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=== विद्यालय का समय ===
 
=== विद्यालय का समय ===
<ref name=":0">भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ३), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref><ref name=":0" />'''1.कक्षा के अनुसार विद्यालय का समय कुल कितने घण्टे का होना चाहिये ?'''
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# कक्षा के अनुसार विद्यालय का समय कुल कितने घण्टे का होना चाहिये ?<ref name=":0">भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ३), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>
 
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# कुल समय दिन में कब से कब तक का होना चाहिये ?
'''2. कुल समय दिन में कब से कब तक का होना चाहिये ?'''
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# विद्यालय के समय में कालांश विभाजन किस प्रकार से करना चाहिये ?
 
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# कक्षा को ध्यान में रखते हुए विभिन्न कालांशो में विषयों का क्रम कैसे रखना चाहिये ?
'''3. विद्यालय के समय में कालांश विभाजन किस प्रकार से करना चाहिये ?'''
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# मध्यावकाश क्यों, कितने, कब और कितनी अवधि के होने चाहिये ?
 
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# ऋतु के अनुसार विद्यालय के समय एवं अवधि में किस प्रकार का परिवर्तन करना चाहिये ?
'''4. कक्षा को ध्यान में रखते हुए विभिन्न कालांशो में विषयों का क्रम कैसे रखना चाहिये ?'''
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# वर्ष भर में कितने दिन का विद्यालय होना चाहिये ?
 
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# वर्ष में छुट्टियां क्यों, कितनी, कब एवं कितनी अवधि की होनी चाहिये ?
'''5. मध्यावकाश क्यों, कितने, कब और कितनी अवधि के होने चाहिये ?'''
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# विभिन्न विषयों के अनुसार क्‍या कालांश की अवधि बदल सकते हैं ?
 
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# क्षेत्र के अनुसार समय, अवधि, अवकाश आदि में किस प्रकार का परिवर्तन हो सकता है ?
'''6. ऋतु के अनुसार विद्यालय के समय एवं अवधि में किस प्रकार का परिवर्तन करना चाहिये ?'''
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'''7. वर्ष भर में कितने दिन का विद्यालय होना चाहिये ?'''
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'''8. वर्ष में छुट्टियां क्यों, कितनी, कब एवं कितनी अवधि की होनी चाहिये ?'''
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'''9. विभिन्न विषयों के अनुसार क्‍या कालांश की अवधि बदल सकते हैं ?'''
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'''10. क्षेत्र के अनुसार समय, अवधि, अवकाश आदि में किस प्रकार का परिवर्तन हो सकता है ?'''
      
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
विद्यालय का समय कौनसा होना चाहिए, इस बात पर समाज मन क्या विचार करता है, यह जानने के लिए दस प्रश्नों के विस्तृत उत्तर राजस्थान जोधपूर से ओमप्रकाश पुरोहितने भरकर भेजी है ।
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विद्यालय का समय कौन सा होना चाहिए, इस बात पर समाज मन क्या विचार करता है, यह जानने के लिए दस प्रश्नों के विस्तृत उत्तर राजस्थान जोधपूर से ओमप्रकाश पुरोहितने भरकर भेजी है ।
    
प्रश्न १ के उत्तर में, प्राथमिक विभाग के लिये ५ घंटे माध्यमिक विभाग के एक ६ घंटे का समय उचित है और यह उत्तर अधिकांश उत्तरदाताओंने दिया है ।
 
प्रश्न १ के उत्तर में, प्राथमिक विभाग के लिये ५ घंटे माध्यमिक विभाग के एक ६ घंटे का समय उचित है और यह उत्तर अधिकांश उत्तरदाताओंने दिया है ।
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ब्रह्ममुहूरत अध्ययन के लिये उत्तम समय है यह भारतीय चिन्तन है। परन्तु इस समय विद्यालय लगाना सम्भव नहीं, अतः प्रात: ७-३० बजे का समय ज्ञानार्जन के लिए उपयुक्त होते हुए भी विद्यार्थियों को बहुत जल्दी उठना न पड़े, इसलिये प्रातः ९ बजे का समय उचित समझा गया है । दो पारी विद्यालय में दूसरी पारी मध्याह्म १२-३० बजे से चलना, ज्ञानार्जन की दृष्टि से सर्वथा अनुपयोगी समय है। ज्ञानार्जन में भोजनोपरान्त का समय सबसे अधिक बाधक माना जाता है । इस समय विद्यालय चलाने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता । इतना अवश्य समझ में आता है कि यह समय सबके लिए सुविधाजनक अवश्य है, परन्तु केवल सुविधा के लिए बाधक समय रखने में कितनी सुज्ञता है, आप ही विचार करें ।
 
ब्रह्ममुहूरत अध्ययन के लिये उत्तम समय है यह भारतीय चिन्तन है। परन्तु इस समय विद्यालय लगाना सम्भव नहीं, अतः प्रात: ७-३० बजे का समय ज्ञानार्जन के लिए उपयुक्त होते हुए भी विद्यार्थियों को बहुत जल्दी उठना न पड़े, इसलिये प्रातः ९ बजे का समय उचित समझा गया है । दो पारी विद्यालय में दूसरी पारी मध्याह्म १२-३० बजे से चलना, ज्ञानार्जन की दृष्टि से सर्वथा अनुपयोगी समय है। ज्ञानार्जन में भोजनोपरान्त का समय सबसे अधिक बाधक माना जाता है । इस समय विद्यालय चलाने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता । इतना अवश्य समझ में आता है कि यह समय सबके लिए सुविधाजनक अवश्य है, परन्तु केवल सुविधा के लिए बाधक समय रखने में कितनी सुज्ञता है, आप ही विचार करें ।
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विद्यालय में प्रत्येक रविवार को और कहीं कहीं तो शनि रवि दोनों दिन छुट्टी रहती है । इस छुट्टी का प्रयोजन क्या है ? केवल विश्रान्ति । हमारे शास्त्रों ने तो उत्तम अध्ययन के दिन, सामान्य अध्ययन के दिन एवं अनध्ययन के दिनों का गहनता से विचार किया है । प्रतिमास शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या एवं पूर्णिमा ये अनध्ययन के दिन माने गये हैं । प्रत्येक मास की दोनों अष्टमी तथा अमावस्या एवं पूर्णिमा को छुट्टी रखने से दोनों हेतु साध्य होते हैं । अध्ययन के अनुकूल दिनों में ज्ञानार्जन करना तथा अनध्ययन के दिनों में विश्राम लेना, इस सूत्र को स्वीकारना अधिक उचित प्रतीत होता है ।
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विद्यालय में प्रत्येक रविवार को और कहीं कहीं तो शनि रवि दोनों दिन छुट्टी रहती है । इस छुट्टी का प्रयोजन क्या है ? केवल विश्रान्ति। हमारे शास्त्रों ने तो उत्तम अध्ययन के दिन, सामान्य अध्ययन के दिन एवं अनध्ययन के दिनों का गहनता से विचार किया है। प्रतिमास शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या एवं पूर्णिमा ये अनध्ययन के दिन माने गये हैं । प्रत्येक मास की दोनों अष्टमी तथा अमावस्या एवं पूर्णिमा को छुट्टी रखने से दोनों हेतु साध्य होते हैं । अध्ययन के अनुकूल दिनों में ज्ञानार्जन करना तथा अनध्ययन के दिनों में विश्राम लेना, इस सूत्र को स्वीकारना अधिक उचित प्रतीत होता है ।
    
विद्यालय में ज्ञानार्जन का कार्य मुख्य तथा अन्य सब बातें गौण, इसे ध्यान में रखते हुए विद्यालय का समय निर्धारित करना ही भारतीय शिक्षा विचार है ।
 
विद्यालय में ज्ञानार्जन का कार्य मुख्य तथा अन्य सब बातें गौण, इसे ध्यान में रखते हुए विद्यालय का समय निर्धारित करना ही भारतीय शिक्षा विचार है ।
    
==== अध्ययन का समय ====
 
==== अध्ययन का समय ====
अन्य अनेक बातों की तरह अध्ययन-अध्यापन के समय में भी अव्यवस्था निर्माण हुई है । इसके कारण और परिणाम क्या हैं, यह तो हम बाद में देखेंगे परंतु प्रारंभ में उचित समय कौन सा है ? इसका ही विचार करेंगे । प्रथम हम विचार करेंगे कि दिन के २४ घंटे के समय में कौन सा समय अध्ययन करने के लिए अनुकूल है । हमारे सारे शाख्र, महात्मा और लोक परंपरा तीनों कहते हैं कि ब्राह्ममुहूर्त का समय चिंतन और मनन के लिए उपयुक्त है । सूर्योदय के पूर्व ४ घटिका ब्राह्ममुहूर्त का समय दर्शाती है । आज की काल गणना के अनुसार एक घटिका २४ मिनट की होती है । अर्थात्‌ सूर्योदय से पूर्व ९६ मिनट ब्राह्ममुहुरत  का काल है । इसके पूर्वार्ध में कंठस्थीकरण की शक्ति अधिक होती है । इसके उत्तराद्ध में चिंतन और मनन की शक्ति अधिक होती है । इसलिए जो भी बातें हमें कंठस्थ करनी है, वह ब्रह्ममुहूर्त के पूर्वार्ध में करनी चाहिए । जिस विषय को हम अच्छे से समझना चाहते हैं और जिसे हम कठिन मानते हैं उसके ऊपर ब्रह्ममुहूर्त के उत्तरार्ध में मनन और चिंतन करना चाहिए । ऐसा करने से कम समय में और कम परिश्रम से अधिक अच्छी तरह से ज्ञानार्जन होता है । यह तो हुई ब्रह्मुहूर्त की बात । परंतु सामान्य रूप से दिन में प्रात: काल ६:०० से १०:०० बजे तक और सायंकाल भी ६:०० से १०:०० बजे तक का समय अध्ययन के लिए उत्तम होता है। मध्यान्ह भोजन के बाद के दो प्रहर अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं हैं । इसका कारण बहुत सरल है, भोजन के बाद पाचन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है । उस समय यदि हम अध्ययन करेंगे तो उर्जा विभाजित हो जाएगी और न अध्ययन ठीक से होगा, न पाचन ठीक से होगा, यह तो दोनों ओर से नुकसान है, इसलिए दोनों समय भोजन के बाद अध्ययन नहीं करना चाहिए । भोजन के बाद तो शारीरिक श्रम भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से पाचन और विश्राम में उर्जा विभाजित होती है और शरीर का स्वास्थ्य खराब होता है ।
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अन्य अनेक बातों की तरह अध्ययन-अध्यापन के समय में भी अव्यवस्था निर्माण हुई है । इसके कारण और परिणाम क्या हैं, यह तो हम बाद में देखेंगे परंतु प्रारंभ में उचित समय कौन सा है ? इसका ही विचार करेंगे । प्रथम हम विचार करेंगे कि दिन के २४ घंटे के समय में कौन सा समय अध्ययन करने के लिए अनुकूल है । हमारे सारे शास्त्र, महात्मा और लोक परंपरा तीनों कहते हैं कि ब्राह्ममुहूर्त का समय चिंतन और मनन के लिए उपयुक्त है । सूर्योदय के पूर्व ४ घटिका ब्राह्ममुहूर्त का समय दर्शाती है । आज की काल गणना के अनुसार एक घटिका २४ मिनट की होती है । अर्थात्‌ सूर्योदय से पूर्व ९६ मिनट ब्राह्ममुहुरत  का काल है । इसके पूर्वार्ध में कंठस्थीकरण की शक्ति अधिक होती है । इसके उत्तराद्ध में चिंतन और मनन की शक्ति अधिक होती है । इसलिए जो भी बातें हमें कंठस्थ करनी है, वह ब्रह्ममुहूर्त के पूर्वार्ध में करनी चाहिए । जिस विषय को हम अच्छे से समझना चाहते हैं और जिसे हम कठिन मानते हैं उसके ऊपर ब्रह्ममुहूर्त के उत्तरार्ध में मनन और चिंतन करना चाहिए । ऐसा करने से कम समय में और कम परिश्रम से अधिक अच्छी तरह से ज्ञानार्जन होता है । यह तो हुई ब्रह्मुहूर्त की बात । परंतु सामान्य रूप से दिन में प्रात: काल ६:०० से १०:०० बजे तक और सायंकाल भी ६:०० से १०:०० बजे तक का समय अध्ययन के लिए उत्तम होता है। मध्यान्ह भोजन के बाद के दो प्रहर अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं हैं । इसका कारण बहुत सरल है, भोजन के बाद पाचन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है । उस समय यदि हम अध्ययन करेंगे तो उर्जा विभाजित हो जाएगी और न अध्ययन ठीक से होगा, न पाचन ठीक से होगा, यह तो दोनों ओर से नुकसान है, इसलिए दोनों समय भोजन के बाद अध्ययन नहीं करना चाहिए । भोजन के बाद तो शारीरिक श्रम भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से पाचन और विश्राम में उर्जा विभाजित होती है और शरीर का स्वास्थ्य खराब होता है ।
    
