी से
 
अधिक उसकी माता को थी । अतः माता ने पूछताछ शुरू
 
की । प्रश्नपत्र के प्रश्न एक के बाद एक पूछती गई और
 
बालक उत्तर देता गया । सरे प्रश्नों की समाप्ति पर माता ने
 
निदान किया कि उसे पचास में से अडतालीस अंक प्राप्त
 
होंगे । वह सन्तुष्ट हुई। परन्तु परीक्षा का परिणाम आया
 
तब माता ने देखा कि बालक को गणित में दो अंक मिले
 
थे । माता आघात से पागल हो गई । बार बार बालक से
 
  
888
+
४. प्रतियोगिताए खुले दिल से होनी चाहिए यह भी मत प्रदर्शित हुआ।
  
पूछने लगी कि ऐसा कैसे हुआ । बालक बताने में असमर्थ
+
५. हार जीत समान है यह भावना निर्माण करे तथा स्पर्धा निष्पक्ष भाव से और निकोप वातावरण मे हो ऐसा भी सुझाव आया ।  
था । घुमा फिराकर पूछते पूछते माता ने पूछा कि तुमने उत्तर
 
पुस्तिका में उत्तर लिखे थे कि नहीं । बालक ने निर्विकार
 
भाव से कहा कि नहीं लिखा था । माता ने झछ्ला कर पूछा
 
कि क्यों नहीं लिखा । बालक ने सहजता से कहा कि सब
 
उत्तर आते थे तब क्यों लिखूँ
 
  
अब इस प्रश्न का कया उत्तर है ? उसने उत्तर पुस्तिका
+
६. स्पर्धा लाभकारी हो अतः उनमे से इर्ष्या और हिंसाभाव नष्ट करे, अपयश प्राप्त स्पर्धकों को चिडाना (उपहास करना) बंद करे तथा सभी स्पर्धकों को पुरस्कार देना ऐसा लिखा है।  
में क्यों लिखना चाहिये ? शिक्षिका का उत्तर है परीक्षा है तो
 
लिखना ही चाहिये । परन्तु बालक को परीक्षा कया होती है
 
इसका ज्ञान नहीं है और परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिये इसकी
 
परवाह नहीं है। फिर लिखित परीक्षा क्यों होती है ?
 
 
  
............. page-216 .............
+
. स्पर्धा से होने वाली हानि बताने से बालकों के मन में न्यूनता की भावना निर्माण होती है अतः दूसरों का विजय सहर्ष स्वीकृत करे ऐसा भाव उत्पन्न करे । बहुत से लोगोंंने प्रतियोगिता का अर्थ परीक्षा ऐसा भी किया ।
  
 
+
==== अभिमत : ====
 +
आजकल शिशु कक्षाओं से लेकर बड़ी कक्षाओं तक स्पर्धाका आयोजन होता है । यह अत्यंत गलत बात है । साधारणतः कक्षा ६, ७ के बाद स्पर्धा जीतने का भाव निर्माण होता है तबसे कुछ मात्रा मे प्रतियोगिता हो सकती है। विद्यार्थियो में खिलाड़ीवृत्ति निर्माण करे । जीवन की हारजीत पचाना इससे ही आता है क्रोध इर्ष्या न बढे उसकी सावधानी आचार्य और अभिभावकों के मन में हो ।
  
शिक्षिका कहती है कि नहीं तो कैसे पता
+
भोजन मे जिस मात्रा मे लवण आवश्यक है उसी मात्रा मे जीवन में स्पर्धा आवश्यक है ।
चलेगा कि उसको गणित आती है कि नहीं । रोज रोज जिसे
 
पढ़ा रहे हैं उस दूसरी कक्षा के विद्यार्थी को गणित आती है
 
कि नहीं यह जानने के लिये क्‍या लिखित परीक्षा की
 
आवश्यकता होती है ? शिक्षिका कहती है कि मुझे तो पता
 
चलता है परन्तु अभिभावकों को लिखित प्रमाण चाहिये ।
 
अभिभावकों से पूछो कि लिखित प्रमाण क्यों चाहिये । तब वे
 
कहते हैं कि शिक्षकों का क्या भरोसा, वे तो कुछ भी कहेंगे ।
 
हमे तो अपने बालक की चिन्ता करनी ही चाहिये । पते की
 
बात यही है, शिक्षक पर भरोसा नहीं है ।
 
  
विद्यालय का समय दोपहर में ग्यारह बजे का है ।
+
=== अध्ययन क्षेत्र का एक अवरोध : परस्पर अविश्वास ===
समय पर आना है इतने नियम की जानकारी पर्याप्त नहीं
 
है। समय से आना है इतनी सूचना भी पर्याप्त नहीं है ।
 
पंजिका में हस्ताक्षर करके समय लिखना है। क्यों ?
 
विश्वास नहीं है कि समय से आयेंगे । अब पंजिका में
 
हस्ताक्षर और समय लिखना भी पर्याप्त नहीं है । अंगूठा
 
दबाने के यन्त्र हैं जिसमें आपकी उपस्थिति दर्ज होती है ।
 
अर्थात्‌ अभिभावकों को ही नहीं तो संचालकों को भी
 
शिक्षकों पर विश्वास नहीं है ।
 
  
शिक्षकों का विद्यार्थियों पर विश्वास नहीं है । पहली
+
==== शिक्षक पर भरोसा नहीं है ====
दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों को परीक्षा क्या होती है यही
+
दूसरी कक्षा में पढ़ने वाला सात वर्ष का एक विद्यार्थी गणित की लिखित परीक्षा देकर घर आया। परीक्षा में कितने अंक मिलेंगे यह जानने की उत्सुकता विद्यार्थी से अधिक उसकी माता को थी अतः माता ने पूछताछ आरम्भ की। प्रश्नपत्र के प्रश्न एक के बाद एक पूछती गई और बालक उत्तर देता गया। सारे प्रश्नों की समाप्ति पर माता ने निदान किया कि उसे पचास में से अडतालीस अंक प्राप्त होंगे वह सन्तुष्ट हुई। परन्तु परीक्षा का परिणाम आया तब माता ने देखा कि बालक को गणित में दो अंक मिले थे। माता आघात से पागल हो गई। बार बार बालक से पूछने लगी कि ऐसा कैसे हुआ । बालक बताने में असमर्थ था । घुमा फिराकर पूछते पूछते माता ने पूछा कि तुमने उत्तर पुस्तिका में उत्तर लिखे थे कि नहीं। बालक ने निर्विकार भाव से कहा कि नहीं लिखा था । माता ने झल्ला कर पूछा कि क्यों नहीं लिखा बालक ने सहजता से कहा कि सब उत्तर आते थे तब क्यों लिखू।
मालूम नहीं है तो नकल करना क्या होता है यह कैसे
 
मालूम होगा ? शिक्षक तो पहले ही सूचना देते हैं कि
 
नकल नहीं करना परन्तु विद्यार्थी इस सूचना का अर्थ नहीं
 
समझते निरीक्षण की व्यवस्था तो होती ही है जबकि
 
उसका कोई अर्थ नहीं होता विद्यार्थी मित्र भाव से,
 
सहायता करने की दृष्टि से एकदूसरे से पूछते हैं या बात
 
करते हैं और निरीक्षक कह देते हैं कि इतनी छोटी आयु में
 
ही विद्यार्थी नकल करना सीख गये हैं
 
  
गृहकार्य लिखित ही दिया जाता है । कुछ पढ़ने के
+
अब इस प्रश्न का क्या उत्तर है ? उसने उत्तर पुस्तिका में क्यों लिखना चाहिये ? शिक्षिका का उत्तर है परीक्षा है तो लिखना ही चाहिये । परन्तु बालक को परीक्षा क्या होती है इसका ज्ञान नहीं है और परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिये इसकी परवाह नहीं है। फिर लिखित परीक्षा क्यों होती है ?
लिये या कुछ करके आने के लिये बताया तो विश्वास नहीं
 
है कि पढेंगे या काम करेंगे । पाटी में लिखा हुआ भी नहीं
 
चलेगा क्योंकि शिक्षकने गृहकार्य जाँचा है कि नहीं इसका
 
प्रमाण चाहिये । लिखित सूचना और हस्ताक्षर अनिवार्य बन
 
गये हैं ।
 
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
शिक्षिका कहती है कि नहीं तो कैसे पता चलेगा कि उसको गणित आती है कि नहीं । रोज रोज जिसे पढा रहे हैं उस दूसरी कक्षा के विद्यार्थी को गणित आती है कि नहीं यह जानने के लिये क्या लिखित परीक्षा की आवश्यकता होती है ? शिक्षिका कहती है कि मुझे तो पता चलता है परन्तु अभिभावकों को लिखित प्रमाण चाहिये । अभिभावकों से पूछो कि लिखित प्रमाण क्यों चाहिये । तब वे कहते हैं कि शिक्षकों का क्या भरोसा, वे तो कुछ भी कहेंगे । हमे तो अपने बालक की चिन्ता करनी ही चाहिये । पते की बात यही है, शिक्षक पर भरोसा नहीं है।
  
     
+
विद्यालय का समय दोपहर में ग्यारह बजे का है। समय पर आना है इतने नियम की जानकारी पर्याप्त नहीं है। समय से आना है इतनी सूचना भी पर्याप्त नहीं है। पंजिका में हस्ताक्षर करके समय लिखना है। क्यों ? विश्वास नहीं है कि समय से आयेंगे। अब पंजिका में हस्ताक्षर और समय लिखना भी पर्याप्त नहीं है। अंगूठा दबाने के यन्त्र हैं जिसमें आपकी उपस्थिति दर्ज होती है । अर्थात् अभिभावकों को ही नहीं तो संचालकों को भी शिक्षकों पर विश्वास नहीं है।
  
अविश्वास का परिणाम
+
शिक्षकों का विद्यार्थियों पर विश्वास नहीं है। पहली दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों को परीक्षा क्या होती है यही मालूम नहीं है तो नकल करना क्या होता है यह कैसे मालूम होगा ? शिक्षक तो पहले ही सूचना देते हैं कि नकल नहीं करना परन्तु विद्यार्थी इस सूचना का अर्थ नहीं समझते । निरीक्षण की व्यवस्था तो होती ही है जबकि उसका कोई अर्थ नहीं होता। विद्यार्थी मित्र भाव से, सहायता करने की दृष्टि से एकदूसरे से पूछते हैं या बात करते हैं और निरीक्षक कह देते हैं कि इतनी छोटी आयु में ही विद्यार्थी नकल करना सीख गये हैं ।
  
+
गृहकार्य लिखित ही दिया जाता है। कुछ पढने के लिये या कुछ करके आने के लिये बताया तो विश्वास नहीं है कि पढेंगे या काम करेंगे । पाटी में लिखा हुआ भी नहीं चलेगा क्योंकि शिक्षकने गृहकार्य जाँचा है कि नहीं इसका प्रमाण चाहिये । लिखित सूचना और हस्ताक्षर अनिवार्य बन गये हैं।
  
इस अविश्वास का परिणाम कैसा होता है ? शिक्षकों
+
==== अविश्वास का परिणाम ====
को कहा जाता है कि समय से विद्यालय आना है। आ
+
इस अविश्वास का परिणाम कैसा होता है ? शिक्षकों को कहा जाता है कि समय से विद्यालय आना है। आ गये, परन्तु आने से पढाया नहीं जाता है । पूरा समय विद्यालय में रहना होगा, रहे, परन्तु रहने से पढाया नहीं जाता । आपको वर्ष भर में पाठ्यक्रम पूरा करना होगा । हो गया, परन्तु पाठ्यक्रम पूरा होने से पढाया नहीं जाता । आपकी कक्षा का या आपके विषय का परिणाम शत प्रतिशत आना चाहिये । आ गया, परन्तु परिणाम अच्छा आने से पढाया नहीं जाता । परीक्षा तो हमें लेना है, प्रश्नपत्र हमें बनाने हैं, उत्तरपुस्तिका हमें जाँचनी है, अंक हमें देने हैं । शतप्रतिशत परिणाम आने म क्या कठिनाई है ? संचालक जानते हैं, अभिभावक भी जानते हैं परन्तु अब
गये, परन्तु आने से पढाया नहीं जाता है । पूरा समय
 
विद्यालय में रहना होगा, रहे, परन्तु रहने से पढाया नहीं
 
जाता । आपको वर्ष भर में पाठ्यक्रम पूरा करना होगा । हो
 
गया, परन्तु पाठ्यक्रम पूरा होने से पढाया नहीं जाता ।
 
आपकी कक्षा का या आपके विषय का परिणाम शत
 
प्रतिशत आना चाहिये । आ गया, परन्तु परिणाम अच्छा
 
आने से पढाया नहीं जाता । परीक्षा तो हमें लेना है, प्रश्नपत्र
 
हमें बनाने हैं, उत्तरपुस्तिका हमें जाँचनी है, अंक हमें देने
 
हैं । शतप्रतिशत परिणाम आने म * क्या कठिनाई है ?
 
संचालक जानते हैं, अभिभावक भी जानते हैं परन्तु अब
 
 
क्या उपाय है ? कैसे पकड सकते हैं ? इसलिये दसवीं की
 
क्या उपाय है ? कैसे पकड सकते हैं ? इसलिये दसवीं की
 
या बारहवीं की परीक्षा के लिये ट्यूशन या कोचिंग क्लास
 
या बारहवीं की परीक्षा के लिये ट्यूशन या कोचिंग क्लास
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बोलना सीख जाते हैं ।
 
बोलना सीख जाते हैं ।
  
कई विषयों में प्रोजेक्ट किये जाते हैं। विद्यार्थी
+
कई विषयों में प्रोजेक्ट किये जाते हैं। विद्यार्थी अन्तर्जाल का सहारा लेकर प्रोजेक्ट पूर्ण कर देते हैं । प्रोजेक्ट का प्रयोजन क्या है इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं होता । कुछ तैयार करना है तो या तो मातापिता बनाते हैं या किसी से बनवा लिया जाता है । शिक्षक सब जानते हैं परन्तु अंक दे देते हैं क्योंकि अंक कोई पैसे तो हैं नहीं कि
अन्तर्जाल का सहारा लेकर प्रोजेक्ट पूर्ण कर देते हैं ।
+
देने से कम हो जाय । मातापिता भी यह सब जानते हैं परन्तु कोई परवाह नहीं करते ।
प्रोजेक्ट का प्रयोजन क्या है इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं
 
होता । कुछ तैयार करना है तो या तो मातापिता बनाते हैं
 
या किसी से बनवा लिया जाता है । शिक्षक सब जानते हैं
 
परन्तु अंक दे देते हैं क्योंकि अंक कोई पैसे तो हैं नहीं कि
 
देने से कम हो जाय । मातापिता भी यह सब जानते हैं परन्तु
 
कोई परवाह नहीं करते ।
 
  
इस प्रकार मिध्या और आभासी शिक्षा चलती है |
+
==== इस प्रकार मिध्या और आभासी शिक्षा चलती है | ====
 
+
विद्यालय का परिणाम तो अच्छा लाना ही है इसलिये उत्तीर्ण होने के पात्र नहीं हैं ऐसे विद्यार्थियों को भी उत्तीर्ण कर दिया जाता हैं । आठवीं, नौवीं तक आते आते
विद्यालय का परिणाम तो अच्छा लाना ही है
+
विद्यार्थियों को भी इस खेल का पता चल जाता है और वे इसका पूरा फायदा उठाते हैं ।
इसलिये उत्तीर्ण होने के पात्र नहीं हैं ऐसे विद्यार्थियों को भी
 
उत्तीर्ण कर दिया जाता हैं । आठवीं, नौवीं तक आते आते
 
विद्यार्थियों को भी इस खेल का पता चल जाता है और वे
 
इसका पूरा फायदा उठाते हैं ।
 
  
 
यह सारा अविश्वास से प्रारम्भ हुआ खेल कोई एकाध
 
यह सारा अविश्वास से प्रारम्भ हुआ खेल कोई एकाध
विद्यालय में नहीं चलता, सार्वत्रिक हो गया है । अविश्वास
+
विद्यालय में नहीं चलता, सार्वत्रिक हो गया है । अविश्वास के चलते बच निकलने के, पकडे नहीं जाने के नित्य नये
 
 
 
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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
के चलते बच निकलने के, पकडे नहीं जाने के नित्य नये
 
 
नये मौलिक उपाय खोजे जाते हैं, चतुराई तो बढ़ती है परन्तु
 
नये मौलिक उपाय खोजे जाते हैं, चतुराई तो बढ़ती है परन्तु
 
पढाई नहीं होती | ऐसी शिक्षा से राष्ट्र निर्माण कैसे होगा ?
 
पढाई नहीं होती | ऐसी शिक्षा से राष्ट्र निर्माण कैसे होगा ?
  
व्यवहार का नियम भी है कि अच्छाई नियम, कानून,
+
व्यवहार का नियम भी है कि अच्छाई नियम, कानून, भय, स्वार्थ, अविश्वास, चतुराई, अप्रामाणिकता, जबरदस्ती, दबाव, अनिवार्यता आदि के साथ नहीं रहती । इन सभी तत्त्वों से प्रेरित होकर किया गया कोई भी अच्छा दीखने वाला काम अच्छा नहीं होता, उसमें अच्छाई का आभास
भय, स्वार्थ, अविश्वास, चतुराई, अप्रामाणिकता, जबरदस्ती,
+
होता है और आभासी अच्छाई मिथ्या परिणाम देनेवाली होती है, ठोस नहीं ।
दबाव, अनिवार्यता आदि के साथ नहीं रहती । इन सभी
 
तत्त्वों से प्रेरित होकर किया गया कोई भी अच्छा दीखने
 
वाला काम अच्छा नहीं होता, उसमें अच्छाई का आभास
 
होता है और आभासी अच्छाई मिथ्या परिणाम देनेवाली
 
होती है, ठोस नहीं
 
 
 
WOH, MIA, AM, Fea, Aaa a
 
ही शिक्षा जैसा अच्छा काम हो सकता है । जैसे ही कपट
 
की गन्ध लगी, शिक्षा गायब हो जाती है । फिर शिक्षा की
 
देह रह जाती है, प्राण नहीं । अतः प्रथम विश्वास की
 
स्थापना करनी होगी
 
  
संचालक का शिक्षकों पर विश्वास, शिक्षक का
+
स्वेच्छा, स्वतंत्रता, सद्द्भाव, सह्दयता, सज्जनता से ही शिक्षा जैसा अच्छा काम हो सकता है । जैसे ही कपट की गन्ध लगी, शिक्षा गायब हो जाती है । फिर शिक्षा की देह रह जाती है, प्राण नहीं । अतः प्रथम विश्वास की स्थापना करनी होगी
संचालक पर विश्वास, शिक्षक का विद्यार्थी पर और विद्यार्थी
 
का शिक्षक पर विश्वास, अभिभावकों का शिक्षक पर और
 
शिक्षक का अभिभावकों पर विश्वास होना अनिवार्य है
 
  
विश्वसनीयता का संकट गहरा है
+
संचालक का शिक्षकों पर विश्वास, शिक्षक का संचालक पर विश्वास, शिक्षक का विद्यार्थी पर और विद्यार्थी का शिक्षक पर विश्वास, अभिभावकों का शिक्षक पर और शिक्षक का अभिभावकों पर विश्वास होना अनिवार्य है
  
इस दृष्टि से दो प्रकार का प्रशिक्षण आवश्यक है ।
+
==== विश्वसनीयता का संकट गहरा है ====
एक है विश्वास करने की शक्ति सम्पादन करना, दूसरा
+
इस दृष्टि से दो प्रकार का प्रशिक्षण आवश्यक है । एक है विश्वास करने की शक्ति सम्पादन करना, दूसरा विश्वसनीय बनना । आज के समय में दोनों ही बहुत दुर्लभ हैं ।
विश्वसनीय बनना । आज के समय में दोनों ही बहुत
 
दुर्लभ हैं ।
 
  
एक बार शिक्षकों के प्रशिक्षण वर्ग में एक प्रयोग
+
एक बार शिक्षकों के प्रशिक्षण वर्ग में एक प्रयोग किया गया । सबको कहा गया कि ऐसे दस व्यक्तियों के नाम लिखो जिनके बारे में आपको विश्वास है कि () वे पीठ पीछे आपकी निन्‍दा नहीं करेंगे, (२) वे आपका अहित नहीं करेंगे और (३) आपको कभी किसी बात में धोखा नहीं देंगे ।
किया गया । सबको कहा गया कि ऐसे दस व्यक्तियों के
 
नाम लिखो जिनके बारे में आपको विश्वास है कि (४१) वे
 
पीठ पीछे आपकी निन्‍्दा नहीं करेंगे, (२) वे आपका
 
अहित नहीं करेंगे और (३) आपको कभी किसी बात में
 
धोखा नहीं देंगे ।
 
  
 
सबको अनुभव हुआ कि ऐसे दस तो क्या दो नाम
 
सबको अनुभव हुआ कि ऐसे दस तो क्या दो नाम
Line 438: Line 155:
 
फिर दूसरा काम दिया ।
 
फिर दूसरा काम दिया ।
  
ऐसे दस व्यक्तियों के नाम लिखो जिन्हें इन्हीं तीन
+
ऐसे दस व्यक्तियों के नाम लिखो जिन्हें इन्हीं तीन बातों में आप पर विश्वास है ऐसा आपको लगता है ।
 
 
 
 
 
 
२०१
 
 
 
     
 
 
 
बातों में आप पर विश्वास है ऐसा
 
आपको लगता है ।
 
  
 
ऐसे नाम लिखना भी कठिन हो गया ।
 
ऐसे नाम लिखना भी कठिन हो गया ।
  
आश्चर्य की और आश्वस्त करने की बात तो यह थी
+
आश्चर्य की और आश्वस्त करने की बात तो यह थी कि वे ऐसे नाम भी नहीं लिख सके ।
कि वे ऐसे नाम भी नहीं लिख सके ।
 
 
 
आश्यस्ति इस बात की कि कम से कम उन्होंने झूठ
 
तो नहीं लिखा ।
 
 
 
परन्तु यह प्रयोग दर्शाता है कि विश्वास करने का और
 
विश्वसनीयता का संकट कितना गहरा है । और जब तक
 
अविश्वास है शिक्षा कैसे हो पायेगी ?
 
 
 
कभी कभी तो लोग कह देते हैं कि आज के जमाने
 
में विश्वास का कोई वजूद नहीं है । विश्वास से काम नहीं हो
 
सकता । जमाना खराब हो गया है । अतः नियम तो बनाने
 
ही पड़ेंगे और जाँच पड़ताल भी करनी पडेगी । निरीक्षण की
 
व्यवस्था नहीं रही तो कोई नकल किये बिना रहेगा नहीं ।
 
पुलीस नहीं रहा तो ट्राफिक के नियमों का पालन कौन
 
करेगा ? बिना जाँच रखे अनुशासन कैसे रहेगा ? इसलिये
 
विश्वास का आग्रह छोडो ।
 
 
 
परन्तु विश्वास और श्रद्धा के बिना कोई भी अच्छा काम
 
सम्भव नहीं है । अच्छाई के आधार पर ही दुनिया चलती है,
 
कानून के आधार पर नहीं । रास्ते पर चलते हुए कोई दुर्घटना
 
देखी और कोई व्यक्ति बहुत गम्भीर रूप से घायल हो गया है
 
वह भी देखा । उस समय रुकना, उसकी सहायता करना उसे
 
अस्पताल पहुँचाना कानून से बन्धनकारक नहीं है तो भी
 
लोग होते हैं जो अपना काम छोड़कर घायल व्यक्ति की
 
सहायता करते हैं । ठण्ड में ठिठुरने वाले खुले में सोये गरीब
 
लोगों को कम्बल ओढाने वाले अच्छे लोग होते ही हैं ।
 
गरीब विद्यार्थियों को पढाई के लिये सहायता करने वाले दानी
 
लोग होते ही हैं । ये सब नियम, कानून, बन्धन, मजबूरी, भय
 
या स्वार्थ से प्रेरित होकर यह काम नहीं करते । उनके हृदय में
 
जो अच्छाई होती है उससे प्रेरित होकर ही करते हैं । मनुष्यों
 
के हृदयों में जो अच्छाई है उसीसे दुनिया चलती है । इस
 
अच्छाई का नाश अविश्वास से होता है । इसलिये कुछ
 
भौतिक स्वरूप की कीमत चुकाकर भी विश्वास का जतन
 
करना चाहिये ।
 
 
 
 
............. page-218 .............
 
 
 
       
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
विश्वास का जतन करना
 
 
 
 
 
 
 
अविश्वास का प्रारम्भ ऐसे होता है । इन मातापिता ने
 
किया ऐसा व्यवहार तो लोग हमेशा करते हैं, निर्दोषता से
 
करते हैं । इसे झूठ नहीं कहते, व्यवहार कहते हैं । परन्तु
 
इससे विश्वसनीयता गँवाते हैं और विश्वास नहीं करना
 
सिखाते हैं ।
 
 
 
एक व्यापारी पिता की कथा पढ़ी थी । अपने छोटे
 
पुत्र को वह ऊँचाई से छलाँग लगाने के लिये प्रेरित कर रहे
 
थे । पुत्र डर रहा था । पिता बार बार कह रहे थे कि मैं हूँ,
 
तुम्हें गिरने नहीं दूँगा, झेल लूँगा । तीन चार बार ऐसा सुनने
 
 
 
छोटे बच्चे स्वभाव से विश्वास करने वाले ही होते. पर एक बार पुत्रने अपने भय पर काबू पाकर छलाँग
 
हैं। बडे होते होते विश्वास करना छोड देते हैं । इसका. लगाई । पिताने नहीं पकडा और गिरने दिया । ऐसा क्यों
 
कारण उसके आसपास के बडे ही होते हैं । वे झूठ बोलते. किया यह पूछनें पर पिताने बताया कि वह व्यापारी का पुत्र
 
हैं, बच्चों के विश्वास का भंग करते हैं । इससे झूठ बोलना. है व्यापार में सगे बाप पर भी विश्वास नहीं करना सिखा
 
 
 
विश्वास-अविश्वास के मामले में इन पहलुओं का
 
विचार करना चाहिये...
 
 
 
१, विश्वास करना
 
 
 
२. विश्वास करना सिखाना
 
 
 
३. विश्वसनीयता बनाना
 
  
४. विश्वसनीय बनना
+
आश्यस्ति इस बात की कि कम से कम उन्होंने झूठ तो नहीं लिखा ।
  
१, विश्वास भंग नहीं करना
+
परन्तु यह प्रयोग दर्शाता है कि विश्वास करने का और विश्वसनीयता का संकट कितना गहरा है । और जब तक अविश्वास है शिक्षा कैसे हो पायेगी ?
  
