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# लगभग सबका यह मत था कि संचालक मंडल को छोड़कर शेष सबका अर्थात्‌ छात्र, शिक्षक, प्रधानाचार्य और सेवक का गणवेश होना चाहिए ।
 
# लगभग सबका यह मत था कि संचालक मंडल को छोड़कर शेष सबका अर्थात्‌ छात्र, शिक्षक, प्रधानाचार्य और सेवक का गणवेश होना चाहिए ।
 
# गणवेश के अन्तर्गत पदवेश, आभूषण, केश विन्यास आदि के बारे में किसी ने भी अपना मत नहीं रखा ।
 
# गणवेश के अन्तर्गत पदवेश, आभूषण, केश विन्यास आदि के बारे में किसी ने भी अपना मत नहीं रखा ।
इन लोगोंं के अलावा समाज के अन्य लोगोंं के साथ गणवेश के सम्बन्ध में जानने का प्रयास किया, जिसमें कुछ नये सुझाव प्राप्त हुए । शिशुकक्षाओं के बच्चों को गणवेश के बन्धन में नहीं बाँधना चाहिए । उन्हें उनकी पसन्द के रंग-बिरंगे कपड़े, फ्रॉंक व निकर कमीज पहनने देना चाहिए । कुछ का मत यह भी था कि ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालय में वहाँ का पारम्परिक वेश भी रहे तो अच्छा संस्कार होगा।
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इन लोगोंं के अलावा समाज के अन्य लोगोंं के साथ गणवेश के सम्बन्ध में जानने का प्रयास किया, जिसमें कुछ नये सुझाव प्राप्त हुए । शिशुकक्षाओं के बच्चोंं को गणवेश के बन्धन में नहीं बाँधना चाहिए । उन्हें उनकी पसन्द के रंग-बिरंगे कपड़े, फ्रॉंक व निकर कमीज पहनने देना चाहिए । कुछ का मत यह भी था कि ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालय में वहाँ का पारम्परिक वेश भी रहे तो अच्छा संस्कार होगा।
    
==== अभिमत ====
 
==== अभिमत ====
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अतः गणवेश का प्रयोग उसकी मूल भावना को स्वीकार करके करना चाहिये ।
 
अतः गणवेश का प्रयोग उसकी मूल भावना को स्वीकार करके करना चाहिये ।
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गणवेश में केवल वस्त्र का ही समावेश नहीं होता, पदवेश अर्थात्‌ जूते और केशभूषा का भी होता है । कैशभूषा भी संयमित होनी चाहिये । अतिरिक्त अलंकार नहीं होने चाहिये । जूते कपडे अथवा चमडे के ही होने चाहिये, रबर प्लास्टिक के कदापि नहीं ।
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गणवेश में केवल वस्त्र का ही समावेश नहीं होता, पदवेश अर्थात्‌ जूते और केशभूषा का भी होता है । कैशभूषा भी संयमित होनी चाहिये । अतिरिक्त अलंकार नहीं होने चाहिये । जूते कपड़े अथवा चमडे के ही होने चाहिये, रबर प्लास्टिक के कदापि नहीं ।
    
महाविद्यालय में पहुँचकर विद्यार्थी गणवेश से मुक्त होने का अनुभव करते हैं । माध्यमिक विद्यालय के अन्तिम वर्ष में कब गणवेश से मुक्ति मिले इसकी प्रतीक्षा करते हैं । इसका अर्थ यह है कि गणवेश को शिक्षकों और विद्यार्थियों ने सत्कार पूर्वक स्वीकार नहीं किया है, बन्धन की तरह, बोझ की तरह ही स्वीकार किया है । इस मनः स्थिति को तो आपग्रहपूर्वक बदलना चाहिये ।
 
महाविद्यालय में पहुँचकर विद्यार्थी गणवेश से मुक्त होने का अनुभव करते हैं । माध्यमिक विद्यालय के अन्तिम वर्ष में कब गणवेश से मुक्ति मिले इसकी प्रतीक्षा करते हैं । इसका अर्थ यह है कि गणवेश को शिक्षकों और विद्यार्थियों ने सत्कार पूर्वक स्वीकार नहीं किया है, बन्धन की तरह, बोझ की तरह ही स्वीकार किया है । इस मनः स्थिति को तो आपग्रहपूर्वक बदलना चाहिये ।
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आज गणवेश को लेकर ही बडा बाजार चलता है । कहीं कहीं विद्यालय भी उस बाजार से जुड गये हैं । कहीं कहीं सबकी सुविधा के लिये विद्यालय ही गणवेश का प्रबन्ध करता है । विद्यालय सुविधा के लिये करता है तब तो ठीक है परन्तु बाजार का अंग बनता है तब उसका शैक्षिक प्रभाव कम हो जाता है । इससे बचना चाहिये ।
 