इसी प्रकार मास की अवधि के ३० दिन, तीन प्रकार से विभाजित किए जाते हैं । एक प्रकार है उत्तम अध्ययन के दिन, दूसरा है मध्यम अध्ययन के दिन और तीसरा है अनध्ययन के दिन । दोनों पक्षों की प्रतिपदा, अष्टमी और चतुर्दशी तथा पूर्णिमा और अमावस्या अन ध्ययन के दिन हैं । इन दिनों में अध्ययन करने से अध्ययन तो नहीं ही होता उल्टा नुकसान होता है । शेष २२ दिनों में आधे मध्यम अध्ययन के हैं और आधे उत्तम अध्ययन के । शुक्ल पक्ष की नवमी से त्रयोद्शी तक और कृष्ण पक्ष की द्वितीया से सप्तमी तक के दिन उत्तम अध्ययन के दिन हैं । कृष्ण पक्ष की नवमी से त्रयोदशी तक, शुक्ल पक्ष की द्वितीया से सप्तमी तक के दिन मध्यम अध्ययन के हैं । उत्तम अध्ययन के दिनों में नया विषय शुरू करना चाहिए, गंभीर विषय का अध्ययन करना चाहिए और अधिक कठिन और अटपटे विषय अध्ययन के लिए चुनना चाहिए । मध्यम अध्ययन के दिनों में पुनरावर्तन कर सकते हैं, सरल विषयों का चयन कर सकते हैं और क्रियात्मक अध्ययन भी कर सकते हैं । अध्ययन-अनध्ययन और उत्तम अध्ययन का यह विभाजन परंपरा से चला आ रहा है, यह तो हम जानते हैं । गावों में भी लोग इसे जानते हैं परंतु इस विभाजन का आधार क्या है प्रमाण क्या है ?  
 
इसी प्रकार मास की अवधि के ३० दिन, तीन प्रकार से विभाजित किए जाते हैं । एक प्रकार है उत्तम अध्ययन के दिन, दूसरा है मध्यम अध्ययन के दिन और तीसरा है अनध्ययन के दिन । दोनों पक्षों की प्रतिपदा, अष्टमी और चतुर्दशी तथा पूर्णिमा और अमावस्या अन ध्ययन के दिन हैं । इन दिनों में अध्ययन करने से अध्ययन तो नहीं ही होता उल्टा नुकसान होता है । शेष २२ दिनों में आधे मध्यम अध्ययन के हैं और आधे उत्तम अध्ययन के । शुक्ल पक्ष की नवमी से त्रयोद्शी तक और कृष्ण पक्ष की द्वितीया से सप्तमी तक के दिन उत्तम अध्ययन के दिन हैं । कृष्ण पक्ष की नवमी से त्रयोदशी तक, शुक्ल पक्ष की द्वितीया से सप्तमी तक के दिन मध्यम अध्ययन के हैं । उत्तम अध्ययन के दिनों में नया विषय शुरू करना चाहिए, गंभीर विषय का अध्ययन करना चाहिए और अधिक कठिन और अटपटे विषय अध्ययन के लिए चुनना चाहिए । मध्यम अध्ययन के दिनों में पुनरावर्तन कर सकते हैं, सरल विषयों का चयन कर सकते हैं और क्रियात्मक अध्ययन भी कर सकते हैं । अध्ययन-अनध्ययन और उत्तम अध्ययन का यह विभाजन परंपरा से चला आ रहा है, यह तो हम जानते हैं । गावों में भी लोग इसे जानते हैं परंतु इस विभाजन का आधार क्या है प्रमाण क्या है ?  
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=== मनुस्मृति में प्राप्त अनध्ययनकाल के संकेत ===
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=== मनुस्मृति में प्राप्त अध्ययनकाल के संकेत ===
 
<blockquote>निर्धघाते भूमिचलने ज्योतिषां चोपसर्जने ।</blockquote><blockquote>एतानाकलिकान्विद्यादनध्यायानृतावपि ।।</blockquote>वर्षाकाल में मेघगर्जना, भूकम्प एवं सूर्यादि ज्योतियों का उपद्रब होने पर अनध्याय रखना चाहिये ।। ४.१०५ ।।<blockquote>ग्रादुष्कृतेष्वथ्रिषु तु विद्यात्स्तनितनि:स्वने ।</blockquote><blockquote>सज्योति: स्यादनध्याय: शेषे रात्रौ यथा दिवा ॥।</blockquote>अग्रिहोत्र के अग्नि के प्रकट होने के बाद प्रातःकाल में बिजली का कौंधना और मेघों का गरजना हो तो सूर्य
 
<blockquote>निर्धघाते भूमिचलने ज्योतिषां चोपसर्जने ।</blockquote><blockquote>एतानाकलिकान्विद्यादनध्यायानृतावपि ।।</blockquote>वर्षाकाल में मेघगर्जना, भूकम्प एवं सूर्यादि ज्योतियों का उपद्रब होने पर अनध्याय रखना चाहिये ।। ४.१०५ ।।<blockquote>ग्रादुष्कृतेष्वथ्रिषु तु विद्यात्स्तनितनि:स्वने ।</blockquote><blockquote>सज्योति: स्यादनध्याय: शेषे रात्रौ यथा दिवा ॥।</blockquote>अग्रिहोत्र के अग्नि के प्रकट होने के बाद प्रातःकाल में बिजली का कौंधना और मेघों का गरजना हो तो सूर्य
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=== विद्यालय में गणवेश ===
 
=== विद्यालय में गणवेश ===
1. विद्यालय में गणवेश होना चाहिये ? क्यों ?
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# विद्यालय में गणवेश होना चाहिये ? क्यों ?
 
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# कपड़ा, रंग, पैटर्न आदि के सन्दर्भ में गणवेश कैसा होना चाहिये ?
2. कपड़ा, रंग, पैटर्न आदि के सन्दर्भ में गणवेश कैसा होना चाहिये ?
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# सप्ताह में एक से अधिक प्रकार का गणवेश क्योंह्हहोना चाहिये ?
 
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# विद्यालय में छात्र, आचार्य, प्रधानाचार्य, कार्यालय कर्मी, सहायक, व्यवस्थापक आदि विभिन्न वर्गों के व्यक्ति होते हैं। उनमें से किन किन के लिये गणवेश आवश्यक है ?
3. सप्ताह में एक से अधिक प्रकार का गणवेश क्योंह्हहोना चाहिये ?
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# गणवेश में इन बातों का समावेश हो सकता है क्या ? १. कपड़े २. पादत्राण ३. केशभूषा ४. शुंगार ५. आभूषण  
 
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# गणवेश के आर्थिक पक्ष के विषय में आपके क्या विचार हैं ?
4. विद्यालय में छात्र, आचार्य, प्रधानाचार्य, कार्यालय कर्मी, सहायक, व्यवस्थापक आदि विभिन्न वर्गों के व्यक्ति होते हैं। उनमें से किन किन के लिये गणवेश आवश्यक है ?
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5. गणवेश में इन बातों का समावेश हो सकता है क्या ?
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१. कपड़े २. पादत्राण ३. केशभूषा ४. शुंगार ५. आभूषण |
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6. गणवेश के आर्थिक पक्ष के विषय में आपके क्या विचार हैं ?
      
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
विद्यालय में गणवेश की आवश्यकता पर ऊहापोह करने वाली इस प्रश्नावली में कुल ६ प्रश्न थे । उडिसा के ३८ शिक्षकों एवं १० प्रधानाचार्यों ने ये प्रश्नावलियाँ भरकर भेजी हैं । उडिसा के विद्याभारती के कार्यकर्ता श्री मोहन पात्र के द्वारा प्राप्त हुई है ।
 
विद्यालय में गणवेश की आवश्यकता पर ऊहापोह करने वाली इस प्रश्नावली में कुल ६ प्रश्न थे । उडिसा के ३८ शिक्षकों एवं १० प्रधानाचार्यों ने ये प्रश्नावलियाँ भरकर भेजी हैं । उडिसा के विद्याभारती के कार्यकर्ता श्री मोहन पात्र के द्वारा प्राप्त हुई है ।
 
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# प्रश्न १ के उत्तर में सबने कहा है कि गणवेश केवल आवश्यक ही नहीं तो अनिवार्य है। अनिवार्यता के ये कारण बताये । धनवान और गरीब छात्रों में समानता, एकात्मभाव का निर्माण तथा गणवेश विद्यालय की पहचान का एक साधन है ।
प्रश्न १ के उत्तर में सबने कहा है कि गणवेश केवल आवश्यक ही नहीं तो अनिवार्य है। अनिवार्यता के ये कारण बताये । धनवान और गरीब छात्रों में समानता, एकात्मभाव का निर्माण तथा गणवेश विद्यालय की पहचान का एक साधन है ।
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# गणवेश के पेटर्न के सम्बन्ध में सभी मौन रहे । परन्तु कपड़े व रंग के बारे में उनका मत है कि गणवेश का कपड़ा सूती व रंग सफेद व नीला होना चाहिये ।
 
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# कुछ लोगों ने बताया कि सप्ताह में एक दिन शारीरिक शिक्षा के लिए गणवेश में बदलाव होना चाहिए ।
२. गणवेश के पेटर्न के सम्बन्ध में सभी मौन रहे । परन्तु कपड़े व रंग के बारे में उनका मत है कि गणवेश का कपड़ा सूती व रंग सफेद व नीला होना चाहिये ।
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# लगभग सबका यह मत था कि संचालक मंडल को छोड़कर शेष सबका अर्थात्‌ छात्र, शिक्षक, प्रधानाचार्य और सेवक का गणवेश होना चाहिए ।
 
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# गणवेश के अन्तर्गत पदवेश, आभूषण, केश विन्यास आदि के बारे में किसी ने भी अपना मत नहीं रखा ।
३. कुछ लोगों ने बताया कि सप्ताह में एक दिन शारीरिक शिक्षा के लिए गणवेश में बदलाव होना चाहिए ।
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इन लोगों के अलावा समाज के अन्य लोगों के साथ गणवेश के सम्बन्ध में जानने का प्रयास किया, जिसमें कुछ नये सुझाव प्राप्त हुए । शिशुकक्षाओं के बच्चों को गणवेश के बन्धन में नहीं बाँधना चाहिए । उन्हें उनकी पसन्द के रंग-बिरंगे कपड़े, फ्रॉंक व निकर कमीज पहनने देना चाहिए । कुछ का मत यह भी था कि ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालय में वहाँ का पारम्परिक वेश भी रहे तो अच्छा संस्कार होगा।
 
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४. लगभग सबका यह मत था कि संचालक मंडल को छोड़कर शेष सबका अर्थात्‌ छात्र, शिक्षक, प्रधानाचार्य और सेवक का गणवेश होना चाहिए ।
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५. गणवश के अन्तर्गत पदवेश, आभूषण, केश विन्यास आदि के बारे में किसी ने भी अपना मत नहीं रखा ।
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इन लोगों के अलावा समाज के अन्य लोगों के साथ गणवेश के सम्बन्ध में जानने का प्रयास किया, जिसमें कुछ नये सुझाव प्राप्त हुए । शिशुकक्षाओं के बच्चों को गणवेश के बन्धन में नहीं बाँधना चाहिए । उन्हें उनकी पसन्द के रंग-बिरंगे कपड़े, फ्रॉंक व निकर कमीज पहनने देना चाहिए । कुछ का मत यह भी था कि ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालय में वहाँ का पारम्परिक वेश भी रहे तो अच्छा संस्कार होगा ।
      
==== अभिमत : ====
 
==== अभिमत : ====
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गणवेश में विद्यार्थियों के पैण्ट और विद्यार्थिनियों के पायजामे कमर से नीचे के शरीर के साथ घर्षण न करते हों अर्थात्‌ तंग न हों इसका विशेष ध्यान रखना चाहिये । गणवेश के अलावा जो कपडे पहने जाते हैं उनमें भी यह ध्यान रखना चाहिये । इसका सम्बन्ध बालक बालिकाओं की जननक्षमता के साथ है ।
 