और विश्वास नहीं करना दोनों बातों के संस्कार होते हैं रहा हैँ।
+
कभी कभी तो लोग कह देते हैं कि आज के जमाने में विश्वास का कोई वजूद नहीं है । विश्वास से काम नहीं हो सकता । जमाना खराब हो गया है अतः नियम तो बनाने ही पड़ेंगे और जाँच पड़ताल भी करनी पड़ेगी । निरीक्षण की व्यवस्था नहीं रही तो कोई नकल किये बिना रहेगा नहीं । पुलीस नहीं रहा तो ट्राफिक के नियमों का पालन कौन करेगा ? बिना जाँच रखे अनुशासन कैसे रहेगा ? इसलिये विश्वास का आग्रह छोडो
एक परिवार में छोटा बेटा, मातापिता और दादीमाँ यह अनाडीपन की हद है
 
ऐसे चार लोग होते थे | रात्रि में भोजन आदि से निपटकर तात्पर्य यह है कि ऐसी सैंकड़ों छोटी छोटी बातें होती
 
  
पतिपत्नी कुछ चलने के लिये जाते थे । उस समय छोटा हैं जिससे बच्चे विश्वास नहीं करना सीख जाते हैं, और फिर
+
परन्तु विश्वास और श्रद्धा के बिना कोई भी अच्छा काम सम्भव नहीं है । अच्छाई के आधार पर ही दुनिया चलती है, कानून के आधार पर नहीं । रास्ते पर चलते हुए कोई दुर्घटना देखी और कोई व्यक्ति बहुत गम्भीर रूप से घायल हो गया है वह भी देखा । उस समय रुकना, उसकी सहायता करना उसे अस्पताल पहुँचाना कानून से बन्धनकारक नहीं है तो भी लोग होते हैं जो अपना काम छोड़कर घायल व्यक्ति की सहायता करते हैं । ठण्ड में ठिठुरने वाले खुले में सोये गरीब
बालक भी साथ जाना चाहता था उसे साथ लेकर घूमने किसी का विश्वास नहीं करते
+
लोगोंं को कम्बल ओढाने वाले अच्छे लोग होते ही हैं । गरीब विद्यार्थियों को पढाई के लिये सहायता करने वाले दानी लोग होते ही हैं । ये सब नियम, कानून, बन्धन, मजबूरी, भय
 +
या स्वार्थ से प्रेरित होकर यह काम नहीं करते । उनके हृदय में जो अच्छाई होती है उससे प्रेरित होकर ही करते हैं । मनुष्यों
 +
के हृदयों में जो अच्छाई है उसीसे दुनिया चलती है इस अच्छाई का नाश अविश्वास से होता है । इसलिये कुछ भौतिक स्वरूप की कीमत चुकाकर भी विश्वास का जतन करना चाहिये
  
जाना मातापिता को सुविधाजनक नहीं लगता था वह
+
==== विश्वास का जतन करना ====
 +
विश्वास-अविश्वास के मामले में इन पहलुओं का विचार करना चाहिये...
 +
# विश्वास करना
 +
# विश्वास करना सिखाना
 +
# विश्वसनीयता बनाना
 +
# विश्वसनीय बनना
 +
# विश्वास भंग नहीं करना
 +
छोटे बच्चे स्वभाव से विश्वास करने वाले ही होते हैं। बड़े होते होते विश्वास करना छोड देते हैं। इसका कारण उसके आसपास के बडे ही होते हैं । वे झूठ बोलते हैं, बच्चोंं के विश्वास का भंग करते हैं । इससे झूठ बोलना और विश्वास नहीं करना दोनों बातों के संस्कार होते हैं
  
चल नहीं सकता था, उसे उठाना पड़ेगा । वह रास्ते में ही... बच्चे मन के सच्चे
+
एक परिवार में छोटा बेटा, मातापिता और दादीमाँ ऐसे चार लोग होते थे । रात्रि में भोजन आदि से निपटकर पतिपत्नी कुछ चलने के लिये जाते थे। उस समय छोटा बालक भी साथ जाना चाहता था । उसे साथ लेकर घूमने जाना मातापिता को सुविधाजनक नहीं लगता था । वह चल नहीं सकता था, उसे उठाना पड़ेगा । वह रास्ते में ही सो जाता था। इसलिये उन्होंने सोचा कि वह सो जायेगा फिर जायेंगे । दादीमां ने ही यह उपाय सुझाया था । परन्तु बालक ने सुन लिया । इसलिये वह मातापिता नहीं सोते थे तब तक सोने के लिये भी तैयार नहीं था। फिर माता कपड़े बदल लेती, साथ में सुलाती और कहानी बताती । बालक सो जाता तब फिर दोनों घूमने के लिये जाते । कुछ दिन यह क्रम ठीक चला । एक दिन बालक पूरा नहीं सोया था और माता को लगा कि सो गया, तब वे दोनों घूमने गये । इधर कहानी की आवाज बन्द हो गई इसलिये बालक जागा । उसने देखा कि माँ नहीं है । वह रोने लगा । दादीमाँ ने कहा कि घूमने गये हैं, अभी आ जायेंगे । बालक और जोर से रोने लगा। थोड़ी ही देर में मातापिता आ गये । बालक ने यह नहीं पूछा कि मुझे छोडकर क्यों गये । उसने पूछा कि मुझसे झूठ क्यों बोले ?
  
सो जाता था इसलिये उन्होंने सोचा कि वह सो जायेगा बच्चे स्वभाव से झूठ नहीं बोलते परन्तु बडे 'झूठ मत
+
अविश्वास का प्रारम्भ ऐसे होता है इन मातापिता ने किया ऐसा व्यवहार तो लोग सदा करते हैं, निर्दोषता से करते हैं । इसे झूठ नहीं कहते, व्यवहार कहते हैं । परन्तु इससे विश्वसनीयता गँवाते हैं और विश्वास नहीं करना सिखाते हैं ।
फिर जायेंगे । दादीमां ने ही यह उपाय सुझाया था । परन्तु बोलो”, 'झूठ मत बोलो' कहा करते हैं अथवा “तुम जूठ
 
बालक ने सुन लिया इसलिये वह मातापिता नहीं सोते थे. ब्लोलते हो' ऐसा आरोप लगाया करते हैं । यह सुनते सुनते
 
तब तक सोने के लिये भी तैयार नहीं था । फिर माता कपडे . वे झूठ बोलना सीख जाते हैं और विश्वसनीयता गँवाते हैं
 
बदल लेती, साथ में सुलाती और कहानी बताती । बालक अनेक बार बडे ही उन्हें झूठ बोलना सिखाते हैं ।
 
सो जाता तब फिर दोनों घूमने के लिये जाते । कुछ दिन यह आसपास लोग एकदूसरे से झूठ बोल रहे हैं यह देखते हैं।
 
क्रम ठीक चला । एक दिन बालक पूरा नहीं सोया था और . स्वयं झूठ बोलते हैं इसलिये दूसरे भी बोलते होंगे ऐसा
 
माता को लगा कि सो गया, तब वे दोनों घूमने गये । इधर. समझकर विश्वास नहीं करते । इस वातावरण में वे अपने
 
कहानी की आवाज बन्द हो गई इसलिये बालक जागा ।.. आप विश्वसनीय नहीं रहना और विश्वास नहीं करना सीख
 
उसने देखा कि माँ नहीं है । वह रोने लगा । दादीमाँ ने कहा... जाते हैं ।
 
  
कि घूमने गये हैं, अभी आ जायेंगे बालक और जोर से झूठ बोलना सिखाने के लिये टीवी और मोबाइल तो
+
एक व्यापारी पिता की कथा पढ़ी थी अपने छोटे पुत्र को वह ऊँचाई से छलाँग लगाने के लिये प्रेरित कर रहे
रोने लगा थोडी ही देर में मातापिता आ गये बालक ने हैं ही असंख्य उदाहरण झूठ बोलने के देखने सुनने को
+
थे पुत्र डर रहा था पिता बार बार कह रहे थे कि मैं हूँ, तुम्हें गिरने नहीं दूँगा, झेल लूँगा तीन चार बार ऐसा सुनने पर एक बार पुत्रने अपने भय पर काबू पाकर छलाँग लगाई। पिताने नहीं पकड़ा और गिरने दिया । ऐसा क्यों किया यह पूछने पर पिताने बताया कि वह व्यापारी का पुत्र है। व्यापार में सगे बाप पर भी विश्वास नहीं करना सिखा रहा हूँ।
यह नहीं पूछा कि मुझे छोडकर क्यों गये । उसने पूछा कि... मिलते हैं । झूठ बोलना बुरा नहीं है यही उनके मन में बैठ
 
मुझसे झूठ क्‍यों बोले ? जाता है । बुरा नहीं है तो बोलने में कया हानि है ? दूसरों
 
  
२०२
+
यह अनाडीपन की हद है ।
 
  
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+
तात्पर्य यह है कि ऐसी सैंकडों छोटी छोटी बातें होती हैं जिससे बच्चे विश्वास नहीं करना सीख जाते हैं, और फिर किसी का विश्वास नहीं करते ।
  
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
+
==== बच्चे मन के सच्चे ====
 +
बच्चे स्वभाव से झूठ नहीं बोलते परन्तु बडे ‘झूठ मत बोलो', 'झूठ मत बोलो' कहा करते हैं अथवा 'तुम जूठ बोलते हो' ऐसा आरोप लगाया करते हैं। यह सनते सुनते वे झूठ बोलना सीख जाते हैं और विश्वसनीयता गँवाते हैं ।
  
का विश्वास नहीं करना यह भी उन्हें व्यवहार ही लगता है
+
अनेक बार बडे ही उन्हें झूठ बोलना सिखाते हैं। आसपास लोग एकदूसरे से झूठ बोल रहे हैं यह देखते हैं स्वयं झूठ बोलते हैं इसलिये दूसरे भी बोलते होंगे ऐसा समझकर विश्वास नहीं करते । इस वातावरण में वे अपने आप विश्वसनीय नहीं रहना और विश्वास नहीं करना सीख जाते हैं।
दूसरे मेरे पर विश्वास नहीं करेंगे यह पहले पहले तो ध्यान में
 
नहीं आता परन्तु ध्यान में आने के बाद वह बहुत अखरता
 
नहीं है । यही दुनियादारी है ऐसा उनका निश्चय हो जाता
 
है।
 
  
इसे दुनियादारी कहते हैं
+
झूठ बोलना सिखाने के लिये टीवी और मोबाइल तो हैं ही। असंख्य उदाहरण झूठ बोलने के देखने सुनने को मिलते हैं। झूठ बोलना बुरा नहीं है यही उनके मन में बैठ जाता है। बुरा नहीं है तो बोलने में क्या हानि है ? दूसरों का विश्वास नहीं करना यह भी उन्हें व्यवहार ही लगता है। दूसरे मेरे पर विश्वास नहीं करेंगे यह पहले पहले तो ध्यान में नहीं आता परन्तु ध्यान में आने के बाद वह बहुत अखरता नहीं है। यही दुनियादारी है ऐसा उनका निश्चय हो जाता है।
  
आगे का चरण मैं सत्य बोलता हूँ, मेरे पर विश्वास
+
==== इसे दुनियादारी कहते हैं ====
करो यह समझाने का होता है और सत्य बोलने के प्रमाण
+
आगे का चरण मैं सत्य बोलता हूँ, मेरे पर विश्वास करो यह समझाने का होता है और सत्य बोलने के प्रमाण देने का होता है। सब एक दूसरे के समक्ष खुलासे देते हैं, प्रमाण देते हैं, साक्षी प्रस्तुत करते हैं । झूठ बोलकर भी सत्य सिद्ध करने हेतु झूठे प्रमाण और साक्षी देने जितने चतुर भी हो जाते हैं।
देने का होता है । सब एक दूसरे के समक्ष खुलासे देते हैं,
 
प्रमाण देते हैं, साक्षी प्रस्तुत करते हैं । झूठ बोलकर भी
 
सत्य सिद्ध करने हेतु झूठे प्रमाण और साक्षी देने जितने
 
चतुर भी हो जाते हैं ।
 
  
इसी में से आगे चल कर वकीलों का व्यवसाय
+
इसी में से आगे चल कर वकीलों का व्यवसाय पूरबहार में चलता है और न्यायालयों तथा न्यायाधीशों की संख्या कम पडती है।
पूरबहार में चलता है और न्यायालयों तथा न्यायाधीशों की
 
संख्या कम पड़ती है ।
 
  
जिस समाज में वकीलों और न्यायालयों की संख्या
+
जिस समाज में वकीलों और न्यायालयों की संख्या अधिक हो और उनका व्यवसाय अच्छा चलता हो तो समझना चाहिये कि उस समाज में झूठ बोलने वाले और कलह करने वाले लोग अधिक हैं।
अधिक हो और उनका व्यवसाय अच्छा चलता हो तो
 
समझना चाहिये कि उस समाज में झूठ बोलने वाले और
 
कलह करने वाले लोग अधिक हैं ।
 
  
शिक्षकों का दायित्व
+
==== शिक्षकों का दायित्व ====
 +
विद्यालय को विश्वास के वातावरण से युक्त बनाने का दायित्व शिक्षकों का है। किसी और को दायित्व देने से या और का दायित्व बताने से काम होगा नहीं।
  
विद्यालय को विश्वास के वातावरण से युक्त बनाने
+
पहली बात है सब पर विश्वास करना, भले ही कुछ हानि उठानी पड़े । शत प्रतिशत पता है कि सामने वाला व्यक्ति झूठ बोल रहा है तो भी उसे यह नहीं कहना कि मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं है, या मुझे पता है कि तुम झूठ बोल रहे हो। सामने वाला कितना भी माने कि मैं ने इनके सामने झूठ बोलकर इन्हें मूर्ख बनाया और फायदा उठाया, तो भी विश्वास ही करना, विश्वास नहीं है अथवा विश्वास करने योग्य नहीं है ऐसा मालूम है तो भी विश्वास करना । मुझे तुम पर विश्वास नहीं है ऐसा कभी भी नहीं कहना । तुम सत्य बोल रहे हो इसका प्रमाण दो यहभी नहीं कहना । यह तो अविश्वास करने । के बराबर ही है। कुछ समय के बाद विश्वासभंग करने वाले का मन ही उसे झूठ बोलने के लिये मना करने लगेगा। अविश्वास करने वाले के समक्ष तो झूठ बोला जा सकता है, झूठे प्रमाण भी दिये जा सकते हैं, पर विश्वास करने वाले के समक्ष कैसे झूठ बोलें विश्वास करनेवाले का विश्वास भंग नहीं करना चाहिये यह सहज ही सामने वाले को लगने लगता है। आखिर विश्वास करने वाले की ही जीत होती है।
का दायित्व शिक्षकों का है । किसी और को दायित्व देने
 
से या और का दायित्व बताने से काम होगा नहीं
 
  
पहली बात है सब पर विश्वास करना, भले ही कुछ
+
इस प्रकार विद्यालय में शिक्षकों की और से विश्वास करने का प्रारम्भ करना चाहिये फिर विद्यार्थियों को आपस में विश्वास करना सिखाना चाहिये कोई झूठ क्यों बोलेगा ऐसा एक वातावरण बनाना चाहिये । कभी कभी कोई विद्यार्थी अपने मातापिता झूठ बोलते हैं ऐसी शिकायत करता है। तब विद्यार्थी से कोई बात न करते हुए मातापिता से इस विषय में बात करनी चाहिये परन्तु ऐसा करने में बहुत सावधानी रखनी चाहिये क्योंकि नहीं तो मातापिता अपने बालक को ही क्यों शिक्षक को बताते हो ?' कहकर डाँटेंगे
हानि उठानी पडे शत प्रतिशत पता है कि सामने वाला
 
व्यक्ति झूठ बोल रहा है तो भी उसे यह नहीं कहना कि
 
मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं है, या मुझे पता है कि तुम झूठ
 
बोल रहे हो सामने वाला कितना भी माने कि मैं ने
 
इनके सामने झूठ बोलकर इन्हें मूर्ख बनाया और फायदा
 
उठाया, तो भी विश्वास ही करना, विश्वास नहीं है अथवा
 
विश्वास करने योग्य नहीं है ऐसा मालूम है तो भी विश्वास
 
करना मुझे तुम पर विश्वास नहीं है ऐसा कभी भी नहीं
 
कहना । तुम सत्य बोल रहे हो इसका प्रमाण दो यहभी
 
  
२०३
+
तीसरा चरण है विश्वसनीय होने का। दूसरों का विश्वास करते समय अपना भी विश्वास सबको करना चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है। लोग विश्वास नहीं करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु सदा प्रमाण देना आवश्यक नहीं है। बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि प्रमाणके बिना मेरा विश्वास नहीं किया जा सकता। अतः शिक्षक स्वयं, सामने वाला विश्वास करे कि न करे, विश्वसनीय बनें और विद्यार्थियों को विश्वसनीय बनाने हेतु प्रेरित करें। विद्यार्थी की विश्वसनीयता की परीक्षा अप्रत्यक्षरूप से करें । उससे प्रमाण भी बार बार न माँगे कदाचित एक बार भी न माँगे।
  
       
+
अप्रत्यक्षरूप से यदि पता चले कि वह विश्वास योग्य नहीं है तो भी सीधा डाँटने से या उसे दूसरों के समक्ष गिराने से वह विश्वसनीय नहीं बनेगा । उसे अकेले
  
 
नहीं कहना । यह तो अविश्वास करने
 
नहीं कहना । यह तो अविश्वास करने
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चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है । लोग विश्वास नहीं
 
चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है । लोग विश्वास नहीं
 
करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर
 
करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर
विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु हमेशा प्रमाण देना
+
विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु सदा प्रमाण देना
 
आवश्यक नहीं है । बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति
 
आवश्यक नहीं है । बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति
 
अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि
 
अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि
Line 644: Line 254:
 
आप्रत्यक्षरूप से यदि पता चले कि वह विश्वास
 
आप्रत्यक्षरूप से यदि पता चले कि वह विश्वास
 
योग्य नहीं है तो भी सीधा डाँटने से या उसे दूसरों के
 
योग्य नहीं है तो भी सीधा डाँटने से या उसे दूसरों के
समक्ष गिराने से वह विश्वसनीय नहीं बनेगा । उसे अकेले
+
समक्ष गिराने से वह विश्वसनीय नहीं बनेगा । उसे अकेले में विश्वसनीय बनने हेतु समझायें । सभी छात्रों के समक्ष विश्वास करना, विश्वसनीय होना कितना अच्छा होता है, विश्वसनीय नहीं होने से कितनी हानि होती है, विश्वास नहीं करना और दूसरों के लिये विश्वसनीय नहीं होना कितना बुरा है इसकी कहानी, घटना, चर्चा करें । प्रेरणादायी चरित्र बतायें। धीरे धीरे विश्वसनीयता का वातावरण बनता जायेगा ।
 
 
 
 
 
 
............. page-220 .............
 
 
 
         
 
 
 
में विश्वसनीय बनने हेतु समझायें ।
 
सभी छात्रों के समक्ष विश्वास करना, विश्वसनीय होना
 
कितना अच्छा होता है, विश्वसनीय नहीं होने से कितनी
 
हानि होती है, विश्वास नहीं करना और दूसरों के लिये
 
विश्वसनीय नहीं होना कितना बुरा है इसकी कहानी,
 
घटना, चर्चा करें । प्रेरणादायी चरित्र बतायें । धीरे धीरे
 
विश्वसनीयता का वातावरण बनता जायेगा ।
 
 
 
चौथा चरण है विश्वासभंग नहीं करना । विश्वासभंग
 
करना बहुत बडा नैतिक अपराध है । यह बात बार बार
 
अग्रहपूर्वक बतानी चाहिये । वचनपालन करना कितना
 
महत्त्वपूर्ण है यह बताना चाहिये ।
 
 
 
विद्यालय में पुस्तकालय में ताला नहीं लगाना, स्वयं
 
ग्राहक सेवा चलाना, बिना निरीक्षण के परीक्षा का
 
आयोजन करना, अपने विद्यार्थियों में विश्वास व्यक्त करना,
 
आदि प्रयोग करने चाहिये । भारत में पूर्व में लोग घरों में
 
ताले नहीं लगाते थे यह भी बताना ।
 
 
 
बडी आयु के विद्यार्थियों के समक्ष समाज में
 
विश्वसनीयता का कैसा संकट निर्माण हुआ है, उससे
 
कितने प्रकार से हानि होती है इसकी चर्चा करनी
 
चाहिये । हमारे विद्यालय में विश्वसनीयता का वातावरण
 
कैसे बना रहेगा इसकी भी चर्चा करनी चाहिये ।
 
 
 
विश्वास भंग होने पर क्या करना ?
 
 
 
अगला चरण है कोई हमारा विश्वासभंग करता है
 
तब क्या करना इसका विचार करना । उसे सीधा कुछ न
 
कहते हुए या शिकायत न करते हुए विश्वासभंग को सह
 
लेना यह पहली बात है । फिर उससे बात करना और
 
विश्वासभंग नहीं करने के लिये समझाना । इन सभी बातों
 
में विश्वास करना और विश्वसनीयता होना अपने बस की
 
बातें हैं। इनका आचरण करना तो सरल है। परन्तु जो
 
विश्वसनीय नहीं है अथवा हमारे साथ विश्वासभंग करता है
 
उससे कैसा व्यवहार करें यह समझना कठिन है । पहली
 
बात तो यह है कि सामने वाला व्यक्ति कितना विश्वसनीय
 
है यह जानना चाहिये । उसकी परीक्षा कैसे करना यह भी
 
सीखना चाहिये । विश्वासभंग करने वाले का क्या करना
 
 
 
२०४
 
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
चौथा चरण है विश्वासभंग नहीं करना । विश्वासभंग करना बहुत बडा नैतिक अपराध है। यह बात बार बार आग्रहपूर्वक बतानी चाहिये । वचनपालन करना कितना महत्त्वपूर्ण है यह बताना चाहिये ।
  
यह भी पुस्तक से नहीं सिखाया जा सकता, व्यवहार से
+
विद्यालय में पुस्तकालय में ताला नहीं लगाना, स्वयं ग्राहक सेवा चलाना, बिना निरीक्षण के परीक्षा का आयोजन करना, अपने विद्यार्थियों में विश्वास व्यक्त करना, आदि प्रयोग करने चाहिये । भारत में पूर्व में लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे यह भी बताना
सिखाया जा सकता है । शिक्षकों ने विद्यार्थियों को ये
 
दोनों बातें सिखानी चाहिये ।
 
  
सत्य बोलना, झूठ नहीं बोलना, विश्वास करना,
+
बडी आयु के विद्यार्थियों के समक्ष समाज में विश्वसनीयता का कैसा संकट निर्माण हुआ है, उससे कितने प्रकार से हानि होती है इसकी चर्चा करनी चाहिये हमारे विद्यालय में विश्वसनीयता का वातावरण कैसे बना रहेगा इसकी भी चर्चा करनी चाहिये
विश्वसनीय होना, विश्वास का भंग नहीं करना आदि बातों
 
से अपने आसपास अच्छाई का वातावरण बनता है । इस
 
वातावरण में और सदूगुण पनपते हैं । सब एकदूसरे से
 
आश्वस्त रहते हैं । पस्पर सद्भाव बना रहता है । सद्भाव
 
से सहयोग बढ़ता है। साथ मिलकर काम करने की
 
अनुकूलता बनती है, स्नेह और सौहर्द बढते हैं । सज्जनता
 
पनपती है । अध्ययन अध्यापन खिलते हैं
 
  
शिक्षकों और विद्यार्थियों के परस्पर विश्वास के आगे
+
==== विश्वास भंग होने पर क्या करना ? ====
का चरण शिक्षकों और अभिभावकों मे विश्वास का
+
अगला चरण है कोई हमारा विश्वासभंग करता है तब क्या करना इसका विचार करना । उसे सीधा कुछ न कहते हुए या शिकायत न करते हुए विश्वासभंग को सह लेना यह पहली बात है। फिर उससे बात करना और विश्वासभंग नहीं करने के लिये समझाना । इन सभी बातों में विश्वास करना और विश्वसनीयता होना अपने बस की बातें हैं। इनका आचरण करना तो सरल है। परन्तु जो विश्वसनीय नहीं है अथवा हमारे साथ विश्वासभंग करता है उससे कैसा व्यवहार करें यह समझना कठिन है। पहली बात तो यह है कि सामने वाला व्यक्ति कितना विश्वसनीय है यह जानना चाहिये । उसकी परीक्षा कैसे करना यह भी सीखना चाहिये । विश्वासभंग करने वाले का क्या करना यह भी पुस्तक से नहीं सिखाया जा सकता, व्यवहार से सिखाया जा सकता है। शिक्षकों ने विद्यार्थियों को ये दोनों बातें सिखानी चाहिये ।
वातावरण निर्माण करने का है। इसके आधार पर
 
वातावरण संस्कारक्षम बनता है। समाज में विश्वास का
 
वातावरण पनपे इस दृष्टि से भी विद्यालय को प्रयत्नशील
 
रहना चाहिये ।
 
  
अब प्रश्न यह है कि क्‍या झूठ बोलना आना ही
+
सत्य बोलना, झूठ नहीं बोलना, विश्वास करना, विश्वसनीय होना, विश्वास का भंग नहीं करना आदि बातों से अपने आसपास अच्छाई का वातावरण बनता है। इस वातावरण में और सद्गुण पनपते हैं। सब एकदूसरे से आश्वस्त रहते हैं । पस्पर सद्भाव बना रहता है। सद्भाव से सहयोग बढता है। साथ मिलकर काम करने की अनुकूलता बनती है, स्नेह और सौहर्द बढते हैं । सज्जनता पनपती है। अध्ययन अध्यापन खिलते हैं।
नहीं चाहिये । विश्वास का भंग करना, झूठा विश्वास
 
दिलाना आदि सब आना ही नहीं चाहिये ?
 
  
ऐसा नहीं है। कोई झूठ बोल रहा है उसका पता
+
शिक्षकों और विद्यार्थियों के परस्पर विश्वास के आगे का चरण शिक्षकों और अभिभावकों मे विश्वास का वातावरण निर्माण करने का है। इसके आधार पर वातावरण संस्कारक्षम बनता है। समाज में विश्वास का वातावरण पनपे इस दृष्टि से भी विद्यालय को प्रयत्नशील रहना चाहिये।
ही न चले, कोई विश्वसनीय नहीं है यह जान ही न सके,
 
कोई विश्वास का भंग कर रहा है यह समझ में ही न आये
 
यह तो बुद्धपन की निशानी है । कोई भी गलत काम में
 
हमें जोड सकता है, हम से गलत काम करवा सकता है ।
 
  
झूठा भरोसा दिलाना सही है ?
+
अब प्रश्न यह है कि क्या झूठ बोलना आना ही नहीं चाहिये । विश्वास का भंग करना, झूठा विश्वास दिलाना आदि सब आना ही नहीं चाहिये ?
  
कई बार विश्वास का भंग करना पडता है, झूठा
+
ऐसा नहीं है। कोई झूठ बोल रहा है उसका पता ही न चले, कोई विश्वसनीय नहीं है यह जान ही न सके, कोई विश्वास का भंग कर रहा है यह समझ में ही न आये यह तो बुद्धपन की निशानी है। कोई भी गलत काम में हमें जोड सकता है, हम से गलत काम करवा सकता है ।
विश्वास दिलाना आवश्यक होता है यह सही है कया ?
 
हाँ, कभी झूठा विश्वास दिलाना और विश्वासभंग
 
करना उचित होता है । उदाहरण के लिये जासूसी करते
 
समय ऐसा कपट करना ही होता है । गायको, छोटे बच्चे
 
al, feat at aa हेतु झूठा विश्वास दिलाना अनुचित
 
नहीं माना जायेगा । अपने स्वार्थ के लिये यह सब करना
 
अपराध है । निर्दोष को बचाने के लिये, देश की रक्षा
 
 
  
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+
==== झूठा भरोसा दिलाना सही है ? ====
 +
कई बार विश्वास का भंग करना पडता है, झूठा विश्वास दिलाना आवश्यक होता है यह सही है क्या ?
  