आज गणवेश को लेकर ही बडा बाजार चलता है । कहीं कहीं विद्यालय भी उस बाजार से जुड गये हैं । कहीं कहीं सबकी सुविधा के लिये विद्यालय ही गणवेश का प्रबन्ध करता है । विद्यालय सुविधा के लिये करता है तब तो ठीक है परन्तु बाजार का अंग बनता है तब उसका शैक्षिक प्रभाव कम हो जाता है । इससे बचना चाहिये ।
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गणवेश में विद्यार्थियों के पैण्ट और विद्यार्थिनियों के पायजामे कमर से नीचे के शरीर के साथ घर्षण न करते हों अर्थात्‌ तंग न हों इसका विशेष ध्यान रखना चाहिये । गणवेश के अलावा जो कपडे पहने जाते हैं उनमें भी यह ध्यान रखना चाहिये । इसका सम्बन्ध बालक बालिकाओं की जननक्षमता के साथ है ।
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गणवेश में विद्यार्थियों के पैण्ट और विद्यार्थिनियों के पायजामे कमर से नीचे के शरीर के साथ घर्षण न करते हों अर्थात्‌ तंग न हों इसका विशेष ध्यान रखना चाहिये । गणवेश के अलावा जो कपड़े पहने जाते हैं उनमें भी यह ध्यान रखना चाहिये । इसका सम्बन्ध बालक बालिकाओं की जननक्षमता के साथ है ।
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इस सन्दर्भ में एक गम्भीर समस्या की अन्यत्र की गई चर्चा का स्मरण करना उचित होगा । जननशास्त्र के शोधकर्ताओं का कहना है कि आज के युवक युवतियों की जननक्षमता का चिन्ताजनक मात्रा में क्षरण हो रहा है । इसके तीन चार कारणों में से एक कारण है कमर के नीचे के तंग कपडे और मोटरसाइकिल की सवारी । इसका उपाय वस्त्रों का स्वरूप बदलना ही है । इसी कारण से हमारी परम्परा में पुरुषों के लिये धोती अथवा खुले पायजामे और खियों के लिये घाघरे, स्कर्ट और साडी का प्रचलन था । अन्य कई बातों की तरह हमने कपडों के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिक पद्धति से विचार करना छोड दिया है ।
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इस सन्दर्भ में एक गम्भीर समस्या की अन्यत्र की गई चर्चा का स्मरण करना उचित होगा । जननशास्त्र के शोधकर्ताओं का कहना है कि आज के युवक युवतियों की जननक्षमता का चिन्ताजनक मात्रा में क्षरण हो रहा है । इसके तीन चार कारणों में से एक कारण है कमर के नीचे के तंग कपड़े और मोटरसाइकिल की सवारी । इसका उपाय वस्त्रों का स्वरूप बदलना ही है । इसी कारण से हमारी परम्परा में पुरुषों के लिये धोती अथवा खुले पायजामे और खियों के लिये घाघरे, स्कर्ट और साडी का प्रचलन था । अन्य कई बातों की तरह हमने कपडों के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिक पद्धति से विचार करना छोड दिया है ।
    
=== विद्यालय की बैठक व्यवस्था ===
 
=== विद्यालय की बैठक व्यवस्था ===
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===== आसन पर बैठना =====
 
===== आसन पर बैठना =====
दूसरा छात्रों की आयु व उनके शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से नीचे बैठने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। फिर भी डेस्क व बैंच या टेबल-कुर्सी की अनिवार्यता बना देना किसी भी प्रकार से शास्त्र सम्मत नहीं है । फिर भी सर्वदर इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है। हमारे यहाँ तो नीचे भूमि पर मोटा आसन बिछाकर उस पर बैठना और सामने ढालिया (छोटी डेस्क) रखा होना, आदर्श व्यवस्था मानी जाती है । टेबल कुर्सी पर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा अधोगामी होकर पैरों के द्वारा पृथ्वी में चली जाती है। जबकि नीचे पद्मासन या सुखासन में मेरू दण्ड को सीधा रखकर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा उर्ध्वमुखी होकर मस्तिष्क में जाती है । आसन लगाकर बैठने से दोनों पाँवों में बन्ध लग जाता है, अतः ऊर्जा अधोगामी नहीं हो पाती । पीठ सीधी रखकर बैठने से एकाग्रता आती है व ग्रहणशीलता बढती है । मस्तिष्क को ऊर्जा मिलते रहने से अधिक समयतक पढ़ा जाता है।
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दूसरा छात्रों की आयु व उनके शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से नीचे बैठने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। तथापि डेस्क व बैंच या टेबल-कुर्सी की अनिवार्यता बना देना किसी भी प्रकार से शास्त्र सम्मत नहीं है । तथापि सर्वदर इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है। हमारे यहाँ तो नीचे भूमि पर मोटा आसन बिछाकर उस पर बैठना और सामने ढालिया (छोटी डेस्क) रखा होना, आदर्श व्यवस्था मानी जाती है । टेबल कुर्सी पर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा अधोगामी होकर पैरों के द्वारा पृथ्वी में चली जाती है। जबकि नीचे पद्मासन या सुखासन में मेरू दण्ड को सीधा रखकर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा उर्ध्वमुखी होकर मस्तिष्क में जाती है । आसन लगाकर बैठने से दोनों पाँवों में बन्ध लग जाता है, अतः ऊर्जा अधोगामी नहीं हो पाती । पीठ सीधी रखकर बैठने से एकाग्रता आती है व ग्रहणशीलता बढती है । मस्तिष्क को ऊर्जा मिलते रहने से अधिक समयतक पढ़ा जाता है।
    