गणवेश में विद्यार्थियों के पैण्ट और विद्यार्थिनियों के पायजामे कमर से नीचे के शरीर के साथ घर्षण न करते हों अर्थात्‌ तंग न हों इसका विशेष ध्यान रखना चाहिये । गणवेश के अलावा जो कपडे पहने जाते हैं उनमें भी यह ध्यान रखना चाहिये । इसका सम्बन्ध बालक बालिकाओं की जननक्षमता के साथ है ।
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इस सन्दर्भ में एक गम्भीर समस्या की अन्यत्र की गई चर्चा का स्मरण करना उचित होगा । जननशाख्र के शोधकर्ताओं का कहना है कि आज के युवक युवतियों की जननक्षमता का चिन्ताजनक मात्रा में क्षरण हो रहा है । इसके तीन चार कारणों में से एक कारण है कमर के नीचे के तंग कपडे और मोटरसाइकिल की सवारी । इसका उपाय वस्त्रों का स्वरूप बदलना ही है । इसी कारण से हमारी परम्परा में पुरुषों के लिये धोती अथवा खुले पायजामे और खियों के लिये घाघरे, स्कर्ट और साडी का प्रचलन था । अन्य कई बातों की तरह हमने कपडों के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिक पद्धति से विचार करना छोड दिया है ।
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इस सन्दर्भ में एक गम्भीर समस्या की अन्यत्र की गई चर्चा का स्मरण करना उचित होगा । जननशास्त्र के शोधकर्ताओं का कहना है कि आज के युवक युवतियों की जननक्षमता का चिन्ताजनक मात्रा में क्षरण हो रहा है । इसके तीन चार कारणों में से एक कारण है कमर के नीचे के तंग कपडे और मोटरसाइकिल की सवारी । इसका उपाय वस्त्रों का स्वरूप बदलना ही है । इसी कारण से हमारी परम्परा में पुरुषों के लिये धोती अथवा खुले पायजामे और खियों के लिये घाघरे, स्कर्ट और साडी का प्रचलन था । अन्य कई बातों की तरह हमने कपडों के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिक पद्धति से विचार करना छोड दिया है ।
    
=== विद्यालय की बैठक व्यवस्था ===
 
=== विद्यालय की बैठक व्यवस्था ===
1. बैठक व्यवस्था में भारतीय एवं अभारतीय ऐसे भेद होते हैं क्या ? यदि होते हैं तो क्यों होते हैं ? आप किसके पक्ष में हैं ? क्यों ?
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# बैठक व्यवस्था में भारतीय एवं अभारतीय ऐसे भेद होते हैं क्या ? यदि होते हैं तो क्यों होते हैं ? आप किसके पक्ष में हैं ? क्यों ?
 
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# बैठक व्यवस्था में शास्त्रीय पद्धति से हम किस प्रकार से विचार कर सकते हैं ?
2. बैठक व्यवस्था में शास्त्रीय पद्धति से हम किस प्रकार से विचार कर सकते हैं ?
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# आर्थिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में किस प्रकार से विचार करना चाहिये ?
 
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# व्यावहारिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में विचार करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिये ?
3. आर्थिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में किस प्रकार से विचार करना चाहिये ?
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# बैठक व्यवस्था का संस्कारक्षम वातावरण निर्मिति की दृष्टि से क्या महत्त्व है ?
 
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# बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में लोगों की मानसिकता कैसी होती है ?
4. व्यावहारिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में विचार करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिये ?  
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# क्या कक्षाकक्ष, कार्यालय, पुस्तकालय, प्रयोगशाला आदि विभिन्न कार्यस्थलों के अनुरूप भिन्न भिन्न प्रकार की बैठक व्यवस्था होनी चाहिये ?
 
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# बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में छोटी छोटी किन किन बातों का ध्यान करना चाहिये ?
5. बैठक व्यवस्था का संस्कारक्षम वातावरण निर्मिति की दृष्टि से क्या महत्त्व है ?  
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6. बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में लोगों की मानसिकता कैसी होती है ?  
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7. क्या कक्षाकक्ष, कार्यालय, पुस्तकालय, प्रयोगशाला आदि विभिन्न कार्यस्थलों के अनुरूप भिन्न भिन्न प्रकार की बैठक व्यवस्था होनी चाहिये ?  
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8. बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में छोटी छोटी किन किन बातों का ध्यान करना चाहिये ?
      
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
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दूसरा छात्रों की आयु व उनके शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से नीचे बैठने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। फिर भी डेस्क व बैंच या टेबल-कुर्सी की अनिवार्यता बना देना किसी भी प्रकार से शास्त्र सम्मत नहीं है । फिर भी सर्वदर इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है। हमारे यहाँ तो नीचे भूमि पर मोटा आसन बिछाकर उस पर बैठना और सामने ढालिया (छोटी डेस्क) रखा होना, आदर्श व्यवस्था मानी जाती है । टेबल कुर्सी पर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा अधोगामी होकर पैरों के द्वारा पृथ्वी में चली जाती है। जबकि नीचे पद्मासन या सुखासन में मेरू दण्ड को सीधा रखकर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा उर्ध्वमुखी होकर मस्तिष्क में जाती है । आसन लगाकर बैठने से दोनों पाँवों में बन्ध लग जाता है, इसलिए ऊर्जा अधोगामी नहीं हो पाती । पीठ सीधी रखकर बैठने से एकाग्रता आती है व ग्रहणशीलता बढती है । मस्तिष्क को ऊर्जा मिलते रहने से अधिक समयतक पढ़ा जाता है।
 
दूसरा छात्रों की आयु व उनके शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से नीचे बैठने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। फिर भी डेस्क व बैंच या टेबल-कुर्सी की अनिवार्यता बना देना किसी भी प्रकार से शास्त्र सम्मत नहीं है । फिर भी सर्वदर इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है। हमारे यहाँ तो नीचे भूमि पर मोटा आसन बिछाकर उस पर बैठना और सामने ढालिया (छोटी डेस्क) रखा होना, आदर्श व्यवस्था मानी जाती है । टेबल कुर्सी पर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा अधोगामी होकर पैरों के द्वारा पृथ्वी में चली जाती है। जबकि नीचे पद्मासन या सुखासन में मेरू दण्ड को सीधा रखकर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा उर्ध्वमुखी होकर मस्तिष्क में जाती है । आसन लगाकर बैठने से दोनों पाँवों में बन्ध लग जाता है, इसलिए ऊर्जा अधोगामी नहीं हो पाती । पीठ सीधी रखकर बैठने से एकाग्रता आती है व ग्रहणशीलता बढती है । मस्तिष्क को ऊर्जा मिलते रहने से अधिक समयतक पढ़ा जाता है।
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वटवृक्ष के नीचे उच्चासन में गुरु बैठे हैं, उनके सामने नीचे भूमि पर सुखासन में मेरुदण्ड को सीधा रखकर सभी शिष्य बैठे हुए हैं । यह मात्र गुरुकुल का चित्र नहीं है, अपितु ज्ञानार्जन के लिए बैठने की आदर्श व्यवस्था का चित्र है । जो आज भी विद्यालयों में सम्भव है । परन्तु आज के विद्यालयों का चित्र तो भिन्न है । धनदाता अभिभावकों के बालक तो टेबलकुर्सी पर आराम से बैठे हुए और ज्ञानदाता शिक्षक अनिवार्यतः खड़े खड़े पढ़ा रहे है ऐसा चित्र दिखाई देता है । इस व्यवस्था के मूल में पाश्चात्य विचार है । गुरु का खड़े रहना और शिष्यों का बैठे रहना उचित नहीं हैं । गुरु छात्रों से ज्ञान में, आयु में, अनुभव में बड़े हैं, श्रेष्ठ हैं इसलिए उन्हें उच्चासन पर बैठना और शिष्यों को उनके चरणों में बैठकर ज्ञानार्जन करना यह भारतीय विचार है ।
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वटवृक्ष के नीचे उच्चासन में गुरु बैठे हैं, उनके सामने नीचे भूमि पर सुखासन में मेरुदण्ड को सीधा रखकर सभी शिष्य बैठे हुए हैं । यह मात्र गुरुकुल का चित्र नहीं है, अपितु ज्ञानार्जन के लिए बैठने की आदर्श व्यवस्था का चित्र है । जो आज भी विद्यालयों में सम्भव है। परन्तु आज के विद्यालयों का चित्र तो भिन्न है । धनदाता अभिभावकों के बालक तो टेबलकुर्सी पर आराम से बैठे हुए और ज्ञानदाता शिक्षक अनिवार्यतः खड़े खड़े पढ़ा रहे है ऐसा चित्र दिखाई देता है । इस व्यवस्था के मूल में पाश्चात्य विचार है । गुरु का खड़े रहना और शिष्यों का बैठे रहना उचित नहीं हैं । गुरु छात्रों से ज्ञान में, आयु में, अनुभव में बड़े हैं, श्रेष्ठ हैं इसलिए उन्हें उच्चासन पर बैठना और शिष्यों को उनके चरणों में बैठकर ज्ञानार्जन करना यह भारतीय विचार है ।
    
==== विषयानुसार कक्ष व्यवस्था ====
 
==== विषयानुसार कक्ष व्यवस्था ====
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==== बैठक की लेक्चर थियेटर व्यवस्था ====
 
==== बैठक की लेक्चर थियेटर व्यवस्था ====
अध्ययन और अध्यापन बैठकर होता है । इसके लिए विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएँ करनी होती हैं, सुविधा के अनुसार भिन्नता का अनुसरण किया जाता है । व्यवस्था करने में हमारा दृष्टिकोण भी कारणीभूत होता है । हम एक के बाद एक विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं के बारे में विचार करेंगे । आपने पुराने सरकारी महाविद्यालय देखे होंगे । वहाँ बड़े बड़े कक्ष होते हैं । उन्हें लेक्चर थियेटर कहा जाता है । आजकल यदि नहीं भी कहा जाता होगा तो भी जब उन का प्रारंभ हुआ था तब तो इसी नाम से जाने जाते थे । उनके नाम से ही पता चलता है कि इन कक्षों की रचना थिएटर जैसी ही होती थी । प्रारंभ में एक मंच होता था जो अध्यापक के लिए होता था । अध्यापक के लिए यहाँ कुर्सी और टेबल होते थे और उसके पीछे की दीवार पर एक श्याम फलक होता था तब सामने सिनेमा थिएटर की तरह ही नीचे से ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर छात्रों को बैठने के लिए बेंच होते थे । एक साथ एक कक्षा में लगभग डेढ़ सौ छात्र बैठते थे । अध्यापक खड़े खड़े भाषण करता था । उसे छात्रों की ओर देखने के लिए ऊपर देखना पड़ता था । छात्रों को अध्यापक की ओर देखने के लिए नीचे की तरफ देखना होता था । यह रचना उस समय स्वाभाविक लगती थी, परतु आज अगर हम विचार करेंगे तो भारतीय परिवेश में यह अत्यंत अस्वाभाविक है । भारतीय परिवेश में शिक्षक खड़ा हो और छात्र बैठे हैं ऐसी रचना असंभव नहीं तो कम से कम अस्वाभाविक है । खड़े खड़े अध्यापन करना भी भारतीय परिवेश में अस्वाभाविक है । अध्यापक खड़े हैं और छात्र बैठे हैं इसकी कल्पना भी भारत में नहीं हो सकती | अध्यापक का स्थान नीचे हो और छात्रों का ऊपर यह भी अस्वाभाविक है । इसलिए इस प्रकार की बैठक व्यवस्था वाले कक्षा कक्ष भारत के विद्यालयों और महाविद्यालयों में नहीं हो सकते । उस समय ऐसी रचना की गई थी क्योंकि ये सारे महाविद्यालय पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था में शुरु हुए थे । यूरोप अमेरिका में यह रचना स्वाभाविक मानी जाती है । इसलिए यहाँ भी इस प्रकार की रचना की गई थी । आज ऐसी रचना लगभग कहीं पर दिखाई नहीं देती ।
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अध्ययन और अध्यापन बैठकर होता है । इसके लिए विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएँ करनी होती हैं, सुविधा के अनुसार भिन्नता का अनुसरण किया जाता है । व्यवस्था करने में हमारा दृष्टिकोण भी कारणीभूत होता है । हम एक के बाद एक विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं के बारे में विचार करेंगे । आपने पुराने सरकारी महाविद्यालय देखे होंगे । वहाँ बड़े बड़े कक्ष होते हैं । उन्हें लेक्चर थियेटर कहा जाता है । आजकल यदि नहीं भी कहा जाता होगा तो भी जब उन का प्रारंभ हुआ था तब तो इसी नाम से जाने जाते थे । उनके नाम से ही पता चलता है कि इन कक्षों की रचना थिएटर जैसी ही होती थी । प्रारंभ में एक मंच होता था जो अध्यापक के लिए होता था। अध्यापक के लिए यहाँ कुर्सी और टेबल होते थे और उसके पीछे की दीवार पर एक श्याम फलक होता था तब सामने सिनेमा थिएटर की तरह ही नीचे से ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर छात्रों को बैठने के लिए बेंच होते थे । एक साथ एक कक्षा में लगभग डेढ़ सौ छात्र बैठते थे । अध्यापक खड़े खड़े भाषण करता था । उसे छात्रों की ओर देखने के लिए ऊपर देखना पड़ता था । छात्रों को अध्यापक की ओर देखने के लिए नीचे की तरफ देखना होता था । यह रचना उस समय स्वाभाविक लगती थी, परतु आज अगर हम विचार करेंगे तो भारतीय परिवेश में यह अत्यंत अस्वाभाविक है । भारतीय परिवेश में शिक्षक खड़ा हो और छात्र बैठे हैं ऐसी रचना असंभव नहीं तो कम से कम अस्वाभाविक है । खड़े खड़े अध्यापन करना भी भारतीय परिवेश में अस्वाभाविक है । अध्यापक खड़े हैं और छात्र बैठे हैं इसकी कल्पना भी भारत में नहीं हो सकती | अध्यापक का स्थान नीचे हो और छात्रों का ऊपर यह भी अस्वाभाविक है । इसलिए इस प्रकार की बैठक व्यवस्था वाले कक्षा कक्ष भारत के विद्यालयों और महाविद्यालयों में नहीं हो सकते । उस समय ऐसी रचना की गई थी क्योंकि ये सारे महाविद्यालय पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था में शुरु हुए थे । यूरोप अमेरिका में यह रचना स्वाभाविक मानी जाती है । इसलिए यहाँ भी इस प्रकार की रचना की गई थी । आज ऐसी रचना लगभग कहीं पर दिखाई नहीं देती ।
    