 
+
हाँ, कभी झूठा विश्वास दिलाना और विश्वासभंग करना उचित होता है। उदाहरण के लिये जासूसी करते समय ऐसा कपट करना ही होता है । गायको, छोटे बच्चे को, स्त्रियों को बचाने हेतु झूठा विश्वास दिलाना अनुचित नहीं माना जायेगा। अपने स्वार्थ के लिये यह सब करना अपराध है। निर्दोष को बचाने के लिये, देश की रक्षा करने के लिये यह सब करना अपराध नहीं है ।
  
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
+
ऐसे समय में विश्वासभंग करते आना यह एक कला है, कौशल है। मुझे झूठ बोलना आता ही नहीं यह कहना बुद्धिमानी नहीं है। मुझे किसी के विश्वास का भंग करना आता ही नहीं यह कहना बुद्धिमानी नहीं है। यह सीखना भी चतुराई है। आवश्यकता पड़ने पर इस चतुराई का उपयोग करते आना बुद्धिमानी है।
  
       
+
परन्तु यह सब आने के बाद भी अपने स्वार्थ के लिये, मौज के लिये या बिना किसी कारण से विश्वसनीयता गँवाना या विश्वास का भंग करना बहुत घटिया है।
  
करने के लिये यह सब करना अपराध नहीं है । हम उनका मानसिक मूल पकड नहीं
+
==== श्रद्धा का संकट ====
ऐसे समय में विश्वासभंग करते आना यह एक कला... पाते । यदि श्रद्धा और विश्वास मनवाने का इलाज करेंगे तो
+
विश्वास के समान ही दूसरा गुण है श्रद्धा का मातापिता, गुरु, ईश्वर में श्रद्धा होना अत्यन्त लाभकारी है । हम जो कर रहे हैं वह काम अच्छा है ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये हमें अपने आप में श्रद्धा होना आत्मश्रद्धा है । अर्थात् अपने आप में श्रद्धा, अध्ययन और अध्यापन में श्रद्धा, अपने से बड़ों में श्रद्धा होना अत्यन्त आवश्यक है। श्रद्धा से ही जीवन का दृष्टिकोण विधायक बनता है।
है, कौशल है। मुझे झूठ बोलना आता ही नहीं यह... वातावरण से इन बिमारियों के तरंग कम होते जायेंगे ।
 
कहना बुद्धिमानी नहीं है । मुझे किसी के विश्वास का भंग यह तो ऐसा है कि समझो कोकाकोला पीने से
 
करना आता ही नहीं यह कहना बुद्धिमानी नहीं है । यह... अम्लपित्त होता है। हम अम्लपित्त की दवाई लेते हैं
 
सीखना भी चतुराई है । आवश्यकता पड़ने पर इस चतुराई उससे दूसरी बिमारी होती है । उससे दूसरी, उससे दूसरी
 
का उपयोग करते आना बुद्धिमानी है । ऐसा दुश्चक्र शुरू होता है। हम परेशान होते हैं परन्तु
 
परन्तु यह सब आने के बाद भी अपने स्वार्थ के... कोकाकोला पीना बन्द नहीं करते। वास्तव में
 
लिये, मौज के लिये या बिना किसी कारण से... कोकाकोला पीना बन्द करने से अम्लपित्त होगा ही नहीं
 
विश्वसनीयता गँवाना या विश्वास का भंग करना बहुत... और एक भी दवाई की आवश्यकता नहीं रहेगी । उसी
 
  
घटिया है । प्रकार श्रद्धा और विश्वास के अभाव में संशय, उसुरक्षा,
+
आज के जमाने का संकट श्रद्धा और विश्वास नहीं होने का है। किसी को श्रद्धापूर्वक किसी की बात मानने की इच्छा ही नहीं होती। शिक्षक की, मातापिता की, विद्वान की, समझदार व्यक्ति की बात मानने को मन नहीं करता।
. एकलता, तनाव, उत्तेजना, भय, चिन्ता पैदा होते हैं
 
श्रद्धा का संकट उसका परिणाम हृदय और मस्तिष्क पर होता है। हम
 
  
विश्वास के समान ही दूसरा गुण है श्रद्धा का ।.. दवाई खाना शुरु करते हैं, परेशान होते हैं, पैसा खर्च
+
धर्मग्रन्थ में श्रद्धा नहीं होती, भगवान में श्रद्धा नहीं होती। इसलिये सब अकेले हो गये हैं। किसी की सहायता या सहयोग की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
मातापिता, गुरु, ईश्वर में श्रद्धा होना अत्यन्त लाभकारी है ।.. करते हैं, कानून और नियम बनाते हैं, सुरक्षा का प्रबन्ध
 
हम जो कर रहे हैं वह काम अच्छा है ऐसी श्रद्धा होनी... करते हैं, न्यायालय का आश्रय लेते हैं, आरोप प्रत्यारोप
 
चाहिये । हमें अपने आप में श्रद्धा होना आत्मश्रद्धा है ।.. चलते हैं, दण्ड का प्रावधान होता है, दोनों पक्षों का
 
अर्थात्‌ अपने आप में श्रद्धा, अध्ययन और अध्यापन में... नुकसान होता है परन्तु न समाज अच्छा बनता है न
 
श्रद्धा, अपने से बडों में श्रद्धा होना अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्ति आश्वस्त होता है, न किसी को सुख और शक्ति
 
श्रद्धा से ही जीवन का दृष्टिकोण विधायक बनता है । मिलते हैं। मूल में अश्रद्धा और अविश्वास हैं। इनके
 
  
आज के जमाने का संकट श्रद्धा और विश्वास नहीं... स्थान पर श्रद्धा और विश्वास की प्रतिष्ठा करेंगे तो बाकी
+
ऐसे वातावरण में समाज में तनाव बढता है, उत्तेजना बढती है। आज मधुप्रमेह, रक्तचाप, हृदयरोग आदि जैसी बिमारियाँ बढी हैं उनका मूल भी श्रद्धाहीनता है। सरदर्द अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ भी इसी में से पनपती हैं। इनका उपचार शारीरिक रोग समझकर करने से ये ठीक नहीं होती। हम देखते हैं कि इनकी दवाई आजन्म खानी पडती है । ये असाध्य बिमारियाँ हैं क्योंकि हम उनका मानसिक मूल पकड नहीं । पाते । यदि श्रद्धा और विश्वास मनवाने का इलाज करेंगे तो वातावरण से इन बिमारियों के तरंग कम होते जायेंगे ।
होने का है । किसी को श्रद्धापूर्वक किसी की बात मानने... सब तो जड उखाडने से पूरा वृक्ष गिरकर सूख जाता है
 
की इच्छा ही नहीं होती । शिक्षक Al, aria A, वैसे ही नष्ट हो जायेंगे ।
 
  
विद्वान की, समझदार व्यक्ति की बात मानने को मन नहीं इसलिये, पुनः एकबार विद्यालय श्रद्धा और विश्वास
+
यह तो ऐसा है कि समझो कोकाकोला पीने से अम्लपित्त होता है। हम अम्लपित्त की दवाई लेते हैं । उससे दूसरी बिमारी होती है। उससे दूसरी, उससे दूसरी ऐसा दुष्टचक्र आरम्भ होता है। हम परेशान होते हैं परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करते वास्तव में कोकाकोला पीना बन्द करने से अम्लपित्त होगा ही नहीं
करता । का वातावरण बनायें यह कहना प्राप्त होता है
 
  
धर्मग्रन्थ में श्रद्धा नहीं होती, भगवान में श्रद्धा नहीं श्रद्धा और विश्वास के सम्बन्ध में एक सुन्दर श्लोक
+
और एक भी दवाई की आवश्यकता नहीं रहेगी। उसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास के अभाव में संशय, असुरक्षा, एकलता, तनाव, उत्तेजना, भय, चिन्ता पैदा होते हैं उसका परिणाम हृदय और मस्तिष्क पर होता है। हम दवाई खाना आरम्भ करते हैं, परेशान होते हैं, पैसा खर्च करते हैं, कानून और नियम बनाते हैं, सुरक्षा का प्रबन्ध करते हैं, न्यायालय का आश्रय लेते हैं, आरोप प्रत्यारोप चलते हैं, दण्ड का प्रावधान होता है, दोनों पक्षों का नकसान होता है परन्त न समाज अच्छा बनता है न व्यक्ति आश्वस्त होता है, न किसी को सुख और शक्ति मिलते हैं। मूल में अश्रद्धा और अविश्वास हैं। इनके स्थान पर श्रद्धा और विश्वास की प्रतिष्ठा करेंगे तो बाकी सब तो जड़ उखाडने से पूरा वृक्ष गिरकर सूख जाता है  वैसे ही नष्ट हो जायेंगे।
होती । इसलिये सब अकेले हो गये हैं। किसी की... देखें...
 
सहायता या सहयोग की अपेक्षा नहीं की जा सकती । भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रूपिणौ
 
  
ऐसे वातावरण में समाज में तनाव बढ़ता है, साभ्यांबिना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तस्थमीश्वरम्‌ ।।
+
इसलिये, पुनः एकबार विद्यालय श्रद्धा और विश्वास का वातावरण बनायें यह कहना प्राप्त होता है ।
उत्तेजना बढती है। आज मधुप्रमेह, रक्तचाप, हृदयरोग अर्थात्‌
 
आदि जैसी बिमारियाँ बढ़ी हैं उनका मूल भी श्रद्धाहीनता साक्षात्‌ श्रद्धा और विश्वासरूपी भवानी और शंकर
 
  
है। सरदर्द अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ भी इसी में से... को प्रणाम । ऐसे श्रद्धा और विश्वास जिन के बिना सिद्ध
+
श्रद्धा और विश्वास के सम्बन्ध में एक सुन्दर श्लोक देखें...<blockquote>भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रूपिणी</blockquote><blockquote>याभ्यांबिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ।। </blockquote>अर्थात्
पनपती हैं । इनका उपचार शारीरिक रोग समझकर करने से... लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख
 
ये ठीक नहीं होतीं । हम देखते हैं कि इनकी दवाई... नहीं सकते ।
 
  
आजन्म खानी पड़ती है ये असाध्य बिमारियाँ हैं क्योंकि
+
साक्षात् श्रद्धा और विश्वासरूपी भवानी और शंकर को प्रणाम ऐसे श्रद्धा और विश्वास जिन के बिना सिद्ध लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख नहीं सकते।
  
२०५
+
=== दो विचित्र प्रश्न ===
+
जब व्यवस्थायें चिन्तन के आधार से च्युत हो जाती हैं तब अनेक प्रकार की गुत्थियाँ बन जाती हैं । ये गुत्थियाँ तात्त्विक  नहीं रहती, मनोवैज्ञानिक बन जाती हैं । मनोवैज्ञानिक गुत्थियों को तार्किक और तात्विक उपायों से सुलझाया नहीं जाता परन्तु प्रयास तो तार्किक धरातल पर ही होता हैं । इससे गुत्थियाँ और उलझती हैं ।
 
 
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जब व्यवस्थायें चिन्तन के आधार से च्युत हो जाती
 
हैं तब अनेक प्रकार की गुत्थियाँ बन जाती हैं । ये गुत्थियाँ
 
aif नहीं vedi, मनोवैज्ञानिक बन जाती हैं ।
 
मनोवैज्ञानिक गुत्थियों को तार्किक और तात्विक उपायों से
 
सुलझाया नहीं जाता परन्तु प्रयास तो तार्किक धरातल पर ही
 
होता हैं । इससे गुत्थियाँ और उलझती हैं ।
 
  
 
ऐसे उलझे हुए दो प्रश्न यहाँ प्रस्तुत हैं ।
 
ऐसे उलझे हुए दो प्रश्न यहाँ प्रस्तुत हैं ।
  
१, मान्यता का प्रश्न
+
==== १, मान्यता का प्रश्न ====
 
+
कोई भी विद्यालय चलता है तब उसे मान्यता की आवश्यकता होती है । भारत की दीर्घ परम्परा में विद्यालय को समाज से मान्यता मिलती रही है । समाज से मान्यता मिलने का अर्थ है समाज ने अपने बच्चोंं को विद्यालयों में पढने हेतु भेजना और विद्यालय के योगक्षेम की चिन्ता करना । समाज के भरोसे शिक्षक विद्यालय आरम्भ करते थे और शिक्षक के सदूभाव, ज्ञान और कर्तृत्व के आधार पर उसे मान्यता भी मिलती थी ।
कोई भी विद्यालय चलता है तब उसे मान्यता की
 
आवश्यकता होती है । भारत की दीर्घ परम्परा में विद्यालय
 
को समाज से मान्यता मिलती रही है । समाज से मान्यता
 
मिलने का अर्थ है समाज ने अपने बच्चों को विद्यालयों में
 
पढने हेतु भेजना और विद्यालय के योगक्षेम की चिन्ता
 
करना । समाज के भरोसे शिक्षक विद्यालय शुरु करते थे
 
और शिक्षक के सदूभाव, ज्ञान और कर्तृत्व के आधार पर
 
उसे मान्यता भी मिलती थी ।
 
  
 
यह केवल प्राथमिक विद्यालयों की ही बात नहीं है ।
 
यह केवल प्राथमिक विद्यालयों की ही बात नहीं है ।
काशी, art, ae, vada, तक्षशिला, विक्रमशीला,
+
काशी, कांची, वलभी, नवद्वीप, तक्षशिला, विक्रमशीला, नालन्दा आदि देशविरव्यात और विश्वविख्यात उच्च शिक्षा के केन्द्रों को भी समाज से ही मान्यता मिलती थी । इन केन्द्रों को तो समाज के साथ साथ विदट्रज्जनगत से भी मान्यता मिलती थी । समाज की मान्यता में ही राज्य की मान्यता का भी समावेश हो जाता था |
नालन्दा आदि देशविरव्यात और विश्वविख्यात उच्च शिक्षा
 
के केन्द्रों को भी समाज से ही मान्यता मिलती थी । इन
 
केन्द्रों को तो समाज के साथ साथ विदट्रज्जनगत से भी
 
मान्यता मिलती थी । समाज की मान्यता में ही राज्य की
 
मान्यता का भी समावेश हो जाता था |
 
  
 
परन्तु आज तो समाज की या विद्वानों की मान्यता
 
परन्तु आज तो समाज की या विद्वानों की मान्यता
 
पर्याप्त नहीं होती । इन दोनों की मान्यता मिले या न मिले
 
पर्याप्त नहीं होती । इन दोनों की मान्यता मिले या न मिले
राज्य की मान्यता अनिवार्य है । राज्य ने मान्यता देने की
+
राज्य की मान्यता अनिवार्य है । राज्य ने मान्यता देने कीप्रक्रिया और व्यवस्थायें निर्धारित की हुई हैं जो प्राथमिक से
प्रक्रिया और व्यवस्थायें निर्धारित की हुई हैं जो प्राथमिक से
 
 
लेकर उच्च शिक्षा की संस्थाओं को मान्यता देती हैं ।
 
लेकर उच्च शिक्षा की संस्थाओं को मान्यता देती हैं ।
  
Line 835: Line 320:
 
पाठूक्रम के आधार पर इन संस्थाओं के द्वारा ली जाने वाली
 
पाठूक्रम के आधार पर इन संस्थाओं के द्वारा ली जाने वाली
 
परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर इन संस्थाओं की ओर से
 
परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर इन संस्थाओं की ओर से
प्रमाणपत्र मिलना । इस प्रमाणपत्र के आधार पर राज्यकी
+
प्रमाणपत्र मिलना । इस प्रमाणपत्र के आधार पर राज्यकी व्यवस्था में चलने वाली विभिन्न गतिविधियों में काम करने के अवसर मिलना अर्थात् नौकरी मिलना अथवा उस क्षेत्र के स्वतन्त्र व्यवसाय हेतु अनुज्ञा मिलना ।
  
दो विचित्र प्रश्र
+
मान्यता के विविध स्तर और प्रकार हैं उनमें प्रश्न क्या है यही देखेंगे। प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता के लिये तीन स्तरों पर व्यवस्था है -
  
२०६
+
१. राज्यकी संस्था की, उदाहरण के लिये गुजरात स्टेट बोर्ड
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
२. केन्द्रीय संस्था की, उदाहरण के लिये सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सेकेण्डरी एज्यूकेशन
  
   
+
३. आन्तर्राष्ट्रीय संस्था की, उदाहरण के लिये इण्टरनेशनल बोर्ड
  
व्यवस्था में चलने वाली विभिन्न गतिविधियों में काम करने
 
के अवसर मिलना अर्थात्‌ नौकरी मिलना अथवा उस क्षेत्र
 
के स्वतन्त्र व्यवसाय हेतु अनुज्ञा मिलना |
 
मान्यता के विविध स्तर और प्रकार हैं उनमें प्रश्न क्या
 
है यही देखेंगे । प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों को
 
मान्यता के लिये तीन स्तरों पर व्यवस्था है -
 
१, राज्यकी संस्था की, उदाहरण के लिये गुजरात स्टेट बोर्ड
 
२. केन्द्रीय संस्था की, उदाहरण के लिये सैण्ट्रल बोर्ड ओफ
 
सेकैण्डरी एज्यूकेशन
 
३. आन्तर्राष्ट्रीय संस्था की, उदाहरण के लिये इण्टरनेशनल
 
बोर्ड
 
 
ये भी एक से अधिक होते हैं ।
 
ये भी एक से अधिक होते हैं ।
  
ऐसे तीन स्तर क्यों होते हैं ?
+
==== ऐसे तीन स्तर क्यों होते हैं ? ====
 
+
शिक्षा का विषय राज्य सरकार का है इसलिये राज्य तो इसकी व्यवस्था करेगा यह स्वाभाविक है। इन विद्यालयों में साधारण रूप से प्रान्तीय भाषा ही माध्यम रहती है तथापि अन्य प्रान्तों के निवासियों की संख्या के अनुपात में उन भाषा के माध्यमों के विद्यालय भी चलते हैं । उदाहरण के लिये राज्य की मान्यता वाले अधिकतम विद्यालय गुजराती माध्यम के होंगे परन्तु तमिल, सिंधी, उडिया, उर्दू, मराठी माध्यम के विद्यालय भी चलते हैं।
शिक्षा का विषय राज्य सरकार का है इसलिये राज्य
 
तो इसकी व्यवस्था करेगा यह स्वाभाविक है। इन
 
विद्यालयों में साधारण रूप से प्रान्तीय भाषा ही माध्यम
 
रहती है फिर भी अन्य प्रान्तों के निवासियों की संख्या के
 
अनुपात में उन भाषा के माध्यमों के विद्यालय भी चलते
 
हैं । उदाहरण के लिये राज्य की मान्यता वाले अधिकतम
 
विद्यालय गुजराती माध्यम के होंगे परन्तु तमिल, सिंधी,
 
उडिया, उर्दू, मराठी माध्यम के विद्यालय भी चलते हैं ।
 
 
 
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो केन्द्र सरकार की नौकरी
 
करते हैं इसलिये उनके स्थानांतरण एक राज्य से दूसरे राज्य में
 
होते हैं । ऐसे लोगों की सुविधा हेतु अखिल भारतीय स्तर की
 
संस्थायें चलती हैं । सीबीएसई (सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सैकन्डरी
 
एज्यूकेशन) ऐसा ही बोर्ड है । यह मान्यता पूरे देश में चलती
 
है । इसमें हिन्दी और अंग्रेजी ऐसे दो माध्यम होते हैं । अब
 
एक राज्य से दूसरे राज्यमें जानें में कठिनाई नहीं होती ।
 
 
 
तीसरा आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड होता है जो एक से अधिक
 
देशों में विद्यालयों को मान्यता देता है । इसका उद्देश्य राज्य
 
सरकार या केन्द्र सरकार की तरह प्रजाजनों की सुविधा
 
देखने का तो नहीं है यह स्पष्ट है । अपना व्यापार कहो तो
 
 
  
............. page-223 .............
+
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो केन्द्र सरकार की नौकरी करते हैं इसलिये उनके स्थानांतरण एक राज्य से दूसरे राज्य में होते हैं । ऐसे लोगोंं की सुविधा हेतु अखिल धार्मिक स्तर की संस्थायें चलती हैं। सीबीएसई (सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सैकन्डरी एज्यूकेशन) ऐसा ही बोर्ड है । यह मान्यता पूरे देश में चलती है । इसमें हिन्दी और अंग्रेजी ऐसे दो माध्यम होते हैं । अब एक राज्य से दूसरे राज्यमें जाने में कठिनाई नहीं होती।
  
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
+
तीसरा आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड होता है जो एक से अधिक देशों में विद्यालयों को मान्यता देता है । इसका उद्देश्य राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की तरह प्रजाजनों की सुविधा देखने का तो नहीं है यह स्पष्ट है । अपना व्यापार कहो तो व्यापार और मिशन कहो तो मिशन विश्व के अन्य देशों में भी फैलाने का उद्देश्य है ।
  
व्यापार और मिशन कहो तो मिशन विश्व के अन्य देशों में
+
===== अब प्रश्न क्या है ? =====
भी फैलाने का उद्देश्य है ।
+
अधिकांश लोगोंं को राज्य के बोर्ड की मान्यता होना
 
+
सर्वथा स्वाभाविक है, परन्तु आज सबको, विशेष रूप से संचालकों को, केन्द्रीय बोर्ड की मान्यता का आकर्षण बढ रहा है । मातृभाषा में पढ़ने की सुविधा नहीं होने पर भी केन्द्रिय बोर्ड चाहिये । उसके ही समान आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की
अब प्रश्न क्या है ?
 
 
 
अधिकांश लोगों को राज्य के बोर्ड की मान्यता होना
 
सर्वथा स्वाभाविक है, परन्तु आज सबको, विशेष रूप से
 
संचालकों को, केन्द्रीय बोर्ड की मान्यता का आकर्षण बढ
 
रहा है । मातृभाषा में पढ़ने की सुविधा नहीं होने पर भी
 
केन्द्रिय बोर्ड चाहिये । उसके ही समान आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की
 
 
मान्यता का आकर्षण भी बढ रहा है ।
 
मान्यता का आकर्षण भी बढ रहा है ।
  
इसके तर्क कितने ही दिये जाते हों यह आकर्षण
+
इसके तर्क कितने ही दिये जाते हों यह आकर्षण केवल मनोवैज्ञानिक है । भाषा ऐसी बोली जाती है कि केन्द्रियि और आन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के मानक ऊँचे होते हं, उनका दायरा अधिक बडा है और इनमें गुणवत्ता अधिक है । ये तर्क सही नहीं हैं । कोई भी शिक्षाशास्त्री इन्हें मान्य नहीं करेगा तथापि शिक्षाशाखरियों की बात कोई मानने को तैयार नहीं होता । बच्चे को विदेश जाने में आन्तर्रा्ट्रीय बोर्ड सुविधा देता है ऐसा तर्क दिया जाता है । ये सब तर्क ही इतने बेबुनियाद होते हैं कि उनके उत्तर तार्किक पद्धति से
केवल मनोवैज्ञानिक है । भाषा ऐसी बोली जाती है कि
+
देना सम्भव ही नहीं है । एक के बाद एक तर्क का उत्तर देने पर भी वे स्वीकृत नहीं होते क्योंकि उन्हें तर्कनिष्ठ व्यवहार नहीं करना है । इसके चलते बोर्डों की व्यवस्था में, अभिभावकों में और शैक्षिक सामग्री के बाजार में बडी हलचल मची हुई है ।
केन्द्रियि और आन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के मानक ऊँचे होते हं,
 
उनका दायरा अधिक बडा है और इनमें गुणवत्ता अधिक
 
है । ये तर्क सही नहीं हैं । कोई भी शिक्षाशास्त्री इन्हें मान्य
 
नहीं करेगा फिर भी शिक्षाशाखरियों की बात कोई मानने को
 
तैयार नहीं होता । बच्चे को विदेश जाने में आन्तर्रा्ट्रीय बोर्ड
 
सुविधा देता है ऐसा तर्क दिया जाता है । ये सब तर्क ही
 
इतने बेबुनियाद होते हैं कि उनके उत्तर तार्किक पद्धति से
 
देना सम्भव ही नहीं है । एक के बाद एक तर्क का उत्तर
 
देने पर भी वे स्वीकृत नहीं होते क्योंकि उन्हें तर्कनिष्ठ
 
व्यवहार नहीं करना है । इसके चलते बोर्डों की व्यवस्था में,
 
अभिभावकों में और शैक्षिक सामग्री के बाजार में बडी
 
हलचल मची हुई है ।
 
 
 
२. दूसरा प्रश्न है अंग्रेजी माध्यम का |
 
 
 
हमारे राष्ट्रीय हीनता बोध का यह इतना मुखर लक्षण
 
है कि इसका खुलासा करने की भी आवश्यकता नहीं है ।
 
 
 
विश्व भर के शिक्षाशास्त्री, समझदार व्यक्ति, देशभक्त
 
लोग कहते हैं कि देश की शिक्षा देश की भाषा में ही होनी
 
चाहिये, व्यक्ति की शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही होनी
 
चाहिये । मातृभाषा में शिक्षा के असंख्य लाभ और विदेशी
 
भाषा में शिक्षा लेने की अनेक हानियाँ बताई जाती हैं,
 
अनेक प्रमाण दिये जाते हैं तो भी लोगों पर उनका प्रभाव
 
नहीं होता । लोगों का ही अनुसरण सरकार करती है ।
 
 
 
     
 
  
2८ ५
+
==== २. दूसरा प्रश्न है अंग्रेजी माध्यम का | ====
2 ५.
+
हमारे राष्ट्रीय हीनता बोध का यह इतना मुखर लक्षण है कि इसका खुलासा करने की भी आवश्यकता नहीं है ।
  
 
+
विश्व भर के शिक्षाशास्त्री, समझदार व्यक्ति, देशभक्त लोग कहते हैं कि देश की शिक्षा देश की भाषा में ही होनी चाहिये, व्यक्ति की शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही होनी चाहिये । मातृभाषा में शिक्षा के असंख्य लाभ और विदेशी भाषा में शिक्षा लेने की अनेक हानियाँ बताई जाती हैं, अनेक प्रमाण दिये जाते हैं तो भी लोगोंं पर उनका प्रभाव नहीं होता । लोगोंं का ही अनुसरण सरकार करती है ।
  
 
संचालक अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय
 
संचालक अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय
चलाते हैं क्योंकि लोगों को चाहिये । सरकार अंग्रेजी
+
चलाते हैं क्योंकि लोगोंं को चाहिये । सरकार अंग्रेजी
माध्यम का इसलिये समर्थन करती है क्योंकि लोगों को
+
माध्यम का इसलिये समर्थन करती है क्योंकि लोगोंं को
चाहिये । जो लोग जानते हैं कि लोगों को चाहिये वह देना
+
चाहिये । जो लोग जानते हैं कि लोगोंं को चाहिये वह देना
नहीं होता, लोगों को क्या इष्ट है और क्या नहीं है यह
+
नहीं होता, लोगोंं को क्या इष्ट है और क्या नहीं है यह
 
सिखा कर जो इष्ट है वह देना और अनिष्ट है उससे परावृत
 
सिखा कर जो इष्ट है वह देना और अनिष्ट है उससे परावृत
 
करना शिक्षा का काम है वे अंग्रेजी माध्यमका विरोध करते
 
करना शिक्षा का काम है वे अंग्रेजी माध्यमका विरोध करते
Line 946: Line 364:
 
है और भीषण रोग के स्तर पर पहुँच जाती है ।
 
है और भीषण रोग के स्तर पर पहुँच जाती है ।
  
अंग्रेजी और अंग्रेजीयत आज ऐसा भीषण मानसिक
+
अंग्रेजी और अंग्रेजीयत आज ऐसा भीषण मानसिक रोग बन गया है ।
रोग बन गया है ।
 
 
 
इसके चलते शैक्षिक दृष्टि से भी समस्‍यायें निर्माण हो
 
रही हैं । मातृभाषा का ज्ञान कम होने लगा है, भाषा को
 
महत्त्वपूर्ण विषय मानना बन्द हो गया है, भाषा नहीं आने
 
से भाषाप्रभुत्व, भाषासौन्दर्य, भाषालालित्य आदि अनेक
 
मूल्यवान संकल्पनायें समाप्त हो गई हैं, भाषा नहीं आने से
 
दूसरे विषयों को ग्रहण करना भी रुक गया है और कुल
 
मिलाकर बौद्धिकता का हास हो रहा है, बौद्धिकता का
 
यान्त्रिकीरण हो रहा है । यह मनुष्य से यन्त्र बनने की ओर
 
गति है ।
 
 
 
भाषा नहीं आने से संस्कृति से भी सम्बन्धविच्छेद
 
हो रहा है। जब संस्कृति से विमुखता आती है तब
 
सांस्कृतिक वर्णसंकरता आती है । यह मनुष्य से पशुत्व की
 
ओर गति है ।
 
 
 
इन दोनों समस्याओं का आधार एक ही है, वह है
 
हमारा हीनताबोध । दोनों समस्याओं का स्वरूप एक ही है,
 
वह है मनोवैज्ञानिक । हीनताबोध भी मनोवैज्ञानिक समस्या
 
ही है।
 
 
 
मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल
 
 
 
उपाय की दृष्टि से यदि हम बौद्धिक, तार्किक उपाय
 
करेंगे, अनेक वास्तविक प्रमाण देंगे, आंकडे देंगे तो उसका
 
 
 
 
............. page-224 .............
 