वटवृक्ष के नीचे उच्चासन में गुरु बैठे हैं, उनके सामने नीचे भूमि पर सुखासन में मेरुदण्ड को सीधा रखकर सभी शिष्य बैठे हुए हैं । यह मात्र गुरुकुल का चित्र नहीं है, अपितु ज्ञानार्जन के लिए बैठने की आदर्श व्यवस्था का चित्र है । जो आज भी विद्यालयों में सम्भव है। परन्तु आज के विद्यालयों का चित्र तो भिन्न है । धनदाता अभिभावकों के बालक तो टेबलकुर्सी पर आराम से बैठे हुए और ज्ञानदाता शिक्षक अनिवार्यतः खड़े खड़े पढ़ा रहे है ऐसा चित्र दिखाई देता है । इस व्यवस्था के मूल में पाश्चात्य विचार है । गुरु का खड़े रहना और शिष्यों का बैठे रहना उचित नहीं हैं । गुरु छात्रों से ज्ञान में, आयु में, अनुभव में बड़े हैं, श्रेष्ठ हैं अतः उन्हें उच्चासन पर बैठना और शिष्यों को उनके चरणों में बैठकर ज्ञानार्जन करना यह धार्मिक विचार है ।
 
वटवृक्ष के नीचे उच्चासन में गुरु बैठे हैं, उनके सामने नीचे भूमि पर सुखासन में मेरुदण्ड को सीधा रखकर सभी शिष्य बैठे हुए हैं । यह मात्र गुरुकुल का चित्र नहीं है, अपितु ज्ञानार्जन के लिए बैठने की आदर्श व्यवस्था का चित्र है । जो आज भी विद्यालयों में सम्भव है। परन्तु आज के विद्यालयों का चित्र तो भिन्न है । धनदाता अभिभावकों के बालक तो टेबलकुर्सी पर आराम से बैठे हुए और ज्ञानदाता शिक्षक अनिवार्यतः खड़े खड़े पढ़ा रहे है ऐसा चित्र दिखाई देता है । इस व्यवस्था के मूल में पाश्चात्य विचार है । गुरु का खड़े रहना और शिष्यों का बैठे रहना उचित नहीं हैं । गुरु छात्रों से ज्ञान में, आयु में, अनुभव में बड़े हैं, श्रेष्ठ हैं अतः उन्हें उच्चासन पर बैठना और शिष्यों को उनके चरणों में बैठकर ज्ञानार्जन करना यह धार्मिक विचार है ।
    
===== विषयानुसार कक्ष व्यवस्था =====
 
===== विषयानुसार कक्ष व्यवस्था =====
दूसरा, धार्मिक व्यवस्था में विषयानुसार अलग अलग व्यवस्था करना भी सुगम रहता है । कक्षा कक्ष की स्वच्छता भी आसानी हो जाती है, जबकि डेस्क बैंच या टेबल कुर्सी की व्यवस्था में अच्छी सफाई नहीं हो पाती । धार्मिक बैठक व्यवस्था केवल कक्षा कक्षों में ही नहीं वरन शिक्षक कक्ष, प्रधानाध्यापक कक्ष, कार्यालय, पुस्तकालय आदि सबमें भी उतनी ही उपयोगी व सम्भव है । बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें वृद्धावस्था के कारण अथवा शारीरिक अस्वस्थता के कारण नीचे बैठने में कष्ट होता है, उनके लिए कुर्सी का उपयोग करना चाहिए । परन्तु बच्चों के लिए व स्वस्थ तथा सक्षम व्यक्तियों के लिए भी टेबल कुर्सी की बाध्यता करना तो उनके शरीरका लोच कम करके उन्हें पंगु बनाने का उपक्रम ही सिद्ध हो रहा है । अतः हर दृष्टि से धार्मिक बैठक व्यवस्था अधिक श्रेष्ठ व वैज्ञानिक भी है |
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दूसरा, धार्मिक व्यवस्था में विषयानुसार अलग अलग व्यवस्था करना भी सुगम रहता है । कक्षा कक्ष की स्वच्छता भी आसानी हो जाती है, जबकि डेस्क बैंच या टेबल कुर्सी की व्यवस्था में अच्छी सफाई नहीं हो पाती । धार्मिक बैठक व्यवस्था केवल कक्षा कक्षों में ही नहीं वरन शिक्षक कक्ष, प्रधानाध्यापक कक्ष, कार्यालय, पुस्तकालय आदि सबमें भी उतनी ही उपयोगी व सम्भव है । बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें वृद्धावस्था के कारण अथवा शारीरिक अस्वस्थता के कारण नीचे बैठने में कष्ट होता है, उनके लिए कुर्सी का उपयोग करना चाहिए । परन्तु बच्चोंं के लिए व स्वस्थ तथा सक्षम व्यक्तियों के लिए भी टेबल कुर्सी की बाध्यता करना तो उनके शरीरका लोच कम करके उन्हें पंगु बनाने का उपक्रम ही सिद्ध हो रहा है । अतः हर दृष्टि से धार्मिक बैठक व्यवस्था अधिक श्रेष्ठ व वैज्ञानिक भी है |
    