==== दृष्टिकोण का अन्तर ====
 
==== दृष्टिकोण का अन्तर ====
अमेरिका और यूरोप में ऐसी रचना स्वाभाविक है और भारत में अस्वाभाविक है इसका कारण क्या है ? किसी भी बात में दृष्टिकोन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अमेरिका और भारत में शिक्षा के प्रति देखने की दृष्टि ही अलग है । वहाँ जीवन रचना में अर्थ का स्थान सबसे ऊपर है । जो पैसा देता है वह बड़ा है, उस का अधिकार ज्यादा है और जो पैसा लेता है वह छोटा है और देने वाले के समक्ष नीचा ही स्थान पाता
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अमेरिका और यूरोप में ऐसी रचना स्वाभाविक है और भारत में अस्वाभाविक है इसका कारण क्या है ? किसी भी बात में दृष्टिकोन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अमेरिका और भारत में शिक्षा के प्रति देखने की दृष्टि ही अलग है । वहाँ जीवन रचना में अर्थ का स्थान सबसे ऊपर है । जो पैसा देता है वह बड़ा है, उस का अधिकार ज्यादा है और जो पैसा लेता है वह छोटा है और देने वाले के समक्ष नीचा ही स्थान पाता है । अध्ययन-अध्यापन के कार्य में छात्र अथवा छात्र के अभिभावक पैसा देते हैं और अध्यापक पैसा लेता है । इसलिए खड़े रहकर पढ़ाना उसके लिए बाध्यता है । बैठ कर पढ़ना छात्रों का अधिकार है । अध्यापक का स्थान नीचे होना भी स्वाभाविक है । छात्रों का स्थान ऊपर ही होना स्वाभाविक है । भारत में यह व्यवस्था अमेरिका की अपेक्षा श्रेष्ठ है । भारत में विद्या देने वाला बड़ा है और विद्या लेने वाला छोटा है । इसलिए वह बैठता है, छात्र भी बैठते हैं क्योंकि अध्ययन और अध्यापन बैठकर ही किया जाता है । परंतु  अध्यापक का स्थान छात्रों से ऊपर ही होता है । भारत में बैठने की इस प्रकार की स्थिति स्वाभाविक है । खड़े-खड़े पढ़ाने हेतु सुविधा होती है ऐसी अनेक लोगों की मान्यता है उनका.  कहना है कि एक शिक्षक को अपनी कक्षा में घूमना भी पड़ता है। उसे छात्रों की गतिविधि पर ध्यान देना होता है । कहीं किसी छात्र को सहायता भी करनी होती है । किसी छात्र का निरीक्षण भी करना होता है । उसे श्याम फलक पर लिखना भी होता है । इस स्थिति में घूमना स्वाभाविक मानना चाहिए,  बात ठीक है परन्तु हम जिस अध्ययन-अध्यापन की बात कर रहें हैं उसमें मन की एकाग्रता और बुद्धि की स्थिरता आवश्यक है । साथ ही उसमें भावना की दृष्टि से विनयशीलता और आदर भी अपेक्षित है, आचार्य को आदर देने के लिए आचार्य खड़े हों तो असुविधा होती है । आचार्य बैठे और भी उच्च आसन पर बैठे यही स्वाभाविक है । पहेली बात में शिक्षक के पक्ष में स्वयं काम करना और करवाना अधिक अपेक्षित है वह भी बैठकर हो सकता है । परंतु शिक्षक के खड़े रहने में हमें आपत्ति नहीं होने के कारण से हम शिक्षक खड़े हो इसमें कक्षा कक्ष की सुविधा देखते हैं । बैठकर अध्ययन-अध्यापन करने का कार्य केवल भावात्मक नहीं है, वह वैज्ञानिक भी है । बैठने की भी एक विशेष स्थिति होती है जो आवश्यक है । शरीर का नीचे का हिस्सा बंद हो जाता है और उर्जा नीचे की ओर प्रवाहित नहीं होती । अध्ययन करते समय अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
 
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है । अध्ययन-अध्यापन के कार्य में छात्र अथवा छात्र के अभिभावक पैसा देते हैं और अध्यापक पैसा लेता है । इसलिए खड़े रहकर पढ़ाना उसके लिए बाध्यता है । बैठ कर पढ़ना छात्रों का अधिकार है । अध्यापक का स्थान नीचे होना भी स्वाभाविक है । छात्रों का स्थान ऊपर ही होना स्वाभाविक है । भारत में यह व्यवस्था अमेरिका की अपेक्षा श्रेष्ठ है । भारत में विद्या देने वाला बड़ा है और विद्या लेने वाला छोटा है । इसलिए वह बैठता है, छात्र भी बैठते हैं क्योंकि अध्ययन और अध्यापन बैठकर ही किया जाता है । परंतु  अध्यापक का स्थान छात्रों से ऊपर ही होता है । भारत में बैठने की इस प्रकार की स्थिति स्वाभाविक है । खड़े-खड़े पढ़ाने हेतु सुविधा होती है ऐसी अनेक लोगों की मान्यता है उनका.  कहना है कि एक शिक्षक को अपनी कक्षा में घूमना भी पड़ता है । उसे छात्रों की गतिविधि पर ध्यान देना होता है । कहीं किसी छात्र को सहायता भी करनी होती है । किसी छात्र का निरीक्षण भी करना होता है । उसे श्याम फलक पर लिखना भी होता है । इस स्थिति में घूमना स्वाभाविक मानना चाहिए,  बात ठीक है परन्तु हम जिस अध्ययन-अध्यापन की बात कर रहें हैं उसमें मन की एकाग्रता और बुद्धि की स्थिरता आवश्यक है । साथ ही उसमें भावना की दृष्टि से विनयशीलता और आदर भी अपेक्षित है, आचार्य को आदर देने के लिए आचार्य खड़े हों तो असुविधा होती है । आचार्य बैठे और भी उच्च आसन पर बैठे यही स्वाभाविक है । पहेली बात में शिक्षक के पक्ष में स्वयं काम करना और करवाना अधिक अपेक्षित है वह भी बैठकर हो सकता है । परंतु शिक्षक के खड़े रहने में हमें आपत्ति नहीं होने के कारण से हम शिक्षक खड़े हो इसमें कक्षा कक्ष की सुविधा देखते हैं । बैठकर अध्ययन-अध्यापन करने का कार्य केवल भावात्मक नहीं है, वह वैज्ञानिक भी है । बैठने की भी एक विशेष स्थिति होती है जो आवश्यक है । शरीर का नीचे का हिस्सा बंद हो जाता है और उर्जा नीचे की ओर प्रवाहित नहीं होती । अध्ययन करते समय अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
      
==== पैसों से सम्बन्ध जोड़ना ====
 
==== पैसों से सम्बन्ध जोड़ना ====
यह लोग नीचे बैठने की और कुर्सी पर बैठने की  
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यह लोग नीचे बैठने की और कुर्सी पर बैठने की व्यवस्था का संबंध पैसे से जोड़ते हैं । उनका मानना होता है कि यदि विद्यालय गरीब है तो नीचे बैठने की व्यवस्था करेगा और यदि पैसा है तो मेज - कुर्सी - बेंच आदि सब की व्यवस्था करेगा। उनका ऐसा भी मानना है कि छोटी कक्षाओं के लिए तो नीचे बैठने की व्यवस्था चल सकती है। वह कोई बहुत गंभीर मामला नहीं है। परंतु बड़ी कक्षाओं के लिए गंभीर अध्ययन होता है इसलिए नीचे बैठने की व्यवस्था असुविधाजनक है। ऐसी व्यवस्था में उन्हें गरिमा नहीं लगती । परंतु यह धारणा पूर्ण रूप से अवैज्ञानिक है । शरीर विज्ञान की दृष्टि से और मनोविज्ञान की दृष्टि से नीचे बैठने की व्यवस्था उत्तम है । हमने अनेक प्राचीन चित्रों में देखा है कि बड़े बड़े विद्यापीठ में अध्ययन अध्यापन नीचे बैठकर ही होता था । गरीब थे इसलिए ऐसा करते थे, फर्नीचर बनाने की कुशलता नहीं इसलिए ऐसा करते थे ऐसा नहीं है । पर्याप्त रूप से प्रगत थे वे उत्तम प्रकार की कारीगरी जानने वाले थे, वे पर्याप्त मात्रा में धनवान भी थे। फिर भी वहाँ टेबल, कुर्सी, डेस्क, बेंच आदि नहीं थे क्योंकि वे हम से ज्यादा वैज्ञानिक थे । आवश्यक सुविधाएँ बना लेते थे और अनावश्यक वस्तुओं में प्रतिष्ठा नहीं देखते थे। उनके मन और मस्तिष्क पूर्वग्रहों से मुक्त थे । आज हम अनेक प्रकार के पूर्वाग्रहों से भ्रष्ट होकर अनेक प्रकार की सुविधाएँ बनाते हैं और जो करना चाहिए उससे उल्टा करते हैं ।  
 
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व्यवस्था का संबंध पैसे से जोड़ते हैं । उनका मानना होता है कि यदि विद्यालय गरीब है तो नीचे बैठने की व्यवस्था करेगा और यदि पैसा है तो मेज - कुर्सी - बेंच आदि सब की व्यवस्था करेगा। उनका ऐसा भी मानना है कि छोटी कक्षाओं के लिए तो नीचे बैठने की व्यवस्था चल सकती है। वह कोई बहुत गंभीर मामला नहीं है। परंतु बड़ी कक्षाओं के लिए गंभीर अध्ययन होता है इसलिए नीचे बैठने की व्यवस्था असुविधाजनक है। ऐसी व्यवस्था में उन्हें गरिमा नहीं लगती । परंतु यह धारणा पूर्ण रूप से अवैज्ञानिक है । शरीर विज्ञान की दृष्टि से और मनोविज्ञान की दृष्टि से नीचे बैठने की व्यवस्था उत्तम है । हमने अनेक प्राचीन चित्रों में देखा है कि बड़े बड़े विद्यापीठ में अध्ययन अध्यापन नीचे बैठकर ही होता था । गरीब थे इसलिए ऐसा करते थे, फर्नीचर बनाने की कुशलता नहीं इसलिए ऐसा करते थे ऐसा नहीं है । पर्याप्त रूप से प्रगत थे वे उत्तम प्रकार की कारीगरी जानने वाले थे, वे पर्याप्त मात्रा में धनवान भी थे। फिर भी वहाँ टेबल, कुर्सी, डेस्क, बेंच आदि नहीं थे क्योंकि वे हम से ज्यादा वैज्ञानिक थे । आवश्यक सुविधाएँ बना लेते थे और अनावश्यक वस्तुओं में प्रतिष्ठा नहीं देखते थे। उनके मन और मस्तिष्क पूर्वग्रहों से मुक्त थे । आज हम अनेक प्रकार के पूर्वाग्रहों से भ्रष्ट होकर अनेक प्रकार की सुविधाएँ बनाते हैं और जो करना चाहिए उससे उल्टा करते हैं ।
      