 
 
       
 
 
 
कोई परिणाम नहीं होता है । कल्पना
 
करें कि कोई एक सन्त जिनके लाखों अनुयायी हैं वे यदि
 
अपने सत्संग में अंग्रेजी माध्यम में अपने बच्चों को मत
 
भेजो ऐसा कहेंगे तो लोग मानेंगे ? कदाचित सन्तों को भी
 
लगता है कि नहीं मानेंगे इसलिये वे कहते नहीं हैं । यदि
 
सरकार अंग्रेजी माध्यम को मान्यता न दे तो लोग उसे मत
 
नहीं देंगे इसलिये सरकार भी नहीं कहती । अर्थात्‌ जिनका
 
प्रजामानस पर प्रभाव होता है वे ही यह बात नहीं कह
 
सकते हैं ? कया वे अंग्रेजी माध्यम होना चाहिये ऐसा मानते
 
हैं? नहीं होना चाहिये ऐसा मानते हैं ? कदाचित उन्होंने
 
इस प्रश्न पर विचार ही नहीं किया है ।
 
 
 
यदि नहीं किया है तो उन्हें विचार करने हेतु निवेदन
 
करना चाहिये और अपने अनुयायिओं को अंग्रेजी माध्यम से
 
परावृत करने को कहना चाहिये ।
 
 
 
मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल मनोवैज्ञानिक पद्धति
 
से ही हो सकता है इतनी एक बात हमारी समझ में आ
 
जाय तो हमें अनेक उपाय सूझने लगेंगे । परन्तु अभी तो
 
समाज के बौद्धिक वर्ग के लोग ही इस ग्रहण से ग्रस्त हैं ।
 
 
 
मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ क्‍या होती हैं इसका विस्तृत
 
निरूपण करने का यहाँ औचित्य नहीं है क्योंकि वे असंख्य
 
होती हैं । सामान्य लोगों को भी ये सूझ सकती हैं और
 
सामान्य लोग इसका प्रभाव भी जानते हैं ।
 
 
 
विद्यालय यदि ऐसी पद्धतियाँ अपनाना शुरू कर दें,
 
इन्हें चालना दें तो हम इन समस्याओं से निजात पा सकते
 
हैं । साहस करने की आवश्यकता है ।
 
 
 
शिक्षा का माध्यम और भाषा का प्रश्न
 
 
 
भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये यह जितना
 
स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में भारतीय भाषा
 
का प्रचलन होना चाहिये यह है । भारत में जिस प्रकार शिक्षा
 
भारतीय नहीं है उसी प्रकार भारतीय भाषा की प्रतिष्ठा नहीं
 
है । भारत में जिस प्रकार युरो अमेरिका की शिक्षा चल रही है
 
उसी प्रकार अंग्रेजी सबके मानस को प्रभावित कर रही है ।
 
 
 
भारत में अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी का प्रवेश हुआ ।
 
अंग्रेजों ने शिक्षा को पश्चिमी बनाया उसी प्रकार से समाज के
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
 
 
 
 
उच्चभ्रू वर्ग को अंग्रेजी बोलना सिखाया । साथ ही अंग्रेज
 
बनना भी सिखाया । खानपान, वेशभूषा,  शिष्टाचार,
 
दृष्टिकोण, मनोरंजन आदि अंग्रेजी पद्धति का हो तभी अंग्रेजी
 
बोलना सार्थक है ऐसा समीकरण बैठ गया । देश से अंग्रेज
 
गये परन्तु अंग्रेजीयत रह गई । भारत के राजकीय मानचित्र
 
में अंग्रेज नहीं हैं परन्तु मनोमस्तिष्क में अंग्रेजीयत का
 
साम्राज्य है ।
 
 
 
अंग्रेजी भाषा का मोह इस अंग्रेजीयत का ही एक
 
हिस्सा है ।
 
  
जैसे जैसे स्वतन्त्र भारत आगे बढ रहा है अंग्रेजी का
+
इसके चलते शैक्षिक दृष्टि से भी समस्‍यायें निर्माण हो रही हैं मातृभाषा का ज्ञान कम होने लगा है, भाषा को
मोह भी बढ़ता जा रहा है लोग मानने लगे हैं कि अंग्रेजी
+
महत्त्वपूर्ण विषय मानना बन्द हो गया है, भाषा नहीं आने से भाषाप्रभुत्व, भाषासौन्दर्य, भाषालालित्य आदि अनेक मूल्यवान संकल्पनायें समाप्त हो गई हैं, भाषा नहीं आने से दूसरे विषयों को ग्रहण करना भी रुक गया है और कुल मिलाकर बौद्धिकता का हास हो रहा है, बौद्धिकता का यान्त्रिकीरण हो रहा है । यह मनुष्य से यन्त्र बनने की ओर गति है
का कोई पर्याय नहीं है । अंग्रेजी विश्वभाषा है और विकास
 
इससे ही होता है। मजदूर, किसान, फेरी वाला, घर में
 
कपडा बर्तन करने वाली नौकरानी भी अपने बच्चों को
 
अंग्रेजी पढाना चाहते हैं क्योंकि वे अपने बच्चों को बडा
 
बनाना चाहते हैं
 
  
अंग्रेजी भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं होनी चाहिये,
+
भाषा नहीं आने से संस्कृति से भी सम्बन्धविच्छेद हो रहा है। जब संस्कृति से विमुखता आती है तब सांस्कृतिक वर्णसंकरता आती है । यह मनुष्य से पशुत्व की ओर गति है ।
मातृभाषा ही श्रेष्ठ माध्यम है ऐसा आग्रह करनेवाले लोग
 
समझा समझाकर थक गये हैं, हार गये हैं और समझौते करने
 
के लिये मजबूर हो गये हैं ऐसा व्यामोह छाया हुआ है ।
 
  
अपने मोह को भी लोग तर्कों के आधार पर सही
+
इन दोनों समस्याओं का आधार एक ही है, वह है हमारा हीनताबोध । दोनों समस्याओं का स्वरूप एक ही है, वह है मनोवैज्ञानिक हीनताबोध भी मनोवैज्ञानिक समस्या ही है।
बताने का प्रयास करते हैं । ये सब कुतर्क होते हैं परन्तु वे
 
करते ही रहते हैं एक से बढकर एक प्रभावी तर्क भी
 
असफल हो जाते हैं और मौन हो जाते हैं ।
 
  
शासन स्वयं इस मोह से ग्रस्त है, विश्व विद्यालय,
+
==== मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल ====
धर्माचार्य, उद्योगक्षेत्र सब इस मोह से ग्रस्त हैं। कभी वे
+
उपाय की दृष्टि से यदि हम बौद्धिक, तार्किक उपाय करेंगे, अनेक वास्तविक प्रमाण देंगे, आंकडे देंगे तो उसका कोई परिणाम नहीं होता है। कल्पना करें कि कोई एक सन्त जिनके लाखों अनुयायी हैं वे यदि अपने सत्संग में अंग्रेजी माध्यम में अपने बच्चोंं को मत भेजो ऐसा कहेंगे तो लोग मानेंगे ? कदाचित सन्तों को भी लगता है कि नहीं मानेंगे इसलिये वे कहते नहीं हैं। यदि सरकार अंग्रेजी माध्यम को मान्यता न दे तो लोग उसे मत नहीं देंगे इसलिये सरकार भी नहीं कहती । अर्थात् जिनका प्रजामानस पर प्रभाव होता है वे ही यह बात नहीं कह सकते हैं ? क्या वे अंग्रेजी माध्यम होना चाहिये ऐसा मानते हैं ? नहीं होना चाहिये ऐसा मानते हैं ? कदाचित उन्होंने इस प्रश्न पर विचार ही नहीं किया है।
ऐसी भाषा बोलते हैं कि लो, अब तो रिक्षावाले और
 
घरनौकर भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों
 
में भेजना चाहते हैं । मानों अंग्रेजी पढने का अधिकार उनके
 
जैसे श्रेष्ठ लोगों का ही है, रिक्षावालों का या नौकरों का
 
नहीं । “प्रत्युत्त में ये नौकर और उनका पक्ष लेनेवाले
 
राजकीय पक्ष के लोग अथवा समाजसेवी लोग कहते हैं कि
 
बडे पढ़ते हैं तो छोटे क्यों न पढ़ें, उन्हें भी अधिकार है
 
इस प्रकार वे भी पढ़ते हैं ।' अपराध छोटे लोगों का नहीं
 
है, तथाकथित बडों का ही है ।
 
 
  
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+
यदि नहीं किया है तो उन्हें विचार करने हेतु निवेदन करना चाहिये और अपने अनुयायिओं को अंग्रेजी माध्यम से परावृत करने को कहना चाहिये।
  
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
+
मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल मनोवैज्ञानिक पद्धति से ही हो सकता है इतनी एक बात हमारी समझ में आ जाय तो हमें अनेक उपाय सूझने लगेंगे। परन्तु अभी तो समाज के बौद्धिक वर्ग के लोग ही इस ग्रहण से ग्रस्त हैं।
  
अंग्रेजी मनोवैज्ञानिक समस्या है
+
मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ क्या होती हैं इसका विस्तृत निरूपण करने का यहाँ औचित्य नहीं है क्योंकि वे असंख्य होती हैं । सामान्य लोगोंं को भी ये सूझ सकती हैं और सामान्य लोग इसका प्रभाव भी जानते हैं ।
  
जिस प्रकार कामातुर व्यक्ति को, लोभी को, आसक्त
+
विद्यालय यदि ऐसी पद्धतियाँ अपनाना आरम्भ कर दें, इन्हें चालना दें तो हम इन समस्याओं से निजात पा सकते हैं । साहस करने की आवश्यकता है।
को, मोहांध को कोई विवेक नहीं होता उसी प्रकार से
 
अंग्रेजी का भूत जिन पर सवार हो गया है वे भी
 
विवेकशून्य होकर ही व्यवहार करते हैं ।
 
  
भूत को भगाने के लिये धर्माचार्य, शिक्षक, सज्जन
+
==== शिक्षा का माध्यम और भाषा का प्रश्न ====
या वैद्य की आवश्यकता नहीं होती, भूत को भगाने के लिये
+
भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में धार्मिक भाषा का प्रचलन होना चाहिये यह है । भारत में जिस प्रकार शिक्षा धार्मिक नहीं है उसी प्रकार धार्मिक भाषा की प्रतिष्ठा नहीं है। भारत में जिस प्रकार युरोअमेरिका की शिक्षा चल रही है उसी प्रकार अंग्रेजी सबके मानस को प्रभावित कर रही है।
झाडफूंक करने वाले की आवश्यकता होती है । उन्माद के
 
रोगी को मनोचिकित्सक की आवश्यकता होती है । शरीर
 
की चिकित्सा करने वाले को उसमें यश नहीं मिलता ।
 
भयभीत व्यक्ति को तर्क से समझाया नहीं जा सकता, उसे
 
रक्षण की आवश्यकता होती है । भ्रम दूर करने के लिये
 
सत्य स्वरूप उद्घाटित करने की आवश्यकता होती है,
 
विश्वास या आज्ञा कुछ नहीं कर सकते । अर्थात्‌ जैसा रोग
 
वैसा उपचार, जैसी समस्या वैसा समाधान यही व्यवहार का
 
सिद्धान्त है, व्यावहारिक समझदारी है ।
 
  
अंग्रेजी माध्यम की समस्या मनोवैज्ञानिक समस्या है,
+
भारत में अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी का प्रवेश हुआ अंग्रेजों ने शिक्षा को पश्चिमी बनाया उसी प्रकार से समाज के उच्चभ्रू वर्ग को अंग्रेजी बोलना सिखाया । साथ ही अंग्रेज बनना भी सिखाया खानपान, वेशभूषा,  शिष्टाचार, दृष्टिकोण, मनोरंजन आदि अंग्रेजी पद्धति का हो तभी अंग्रेजी बोलना सार्थक है ऐसा समीकरण बैठ गया देश से अंग्रेज गये परन्तु अंग्रेजीयत रह गई । भारत के राजकीय मानचित्र में अंग्रेज नहीं हैं परन्तु मनोमस्तिष्क में अंग्रेजीयत का साम्राज्य है ।
बौद्धिक और व्यावहारिक नहीं इसलिये इसका समाधान
 
भी मनोवैज्ञानिक ढंग से ही हो सकता हैं बौद्धिक या
 
व्यावहारिक मार्गों का अवलम्बन करने से वह अधिक
 
कठिन हो जाती है । इतने वर्षों का अनुभव तो यही सिद्ध
 
करता है ।
 
  
अंग्रेजी के भूत को भगाने के प्रयास
+
अंग्रेजी भाषा का मोह इस अंग्रेजीयत का ही एक हिस्सा है ।
  
अंग्रेजी के भूत को भगाने के लिये हमारे मानस को
+
जैसे जैसे स्वतन्त्र भारत आगे बढ रहा है अंग्रेजी का मोह भी बढ़ता जा रहा है । लोग मानने लगे हैं कि अंग्रेजी का कोई पर्याय नहीं है । अंग्रेजी विश्वभाषा है और विकास इससे ही होता है। मजदूर, किसान, फेरी वाला, घर में कपडा बर्तन करने वाली नौकरानी भी अपने बच्चोंं को अंग्रेजी पढाना चाहते हैं क्योंकि वे अपने बच्चोंं को बडा बनाना चाहते हैं ।
रोगमुक्त करने के लिये कुछ इस प्रकार से प्रयास करने
 
होंगे...
 
  
g. जो लोग स्वयं अंग्रेजी के भूत से परेशान हैं वे
+
अंग्रेजी भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं होनी चाहिये, मातृभाषा ही श्रेष्ठ माध्यम है ऐसा आग्रह करनेवाले लोग
इसका उपचार नहीं कर सकते । वे चाहते हैं कि
+
समझा समझाकर थक गये हैं, हार गये हैं और समझौते करने के लिये मजबूर हो गये हैं ऐसा व्यामोह छाया हुआ है ।
पहले दूसरे लोग अंग्रेजी बोलना बन्द कर दें, बाद
 
में हम भी बन्द कर देंगे । सब बोलते हैं इसलिये
 
हमें भी बोलना पडता है, बाकी हम अंग्रेजी के
 
पक्षधर नहीं हैं। ऐसे लोगों से अंग्रेजी का भूत
 
मुस्कुराता है और अधिक जोर से चिपक जाता है ।
 
  
२०९
+
अपने मोह को भी लोग तर्कों के आधार पर सही बताने का प्रयास करते हैं । ये सब कुतर्क होते हैं परन्तु वे करते ही रहते हैं । एक से बढकर एक प्रभावी तर्क भी असफल हो जाते हैं और मौन हो जाते हैं ।
  
       
+
शासन स्वयं इस मोह से ग्रस्त है, विश्व विद्यालय, धर्माचार्य, उद्योगक्षेत्र सब इस मोह से ग्रस्त हैं। कभी वे ऐसी भाषा बोलते हैं कि लो, अब तो रिक्षावाले और घरनौकर भी अपने बच्चोंं को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में भेजना चाहते हैं । मानों अंग्रेजी पढने का अधिकार उनके जैसे श्रेष्ठ लोगोंं का ही है, रिक्षावालों का या नौकरों का
 +
नहीं । “प्रत्युत्त में ये नौकर और उनका पक्ष लेनेवाले राजकीय पक्ष के लोग अथवा समाजसेवी लोग कहते हैं कि बडे पढ़ते हैं तो छोटे क्यों न पढ़ें, उन्हें भी अधिकार है । इस प्रकार वे भी पढ़ते हैं ।' अपराध छोटे लोगोंं का नहीं है, तथाकथित बडों का ही है ।
  
जो लोग मानते हैं कि आज का
+
==== अंग्रेजी मनोवैज्ञानिक समस्या है ====
युवा वर्ग अंग्रेजी ही जानता है, उनके साथ सम्पर्क
+
जिस प्रकार कामातुर व्यक्ति को, लोभी को, आसक्त को, मोहांध को कोई विवेक नहीं होता उसी प्रकार से अंग्रेजी का भूत जिन पर सवार हो गया है वे भी विवेकशून्य होकर ही व्यवहार करते हैं
स्थापित करने के लिये हमें भी अंग्रेजी में व्यवहार
 
करना चाहिये । अंग्रेजी बोलकर हम उन्हें अंग्रेजी से
 
मुक्त कर देंगे । उनकी बात सुनकर भी अंग्रेजी का
 
भूत मुस्कुराता है । ऐसे लोगों से वह भागेगा नहीं
 
  
अंग्रेजी को नहीं मानने वाले, नहीं चाहने वाले भी
+
भूत को भगाने के लिये धर्माचार्य, शिक्षक, सज्जन या वैद्य की आवश्यकता नहीं होती, भूत को भगाने के लिये झाडफूंक करने वाले की आवश्यकता होती है । उन्माद के रोगी को मनोचिकित्सक की आवश्यकता होती है । शरीर की चिकित्सा करने वाले को उसमें यश नहीं मिलता । भयभीत व्यक्ति को तर्क से समझाया नहीं जा सकता, उसे रक्षण की आवश्यकता होती है । भ्रम दूर करने के लिये सत्य स्वरूप उद्घाटित करने की आवश्यकता होती है, विश्वास या आज्ञा कुछ नहीं कर सकते । अर्थात्‌ जैसा रोग वैसा उपचार, जैसी समस्या वैसा समाधान यही व्यवहार का सिद्धान्त है, व्यावहारिक समझदारी है ।
झाडफूंक वाले होना नहीं चाहते, अपनी शिष्टता,
 
wal के शख्र, बौद्धिक उपचार, आँकडों के पुरावे
 
आदि से समस्या हल करना चाहते हैं, यही सज्जनों
 
और बुद्धिमानों का मार्ग है ऐसा कहते हैं उनसे भी
 
अंग्रेजी का भूत भागता नहीं, उल्टा उनको ही
 
चिपक जाता है और उनके सारे शस्त्रों को नाकाम
 
कर देता है ।
 
  
क्या हम “मुझे अंग्रेजी भाषा आती नहीं है' ऐसा
+
अंग्रेजी माध्यम की समस्या मनोवैज्ञानिक समस्या है, बौद्धिक और व्यावहारिक नहीं । इसलिये इसका समाधान भी मनोवैज्ञानिक ढंग से ही हो सकता हैं । बौद्धिक या व्यावहारिक मार्गों का अवलम्बन करने से वह अधिक कठिन हो जाती है । इतने वर्षों का अनुभव तो यही सिद्ध करता है ।
कहने में लज्जा या संकोच का अनुभव करते हैं ?
 
तो फिर हम से अंग्रेजी को भगाने का काम नहीं
 
होगा अंग्रेजी को भगाना चाहते हैं वे पहले
 
अंग्रजी सीखते हैं, वैसे तो मुझे अंग्रेजी आती है
 
परन्तु मैं बोलना पसन्द नहीं करता, आवश्यकता
 
पड़ने पर बोल सकता हूँ ऐसा कहते हैं उन्हें देखकर
 
भी अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है। वह जानता है
 
कि इनमें मुझे भगाने की शक्ति नहीं है ।
 
  
“मेरे साथ बात करनी है तो भारत की भाषा में
+
==== अंग्रेजी के भूत को भगाने के प्रयास ====
बोलो' ऐसा कहने वाले से यह भूत सहमता है ।
+
अंग्रेजी के भूत को भगाने के लिये हमारे मानस को रोगमुक्त करने के लिये कुछ इस प्रकार से प्रयास करने होंगे...
शर्त है कि मेरे साथ बोलने की आवश्यकता सामने
 
वाले को होनी चाहिये । सब्जी लेने के लिये गये
 
और सब्जी वाले ने अंग्रेजी समझने को मना कर
 
दिया तो उसकी भाषा में बोलना ही पड़ेगा । रोग
 
का इलाज करने गये और वैद्य ने अंग्रेजी समझने
 
को मना कर दिया तो वैद्य की भाषा में बोलना ही
 
पडेगा । श्रोताओं ने कहा कि अंग्रेजी बोलोगे तो
 
हम मत नहीं देंगे तो उनकी भाषा में ही बोलना
 
पडेगा । जिस लडकी के प्रेम में पडे उसने अंग्रेजी
 
समझने को मना कर दिया तो उसकी भाषा में
 
  
+
१. जो लोग स्वयं अंग्रेजी के भूत से परेशान हैं वे इसका उपचार नहीं कर सकते । वे चाहते हैं कि पहले दूसरे लोग अंग्रेजी बोलना बन्द कर दें, बाद में हम भी बन्द कर देंगे । सब बोलते हैं इसलिये हमें भी बोलना पडता है, बाकी हम अंग्रेजी के पक्षधर नहीं हैं। ऐसे लोगोंं से अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है और अधिक जोर से चिपक जाता है ।
 
  
............. page-226 .............
+
. जो लोग मानते हैं कि आज का युवा वर्ग अंग्रेजी ही जानता है, उनके साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये हमें भी अंग्रेजी में व्यवहार
 +
करना चाहिये । अंग्रेजी बोलकर हम उन्हें अंग्रेजी से मुक्त कर देंगे । उनकी बात सुनकर भी अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है । ऐसे लोगोंं से वह भागेगा नहीं ।
  
 
+
३. अंग्रेजी को नहीं मानने वाले, नहीं चाहने वाले भी
 +
झाडफूंक वाले होना नहीं चाहते, अपनी शिष्टता, तर्कों  के शख्र, बौद्धिक उपचार, आँकडों के पुरावे आदि से समस्या हल करना चाहते हैं, यही सज्जनों और बुद्धिमानों का मार्ग है ऐसा कहते हैं उनसे भी अंग्रेजी का भूत भागता नहीं, उल्टा उनको ही चिपक जाता है और उनके सारे शस्त्रों को नाकाम कर देता है ।
  
.
+
. क्या हम “मुझे अंग्रेजी भाषा आती नहीं है' ऐसा कहने में लज्जा या संकोच का अनुभव करते हैं ? तो फिर हम से अंग्रेजी को भगाने का काम नहीं होगा । अंग्रेजी को भगाना चाहते हैं वे पहले अंग्रजी सीखते हैं, वैसे तो मुझे अंग्रेजी आती है परन्तु मैं बोलना पसन्द नहीं करता, आवश्यकता पड़ने पर बोल सकता हूँ ऐसा कहते हैं उन्हें देखकर भी अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है। वह जानता है कि इनमें मुझे भगाने की शक्ति नहीं है ।
  
बोलना ही पडेगा । इस प्रकार अपनी
+
५. “मेरे साथ बात करनी है तो भारत की भाषा में बोलो' ऐसा कहने वाले से यह भूत सहमता है । शर्त है कि मेरे साथ बोलने की आवश्यकता सामने वाले को होनी चाहिये । सब्जी लेने के लिये गये और सब्जी वाले ने अंग्रेजी समझने को मना कर
 +
दिया तो उसकी भाषा में बोलना ही पड़ेगा । रोग का इलाज करने गये और वैद्य ने अंग्रेजी समझने को मना कर दिया तो वैद्य की भाषा में बोलना ही पड़ेगा । श्रोताओं ने कहा कि अंग्रेजी बोलोगे तो हम मत नहीं देंगे तो उनकी भाषा में ही बोलना पड़ेगा । जिस लडकी के प्रेम में पड़े उसने अंग्रेजी समझने को मना कर दिया तो उसकी भाषा में बोलना ही पड़ेगा । इस प्रकार अपनी
 
आवश्यकता निर्माण की और फिर अंग्रेजी सुनने,
 
आवश्यकता निर्माण की और फिर अंग्रेजी सुनने,
समझने, बोलने को मना कर देने वालों से अंग्रेजी
+
समझने, बोलने को मना कर देने वालों से अंग्रेजी का भूत सहम जाता है ।
का भूत सहम जाता है ।
 
 
 
वह सहमता ही है, भागता नहीं । वह अन्य
 
उपायों से चिपकने का प्रयास करता है । अनुनय
 
विनय करता है, लालच देता है, आकर्षित करने
 
का प्रयास करता है, उसे हमारी कितनी अधिक
 
आवश्यकता है यह बताता है, कृपायाचना करता है
 
और हमारा दिल पसीज जाता है, हम अंग्रेजी का
 
स्वीकार कर लेते हैं और अंग्रेजी का भूत हम पर
 
सवार हो जाता है ।
 
 
 
क्या हम ऐसी भाषा बोल सकते हैं ?
 