===== बैठक की लेक्चर थियेटर व्यवस्था =====
 
===== बैठक की लेक्चर थियेटर व्यवस्था =====
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===== पैसों से सम्बन्ध जोड़ना =====
 
===== पैसों से सम्बन्ध जोड़ना =====
यह लोग नीचे बैठने की और कुर्सी पर बैठने की व्यवस्था का संबंध पैसे से जोड़ते हैं । उनका मानना होता है कि यदि विद्यालय गरीब है तो नीचे बैठने की व्यवस्था करेगा और यदि पैसा है तो मेज - कुर्सी - बेंच आदि सब की व्यवस्था करेगा। उनका ऐसा भी मानना है कि छोटी कक्षाओं के लिए तो नीचे बैठने की व्यवस्था चल सकती है। वह कोई बहुत गंभीर मामला नहीं है। परंतु बड़ी कक्षाओं के लिए गंभीर अध्ययन होता है अतः नीचे बैठने की व्यवस्था असुविधाजनक है। ऐसी व्यवस्था में उन्हें गरिमा नहीं लगती । परंतु यह धारणा पूर्ण रूप से अवैज्ञानिक है । शरीर विज्ञान की दृष्टि से और मनोविज्ञान की दृष्टि से नीचे बैठने की व्यवस्था उत्तम है । हमने अनेक प्राचीन चित्रों में देखा है कि बड़े बड़े विद्यापीठ में अध्ययन अध्यापन नीचे बैठकर ही होता था । गरीब थे अतः ऐसा करते थे, फर्नीचर बनाने की कुशलता नहीं अतः ऐसा करते थे ऐसा नहीं है । पर्याप्त रूप से प्रगत थे वे उत्तम प्रकार की कारीगरी जानने वाले थे, वे पर्याप्त मात्रा में धनवान भी थे। फिर भी वहाँ टेबल, कुर्सी, डेस्क, बेंच आदि नहीं थे क्योंकि वे हम से ज्यादा वैज्ञानिक थे । आवश्यक सुविधाएँ बना लेते थे और अनावश्यक वस्तुओं में प्रतिष्ठा नहीं देखते थे। उनके मन और मस्तिष्क पूर्वग्रहों से मुक्त थे । आज हम अनेक प्रकार के पूर्वाग्रहों से भ्रष्ट होकर अनेक प्रकार की सुविधाएँ बनाते हैं और जो करना चाहिए उससे उल्टा करते हैं ।  
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यह लोग नीचे बैठने की और कुर्सी पर बैठने की व्यवस्था का संबंध पैसे से जोड़ते हैं । उनका मानना होता है कि यदि विद्यालय गरीब है तो नीचे बैठने की व्यवस्था करेगा और यदि पैसा है तो मेज - कुर्सी - बेंच आदि सब की व्यवस्था करेगा। उनका ऐसा भी मानना है कि छोटी कक्षाओं के लिए तो नीचे बैठने की व्यवस्था चल सकती है। वह कोई बहुत गंभीर मामला नहीं है। परंतु बड़ी कक्षाओं के लिए गंभीर अध्ययन होता है अतः नीचे बैठने की व्यवस्था असुविधाजनक है। ऐसी व्यवस्था में उन्हें गरिमा नहीं लगती । परंतु यह धारणा पूर्ण रूप से अवैज्ञानिक है । शरीर विज्ञान की दृष्टि से और मनोविज्ञान की दृष्टि से नीचे बैठने की व्यवस्था उत्तम है । हमने अनेक प्राचीन चित्रों में देखा है कि बड़े बड़े विद्यापीठ में अध्ययन अध्यापन नीचे बैठकर ही होता था । गरीब थे अतः ऐसा करते थे, फर्नीचर बनाने की कुशलता नहीं अतः ऐसा करते थे ऐसा नहीं है । पर्याप्त रूप से प्रगत थे वे उत्तम प्रकार की कारीगरी जानने वाले थे, वे पर्याप्त मात्रा में धनवान भी थे। तथापि वहाँ टेबल, कुर्सी, डेस्क, बेंच आदि नहीं थे क्योंकि वे हम से ज्यादा वैज्ञानिक थे । आवश्यक सुविधाएँ बना लेते थे और अनावश्यक वस्तुओं में प्रतिष्ठा नहीं देखते थे। उनके मन और मस्तिष्क पूर्वग्रहों से मुक्त थे । आज हम अनेक प्रकार के पूर्वाग्रहों से भ्रष्ट होकर अनेक प्रकार की सुविधाएँ बनाते हैं और जो करना चाहिए उससे उल्टा करते हैं ।  
    