==== भिन्न-भिन्न रचनाएँ ====
 
==== भिन्न-भिन्न रचनाएँ ====
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सामने जो छात्र बैठे हैं उनकी बैठक व्यवस्था की रचना अध्ययन के स्वरूप के अनुसार भिन्न भिन्न हो सकती है । सर्वसामान्य रचना तती प्रतति में आयताकार बैठने की है। खड़ी पंक्ति को तति कहते हैं और पड़ी प्रतती कहते है।  
 
सामने जो छात्र बैठे हैं उनकी बैठक व्यवस्था की रचना अध्ययन के स्वरूप के अनुसार भिन्न भिन्न हो सकती है । सर्वसामान्य रचना तती प्रतति में आयताकार बैठने की है। खड़ी पंक्ति को तति कहते हैं और पड़ी प्रतती कहते है।  
   −
छात्रों की कुल संख्या के अनुसार तति और प्रतति संख्या बनती है । तति में प्रतति से अधिक संख्या होना स्वाभाविक है फिर भी कक्षा की आकृति और स्थान के अनुसार प्रतति में अधिक और तति ने कम संख्या बिठाई जा सकती है। उदाहरण के लिए कक्षा में यदि ३० छात्रों की संख्या है तो ६ तति और ५ प्रतति बनेंगे । ३५ संख्या है तो पांच तति और सात प्रतति बनेंगे । तति में और प्रतति में बैठे हुए छात्र एक दूसरे से समानांतर बना कर बैठते हैं तो अपने आप सुंदरता और अनशासन का वातावरण बनता है । अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोगों की मानसिकता पर भी इसका परिणाम होता है । यदि योगाभ्यास करना है तो यह रचना बदलेगी या बदल सकती है। प्रथम प्रतति में यदि ५ बैठे है तो दूसरी में चार बैठेंगे और आगे वाले दो के बीच में एक छात्र बैठेगा । उदाहरण के लिए प्रथम प्रतति में ६ बैठे हैं तो दूसरी में ५ बैठेंगे तीसरी में ६ बैठेंगे चौथी में पाँच । ) इस प्रकार से क्रमशः रचना होगी । इससे इस जगह में अधिक लोग बैठकर योग अभ्यास कर सकते हैं । यदि संगीत का अभ्यास करना है तो अध्यापक के सामने अर्ध मंडल में बैठना सुरुचि पूर्ण और सुविधाजनक लगता है । इसमें भी प्रततियाँ दो के बीच में एक ऐसी बन सकती है । यदि कहानी सुनना है तो किसी भी प्रकार के अनुशासन वाली रचना नहीं होने से भी असुविधा नहीं होती । यदि बैठक के रूप में चर्चा करना है तो अर्धमंडल में बैठना या मंडल में बैठना सुविधाजनक रहता है क्योंकि इस स्थिति में सभी एक दूसरे के मुँह देख सकते हैं और एक दूसरे से संवाद कर सकते हैं । आजकल अनेक कॉन्फ्रेंसीसमें इस प्रकार की रचना देखी जा सकती है । इस प्रकार उद्देश्य के अनुसार विभिन्न प्रकार की व्यवस्था की जा सकती है।
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छात्रों की कुल संख्या के अनुसार तति और प्रतति संख्या बनती है । तति में प्रतति से अधिक संख्या होना स्वाभाविक है फिर भी कक्षा की आकृति और स्थान के अनुसार प्रतति में अधिक और तति ने कम संख्या बिठाई जा सकती है। उदाहरण के लिए कक्षा में यदि ३० छात्रों की संख्या है तो ६ तति और ५ प्रतति बनेंगे । ३५ संख्या है तो पांच तति और सात प्रतति बनेंगे । तति में और प्रतति में बैठे हुए छात्र एक दूसरे से समानांतर बना कर बैठते हैं तो अपने आप सुंदरता और अनशासन का वातावरण बनता है । अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोगों की मानसिकता पर भी इसका परिणाम होता है । यदि योगाभ्यास करना है तो यह रचना बदलेगी या बदल सकती है। प्रथम प्रतति में यदि ५ बैठे है तो दूसरी में चार बैठेंगे और आगे वाले दो के बीच में एक छात्र बैठेगा । उदाहरण के लिए प्रथम प्रतति में ६ बैठे हैं तो दूसरी में ५ बैठेंगे तीसरी में ६ बैठेंगे चौथी में पाँच । ) इस प्रकार से क्रमशः रचना होगी । इससे इस जगह में अधिक लोग बैठकर योग अभ्यास कर सकते हैं । यदि संगीत का अभ्यास करना है तो अध्यापक के सामने अर्ध मंडल में बैठना सुरुचि पूर्ण और सुविधाजनक लगता है । इसमें भी प्रततियाँ दो के बीच में एक ऐसी बन सकती है । यदि कहानी सुनना है तो किसी भी प्रकार के अनुशासन वाली रचना नहीं होने से भी असुविधा नहीं होती । यदि बैठक के रूप में चर्चा करना है तो अर्धमंडल में बैठना या मंडल में बैठना सुविधाजनक रहता है क्योंकि इस स्थिति में सभी एक दूसरे के मुँह देख सकते हैं और एक दूसरे से संवाद कर सकते हैं । आजकल अनेक कॉन्फ्रेंसीस में इस प्रकार की रचना देखी जा सकती है । इस प्रकार उद्देश्य के अनुसार विभिन्न प्रकार की व्यवस्था की जा सकती है।
    
=== विद्यालय में पर्यावरण सुरक्षा ===
 
=== विद्यालय में पर्यावरण सुरक्षा ===
१. पर्यावरण सुरक्षा का क्या अर्थ है ?
+
# पर्यावरण सुरक्षा का क्या अर्थ है ?
 
+
# पर्यावरण सुरक्षा का क्या महत्व है ?
२. पर्यावरण सुरक्षा का क्या महत्व है ?
+
# पर्यावरण सुरक्षा के आयाम क्या है ?
 
+
# पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टी से निम्नलिखित विषयों में कैसे विचार करने चाहिए ?
३. पर्यावरण सुरक्षा के आयाम क्या है ?
+
## भवन निर्माण - पद्धति एवं उसमे प्रयुक्तसमाग्री
 
+
## विद्यालय में प्रयुक्त साधनसामग्री, फर्निचर, अन्य चीजें
४. पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टी से निम्नलिखित विषयों में कैसे विचार करने चाहिए ?
+
## पानी, पानी की निकासी, शौचालय आदि व्यवस्थायें
# भवन निर्माण - पद्धति एवं उसमे प्रयुक्तसमाग्री  
+
## बगीचा
# विद्यालय में प्रयुक्त साधनसामग्री, फर्निचर, अन्य चीजें  
+
## यज्ञ
# पानी, पानी की निकासी, शौचालय आदि व्यवस्थायें  
+
## स्वछता की सामग्री
# बगीचा  
+
## कीटकों से रक्षा
# यज्ञ  
+
## विद्यालय के लिए भूमि का चयन
# स्वछता की सामग्री  
+
# प्राकृतिक सामग्री का उपयोग बढ़ाने लिए एवं कृत्रिम वस्तुओं से छुटकारा पाने के लिए हम क्या कर सकते है?
# कीटकों से रक्षा  
+
# विद्यालय में ए. सी., कूलर, फ्रीज, पंखे, वाहन आदि के सम्बन्ध में कैसे सोचना चाहिए?
# विद्यालय के लिए भूमि का चयन  
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५. प्राकृतिक सामग्री का उपयोग बढ़ाने लिए एवं कृत्रिम वस्तुओं से छुटकारा पाने के लिए हम क्या कर सकते है?
  −
 
  −
६. विद्यालय में ए. सी., कूलर, फ्रीज, पंखे, वाहन आदि के सम्बन्ध में कैसे सोचना चाहिए?
      
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
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प्रदूषण की समस्या का विचार करते समय मूल बातों से प्रारम्भ करना आवश्यक है । पर्यावरण की भारतीय संकल्पना क्या है इसका भी विचार करना चाहिये । उसके सन्दर्भ में ही प्रदूषण की समस्या और उसके निराकरण का और उसके सन्दर्भ में ही विद्यालय में पर्यावरण विचार करना चाहिये ।
 
प्रदूषण की समस्या का विचार करते समय मूल बातों से प्रारम्भ करना आवश्यक है । पर्यावरण की भारतीय संकल्पना क्या है इसका भी विचार करना चाहिये । उसके सन्दर्भ में ही प्रदूषण की समस्या और उसके निराकरण का और उसके सन्दर्भ में ही विद्यालय में पर्यावरण विचार करना चाहिये ।
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कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...
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कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं:
 
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# भारतीय संकल्पना के अनुसार पर्यावरण के आठ अंग हैं । ये हैं मन, बुद्धि, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी । इन सबका प्रदूषण होता है ।  
१. भारतीय संकल्पना के अनुसार पर्यावरण के आठ अंग हैं । ये हैं मन, बुद्धि, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी । इन सबका प्रदूषण होता है ।  
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# यह प्रदूषण केवल शरीर पर असर करके नहीं रुकता है, वह मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर करता है और बुद्धि को विकृत बनाता है।  
 
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# अतः केवल भौतिक नहीं अपितु सांस्कृतिक प्रदूषण के निवारण का भी विचार करना चाहिये ।  
२. यह प्रदूषण केवल शरीर पर असर करके नहीं रुकता है, वह मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर करता है और बुद्धि को विकृत बनाता है।
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  −
३. अतः केवल भौतिक नहीं अपितु सांस्कृतिक प्रदूषण के निवारण का भी विचार करना चाहिये ।  
      
==== पर्यावरण सम्बन्धित व्यावहारिक विचार ====
 
==== पर्यावरण सम्बन्धित व्यावहारिक विचार ====
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१. पानी, भूमि, हवा का प्रदूषण रोकने के छोटे छोटे परन्तु अतिव्यापक उपाय प्रथम करने चाहिये।
 
१. पानी, भूमि, हवा का प्रदूषण रोकने के छोटे छोटे परन्तु अतिव्यापक उपाय प्रथम करने चाहिये।
   −
जैसे कि डिटर्जण्ट, पेट्रोल और प्लास्टिक पर्यावरण के बड़े शत्रु हैं । वे हमारे घर घर में, दैनन्दिन व्यवहार में कितने व्याप्त हो गये हैं इसकी गिनती करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि हम इन वस्तुओं का उपयोग जरा भी कम नहीं करते हैं और पर्यावरण की चिन्ता करते हैं । क्या विद्यालय के माध्यम से हम अपने आप पर नियन्त्रण करने का विचार नहीं करेंगे ? अपने आप पर नियन्त्रण का काम कठिन अवश्य है परन्तु यह यदि शुरु ही नहीं किया तो इसका निवारण कैसे होगा ?
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जैसे कि डिटर्जण्ट, पेट्रोल और प्लास्टिक पर्यावरण के बड़े शत्रु हैं । वे हमारे घर घर में, दैनन्दिन व्यवहार में कितने व्याप्त हो गये हैं इसकी गिनती करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि हम इन वस्तुओं का उपयोग जरा भी कम नहीं करते हैं और पर्यावरण की चिन्ता करते हैं। क्या विद्यालय के माध्यम से हम अपने आप पर नियन्त्रण करने का विचार नहीं करेंगे ? अपने आप पर नियन्त्रण का काम कठिन अवश्य है परन्तु यह यदि शुरु ही नहीं किया तो इसका निवारण कैसे होगा ?
    
क्या हम नहीं जानते कि हम उपयोग करते हैं ऐसी सेंकड़ों वस्तुयें प्रदूषण करती हैं ? इसका प्रथम उपाय करना चाहिये।
 
क्या हम नहीं जानते कि हम उपयोग करते हैं ऐसी सेंकड़ों वस्तुयें प्रदूषण करती हैं ? इसका प्रथम उपाय करना चाहिये।
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मन को बहकाने वाली बातें चारों ओर हों तब मन कैसे शान्त हो सकता है ? अमर्याद इच्छायें, उनकी पूर्ति के लिये किये जने वाले प्रयास, हल्का और सस्ता मनोरंजन, कभी शान्त न होने वाली लालसायें, स्वार्थ, लालच आदि हमें असंस्कारी बनाते हैं।
 
मन को बहकाने वाली बातें चारों ओर हों तब मन कैसे शान्त हो सकता है ? अमर्याद इच्छायें, उनकी पूर्ति के लिये किये जने वाले प्रयास, हल्का और सस्ता मनोरंजन, कभी शान्त न होने वाली लालसायें, स्वार्थ, लालच आदि हमें असंस्कारी बनाते हैं।
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हमें विद्यार्थियों को मन को वश में करने के उपाय बताने चाहिये । लोभ, लालच, इर्ष्या, द्वेष आदि पर नियन्त्रण करना सिखाना चाहिये । ये हमारे शत्रु हैं जो संस्कारों का नाश करते हैं । इन्हीं से हिंसा फैलती है, शत्रुता पनपती है, अनेक प्रकार के अनाचार होते हैं।
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हमें विद्यार्थियों को मन को वश में करने के उपाय बताने चाहिये । लोभ, लालच, इर्ष्या, द्वेष आदि पर नियन्त्रण करना सिखाना चाहिये। ये हमारे शत्रु हैं जो संस्कारों का नाश करते हैं । इन्हीं से हिंसा फैलती है, शत्रुता पनपती है, अनेक प्रकार के अनाचार होते हैं।
    
क्या मोबाइल और मोटरबाइक से निर्माण होने वाला प्रदूषण पानी के प्रदूषण से कम घातक है ? नहीं, उल्टे अधिक घातक है । परन्तु हम इन्हें विकास का लक्षण मानते हैं ।
 
क्या मोबाइल और मोटरबाइक से निर्माण होने वाला प्रदूषण पानी के प्रदूषण से कम घातक है ? नहीं, उल्टे अधिक घातक है । परन्तु हम इन्हें विकास का लक्षण मानते हैं ।
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=== विद्यालय में ट्यूशन ===
 
=== विद्यालय में ट्यूशन ===
१. ट्यूशन की मात्रा आज बहुत बढ़ गई है इसका कारण क्या है ?
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# ट्यूशन की मात्रा आज बहुत बढ़ गई है इसका कारण क्या है ?
 
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# ट्यूशन के सम्बन्ध में आचार्य, छात्र एवं अभिभावकों की मानसिकता कैसी होती है ?
२. ट्यूशन के सम्बन्ध में आचार्य, छात्र एवं अभिभावकों की मानसिकता कैसी होती है ?  
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# ट्यूशन के सम्बन्ध में आदर्श स्थिति क्या है ?
 
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# ट्यूशन के आर्थिक पक्ष का विचार कैसे करना चाहिये ?
३. ट्यूशन के सम्बन्ध में आदर्श स्थिति क्या है ?  
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# ट्यूशन सम्बन्ध में आदर्श स्थिति क्या है ?
 
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# ट्यूशन किसने पढ़ाना उपयुक्त है ?
४. ट्यूशन के आर्थिक पक्ष का विचार कैसे करना चाहिये ?  
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# ट्यूशन के हौवे से बचने के उपाय क्या हैं ?
 
  −
५. ट्यूशन सम्बन्ध में आदर्श स्थिति क्या है ?  
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६. ट्यूशन किसने पढ़ाना उपयुक्त है ?  
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७. ट्यूशन के हौवे से बचने के उपाय क्या हैं ?
      
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
कानपुर की बहन मीनाक्षी गणपुले के द्वारा इस प्रश्नावली के उत्तर शिक्षक अभिभावक मुख्याध्यापक एवं संस्थाचालक इस प्रकार के शिक्षा से संबंधित गटों के ३० व्यक्तिओ से प्राप्त हुए । उसका सारांश इस प्रकार है ।
 
कानपुर की बहन मीनाक्षी गणपुले के द्वारा इस प्रश्नावली के उत्तर शिक्षक अभिभावक मुख्याध्यापक एवं संस्थाचालक इस प्रकार के शिक्षा से संबंधित गटों के ३० व्यक्तिओ से प्राप्त हुए । उसका सारांश इस प्रकार है ।
 
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# सर्वानुमत से ट्यूशन विद्यार्थीजीवन का अनिवार्य हिस्सा है। ट्यूशन का प्रमाण बढने के कारण बताते हुए कहा:
1 . सर्वानुमत से ट्यूशन विद्यार्थीजीवन का अनिवार्य हिस्सा है। ट्यूशन का प्रमाण बढने के कारण बताते हुए कहा...
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## मातापिता दोनों का अर्थार्जन हेतु बाहर जाना
 
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## अशिक्षित अभिभावक
१. मातापिता दोनों का अर्थार्जन हेतु बाहर जाना २. अशिक्षित अभिभावक ३. अंग्रेजी माध्यम
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## अंग्रेजी माध्यम
 
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## बच्चों के विकास के संबंध में अभिभावकों की बढती हुई प्रतिस्पर्धा
४. बच्चों के विकास के संबंध में अभिभावकों की __ बढती हुई प्रतिस्पर्धा
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## अक्षम अध्यापन
 
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## बालकों को कहीं ना कहीं बाँधकर रखने की अभिभावक की प्रवृत्ति
५. अक्षम अध्यापन
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## अपने बालक को विशेष शिक्षा देने की लालसा
 
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## विद्यालय का गृहकार्य पुरा हो इस प्रकार के विविध कारण बताये गये ।
६. बालकों को कहीं ना कहीं बाँधकर रखने की अभिभावक की प्रवृत्ति
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# टयूशन आचार्य के लिये आर्थिक प्राप्ति का एक साधन है। छात्र के लिए प्रतिष्ठा का लक्षण और स्वयं को जिम्मेदारी से मुक्त होने का अनिवार्य मार्ग है । इस प्रकार की मान्यता है।
 
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# ट्यूशन किन से लेनी चाहिये ? इसके उत्तर में वर्गशिक्षकों ने नहीं विषय के विशेज्ञों ने सिखाना चाहिये ऐसी अभिभावकों की अपेक्षा है। ट्यूशन की आदर्श स्थिति कहते हुए श्री प्रिन्स कुमारजी लिखते हैं ट्यूशन होना ही नहीं चाहिये अगर अनिवार्यता हो तो शिक्षक ने मुफ्त मे पढाना चाहिए । योग्य शिक्षक के ट्यूशन लगाना और जो पढाई में कमजोर है उसे ही ट्यूशन आवश्यक है ऐसे मत प्रदर्शित हुए । ट्यूशन के आर्थिक पक्ष के संबंध में एक बहन कहती है कि विद्यालय में छात्र को व्यक्तिगत मार्गदर्शन मिलेगा तो समय और व्यर्थ व्ययसे छुटकारा मिलेगा।
७. अपने बालक को विशेष शिक्षा देने की लालसा
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८. विद्यालय का गृहकार्य पुरा हो इस प्रकार के विविध कारण बताये गये ।
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2. टयूशन आचार्य के लिये आर्थिक प्राप्ति का एक साधन है
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छात्र के लिए प्रतिष्ठा का लक्षण और स्वयं को जिम्मेदारीसे मुक्त होने का अनिवार्य मार्ग है । इस प्रकार की मान्यता है।
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3. ट्यूशन किनसे लेनी चाहिये ? इसके उत्तर में वर्गशिक्षकों ने नहीं विषय के विशेज्ञों ने सिखाना चाहिये ऐसी अभिभावकों की अपेक्षा है। ट्यूशन की आदर्श स्थिति कहते हुए श्री प्रिन्स कुमारजी लिखते हैं ट्यूशन होना ही नहीं चाहिये अगर अनिवार्यता हो तो शिक्षक ने मुफ्त मे पढाना चाहिए । योग्य शिक्षक के ट्यूशन लगाना और जो पढाई में कमजोर है उसे ही ट्यूशन आवश्यक है ऐसे मत प्रदर्शित हुए ।
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४. ट्यूशन के आर्थिक पक्ष के संबंध में एक बहन कहती है कि विद्यालय में छात्र को व्यक्तिगत मार्गदर्शन मिलेगा तो समय और व्यर्थ व्ययसे छुटकारा मिलेगा।
      
==== अभिमत : ====
 
==== अभिमत : ====
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=== विद्यालय में पवित्रता ===
 
=== विद्यालय में पवित्रता ===
१. पवित्रता का क्या अर्थ है ?  
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# पवित्रता का क्या अर्थ है ?  
 
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# विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिये ?  
२. विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिये ?  
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# पवित्रता की मानसिकता क्या होती है ?  
 
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# विद्यालय में पवित्रता निर्माण करने के लिये क्या क्या व्यवस्था हो सकती है ?  
३. पवित्रता की मानसिकता क्या होती है ?  
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# विद्यालय में पवित्रता बनाये रखने के लिये किन किन का योगदान हो सकता है ?  
 
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# पवित्र वातावरण बनाने के लिये भौतिक, मानसिक एवं आचरणात्मक क्या क्या उपाय हो सकते हैं ?  
४. विद्यालय में पवित्रता निर्माण करने के लिये क्या क्या व्यवस्था हो सकती है ?  
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# कौन कौन सी बातें स्वतः पवित्र हैं ?
 
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५. विद्यालय में पवित्रता बनाये रखने के लिये किन किन का योगदान हो सकता है ?  
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६. पवित्र वातावरण बनाने के लिये भौतिक, मानसिक एवं आचरणात्मक क्या क्या उपाय हो सकते हैं ?  
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७. कौन कौन सी बातें स्वतः पवित्र हैं और स्वतः
      
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
पवित्रता यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं अनुभूति का विषय है । पवित्र क्या है और अपवित्र क्या है इसकी समझ है परन्तु उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। सात प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर सभी शिक्षकों ने विचारपूर्वक और चर्चा करके लिखे हैं, फिर भी वे अपने मतों पर दृढ हैं ऐसा लगता नहीं है।
 
पवित्रता यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं अनुभूति का विषय है । पवित्र क्या है और अपवित्र क्या है इसकी समझ है परन्तु उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। सात प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर सभी शिक्षकों ने विचारपूर्वक और चर्चा करके लिखे हैं, फिर भी वे अपने मतों पर दृढ हैं ऐसा लगता नहीं है।
 
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# विद्यालय में पवित्रता का अर्थ बताते हुए आचार्य, प्रधानाचार्य एवं छात्र तीनों के बीच आपसी प्रेमपूर्ण, द्वेषरहित सम्बन्ध तथा आन्तरिक एवं बाह्य शुचिता अर्थात् पवित्रता इस प्रकार का अर्थगठन कुछ लोगों ने किया है। विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिए ?  
१. विद्यालय में पवित्रता का अर्थ बताते हुए आचार्य, प्रधानाचार्य एवं छात्र तीनों के बीच आपसी प्रेमपूर्ण, द्वेषरहित सम्बन्ध तथा आन्तरिक एवं बाह्य शुचिता अर्थात् पवित्रता इस प्रकार का अर्थगठन कुछ लोगों ने किया है। विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिए ? इन प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है अतः पवित्रता आवश्यक है। शैक्षिक कार्य तनाव रहित होने चाहिए, जो पवित्र वातावरण में ही सम्भव है। इस प्रकार के विभिन्न मत प्राप्त हुए । ३. एक ने मन की शुद्धता एवं निष्कपटता, इन शब्दों में पवित्रता की मानसिकता का वर्णन किया । अन्य सभी इस प्रश्न पर मौन रहे। ४. विद्यालय में पवित्रता निर्माण करने हेतु व्यवस्थाओं में, विद्यालय की वन्दना सभा के अन्तर्गत प्रार्थना, मानस की चौपाइयाँ, अष्टादश श्लोकी गीता, बोध-कथाएँ आदि का उल्लेख किया। ५. पवित्रता का वातावरण निर्माण होने में संस्थाचालक, प्रधानाचार्य, शिक्षक, कर्मचारी, अभिभावक तथा विद्यार्थी सबका योगदान होना चाहिए, ऐसा सबका मत था । प्रत्येक के योगदान का स्वरूप कैसा हो, इस बात में अस्पष्टता दिखाई दी। ६. पवित्र वातावरण बनाने हेतु भौतिक दृष्टि से सुन्दरता व साज-सज्जा करना, मानसिक दृष्टि से मन को अच्छी प्रेरणा प्राप्त हो, आचरण की दृष्टि से सबका आपसी व्यवहार अच्छा हो, ऐसे सुझाव मिले । ७. परमात्मा, पुण्य, दान, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि बातें पवित्र हैं और शास्त्र विरुद्ध व्यवहार यथा चोरी, हिंसा, असत्य, बेईमानी ये सब अपवित्र हैं अतः ताज्य हैं ऐसा बताया।
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# इन प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है अतः पवित्रता आवश्यक है। शैक्षिक कार्य तनाव रहित होने चाहिए, जो पवित्र वातावरण में ही सम्भव है। इस प्रकार के विभिन्न मत प्राप्त हुए ।  
 
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# एक ने मन की शुद्धता एवं निष्कपटता, इन शब्दों में पवित्रता की मानसिकता का वर्णन किया । अन्य सभी इस प्रश्न पर मौन रहे।  
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# विद्यालय में पवित्रता निर्माण करने हेतु व्यवस्थाओं में, विद्यालय की वन्दना सभा के अन्तर्गत प्रार्थना, मानस की चौपाइयाँ, अष्टादश श्लोकी गीता, बोध-कथाएँ आदि का उल्लेख किया।
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# पवित्रता का वातावरण निर्माण होने में संस्थाचालक, प्रधानाचार्य, शिक्षक, कर्मचारी, अभिभावक तथा विद्यार्थी सबका योगदान होना चाहिए, ऐसा सबका मत था । प्रत्येक के योगदान का स्वरूप कैसा हो, इस बात में अस्पष्टता दिखाई दी।
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# पवित्र वातावरण बनाने हेतु भौतिक दृष्टि से सुन्दरता व साज-सज्जा करना, मानसिक दृष्टि से मन को अच्छी प्रेरणा प्राप्त हो, आचरण की दृष्टि से सबका आपसी व्यवहार अच्छा हो, ऐसे सुझाव मिले ।  
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# परमात्मा, पुण्य, दान, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि बातें पवित्र हैं और शास्त्र विरुद्ध व्यवहार यथा चोरी, हिंसा, असत्य, बेईमानी ये सब अपवित्र हैं अतः ताज्य हैं ऐसा बताया।
 
'''अभिमत :'''
 
'''अभिमत :'''
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इन परिस्थितियों में यह विचार करने योग्य बात है कि विद्यालय नीचे बताई गई कुछ बातों पर अमल कर सकते हैं क्या ?
 
इन परिस्थितियों में यह विचार करने योग्य बात है कि विद्यालय नीचे बताई गई कुछ बातों पर अमल कर सकते हैं क्या ?
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==== १. सूती गणवेश ====
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==== सूती गणवेश ====
 
स्वास्थ्य की दृष्टि से सूती गणवेश उत्तम है। सूती वस्त्र पर्यावरण की दृष्टि से भी लाभदायक है । हम जानते हैं कि प्लास्टिक के उपयोग ने पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों का बहुत नुकसान किया है। वैसे तो सभी को सूती वस्त्र पहनने चाहिए। अनपढ़, मन्दबुद्धि, दुष्प्रभाव से अनजान, सभी के प्रति लापरवाह रहने वाले लोग सूती कपड़े भले ही न पहनें, किन्तु समझदार, होशियार और शिक्षित लोगों को तो सूती कपड़े पहनने ही चाहिए। अतः विद्यालयों को अपने छात्रों और शिक्षकों को सूती कपड़े पहनने की प्रेरणा देनी ही चाहिये । परामर्श देने के साथ साथ आग्रह भी करना चाहिए । इस हेतु विद्यालय का गणवेश सूती होना चाहिए । शुरुआत में सूती और क्रमशः खादी का स्वीकार किया जा सकता है।
 
स्वास्थ्य की दृष्टि से सूती गणवेश उत्तम है। सूती वस्त्र पर्यावरण की दृष्टि से भी लाभदायक है । हम जानते हैं कि प्लास्टिक के उपयोग ने पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों का बहुत नुकसान किया है। वैसे तो सभी को सूती वस्त्र पहनने चाहिए। अनपढ़, मन्दबुद्धि, दुष्प्रभाव से अनजान, सभी के प्रति लापरवाह रहने वाले लोग सूती कपड़े भले ही न पहनें, किन्तु समझदार, होशियार और शिक्षित लोगों को तो सूती कपड़े पहनने ही चाहिए। अतः विद्यालयों को अपने छात्रों और शिक्षकों को सूती कपड़े पहनने की प्रेरणा देनी ही चाहिये । परामर्श देने के साथ साथ आग्रह भी करना चाहिए । इस हेतु विद्यालय का गणवेश सूती होना चाहिए । शुरुआत में सूती और क्रमशः खादी का स्वीकार किया जा सकता है।
    
लेकिन सूती गणवेश अनिवार्य होना ही पर्याप्त नहीं है, उचित भी नहीं है । सूती कपड़े की गुणात्मकता, योग्यता के बारे में समझदारी देनी चाहिए । यह आस्था, आग्रह और स्वैच्छिक रूप से स्वीकृत सिद्धान्त बनना चाहिए ।
 
लेकिन सूती गणवेश अनिवार्य होना ही पर्याप्त नहीं है, उचित भी नहीं है । सूती कपड़े की गुणात्मकता, योग्यता के बारे में समझदारी देनी चाहिए । यह आस्था, आग्रह और स्वैच्छिक रूप से स्वीकृत सिद्धान्त बनना चाहिए ।
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==== २. विद्यालय या कक्षाकक्ष में जूते नहीं पहनना ====
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==== विद्यालय या कक्षाकक्ष में जूते नहीं पहनना ====
 
विद्या, कक्षाकक्ष, विद्यालय सभी पवित्र हैं। पवित्र स्थान पर हम जूते पहन कर नहीं जाते ? आज भी इस आचरण का सर्वत्र पालन होता है । हम मन्दिर में जूते पहन कर नहीं जाते । रसोईघर में जूते नहीं पहनते । विद्यालय में
 
विद्या, कक्षाकक्ष, विद्यालय सभी पवित्र हैं। पवित्र स्थान पर हम जूते पहन कर नहीं जाते ? आज भी इस आचरण का सर्वत्र पालन होता है । हम मन्दिर में जूते पहन कर नहीं जाते । रसोईघर में जूते नहीं पहनते । विद्यालय में
    
पहनते हैं क्योंकि विद्या और विद्यालय को पवित्र नहीं मानते । कुछ समय पूर्व ऐसा नहीं था। किन्तु विद्या को पवित्र नहीं मानना यह संस्कारिता नहीं है। इससे इस संस्कार का पुनःप्रस्थापित करने हेतु विद्यालय में जूते उतारकर पढ़ने और पढ़ाने का नियम बना सकते हैं। वास्तव में यह कोई मुश्किल काम नहीं है। केवल हमारे ध्यान में नहीं आता।  
 
पहनते हैं क्योंकि विद्या और विद्यालय को पवित्र नहीं मानते । कुछ समय पूर्व ऐसा नहीं था। किन्तु विद्या को पवित्र नहीं मानना यह संस्कारिता नहीं है। इससे इस संस्कार का पुनःप्रस्थापित करने हेतु विद्यालय में जूते उतारकर पढ़ने और पढ़ाने का नियम बना सकते हैं। वास्तव में यह कोई मुश्किल काम नहीं है। केवल हमारे ध्यान में नहीं आता।  
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==== ३. भूमि पर बैठने की व्यवस्था ====
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==== भूमि पर बैठने की व्यवस्था ====
 
विद्यालयों में छात्र बैंचों या कुर्सियों पर बैठते हैं। शिक्षक कुर्सी पर बैठकर या खड़े होकर पढ़ाते हैं। आज यह धारणा बन गई है कि मेज कुर्सी के बिना काम नहीं चलेगा। आर्थिक दृष्टि से कमजोर विद्यालयों में तो ऐसी व्यवस्था नहीं होती किन्तु ऊँची फीस लेने वाले विद्यालयों के छात्र तो भूमि पर बैठ कर पढ़ ही नहीं सकते ? किन्तु खड़े होकर पढ़ाना असंस्कारिता है। पढ़ने वाला छात्र बैठा हो और पढ़ाने वाला शिक्षक खड़ा हो यह भी संस्कार के विरुद्ध है । पालथी लगाकर पढ़ने बैठना और छात्र से कुछ ऊँचे आसन पर बैठ कर पढ़ाना, योग्य पद्धति है । पालथी लगाकर बैठने से ऊर्जा मस्तिष्क की ओर प्रवाहित होती है जिससे ज्ञान ग्रहण आसान बनता है। पैर लटकाकर बैठने या खड़े रहने से अकारण ही ऊर्जा नीचे की ओर प्रवाहित होती है और ज्ञानार्जन में अवरोध उत्पन्न होता है। इसके उपाय के तौर पर ऊर्जा के कुचालक आसन (सूत या ऊन) पर पालथी लगाकर बैठकर पढ़ाने की व्यवस्था विद्यालय कर सकते हैं।
 
विद्यालयों में छात्र बैंचों या कुर्सियों पर बैठते हैं। शिक्षक कुर्सी पर बैठकर या खड़े होकर पढ़ाते हैं। आज यह धारणा बन गई है कि मेज कुर्सी के बिना काम नहीं चलेगा। आर्थिक दृष्टि से कमजोर विद्यालयों में तो ऐसी व्यवस्था नहीं होती किन्तु ऊँची फीस लेने वाले विद्यालयों के छात्र तो भूमि पर बैठ कर पढ़ ही नहीं सकते ? किन्तु खड़े होकर पढ़ाना असंस्कारिता है। पढ़ने वाला छात्र बैठा हो और पढ़ाने वाला शिक्षक खड़ा हो यह भी संस्कार के विरुद्ध है । पालथी लगाकर पढ़ने बैठना और छात्र से कुछ ऊँचे आसन पर बैठ कर पढ़ाना, योग्य पद्धति है । पालथी लगाकर बैठने से ऊर्जा मस्तिष्क की ओर प्रवाहित होती है जिससे ज्ञान ग्रहण आसान बनता है। पैर लटकाकर बैठने या खड़े रहने से अकारण ही ऊर्जा नीचे की ओर प्रवाहित होती है और ज्ञानार्जन में अवरोध उत्पन्न होता है। इसके उपाय के तौर पर ऊर्जा के कुचालक आसन (सूत या ऊन) पर पालथी लगाकर बैठकर पढ़ाने की व्यवस्था विद्यालय कर सकते हैं।
    
आर्थिक दृष्टि से भी इसमें काफी बचत है यह एक अतिरिक्त लाभ है।
 
आर्थिक दृष्टि से भी इसमें काफी बचत है यह एक अतिरिक्त लाभ है।
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==== ४. घर का भोजन ====
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==== घर का भोजन ====
 
घर का बना भोजन स्वास्थ्य और संस्कार दोनों ही रूप से अधिक लाभदायक है। घर पर माँ द्वारा प्रेम से बनाया गया भोजन मन को अच्छा बनाता है और ताजा होने के कारण से वह स्वास्थ्यप्रद भी होता है। अतः विद्यालयों का यह आग्रह होना चाहिए कि छात्र घर में बना भोजन ही विद्यालय में लायें । वह भी स्वास्थ्य के अनुकूल होना चाहिए । भोजन विषयक संस्कार, भोजन की आदतें, भोजन के विषय में आग्रह अति आवश्यक है, यह सुज्ञजन भली भाँति समझ सकते हैं। वैसे भी बाहर का, जंकफूड, कहीं भी कुछ भी न खाना यह सिखाना शिक्षा का महत्त्वपूर्ण विषय तो है ही। इसीके अंश के तौर पर छात्रों द्वारा विद्यालय मे लाया जाने वाला भोजन भी उचित प्रकार का होना चाहिए।  
 
घर का बना भोजन स्वास्थ्य और संस्कार दोनों ही रूप से अधिक लाभदायक है। घर पर माँ द्वारा प्रेम से बनाया गया भोजन मन को अच्छा बनाता है और ताजा होने के कारण से वह स्वास्थ्यप्रद भी होता है। अतः विद्यालयों का यह आग्रह होना चाहिए कि छात्र घर में बना भोजन ही विद्यालय में लायें । वह भी स्वास्थ्य के अनुकूल होना चाहिए । भोजन विषयक संस्कार, भोजन की आदतें, भोजन के विषय में आग्रह अति आवश्यक है, यह सुज्ञजन भली भाँति समझ सकते हैं। वैसे भी बाहर का, जंकफूड, कहीं भी कुछ भी न खाना यह सिखाना शिक्षा का महत्त्वपूर्ण विषय तो है ही। इसीके अंश के तौर पर छात्रों द्वारा विद्यालय मे लाया जाने वाला भोजन भी उचित प्रकार का होना चाहिए।  
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==== ५. प्लास्टिक का निषेध ====
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==== प्लास्टिक का निषेध ====
 
अब यह बात सब जानने लगे हैं कि स्वास्थ्य और वैश्विक पर्यावरण की दृष्टि से प्लास्टिक कितना हानिकारक है। सार्वजनिक दैनन्दिन जीवन में प्लास्टिक का उपयोग बहुत दिखाई देता है। इसीसे उसका उपाय भी छोटी बड़ी सभी बातों में सार्वजनिक ही होना चाहिए ? इसीके एक अंश के तौर पर छात्र को पानी की बोतल, भोजन का डिब्बा, बस्ता प्लास्टिक के स्थान पर पीतल या स्टील का डिब्बा, काँच या ताँबे की बोतल और सूती बस्ता लाने के लिये कहा जा सकता है। इनकी सामूहिक व्यवस्था भी की लिये कहा जा सकता है । इनकी सामूहिक व्यवस्था भी की जा सकती है। इस प्रकार यह काम मुश्किल भी नहीं रहेगा।  
 
अब यह बात सब जानने लगे हैं कि स्वास्थ्य और वैश्विक पर्यावरण की दृष्टि से प्लास्टिक कितना हानिकारक है। सार्वजनिक दैनन्दिन जीवन में प्लास्टिक का उपयोग बहुत दिखाई देता है। इसीसे उसका उपाय भी छोटी बड़ी सभी बातों में सार्वजनिक ही होना चाहिए ? इसीके एक अंश के तौर पर छात्र को पानी की बोतल, भोजन का डिब्बा, बस्ता प्लास्टिक के स्थान पर पीतल या स्टील का डिब्बा, काँच या ताँबे की बोतल और सूती बस्ता लाने के लिये कहा जा सकता है। इनकी सामूहिक व्यवस्था भी की लिये कहा जा सकता है । इनकी सामूहिक व्यवस्था भी की जा सकती है। इस प्रकार यह काम मुश्किल भी नहीं रहेगा।  
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==== ६. कूलर के पानी का निषेध ====
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==== कूलर के पानी का निषेध ====
 
आज कल विद्यालयों में पीने के पानी हेतु कूलर की व्यवस्था की जाती है। कुछ अति सम्पन्न विद्यालय तो वातानुकूलित भी होते हैं ? आचार्य कक्ष में वातानुकूलन व्यवस्था और रेफ्रिजरेटर सामान्य व्यवस्था मानी जाती है। न हो तो उसे गरीबी का लक्षण माना जाता है। किन्तु विज्ञान पढ़ाने वाले विद्यालयों को यह पता होना ही चाहिये कि ये दोनों ही बातें स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये हानिकारक हैं । पेयजल हेतु मटके से उत्तम कोई व्यवस्था नहीं है । विद्यालय भवन का तापमान अध्ययन के अनुकूल रखने के अन्य कई तरीके अपनाये जा सकते हैं ? विद्यालयों को प्रारम्भ में कुछ असुविधा हो सकती है परन्तु उसे सहने की सिद्धता का मार्गदर्शन देकर, विद्यालयों में कूलर, फ्रीज और वातानुकूलन का परित्याग करना चाहिए ।
 
आज कल विद्यालयों में पीने के पानी हेतु कूलर की व्यवस्था की जाती है। कुछ अति सम्पन्न विद्यालय तो वातानुकूलित भी होते हैं ? आचार्य कक्ष में वातानुकूलन व्यवस्था और रेफ्रिजरेटर सामान्य व्यवस्था मानी जाती है। न हो तो उसे गरीबी का लक्षण माना जाता है। किन्तु विज्ञान पढ़ाने वाले विद्यालयों को यह पता होना ही चाहिये कि ये दोनों ही बातें स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये हानिकारक हैं । पेयजल हेतु मटके से उत्तम कोई व्यवस्था नहीं है । विद्यालय भवन का तापमान अध्ययन के अनुकूल रखने के अन्य कई तरीके अपनाये जा सकते हैं ? विद्यालयों को प्रारम्भ में कुछ असुविधा हो सकती है परन्तु उसे सहने की सिद्धता का मार्गदर्शन देकर, विद्यालयों में कूलर, फ्रीज और वातानुकूलन का परित्याग करना चाहिए ।
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==== ७. श्रम प्रतिष्ठा ====
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==== श्रम प्रतिष्ठा ====
 
विद्यालय को स्वास्थ्यप्रद रखना चाहिए, सुशोभित रखना चाहिए, प्रसन्न और आकर्षक रखना चाहिए । किन्तु यह सब करेगा कौन ? यह सब पैसे दे कर नहीं कराना चाहिए । यह सब छात्र और शिक्षक सभी मिलकर करें यही अपेक्षित है। आज कोई यह नहीं करता क्योंकि दोनों को ही विद्यालय अपना नहीं लगता । दूसरे, यह भी मान्यता है कि ये सारे काम पढ़ाई का त्यागकर नहीं होने चाहिए । तीसरे, ऐसे काम करनेमें प्रतिष्ठा कम होना भी माना जाता है। चौथे, इन कार्यों को करने की कुशलता भी नहीं होती । पाँचवी बात है कि इन कार्यों को करने के लिये आवश्यक शरीर शक्ति भी नहीं होती। किन्तु इन सब कारणों को दूर कर श्रम की प्रतिष्ठा, विद्यालय के प्रति आत्मीयता, कार्यकुशलता में अभिवृद्धि से ही सार्थक विद्या हृदयंगम की जा सकती है।
 
विद्यालय को स्वास्थ्यप्रद रखना चाहिए, सुशोभित रखना चाहिए, प्रसन्न और आकर्षक रखना चाहिए । किन्तु यह सब करेगा कौन ? यह सब पैसे दे कर नहीं कराना चाहिए । यह सब छात्र और शिक्षक सभी मिलकर करें यही अपेक्षित है। आज कोई यह नहीं करता क्योंकि दोनों को ही विद्यालय अपना नहीं लगता । दूसरे, यह भी मान्यता है कि ये सारे काम पढ़ाई का त्यागकर नहीं होने चाहिए । तीसरे, ऐसे काम करनेमें प्रतिष्ठा कम होना भी माना जाता है। चौथे, इन कार्यों को करने की कुशलता भी नहीं होती । पाँचवी बात है कि इन कार्यों को करने के लिये आवश्यक शरीर शक्ति भी नहीं होती। किन्तु इन सब कारणों को दूर कर श्रम की प्रतिष्ठा, विद्यालय के प्रति आत्मीयता, कार्यकुशलता में अभिवृद्धि से ही सार्थक विद्या हृदयंगम की जा सकती है।
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==== ८. पाठ्यक्रमेतर गतिविधियाँ ====
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==== पाठ्यक्रमेतर गतिविधियाँ ====
 
शिक्षा को पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों और परीक्षा तक सीमित नहीं कर देना चाहिए । हम सबका अनुभव है कि यह सब करके हमने शिक्षा को अत्यन्त संकुचित बना दिया है। परिणाम स्वरुप बारह वर्ष का, सोलह वर्ष का, या चौबीस वर्षका पाठ्यक्रम पूरा करने वाले छात्र को अपने विषय के अपेक्षित ज्ञान का १०% ज्ञान भी नहीं होता ।
 
शिक्षा को पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों और परीक्षा तक सीमित नहीं कर देना चाहिए । हम सबका अनुभव है कि यह सब करके हमने शिक्षा को अत्यन्त संकुचित बना दिया है। परिणाम स्वरुप बारह वर्ष का, सोलह वर्ष का, या चौबीस वर्षका पाठ्यक्रम पूरा करने वाले छात्र को अपने विषय के अपेक्षित ज्ञान का १०% ज्ञान भी नहीं होता ।
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इसलिये परीक्षा के अतिरिक्त वाचन, अंकों से न जुड़ी हो ऐसी गतिविधियाँ करना, और स्वनिरपेक्ष अन्यों के लाभ के काम करना आदि बातें विद्यालय में होना आवश्यक है ।
 
इसलिये परीक्षा के अतिरिक्त वाचन, अंकों से न जुड़ी हो ऐसी गतिविधियाँ करना, और स्वनिरपेक्ष अन्यों के लाभ के काम करना आदि बातें विद्यालय में होना आवश्यक है ।
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==== ९. बिना बोझ की शिक्षा ====
+
==== बिना बोझ की शिक्षा ====
 
'बिना बोज की शिक्षा' का नारा चतुर्दिक गूंज रहा है। किन्तु बस्ते का वजन तो रंचमात्र भी कम नहीं हो रहा है। बस्ते में अनेक प्रकार की सामग्री होती है । यह महँगी भी होती है। ऊपर से कापियाँ, गाइडों की संख्या भी बहुत होती है । वास्तव में तो 'अँगूठा छाप के नाटक बहुत' यह सूत्र विद्यालय में सबको स्पष्ट दिखाई दे, इस प्रकार लिखा जाना चाहिए । समग्र वर्ष के दौरान जिसकी पढ़ाई का खर्च कम से कम हो उसे पारितोषिक देना चाहिये । खर्च कम और पढ़ने में श्रेष्ठ, विद्यार्थी को विशेष पारितोषक देना चाहिये।
 
'बिना बोज की शिक्षा' का नारा चतुर्दिक गूंज रहा है। किन्तु बस्ते का वजन तो रंचमात्र भी कम नहीं हो रहा है। बस्ते में अनेक प्रकार की सामग्री होती है । यह महँगी भी होती है। ऊपर से कापियाँ, गाइडों की संख्या भी बहुत होती है । वास्तव में तो 'अँगूठा छाप के नाटक बहुत' यह सूत्र विद्यालय में सबको स्पष्ट दिखाई दे, इस प्रकार लिखा जाना चाहिए । समग्र वर्ष के दौरान जिसकी पढ़ाई का खर्च कम से कम हो उसे पारितोषिक देना चाहिये । खर्च कम और पढ़ने में श्रेष्ठ, विद्यार्थी को विशेष पारितोषक देना चाहिये।
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==== १०. मातापिता की शिक्षा ====
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==== मातापिता की शिक्षा ====
 
अपने बच्चों की शिक्षा के सन्दर्भ में आजकल के शिक्षित मातापिताओं के मन में अनेक अवास्तविक अपेक्षाएँ, भ्रान्त धारणायें और अनावश्यक चिन्तायें और आग्रह घर कर गये हैं। इसका विपरीत परिणाम छात्रों की मानसिकता पर पड़ता है। परिणाम स्वरूप विद्यालयों को छात्र के साथ साथ उसके अभिभावक को भी अनिवार्य रूप से प्रशिक्षण देना चाहिये । वास्तव में तो स्वाभाविक मनोवृत्ति और समझदार मातापिता के बच्चों को ही अच्छी शिक्षा दी जा सकती है । ऐसे मातापिता ही अपने बच्चों का उचित पद्धति से विकास कर सकते हैं ।
 
अपने बच्चों की शिक्षा के सन्दर्भ में आजकल के शिक्षित मातापिताओं के मन में अनेक अवास्तविक अपेक्षाएँ, भ्रान्त धारणायें और अनावश्यक चिन्तायें और आग्रह घर कर गये हैं। इसका विपरीत परिणाम छात्रों की मानसिकता पर पड़ता है। परिणाम स्वरूप विद्यालयों को छात्र के साथ साथ उसके अभिभावक को भी अनिवार्य रूप से प्रशिक्षण देना चाहिये । वास्तव में तो स्वाभाविक मनोवृत्ति और समझदार मातापिता के बच्चों को ही अच्छी शिक्षा दी जा सकती है । ऐसे मातापिता ही अपने बच्चों का उचित पद्धति से विकास कर सकते हैं ।
  

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