 
 
तुम अंग्रेजी भाषा बोलते हो ? तुम्हारे मुँह से दुर्गन्ध
 
आ रही है, जाओ अपना मुँह साफ करके आओ,
 
फिर मुझ से बात करो ।
 
 
 
तुम्हारे विवाह की पत्रिका अंग्रेजी में छपी है, मैं
 
विवाह समारोह में नहीं आऊँगा । मुझे अंग्रेजी
 
पसन्द नहीं है ।
 
 
 
मेरे साथ बात करनी है ? अंग्रेजी छोडो, मेरी नहीं
 
तो तुम्हारी भाषा में बोलो, में समझने का प्रयास
 
करूँगा । अंग्रेजी ही तुम्हारी भाषा है ? तो मुझे
 
तुमसे ही बात नहीं करनी है ।
 
 
 
तुम अंग्रेजी माध्यम में पढे हो ? तो तुम्हें मेरे
 
कार्यालय में नौकरी नहीं मिलेगी । तुम्हारे बच्चे
 
अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे हैं ? तुम्हें मेरे कार्यालय
 
में या घर में नौकरी नहीं मिलेगी । मेरे घर के किसी
 
भी समारोह में निमन्त्रण नहीं मिलेगा ।
 
 
 
विद्यालय द्वारा आयोजित भाषण या. निबन्ध
 
प्रतियोगिता में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को
 
सहभागी नहीं होने दिया जायेगा । केवल भाषण या
 
निबन्ध प्रतियोगिता में ही क्यों किसी भी समारोह में
 
सहभागी नहीं होने दिया जायेगा ।
 
 
 
रोटरी, जेसीझ जैसे संगठन देशी भाषा भाषी लोगों ने
 
 
 
२१०
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
   
 
 
 
बनाने चाहिये और उसमें अंग्रेजी बोलने वाले लोगों
 
को प्रतिबन्धित करना चाहिये ।
 
 
 
भूत को भगाने का सबसे कारगर उपाय उसकी
 
उपेक्षा करना है । उपेक्षा के यहाँ बनाये हैं उससे
 
अधिक अशिष्ट अनेक मार्ग हो सकते हैं । जिसे जो
 
उचित लगे वह अपनाना चाहिये । मुद्दा यह है कि
 
स्वाभिमान मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यक्त होना
 
चाहिये, बौद्धिक से काम नहीं चलेगा ।
 
 
 
वस्तुस्थिति यह है कि जिस दिन अमेरिका को
 
पता चल जायेगा कि भारत के लोग अंग्रेजी बोलना
 
नहीं चाहते, अपनी ही भाषा बोलने का आग्रह
 
रखते हैं उसी दिन से अमेरिका के विश्वविद्यालयों में
 
हिन्दी विभाग शुरू हो जायेंगे । भारतीय भाषा के
 
शत्रु और अंग्रेजी से मोहित भारतीय ही हैं, और
 
कोई नहीं यह समझ लेने की आवश्यकता है ।
 
  
सज्जन, बुद्धिमान, समाजाभिमुख लोगों को इतना
+
वह सहमता ही है, भागता नहीं । वह अन्य उपायों से चिपकने का प्रयास करता है अनुनय विनय करता है, लालच देता है, आकर्षित करने का प्रयास करता है, उसे हमारी कितनी अधिक आवश्यकता है यह बताता है, कृपायाचना करता है और हमारा दिल पसीज जाता है, हम अंग्रेजी का स्वीकार कर लेते हैं और अंग्रेजी का भूत हम पर सवार हो जाता है ।
कठोर होना अच्छा नहीं लगता वे इस प्रकार के
 
उपायों को अपनाने को सिद्ध भी नहीं होते और
 
उन्हें मान्यता भी नहीं देते इसलिये भूत अधिक
 
प्रभावी बनता है । ऐसे सज्जनों के समक्ष कठोर
 
उपाय करने वाले हार जाते हैं और भूत मुस्कुराता है
 
परन्तु सज्जन अपनी सज्जनता छोड़ते ही नहीं यह
 
अंग्रेजी को परास्त करने के रास्ते में बडा अवरोध
 
a |
 
  
“हमें अंग्रेजी से विरोध नहीं है, अंग्रेजीपन से
+
६. क्या हम ऐसी भाषा बोल सकते हैं ?
विरोध है' ऐसा कहनेवाला एक बहुत बडा वर्ग है ।
+
* तुम अंग्रेजी भाषा बोलते हो ? तुम्हारे मुँह से दुर्गन्ध आ रही है, जाओ अपना मुँह साफ करके आओ, फिर मुझ से बात करो ।
यह वर्ग अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय चलने का
+
* तुम्हारे विवाह की पत्रिका अंग्रेजी में छपी है, मैं विवाह समारोह में नहीं आऊँगा । मुझे अंग्रेजी पसन्द नहीं है ।
विरोध करता है परन्तु मातृभाषा माध्यम के
+
* मेरे साथ बात करनी है ? अंग्रेजी छोडो, मेरी नहीं तो तुम्हारी भाषा में बोलो, में समझने का प्रयास करूँगा । अंग्रेजी ही तुम्हारी भाषा है ? तो मुझे तुमसे ही बात नहीं करनी है ।
विद्यालयों में अच्छी अंग्रेजी पढ़ाने का आग्रह करता
+
* तुम अंग्रेजी माध्यम में पढे हो ? तो तुम्हें मेरे कार्यालय में नौकरी नहीं मिलेगी । तुम्हारे बच्चे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे हैं ? तुम्हें मेरे कार्यालय में या घर में नौकरी नहीं मिलेगी मेरे घर के किसी भी समारोह में निमन्त्रण नहीं मिलेगा
हैं। इस तर्क में दम है ऐसा लगता है परन्तु यह
+
* विद्यालय द्वारा आयोजित भाषण या. निबन्ध प्रतियोगिता में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को सहभागी नहीं होने दिया जायेगा । केवल भाषण या निबन्ध प्रतियोगिता में ही क्यों किसी भी समारोह में सहभागी नहीं होने दिया जायेगा ।
आभासी तर्क है । इसके चलते इस वर्ग को न
 
अंग्रेजी आती है न वे अंग्रेजी को छोड सकते हैं ।
 
भूत ताक में रहता है ऐसे विद्यालय या तो अंग्रेजी
 
माध्यम के विद्यालय में परिवर्तित हो जाते हैं या तो
 
इनमें प्रवेश की संख्या कम हो जाती है। और
 
  
+
* रोटरी, जेसीझ जैसे संगठन देशी भाषा भाषी लोगोंं ने बनाने चाहिये और उसमें अंग्रेजी बोलने वाले लोगोंं को प्रतिबन्धित करना चाहिये ।
+
भूत को भगाने का सबसे कारगर उपाय उसकी उपेक्षा करना है । उपेक्षा के यहाँ बनाये हैं उससे अधिक अशिष्ट अनेक मार्ग हो सकते हैं । जिसे जो उचित लगे वह अपनाना चाहिये । मुद्दा यह है कि स्वाभिमान मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यक्त होना चाहिये, बौद्धिक से काम नहीं चलेगा ।
  
............. page-227 .............
+
वस्तुस्थिति यह है कि जिस दिन अमेरिका को पता चल जायेगा कि भारत के लोग अंग्रेजी बोलना नहीं चाहते, अपनी ही भाषा बोलने का आग्रह रखते हैं उसी दिन से अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग आरम्भ हो जायेंगे । धार्मिक भाषा के शत्रु और अंग्रेजी से मोहित धार्मिक ही हैं, और कोई नहीं यह समझ लेने की आवश्यकता है ।
  
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
+
सज्जन, बुद्धिमान, समाजाभिमुख लोगोंं को इतना कठोर होना अच्छा नहीं लगता । वे इस प्रकार के उपायों को अपनाने को सिद्ध भी नहीं होते और उन्हें मान्यता भी नहीं देते । इसलिये भूत अधिक प्रभावी बनता है । ऐसे सज्जनों के समक्ष कठोर उपाय करने वाले हार जाते हैं और भूत मुस्कुराता है परन्तु सज्जन अपनी सज्जनता छोड़ते ही नहीं । यह अंग्रेजी को परास्त करने के रास्ते में बडा अवरोध है |
  
उसकी अआप्रतिष्ठा हो जाती है । न ये अंग्रेजी अपना
+
“हमें अंग्रेजी से विरोध नहीं है, अंग्रेजीपन से विरोध है' ऐसा कहनेवाला एक बहुत बडा वर्ग है । यह वर्ग अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय चलने का विरोध करता है परन्तु मातृभाषा माध्यम के विद्यालयों में अच्छी अंग्रेजी पढ़ाने का आग्रह करता हैं। इस तर्क में दम है ऐसा लगता है परन्तु यह आभासी तर्क है । इसके चलते इस वर्ग को न अंग्रेजी आती है न वे अंग्रेजी को छोड सकते हैं । भूत ताक में रहता है । ऐसे विद्यालय या तो अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में परिवर्तित हो जाते हैं या तो इनमें प्रवेश की संख्या कम हो जाती है। और उसकी अआप्रतिष्ठा हो जाती है । न ये अंग्रेजी अपना
 
सकते हैं न विद्यालय को बचा सकते हैं। ये न
 
सकते हैं न विद्यालय को बचा सकते हैं। ये न
इधर के रहते हैं न उधर के । फिर भी अंग्रेजी का
+
इधर के रहते हैं न उधर के । तथापि अंग्रेजी का
 
विरोध करने वालों को अन्तिमवादी कहकर उनका
 
विरोध करने वालों को अन्तिमवादी कहकर उनका
 
मनोबल गिराते रहते हैं ।
 
मनोबल गिराते रहते हैं ।
  
जिनको लगता है कि ज्ञानविज्ञान की, कानून और
+
७. जिनको लगता है कि ज्ञानविज्ञान की, कानून और
कोपोरेट की, तन्त्रज्ञान और मेनेजमेन्ट की भाषा
+
कोपोरेट की, तन्त्रज्ञान और मेनेजमेन्ट की भाषा अंग्रेजी है और इन क्षेत्रों में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी है तो अंग्रेजी अनिवार्य है उन लोगोंं को सावधान होने की आवश्यकता है । और इनसे भी सावधान होने की आवश्यकता है । इन मार्गों से अंग्रेजीयत हमारे ज्ञानक्षेत्र को, समाऊक्षेत्र को, अर्थक्षेत्र को ग्रस्त कर रही है। हम ज्ञानक्षेत्र को धार्मिक बनाना चाहते हैं तो इन क्षेत्रों को भी तो धार्मिक बनाना पड़ेगा । क्या हमें अभी भी समझना बाकी है कि कोपोरेट क्षेत्र ने देश के अर्थतन्त्र को, विश्वविद्यालयों ने देश के ज्ञानक्षेत्र को और मनेनेजमेन्ट क्षेत्र ने मनुष्य को संसाधन बनाकर सांस्कृतिक क्षेत्र को तहसनहस कर दिया है ? इन क्षेत्रों में अंग्रेजी की प्रतिष्ठा है । बडी बडी यन्त्रस्चना ने मनुष्यों को मजदूर बना दिया, पर्यावरण का नाश कर दिया, उस तन्त्रविज्ञान के लिये हम अंग्रेजी का ज्ञान चाहते हैं । अर्थात्‌ राक्षसों की दुनिया में प्रवेश करने के लिये हम उनकी भाषा चाहते हैं । हम बहाना बनाते हैं कि हम उनके ही शख्र से उन्हें समझाकर, उन्हें जीत कर अपना बना लेंगे । उन्हें जीतकर उन्हें अपना लेने का उद्देश्य तो ठीक है
अंग्रेजी है और इन क्षेत्रों में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त
 
करनी है तो अंग्रेजी अनिवार्य है उन लोगों को
 
सावधान होने की आवश्यकता है । और इनसे भी
 
सावधान होने की आवश्यकता है । इन मार्गों से
 
अंग्रेजीयत हमारे ज्ञानक्षेत्र को, समाऊक्षेत्र को,
 
अर्थक्षेत्र को ग्रस्त कर रही है। हम ज्ञानक्षेत्र को
 
भारतीय बनाना चाहते हैं तो इन क्षेत्रों को भी तो
 
भारतीय बनाना पडेगा । क्या हमें अभी भी समझना
 
बाकी है कि कोपोरेट क्षेत्र ने देश के अर्थतन्त्र को,
 
विश्वविद्यालयों ने देश के ज्ञानक्षेत्र को और
 
मनेनेजमेन्ट क्षेत्र ने मनुष्य को संसाधन बनाकर
 
सांस्कृतिक क्षेत्र को तहसनहस कर दिया है ? इन
 
क्षेत्रों में अंग्रेजी की प्रतिष्ठा है । बडी बडी यन्त्रस्चना
 
ने मनुष्यों को मजदूर बना दिया, पर्यावरण का नाश
 
कर दिया, उस तन्त्रविज्ञान के लिये हम अंग्रेजी का
 
ज्ञान चाहते हैं । अर्थात्‌ राक्षसों की दुनिया में प्रवेश
 
करने के लिये हम उनकी भाषा चाहते हैं । हम
 
बहाना बनाते हैं कि हम उनके ही शख्र से उन्हें
 
समझाकर, उन्हें जीत कर अपना बना लेंगे । उन्हें
 
जीतकर उन्हें अपना लेने का उद्देश्य तो ठीक है
 
 
क्योंकि वे अपने हैं, परन्तु उन्हें जीतने का मार्ग
 
क्योंकि वे अपने हैं, परन्तु उन्हें जीतने का मार्ग
 
ठीक नहीं है यह इतने वर्षों के अनुभव ने सिद्ध कर
 
ठीक नहीं है यह इतने वर्षों के अनुभव ने सिद्ध कर
दिया है। हम ही परास्त होते रहे हैं यह क्या
+
दिया है। हम ही परास्त होते रहे हैं यह क्या वास्तविकता नहीं है ? हम कभी तो आठवीं कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाना आरम्भ करते थे । फिर पाँचवीं से आरम्भ किया, फिर तीसरी से, फिर पहली से । अब पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में पढाते हैं । अब अंग्रेजी माध्यम का आग्रह बढ़ा है । यश तो हमें आठवीं से अंग्रेजी माध्यम नहीं, अंग्रेजी भाषा प्रारम्भ करते थे तब अधिक मिल रहा था । फिर क्या हुआ ? हम किसे जीतने के लिये चले हैं? जिन्हें जीतने की बात कर रहे हैं वह दुनिया तो हमें मूर्ख और पिछडे मानती है क्योंकि हमें अंग्रेजी नहीं आती । कदाचित सज्जनता और अन्य गुर्णों के कारण से हमारा सम्मान भी करती है तब भी अंग्रेजी की बात आते ही चुप हो जाती है । हमारे साथ चर्चा करना नहीं चाहती । क्या हम यह सब जानते नहीं ? अनुभव नहीं करते ? परिस्थिति अधिकाधिक खराब होती जा रही है यह तो हम देख ही रहे हैं। अब हमें अंग्रेजी को नकारने के
वास्तविकता नहीं है ? हम कभी तो आठवीं कक्षा
+
नये अधिक प्रभावी, अधिक सही मार्ग अपनाने की आवश्यकता है । इनमें से एक यहाँ बताया गया है यह मनोवैज्ञानिक उपाय है ।
से अंग्रेजी पढ़ाना शुरू करते थे । फिर पाँचवीं से
 
शुरू किया, फिर तीसरी से, फिर पहली से । अब
 
पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में पढाते हैं । अब अंग्रेजी
 
माध्यम का आग्रह बढ़ा है । यश तो हमें आठवीं से
 
 
 
२११
 
 
 
 
 
   
 
 
 
 
 
अंग्रेजी माध्यम नहीं, अंग्रेजी
 
भाषा प्रारम्भ करते थे तब अधिक मिल रहा था ।
 
फिर क्या हुआ ? हम किसे जीतने के लिये चले
 
हैं? जिन्हें जीतने की बात कर रहे हैं वह दुनिया
 
तो हमें मूर्ख और पिछडे मानती है क्योंकि हमें
 
अंग्रेजी नहीं आती । कदाचित सज्जनता और अन्य
 
गुर्णों के कारण से हमारा सम्मान भी करती है तब
 
भी अंग्रेजी की बात आते ही चुप हो जाती है ।
 
हमारे साथ चर्चा करना नहीं चाहती । क्या हम यह
 
सब जानते नहीं ? अनुभव नहीं करते ? परिस्थिति
 
अधिकाधिक खराब होती जा रही है यह तो हम
 
देख ही रहे हैं। अब हमें अंग्रेजी को नकारने के
 
नये अधिक प्रभावी, अधिक सही मार्ग अपनाने की
 
आवश्यकता है । इनमें से एक यहाँ बताया गया है
 
यह मनोवैज्ञानिक उपाय है ।
 
  
जिन बातों के लिये हमें अंग्रेजी की आवश्यकता
+
८. जिन बातों के लिये हमें अंग्रेजी की आवश्यकता लगती है उन बातों के धार्मिक पर्याय निर्माण करना अधिक प्रभावी और अधिक सही उपाय है ।
लगती है उन बातों के भारतीय पर्याय निर्माण करना
+
सामर्थ्य के बिना विजय प्राप्त नहीं होती । क्या चिकित्साविज्ञान, तन्त्रविज्ञान, उद्योगतन्त्र, प्रबन्धन धार्मिक भाषा में नहीं सीखा जायेगा । लोग तर्क देते हैं कि इन विषयों की पुस्तकें धार्मिक भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। तो इन्हें धार्मिक भाषाओं में लिखने से कौन रोकता है ? क्‍या इतने बडे देश में ऐसे विद्वान नहीं मिलेंगे ? अवश्य मिलेंगे । फिर क्यों नहीं लिखते ? अंग्रेजी में उपलब्ध है फिर क्या आवश्यकता है ऐसा हम कहते हैं। धार्मिक भाषाओं में इन विषयों की पारिभाषिक शब्दावलि उपलब्ध नहीं है ऐसा कहते हैं । यह भी मिथ्या तर्क है क्योंकि शब्दावलि रची जा सकती है । धार्मिक भाषाओं की शब्दावलि अतिशय जटिल और कठिन
अधिक प्रभावी और अधिक सही उपाय है ।
+
होती है ऐसा कहते हैं । ऐसा कैसे हो सकता है ? यह तो परिचय का प्रश्न है । परिचय बढ़ता जायेगा तो वह सरल और सहज होती जायेगी । हम अनुवाद भी तो कर सकते हैं ।
सामर्थ्य के बिना विजय प्राप्त नहीं होती । क्या
 
चिकित्साविज्ञान, तन्त्रविज्ञान, उद्योगतन्त्र, प्रबन्धन
 
भारतीय भाषा में नहीं सीखा जायेगा । लोग तर्क देते
 
हैं कि इन विषयों की पुस्तकें भारतीय भाषाओं में
 
उपलब्ध नहीं है। तो इन्हें भारतीय भाषाओं में
 
लिखने से कौन रोकता है ? क्‍या इतने बडे देश में
 
ऐसे विद्वान नहीं मिलेंगे ? अवश्य मिलेंगे । फिर
 
क्यों नहीं लिखते ? अंग्रेजी में उपलब्ध है फिर कया
 
आवश्यकता है ऐसा हम कहते हैं। भारतीय
 
भाषाओं में इन विषयों की पारिभाषिक शब्दावलि
 
उपलब्ध नहीं है ऐसा कहते हैं । यह भी मिथ्या तर्क
 
है क्योंकि शब्दावलि रची जा सकती है । भारतीय
 
भाषाओं की शब्दावलि अतिशय जटिल और कठिन
 
होती है ऐसा कहते हैं । ऐसा कैसे हो सकता है ?
 
यह तो परिचय का प्रश्न है । परिचय बढ़ता जायेगा
 
तो वह सरल और सहज होती जायेगी । हम
 
अनुवाद भी तो कर सकते हैं ।
 
 
 
 
............. page-228 .............
 
 
 
         
 
 
 
Ro.
 
  
 
बात तो यह है कि
 
बात तो यह है कि
जिस वर्ग के साथ हम अंग्रेजी में संवाद करना
+
जिस वर्ग के साथ हम अंग्रेजी में संवाद करना चाहते हैं वह वर्ग अंग्रेजी व्यवस्था तन्त्र और अंग्रेजी  जीवनदृष्टि में फसा हुआ है। उस व्यवस्थातन्त्र से उन्हें मुक्त करने का मार्ग उनके साथ अंग्रेजी में संवाद करने का नहीं है, सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र का धार्मिक विकल्प प्रस्थापित करने का है ।
चाहते हैं वह वर्ग अंग्रेजी व्यवस्था तन्त्र और
 
अंग्रेजी  जीवनदृष्टि में ta ent है। उस
 
व्यवस्थातन्त्र से उन्हें मुक्त करने का मार्ग उनके साथ
 
अंग्रेजी में संवाद करने का नहीं है, सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र
 
का भारतीय विकल्प प्रस्थापित करने का है ।
 
 
 
इस दृष्टि से देखेंगे तो अंग्रेजी का प्रश्न गौण है,
 
शिक्षा का. महत्त्वपूर्ण है। उसी प्रकार से
 
अर्थव्यवस्था और जीवनशैली बदलने का है ।
 
  
अतः हम जीवनव्यवस्था और जीवनशैली, पद्धति
+
इस दृष्टि से देखेंगे तो अंग्रेजी का प्रश्न गौण है, शिक्षा का. महत्त्वपूर्ण है। उसी प्रकार से अर्थव्यवस्था और जीवनशैली बदलने का है ।
और प्रक्रिया, जीवनदृष्टि को भारतीय बनाने का
 
प्रयास करेंगे तभी हम अंग्रेजी के प्रश्न को ठीक से
 
हल कर पायेंगे, किंबहुना तब अंग्रेजी का प्रश्न ही
 
नहीं रहेगा । अंग्रेजी से पैसा, प्रतिष्ठा, संस्कार या
 
ज्ञान नहीं मिलेंगे तो अंग्रेजी की आवश्यकता किसे
 
रहेगी ?
 
एक ओर तो जीवन व्यवस्थाओं को बदलने का
 
प्रयास करना, दूसरी और अंग्रेजी माध्यम को रोकने
 
का जितना हो सके उतना प्रयास जारी रखना
 
चाहिये । अंग्रेजी के प्रश्न को पूर्ण रूप से छोड़ना
 
नहीं चाहिये परन्तु सौ प्रतिशत शक्ति लगाना भी
 
नहीं चाहिये । मूल बातों की ओर अधिक ध्यान
 
देना चाहिये ।
 
एक बात और समझ लेनी चाहिये । अंग्रेजी जानने
 
वालों और नहीं जानने वालों की संख्या का
 
अनुपात दस और नब्बे प्रतिशत है। अधिक से
 
अधिक बीस और अस्सी प्रतिशत है । विडम्बना
 
यह है कि ये बीस प्रतिशत लोग ज्ञानक्षेत्र और
 
saa पर पकड जमाये हुए हैं और देश को
 
चलाते हैं । अस्सी प्रतिशत लोग इनके जैसा बनना
 
चाहते हैं परन्तु बन नहींपाते । उनके जैसा बनने में
 
एक दृयनीय प्रयास अंग्रेजी माध्यम में पढने का है ।
 
यह प्रास्भ से ही अंग्रेजों की चाल रही है। वे
 
समाज के एक वर्ग को अंग्रेजी और अंग्रेजीयत का
 
  
२१२
+
अतः हम जीवनव्यवस्था और जीवनशैली, पद्धति और प्रक्रिया, जीवनदृष्टि को धार्मिक बनाने का प्रयास करेंगे तभी हम अंग्रेजी के प्रश्न को ठीक से हल कर पायेंगे, किंबहुना तब अंग्रेजी का प्रश्न ही नहीं रहेगा । अंग्रेजी से पैसा, प्रतिष्ठा, संस्कार या ज्ञान नहीं मिलेंगे तो अंग्रेजी की आवश्यकता किसे रहेगी ?
  
8.
+
. एक ओर तो जीवन व्यवस्थाओं को बदलने का प्रयास करना, दूसरी और अंग्रेजी माध्यम को रोकने का जितना हो सके उतना प्रयास जारी रखना चाहिये । अंग्रेजी के प्रश्न को पूर्ण रूप से छोड़ना
 +
नहीं चाहिये परन्तु सौ प्रतिशत शक्ति लगाना भी नहीं चाहिये । मूल बातों की ओर अधिक ध्यान देना चाहिये । एक बात और समझ लेनी चाहिये ।
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
१०. अंग्रेजी जानने वालों और नहीं जानने वालों की संख्या का अनुपात दस और नब्बे प्रतिशत है। अधिक से अधिक बीस और अस्सी प्रतिशत है । विडम्बना यह है कि ये बीस प्रतिशत लोग ज्ञानक्षेत्र और अन्नक्षेत्र पर पकड जमाये हुए हैं और देश को चलाते हैं । अस्सी प्रतिशत लोग इनके जैसा बनना
 +
चाहते हैं परन्तु बन नहींपाते । उनके जैसा बनने में एक दृयनीय प्रयास अंग्रेजी माध्यम में पढने का है । यह प्रास्भ से ही अंग्रेजों की चाल रही है। वे समाज के एक वर्ग को अंग्रेजी और अंग्रेजीयत का ज्ञान देकर उनके और भारत के सामान्य जन के मध्य एक सम्पर्क क्षेत्र बनाना चाहते थे। वह सम्पर्क क्षेत्र अब अधिकारी क्षेत्र बन गया है। ये बीस प्रतिशत अंग्रेजी ही नहीं अंग्रेजीयत को भी अपना चुके हैं। अब हमारे सामने प्रश्न है इन अस्सी प्रतिशत सामान्य जन के साथ खड़ा होकर उन्हें देश चलाने के लिये सक्षम बनाना या बीस प्रतिशत देश चलाने वालों को धार्मिक बनाकर उन्हें देश चलाने देना। कदाचित अस्सी प्रतिशत को सक्षम बनाना कुल मिलाकर सरल होगा। बीस प्रतिशत को अस्सी प्रतिशत के साथ मिलाना अधिक उचित होगा।
  
ज्ञान देकर उनके और भारत के सामान्य जन के
+
किसी भी स्थिति में धार्मिकता के पक्ष में जो लोग काम करते हैं उन्हें अधिक समर्थ बनना होगा। सामर्थ्य के बिना प्रभाव निर्माण नहीं होगा और बिना प्रभाव के किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना सम्भव नहीं।
मध्य एक सम्पर्क क्षेत्र बनाना चाहते थे । वह
 
सम्पर्क क्षेत्र अब अधिकारी क्षेत्र बन गया है | ये
 
बीस प्रतिशत अंग्रेजी ही नहीं अंग्रेजीयत को भी
 
अपना चुके हैं। अब हमारे सामने प्रश्न है इन
 
अस्सी प्रतिशत सामान्य जन के साथ खडा होकर
 
उन्हें देश चलाने के लिये सक्षम बनाना या बीस
 
प्रतिशत देश चलाने वालों को भारतीय बनाकर उन्हें
 
देश चलाने देना । कदाचित अस्सी प्रतिशत को
 
सक्षम बनाना कुल मिलाकर सरल होगा । बीस
 
प्रतिशत को अस्सी प्रतिशत के साथ मिलाना
 
अधिक उचित होगा ।
 
  
किसी भी स्थिति में भारतीयता के पक्ष में जो
+
११. ज्ञानक्षेत्र को और अर्थक्षेत्र को केवल धार्मिक भाषा में प्रस्तुत करना पर्याप्त नहीं है, धार्मिक दृष्टि और पद्धति से पर्याय देना अधिक आवश्यक है। उदाहरण के लिये बडे यन्त्रों वाला कारखाना धार्मिक अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं सकता । दूध की डेअरी धार्मिक अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं सकती, फिर डेअरी उद्योग और डेअरी विज्ञान की बात ही कहाँ रहेगी ? प्लास्टिक उद्योग सांस्कृतिक क्षेत्र और अर्थक्षेत्र दोनों में निषिद्ध है। मिक्सर, ग्राइण्डर, माइक्रोवेव को आहार और आरोग्य शास्त्र अमान्य करता है, फिर इनके कारखाने और इनको बनाने की विद्या कैसे चलेगी ? मैनेजमेण्ट के वर्तमान को मानवधर्मशास्त्र अमान्य करता है, या तो उन्हें धार्मिक बनना होगा या तो बन्द करना होगा । हममें धार्मिक पर्याय बनाने का सामर्थ्य होना चाहिये।
लोग काम करते हैं उन्हें अधिक समर्थ बनना
 
होगा । सामर्थ्य के बिना प्रभाव निर्माण नहीं होगा
 
और बिना प्रभाव के किसी भी प्रकार का परिवर्तन
 
होना सम्भव नहीं ।
 
ज्ञानक्षेत्र को और अर्थक्षेत्र को केवल भारतीय भाषा
 
में प्रस्तुत करना पर्याप्त नहीं है, भारतीय दृष्टि और
 
पद्धति से पर्याय देना अधिक आवश्यक है ।
 
उदाहरण के लिये बडे यन्त्रों वाला. कारखाना
 
भारतीय अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं सकता । दूध
 
की डेअरी भारतीय अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं
 
सकती, फिर डेअरी उद्योग और डेअरी विज्ञान की
 
बात ही कहाँ रहेगी ? प्लास्टिक उद्योग सांस्कृतिक
 
क्षेत्र और अर्थक्षेत्र दोनों में निषिद्ध है। मिक्सर,
 
ग्राइण्डर, माइक्रोवेव को आहार और आरोग्य शास्त्र
 
अआअमान्य करता है, फिर इनके कारखाने और इनको
 
बनाने की विद्या कैसे चलेगी ? मैनेजमेण्ट के
 
वर्तमान को मानवधर्मशास्त्र अमान्य करता है, या तो
 
उन्हें भारतीय बनना होगा या तो बन्द करना होगा ।
 
हममें भारतीय पर्याय बनाने का सामर्थ्य होना
 
चाहिये ।
 
  
अंग्रेजी के प्रश्न का दायरा बहुत व्यापक है।
+
अंग्रेजी के प्रश्न का दायरा बहुत व्यापक है। विचार उस दायरे का करना होगा।
विचार उस दायरे का करना होगा ।
 
 
  
............. page-229 .............
+
==References==
 +
<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
 +
[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 +
[[Category:Education Series]]
 +
[[Category:धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]]
 +
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 3: विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ]]

Latest revision as of 21:59, 23 June 2021

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अध्ययन हेतु सुविधा का विचार

१. विद्यालय में निम्नलिखित सुविधायें /व्यवस्थाये किस प्रकार से बना सकते हैं ?