===== भिन्न-भिन्न रचनाएँ =====
 
===== भिन्न-भिन्न रचनाएँ =====
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सामने जो छात्र बैठे हैं उनकी बैठक व्यवस्था की रचना अध्ययन के स्वरूप के अनुसार भिन्न भिन्न हो सकती है । सर्वसामान्य रचना तती प्रतति में आयताकार बैठने की है। खड़ी पंक्ति को तति कहते हैं और पड़ी प्रतती कहते है।  
 
सामने जो छात्र बैठे हैं उनकी बैठक व्यवस्था की रचना अध्ययन के स्वरूप के अनुसार भिन्न भिन्न हो सकती है । सर्वसामान्य रचना तती प्रतति में आयताकार बैठने की है। खड़ी पंक्ति को तति कहते हैं और पड़ी प्रतती कहते है।  
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छात्रों की कुल संख्या के अनुसार तति और प्रतति संख्या बनती है । तति में प्रतति से अधिक संख्या होना स्वाभाविक है फिर भी कक्षा की आकृति और स्थान के अनुसार प्रतति में अधिक और तति ने कम संख्या बिठाई जा सकती है। उदाहरण के लिए कक्षा में यदि ३० छात्रों की संख्या है तो ६ तति और ५ प्रतति बनेंगे । ३५ संख्या है तो पांच तति और सात प्रतति बनेंगे । तति में और प्रतति में बैठे हुए छात्र एक दूसरे से समानांतर बना कर बैठते हैं तो अपने आप सुंदरता और अनशासन का वातावरण बनता है । अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोगोंं की मानसिकता पर भी इसका परिणाम होता है । यदि योगाभ्यास करना है तो यह रचना बदलेगी या बदल सकती है। प्रथम प्रतति में यदि ५ बैठे है तो दूसरी में चार बैठेंगे और आगे वाले दो के मध्य में एक छात्र बैठेगा । उदाहरण के लिए प्रथम प्रतति में ६ बैठे हैं तो दूसरी में ५ बैठेंगे तीसरी में ६ बैठेंगे चौथी में पाँच । ) इस प्रकार से क्रमशः रचना होगी । इससे इस जगह में अधिक लोग बैठकर योग अभ्यास कर सकते हैं । यदि संगीत का अभ्यास करना है तो अध्यापक के सामने अर्ध मंडल में बैठना सुरुचि पूर्ण और सुविधाजनक लगता है । इसमें भी प्रततियाँ दो के मध्य में एक ऐसी बन सकती है । यदि कहानी सुनना है तो किसी भी प्रकार के अनुशासन वाली रचना नहीं होने से भी असुविधा नहीं होती । यदि बैठक के रूप में चर्चा करना है तो अर्धमंडल में बैठना या मंडल में बैठना सुविधाजनक रहता है क्योंकि इस स्थिति में सभी एक दूसरे के मुँह देख सकते हैं और एक दूसरे से संवाद कर सकते हैं । आजकल अनेक कॉन्फ्रेंसीस में इस प्रकार की रचना देखी जा सकती है । इस प्रकार उद्देश्य के अनुसार विभिन्न प्रकार की व्यवस्था की जा सकती है।
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छात्रों की कुल संख्या के अनुसार तति और प्रतति संख्या बनती है । तति में प्रतति से अधिक संख्या होना स्वाभाविक है तथापि कक्षा की आकृति और स्थान के अनुसार प्रतति में अधिक और तति ने कम संख्या बिठाई जा सकती है। उदाहरण के लिए कक्षा में यदि ३० छात्रों की संख्या है तो ६ तति और ५ प्रतति बनेंगे । ३५ संख्या है तो पांच तति और सात प्रतति बनेंगे । तति में और प्रतति में बैठे हुए छात्र एक दूसरे से समानांतर बना कर बैठते हैं तो अपने आप सुंदरता और अनशासन का वातावरण बनता है । अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोगोंं की मानसिकता पर भी इसका परिणाम होता है । यदि योगाभ्यास करना है तो यह रचना बदलेगी या बदल सकती है। प्रथम प्रतति में यदि ५ बैठे है तो दूसरी में चार बैठेंगे और आगे वाले दो के मध्य में एक छात्र बैठेगा । उदाहरण के लिए प्रथम प्रतति में ६ बैठे हैं तो दूसरी में ५ बैठेंगे तीसरी में ६ बैठेंगे चौथी में पाँच । ) इस प्रकार से क्रमशः रचना होगी । इससे इस जगह में अधिक लोग बैठकर योग अभ्यास कर सकते हैं । यदि संगीत का अभ्यास करना है तो अध्यापक के सामने अर्ध मंडल में बैठना सुरुचि पूर्ण और सुविधाजनक लगता है । इसमें भी प्रततियाँ दो के मध्य में एक ऐसी बन सकती है । यदि कहानी सुनना है तो किसी भी प्रकार के अनुशासन वाली रचना नहीं होने से भी असुविधा नहीं होती । यदि बैठक के रूप में चर्चा करना है तो अर्धमंडल में बैठना या मंडल में बैठना सुविधाजनक रहता है क्योंकि इस स्थिति में सभी एक दूसरे के मुँह देख सकते हैं और एक दूसरे से संवाद कर सकते हैं । आजकल अनेक कॉन्फ्रेंसीस में इस प्रकार की रचना देखी जा सकती है । इस प्रकार उद्देश्य के अनुसार विभिन्न प्रकार की व्यवस्था की जा सकती है।
    