  1. तापमान
  2. वायु
  3. प्रकाश
  4. ध्वनि
  5. पानी
  6. शौचादि
  7. सुन्दरता
  8. स्वच्छता
  9. प्रेरणा
  10. पवित्रता
  11. शान्ति
  12. प्रेम
  13. प्रसन्नता

२. इन सभी व्यवस्थाओं का शैक्षिक मूल्य क्या है ?

३. इन सभी व्यवस्थाओं में छात्रों एवं आचार्यों की सहभागिता किस प्रकार बने ?

४. इन सुविधाओं के आर्थिक पक्ष में किस प्रकार से विचार करना चाहिये ?

५. इन व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में शास्त्रीय या वैज्ञानिक दृष्टि क्या है ?

६. क्या ऐसा होगा कि वैज्ञानिक दृष्टि से सही व्यवस्थायें व्यावहारिक नहीं होंगी और व्यावहारिक होंगी वे वैज्ञानिक नहीं होंगी ?

७. तब क्या किया जाय ?

शिक्षकों के साथ वार्तालाप करके इस प्रश्नावली के उत्तर प्राप्त किये है। वह इस प्रकार है।

१. विद्यालय में विद्यार्थी ज्ञान ग्रहण करते हैं। अतः तापमान हवा प्रकाश ध्वनि इत्यादि की बाबत अच्छी से अच्छी सुविधा प्राप्त होती तो पढाई अच्छी होगी। सुन्दरता, स्वच्छता तो अनिवार्य ही है। शिक्षक उनके प्रेरक व्यक्तित्व होने चाहिये। छात्र शिक्षक के मानसपुत्र कहलाते है, तो मातापिता और पुत्र में प्रेम होता ही है। बात रही पवित्रता की तो विद्यालय तो सरस्वती का मंदिर है हम मंदिर को पवित्र्य समझते है, इसलिये विद्यालय तो पवित्र होता ही है। शौचालय की व्यवस्था छात्र छात्रायें शिक्षक कर्मचारी सबके लिये अलग अलग होना आवश्यक है।

२. विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त होती है, परन्तु व्यवस्था का भी कोई शैक्षिक मूल्य होता है यह बात समझ नही पाते ।

३. आचार्योंने सारी व्यवस्था बनाने में उचित समय पर छात्रों को निर्देश देने चाहिये यह भी सबके अध्यापन काही भाग समझना चाहिये । स्थान स्थान पर सुविचारो के फलक लगाना चाहिये । तथापि जो छात्र व्यवस्थाओ में बाधा डालता है उसे दण्डित करना चाहिये ऐसा मत व्यक्त हुआ ।

४. सुविधा बनाये रखने में व्यय तो होगा ही परन्तु अच्छी सुविधा के लिये उदा. फिल्टर पेय जल, पंखे आदि के लिये अभिभावक खुशी से धन देने तैयार है क्योंकी उनके ही बच्चे इस सुविधा का उपभोग लेनेवाले है। प्र. ५, ६ व ७ प्रश्नो का उत्तर किसी से प्राप्त नहीं हुआ।

अभिमत

जबाब सुनकर ऐसा लगा वास्तव में ज्ञानार्जन यह साधना है और साधना कभी भी अच्छे सुख सुविधाओं से प्राप्त नहीं होती। यह बात आज समाज भूल गया है, ऐसा लगा । शिक्षक केवल पढाई का तथा व्यवस्था के संदर्भ में निर्देश देने का कार्य करेंगे ऐसा उनका मन बन गया है। अतः व्यवस्था निर्माण करने के प्रत्यक्ष सहयोग का विचार भी उनके मन में आता नहीं। आजकल शहरो में भीड के स्थान पर विद्यालय होते हैं, अतः ध्वनि, प्रकाश, हवा, तापमान आदि के विषय में शास्त्रीय विचार जानते हुए भी सब शहरवासियों को वह असंभव लगता है, और गाँव में विद्यालय की जगह निसर्ग की गोद में तो होती है। परंतु सारी व्यवस्था शास्त्रीय होते हुए भी उन्हें शास्त्र तो समझमे नहीं आता उल्टा शहर जैसे मंजिल के भवन आदि बनाने के लिये वे भी प्रयत्नशील रहते है। बिना कॉम्प्यूटर के अपना विद्यालय पिछडा है, ऐसा हीनता का भाव उनके मन में होता है। जहा पवित्रता नहीं होती उस स्थान पर प्रसन्नता और शान्ति भी नहीं रहती यह तो सब जानते हैं।

सुविधा किसे चाहिए

१. अध्ययन हेतु सुविधा का विचार गौण रूप से ही करना चाहिये।

एक दो सुभाषित इस सन्दर्भ में ध्यान में लेने लायक हैं ...

सुखार्थी चेतू त्यजेत्‌ विद्याम्‌

विद्यार्थी चेतू त्यजेतू सुखम्‌ ।

सुखार्थिन: कुत्तो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तों सुखम्‌ ।।

अर्थात सुख की इच्छा करने वाले को विद्या की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या कैसे मिल सकती है और विद्या चाहने वाले को सुख कैसे मिल सकता है ?

कामातुराणामू न भयम्‌ न लज्जा

अर्थातुराणांमू न गुरुर्न बंधु:

विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा

क्षुधातुराणां न रुचीर्न पक्वम् ॥।

अर्थात्‌ जो काम से आहत हो गया है उसे भय की लज्जा नहीं होती, जो अर्थ के पीछे पड़ गया है उसे कोई गुरु नहीं होता न कोई स्वजन, जिसे विद्या की चाह है उसे सुख या निद्रा की चाह नहीं होती और जो भूख से पीड़ित है उसे स्वाद की या पदार्थ पका है कि नहीं उसकी परवाह नहीं होती ।

विद्या प्राप्त करने के लिये इच्छुक व्यक्ति को सुविधाभोगी नहीं होना चाहिये यह सदा से कहा गया । प्राचीन काल में तो विद्याध्यायन करने वाले छात्र को ब्रह्मचारी ही कहा जाता था और ब्रह्मचारी के लिये अनेक सुविधाओं का निषेध बताया गया था । सर्व प्रकार के शृंगार उसके लिये निषिद्ध थे । उसका मनोवैज्ञानिक कारण था । यदि मन उन सुखों में रहेगा तो अध्ययन में एकाग्र होकर लगेगा ही नहीं । साथ ही यह भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मन जब अध्ययन में एकाग्र हुआ होता है तब अन्य सुखसुविधाओं का स्मरण भी नहीं होता । विद्याध्यायन का आनन्द बुद्धि का आनन्द है । जब बुद्धि का आनन्द प्राप्त होता है तब इंद्रियों का आनन्द सुख नहीं देता । इसलिये भी विद्याध्यायन के समय और बातों का स्मरण नहीं होता और श्रृंगार आदि की आवश्यकता नहीं लगती।

सुविधा का प्रश्न

और बातों का स्मरण नहीं होता और शृंगार आदि की आवश्यकता नहीं लगती ।

सुविधा का प्रश्न

  • वर्तमान में ऐसी धारणा बन गई है कि अध्ययन करने के लिये सुविधा चाहिये । घर से लेकर विद्यालय तक सर्वत्र अनेक प्रकार की सुविधाओं का विचार होता है। कुछ उदहारण देखे ...
  • घर से विद्यालय जाने के लिये वाहन चाहिये । यह बाइसिकल, ओटोरीक्षा, स्कूलबस, कार आदि कोई भी हो सकता है। वाहन की आवश्यकता क्यों होती है ? इसलिये कि अब पैदल चलना असंभव लगता है। वास्तव में घर से विद्यालय पैदल चलकर ही जाना चाहिये । पाँच से सात वर्ष के छात्र एक किलोमीटर. आठ से दस वर्ष के छात्र तीन किलोमीटर, दस से अधिक आयु के छात्र पाँच किलोमीटर और महाविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र आठ किलोमीटर पैदल चलकर विद्यालय जाते हैं तो उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। परन्तु आज इसे अत्यंत अस्वाभाविक माना जाता है। इनके कारण विभिन्न प्रकार के बताए जाते हैं। जैसे की
  • रास्ते इतने भीड़ भरे होते हैं कि छोटे छात्रों का उन पर चलना सुरक्षित नहीं होता।
  • आजकल बच्चोंं का हरण करने वाले गुंडे भी होते हैं अतः बच्चोंं की असुरक्षा बढ़ गई है। उन्हें अकेले विद्यालय जाने देना उचीत नहीं होता।
  • एक किलोमीटर से अधिक चलना बड़ों को भी आज अच्छा नहीं लगता। एक कारण शारीरिक दुर्बलता है। वे थक जाते हैं । यह कारण सत्य भी है और मानसिक दुर्बलता का द्योतक भी, क्योंकि चलना पहले मन को अच्छा नहीं लगता, बाद में शरीर को ।

लोग कहते हैं कि विद्यालय तक चलने में ही यदि थकान हो जाती है तो फिर पढ़ेंगे कैसे । अत: वाहन तो अति आवश्यक है । साथ ही समय बर्बाद होता है । आज इतना समय है ही नहीं इसलिये वाहन चाहिये ।

ये सारे तर्क जो वाहन की सुविधा के लिये दिये जाते हैं वे अनुचित हैं क्योंकि हम देखते हैं कि चलने के अभाव में छात्रों का शारीरिक श्रम नहीं होता है इसका स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव होता है । छात्र अवस्था से नहीं चलने की आदत हो जाने से लोग बड़ी आयु में कार्यालयों में भी चलकर नहीं जाते हैं इसलिये रास्तों पर वाहनों की भीड़ हो जाती है और असुरक्षा, समय

और पैसों की बरबादी तथा प्रदूषण बढ़ता हैं । ये सर्व प्रकार की हानि ही है। जो समय की बरबादी का बहाना बनाते हैं वे अन्य प्रकार से समय का सदुपयोग करते हैं ऐसा तो दिखाई नहीं देता है । टीवी, होटल, सैर आदि में इतना समय व्यतीत होता है कि वास्तव में अध्ययन के लिये समय ही नहीं बचता है। अतः वाहन की सुविधा व्यतीत होता है कि वास्तव में अध्ययन के लिये समय ही नहीं बचता है। अतः वाहन की सुविधा सुविधा है ही नहीं। शिक्षक, संचालक और अभिभावक कहते हैं कि छात्रों के लिये सुविधा नहीं होगी तो वे पढ़ने में मन नहीं लगा सकेंगे । घर में भी पढ़ने के लिये विशेष कुर्सी टेबल, लेंप आदि की सुविधा चाहिये । विद्यालय में भी टेबल कुर्सी नहीं होगी तो पढ़ेंगे कैसे ऐसा तर्क दिया जाता है।

विद्यालय में प्रतियोगितायें

१. प्रतियोगिताओं का शैक्षिक मूल्य क्या है ?

२. प्रतियोगिताओं का व्यावहारिक मूल्य क्या है ?

३. प्रतियोगिताओं के प्रति सही दृष्टिकोण कैसे विकसित करें ?

४. प्रतियोगिता की भावना कम करने के क्या उपाय करें ?

५. प्रतियोगितायें लाभ के स्थान पर हानि कैसे करती?

६. प्रतियोगितायें लाभकारी बनें इसलिये क्या क्या करना चाहिये ?

प्रश्नावली से पाप्त उत्तर

इस प्रश्नावली के कुल छः प्रश्न है। इस विषय पर अठ्ठाईस शिक्षक, दो प्रधानाचार्य, दो संस्थाचालक एवं इकतालीस अभिभावको ने अपने मत प्रदर्शित किये।

१. लगभग ४० प्रतिशत शिक्षक एवं अभिभावक प्रतियोगिता के शैक्षिक एवं व्यावहारिक मूल्य संबंध मे अनभिज्ञ है । ४० प्रतिशत लोग शारीरिक मानसिक विकास ऐसा उत्तर देते है । परंतु उत्तरों से उन्हे कोई अर्थबोध नही हआ ऐसा लगता है। बाकी अन्योने स्पर्धा से उत्साह आत्मविश्वास प्रयत्नशीलता बढती है, आंतरिक गुण प्रकट होते हैं, लक्ष्य तक पहुचने का सातत्य आता है, इस प्रकार से प्रतिपादन किया है।

२. स्पर्धा के प्रति योग्य दृष्टीकोन विकसित करने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोन अपनाना चाहिये यह उत्तर दिया।

३. प्रतियोगिता होनी ही चाहिये ऐसा कुछ लोग लिखते है।

४. प्रतियोगिताए खुले दिल से होनी चाहिए यह भी मत प्रदर्शित हुआ।

५. हार जीत समान है यह भावना निर्माण करे तथा स्पर्धा निष्पक्ष भाव से और निकोप वातावरण मे हो ऐसा भी सुझाव आया ।

६. स्पर्धा लाभकारी हो अतः उनमे से इर्ष्या और हिंसाभाव नष्ट करे, अपयश प्राप्त स्पर्धकों को चिडाना (उपहास करना) बंद करे तथा सभी स्पर्धकों को पुरस्कार देना ऐसा लिखा है।

७. स्पर्धा से होने वाली हानि बताने से बालकों के मन में न्यूनता की भावना निर्माण होती है अतः दूसरों का विजय सहर्ष स्वीकृत करे ऐसा भाव उत्पन्न करे । बहुत से लोगोंंने प्रतियोगिता का अर्थ परीक्षा ऐसा भी किया ।

अभिमत :

आजकल शिशु कक्षाओं से लेकर बड़ी कक्षाओं तक स्पर्धाका आयोजन होता है । यह अत्यंत गलत बात है । साधारणतः कक्षा ६, ७ के बाद स्पर्धा जीतने का भाव निर्माण होता है तबसे कुछ मात्रा मे प्रतियोगिता हो सकती है। विद्यार्थियो में खिलाड़ीवृत्ति निर्माण करे । जीवन की हारजीत पचाना इससे ही आता है क्रोध इर्ष्या न बढे उसकी सावधानी आचार्य और अभिभावकों के मन में हो ।

भोजन मे जिस मात्रा मे लवण आवश्यक है उसी मात्रा मे जीवन में स्पर्धा आवश्यक है ।

अध्ययन क्षेत्र का एक अवरोध : परस्पर अविश्वास

शिक्षक पर भरोसा नहीं है

दूसरी कक्षा में पढ़ने वाला सात वर्ष का एक विद्यार्थी गणित की लिखित परीक्षा देकर घर आया। परीक्षा में कितने अंक मिलेंगे यह जानने की उत्सुकता विद्यार्थी से अधिक उसकी माता को थी । अतः माता ने पूछताछ आरम्भ की। प्रश्नपत्र के प्रश्न एक के बाद एक पूछती गई और बालक उत्तर देता गया। सारे प्रश्नों की समाप्ति पर माता ने निदान किया कि उसे पचास में से अडतालीस अंक प्राप्त होंगे । वह सन्तुष्ट हुई। परन्तु परीक्षा का परिणाम आया तब माता ने देखा कि बालक को गणित में दो अंक मिले थे। माता आघात से पागल हो गई। बार बार बालक से पूछने लगी कि ऐसा कैसे हुआ । बालक बताने में असमर्थ था । घुमा फिराकर पूछते पूछते माता ने पूछा कि तुमने उत्तर पुस्तिका में उत्तर लिखे थे कि नहीं। बालक ने निर्विकार भाव से कहा कि नहीं लिखा था । माता ने झल्ला कर पूछा कि क्यों नहीं लिखा । बालक ने सहजता से कहा कि सब उत्तर आते थे तब क्यों लिखू।

अब इस प्रश्न का क्या उत्तर है ? उसने उत्तर पुस्तिका में क्यों लिखना चाहिये ? शिक्षिका का उत्तर है परीक्षा है तो लिखना ही चाहिये । परन्तु बालक को परीक्षा क्या होती है इसका ज्ञान नहीं है और परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिये इसकी परवाह नहीं है। फिर लिखित परीक्षा क्यों होती है ?

शिक्षिका कहती है कि नहीं तो कैसे पता चलेगा कि उसको गणित आती है कि नहीं । रोज रोज जिसे पढा रहे हैं उस दूसरी कक्षा के विद्यार्थी को गणित आती है कि नहीं यह जानने के लिये क्या लिखित परीक्षा की आवश्यकता होती है ? शिक्षिका कहती है कि मुझे तो पता चलता है परन्तु अभिभावकों को लिखित प्रमाण चाहिये । अभिभावकों से पूछो कि लिखित प्रमाण क्यों चाहिये । तब वे कहते हैं कि शिक्षकों का क्या भरोसा, वे तो कुछ भी कहेंगे । हमे तो अपने बालक की चिन्ता करनी ही चाहिये । पते की बात यही है, शिक्षक पर भरोसा नहीं है।

विद्यालय का समय दोपहर में ग्यारह बजे का है। समय पर आना है इतने नियम की जानकारी पर्याप्त नहीं है। समय से आना है इतनी सूचना भी पर्याप्त नहीं है। पंजिका में हस्ताक्षर करके समय लिखना है। क्यों ? विश्वास नहीं है कि समय से आयेंगे। अब पंजिका में हस्ताक्षर और समय लिखना भी पर्याप्त नहीं है। अंगूठा दबाने के यन्त्र हैं जिसमें आपकी उपस्थिति दर्ज होती है । अर्थात् अभिभावकों को ही नहीं तो संचालकों को भी शिक्षकों पर विश्वास नहीं है।

शिक्षकों का विद्यार्थियों पर विश्वास नहीं है। पहली दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों को परीक्षा क्या होती है यही मालूम नहीं है तो नकल करना क्या होता है यह कैसे मालूम होगा ? शिक्षक तो पहले ही सूचना देते हैं कि नकल नहीं करना परन्तु विद्यार्थी इस सूचना का अर्थ नहीं समझते । निरीक्षण की व्यवस्था तो होती ही है जबकि उसका कोई अर्थ नहीं होता। विद्यार्थी मित्र भाव से, सहायता करने की दृष्टि से एकदूसरे से पूछते हैं या बात करते हैं और निरीक्षक कह देते हैं कि इतनी छोटी आयु में ही विद्यार्थी नकल करना सीख गये हैं ।

गृहकार्य लिखित ही दिया जाता है। कुछ पढने के लिये या कुछ करके आने के लिये बताया तो विश्वास नहीं है कि पढेंगे या काम करेंगे । पाटी में लिखा हुआ भी नहीं चलेगा क्योंकि शिक्षकने गृहकार्य जाँचा है कि नहीं इसका प्रमाण चाहिये । लिखित सूचना और हस्ताक्षर अनिवार्य बन गये हैं।

अविश्वास का परिणाम

इस अविश्वास का परिणाम कैसा होता है ? शिक्षकों को कहा जाता है कि समय से विद्यालय आना है। आ गये, परन्तु आने से पढाया नहीं जाता है । पूरा समय विद्यालय में रहना होगा, रहे, परन्तु रहने से पढाया नहीं जाता । आपको वर्ष भर में पाठ्यक्रम पूरा करना होगा । हो गया, परन्तु पाठ्यक्रम पूरा होने से पढाया नहीं जाता । आपकी कक्षा का या आपके विषय का परिणाम शत प्रतिशत आना चाहिये । आ गया, परन्तु परिणाम अच्छा आने से पढाया नहीं जाता । परीक्षा तो हमें लेना है, प्रश्नपत्र हमें बनाने हैं, उत्तरपुस्तिका हमें जाँचनी है, अंक हमें देने हैं । शतप्रतिशत परिणाम आने म क्या कठिनाई है ? संचालक जानते हैं, अभिभावक भी जानते हैं परन्तु अब क्या उपाय है ? कैसे पकड सकते हैं ? इसलिये दसवीं की या बारहवीं की परीक्षा के लिये ट्यूशन या कोचिंग क्लास का सहारा लेना ही पडता है जहाँ ये ही शिक्षक पढ़ाते हैं ।

छात्र भी परीक्षा में नकल करना सीख जाते हैं, झुठ बोलना सीख जाते हैं ।

कई विषयों में प्रोजेक्ट किये जाते हैं। विद्यार्थी अन्तर्जाल का सहारा लेकर प्रोजेक्ट पूर्ण कर देते हैं । प्रोजेक्ट का प्रयोजन क्या है इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं होता । कुछ तैयार करना है तो या तो मातापिता बनाते हैं या किसी से बनवा लिया जाता है । शिक्षक सब जानते हैं परन्तु अंक दे देते हैं क्योंकि अंक कोई पैसे तो हैं नहीं कि देने से कम हो जाय । मातापिता भी यह सब जानते हैं परन्तु कोई परवाह नहीं करते ।

इस प्रकार मिध्या और आभासी शिक्षा चलती है |

विद्यालय का परिणाम तो अच्छा लाना ही है इसलिये उत्तीर्ण होने के पात्र नहीं हैं ऐसे विद्यार्थियों को भी उत्तीर्ण कर दिया जाता हैं । आठवीं, नौवीं तक आते आते विद्यार्थियों को भी इस खेल का पता चल जाता है और वे इसका पूरा फायदा उठाते हैं ।

यह सारा अविश्वास से प्रारम्भ हुआ खेल कोई एकाध विद्यालय में नहीं चलता, सार्वत्रिक हो गया है । अविश्वास के चलते बच निकलने के, पकडे नहीं जाने के नित्य नये नये मौलिक उपाय खोजे जाते हैं, चतुराई तो बढ़ती है परन्तु पढाई नहीं होती | ऐसी शिक्षा से राष्ट्र निर्माण कैसे होगा ?

व्यवहार का नियम भी है कि अच्छाई नियम, कानून, भय, स्वार्थ, अविश्वास, चतुराई, अप्रामाणिकता, जबरदस्ती, दबाव, अनिवार्यता आदि के साथ नहीं रहती । इन सभी तत्त्वों से प्रेरित होकर किया गया कोई भी अच्छा दीखने वाला काम अच्छा नहीं होता, उसमें अच्छाई का आभास होता है और आभासी अच्छाई मिथ्या परिणाम देनेवाली होती है, ठोस नहीं ।

स्वेच्छा, स्वतंत्रता, सद्द्भाव, सह्दयता, सज्जनता से ही शिक्षा जैसा अच्छा काम हो सकता है । जैसे ही कपट की गन्ध लगी, शिक्षा गायब हो जाती है । फिर शिक्षा की देह रह जाती है, प्राण नहीं । अतः प्रथम विश्वास की स्थापना करनी होगी ।

संचालक का शिक्षकों पर विश्वास, शिक्षक का संचालक पर विश्वास, शिक्षक का विद्यार्थी पर और विद्यार्थी का शिक्षक पर विश्वास, अभिभावकों का शिक्षक पर और शिक्षक का अभिभावकों पर विश्वास होना अनिवार्य है ।

विश्वसनीयता का संकट गहरा है

इस दृष्टि से दो प्रकार का प्रशिक्षण आवश्यक है । एक है विश्वास करने की शक्ति सम्पादन करना, दूसरा विश्वसनीय बनना । आज के समय में दोनों ही बहुत दुर्लभ हैं ।

एक बार शिक्षकों के प्रशिक्षण वर्ग में एक प्रयोग किया गया । सबको कहा गया कि ऐसे दस व्यक्तियों के नाम लिखो जिनके बारे में आपको विश्वास है कि (१) वे पीठ पीछे आपकी निन्‍दा नहीं करेंगे, (२) वे आपका अहित नहीं करेंगे और (३) आपको कभी किसी बात में धोखा नहीं देंगे ।

सबको अनुभव हुआ कि ऐसे दस तो क्या दो नाम लिखना भी कठिन हो रहा है ।

फिर दूसरा काम दिया ।

ऐसे दस व्यक्तियों के नाम लिखो जिन्हें इन्हीं तीन बातों में आप पर विश्वास है ऐसा आपको लगता है ।

ऐसे नाम लिखना भी कठिन हो गया ।

आश्चर्य की और आश्वस्त करने की बात तो यह थी कि वे ऐसे नाम भी नहीं लिख सके ।

आश्यस्ति इस बात की कि कम से कम उन्होंने झूठ तो नहीं लिखा ।

परन्तु यह प्रयोग दर्शाता है कि विश्वास करने का और विश्वसनीयता का संकट कितना गहरा है । और जब तक अविश्वास है शिक्षा कैसे हो पायेगी ?

कभी कभी तो लोग कह देते हैं कि आज के जमाने में विश्वास का कोई वजूद नहीं है । विश्वास से काम नहीं हो सकता । जमाना खराब हो गया है । अतः नियम तो बनाने ही पड़ेंगे और जाँच पड़ताल भी करनी पड़ेगी । निरीक्षण की व्यवस्था नहीं रही तो कोई नकल किये बिना रहेगा नहीं । पुलीस नहीं रहा तो ट्राफिक के नियमों का पालन कौन करेगा ? बिना जाँच रखे अनुशासन कैसे रहेगा ? इसलिये विश्वास का आग्रह छोडो ।

परन्तु विश्वास और श्रद्धा के बिना कोई भी अच्छा काम सम्भव नहीं है । अच्छाई के आधार पर ही दुनिया चलती है, कानून के आधार पर नहीं । रास्ते पर चलते हुए कोई दुर्घटना देखी और कोई व्यक्ति बहुत गम्भीर रूप से घायल हो गया है वह भी देखा । उस समय रुकना, उसकी सहायता करना उसे अस्पताल पहुँचाना कानून से बन्धनकारक नहीं है तो भी लोग होते हैं जो अपना काम छोड़कर घायल व्यक्ति की सहायता करते हैं । ठण्ड में ठिठुरने वाले खुले में सोये गरीब लोगोंं को कम्बल ओढाने वाले अच्छे लोग होते ही हैं । गरीब विद्यार्थियों को पढाई के लिये सहायता करने वाले दानी लोग होते ही हैं । ये सब नियम, कानून, बन्धन, मजबूरी, भय या स्वार्थ से प्रेरित होकर यह काम नहीं करते । उनके हृदय में जो अच्छाई होती है उससे प्रेरित होकर ही करते हैं । मनुष्यों के हृदयों में जो अच्छाई है उसीसे दुनिया चलती है । इस अच्छाई का नाश अविश्वास से होता है । इसलिये कुछ भौतिक स्वरूप की कीमत चुकाकर भी विश्वास का जतन करना चाहिये ।

विश्वास का जतन करना

विश्वास-अविश्वास के मामले में इन पहलुओं का विचार करना चाहिये...

  1. विश्वास करना
  2. विश्वास करना सिखाना
  3. विश्वसनीयता बनाना
  4. विश्वसनीय बनना
  5. विश्वास भंग नहीं करना

छोटे बच्चे स्वभाव से विश्वास करने वाले ही होते हैं। बड़े होते होते विश्वास करना छोड देते हैं। इसका कारण उसके आसपास के बडे ही होते हैं । वे झूठ बोलते हैं, बच्चोंं के विश्वास का भंग करते हैं । इससे झूठ बोलना और विश्वास नहीं करना दोनों बातों के संस्कार होते हैं ।

एक परिवार में छोटा बेटा, मातापिता और दादीमाँ ऐसे चार लोग होते थे । रात्रि में भोजन आदि से निपटकर पतिपत्नी कुछ चलने के लिये जाते थे। उस समय छोटा बालक भी साथ जाना चाहता था । उसे साथ लेकर घूमने जाना मातापिता को सुविधाजनक नहीं लगता था । वह चल नहीं सकता था, उसे उठाना पड़ेगा । वह रास्ते में ही सो जाता था। इसलिये उन्होंने सोचा कि वह सो जायेगा फिर जायेंगे । दादीमां ने ही यह उपाय सुझाया था । परन्तु बालक ने सुन लिया । इसलिये वह मातापिता नहीं सोते थे तब तक सोने के लिये भी तैयार नहीं था। फिर माता कपड़े बदल लेती, साथ में सुलाती और कहानी बताती । बालक सो जाता तब फिर दोनों घूमने के लिये जाते । कुछ दिन यह क्रम ठीक चला । एक दिन बालक पूरा नहीं सोया था और माता को लगा कि सो गया, तब वे दोनों घूमने गये । इधर कहानी की आवाज बन्द हो गई इसलिये बालक जागा । उसने देखा कि माँ नहीं है । वह रोने लगा । दादीमाँ ने कहा कि घूमने गये हैं, अभी आ जायेंगे । बालक और जोर से रोने लगा। थोड़ी ही देर में मातापिता आ गये । बालक ने यह नहीं पूछा कि मुझे छोडकर क्यों गये । उसने पूछा कि मुझसे झूठ क्यों बोले ?

अविश्वास का प्रारम्भ ऐसे होता है । इन मातापिता ने किया ऐसा व्यवहार तो लोग सदा करते हैं, निर्दोषता से करते हैं । इसे झूठ नहीं कहते, व्यवहार कहते हैं । परन्तु इससे विश्वसनीयता गँवाते हैं और विश्वास नहीं करना सिखाते हैं ।

एक व्यापारी पिता की कथा पढ़ी थी । अपने छोटे पुत्र को वह ऊँचाई से छलाँग लगाने के लिये प्रेरित कर रहे थे । पुत्र डर रहा था । पिता बार बार कह रहे थे कि मैं हूँ, तुम्हें गिरने नहीं दूँगा, झेल लूँगा । तीन चार बार ऐसा सुनने पर एक बार पुत्रने अपने भय पर काबू पाकर छलाँग लगाई। पिताने नहीं पकड़ा और गिरने दिया । ऐसा क्यों किया यह पूछने पर पिताने बताया कि वह व्यापारी का पुत्र है। व्यापार में सगे बाप पर भी विश्वास नहीं करना सिखा रहा हूँ।

यह अनाडीपन की हद है ।

तात्पर्य यह है कि ऐसी सैंकडों छोटी छोटी बातें होती हैं जिससे बच्चे विश्वास नहीं करना सीख जाते हैं, और फिर किसी का विश्वास नहीं करते ।

बच्चे मन के सच्चे

बच्चे स्वभाव से झूठ नहीं बोलते परन्तु बडे ‘झूठ मत बोलो', 'झूठ मत बोलो' कहा करते हैं अथवा 'तुम जूठ बोलते हो' ऐसा आरोप लगाया करते हैं। यह सनते सुनते वे झूठ बोलना सीख जाते हैं और विश्वसनीयता गँवाते हैं ।

अनेक बार बडे ही उन्हें झूठ बोलना सिखाते हैं। आसपास लोग एकदूसरे से झूठ बोल रहे हैं यह देखते हैं । स्वयं झूठ बोलते हैं इसलिये दूसरे भी बोलते होंगे ऐसा समझकर विश्वास नहीं करते । इस वातावरण में वे अपने आप विश्वसनीय नहीं रहना और विश्वास नहीं करना सीख जाते हैं।

झूठ बोलना सिखाने के लिये टीवी और मोबाइल तो हैं ही। असंख्य उदाहरण झूठ बोलने के देखने सुनने को मिलते हैं। झूठ बोलना बुरा नहीं है यही उनके मन में बैठ जाता है। बुरा नहीं है तो बोलने में क्या हानि है ? दूसरों का विश्वास नहीं करना यह भी उन्हें व्यवहार ही लगता है। दूसरे मेरे पर विश्वास नहीं करेंगे यह पहले पहले तो ध्यान में नहीं आता परन्तु ध्यान में आने के बाद वह बहुत अखरता नहीं है। यही दुनियादारी है ऐसा उनका निश्चय हो जाता है।

इसे दुनियादारी कहते हैं

आगे का चरण मैं सत्य बोलता हूँ, मेरे पर विश्वास करो यह समझाने का होता है और सत्य बोलने के प्रमाण देने का होता है। सब एक दूसरे के समक्ष खुलासे देते हैं, प्रमाण देते हैं, साक्षी प्रस्तुत करते हैं । झूठ बोलकर भी सत्य सिद्ध करने हेतु झूठे प्रमाण और साक्षी देने जितने चतुर भी हो जाते हैं।

इसी में से आगे चल कर वकीलों का व्यवसाय पूरबहार में चलता है और न्यायालयों तथा न्यायाधीशों की संख्या कम पडती है।

जिस समाज में वकीलों और न्यायालयों की संख्या अधिक हो और उनका व्यवसाय अच्छा चलता हो तो समझना चाहिये कि उस समाज में झूठ बोलने वाले और कलह करने वाले लोग अधिक हैं।

शिक्षकों का दायित्व

विद्यालय को विश्वास के वातावरण से युक्त बनाने का दायित्व शिक्षकों का है। किसी और को दायित्व देने से या और का दायित्व बताने से काम होगा नहीं।

पहली बात है सब पर विश्वास करना, भले ही कुछ हानि उठानी पड़े । शत प्रतिशत पता है कि सामने वाला व्यक्ति झूठ बोल रहा है तो भी उसे यह नहीं कहना कि मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं है, या मुझे पता है कि तुम झूठ बोल रहे हो। सामने वाला कितना भी माने कि मैं ने इनके सामने झूठ बोलकर इन्हें मूर्ख बनाया और फायदा उठाया, तो भी विश्वास ही करना, विश्वास नहीं है अथवा विश्वास करने योग्य नहीं है ऐसा मालूम है तो भी विश्वास करना । मुझे तुम पर विश्वास नहीं है ऐसा कभी भी नहीं कहना । तुम सत्य बोल रहे हो इसका प्रमाण दो यहभी नहीं कहना । यह तो अविश्वास करने । के बराबर ही है। कुछ समय के बाद विश्वासभंग करने वाले का मन ही उसे झूठ बोलने के लिये मना करने लगेगा। अविश्वास करने वाले के समक्ष तो झूठ बोला जा सकता है, झूठे प्रमाण भी दिये जा सकते हैं, पर विश्वास करने वाले के समक्ष कैसे झूठ बोलें । विश्वास करनेवाले का विश्वास भंग नहीं करना चाहिये यह सहज ही सामने वाले को लगने लगता है। आखिर विश्वास करने वाले की ही जीत होती है।

इस प्रकार विद्यालय में शिक्षकों की और से विश्वास करने का प्रारम्भ करना चाहिये फिर विद्यार्थियों को आपस में विश्वास करना सिखाना चाहिये । कोई झूठ क्यों बोलेगा ऐसा एक वातावरण बनाना चाहिये । कभी कभी कोई विद्यार्थी अपने मातापिता झूठ बोलते हैं ऐसी शिकायत करता है। तब विद्यार्थी से कोई बात न करते हुए मातापिता से इस विषय में बात करनी चाहिये । परन्तु ऐसा करने में बहुत सावधानी रखनी चाहिये क्योंकि नहीं तो मातापिता अपने बालक को ही क्यों शिक्षक को बताते हो ?' कहकर डाँटेंगे ।

तीसरा चरण है विश्वसनीय होने का। दूसरों का विश्वास करते समय अपना भी विश्वास सबको करना चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है। लोग विश्वास नहीं करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु सदा प्रमाण देना आवश्यक नहीं है। बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि प्रमाणके बिना मेरा विश्वास नहीं किया जा सकता। अतः शिक्षक स्वयं, सामने वाला विश्वास करे कि न करे, विश्वसनीय बनें और विद्यार्थियों को विश्वसनीय बनाने हेतु प्रेरित करें। विद्यार्थी की विश्वसनीयता की परीक्षा अप्रत्यक्षरूप से करें । उससे प्रमाण भी बार बार न माँगे कदाचित एक बार भी न माँगे।

अप्रत्यक्षरूप से यदि पता चले कि वह विश्वास योग्य नहीं है तो भी सीधा डाँटने से या उसे दूसरों के समक्ष गिराने से वह विश्वसनीय नहीं बनेगा । उसे अकेले

नहीं कहना । यह तो अविश्वास करने के बराबर ही है। कुछ समय के बाद विश्वासभंग करने वाले का मन ही उसे झूठ बोलने के लिये मना करने लगेगा । अविश्वास करने वाले के समक्ष तो झूठ बोला जा सकता है, झूठे प्रमाण भी दिये जा सकते हैं, पर विश्वास करने वाले के समक्ष कैसे झूठ बोलें । विश्वास करनेवाले का विश्वास भंग नहीं करना चाहिये यह सहज ही सामने वाले को लगने लगता है । आखिर विश्वास करने वाले की ही जीत होती है ।

इस प्रकार विद्यालय में शिक्षकों की और से विश्वास करने का प्रारम्भ करना चाहिये फिर विद्यार्थियों को आपस में विश्वास करना सिखाना चाहिये । कोई झूठ क्यों बोलेगा ऐसा एक वातावरण बनाना चाहिये । कभी कभी कोई विद्यार्थी अपने मातापिता झूठ बोलते हैं ऐसी शिकायत करता है। तब विद्यार्थी से कोई बात न करते हुए मातापिता से इस विषय में बात करनी चाहिये । परन्तु ऐसा करने में बहुत सावधानी रखनी चाहिये क्योंकि नहीं तो मातापिता अपने बालक को ही “क्यों शिक्षक को बताते हो ?' कहकर डाॉँटेंगे ।

तीसरा चरण है विश्वसनीय होने का । दूसरों का विश्वास करते समय अपना भी विश्वास सबको करना चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है । लोग विश्वास नहीं करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु सदा प्रमाण देना आवश्यक नहीं है । बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि प्रमाणके बिना मेरा विश्वास नहीं किया जा सकता । अतः शिक्षक स्वयं, सामने वाला विश्वास करे कि न करे, विश्वसनीय बनें और विद्यार्थियों को विश्वसनीय बनाने हेतु प्रेरित करें । विद्यार्थी की विश्वसनीयता की. परीक्षा आप्रत्यक्षरूप से करें । उससे प्रमाण भी बार बार न माँगे कदाचित एक बार भी न माँगे ।

आप्रत्यक्षरूप से यदि पता चले कि वह विश्वास योग्य नहीं है तो भी सीधा डाँटने से या उसे दूसरों के समक्ष गिराने से वह विश्वसनीय नहीं बनेगा । उसे अकेले में विश्वसनीय बनने हेतु समझायें । सभी छात्रों के समक्ष विश्वास करना, विश्वसनीय होना कितना अच्छा होता है, विश्वसनीय नहीं होने से कितनी हानि होती है, विश्वास नहीं करना और दूसरों के लिये विश्वसनीय नहीं होना कितना बुरा है इसकी कहानी, घटना, चर्चा करें । प्रेरणादायी चरित्र बतायें। धीरे धीरे विश्वसनीयता का वातावरण बनता जायेगा ।

चौथा चरण है विश्वासभंग नहीं करना । विश्वासभंग करना बहुत बडा नैतिक अपराध है। यह बात बार बार आग्रहपूर्वक बतानी चाहिये । वचनपालन करना कितना महत्त्वपूर्ण है यह बताना चाहिये ।

विद्यालय में पुस्तकालय में ताला नहीं लगाना, स्वयं ग्राहक सेवा चलाना, बिना निरीक्षण के परीक्षा का आयोजन करना, अपने विद्यार्थियों में विश्वास व्यक्त करना, आदि प्रयोग करने चाहिये । भारत में पूर्व में लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे यह भी बताना ।

बडी आयु के विद्यार्थियों के समक्ष समाज में विश्वसनीयता का कैसा संकट निर्माण हुआ है, उससे कितने प्रकार से हानि होती है इसकी चर्चा करनी चाहिये । हमारे विद्यालय में विश्वसनीयता का वातावरण कैसे बना रहेगा इसकी भी चर्चा करनी चाहिये ।

विश्वास भंग होने पर क्या करना ?

अगला चरण है कोई हमारा विश्वासभंग करता है तब क्या करना इसका विचार करना । उसे सीधा कुछ न कहते हुए या शिकायत न करते हुए विश्वासभंग को सह लेना यह पहली बात है। फिर उससे बात करना और विश्वासभंग नहीं करने के लिये समझाना । इन सभी बातों में विश्वास करना और विश्वसनीयता होना अपने बस की बातें हैं। इनका आचरण करना तो सरल है। परन्तु जो विश्वसनीय नहीं है अथवा हमारे साथ विश्वासभंग करता है उससे कैसा व्यवहार करें यह समझना कठिन है। पहली बात तो यह है कि सामने वाला व्यक्ति कितना विश्वसनीय है यह जानना चाहिये । उसकी परीक्षा कैसे करना यह भी सीखना चाहिये । विश्वासभंग करने वाले का क्या करना यह भी पुस्तक से नहीं सिखाया जा सकता, व्यवहार से सिखाया जा सकता है। शिक्षकों ने विद्यार्थियों को ये दोनों बातें सिखानी चाहिये ।

सत्य बोलना, झूठ नहीं बोलना, विश्वास करना, विश्वसनीय होना, विश्वास का भंग नहीं करना आदि बातों से अपने आसपास अच्छाई का वातावरण बनता है। इस वातावरण में और सद्गुण पनपते हैं। सब एकदूसरे से आश्वस्त रहते हैं । पस्पर सद्भाव बना रहता है। सद्भाव से सहयोग बढता है। साथ मिलकर काम करने की अनुकूलता बनती है, स्नेह और सौहर्द बढते हैं । सज्जनता पनपती है। अध्ययन अध्यापन खिलते हैं।

शिक्षकों और विद्यार्थियों के परस्पर विश्वास के आगे का चरण शिक्षकों और अभिभावकों मे विश्वास का वातावरण निर्माण करने का है। इसके आधार पर वातावरण संस्कारक्षम बनता है। समाज में विश्वास का वातावरण पनपे इस दृष्टि से भी विद्यालय को प्रयत्नशील रहना चाहिये।

अब प्रश्न यह है कि क्या झूठ बोलना आना ही नहीं चाहिये । विश्वास का भंग करना, झूठा विश्वास दिलाना आदि सब आना ही नहीं चाहिये ?

ऐसा नहीं है। कोई झूठ बोल रहा है उसका पता ही न चले, कोई विश्वसनीय नहीं है यह जान ही न सके, कोई विश्वास का भंग कर रहा है यह समझ में ही न आये यह तो बुद्धपन की निशानी है। कोई भी गलत काम में हमें जोड सकता है, हम से गलत काम करवा सकता है ।

झूठा भरोसा दिलाना सही है ?

कई बार विश्वास का भंग करना पडता है, झूठा विश्वास दिलाना आवश्यक होता है यह सही है क्या ?

हाँ, कभी झूठा विश्वास दिलाना और विश्वासभंग करना उचित होता है। उदाहरण के लिये जासूसी करते समय ऐसा कपट करना ही होता है । गायको, छोटे बच्चे को, स्त्रियों को बचाने हेतु झूठा विश्वास दिलाना अनुचित नहीं माना जायेगा। अपने स्वार्थ के लिये यह सब करना अपराध है। निर्दोष को बचाने के लिये, देश की रक्षा करने के लिये यह सब करना अपराध नहीं है ।

ऐसे समय में विश्वासभंग करते आना यह एक कला है, कौशल है। मुझे झूठ बोलना आता ही नहीं यह कहना बुद्धिमानी नहीं है। मुझे किसी के विश्वास का भंग करना आता ही नहीं यह कहना बुद्धिमानी नहीं है। यह सीखना भी चतुराई है। आवश्यकता पड़ने पर इस चतुराई का उपयोग करते आना बुद्धिमानी है।

परन्तु यह सब आने के बाद भी अपने स्वार्थ के लिये, मौज के लिये या बिना किसी कारण से विश्वसनीयता गँवाना या विश्वास का भंग करना बहुत घटिया है।

श्रद्धा का संकट

विश्वास के समान ही दूसरा गुण है श्रद्धा का । मातापिता, गुरु, ईश्वर में श्रद्धा होना अत्यन्त लाभकारी है । हम जो कर रहे हैं वह काम अच्छा है ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये । हमें अपने आप में श्रद्धा होना आत्मश्रद्धा है । अर्थात् अपने आप में श्रद्धा, अध्ययन और अध्यापन में श्रद्धा, अपने से बड़ों में श्रद्धा होना अत्यन्त आवश्यक है। श्रद्धा से ही जीवन का दृष्टिकोण विधायक बनता है।

आज के जमाने का संकट श्रद्धा और विश्वास नहीं होने का है। किसी को श्रद्धापूर्वक किसी की बात मानने की इच्छा ही नहीं होती। शिक्षक की, मातापिता की, विद्वान की, समझदार व्यक्ति की बात मानने को मन नहीं करता।

धर्मग्रन्थ में श्रद्धा नहीं होती, भगवान में श्रद्धा नहीं होती। इसलिये सब अकेले हो गये हैं। किसी की सहायता या सहयोग की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

ऐसे वातावरण में समाज में तनाव बढता है, उत्तेजना बढती है। आज मधुप्रमेह, रक्तचाप, हृदयरोग आदि जैसी बिमारियाँ बढी हैं उनका मूल भी श्रद्धाहीनता है। सरदर्द अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ भी इसी में से पनपती हैं। इनका उपचार शारीरिक रोग समझकर करने से ये ठीक नहीं होती। हम देखते हैं कि इनकी दवाई आजन्म खानी पडती है । ये असाध्य बिमारियाँ हैं क्योंकि हम उनका मानसिक मूल पकड नहीं । पाते । यदि श्रद्धा और विश्वास मनवाने का इलाज करेंगे तो वातावरण से इन बिमारियों के तरंग कम होते जायेंगे ।

यह तो ऐसा है कि समझो कोकाकोला पीने से अम्लपित्त होता है। हम अम्लपित्त की दवाई लेते हैं । उससे दूसरी बिमारी होती है। उससे दूसरी, उससे दूसरी ऐसा दुष्टचक्र आरम्भ होता है। हम परेशान होते हैं परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करते । वास्तव में कोकाकोला पीना बन्द करने से अम्लपित्त होगा ही नहीं

और एक भी दवाई की आवश्यकता नहीं रहेगी। उसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास के अभाव में संशय, असुरक्षा, एकलता, तनाव, उत्तेजना, भय, चिन्ता पैदा होते हैं उसका परिणाम हृदय और मस्तिष्क पर होता है। हम दवाई खाना आरम्भ करते हैं, परेशान होते हैं, पैसा खर्च करते हैं, कानून और नियम बनाते हैं, सुरक्षा का प्रबन्ध करते हैं, न्यायालय का आश्रय लेते हैं, आरोप प्रत्यारोप चलते हैं, दण्ड का प्रावधान होता है, दोनों पक्षों का नकसान होता है परन्त न समाज अच्छा बनता है न व्यक्ति आश्वस्त होता है, न किसी को सुख और शक्ति मिलते हैं। मूल में अश्रद्धा और अविश्वास हैं। इनके स्थान पर श्रद्धा और विश्वास की प्रतिष्ठा करेंगे तो बाकी सब तो जड़ उखाडने से पूरा वृक्ष गिरकर सूख जाता है वैसे ही नष्ट हो जायेंगे।

इसलिये, पुनः एकबार विद्यालय श्रद्धा और विश्वास का वातावरण बनायें यह कहना प्राप्त होता है ।

श्रद्धा और विश्वास के सम्बन्ध में एक सुन्दर श्लोक देखें...

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रूपिणी

याभ्यांबिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ।।

अर्थात्

साक्षात् श्रद्धा और विश्वासरूपी भवानी और शंकर को प्रणाम । ऐसे श्रद्धा और विश्वास जिन के बिना सिद्ध लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख नहीं सकते।

दो विचित्र प्रश्न

जब व्यवस्थायें चिन्तन के आधार से च्युत हो जाती हैं तब अनेक प्रकार की गुत्थियाँ बन जाती हैं । ये गुत्थियाँ तात्त्विक नहीं रहती, मनोवैज्ञानिक बन जाती हैं । मनोवैज्ञानिक गुत्थियों को तार्किक और तात्विक उपायों से सुलझाया नहीं जाता परन्तु प्रयास तो तार्किक धरातल पर ही होता हैं । इससे गुत्थियाँ और उलझती हैं ।

ऐसे उलझे हुए दो प्रश्न यहाँ प्रस्तुत हैं ।

१, मान्यता का प्रश्न

कोई भी विद्यालय चलता है तब उसे मान्यता की आवश्यकता होती है । भारत की दीर्घ परम्परा में विद्यालय को समाज से मान्यता मिलती रही है । समाज से मान्यता मिलने का अर्थ है समाज ने अपने बच्चोंं को विद्यालयों में पढने हेतु भेजना और विद्यालय के योगक्षेम की चिन्ता करना । समाज के भरोसे शिक्षक विद्यालय आरम्भ करते थे और शिक्षक के सदूभाव, ज्ञान और कर्तृत्व के आधार पर उसे मान्यता भी मिलती थी ।

यह केवल प्राथमिक विद्यालयों की ही बात नहीं है । काशी, कांची, वलभी, नवद्वीप, तक्षशिला, विक्रमशीला, नालन्दा आदि देशविरव्यात और विश्वविख्यात उच्च शिक्षा के केन्द्रों को भी समाज से ही मान्यता मिलती थी । इन केन्द्रों को तो समाज के साथ साथ विदट्रज्जनगत से भी मान्यता मिलती थी । समाज की मान्यता में ही राज्य की मान्यता का भी समावेश हो जाता था |

परन्तु आज तो समाज की या विद्वानों की मान्यता पर्याप्त नहीं होती । इन दोनों की मान्यता मिले या न मिले राज्य की मान्यता अनिवार्य है । राज्य ने मान्यता देने कीप्रक्रिया और व्यवस्थायें निर्धारित की हुई हैं जो प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा की संस्थाओं को मान्यता देती हैं ।

मान्यता से तात्पर्य है इन संस्थाओं द्वारा निर्धारित पाठूक्रम के आधार पर इन संस्थाओं के द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर इन संस्थाओं की ओर से प्रमाणपत्र मिलना । इस प्रमाणपत्र के आधार पर राज्यकी व्यवस्था में चलने वाली विभिन्न गतिविधियों में काम करने के अवसर मिलना अर्थात् नौकरी मिलना अथवा उस क्षेत्र के स्वतन्त्र व्यवसाय हेतु अनुज्ञा मिलना ।

मान्यता के विविध स्तर और प्रकार हैं उनमें प्रश्न क्या है यही देखेंगे। प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता के लिये तीन स्तरों पर व्यवस्था है -

१. राज्यकी संस्था की, उदाहरण के लिये गुजरात स्टेट बोर्ड

२. केन्द्रीय संस्था की, उदाहरण के लिये सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सेकेण्डरी एज्यूकेशन

३. आन्तर्राष्ट्रीय संस्था की, उदाहरण के लिये इण्टरनेशनल बोर्ड

ये भी एक से अधिक होते हैं ।

ऐसे तीन स्तर क्यों होते हैं ?

शिक्षा का विषय राज्य सरकार का है इसलिये राज्य तो इसकी व्यवस्था करेगा यह स्वाभाविक है। इन विद्यालयों में साधारण रूप से प्रान्तीय भाषा ही माध्यम रहती है तथापि अन्य प्रान्तों के निवासियों की संख्या के अनुपात में उन भाषा के माध्यमों के विद्यालय भी चलते हैं । उदाहरण के लिये राज्य की मान्यता वाले अधिकतम विद्यालय गुजराती माध्यम के होंगे परन्तु तमिल, सिंधी, उडिया, उर्दू, मराठी माध्यम के विद्यालय भी चलते हैं।

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो केन्द्र सरकार की नौकरी करते हैं इसलिये उनके स्थानांतरण एक राज्य से दूसरे राज्य में होते हैं । ऐसे लोगोंं की सुविधा हेतु अखिल धार्मिक स्तर की संस्थायें चलती हैं। सीबीएसई (सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सैकन्डरी एज्यूकेशन) ऐसा ही बोर्ड है । यह मान्यता पूरे देश में चलती है । इसमें हिन्दी और अंग्रेजी ऐसे दो माध्यम होते हैं । अब एक राज्य से दूसरे राज्यमें जाने में कठिनाई नहीं होती।

तीसरा आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड होता है जो एक से अधिक देशों में विद्यालयों को मान्यता देता है । इसका उद्देश्य राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की तरह प्रजाजनों की सुविधा देखने का तो नहीं है यह स्पष्ट है । अपना व्यापार कहो तो व्यापार और मिशन कहो तो मिशन विश्व के अन्य देशों में भी फैलाने का उद्देश्य है ।

अब प्रश्न क्या है ?