=== विद्यालय में पर्यावरण सुरक्षा ===
 
=== विद्यालय में पर्यावरण सुरक्षा ===
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## अशिक्षित अभिभावक
 
## अशिक्षित अभिभावक
 
## अंग्रेजी माध्यम
 
## अंग्रेजी माध्यम
## बच्चों के विकास के संबंध में अभिभावकों की बढती हुई प्रतिस्पर्धा
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## बच्चोंं के विकास के संबंध में अभिभावकों की बढती हुई प्रतिस्पर्धा
 
## अक्षम अध्यापन
 
## अक्षम अध्यापन
 
## बालकों को कहीं ना कहीं बाँधकर रखने की अभिभावक की प्रवृत्ति
 
## बालकों को कहीं ना कहीं बाँधकर रखने की अभिभावक की प्रवृत्ति
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==== अभिमत : ====
 
==== अभिमत : ====
अध्यापकों की कमजोरी और अभिभावकों की गलत सोच का परिणाम ट्यूशन की अनिवार्यता है । ट्यूशन में जाना यह गौरव की नहीं अपितु लज्जा की बात है यह विचार जाग्रत करना पडेगा । पढाई में जो छात्र कमजोर हैं उन्हें ज्यादा ध्यान से पढाना शिक्षक का कर्तव्य है । समाज में जो ज्ञानी वृद्ध जन हैं वे यह काम कर सकते हैं। बाकी अन्य बालकों में स्वयं अध्ययन का कौशल निर्माण करें । अनिष्ट एवं गलत बातों को सोच समझकर पूर्णविराम देना ही चाहिये ।
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अध्यापकों की कमजोरी और अभिभावकों की गलत सोच का परिणाम ट्यूशन की अनिवार्यता है । ट्यूशन में जाना यह गौरव की नहीं अपितु लज्जा की बात है यह विचार जाग्रत करना पड़ेगा । पढाई में जो छात्र कमजोर हैं उन्हें ज्यादा ध्यान से पढाना शिक्षक का कर्तव्य है । समाज में जो ज्ञानी वृद्ध जन हैं वे यह काम कर सकते हैं। बाकी अन्य बालकों में स्वयं अध्ययन का कौशल निर्माण करें । अनिष्ट एवं गलत बातों को सोच समझकर पूर्णविराम देना ही चाहिये ।
    
=== विद्यालय में पवित्रता ===
 
=== विद्यालय में पवित्रता ===
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==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
पवित्रता यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं अनुभूति का विषय है । पवित्र क्या है और अपवित्र क्या है इसकी समझ है परन्तु उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। सात प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर सभी शिक्षकों ने विचारपूर्वक और चर्चा करके लिखे हैं, फिर भी वे अपने मतों पर दृढ हैं ऐसा लगता नहीं है।
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पवित्रता यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं अनुभूति का विषय है । पवित्र क्या है और अपवित्र क्या है इसकी समझ है परन्तु उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। सात प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर सभी शिक्षकों ने विचारपूर्वक और चर्चा करके लिखे हैं, तथापि वे अपने मतों पर दृढ हैं ऐसा लगता नहीं है।
 
# विद्यालय में पवित्रता का अर्थ बताते हुए आचार्य, प्रधानाचार्य एवं छात्र तीनों के मध्य आपसी प्रेमपूर्ण, द्वेषरहित सम्बन्ध तथा आन्तरिक एवं बाह्य शुचिता अर्थात् पवित्रता इस प्रकार का अर्थगठन कुछ लोगोंं ने किया है। विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिए ?  
 
# विद्यालय में पवित्रता का अर्थ बताते हुए आचार्य, प्रधानाचार्य एवं छात्र तीनों के मध्य आपसी प्रेमपूर्ण, द्वेषरहित सम्बन्ध तथा आन्तरिक एवं बाह्य शुचिता अर्थात् पवित्रता इस प्रकार का अर्थगठन कुछ लोगोंं ने किया है। विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिए ?  
 
# इन प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है अतः पवित्रता आवश्यक है। शैक्षिक कार्य तनाव रहित होने चाहिए, जो पवित्र वातावरण में ही सम्भव है। इस प्रकार के विभिन्न मत प्राप्त हुए ।  
 
# इन प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है अतः पवित्रता आवश्यक है। शैक्षिक कार्य तनाव रहित होने चाहिए, जो पवित्र वातावरण में ही सम्भव है। इस प्रकार के विभिन्न मत प्राप्त हुए ।  
 
# एक ने मन की शुद्धता एवं निष्कपटता, इन शब्दों में पवित्रता की मानसिकता का वर्णन किया । अन्य सभी इस प्रश्न पर मौन रहे।  
 
# एक ने मन की शुद्धता एवं निष्कपटता, इन शब्दों में पवित्रता की मानसिकता का वर्णन किया । अन्य सभी इस प्रश्न पर मौन रहे।  
# विद्यालय में पवित्रता निर्माण करने हेतु व्यवस्थाओं में, विद्यालय की वन्दना सभा के अन्तर्गत प्रार्थना, मानस की चौपाइयाँ, अष्टादश श्लोकी गीता, बोध-कथाएँ आदि का उल्लेख किया।
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# विद्यालय में पवित्रता निर्माण करने हेतु व्यवस्थाओं में, विद्यालय की वन्दना सभा के अन्तर्गत प्रार्थना, मानस की चौपाइयाँ, अष्टादश श्लोकी गीता, बोध-कथाएँँ आदि का उल्लेख किया।
 
# पवित्रता का वातावरण निर्माण होने में संस्थाचालक, प्रधानाचार्य, शिक्षक, कर्मचारी, अभिभावक तथा विद्यार्थी सबका योगदान होना चाहिए, ऐसा सबका मत था । प्रत्येक के योगदान का स्वरूप कैसा हो, इस बात में अस्पष्टता दिखाई दी।
 
# पवित्रता का वातावरण निर्माण होने में संस्थाचालक, प्रधानाचार्य, शिक्षक, कर्मचारी, अभिभावक तथा विद्यार्थी सबका योगदान होना चाहिए, ऐसा सबका मत था । प्रत्येक के योगदान का स्वरूप कैसा हो, इस बात में अस्पष्टता दिखाई दी।
 
# पवित्र वातावरण बनाने हेतु भौतिक दृष्टि से सुन्दरता व साज-सज्जा करना, मानसिक दृष्टि से मन को अच्छी प्रेरणा प्राप्त हो, आचरण की दृष्टि से सबका आपसी व्यवहार अच्छा हो, ऐसे सुझाव मिले ।  
 
# पवित्र वातावरण बनाने हेतु भौतिक दृष्टि से सुन्दरता व साज-सज्जा करना, मानसिक दृष्टि से मन को अच्छी प्रेरणा प्राप्त हो, आचरण की दृष्टि से सबका आपसी व्यवहार अच्छा हो, ऐसे सुझाव मिले ।  
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'''अभिमत :'''
 
'''अभिमत :'''
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यह प्रश्नावली सब लोगोंं को अन्तर्मुख करने वाली थी। वास्तव में धार्मिकों के रोम रोम में अच्छाई है। पवित्रता स्वभाव में तो हैं परन्तु पाश्चात्य अंधानुकरण एवं अध्ययन में कमी आने के कारण पवित्रता जैसी स्वाभाविक बात आज अव्यवहार्य हो गई है । स्वच्छता का बोलबाला इतना बढ़ गया है कि वह प्रदर्शन की वस्तु बन गई है। पर्यावरण की शुद्धि करने वाली प्रत्येक बात पवित्र है यह भरातीय मान्यता है । ॐ, वेद, ज्ञान, यज्ञ, सेवा, अन्न, गंगा, तुलसी, औषधि, गोमय, गोमाता, पंचमहाभूत, सद्भावना एवं सदाचार पवित्र हैं । विद्यालयों के सन्दर्भ में पवित्रता निर्माण करने हेतु दैनिक अग्निहोत्र, ब्रह्मनाद, सरस्वती वंदना, गीता के श्लोक, मानस की चौपाइयाँ आदि सहजता से कर सकते हैं । कक्षा में जाते समय जूते बाहर उतारना अत्यन्त सहज कार्य होना चाहिए। विद्यालय ज्ञान का केन्द्र है और ज्ञान पवित्रतम है । वास्तव में व्यवसाय और राजनीति अपने अपने स्थान पर उचित है, परन्तु उसे शिक्षा से जोडा गया तो शिक्षा अपवित्र हो जायेगी । इस बात को ध्यान में रखकर व्यवहार करेंगे तो विद्यालय की पवित्रता टिकेगी।
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यह प्रश्नावली सब लोगोंं को अन्तर्मुख करने वाली थी। वास्तव में धार्मिकों के रोम रोम में अच्छाई है। पवित्रता स्वभाव में तो हैं परन्तु पाश्चात्य अंधानुकरण एवं अध्ययन में कमी आने के कारण पवित्रता जैसी स्वाभाविक बात आज अव्यवहार्य हो गई है । स्वच्छता का बोलबाला इतना बढ़ गया है कि वह प्रदर्शन की वस्तु बन गई है। पर्यावरण की शुद्धि करने वाली प्रत्येक बात पवित्र है यह भरातीय मान्यता है । ॐ, वेद, ज्ञान, यज्ञ, सेवा, अन्न, गंगा, तुलसी, औषधि, गोमय, गोमाता, पंचमहाभूत, सद्भावना एवं सदाचार पवित्र हैं । विद्यालयों के सन्दर्भ में पवित्रता निर्माण करने हेतु दैनिक अग्निहोत्र, ब्रह्मनाद, सरस्वती वंदना, गीता के श्लोक, मानस की चौपाइयाँ आदि सहजता से कर सकते हैं । कक्षा में जाते समय जूते बाहर उतारना अत्यन्त सहज कार्य होना चाहिए। विद्यालय ज्ञान का केन्द्र है और ज्ञान पवित्रतम है । वास्तव में व्यवसाय और राजनीति अपने अपने स्थान पर उचित है, परन्तु उसे शिक्षा से जोड़ा गया तो शिक्षा अपवित्र हो जायेगी । इस बात को ध्यान में रखकर व्यवहार करेंगे तो विद्यालय की पवित्रता टिकेगी।
    
वर्तमान समय का संकट यह है कि सामान्य जनों को जो बातें बिना प्रयास से समझ में आती हैं वे विद्वज्जनों को नहीं आतीं, जो बातें अनपढ लोगोंं को ज्ञात हैं वे पढे लिखें को नहीं । ऐसी अनेक बातों में से एक बात है पवित्रता की । लोगोंं को स्वच्छता की बात तो समझ में आती है परन्तु पवित्रता की नहीं । जिस प्रकार भोजन में पौष्टिकता तो समझ में आती है सात्त्विकता नहीं उसी प्रकार से स्वच्छता और पवित्रता का है।
 
वर्तमान समय का संकट यह है कि सामान्य जनों को जो बातें बिना प्रयास से समझ में आती हैं वे विद्वज्जनों को नहीं आतीं, जो बातें अनपढ लोगोंं को ज्ञात हैं वे पढे लिखें को नहीं । ऐसी अनेक बातों में से एक बात है पवित्रता की । लोगोंं को स्वच्छता की बात तो समझ में आती है परन्तु पवित्रता की नहीं । जिस प्रकार भोजन में पौष्टिकता तो समझ में आती है सात्त्विकता नहीं उसी प्रकार से स्वच्छता और पवित्रता का है।
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==== मातापिता की शिक्षा ====
 
==== मातापिता की शिक्षा ====
अपने बच्चों की शिक्षा के सन्दर्भ में आजकल के शिक्षित मातापिताओं के मन में अनेक अवास्तविक अपेक्षाएँ, भ्रान्त धारणायें और अनावश्यक चिन्तायें और आग्रह घर कर गये हैं। इसका विपरीत परिणाम छात्रों की मानसिकता पर पड़ता है। परिणाम स्वरूप विद्यालयों को छात्र के साथ साथ उसके अभिभावक को भी अनिवार्य रूप से प्रशिक्षण देना चाहिये । वास्तव में तो स्वाभाविक मनोवृत्ति और समझदार मातापिता के बच्चों को ही अच्छी शिक्षा दी जा सकती है । ऐसे मातापिता ही अपने बच्चों का उचित पद्धति से विकास कर सकते हैं ।
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अपने बच्चोंं की शिक्षा के सन्दर्भ में आजकल के शिक्षित मातापिताओं के मन में अनेक अवास्तविक अपेक्षाएँ, भ्रान्त धारणायें और अनावश्यक चिन्तायें और आग्रह घर कर गये हैं। इसका विपरीत परिणाम छात्रों की मानसिकता पर पड़ता है। परिणाम स्वरूप विद्यालयों को छात्र के साथ साथ उसके अभिभावक को भी अनिवार्य रूप से प्रशिक्षण देना चाहिये । वास्तव में तो स्वाभाविक मनोवृत्ति और समझदार मातापिता के बच्चोंं को ही अच्छी शिक्षा दी जा सकती है । ऐसे मातापिता ही अपने बच्चोंं का उचित पद्धति से विकास कर सकते हैं ।
    
वास्तविक स्थिति तो यह है कि आज मातापिता को योग्य मातापिता बनने का मार्गदर्शन कहीं उपलब्ध नहीं है । इससे वे भी उलझन में होते हैं । अतः छात्रों के लिये पाँच दिन का विद्यालय रख कर छठे दिन अभिभावक विद्यालय चलाना चाहिए ? कोई भी समझदार अभिभावक इससे लिये असहमत नहीं होगा।
 
वास्तविक स्थिति तो यह है कि आज मातापिता को योग्य मातापिता बनने का मार्गदर्शन कहीं उपलब्ध नहीं है । इससे वे भी उलझन में होते हैं । अतः छात्रों के लिये पाँच दिन का विद्यालय रख कर छठे दिन अभिभावक विद्यालय चलाना चाहिए ? कोई भी समझदार अभिभावक इससे लिये असहमत नहीं होगा।

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