अधिकांश लोगोंं को राज्य के बोर्ड की मान्यता होना सर्वथा स्वाभाविक है, परन्तु आज सबको, विशेष रूप से संचालकों को, केन्द्रीय बोर्ड की मान्यता का आकर्षण बढ रहा है । मातृभाषा में पढ़ने की सुविधा नहीं होने पर भी केन्द्रिय बोर्ड चाहिये । उसके ही समान आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की मान्यता का आकर्षण भी बढ रहा है ।

इसके तर्क कितने ही दिये जाते हों यह आकर्षण केवल मनोवैज्ञानिक है । भाषा ऐसी बोली जाती है कि केन्द्रियि और आन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के मानक ऊँचे होते हं, उनका दायरा अधिक बडा है और इनमें गुणवत्ता अधिक है । ये तर्क सही नहीं हैं । कोई भी शिक्षाशास्त्री इन्हें मान्य नहीं करेगा तथापि शिक्षाशाखरियों की बात कोई मानने को तैयार नहीं होता । बच्चे को विदेश जाने में आन्तर्रा्ट्रीय बोर्ड सुविधा देता है ऐसा तर्क दिया जाता है । ये सब तर्क ही इतने बेबुनियाद होते हैं कि उनके उत्तर तार्किक पद्धति से देना सम्भव ही नहीं है । एक के बाद एक तर्क का उत्तर देने पर भी वे स्वीकृत नहीं होते क्योंकि उन्हें तर्कनिष्ठ व्यवहार नहीं करना है । इसके चलते बोर्डों की व्यवस्था में, अभिभावकों में और शैक्षिक सामग्री के बाजार में बडी हलचल मची हुई है ।

२. दूसरा प्रश्न है अंग्रेजी माध्यम का |

हमारे राष्ट्रीय हीनता बोध का यह इतना मुखर लक्षण है कि इसका खुलासा करने की भी आवश्यकता नहीं है ।

विश्व भर के शिक्षाशास्त्री, समझदार व्यक्ति, देशभक्त लोग कहते हैं कि देश की शिक्षा देश की भाषा में ही होनी चाहिये, व्यक्ति की शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही होनी चाहिये । मातृभाषा में शिक्षा के असंख्य लाभ और विदेशी भाषा में शिक्षा लेने की अनेक हानियाँ बताई जाती हैं, अनेक प्रमाण दिये जाते हैं तो भी लोगोंं पर उनका प्रभाव नहीं होता । लोगोंं का ही अनुसरण सरकार करती है ।

संचालक अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय चलाते हैं क्योंकि लोगोंं को चाहिये । सरकार अंग्रेजी माध्यम का इसलिये समर्थन करती है क्योंकि लोगोंं को चाहिये । जो लोग जानते हैं कि लोगोंं को चाहिये वह देना नहीं होता, लोगोंं को क्या इष्ट है और क्या नहीं है यह सिखा कर जो इष्ट है वह देना और अनिष्ट है उससे परावृत करना शिक्षा का काम है वे अंग्रेजी माध्यमका विरोध करते हैं परन्तु उनके विरोध का प्रभाव कम हो रहा है । जब लोग शिक्षाशाखरियों, समझदारों और देशभक्तों की बात सुनना बन्द कर देते हैं तब वह प्रश्न मनोवैज्ञानिक समस्या बन जाते है और भीषण रोग के स्तर पर पहुँच जाती है ।

अंग्रेजी और अंग्रेजीयत आज ऐसा भीषण मानसिक रोग बन गया है ।

इसके चलते शैक्षिक दृष्टि से भी समस्‍यायें निर्माण हो रही हैं । मातृभाषा का ज्ञान कम होने लगा है, भाषा को महत्त्वपूर्ण विषय मानना बन्द हो गया है, भाषा नहीं आने से भाषाप्रभुत्व, भाषासौन्दर्य, भाषालालित्य आदि अनेक मूल्यवान संकल्पनायें समाप्त हो गई हैं, भाषा नहीं आने से दूसरे विषयों को ग्रहण करना भी रुक गया है और कुल मिलाकर बौद्धिकता का हास हो रहा है, बौद्धिकता का यान्त्रिकीरण हो रहा है । यह मनुष्य से यन्त्र बनने की ओर गति है ।

भाषा नहीं आने से संस्कृति से भी सम्बन्धविच्छेद हो रहा है। जब संस्कृति से विमुखता आती है तब सांस्कृतिक वर्णसंकरता आती है । यह मनुष्य से पशुत्व की ओर गति है ।

इन दोनों समस्याओं का आधार एक ही है, वह है हमारा हीनताबोध । दोनों समस्याओं का स्वरूप एक ही है, वह है मनोवैज्ञानिक । हीनताबोध भी मनोवैज्ञानिक समस्या ही है।

मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल

उपाय की दृष्टि से यदि हम बौद्धिक, तार्किक उपाय करेंगे, अनेक वास्तविक प्रमाण देंगे, आंकडे देंगे तो उसका कोई परिणाम नहीं होता है। कल्पना करें कि कोई एक सन्त जिनके लाखों अनुयायी हैं वे यदि अपने सत्संग में अंग्रेजी माध्यम में अपने बच्चोंं को मत भेजो ऐसा कहेंगे तो लोग मानेंगे ? कदाचित सन्तों को भी लगता है कि नहीं मानेंगे इसलिये वे कहते नहीं हैं। यदि सरकार अंग्रेजी माध्यम को मान्यता न दे तो लोग उसे मत नहीं देंगे इसलिये सरकार भी नहीं कहती । अर्थात् जिनका प्रजामानस पर प्रभाव होता है वे ही यह बात नहीं कह सकते हैं ? क्या वे अंग्रेजी माध्यम होना चाहिये ऐसा मानते हैं ? नहीं होना चाहिये ऐसा मानते हैं ? कदाचित उन्होंने इस प्रश्न पर विचार ही नहीं किया है।

यदि नहीं किया है तो उन्हें विचार करने हेतु निवेदन करना चाहिये और अपने अनुयायिओं को अंग्रेजी माध्यम से परावृत करने को कहना चाहिये।

मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल मनोवैज्ञानिक पद्धति से ही हो सकता है इतनी एक बात हमारी समझ में आ जाय तो हमें अनेक उपाय सूझने लगेंगे। परन्तु अभी तो समाज के बौद्धिक वर्ग के लोग ही इस ग्रहण से ग्रस्त हैं।

मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ क्या होती हैं इसका विस्तृत निरूपण करने का यहाँ औचित्य नहीं है क्योंकि वे असंख्य होती हैं । सामान्य लोगोंं को भी ये सूझ सकती हैं और सामान्य लोग इसका प्रभाव भी जानते हैं ।

विद्यालय यदि ऐसी पद्धतियाँ अपनाना आरम्भ कर दें, इन्हें चालना दें तो हम इन समस्याओं से निजात पा सकते हैं । साहस करने की आवश्यकता है।

शिक्षा का माध्यम और भाषा का प्रश्न

भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में धार्मिक भाषा का प्रचलन होना चाहिये यह है । भारत में जिस प्रकार शिक्षा धार्मिक नहीं है उसी प्रकार धार्मिक भाषा की प्रतिष्ठा नहीं है। भारत में जिस प्रकार युरोअमेरिका की शिक्षा चल रही है उसी प्रकार अंग्रेजी सबके मानस को प्रभावित कर रही है।

भारत में अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी का प्रवेश हुआ । अंग्रेजों ने शिक्षा को पश्चिमी बनाया उसी प्रकार से समाज के उच्चभ्रू वर्ग को अंग्रेजी बोलना सिखाया । साथ ही अंग्रेज बनना भी सिखाया । खानपान, वेशभूषा, शिष्टाचार, दृष्टिकोण, मनोरंजन आदि अंग्रेजी पद्धति का हो तभी अंग्रेजी बोलना सार्थक है ऐसा समीकरण बैठ गया । देश से अंग्रेज गये परन्तु अंग्रेजीयत रह गई । भारत के राजकीय मानचित्र में अंग्रेज नहीं हैं परन्तु मनोमस्तिष्क में अंग्रेजीयत का साम्राज्य है ।

अंग्रेजी भाषा का मोह इस अंग्रेजीयत का ही एक हिस्सा है ।

जैसे जैसे स्वतन्त्र भारत आगे बढ रहा है अंग्रेजी का मोह भी बढ़ता जा रहा है । लोग मानने लगे हैं कि अंग्रेजी का कोई पर्याय नहीं है । अंग्रेजी विश्वभाषा है और विकास इससे ही होता है। मजदूर, किसान, फेरी वाला, घर में कपडा बर्तन करने वाली नौकरानी भी अपने बच्चोंं को अंग्रेजी पढाना चाहते हैं क्योंकि वे अपने बच्चोंं को बडा बनाना चाहते हैं ।

अंग्रेजी भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं होनी चाहिये, मातृभाषा ही श्रेष्ठ माध्यम है ऐसा आग्रह करनेवाले लोग समझा समझाकर थक गये हैं, हार गये हैं और समझौते करने के लिये मजबूर हो गये हैं ऐसा व्यामोह छाया हुआ है ।

अपने मोह को भी लोग तर्कों के आधार पर सही बताने का प्रयास करते हैं । ये सब कुतर्क होते हैं परन्तु वे करते ही रहते हैं । एक से बढकर एक प्रभावी तर्क भी असफल हो जाते हैं और मौन हो जाते हैं ।

शासन स्वयं इस मोह से ग्रस्त है, विश्व विद्यालय, धर्माचार्य, उद्योगक्षेत्र सब इस मोह से ग्रस्त हैं। कभी वे ऐसी भाषा बोलते हैं कि लो, अब तो रिक्षावाले और घरनौकर भी अपने बच्चोंं को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में भेजना चाहते हैं । मानों अंग्रेजी पढने का अधिकार उनके जैसे श्रेष्ठ लोगोंं का ही है, रिक्षावालों का या नौकरों का नहीं । “प्रत्युत्त में ये नौकर और उनका पक्ष लेनेवाले राजकीय पक्ष के लोग अथवा समाजसेवी लोग कहते हैं कि बडे पढ़ते हैं तो छोटे क्यों न पढ़ें, उन्हें भी अधिकार है । इस प्रकार वे भी पढ़ते हैं ।' अपराध छोटे लोगोंं का नहीं है, तथाकथित बडों का ही है ।

अंग्रेजी मनोवैज्ञानिक समस्या है

जिस प्रकार कामातुर व्यक्ति को, लोभी को, आसक्त को, मोहांध को कोई विवेक नहीं होता उसी प्रकार से अंग्रेजी का भूत जिन पर सवार हो गया है वे भी विवेकशून्य होकर ही व्यवहार करते हैं ।

भूत को भगाने के लिये धर्माचार्य, शिक्षक, सज्जन या वैद्य की आवश्यकता नहीं होती, भूत को भगाने के लिये झाडफूंक करने वाले की आवश्यकता होती है । उन्माद के रोगी को मनोचिकित्सक की आवश्यकता होती है । शरीर की चिकित्सा करने वाले को उसमें यश नहीं मिलता । भयभीत व्यक्ति को तर्क से समझाया नहीं जा सकता, उसे रक्षण की आवश्यकता होती है । भ्रम दूर करने के लिये सत्य स्वरूप उद्घाटित करने की आवश्यकता होती है, विश्वास या आज्ञा कुछ नहीं कर सकते । अर्थात्‌ जैसा रोग वैसा उपचार, जैसी समस्या वैसा समाधान यही व्यवहार का सिद्धान्त है, व्यावहारिक समझदारी है ।

अंग्रेजी माध्यम की समस्या मनोवैज्ञानिक समस्या है, बौद्धिक और व्यावहारिक नहीं । इसलिये इसका समाधान भी मनोवैज्ञानिक ढंग से ही हो सकता हैं । बौद्धिक या व्यावहारिक मार्गों का अवलम्बन करने से वह अधिक कठिन हो जाती है । इतने वर्षों का अनुभव तो यही सिद्ध करता है ।

अंग्रेजी के भूत को भगाने के प्रयास

अंग्रेजी के भूत को भगाने के लिये हमारे मानस को रोगमुक्त करने के लिये कुछ इस प्रकार से प्रयास करने होंगे...

१. जो लोग स्वयं अंग्रेजी के भूत से परेशान हैं वे इसका उपचार नहीं कर सकते । वे चाहते हैं कि पहले दूसरे लोग अंग्रेजी बोलना बन्द कर दें, बाद में हम भी बन्द कर देंगे । सब बोलते हैं इसलिये हमें भी बोलना पडता है, बाकी हम अंग्रेजी के पक्षधर नहीं हैं। ऐसे लोगोंं से अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है और अधिक जोर से चिपक जाता है ।

२. जो लोग मानते हैं कि आज का युवा वर्ग अंग्रेजी ही जानता है, उनके साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये हमें भी अंग्रेजी में व्यवहार करना चाहिये । अंग्रेजी बोलकर हम उन्हें अंग्रेजी से मुक्त कर देंगे । उनकी बात सुनकर भी अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है । ऐसे लोगोंं से वह भागेगा नहीं ।

३. अंग्रेजी को नहीं मानने वाले, नहीं चाहने वाले भी झाडफूंक वाले होना नहीं चाहते, अपनी शिष्टता, तर्कों के शख्र, बौद्धिक उपचार, आँकडों के पुरावे आदि से समस्या हल करना चाहते हैं, यही सज्जनों और बुद्धिमानों का मार्ग है ऐसा कहते हैं उनसे भी अंग्रेजी का भूत भागता नहीं, उल्टा उनको ही चिपक जाता है और उनके सारे शस्त्रों को नाकाम कर देता है ।

४. क्या हम “मुझे अंग्रेजी भाषा आती नहीं है' ऐसा कहने में लज्जा या संकोच का अनुभव करते हैं ? तो फिर हम से अंग्रेजी को भगाने का काम नहीं होगा । अंग्रेजी को भगाना चाहते हैं वे पहले अंग्रजी सीखते हैं, वैसे तो मुझे अंग्रेजी आती है परन्तु मैं बोलना पसन्द नहीं करता, आवश्यकता पड़ने पर बोल सकता हूँ ऐसा कहते हैं उन्हें देखकर भी अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है। वह जानता है कि इनमें मुझे भगाने की शक्ति नहीं है ।

५. “मेरे साथ बात करनी है तो भारत की भाषा में बोलो' ऐसा कहने वाले से यह भूत सहमता है । शर्त है कि मेरे साथ बोलने की आवश्यकता सामने वाले को होनी चाहिये । सब्जी लेने के लिये गये और सब्जी वाले ने अंग्रेजी समझने को मना कर दिया तो उसकी भाषा में बोलना ही पड़ेगा । रोग का इलाज करने गये और वैद्य ने अंग्रेजी समझने को मना कर दिया तो वैद्य की भाषा में बोलना ही पड़ेगा । श्रोताओं ने कहा कि अंग्रेजी बोलोगे तो हम मत नहीं देंगे तो उनकी भाषा में ही बोलना पड़ेगा । जिस लडकी के प्रेम में पड़े उसने अंग्रेजी समझने को मना कर दिया तो उसकी भाषा में बोलना ही पड़ेगा । इस प्रकार अपनी आवश्यकता निर्माण की और फिर अंग्रेजी सुनने, समझने, बोलने को मना कर देने वालों से अंग्रेजी का भूत सहम जाता है ।

वह सहमता ही है, भागता नहीं । वह अन्य उपायों से चिपकने का प्रयास करता है । अनुनय विनय करता है, लालच देता है, आकर्षित करने का प्रयास करता है, उसे हमारी कितनी अधिक आवश्यकता है यह बताता है, कृपायाचना करता है और हमारा दिल पसीज जाता है, हम अंग्रेजी का स्वीकार कर लेते हैं और अंग्रेजी का भूत हम पर सवार हो जाता है ।

६. क्या हम ऐसी भाषा बोल सकते हैं ?

  • तुम अंग्रेजी भाषा बोलते हो ? तुम्हारे मुँह से दुर्गन्ध आ रही है, जाओ अपना मुँह साफ करके आओ, फिर मुझ से बात करो ।
  • तुम्हारे विवाह की पत्रिका अंग्रेजी में छपी है, मैं विवाह समारोह में नहीं आऊँगा । मुझे अंग्रेजी पसन्द नहीं है ।
  • मेरे साथ बात करनी है ? अंग्रेजी छोडो, मेरी नहीं तो तुम्हारी भाषा में बोलो, में समझने का प्रयास करूँगा । अंग्रेजी ही तुम्हारी भाषा है ? तो मुझे तुमसे ही बात नहीं करनी है ।
  • तुम अंग्रेजी माध्यम में पढे हो ? तो तुम्हें मेरे कार्यालय में नौकरी नहीं मिलेगी । तुम्हारे बच्चे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे हैं ? तुम्हें मेरे कार्यालय में या घर में नौकरी नहीं मिलेगी । मेरे घर के किसी भी समारोह में निमन्त्रण नहीं मिलेगा ।
  • विद्यालय द्वारा आयोजित भाषण या. निबन्ध प्रतियोगिता में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को सहभागी नहीं होने दिया जायेगा । केवल भाषण या निबन्ध प्रतियोगिता में ही क्यों किसी भी समारोह में सहभागी नहीं होने दिया जायेगा ।
  • रोटरी, जेसीझ जैसे संगठन देशी भाषा भाषी लोगोंं ने बनाने चाहिये और उसमें अंग्रेजी बोलने वाले लोगोंं को प्रतिबन्धित करना चाहिये ।

भूत को भगाने का सबसे कारगर उपाय उसकी उपेक्षा करना है । उपेक्षा के यहाँ बनाये हैं उससे अधिक अशिष्ट अनेक मार्ग हो सकते हैं । जिसे जो उचित लगे वह अपनाना चाहिये । मुद्दा यह है कि स्वाभिमान मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यक्त होना चाहिये, बौद्धिक से काम नहीं चलेगा ।

वस्तुस्थिति यह है कि जिस दिन अमेरिका को पता चल जायेगा कि भारत के लोग अंग्रेजी बोलना नहीं चाहते, अपनी ही भाषा बोलने का आग्रह रखते हैं उसी दिन से अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग आरम्भ हो जायेंगे । धार्मिक भाषा के शत्रु और अंग्रेजी से मोहित धार्मिक ही हैं, और कोई नहीं यह समझ लेने की आवश्यकता है ।

सज्जन, बुद्धिमान, समाजाभिमुख लोगोंं को इतना कठोर होना अच्छा नहीं लगता । वे इस प्रकार के उपायों को अपनाने को सिद्ध भी नहीं होते और उन्हें मान्यता भी नहीं देते । इसलिये भूत अधिक प्रभावी बनता है । ऐसे सज्जनों के समक्ष कठोर उपाय करने वाले हार जाते हैं और भूत मुस्कुराता है परन्तु सज्जन अपनी सज्जनता छोड़ते ही नहीं । यह अंग्रेजी को परास्त करने के रास्ते में बडा अवरोध है |

“हमें अंग्रेजी से विरोध नहीं है, अंग्रेजीपन से विरोध है' ऐसा कहनेवाला एक बहुत बडा वर्ग है । यह वर्ग अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय चलने का विरोध करता है परन्तु मातृभाषा माध्यम के विद्यालयों में अच्छी अंग्रेजी पढ़ाने का आग्रह करता हैं। इस तर्क में दम है ऐसा लगता है परन्तु यह आभासी तर्क है । इसके चलते इस वर्ग को न अंग्रेजी आती है न वे अंग्रेजी को छोड सकते हैं । भूत ताक में रहता है । ऐसे विद्यालय या तो अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में परिवर्तित हो जाते हैं या तो इनमें प्रवेश की संख्या कम हो जाती है। और उसकी अआप्रतिष्ठा हो जाती है । न ये अंग्रेजी अपना सकते हैं न विद्यालय को बचा सकते हैं। ये न इधर के रहते हैं न उधर के । तथापि अंग्रेजी का विरोध करने वालों को अन्तिमवादी कहकर उनका मनोबल गिराते रहते हैं ।

७. जिनको लगता है कि ज्ञानविज्ञान की, कानून और कोपोरेट की, तन्त्रज्ञान और मेनेजमेन्ट की भाषा अंग्रेजी है और इन क्षेत्रों में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी है तो अंग्रेजी अनिवार्य है उन लोगोंं को सावधान होने की आवश्यकता है । और इनसे भी सावधान होने की आवश्यकता है । इन मार्गों से अंग्रेजीयत हमारे ज्ञानक्षेत्र को, समाऊक्षेत्र को, अर्थक्षेत्र को ग्रस्त कर रही है। हम ज्ञानक्षेत्र को धार्मिक बनाना चाहते हैं तो इन क्षेत्रों को भी तो धार्मिक बनाना पड़ेगा । क्या हमें अभी भी समझना बाकी है कि कोपोरेट क्षेत्र ने देश के अर्थतन्त्र को, विश्वविद्यालयों ने देश के ज्ञानक्षेत्र को और मनेनेजमेन्ट क्षेत्र ने मनुष्य को संसाधन बनाकर सांस्कृतिक क्षेत्र को तहसनहस कर दिया है ? इन क्षेत्रों में अंग्रेजी की प्रतिष्ठा है । बडी बडी यन्त्रस्चना ने मनुष्यों को मजदूर बना दिया, पर्यावरण का नाश कर दिया, उस तन्त्रविज्ञान के लिये हम अंग्रेजी का ज्ञान चाहते हैं । अर्थात्‌ राक्षसों की दुनिया में प्रवेश करने के लिये हम उनकी भाषा चाहते हैं । हम बहाना बनाते हैं कि हम उनके ही शख्र से उन्हें समझाकर, उन्हें जीत कर अपना बना लेंगे । उन्हें जीतकर उन्हें अपना लेने का उद्देश्य तो ठीक है क्योंकि वे अपने हैं, परन्तु उन्हें जीतने का मार्ग ठीक नहीं है यह इतने वर्षों के अनुभव ने सिद्ध कर दिया है। हम ही परास्त होते रहे हैं यह क्या वास्तविकता नहीं है ? हम कभी तो आठवीं कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाना आरम्भ करते थे । फिर पाँचवीं से आरम्भ किया, फिर तीसरी से, फिर पहली से । अब पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में पढाते हैं । अब अंग्रेजी माध्यम का आग्रह बढ़ा है । यश तो हमें आठवीं से अंग्रेजी माध्यम नहीं, अंग्रेजी भाषा प्रारम्भ करते थे तब अधिक मिल रहा था । फिर क्या हुआ ? हम किसे जीतने के लिये चले हैं? जिन्हें जीतने की बात कर रहे हैं वह दुनिया तो हमें मूर्ख और पिछडे मानती है क्योंकि हमें अंग्रेजी नहीं आती । कदाचित सज्जनता और अन्य गुर्णों के कारण से हमारा सम्मान भी करती है तब भी अंग्रेजी की बात आते ही चुप हो जाती है । हमारे साथ चर्चा करना नहीं चाहती । क्या हम यह सब जानते नहीं ? अनुभव नहीं करते ? परिस्थिति अधिकाधिक खराब होती जा रही है यह तो हम देख ही रहे हैं। अब हमें अंग्रेजी को नकारने के नये अधिक प्रभावी, अधिक सही मार्ग अपनाने की आवश्यकता है । इनमें से एक यहाँ बताया गया है यह मनोवैज्ञानिक उपाय है ।

८. जिन बातों के लिये हमें अंग्रेजी की आवश्यकता लगती है उन बातों के धार्मिक पर्याय निर्माण करना अधिक प्रभावी और अधिक सही उपाय है । सामर्थ्य के बिना विजय प्राप्त नहीं होती । क्या चिकित्साविज्ञान, तन्त्रविज्ञान, उद्योगतन्त्र, प्रबन्धन धार्मिक भाषा में नहीं सीखा जायेगा । लोग तर्क देते हैं कि इन विषयों की पुस्तकें धार्मिक भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। तो इन्हें धार्मिक भाषाओं में लिखने से कौन रोकता है ? क्‍या इतने बडे देश में ऐसे विद्वान नहीं मिलेंगे ? अवश्य मिलेंगे । फिर क्यों नहीं लिखते ? अंग्रेजी में उपलब्ध है फिर क्या आवश्यकता है ऐसा हम कहते हैं। धार्मिक भाषाओं में इन विषयों की पारिभाषिक शब्दावलि उपलब्ध नहीं है ऐसा कहते हैं । यह भी मिथ्या तर्क है क्योंकि शब्दावलि रची जा सकती है । धार्मिक भाषाओं की शब्दावलि अतिशय जटिल और कठिन होती है ऐसा कहते हैं । ऐसा कैसे हो सकता है ? यह तो परिचय का प्रश्न है । परिचय बढ़ता जायेगा तो वह सरल और सहज होती जायेगी । हम अनुवाद भी तो कर सकते हैं ।

बात तो यह है कि जिस वर्ग के साथ हम अंग्रेजी में संवाद करना चाहते हैं वह वर्ग अंग्रेजी व्यवस्था तन्त्र और अंग्रेजी जीवनदृष्टि में फसा हुआ है। उस व्यवस्थातन्त्र से उन्हें मुक्त करने का मार्ग उनके साथ अंग्रेजी में संवाद करने का नहीं है, सम्पूर्ण ज्ञानक्षेत्र का धार्मिक विकल्प प्रस्थापित करने का है ।

इस दृष्टि से देखेंगे तो अंग्रेजी का प्रश्न गौण है, शिक्षा का. महत्त्वपूर्ण है। उसी प्रकार से अर्थव्यवस्था और जीवनशैली बदलने का है ।

अतः हम जीवनव्यवस्था और जीवनशैली, पद्धति और प्रक्रिया, जीवनदृष्टि को धार्मिक बनाने का प्रयास करेंगे तभी हम अंग्रेजी के प्रश्न को ठीक से हल कर पायेंगे, किंबहुना तब अंग्रेजी का प्रश्न ही नहीं रहेगा । अंग्रेजी से पैसा, प्रतिष्ठा, संस्कार या ज्ञान नहीं मिलेंगे तो अंग्रेजी की आवश्यकता किसे रहेगी ?

९. एक ओर तो जीवन व्यवस्थाओं को बदलने का प्रयास करना, दूसरी और अंग्रेजी माध्यम को रोकने का जितना हो सके उतना प्रयास जारी रखना चाहिये । अंग्रेजी के प्रश्न को पूर्ण रूप से छोड़ना नहीं चाहिये परन्तु सौ प्रतिशत शक्ति लगाना भी नहीं चाहिये । मूल बातों की ओर अधिक ध्यान देना चाहिये । एक बात और समझ लेनी चाहिये ।

१०. अंग्रेजी जानने वालों और नहीं जानने वालों की संख्या का अनुपात दस और नब्बे प्रतिशत है। अधिक से अधिक बीस और अस्सी प्रतिशत है । विडम्बना यह है कि ये बीस प्रतिशत लोग ज्ञानक्षेत्र और अन्नक्षेत्र पर पकड जमाये हुए हैं और देश को चलाते हैं । अस्सी प्रतिशत लोग इनके जैसा बनना चाहते हैं परन्तु बन नहींपाते । उनके जैसा बनने में एक दृयनीय प्रयास अंग्रेजी माध्यम में पढने का है । यह प्रास्भ से ही अंग्रेजों की चाल रही है। वे समाज के एक वर्ग को अंग्रेजी और अंग्रेजीयत का ज्ञान देकर उनके और भारत के सामान्य जन के मध्य एक सम्पर्क क्षेत्र बनाना चाहते थे। वह सम्पर्क क्षेत्र अब अधिकारी क्षेत्र बन गया है। ये बीस प्रतिशत अंग्रेजी ही नहीं अंग्रेजीयत को भी अपना चुके हैं। अब हमारे सामने प्रश्न है इन अस्सी प्रतिशत सामान्य जन के साथ खड़ा होकर उन्हें देश चलाने के लिये सक्षम बनाना या बीस प्रतिशत देश चलाने वालों को धार्मिक बनाकर उन्हें देश चलाने देना। कदाचित अस्सी प्रतिशत को सक्षम बनाना कुल मिलाकर सरल होगा। बीस प्रतिशत को अस्सी प्रतिशत के साथ मिलाना अधिक उचित होगा।

किसी भी स्थिति में धार्मिकता के पक्ष में जो लोग काम करते हैं उन्हें अधिक समर्थ बनना होगा। सामर्थ्य के बिना प्रभाव निर्माण नहीं होगा और बिना प्रभाव के किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना सम्भव नहीं।

११. ज्ञानक्षेत्र को और अर्थक्षेत्र को केवल धार्मिक भाषा में प्रस्तुत करना पर्याप्त नहीं है, धार्मिक दृष्टि और पद्धति से पर्याय देना अधिक आवश्यक है। उदाहरण के लिये बडे यन्त्रों वाला कारखाना धार्मिक अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं सकता । दूध की डेअरी धार्मिक अर्थव्यवस्था में बैठ ही नहीं सकती, फिर डेअरी उद्योग और डेअरी विज्ञान की बात ही कहाँ रहेगी ? प्लास्टिक उद्योग सांस्कृतिक क्षेत्र और अर्थक्षेत्र दोनों में निषिद्ध है। मिक्सर, ग्राइण्डर, माइक्रोवेव को आहार और आरोग्य शास्त्र अमान्य करता है, फिर इनके कारखाने और इनको बनाने की विद्या कैसे चलेगी ? मैनेजमेण्ट के वर्तमान को मानवधर्मशास्त्र अमान्य करता है, या तो उन्हें धार्मिक बनना होगा या तो बन्द करना होगा । हममें धार्मिक पर्याय बनाने का सामर्थ्य होना चाहिये।

अंग्रेजी के प्रश्न का दायरा बहुत व्यापक है। विचार उस दायरे का करना होगा।

References

धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे