Difference between revisions of "विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ"

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विद्यालय में ज्ञानार्जन का कार्य मुख्य तथा अन्य सब बातें गौण, इसे ध्यान में रखते हुए विद्यालय का समय निर्धारित करना ही भारतीय शिक्षा विचार है ।
 
विद्यालय में ज्ञानार्जन का कार्य मुख्य तथा अन्य सब बातें गौण, इसे ध्यान में रखते हुए विद्यालय का समय निर्धारित करना ही भारतीय शिक्षा विचार है ।
  
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==== अध्ययन का समय ====
 
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अन्य अनेक बातों की तरह अध्ययन-अध्यापन के समय में भी अव्यवस्था निर्माण हुई है । इसके कारण और परिणाम क्या हैं, यह तो हम बाद में देखेंगे परंतु प्रारंभ में उचित समय कौन सा है ? इसका ही विचार करेंगे । प्रथम हम विचार करेंगे कि दिन के २४ घंटे के समय में कौन सा समय अध्ययन करने के लिए अनुकूल है । हमारे सारे शाख्र, महात्मा और लोक परंपरा तीनों कहते हैं कि ब्राह्ममुहूर्त का समय चिंतन और मनन के लिए उपयुक्त है । सूर्योदय के पूर्व ४ घटिका ब्राह्ममुहूर्त का समय दर्शाती है । आज की काल गणना के अनुसार एक घटिका २४ मिनट की होती है । अर्थात्‌ सूर्योदय से पूर्व ९६ मिनट ब्राह्ममुहुरत  का काल है । इसके पूर्वार्ध में कंठस्थीकरण की शक्ति अधिक होती है । इसके उत्तराद्ध में चिंतन और मनन की शक्ति अधिक होती है । इसलिए जो भी बातें हमें कंठस्थ करनी है, वह ब्रह्ममुहूर्त के पूर्वार्ध में करनी चाहिए । जिस विषय को हम अच्छे से समझना चाहते हैं और जिसे हम कठिन मानते हैं उसके ऊपर ब्रह्ममुहूर्त के उत्तरार्ध में मनन और चिंतन करना चाहिए । ऐसा करने से कम समय में और कम परिश्रम से अधिक अच्छी तरह से ज्ञानार्जन होता है । यह तो हुई ब्रह्मुहूर्त की बात । परंतु सामान्य रूप से दिन में प्रात: काल ६:०० से १०:०० बजे तक और सायंकाल भी ६:०० से १०:०० बजे तक का समय अध्ययन के लिए उत्तम होता है। मध्यान्ह भोजन के बाद के दो प्रहर अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं हैं । इसका कारण बहुत सरल है, भोजन के बाद पाचन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है । उस समय यदि हम अध्ययन करेंगे तो उर्जा विभाजित हो जाएगी और न अध्ययन ठीक से होगा, न पाचन ठीक से होगा, यह तो दोनों ओर से नुकसान है, इसलिए दोनों समय भोजन के बाद अध्ययन नहीं करना चाहिए । भोजन के बाद तो शारीरिक श्रम भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से पाचन और विश्राम में उर्जा विभाजित होती है और शरीर का स्वास्थ्य खराब होता है ।
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
अध्ययन का समय
 
 
 
अन्य अनेक बातों की तरह अध्ययन-अध्यापन के
 
 
 
समय में भी अव्यवस्था निर्माण हुई है । इसके कारण और
 
 
 
परिणाम क्या हैं, यह तो हम बाद में देखेंगे परंतु प्रारंभ में
 
 
 
उचित समय कौन सा है ? इसका ही विचार करेंगे । प्रथम
 
 
 
हम विचार करेंगे कि दिन के २४ घंटे के समय में कौन सा
 
 
 
समय अध्ययन करने के लिए अनुकूल है । हमारे सारे
 
 
 
शाख्र, महात्मा और लोक परंपरा तीनों कहते हैं कि
 
 
 
ब्राह्ममुहूर्त का समय चिंतन और मनन के लिए उपयुक्त है ।
 
 
 
सूर्योदय के पूर्व ४ घटिका ब्राह्ममुहूर्त का समय दर्शाती है ।
 
 
 
आज की काल गणना के अनुसार एक घटिका २४ मिनट
 
 
 
की होती है । अर्थात्‌ सूर्योदय से पूर्व ९६ मिनट ब्राह्ममुह्ूर्त
 
 
 
का काल है । इसके पूर्वार्ध में कंठस्थीकरण की शक्ति
 
 
 
अधिक होती है । इसके उत्तराद्ध में चिंतन और मनन की
 
 
 
शक्ति अधिक होती है । इसलिए जो भी बातें हमें कंठस्थ
 
 
 
करनी है, वह ब्रह्ममुहूर्त के पूर्वार्ध में करनी चाहिए । जिस
 
 
 
विषय को हम अच्छे से समझना चाहते हैं और जिसे हम
 
 
 
कठिन मानते हैं उसके ऊपर ब्रह्ममुहूर्त के उत्तरार्ध में मनन
 
 
 
और चिंतन करना चाहिए । ऐसा करने से कम समय में और
 
 
 
कम परिश्रम से अधिक अच्छी तरह से ज्ञानार्जन होता है ।
 
 
 
यह तो हुई ब्रह्मुहूर्त की बात । परंतु सामान्य रूप से दिन में
 
 
 
प्रात: काल ६:०० से १०:०० बजे तक और सायंकाल भी
 
 
 
६:०० से १०:०० बजे तक का समय अध्ययन के लिए
 
 
 
उत्तम होता है। मध्यान्ह भोजन के बाद के दो प्रहर
 
 
 
अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं हैं । इसका कारण बहुत
 
 
 
सरल है, भोजन के बाद पाचन के लिए ऊर्जा की
 
 
 
आवश्यकता होती है । उस समय यदि हम अध्ययन करेंगे
 
 
 
तो उर्जा विभाजित हो जाएगी और न अध्ययन ठीक से
 
 
 
होगा, न पाचन ठीक से होगा, यह तो दोनों ओर से
 
 
 
नुकसान है, इसलिए दोनों समय भोजन के बाद अध्ययन
 
 
 
नहीं करना चाहिए । भोजन के बाद तो शारीरिक श्रम भी
 
 
 
नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से पाचन और
 
 
 
विश्राम में उर्जा विभाजित होती है और शरीर का स्वास्थ्य
 
 
 
खराब होता है ।
 
  
 
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Revision as of 18:57, 20 December 2019

विद्यालय का समय

1.कक्षा के अनुसार विद्यालय का समय कुल कितने घण्टे का होना चाहिये ?

2. कुल समय दिन में कब से कब तक का होना चाहिये ?

3. विद्यालय के समय में कालांश विभाजन किस प्रकार से करना चाहिये ?

4. कक्षा को ध्यान में रखते हुए विभिन्न कालांशो में विषयों का क्रम कैसे रखना चाहिये ?

5. मध्यावकाश क्यों, कितने, कब और कितनी अवधि के होने चाहिये ?

6. ऋतु के अनुसार विद्यालय के समय एवं अवधि में किस प्रकार का परिवर्तन करना चाहिये ?

7. वर्ष भर में कितने दिन का विद्यालय होना चाहिये ?

8. वर्ष में छुट्टियां क्यों, कितनी, कब एवं कितनी अवधि की होनी चाहिये ?

9. विभिन्न विषयों के अनुसार क्‍या कालांश की अवधि बदल सकते हैं ?

10. क्षेत्र के अनुसार समय, अवधि, अवकाश आदि में किस प्रकार का परिवर्तन हो सकता है ?

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

विद्यालय का समय कौनसा होना चाहिए, इस बात पर समाज मन क्या विचार करता है, यह जानने के लिए दस प्रश्नों के विस्तृत उत्तर राजस्थान जोधपूर से ओमप्रकाश पुरोहितने भरकर भेजी है ।

प्रश्न १ के उत्तर में, प्राथमिक विभाग के लिये ५ घंटे माध्यमिक विभाग के एक ६ घंटे का समय उचित है और यह उत्तर अधिकांश उत्तरदाताओंने दिया है ।

प्रश्न २ के उत्तर में, विद्यार्थियों की आयु एवं सुविधा को देखते हुए प्रात: ९ बजे से अपराह्क ३े बजे तक का समय रहना चाहिये । अगर विद्यालय, छात्र संख्या अधिक होने के कारण दो पारियों में चलता हैं तो प्रथम पारी का समय प्रातः ७ से १२ बजे तक और द्वितीय पारी का समय १२.३० बजे से ५.३० बजे तक रखना चाहिये ऐसा मत आया है ।

समय सारिणी में गणित एवं अंग्रेजी भाषा जैसे कठिन विषय प्रारम्भ के कालांशों में रखे जायें, तथा इन कालांशों का समय ३५ मिनट होना चाहिए । पुनरुत्साह निर्माण एवं आवश्यकता पूर्ति हेतु १०-१० मिनट की दो लघु विश्रान्तियाँ एवं भोजन हेतु ३० मिनट का एक मध्यावकाश होना चाहिए । ऐसा अभिप्रायः लगभग सभी लोगों का है ।

ऋतु अनुसार विद्यालय समय में परिवर्नत करना चाहिए । गर्मी में सुबह के समय एवं सर्दियों में दोपहर के समय विद्यालय चलाना उचित रहता है । इस आशय के उत्तर प्राप्त हुए हैं ।

एक शिक्षा सत्र में कितने कार्यदिवस होने चाहिए ?

इस प्रश्न के उत्तर में दो लागों ने लिखा है कि प्रतिदिन कार्य दिवस हो अर्थात्‌ ३६५ दिन विद्यालय चलना चाहिए । शेष ने लिखा है कि २५० दिन तो विद्यालय चलना ही चाहिए ।

दसवें प्रश्न के उत्तर में जोधपुर के श्री जगदीश पुरोहितने अपना मन्तव्य व्यक्त किया है कि भारत जैसे विस्तृत भूभाग वाले देश में जलवायु परिवर्तन के अनुसार क्षेत्रश: विद्यालय समयावधि में भी परिवर्तन अवश्य करना चाहिये ।

अभिमत - प्रश्नावलली भरकर देने वाले सभी महानुभाव विद्यालय के दैनन्दिन शैक्षिक कार्य से जुड़े हुए थे । अतः प्रश्नावली के सभी प्रश्नों से पूर्ण रूपेण परिचित व अनुभवी थे । अतः सुविधा एवं समायोजन के विचारों से ग्रस्त होने के कारण विद्यालय समय के सम्बन्ध में भारतीय विचार क्या हैं उनका विस्मरण कर गये । ऐसा उनके उत्तरों से लगा ।

ब्रह्ममुहूरत अध्ययन के लिये उत्तम समय है यह भारतीय चिन्तन है। परन्तु इस समय विद्यालय लगाना सम्भव नहीं, अतः प्रात: ७-३० बजे का समय ज्ञानार्जन के लिए उपयुक्त होते हुए भी विद्यार्थियों को बहुत जल्दी उठना न पड़े, इसलिये प्रातः ९ बजे का समय उचित समझा गया है । दो पारी विद्यालय में दूसरी पारी मध्याह्म १२-३० बजे से चलना, ज्ञानार्जन की दृष्टि से सर्वथा अनुपयोगी समय है। ज्ञानार्जन में भोजनोपरान्त का समय सबसे अधिक बाधक माना जाता है । इस समय विद्यालय चलाने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता । इतना अवश्य समझ में आता है कि यह समय सबके लिए सुविधाजनक अवश्य है, परन्तु केवल सुविधा के लिए बाधक समय रखने में कितनी सुज्ञता है, आप ही विचार करें ।

विद्यालय में प्रत्येक रविवार को और कहीं कहीं तो शनि रवि दोनों दिन छुट्टी रहती है । इस छुट्टी का प्रयोजन क्या है ? केवल विश्रान्ति । हमारे शास्त्रों ने तो उत्तम अध्ययन के दिन, सामान्य अध्ययन के दिन एवं अनध्ययन के दिनों का गहनता से विचार किया है । प्रतिमास शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या एवं पूर्णिमा ये अनध्ययन के दिन माने गये हैं । प्रत्येक मास की दोनों अष्टमी तथा अमावस्या एवं पूर्णिमा को छुट्टी रखने से दोनों हेतु साध्य होते हैं । अध्ययन के अनुकूल दिनों में ज्ञानार्जन करना तथा अनध्ययन के दिनों में विश्राम लेना, इस सूत्र को स्वीकारना अधिक उचित प्रतीत होता है ।

विद्यालय में ज्ञानार्जन का कार्य मुख्य तथा अन्य सब बातें गौण, इसे ध्यान में रखते हुए विद्यालय का समय निर्धारित करना ही भारतीय शिक्षा विचार है ।

अध्ययन का समय

अन्य अनेक बातों की तरह अध्ययन-अध्यापन के समय में भी अव्यवस्था निर्माण हुई है । इसके कारण और परिणाम क्या हैं, यह तो हम बाद में देखेंगे परंतु प्रारंभ में उचित समय कौन सा है ? इसका ही विचार करेंगे । प्रथम हम विचार करेंगे कि दिन के २४ घंटे के समय में कौन सा समय अध्ययन करने के लिए अनुकूल है । हमारे सारे शाख्र, महात्मा और लोक परंपरा तीनों कहते हैं कि ब्राह्ममुहूर्त का समय चिंतन और मनन के लिए उपयुक्त है । सूर्योदय के पूर्व ४ घटिका ब्राह्ममुहूर्त का समय दर्शाती है । आज की काल गणना के अनुसार एक घटिका २४ मिनट की होती है । अर्थात्‌ सूर्योदय से पूर्व ९६ मिनट ब्राह्ममुहुरत का काल है । इसके पूर्वार्ध में कंठस्थीकरण की शक्ति अधिक होती है । इसके उत्तराद्ध में चिंतन और मनन की शक्ति अधिक होती है । इसलिए जो भी बातें हमें कंठस्थ करनी है, वह ब्रह्ममुहूर्त के पूर्वार्ध में करनी चाहिए । जिस विषय को हम अच्छे से समझना चाहते हैं और जिसे हम कठिन मानते हैं उसके ऊपर ब्रह्ममुहूर्त के उत्तरार्ध में मनन और चिंतन करना चाहिए । ऐसा करने से कम समय में और कम परिश्रम से अधिक अच्छी तरह से ज्ञानार्जन होता है । यह तो हुई ब्रह्मुहूर्त की बात । परंतु सामान्य रूप से दिन में प्रात: काल ६:०० से १०:०० बजे तक और सायंकाल भी ६:०० से १०:०० बजे तक का समय अध्ययन के लिए उत्तम होता है। मध्यान्ह भोजन के बाद के दो प्रहर अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं हैं । इसका कारण बहुत सरल है, भोजन के बाद पाचन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है । उस समय यदि हम अध्ययन करेंगे तो उर्जा विभाजित हो जाएगी और न अध्ययन ठीक से होगा, न पाचन ठीक से होगा, यह तो दोनों ओर से नुकसान है, इसलिए दोनों समय भोजन के बाद अध्ययन नहीं करना चाहिए । भोजन के बाद तो शारीरिक श्रम भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से पाचन और विश्राम में उर्जा विभाजित होती है और शरीर का स्वास्थ्य खराब होता है ।

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

इसी प्रकार मास की अवधि के ३० दिन, तीन

प्रकार से विभाजित किए जाते हैं । एक प्रकार है उत्तम

अध्ययन के दिन, दूसरा है मध्यम अध्ययन के दिन और

तीसरा है अनध्ययन के दिन । दोनों पक्षों की प्रतिपदा,

अष्टमी और चतुर्दशी तथा पूर्णिमा और अमावस्या अन

ध्ययन के दिन हैं । इन दिनों में अध्ययन करने से अध्ययन

तो नहीं ही होता उल्टा नुकसान होता है । शेष २२ दिनों में

आधे मध्यम अध्ययन के हैं और आधे उत्तम अध्ययन के ।

शुक्ल पक्ष की नवमी से त्रयोद्शी तक और कृष्ण पक्ष की

द्वितीया से सप्तमी तक के दिन उत्तम अध्ययन के दिन हैं ।

कृष्ण पक्ष की नवमी से त्रयोदशी तक, शुक्ल पक्ष की

द्वितीया से सप्तमी तक के दिन मध्यम अध्ययन के हैं । उत्तम

अध्ययन के दिनों में नया विषय शुरू करना चाहिए, गंभीर

विषय का अध्ययन करना चाहिए और अधिक कठिन और

अटपटे विषय अध्ययन के लिए चुनना चाहिए । मध्यम

अध्ययन के दिनों में पुनरावर्तन कर सकते हैं, सरल विषयों

का चयन कर सकते हैं और क्रियात्मक अध्ययन भी कर

सकते हैं । अध्ययन-अनध्ययन और

उत्तम अध्ययन का यह विभाजन परंपरा से चला आ रहा

है, यह तो हम जानते हैं । गावों में भी लोग इसे जानते हैं

परंतु इस विभाजन का आधार क्या है प्रमाण क्या है ?

हम अध्ययन के दिन के विषय में कुछ अनुमान कर

सकते हैं । अमावस्या को वैसे भी अपवित्र माना जाता है ।

उस समय अध्ययन जैसा पवित्र कार्य नहीं करना चाहिए,

चतुर्दशी भी अमावस्या के समान अपवित्र मानी जाती है

इसलिए उसे भी अनध्ययन के दिन में गिना जा सकता है ।

इतना ही ध्यान में आता है शेष दिनों के लिए अनुमान नहीं

हो सकता है । एक बहुत सीधा-साधा अनुमान है कि १

मास के चार भाग बनाकर नियमित अंतराल में अनध्ययन

की व्यवस्था करने से व्यवहारिक सुविधा रहती हैं, इसलिए

अनध्ययन की व्यवस्था की होगी । अनध्ययन के दिनों में

व्यवहार के अन्य अनेक उपयोगी कार्य हो सकते हैं । एक

व्यवस्था बनाने से सबके लिए सुविधा रहती है ।

अध्ययन दिन तथा अनध्ययन दिन : चन्द्रमा का प्रभाव

क्रम अध्ययन स्तर दिनांक

१... अध्ययन के लिए प्रतिकूल दिन g

R ८

3 &¥

¥ १५

५ aq

& R83

७ R88

c ३०

१... साधारण अनुकूल दिन २

Ro 3

88 ¥

RR प्‌

88 जज

ay ७७

श्५ aw

aq २५

$88

faa चंद्र गमन अंक

शुक्ल प्रतिपदा ०-१२" ३६७

शुक्ल अष्टमी ८४-९६" ३९७

शुक्ल चतुर्दशी १५६१-१६८" way

पूर्णिमा १६८*-१८०" ३५७

a. wearer १८०१-१९२१ ३३६

कृ. अष्टमी २६४"-२७६" ४२०

कृ. चतुर्दशी र३६१-३४८" ४२६

अमावास्या र४८”-३६०” ३५६

शु. द्वितीया ११२१-२४" ४७९

शु. तृतीया २४-३६" ४७७

शु. चतुर्थी ३६-४८" ४७६

शु. पंचमी ४८"-६०" ४७९

शु. षष्टी ६०१९-७२" ९२

शु. सप्तमी ७२९१-८४" ८२

कृ. नवमी २७६*-२८८* ४७२

a. art २८८*-३००” ४७१

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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

२६ कृ. एकादशी ३००१-३१२* ४६७

२७ mH. द्वादशी २१२१-३२४” ४८२

२८ a. त्रयोदशी २२४-३३६" ४८१

२०... अध्ययन के लिए अत्यंत अनुकूल दिन g शु. नवमी RRP Roe? ५१८

२१ Ro शु, दशमी १०८"-१२०१ ५३८

२२ श्श शु. एकादशी श२०१-१३२* ५७३

२३ श्२ शु. द्वादशी श३२१-१४४" ५७३

a a3 शु. त्रयोदशी श४४"-१५६" ५७१

२५ श७ कृ. द्वितीया श९२१-२०४ ५१४

२६ श्८ कृ. तृतीया २०४१-२१६" KRY

२७ श्९्‌ कृ. चतुर्थी २१६१-२२८" ५६८

२८ २० कृ. पंचमी २२८”-२४०” ५७६

२९ २१ a. et २४०१-२५२* ५७४

Ro २२ कृ. सप्तमी २५२१-२६४" ५४९

मनुस्मृति में प्राप्त अनध्ययनकाल के संकेत

निर्धघाते भूमिचलने ज्योतिषां चोपसर्जने ।

एतानाकलिकान्विद्यादनध्यायानृतावपि ।।

वर्षाकाल में मेघगर्जना, भूकम्प एवं सूर्यादि ज्योतियों का उपद्रब होने पर अनध्याय रखना चाहिये ।। ४.१०५ ।।

ग्रादुष्कृतेष्वथ्रिषु तु विद्यात्स्तनितनि:स्वने ।

सज्योति: स्यादनध्याय: शेषे रात्रौ यथा दिवा ॥।

अग्रिहोत्र के अग्नि के प्रकट होने के बाद प्रातःकाल में बिजली का कौंधना और मेघों का गरजना हो तो सूर्य

के रहने तक अर्थात्‌ दिन में और सायंकाल में हो तो ताराज्योति के रहने तक अर्थात्‌ रात्रि में अनध्याय रखना चाहिये ।। ४.१०६ II

नित्यानध्याय एव स्यादू ग्रामेषु नगरेषु च ।

धर्मनैपुण्यकामानां पूतिगन्धे च सर्वदा ॥।

इसके अलावा जहां दुर्गनध का saga at वहाँ भी अध्ययन नहीं करना चाहिये ।। ४.१०७ ॥।

अन्तर्गतशवे ग्रामे वृषलस्य च सच्निधौ ।

अनध्यायो रुद्यमाने समवाये जनरूय च ||

गांव में मृतदेह की उपस्थिति हो, पास में कहीं शूटर की उपस्थिति हो, जोरों से रुदन चल रहा हो और

जनसम्मर्द हो तब भी अध्ययन नहीं करना चाहिये ।। ४.१०८ ॥।

उदके मध्यरात्रे च विण्मूत्रस्य विसर्जने ।

उच्छिष्ट: श्राद्धभुक्‌ चैव मनसापि न चिन्तयेत्‌ ॥।

पानी में, मध्यरात्रि में, मलमूत्र विसर्जन के समय, जूठे मुँह से एवं श्राद्ध का भोजन करने के बाद एक दिन रात

बीतने तक मन से भी अध्ययन नहीं करना चाहिये ।। ४.१०९ ।।

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

9. विद्यालय में गणवेश होना चाहिये ? क्यों ?

2. कपड़ा, रंग, पैटर्न आदि के सन्दर्भ में गणवेश

कैसा होना चाहिये ?

3. सप्ताह में एक से अधिक प्रकार का गणवेश

क्योंह्हहोना चाहिये ?

४. विद्यालय में छात्र, आचार्य, प्रधानाचार्य,

कार्यालय कर्मी, सहायक, व्यवस्थापक आदि

विभिन्न वर्गों के व्यक्ति होते हैं। उनमें से किन

किन के लिये गणवेश आवश्यक है ?

५... गणवेश में इन बातों का समावेश हो सकता है

क्या ?

१. कपड़े २. पादत्राण ३. केशभूषा ४. शुंगार ५.

आभूषण |

६... गणवेश के आर्थिक पक्ष के विषय में आपके क्या

विचार हैं ?

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

विद्यालय में गणवेश की आवश्यकता पर ऊहापोह

करने वाली इस प्रश्नावली में कुल ६ प्रश्न थे । उडिसा के

३८ शिक्षकों एवं १० प्रधानाचार्यों ने ये प्रश्नावलियाँ भरकर

भेजी हैं । उडिसा के विद्याभारती के कार्यकर्ता श्री मोहन

पात्र के द्वारा प्राप्त हुई है ।

प्रश्न १ के उत्तर में सबने कहा है कि गणवेश केवल

आवश्यक ही नहीं तो अनिवार्य है। अनिवार्यता के ये

कारण बताये । धनवान और गरीब छात्रों में समानता,

एकात्मभाव का निर्माण तथा गणवेश विद्यालय की पहचान

का एक साधन है ।

२. गणवेश के पेटर्न के सम्बन्ध में सभी मौन रहे ।

परन्तु कपड़े व रंग के बारे में उनका मत है कि गणवेश का

कपड़ा सूती व रंग सफेद व नीला होना चाहिये ।

३. कुछ लोगों ने बताया कि सप्ताह में एक दिन

शारीरिक शिक्षा के लिए गणवेश में बदलाव होना चाहिए ।

४. लगभग सबका यह मत था कि संचालक मंडल

विद्यालय में गणवेश

श्२१

को छोड़कर शेष सबका अर्थात्‌ छात्र, शिक्षक, प्रधानाचार्य

और सेवक का गणवेश होना चाहिए ।

५. गणवश के अन्तर्गत पदवेश, आभूषण, केश

विन्यास आदि के बारे में किसी ने भी अपना मत नहीं

रखा ।

इन लोगों के अलावा समाज के अन्य लोगों के साथ

गणवेश के सम्बन्ध में जानने का प्रयास किया, जिसमें कुछ

नये सुझाव प्राप्त हुए । शिशुकक्षाओं के बच्चों को गणवेश

के बन्धन में नहीं बाँधना चाहिए । उन्हें उनकी पसन्द के

रंग-बिरंगे कपड़े, फ्रॉंक व निकर कमीज पहनने देना

चाहिए । कुछ का मत यह भी था कि ग्रामीण क्षेत्र के

विद्यालय में वहाँ का पारम्परिक वेश भी रहे तो अच्छा

संस्कार होगा ।

अभिमत :

हम सब एक ही परमात्मा के अंश हैं, इस लिए

एकात्म हैं । इस मूल एकात्म भावना को ध्यान में न रखकर

वसख्रों के आधार पर समानता लाने का विचार संकुचित

लगा । इस ऊपरी समानता लाने के विचार का कभी-कभी

इतना अधिक अतिरेक दिखाई देता है कि कुछ विद्यालयों में

छात्र-छात्राओं दोनों के लिए समान हाफ पेन्ट का गणवेश

है । अभिभावकों को भी इसमें कुछ अटपटा नहीं लगता ।

बचपन से हाफ पेन्ट पहनने वाली इन छात्राओं को बड़े

होकर पुरुष वस्त्र पहनने में कुछ भी संकोच नहीं होता । स्त्री

पुरुष भेद के पीछे प्रकृति का रहस्य न समझने वाले, वस्त्र

ट्वारा समानता लाने का प्रयास जब करते हैं, तो गणवेश

विचित्रता का एक नमूना बनकर रह जाता है ।

विमर्श

वास्तविकता में तो गणवेश और ज्ञानार्जन का सीधा

सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है । गलत विचारों के कारण गलत

बातें करने में हमारी बाध्यता कैसी गलत होती हैं, इसका

भान ही नहीं है । आज ऐसी परिस्थिति व मनःस्थिति है कि

गणवेश में यदि छूट दी जाय तो पार्टियों में जैसे विचित्र

पहनावे पहने जाते हैं, वैसे ही विद्यालय में पहनकर आ

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जाते हैं । आज अनुभव में आता है कि

ae Het कपड़ों में स्मार्ट दिखने वाले हमारे ही बालक

गणवेश के विषय में लापरवाह और दृब्बु दिखते हैं ।

आजकल गणवेश में कपड़ों के साथ जूते मोजे, टाई, बस्ता,

बोटल आदि सबका समावेश होने लगा है । गणवेश की

अनिवार्यता और कठोरता के परिणाम स्वरूप इन सभी

सामग्रियों का व्यापार बहुत अधिक बढ़ गया है । शिक्षा के

क्षेत्र में शिक्षा के महत्त्व से भी इतर शैक्षिक सामग्री के

व्यापार का महत्त्व अधिक हो गया है । फलस्वरूप शिक्षा

गौण हो गई है ।

आज कोई भी विद्यालय ऐसा नहीं होगा, जिसमें

छात्रों के लिये गणवेश न हो । यहाँ तक कि सरकारी

प्राथमिक विद्यालयों में भी गणवेश होता है ।

अन्य अनेक बातों की तरह गणवेश के सम्बन्ध में भी

समुचित विचार करने की आवश्यकता है ।

०"... गणवेश का वास्तविक सम्बन्ध पढने के साथ नहीं

है। किसी भी प्रकार के वस्त्रों में भी अध्ययन तो

होता ही है । इसलिये गणवेश का सम्बन्ध अन्य

बातों से जोड़ना चाहिये ।

गणवेश का मुख्य उद्देश्य है समूहभावना और एकत्व

की भावना । जहाँ एक होकर समन्वय कर काम

करना है वहाँ गणवेश होता है। सैनिक, पुलीस,

खिलाड़ी, एनसीसी आदि में गणवेश होता है ।

सेवक, डाकिया, मजदूर आदि का भी गणवेश होता

a |

कई कम्पनियों में तथा उद्योगगृहों में भी गणवेश होता

a |

विद्यालय में सामान्यतः विद्यार्थियों के लिये गणवेश

होता है, कहीं-कहीं शिक्षकों के लिये भी होता है

और बहुत ही अल्प संख्या में संचालकों के लिये भी

गणवेश होता है । वास्तव में शिक्षकों के लिये तो

गणवेश होना ही चाहिये ।

गणवेश अपने-अपने कार्य की संस्कृति के अनुरूप

होना चाहिये । विद्यार्थी और शिक्षकों के लिये

अध्ययन के अनुरूप सादगी, व्यवस्थितता और

RR

भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

सुरुचिपूर्ण गणवेश होना चाहिये । गणवेश का रंग भी

भड़कीला नहीं होना चाहिये ।

गणवेश का आकार-प्रकार भी अध्ययन-अध्यापन

करने वालों को शोभा देने वाला होना चाहिये ।

गणवेश सूती ही होना चाहिये । कृत्रिम वस्त्रों वाला

गणवेश स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिये

हानिकारक है । आज सर्वत्र कृत्रिम वस्त्रों की भरमार

हो रही है, तब विद्यालय को सूती वस्त्र अपनाकर

समाज को विधायक सन्देश देना चाहिये ।

इसी प्रकार कारखाने में बने तैयार कपड़े नहीं अपितु

दर्जी द्वारा सिले गये कपड़े ही गणवेश के लिये

अपनाने चाहिये । कारखाने में बिकने वाले कपड़े भी

किसी न किसी दर्जीने ही सिले होते हैं परन्तु

कारखाने के कपड़ों के लिये दर्जी नौकर होता है,

मालिक नहीं । दर्जी जहाँ मालिक है, ऐसी व्यवस्था

में बने कपड़े ही गणवेश के लिये प्रयोग में लाने

चाहिये ।

जहाँ कारीगर नौकर होते हैं वहाँ समाज alts

बनता है, जहाँ मालिक होते हैं वहाँ सुख और समृद्धि

दोनों आते हैं । विद्यालय समाज को सुख और समृद्धि

का मार्ग दिखाने के लिये ही है । अतः कारखानों में

बना गणवेश नहीं चाहिये ।

गणवेश यदि खादी का हो तो और भी अच्छा है । यदि

दो जोड़ी गणवेश हो तो एक खादी का हो सकता है ।

वस्त्रोद्योग में खादी का महत्त्वपूर्ण स्थान है यह भूलना

नहीं चाहिये ।

गणवेश की छुट्टी

०... लगभग सर्वत्र सप्ताह में एक दिन गणवेश की छुट्टी

होती है । इसका कारण समझना कठिन है । मूलतः

इसका कारण, जब एक दिन छुट्टी रखना शुरू हुआ तब

का बहुत योग्य है । उस समय लोग वस्त्रों के लिये

आज की तरह बहुत पैसे खर्च नहीं करते थे । इसलिये

गाँवों और नगरों में प्रायः एक जोड़ी गणवेश ही होता

था । तब सोमवार और मंगलवार को गणवेश पहनो,

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

बुधवार को धोओ, फिर गुरुवार और शुक्रवार को

पहनो, फिर शनिवार को आधा ही दिन होता था

इसलिये तीसरे दिन पहनो, रविवार को फिर धोओ ।

इस प्रकार एक ही गणवेश वर्षभर चलाया जाता था ।

धुला हुआ भी पहना जा सकता था, एक ही कपड़ा

दूसरे दिन पहनना है इसलिये मैला नहीं होने का

अनुशासन भी सीखा जाता था, वर्षभर एक ही वस्त्र

पहनने की मितव्ययिता भी सीखी जाती थी । उस समय

बुधवार को गणवेश की छुट्टी आवश्यक थी । आज

स्थिति ऐसी नहीं है । दो जोड़ी गणवेश कम से कम

होता है । शनिवार को अलग गणवेश भी कहीं कहीं

पर होता है । ऐसी स्थिति में एक दिन गणवेश की छुट्टी

की आवश्यकता ही नहीं है। परन्तु आज की

मानसिकता बदल गई है । अब एक ही एक प्रकार का

कपड़ा पहनकर मजा नहीं आता है अतः वैविध्य के

लिये, मन को अच्छा लगे इसलिये एक दिन गणवेश

की छुट्टी माँगी जाती है ।

जिस दिन गणवेश की छुट्टी होती है, उस दिन जिस

प्रकार के कपड़े पहनकर विद्यार्थी आते हैं उसे देखकर संस्कार

और सुरुचि की कितनी दुर्गति हुई है इसका पता चलता है ।

अतः गणवेश का प्रयोग उसकी मूल भावना को

स्वीकार करके करना चाहिये ।

गणवेश में केवल वस्त्र का ही समावेश नहीं होता,

पदवेश अर्थात्‌ जूते और केशभूषा का भी होता है । कैशभूषा

भी संयमित होनी चाहिये । अतिरिक्त अलंकार नहीं होने

चाहिये । जूते कपडे अथवा चमडे के ही होने चाहिये, रबर

प्लास्टिक के कदापि नहीं ।

महाविद्यालय में पहुँचकर विद्यार्थी गणवेश से मुक्त होने

का अनुभव करते हैं । माध्यमिक विद्यालय के अन्तिम वर्ष में

कब गणवेश से मुक्ति मिले इसकी

प्रतीक्षा करते हैं । इसका अर्थ यह है कि गणवेश को शिक्षकों

और विद्यार्थियों ने सत्कार पूर्वक स्वीकार नहीं किया है,

बन्धन की तरह, बोझ की तरह ही स्वीकार किया है । इस

मनः स्थिति को तो आपग्रहपूर्वक बदलना चाहिये ।

०... आज गणवेश को लेकर ही बडा बाजार चलता है ।

कहीं कहीं विद्यालय भी उस बाजार से जुड गये हैं ।

कहीं कहीं सबकी सुविधा के लिये विद्यालय ही

गणवेश का प्रबन्ध करता है । विद्यालय सुविधा के

लिये करता है तब तो ठीक है परन्तु बाजार का अंग

बनता है तब उसका शैक्षिक प्रभाव कम हो जाता है ।

इससे बचना चाहिये ।

०"... गणवेश में विद्यार्थियों के पैण्ट और विद्यार्थिनियों के

पायजामे कमर से नीचे के शरीर के साथ घर्षण न करते

हों अर्थात्‌ तंग न हों इसका विशेष ध्यान रखना

चाहिये । गणवेश के अलावा जो कपडे पहने जाते हैं

उनमें भी यह ध्यान रखना चाहिये । इसका सम्बन्ध

बालक बालिकाओं की जननक्षमता के साथ है ।

इस सन्दर्भ में एक गम्भीर समस्या की अन्यत्र की गई

चर्चा का स्मरण करना उचित होगा । जननशाख्र के

शोधकर्ताओं का कहना है कि आज के युवक युवतियों की

जननक्षमता का चिन्ताजनक मात्रा में क्षरण हो रहा है । इसके

तीन चार कारणों में से एक कारण है कमर के नीचे के तंग

कपडे और मोटरसाइकिल की सवारी । इसका उपाय वस्त्रों का

स्वरूप बदलना ही है । इसी कारण से हमारी परम्परा में पुरुषों

के लिये धोती अथवा खुले पायजामे और खियों के लिये

घाघरे, स्कर्ट और साडी का प्रचलन था । अन्य कई बातों की

तरह हमने कपडों के सम्बन्ध में भी वैज्ञ

ानिक पद्धति से विचार

करना छोड दिया है ।

विद्यालय की बैठक व्यवस्था

2. बैठक व्यवस्था में भारतीय एवं अभारतीय ऐसे

भेद होते हैं क्या ? यदि होते हैं तो क्यों होते हैं ?

आप किसके पक्ष में हैं ? क्यों ?

2. बैठक व्यवस्था में शास्त्रीय पद्धति से हम किस

प्रकार से विचार कर सकते हैं ?

३... आर्थिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में

............. page-140 .............

भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

किस प्रकार से विचार करना... व्यवस्था ही है । संस्कारक्षम वातावरण का आन्तरिक स्वरूप

चाहिये ? क्या हो यह किसी के भी ध्यान में नहीं आया । सातवें प्रश्न के

४. . व्यावहारिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में उत्तर में पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यालय आदि में भारतीय

'विचार करते समय किन किन बातों का ध्यान... बैठक व्यवस्था उचित नहीं ऐसा ही सबका मत था ।

रखना चाहिये ? अभिमत : भारतीय और अभारतीय बैठक व्यवस्था में

G. बैठक व्यवस्था का. संस्कारक्षम वातावरण. क्या अन्तर है इसकी स्पष्टता तो है। परन्तु आजकल

निर्मिति की दृष्टि से क्या महत्त्व है ? विद्यालय, महाविद्यालय, सार्वजनिक सभागृह, कार्यालय एवं

६. बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में लोगों की. घरों में टेबलकुर्सी का उपयोग हमें इतना अनिवार्य लगता है

मानसिकता कैसी होती है ? कि अब हमें भारतीय बैठक व्यवस्था सर्वथा निरुपयोगी लगने

७. क्या. कक्षाकक्ष, praia, पुस्तकालय, लगी है । कुर्सी पर बैठकर भाषण सुनना प्रतिष्ठा का लक्षण

प्रयोगशाला आदि विभिन्न कार्यस्थलों के अनुरूप... माना जाता है । जबकि सुनने का सम्बन्ध कुर्सी से नहीं है,

भिन्न भिन्न प्रकार की बैठक व्यवस्था होनी. एकाग्रता व ग्रहणशीलता से है । परन्तु हमने तो इसे प्रतिष्ठा व

चाहिये ? अआप्रतिष्ठा का रंग चढ़ा दिया है ।

८... बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में छोटी छोटी किन

बातों विमर्श

किन बातों का ध्यान करना चाहिये ?

आसन पर बैठना

प्रश्नावली से प्राप्त उत्त दूसरा छात्रों की आयु व उनके शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि

विद्यालय की बैठक व्यवस्था से सम्बन्धित आठ प्रश्नों... से नीचे बैठने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है ।

की यह प्रश्नावली महाराष्ट्र के अकोला जिले के १९ शिक्षकों, .. फिर भी डेस्क व बैंच या टेबल-कुर्सी की अनिवार्यता बना

५ मुख्याध्यापकों, १५ अभिभावकों एवं ४ संस्था संचालकों देना किसी भी प्रकार से शास्त्र सम्मत नहीं है । फिर भी सर्वदूर

अर्थात्‌ कुल ४३ लोगों ने भरकर भेजी है । इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है । हमारे यहाँ तो नीचे

प्रथम प्रश्न के उत्तर से यह तो स्पष्ट ध्यान में आता है... भूमि पर मोटा आसन बिछाकर उस पर बैठना और सामने

कि यह तो सभी जानते हैं कि भारतीय और अभारतीय ऐसी. ढालिया (छोटी डेस्क) रखा होना, आदर्श व्यवस्था मानी

दो प्रकार की बैठक व्यवस्था होती है । किन्तु आगे के... जाती है । टेबल कुर्सी पर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा अधोगामी

उपप्रश्नों का उत्तर लिखते समय कुछ वैचारिक संश्रम दिखाई. होकर पैरों के द्वारा पृथ्वी में चली जाती है । जबकि नीचे

देता है। भारतीय बैठक व्यवस्था सस्ती होने के कारण... पद्मासन या सुखासन में मेरू दण्ड को सीधा रखकर बैठने से

कमजोर आर्थिक स्थिति वाले विद्यालयों के लिए ठीक है... शरीरस्थ ऊर्जा उर्ध्वमुखी होकर मस्तिष्क में जाती है । आसन

ऐसा मानते हैं । शास्त्रीय दृष्टि से बैठक व्यवस्था का विचार... लगाकर बैठने से दोनों पाँवों में बन्ध लग जाता है, इसलिए

किसी भी उत्तर में नहीं मिला । व्यावहारिक दृष्टि से बैठक... ऊर्जा अधोगामी नहीं हो पाती । पीठ सीधी रखकर बैठने से

व्यवस्था का विचार करने वाले बिन्दु और लोगों की... एकाग्रता आती है व ग्रहणशीलता बढती है । मस्तिष्क को

मानसिकता इन दोनों प्रश्नों के उत्तर में सब मौन रहे हैं ।. ऊर्जा मिलते रहने से अधिक समयतक पढ़ा जाता है ।

पाँचवे प्रश्न में संस्कारक्षम वातावरण निर्माण करने हेतु कक्षा- वटवृक्ष के नीचे उच्चासन में गुरु बैठे हैं, उनके सामने

कक्ष में चित्र, चार्ट्स, सुविचार आदि लगाने चाहिए ऐसे उत्तर... नीचे भूमि पर सुखासन में मेरुदण्ड को सीधा रखकर सभी

मिले हैं । परन्तु वास्तव में ये सारी सामग्री लगाना तो कक्षा... शिष्य बैठे हुए हैं । यह मात्र गुरुकुल का चित्र नहीं है, अपितु

कक्ष का सुशोभन करना मात्र ही है, यह तो केवल बाहरी... ज्ञानार्जन के लिए बैठने की आदर्श व्यवस्था का चित्र है । जो

श्स्ढ

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

आज भी विद्यालयों में सम्भव है । परन्तु आज के विद्यालयों

का चित्र तो भिन्न है । धनदाता अभिभावकों के बालक तो

टेबलकुर्सी पर आराम से बैठे हुए और ज्ञानदाता शिक्षक

अनिवार्यतः खड़े खड़े पढ़ा रहे है ऐसा चित्र दिखाई देता है ।

इस व्यवस्था के मूल में पाश्चात्य विचार है । गुरु का खड़े

रहना और शिष्यों का बैठे रहना उचित नहीं हैं । गुरु छात्रों से

ज्ञान में, आयु में, अनुभव में बड़े हैं, श्रेष्ठ हैं इसलिए उन्हें

उच्चासन पर बैठना और शिष्यों को उनके चरणों में बैठकर

ज्ञानार्जन करना यह भारतीय विचार है ।

विषयानुसार कक्ष व्यवस्था

दूसरा, भारतीय व्यवस्था में विषयानुसार अलग अलग

व्यवस्था करना भी सुगम रहता है । कक्षा कक्ष की स्वच्छता

भी आसानी हो जाती है, जबकि डेस्क बैंच या टेबल कुर्सी

की व्यवस्था में अच्छी सफाई नहीं हो पाती । भारतीय बैठक

व्यवस्था केवल कक्षा कक्षों में ही नहीं वरन शिक्षक कक्ष,

प्रधानाध्यापक कक्ष, कार्यालय, पुस्तकालय आदि सबमें भी

उतनी ही उपयोगी व सम्भव है । बहुत कम लोग ऐसे होते हैं,

जिन्हें वृद्धावस्था के कारण अथवा शारीरिक अस्वस्थता के

कारण नीचे बैठने में कष्ट होता है, उनके लिए कुर्सी का

उपयोग करना चाहिए । परन्तु बच्चों के लिए व स्वस्थ तथा

सक्षम व्यक्तियों के लिए भी टेबल कुर्सी की बाध्यता करना तो

उनके शरीरका लोच कम करके उन्हें पंगु बनाने का उपक्रम

ही सिद्ध हो रहा है । अतः हर दृष्टि से भारतीय बैठक व्यवस्था

अधिक श्रेष्ठ व वैज्ञानिक भी है |

बैठक की लेक्चर थियेटर व्यवस्था

अध्ययन और अध्यापन बैठकर होता है । इसके लिए

विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएँ करनी होती हैं, सुविधा के

अनुसार भिन्नता का अनुसरण किया जाता है । व्यवस्था करने

में हमारा दृष्टिकोण भी कारणीभूत होता है । हम एक के बाद

एक विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं के बारे में विचार करेंगे ।

आपने पुराने सरकारी महाविद्यालय देखे होंगे । वहाँ बड़े बड़े

कक्ष होते हैं । उन्हें लेक्चर थियेटर कहा जाता है । आजकल

यदि नहीं भी कहा जाता होगा तो भी जब उन का प्रारंभ हुआ

श्२५

था तब तो इसी नाम से जाने जाते थे ।

उनके नाम से ही पता चलता है कि इन कक्षों की रचना

थिएटर जैसी ही होती थी । प्रारंभ में एक मंच होता था जो

अध्यापक के लिए होता था । अध्यापक के लिए यहाँ कुर्सी

और टेबल होते थे और उसके पीछे की दीवार पर एक श्याम

फलक होता था तब सामने सिनेमा थिएटर की तरह ही नीचे

से ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर छात्रों को बैठने के लिए बेंच

होते थे । एक साथ एक कक्षा में लगभग डेढ़ सौ छात्र बैठते

थे । अध्यापक खड़े खड़े भाषण करता था । उसे छात्रों की

ओर देखने के लिए ऊपर देखना पड़ता था । छात्रों को

अध्यापक की ओर देखने के लिए नीचे की तरफ देखना होता

था । यह रचना उस समय स्वाभाविक लगती थी, परतु आज

अगर हम विचार करेंगे तो भारतीय परिवेश में यह अत्यंत

अस्वाभाविक है । भारतीय परिवेश में शिक्षक खड़ा हो और

छात्र बैठे हैं ऐसी रचना असंभव नहीं तो कम से कम

अस्वाभाविक है । खड़े खड़े अध्यापन करना भी भारतीय

परिवेश में अस्वाभाविक है । अध्यापक खड़े हैं और छात्र

बैठे हैं इसकी कल्पना भी भारत में नहीं हो सकती |

अध्यापक का स्थान नीचे हो और छात्रों का ऊपर यह भी

अस्वाभाविक है । इसलिए इस प्रकार की बैठक व्यवस्था

वाले कक्षा कक्ष भारत के विद्यालयों और महाविद्यालयों में

नहीं हो सकते । उस समय ऐसी रचना की गई थी क्योंकि ये

सारे महाविद्यालय पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था में शुरु हुए थे ।

यूरोप अमेरिका में यह रचना स्वाभाविक मानी जाती है ।

इसलिए यहाँ भी इस प्रकार की रचना की गई थी । आज

ऐसी रचना लगभग कहीं पर दिखाई नहीं देती ।

दृष्टिकोण का अन्तर

अमेरिका और यूरोप में ऐसी रचना स्वाभाविक है और

भारत में अस्वाभाविक है इसका कारण क्या है ? किसी भी

बात में दृष्टिकोन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अमेरिका और

भारत में शिक्षा के प्रति देखने की दृष्टि ही अलग है । वहाँ

जीवन रचना में अर्थ का स्थान सबसे ऊपर है । जो पैसा देता

है वह बड़ा है, उस का अधिकार ज्यादा है और जो पैसा लेता

है वह छोटा है और देने वाले के समक्ष नीचा ही स्थान पाता

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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

है । अध्ययन-अध्यापन के कार्य में छात्र... व्यवस्था का संबंध पैसे से जोड़ते हैं । उनका मानना होता है

अथवा छात्र के अभिभावक पैसा देते हैं और अध्यापक पैसा... कि यदि विद्यालय गरीब है तो नीचे बैठने की व्यवस्था करेगा

लेता है । इसलिए खड़े रहकर पढ़ाना उसके लिए बाध्यता है ।... और यदि पैसा है तो मेज - कुर्सी - बेंच आदि सब की

बैठ कर पढ़ना छात्रों का अधिकार है । अध्यापक का स्थान... व्यवस्था करेगा । उनका ऐसा भी मानना है कि छोटी

नीचे होना भी स्वाभाविक है । छात्रों का स्थान ऊपर ही होना... कक्षाओं के लिए तो नीचे बैठने की व्यवस्था चल सकती

स्वाभाविक है । भारत में यह व्यवस्था अमेरिका की अपेक्षा. है। वह कोई बहुत गंभीर मामला नहीं है। परंतु बड़ी

श्रेष्ठ है । भारत में विद्या देने वाला बड़ा है और विद्या लेने वाला... कक्षाओं के लिए गंभीर अध्ययन होता है इसलिए नीचे बैठने

छोटा है । इसलिए वह बैठता है, छात्र भी बैठते हैं क्योंकि... की व्यवस्था असुविधाजनक है । ऐसी व्यवस्था में उन्हें

अध्ययन और अध्यापन बैठकर ही किया जाता है । परंतु गरिमा नहीं लगती । परंतु यह धारणा पूर्ण रूप से अवैज्ञानिक

अध्यापक का स्थान छात्रों से ऊपर ही होता है । भारत में बैठने. है । शरीर विज्ञान की दृष्टि से और मनोविज्ञान की दृष्टि से

की इस प्रकार की स्थिति स्वाभाविक है । खड़े-खड़े पढ़ाने... नीचे बैठने की व्यवस्था उत्तम है । हमने अनेक प्राचीन चित्रों

हेतु सुविधा होती है ऐसी अनेक लोगों की मान्यता है उनका. में देखा है कि बड़े बड़े विद्यापीठ में अध्ययन अध्यापन नीचे

कहना है कि एक शिक्षक को अपनी कक्षा में घूमना भी... बैठकर ही होता था | गरीब थे इसलिए ऐसा करते थे, फर्नीचर

पड़ता है । उसे छात्रों की गतिविधि पर ध्यान देना होता है ।... बनाने की कुशलता नहीं इसलिए ऐसा करते थे ऐसा नहीं है ।

कहीं किसी छात्र को सहायता भी करनी होती है । किसी छात्र... पर्याप्त रूप से प्रगत थे वे उत्तम प्रकार की कारीगरी जानने

का निरीक्षण भी करना होता है । उसे श्याम फलक पर लिखना. वाले थे, वे पर्याप्त मात्रा में धनवान भी थे । फिर भी वहाँ

भी होता है । इस स्थिति में घूमना स्वाभाविक मानना चाहिए, टेबल, कुर्सी, डेस्क, बेंच आदि नहीं थे क्योंकि वे हम से

बात ठीक है परन्तु हम जिस अध्ययन-अध्यापन की बात कर... ज्यादा वैज्ञानिक थे । आवश्यक सुविधाएँ बना लेते थे और

रहें हैं उसमें मन की एकाग्रता और बुद्धि की स्थिरता आवश्यक. अनावश्यक वस्तुओं में प्रतिष्ठा नहीं देखते थे । उनके मन

है । साथ ही उसमें भावना की दृष्टि से विनयशीलता और आदर... और मस्तिष्क पूर्वग्रहों से मुक्त थे । आज हम अनेक प्रकार के

भी अपेक्षित है, आचार्य को आदर देने के लिए आचार्य खड़े... पूव॒ग्रिहों से भ्रष्ट होकर अनेक प्रकार की सुविधाएँ बनाते हैं

हों तो असुविधा होती है । आचार्य बैठे और भी उच्च आसन... और जो करना चाहिए उससे उल्टा करते हैं ।

पर बैठे यही स्वाभाविक है । पहेली बात में शिक्षक के पक्ष

में स्वयं काम करना और करवाना अधिक अपेक्षित है वह भी

बैठकर हो सकता है । परंतु शिक्षक के खड़े रहने में हमें आपत्ति दूसरा विचार करना चाहिए अध्यापक और छात्र के

नहीं होने के कारण से हम शिक्षक खड़े हो इसमें कक्षा कक्ष... बैठने के अंतर का । हमने पूर्व में देखा कि अध्यापक का

की सुविधा देखते हैं । बैठकर अध्ययन-अध्यापन करने का... स्थान छात्रों से ऊपर होना चाहिए, इसका एक उद्देश्य तो

कार्य केवल भावात्मक नहीं है, वह वैज्ञानिक भी है । बैठने... अध्यापक के प्रति आदर दर्शाने का है परंतु दूसरा उद्देश्य यह

की भी एक विशेष स्थिति होती है जो आवश्यक है । शरीर. है कि ऊपर बैठने से अध्यापक कक्षा में बैठे हुए सभी छात्रों

का नीचे का हिस्सा बंद हो जाता है और उर्जा नीचे की ओर... को देख सकता है उन्हें सहायता कर सकता है उनके

प्रवाहित नहीं होती । अध्ययन करते समय अधिक ऊर्जा की... मनोभावों का आकलन कर सकता है ।

आवश्यकता होती है । सामने जो छात्र बैठे हैं उनकी बैठक व्यवस्था की रचना

fat अध्ययन के स्वरूप के अनुसार भिन्न भिन्न हो सकती 2 |

पैसों से सम्बन्ध जोड़ना सर्वसामान्य रचना तती प्रतति में आयताकार बैठने की है ।

यह लोग नीचे बैठने की और कुर्सी पर बैठने की. खड़ी पंक्ति को तति कहते हैं और पड़ी प्रतति कहते हैं ।

भिन्न-भिन्न रचनाएँ

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

छात्रों की कुल संख्या के अनुसार तति और प्रतति संख्या

बनती है । तति में प्रतति से अधिक संख्या होना स्वाभाविक

है फिर भी कक्षा की आकृति और स्थान के अनुसार प्रतति में

अधिक और तति ने कम संख्या बिठाई जा सकती है ।

उदाहरण के लिए कक्षा में यदि ३० छात्रों की संख्या है तो ६

तति और ५ प्रतति बनेंगे । ३५ संख्या है तो पांच तति और

सात प्रतति बनेंगे । तति में और प्रतति में बैठे हुए छात्र एक

दूसरे से समानांतर बना कर बैठते हैं तो अपने आप सुंदरता

और अनुशासन का वातावरण बनता है । अध्ययन-अध्यापन

करने वाले लोगों की मानसिकता पर भी इसका परिणाम होता

है । यदि योगाध्यास करना है तो यह रचना बदलेगी या बदल

सकती है । प्रथम प्रतति में यदि ५ बैठें है तो दूसरी में चार

बैठेंगे और आगे वाले दो के बीच में एक छात्र बैठेगा ।

उदाहरण के लिए प्रथम प्रतति में ६ बैठे हैं तो दूसरी में ५

बैठेंगे तीसरी में ६ बैठेंगे चौथी में पाँच

इस प्रकार से क्रमशः रचना होगी । इससे इस जगह में अधिक

लोग बैठकर योग अभ्यास कर सकते हैं । यदि संगीत का

अभ्यास करना है तो अध्यापक के सामने अर्ध मंडल में बैठना

सुरुचि पूर्ण और सुविधाजनक लगता है । इसमें भी प्रततियाँ

दो के बीच में एक ऐसी बन सकती है । यदि कहानी सुनना है

तो किसी भी प्रकार के अनुशासन वाली रचना नहीं होने से

भी असुविधा नहीं होती । यदि बैठक के रूप में चर्चा करना

है तो अर्धमंडल में बैठना या मंडल में बैठना सुविधाजनक

रहता है क्योंकि इस स्थिति में सभी एक दूसरे के मुँह देख

सकते हैं और एक दूसरे से संवाद कर सकते हैं । आजकल

अनेक कॉन्फ्रेंसीसमें इस प्रकार की रचना देखी जा सकती है ।

इस प्रकार उद्देश्य के अनुसार विभिन्न प्रकार की व्यवस्था की

जा सकती है ।

विद्यालय में पर्यावरण सुरक्षा

पर्यावरण सुरक्षा का क्या अर्थ है ?

पर्यावरण सुरक्षा का क्या महत्त्व है ?

पर्यावरण सुरक्षा के आयाम कौनसे हैं ?

पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से निम्नलिखित विषयों

में कैसे विचार करना चाहिये ?

१, भवन निर्माण - पद्धति एवं उसमें प्रयुक्त

सामग्री

.. विद्यालय में प्रयुक्त साधनसामग्री , फर्निचर,

अन्य चीजें

. पानी, पानी की निकासी, शौचालय आदि

व्यवस्थायें

. बगीचा

यज्ञ

. स्वच्छता की सामग्री

. कीटकों से रक्षा

८. विद्यालय के लिये भूमि का चयन

प्राकृतिक सामग्री का उपयोग बढाने के लिये एवं

७ न. «९ wo

om £ ०९

१२७

कृत्रिम वस्तुओं से छुटकारा पाने के लिये हम

क्या कर सकते हैं ?

६. विद्यालय में ए.सी., कूलर, फ्रीज, पंखे, वाहन

आदि के सम्बन्ध में कैसे सोचना चाहिये ?

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

विद्यालय में पर्यावरण सुरक्षा के बारे में वैचारिक

स्पष्टटा और उस सन्दर्भ में उसे व्यवहार में कैसे लागू कर

सकते हैं ? यह जानना इस प्रश्नावली का प्रयोजन था ।

आचार्य प्रशिक्षण वर्ग में सहभागी आचार्यों की इसमें

सहभागिता रही ।

प्रश्नावली के प्रथम तीन प्रश्न वैचारिक स्पष्टता हेतु थे ।

पर्यावरण के सम्बन्ध में स्पष्टता कम और सुरक्षा की समझ

पर्याप्त है, ऐसे उत्तर मिले । जैसे कि प्राकृतिक विपत्तियों के

निवारण हेतु, मानवजीवन को सुरक्षित रखने हेतु, ग्लोबल

वार्मिंग रूपी वैश्विक समस्या का उपाय आदि । पृथ्वी, जल,

तेज, वायु व आकाश ये पंचमहाभूत पर्यावरण के घटक हैं ।

एक मात्र यह सही उत्तर श्री अन्नपूर्णा बहन का था । अन्यों

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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

को तो घटक शब्द का अर्थ ही समझ में... में ही किया जाता है । जब से यन्त्र आधारित कारखाने शुरू

नहीं आया । हुए और रसायनों का बहुलता से प्रयोग शुरु हुआ तबसे

प्रश्न ४ में दी हुई अनेक बातों में अपनी व्यक्तिगत... पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या शुरू हुई । तबसे विद्यालयों

टिप्पणी लिखें यह अपेक्षा थीं । इसके उत्तर में यज्ञ करना... में पर्यावरण का विषय अध्ययन के क्रम में प्रविष्ट हुआ ।

चाहिए, कीटें से रक्षा के उपाय प्राकृतिक हों, रासायनिक नहीं,

ऐसे उत्तर मिले । प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना और

कृत्रिम साधनों को त्यागना, इस प्रश्न का भी समाधान कारक

उत्तर नहीं मिला । हाँ, विद्यालय में कूलर, फ्रीज, ऐ.सी. आदि

उपकरणों का विरोध अवश्य किया ।

अभिमत : पंचमहाभूतों से यह सृष्टि बनी हैं । प्रत्येक

महाभूत सृष्टि का सन्तुलन एवं स्वच्छता बनाये रखने का

कार्य करता है । अतः इनकी सुरक्षा करना सही अर्थ में

पर्यावरण की सुरक्षा है । परन्तु मनुष्य अपनी इच्छाओं की

पूर्ति हेतु अपनी विकृत बुद्धि से उनका नाश कर रहा है , उन्हें

प्रदूषित कर रहा है ।

विद्यालय भवन निर्माण में लकड़ी, बाँस, मिट्टी, चूना

आदि प्राकृतिक सामग्री का उपयोग करना चाहिए । प्लास्टिक,

लोहा आदि से निर्मित उपस्कर काममें नहीं लेने चाहिए । आज

के छात्रों के पास, कम्पास, पैन, स्केल, कवर पेपर, बेग आदि

सभी वस्तुएँ प्लास्टिक की होती है, इन्हें वर्जित करना ।

प्राथमिक कक्षाओं में अनिवार्य रूप से पत्थर की स्लेट का

उपयोग करना । विद्यालय प्रांगण में वृक्ष लगाना । दैनन्दिन

अगिहोत्र करने से पर्यावरण की शुद्धि होगी । स्वच्छता हेतु भी पर्यावरण सम्बन्धित व्यावहारिक विचार

पर्यावरण विचार के कुछ मुद्दे

प्रदूषण का विषय आता है तब तीन बातों का उल्लेख

होता है, हवा, पानी और भूमि का प्रदूषण ।

प्रदूषण की समस्या का विचार करते समय मूल बातों से

प्रारम्भ करना आवश्यक है । पर्यावरण की भारतीय संकल्पना

क्या है इसका भी विचार करना चाहिये । उसके सन्दर्भ में ही

प्रदूषण की समस्या और उसके निराकरण का और उसके सन्दर्भ

में ही विद्यालय में पर्यावरण विचार करना चाहिये ।

कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं

१... भारतीय संकल्पना के अनुसार पर्यावरण के आठ अंग

हैं । ये हैं मन, बुद्धि, अहंकार, आकाश, वायु, अग्ि,

जल और पृथ्वी । इन सबका प्रदूषण होता है ।

२... यह प्रदूषण केवल शरीर पर असर करके नहीं रुकता है,

वह मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर करता है और बुद्धि

को विकृत बनाता है ।

३... अतः केवल भौतिक नहीं अपितु सांस्कृतिक प्रदूषण के

निवारण का भी विचार करना चाहिये ।

प्लास्टिक की सामग्री के स्थान पर वनस्पतिजन्य साधन-सामग्री पर्यावरण विषयक अधिक चिन्तन करने का यहाँ प्रयोजन

ही उपयोग में लानी चाहिए । नहीं है । यहाँ केवल व्यावहारिक विचार करना है ।

छात्रों में पर्यावरण सुरक्षा हेतु वैचारिक जागृति करना तथा १, पानी, भूमि, हवा का प्रदूषण रोकने के छोटे छोटे

पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाली वस्तुओं पर पाबन्दी लगाना । .... परन्तु अतिव्यापक उपाय प्रथम करने चाहिये ।

डिटर्जेट मुक्त स्वच्छता, प्लास्टिक का मर्यादित उपयोग तथा जैसे कि डिटेजण्ट, पेट्रोल और प्लास्टिक पर्यावरण के

वायु प्रदूषण, जलप्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण के बारे में सावधानी... बड़े शत्रु हैं । वे हमारे घर घर में, दैनन्दिन व्यवहार में कितने

रखना । ऐसे अनेक उपक्रमों के माध्यम से विद्यार्थी जन... व्याप्त हो गये हैं इसकी गिनती करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि

आन्दोलन चलाकर पर्यावरण की सुरक्षा करें ऐसी योजना... हम इन वस्तुओं का उपयोग जरा भी कम नहीं करते हैं और

बनानी चाहिए । पर्यावरण की चिन्ता करते हैं । कया विद्यालय के माध्यम से

हम अपने आप पर नियन्त्रण करने का विचार नहीं करेंगे ?

विमर्श अपने आप पर नियन्त्रण का काम कठिन अवश्य है परन्तु यह

पर्यावरण का विचार आजकल केवल प्रदूषण के सन्दर्भ यदि शुरु ही नहीं किया तो इसका निवारण कैसे होगा ?

श्२्८

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

कया हम नहीं जानते कि हम उपयोग करते हैं ऐसी. साथ मन, वाणी, विचार, दृष्टिकोण को

सेंकड़ों वस्तुरयें प्रदूषण करती हैं ? इसका प्रथम उपाय करना... प्रदूषित करने वाले तामसी आहार उच्छृूखल व्यवहार,

चाहिये । संकुचित विचार, झूठे अहंकार आदि पर नियन्त्रण प्राप्त करने

२. इन उपायों को करने के बाद ही आगे मानसिक... की आवश्यकता है । हमें गणित में अच्छे अंक चाहिये, हमें

प्रदूषण का विचार करना चाहिये । अपने विद्यार्थी मेडिकल आदि पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्राप्त करें,

मन को बहकाने वाली बातें चारों ओर हों तब मन कैसे... बड़े बड़े वैज्ञानिक, उद्योजक, अधिकारी आदि हों इसकी

Bed हो सकता है ? अमर्याद इच्छायें, उनकी पूर्ति के लिये... महत्वाकांक्षा रहती है परन्तु मूल में सज्जन, विचारशील,

किये जने वाले प्रयास, हल्का और सस्ता मनोरंजन, कभी शान्त..... सदाचारी, सद्बुद्धियुक्त हों इसकी ओर हमारा ध्यान नहीं

न होने वाली लालसायें, स्वार्थ, लालच आदि हमें असंस्कारी... रहता । व्यक्ति ऐसा कैसे बनेगा इसकी अनेक स्थानों पर

बनाते हैं । अनेक सन्दर्भों में, अनेक लोगों ने बातें कही ही हैं । हम वो

हमें विद्यार्थियों को मन को वश में करने के उपाय बताने... नहीं जानते हैं ऐसा भी नहीं है । परन्तु विद्यालय चलाने वाले

चाहिये । लोभ, लालच, ईर्ष्या, ट्रेष आदि पर नियन्त्रण करना... संचालक, शिक्षक, अभिभावक सब सही रास्ता अपनाने से

सिखाना चाहिये । ये हमारे शत्रु हैं जो संस्कारों का नाश करते... चूक जाते हैं, डरते हैं, सहम जाते हैं ।

हैं । इन्हीं से हिंसा फैलती है, शत्रुता पनपती है, अनेक प्रकार अतः वास्तव में साहस करने की आवश्यकता है ।

के अनाचार होते हैं । हमारे पास मार्गदर्शन की कमी नहीं है परन्तु मार्ग पर चलने

क्या मोबाइल और मोटरबाइक से निर्माण होने वाला... से ही लक्ष्य नजदीक आता है और मार्ग पर चलना हमें

प्रदूषण पानी के प्रदूषण से कम घातक है ? नहीं, उल्टे अधिक... होता है, अन्य किसी को नहीं ।

घातक है । परन्तु हम इन्हें विकास का लक्षण मानते हैं ।

क्या हम देख नहीं रहे हैं कि मोबाइल के कारण हमारी पर्यावरण प्रतिज्ञा - १

स्मरणशक्ति बहुत कम हो गई है ? क्या नेट पर सर्च कर,

धरती हमारी माता है । हम इसकी संतान हैं ।

जानकारी डाउनलोड कर, कटू एण्ड पेस्ट की चातुरी अपनाकर

पीएचडी प्राप्त होने की सुविधा के चलते हमारी चिन्तन प्रक्रिया धरतीमाता हमे अन्न देती है |

अत्यन्त सतही हो गई है ? अतिशय स्वार्थी बनकर हमारे धरतीमाता a oe देती है ।

परिवार, धर्म, ज्ञान आदि को बाजार में ला दिया है । यह हम धरतीमाता हमें आश्रय देती है ।

नहीं जानते ? यह सारा सांस्कृतिक पर्यावरण का प्रदूषण है जो धरतीमाता हमारी सभी आवश्यकताएँ पूरी करती है ।

पंचमहाभूतों के प्रदूषण से अनेक गुणा घातक है । इसलिए

हम सदैव इसका रक्षण करेंगे ।

प्रदूषण से बचने हेतु मन की शिक्षा हम धरतीमाता के प्रदूषण को रोकेंगे ।

इससे बचने की योजना बनानी चाहिये । हम रासायनिक खाद का

वास्तव में मन की शिक्षा इसी प्रदूषण से बचने के लिये उपयोग कभी नहीं करेंगे ।

है । हमारे अशिक्षित असंस्कृत मन के कारण ही प्रदूषण बढ़ाने

वाली वस्तुओं का भरपूर प्रयोग करते करते हम प्रदूषण दूर करने

के उपायों की चर्चा करते हैं ।

अतः पानी, हवा, भूमि का प्रदूषण करनेवाले डिटर्जेण्ट,

प्लास्टिक, पेट्रोल, सिमेण्ट, विभिन्न रसायनों से मुक्ति के साथ धरती माता की जय |

हम प्लास्टिक का कूड़ा जमीन में नहीं गाड़ेंगे ।

हम धरती माता को बंजर नहीं बनाएँगे ।

हम रसायनयुक्त पानी जमीन में नहीं जाने देंगे ।

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पर्यावरण प्रतिज्ञा - २

जल ही जीवन है ।

जल से मनुष्य जीवित रहते हैं ।

जल से वृक्ष जीवित रहते हैं ।

जल से प्राणी जीवित रहते हैं ।

इसलिए

हम जल की रक्षा करेंगे ।

हम जल के प्रदूषण को रोकेंगे ।

हम जल में रसायन नहीं मिलाएंगे ।

हम जलका दुरुपयोग नहीं करेंगे ।

हम जल को गंदा नहीं करेंगे ।

हम पानी के नल खुले नहीं छोड़ेंगे ।

हम नालियों को कूडे से नहीं भरने देंगे ।

हम जल को गड़ूठों में नहीं जमा होने देंगे ।

जल देवता की जय ।

पर्यावरण प्रतिज्ञा - ३

वायु सभी का प्राण है ।

वायु से मनुष्य जीवित रहते हैं ।

वायु से प्राणी जीवित रहते हैं ।

वायु से स्वास्थ्य बना रहता है ।

वायु जगत का आधार है ।

इसलिए

हम वायु का प्रदूषण कभी होने नहीं देंगे ।

हम वायु को हमेशा शुद्ध रखेंगे ।

हम वृक्ष उगाएंगे और उनका पालन करेंगे ।

हम रसायनों का धुँआ छोड़नेवाले

कारखाने नहीं चलाएंगे ।

हम धुआँ उगलते वाहन नहीं चलाएँगे ।

हम नित्य अग्निहोत्र करेंगे ।

वायुदेवता की जय ।

१३०

भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

पर्यावरण प्रतिज्ञा - ४

ध्वनि नादब्रह्म है ।

नादब्रह्म हमें शांति देता है ।

नादब्रह्म हमें सुख देता है ।

नादब्रह्म हमें ज्ञान देता है ।

नादब्रह्म हमें संस्कार देता है ।

इसलिए

हम ध्वनि प्रदूषण नहीं होने देंगे ।

हम रेडियो धीमी आवाज़ से चलाएँगे ।

हम टी.वी. धीमी आवाज़ से चलाएँगे ।

हम लाउडस्पीकरों का उपयोग कम से कम करेंगे ।

हम शोरगुल नहीं करेंगे ।

हम वाहनों के कर्कश होर्न को

बदल देंगे ।

हम नित्य 3£कार का उच्चारण करेंगे ।

नादब्रह्म को प्रणाम

पर्यावरण प्रतिज्ञा - ५

मनुष्य विचारशील प्राणी है ।

मनुष्य को अच्छे विचार करने चाहिए |

अच्छे विचारों से हम अच्छे बनेंगे ।

अच्छे विचारों से हम दूसरों का भला कर सकेंगे ।

इसलिए

हम विचारों का प्रदूषण रोकेंगे ।

हम अच्छे विचार करेंगे ।

हम अच्छी पुस्तकें पढ़ेंगे ।

हम अच्छे कार्यक्रम देखेंगे ।

हम अच्छे मित्रों के संग में रहेंगे ।

हम स्वार्थ का विचार छोडेंगे ।

हम दूसरों का भला करेंगे ।

सद्विचार सर्वव्र रहे ।

............. page-147 .............

पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

पर्यावरण प्रतिज्ञा - ६

अन्न ब्रह्म है ।

अन्न देवता है ।

अन्न से हमारा जीवन टिकता है ।

अन्न से हमें शक्ति मिलती है ।

अन्न से हमें संस्कार मिलते हैं ।

इसलिए

हम अन्न के प्रदूषण को रोकेंगे ।

हम अन्न को पतित्र मानेंगे ।

हम सात्त्विक भोजन करेंगे ।

हम अन्न में ज़हरीले रसायन नहीं मिलाएँगे ।

हम बाज़ारु पदार्थ नहीं खाएँगे ।

हम बासी पदार्थ नहीं खाएँगे ।

हम तामसी भोजन नहीं करेंगे ।

हम रासायनिक खाद से पैदा हुए अनाज,

सब्जियाँ और फल नहीं खाएँगे ।

हम अन्न का अपव्यय नहीं करेंगे ।

हम अन्न को गटर में नहीं फेंकेंगे ।

हम पवित्र होकर, भोग लगाकर,

नीचे बैठकर भोजन करेंगे ।

अन्न देवता की जय हो ।

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पर्यावरण प्रतिज्ञा - ७

समय मूल्यवान है ।

समय रत्नों से भी अधिक मूल्यवान है ।

समय हमेशा बीतता जाता है ।

बीता हुआ समय कभी लौटता नहीं ।

समय का संग्रह नहीं किया जा सकता ।

समयका प्रदूषण नहीं करना, यह सभी का दायित्व है ।

इसलिए

हम समय खराब नहीं करेंगे ।

हम व्यर्थ की बातें करने में समय नहीं गवायेंगे ।

हम निररर्थक और बेहूदे कार्यक्रम देखने में

समय नहीं खर्च करेंगे ।

हम कोई भी कार्य कम समय में करना सीख जाएँगे ।

हम आज किया जानेवाला कार्य आज ही करेंगे ।

हम समय का हिसाब रखेंगे ।

समय सम्राट की विजय हो ।

पर्यावरण प्रतिज्ञा - ८

वाणी सरस्वती का वरदान है ।

वाणी मनुष्य का अलंकार है ।

वाणी विचारों का वाहन है ।

वाणी व्यवहार की प्रेरक है ।

वाणी का प्रदूषण रोकना चाहिए ।

इसलिए

हम बिना विचार किये नहीं बोलेंगे ।

हम शुद्ध उच्चारण से बोलेंगे ।

हम मधुर वाणी बोलेंगे ।

हम अपशब्द्‌ नहीं बोलेंगे ।

हम वाणी का जतन कर उसे दमदार बनाएंगे ।

हम गंदी बातें कभी नहीं बोलेंगे ।

हम सभी को अच्छा लगनेवाली वाणी बोलेंगे ।

वाग्देवी नमोइस्तु ते ।

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पर्यावरण प्रतिज्ञा - ९

आचार परम धर्म है ।

आचार से सभी कार्य सिद्ध होते हैं ।

आचार से मनुष्य पहचाना जाता है ।

आचार से मनुष्य की परख होती है ।

आचार से दुनिया का व्यवहार चलता है ।

आचार शुद्धि बनाए रखनी चाहिए |

इसलिए

हम हमारा आचार शुद्ध रखेंगे ।

हम जैसा बोलेंगे वैसा ही करेंगे ।

हम विचार और आचार समान रखेंगे ।

हम भूखों को भोजन कराएँगे ।

हम सारे कार्य स्वयं करना सीखेंगे ।

हम किसी को हानि नहीं पहुँचाएँगे ।

हम तोड़फोड़ नहीं करेंगे ।

आचार धर्म महान है ।

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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

पर्यावरण प्रतिज्ञा - १०

विद्या मुक्ति प्रदान करती है ।

विद्या परम देवता है ।

विद्या सुख और समृद्धि प्रदान करती है ।

विद्या संस्कार और श्रेष्ठता प्रदान करती है ।

विद्या का प्रदूषण रोकना चाहिए ।

इसलिए

हम विद्या को पवित्र रखेंगे ।

हम विद्या का आदर करेंगे ।

हम विद्या का अपमान नहीं होने देंगे ।

हम विद्या को सत्ता की दासी नहीं होने देंगे ।

हम विद्या को स्वार्थ की दासी नहीं होने देंगे ।

हम विद्यावान का सम्मान करेंगे ।

हम विनयशील बनेंगे ।

हम विद्या प्राप्त करने के लिए साधना करेंगे ।

हम विद्या बेचेंगे नहीं ।

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

पर्यावरण प्रतिज्ञा - ११

धनलक्ष्मी देवता है ।

धन से समृद्धि आती है ।

धन से वैभव आता है ।

धन से सुख आता है ।

धन से सभी वस्तुएँ मिलती हैं ।

धन की रक्षा करनी चाहिए ।

इसलिए

हम धन का प्रदूषण रोकेंगे ।

हम न रिश्वत देंगे न लेंगे ।

हम धन की चोरी और लूट नहीं करेंगे ।

हम धन का उपयोग दान में करेंगे ।

हम धन से दूसरों की गरीबी दूर करेंगे ।

हम खूब धन कमाएँगे और खूब दान करेंगे ।

हम धन का अभिमान नहीं करेंगे ।

हम धन सही मार्ग से कमाएँगे ।

हम धन का सही विनियोग करेंगे ।

धनलक्ष्मी का स्वागत हो ।

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पर्यावरण प्रतिज्ञा - १२

स्वच्छता आरोग्य की कुँजी है ।

स्वच्छता समृद्धि की कुँजी है ।

स्वच्छता सुंदरता का पहला सोपान है ।

स्वच्छता संस्कारिता की निशानी है ।

इसलिए

हम स्वच्छता रखेंगे ।

हम हमारा शरीर स्वच्छ रखेंगे ।

हम हमारा मन स्वच्छ रखेंगे ।

हम हमारा घर स्वच्छ रखेंगे ।

हम हमारा आँगन और

हमारी गली स्वच्छ रखेंगे ।

हम हमारा विद्यालय स्वच्छ रखेंगे ।

हम हमारा कार्यालय स्वच्छ रखेंगे ।

हम गंदगी नहीं करेंगे ।

हम गंदगी नहीं होने देंगे ।

हमें सफाई करने में शर्म नहीं आएगी ।

सफाई करें पृथ्वी को स्वर्ग बनाएँ ।

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पर्यावरण प्रतिज्ञा - १३

हमें परमात्मा ने उत्तम शरीर प्रदान किया है ।

शरीर हमारे सभी कार्य करता है ।

हमारी पहली पहचान हमारा शरीर है ।

इसलिए

हम हमारे शरीर का रक्षण करेंगे ।

हम हमारे शरीर स्वास्थ्य को बनाए रखेंगे।

हम हमारे शरीर की ताकत बनाए रखेंगे ।

हम हमारे शरीर को सहनशील बनाएंगे ।

हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे

हमारा शरीर कमज़ोर बने ।

हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे

शरीर को चोट पहुँचे । हम नित्य व्यायाम करेंगे ।

हम नित्य श्रम करेंगे ।

हम शरीर को मज़बूत बनाएँगे ।

शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्‌ ।

(पहला सुख नीरोगी काया)

भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

पर्यावरण प्रतिज्ञा - १४

यह विश्व सुंदर है । यह सृष्टि समृद्ध है ।

यहाँ पृथ्वी है । पानी है ।

आकाश है, अग्नि है, वायु है ।

पशु हैं, पक्षी हैं, जंतु हैं । वृक्ष हैं, पौधे हैं, घास है ।

समय है, ध्वनि है, और मनुष्य है ।

ये सभी एक ही विश्व के निवासी हैं ।

इन सभी को सुरक्षित रखना हमारा दायित्व है ।

इसलिए

हम हमारे शरीर और मन उत्तम रखेंगे ।

हम हमारे वाणी, विचार और व्यवहार उत्तम रखेंगे ।

हम इस विश्व परिवार को अपना ही मानेंगे

और इसे प्रेम देंगे ।

पर्यावरण देवता की जय ।

विद्यालय में ट्यूशन

१. ट्यूशन की मात्रा आज बहुत बढ़ गई है इसका

कारण क्या है ?

2. ट्यूशन के सम्बन्ध में आचार्य, छात्र एवं

अभिभावकों की मानसिकता कैसी होती है ?

३... ट्यूशन के सम्बन्ध में आदर्श स्थिति क्या है ?

ट्यूशन के आर्थिक पक्ष का विचार कैसे करना

चाहिये ?

५... ट्यूशन सम्बन्ध में आदर्श स्थिति क्या है ?

६... ट्यूशन किसने पढ़ाना उपयुक्त है ?

७... ट्यूशन के हौवे से बचने के उपाय क्या हैं ?

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

कानपुर की बहन मीनाक्षी गणपुले के ge ga

प्रश्नावली के उत्तर शिक्षक अभिभावक मुख्याध्यापक एवं

संस्थाचालक इस प्रकार के शिक्षा से संबंधित गटों के ३०

व्यक्तिओ से प्राप्त हुए । उसका सारांश इस प्रकार है ।

१, सर्वानुमत से ट्यूशन विद्यार्थीजीवन का अनिवार्य

हिस्सा है । ट्यूशन का प्रमाण बढ़ने के कारण बताते हुए

कहा...

५, मातापिता दोनों का अथर्जिन हेतु बाहर जाना

२. अशिक्षित अभिभावक

३. अंग्रेजी माध्यम

४. बच्चों के विकास के संबंध में अभिभावकों की

बढती हुई प्रतिस्पर्धा

५. अक्षम अध्यापन

६, बालकों कों कहीं ना कहीं बाँधकर रखने की

अभिभावक की प्रवृत्ति

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

७. अपने बालक को विशेष शिक्षा देने की लालसा पढाई में कमजोर है उसे ही ट्यूशन

८. विद्यालय का गृहकार्य पुरा हो इस प्रकार के. आवश्यक है ऐसे मत प्रदर्शित हुए ।

विविध कारण बताये गये । ४. ट्यूशन के आर्थिक पक्ष के संबंध में एक बहन

२. ट्यूशन आचार्य के लिये आर्थिक प्राप्ति का एक... कहती है कि विद्यालय में छात्र को व्यक्तिगत मार्गदर्शन

साधन है मिलेगा तो समय और व्यर्थ व्ययसे छुटकारा मिलेगा ।

छात्र के लिए प्रतिष्ठा का लक्षण और स्वयं को अभिमत :. अध्यापकों की. कमजोरी. और

जिम्मेदारीसे मुक्त होने का अनिवार्य मार्ग है । इस प्रकार की. अभिभावकों की गलत सोच का परिणाम apr A

मान्यता है । अनिवार्यता है । ट्यूशन में जाना यह गौरव की नहीं अपितु

३. ट्यूशन किनसे लेनी चाहिये ? इसके उत्तर में .. लज्जा की बात है यह विचार जाग्रत करना पडेगा । पढ़ाई में

वर्गशिक्षकों ने नहीं विषय के विशेज्ञों ने सिखाना चाहिये... जो छात्र कमजोर हैं उन्हें ज्यादा ध्यान से पढाना शिक्षक का

ऐसी अभिभावकों की अपेक्षा है। ट्यूशन की आदर्श... कर्तव्य है । समाज में जो ज्ञानी वृद्ध जन हैं वे यह काम कर

स्थिति कहते हुए श्री प्रि्स कुमारजी लिखते हैं ट्यूशन होना... सकते हैं। बाकी अन्य बालकों में स्वयं अध्ययन का

ही नहीं चाहिये अगर अनिवार्यता हो तो शिक्षक ने मुफ्त मे... कौशल निर्माण करें । अनिष्ट एवं गलत बातों को सोच

पढाना चाहिए । योग्य शिक्षक के ट्यूशन लगाना और जो... समझकर पूर्णविराम देना ही चाहिये ।

विद्यालय में पवित्रता

9. पवित्रता का क्या अर्थ है ? और चर्चा करके लिखे हैं, फिर भी वे अपने मतों पर दृढ हैं

2. विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिये ? ऐसा लगता नहीं है ।

3. पवित्रता की मानसिकता क्या होती है ? १, विद्यालय में पवित्रता का अर्थ बताते हुए

४. विद्यालय में पवित्रता निर्माण करने के लिये क्या... आचार्य, प्रधानाचार्य एवं छात्र तीनों के बीच आपसी

क्या व्यवस्था हो सकती है ? प्रेमपूर्ण, ट्रेघरहित सम्बन्ध तथा आन्तरिक एवं बाह्य शुचिता

५... विद्यालय में पवित्रता बनाये रखने के लिये किन... अर्थात्‌ पवित्रता इस प्रकार का अर्थगठन कुछ लोगों ने

किन का योगदान हो सकता है ? किया है । विद्यालय में पवित्रता क्यों होनी चाहिए ? इन

६. पवित्र वातावरण बनाने के लिये भौतिक, प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि विद्यालय सरस्वती का मन्दिर

मानसिक एवं आचरणात्मक क्या क्या उपाय हो... है अतः पवित्रता आवश्यक है । शैक्षिक कार्य तनाव रहित

सकते हैं ? होने चाहिए, जो पत्रित्र वातावरण में ही सम्भव है । इस

७. कौन कौन सी बातें स्वत: पवित्र हैं और स्वतः: प्रकार के विभिन्न मत प्राप्त हुए । ३. एक ने मन की शुद्धता

अपचवित्र हैं ? एवं निष्कपटता, इन शब्दों में पवित्रता की मानसिकता का

वर्णन किया । अन्य सभी इस प्रश्न पर मौन रहे। ४.

विद्यालय में पवित्रता निर्माण करने हेतु व्यवस्थाओं में,

पवित्रता यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं अनुभूति का... विद्यालय की वन्दना सभा के अन्तर्गत प्रार्थथा, मानस की

विषय है । पवित्र क्या है और अपवित्र क्या है इसकी समझ. चौपाइयाँ, अष्टादश श्लोकी गीता, बोध-कथाएँ आदि का

है परन्तु उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है । सात प्रश्नों. उल्लेख किया । ५. पवित्रता का वातावरण निर्माण होने में

की इस प्रश्नावली के उत्तर सभी शिक्षकों ने विचारपूर्वक ... संस्थाचालक, प्रधानाचार्य, शिक्षक, कर्मचारी, अभिभावक

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

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तथा विद्यार्थी सबका योगदान होना

चाहिए, ऐसा सबका मत था । प्रत्येक के योगदान का

स्वरूप कैसा हो, इस बात में अस्पष्टता दिखाई दी । ६.

पवित्र वातावरण बनाने हेतु भौतिक दृष्टि से सुन्दरता व

साज-सज्जा करना, मानसिक दृष्टि से मन को अच्छी प्रेरणा

प्राप्त हो, आचरण की दृष्टि से सबका आपसी व्यवहार

अच्छा हो, ऐसे सुझाव मिले । ७. परमात्मा, पुण्य, दान,

सत्य, ब्रह्मचर्य आदि बातें पवित्र हैं और शास्त्र विस्द्ध

व्यवहार यथा चोरी, हिंसा, असत्य, बेईमानी ये सब

अपवित्र हैं अतः ताज्य हैं ऐसा बताया ।

अभिमत :

यह प्रश्नावली सब लोगों को अन्तर्मुख करने वाली

थी । वास्तव में भारतीयों के रोम रोम में अच्छाई है ।

पवित्रता स्वभाव में तो हैं परन्तु पाश्चात्य अंधानुकरण एवं

अध्ययन में कमी आने के कारण पवित्रता जैसी स्वाभाविक

बात आज अव्यवहार्य हो गई है । स्वच्छता का बोलबाला

इतना बढ़ गया है कि वह प्रदर्शन की वस्तु बन गई है।

पर्यावरण की शुद्धि करने वाली प्रत्येक बात पवित्र है यह

भरातीय मान्यता है । 3%, वेद, ज्ञान, यज्ञ, सेवा, अन्न, गंगा,

तुलसी, औषधि, गोमय, गोमाता, पंचमहाभूत, सद्भावना एवं

सदाचार पतरित्र हैं । विद्यालयों के सन्दर्भ में पवित्रता निर्माण

करने हेतु दैनिक अग्िहोत्र, ब्रह्मनाद, सरस्वती वंदना, गीता के

श्लोक, मानस की चौपाइयाँ आदि सहजता से कर सकते हैं ।

कक्षा में जाते समय जूते बाहर उतारना अत्यन्त सहज कार्य

होना चाहिए । विद्यालय ज्ञान का केन्द्र है और ज्ञान

पवित्रतम है । वास्तव में व्यवसाय और राजनीति अपने अपने

स्थान पर उचित है, परन्तु उसे शिक्षा से जोडा गया तो शिक्षा

अपवित्र हो जायेगी । इस बात को ध्यान में रखकर व्यवहार

करेंगे तो विद्यालय की पवित्रता टिकेगी ।

वर्तमान समय का संकट यह है कि सामान्य जनों को

जो बातें बिना प्रयास से समझ में आती हैं वे विदट्रज्जनों को

नहीं आरतीं, जो बातें अनपढ़ लोगों को ज्ञात हैं वे पढे लिखें

को नहीं । ऐसी अनेक बातों में से एक बात है पवित्रता की ।

लोगों को स्वच्छता की बात तो समझ में आती है परन्तु

१३६

भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

पवित्रता की नहीं । जिस प्रकार भोजन में पौष्टिकता तो समझ

में आती है सात्त्विकता नहीं उसी प्रकार से स्वच्छता और

पवित्रता का है ।

विमर्श

पवित्रता मन का विषय है

स्वच्छता भौतिक स्तर की बात है, पवित्रता मानसिक

स्तर की । मानसिक स्तर अन्तःकरण का स्तर है जिसमें

मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त का समावेश होता है।

पवित्रता इस अन्तःकरण के स्तर का विषय है ।

पवित्रता अन्तःकरण का विषय अवश्य है परन्तु वह

व्यक्त तो भौतिक स्तर पर ही होता है इसलिये पवित्रता का

सीधा सम्बन्ध स्वच्छता से है । जो पवित्र है वह स्वच्छ है

ही परन्तु जो स्वच्छ है वह हमेशा पवित्र होता ही है ऐसा

नहीं है। अर्थात्‌ कभी कभी ऐसा भी होता है कि जो

स्वच्छ नहीं है वह भी पवित्र होता है ।

हम कौन सी बात को पवित्र कहते हैं ? परम्परा से

हम अन्न को, पानी को, विद्या को, मन्दिर को, पुस्तक को

पवित्र मानते हैं । इसका कारण क्या है ?

अन्न मनुष्य के शरीर और प्राण का पोषण करता है,

सभी प्राणियों के जीवन का आधार है इसलिये उसके प्रति

अहोभाव है । पानी का भी वैसा ही है, पृथ्वी का भी वैसा

ही है। पृथ्वी तो अन्न और पानी का भी आधार है ।

अर्थात्‌ पंचमहाभूत मनुष्य और प्राणियों की जीवन का

आधार है इसलिये मनुष्य उनके प्रति कृतज्ञ है और कृतज्ञता

ही पवित्रता की प्रेरक है ।

मन्दिर पवित्र है क्योंकि वह धर्म का केन्द्र है । धर्म

सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है इसलिये उसके प्रतीक रूप

भगवान की प्रतिमां और उसका स्थान पवित्र है ।

तीर्थस्थान पवित्र है क्योंकि वहाँ जाने वाले हजारों

यात्रियों के मन के सद्भाव और सद्वृत्तियों का वहाँ पुंज

बनकर वातावरण al amar aa है। वह

कल्याणकारी है इसलिये पतित्र है ।

ज्ञान पवित्र है क्योंकि वह मुक्ति दिलाता है, सबको

सज्जन बनाता है, हिंसा कम करता है, सद्भाव बढ़ाता है,

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

विवेक और विनय सिखाता है ।

सन्तजन पवित्र हैं क्योंकि वे भी यही कार्य करते हैं ।

पुस्तक पवित्र है क्योंकि वह ज्ञान का प्रतीक है ।

अर्थात्‌ कोई भी पदार्थ, व्यक्ति, व्यवस्था जब

जीवनरक्षक, संस्काररक्षक, सद्भावरक्षक होते है, शुभ,

कल्याणकारी होते है तब वह पवित्र होते है ।

पवित्रता का व्यावहारिक सूत्र

पवित्रता का जतन करना चाहिये । पवित्रता के प्रति

व्यवहार करने के भी तरीके हमारी परम्परा ने बनायें हैं ।

जैसे कि -

०... पतरित्र वस्तु को अस्वच्छ नहीं किया जाता, अस्वच्छ

स्थान पर रखा नहीं जाता, अस्वच्छ वस्तुओं के साथ

नहीं रखा जाता ।

पवित्र वस्तु के पास अस्वच्छ रहकर जाया नहीं जाता ।

पवित्र वस्तु के प्रति मन में दुर्भाव नहीं रखा जाता ।

पवित्र वस्तु का प्रयोग अनुचित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये

नहीं किया जाता ।

पवित्र वस्तु को अपवित्र भाव से दूषित नहीं किया

जाता ।

भारतीय मानस को पवित्र वस्तु के साथ कैसा व्यवहार

करना चाहिये यह सहज समझता है । केवल पवित्र वस्तु को

पवित्र नहीं मानते तभी गडबड होती है ।

वर्तमान में विद्यालय को पवित्र नहीं माना जाता

इसलिये अनेक अकरणीय बातें होती हैं ।

विद्यालय मन्दिर है

परन्तु विद्यालय परम्परा से पवित्र स्थान है क्योंकि

विद्या पवित्र है । विद्यालय में पवित्रता

बनाये रखना चाहिय यह सहज अपेक्षा है ।

क्या किया जा सकता है ?

विद्यालय में पाद्त्राण पहनकर नहीं जाना । इसके लिये

विशेष व्यवस्था करनी चाहिये ।

विद्यालय में आत्यन्तिक स्वच्छता होनी चाहिये ।

विद्यालय में शैक्षिक सामग्री का सम्मान किया जाना

चाहिये । पुस्तक को पैर नहीं लगाना ऐसा ही एक

आचार है ।

०... बिना स्नान किये विद्यालय में नहीं आना ऐसा भी एक

आचार है ।

अपवित्र, अमेध्य भोजन कर अध्ययन नहीं किया जाता

यह स्वाभाविक सत्य है ।

किसी का अकल्याण करने हेतु विद्या का उपयोग करना

उसे अपवित्र बनाना है, किसी के भले के लिये विद्या

का प्रयोग करना उसकी पवित्रता की रक्षा करना है ।

पानी के स्थान को, भोजन के स्थान को, अध्ययन के

स्थान को स्वच्छ और सम्मानित रखना पवित्रता है ।

व्यापक अर्थ में प्लास्टिक का प्रयोग करना भी

विद्याकेन्द्र को दूषित करना ही है । आज हमने अपने

आपको चारों और से सिन्थेटिक वस्तुओं से घेर

लियाहै । यह अपवित्रता है ।

अर्थात्‌ पवित्रता की भावना को तिलांजलि देकर हमने

जीवन को सांस्कृतिक धरातल से गिराकर भौतिक स्तर पर ला

दिया है, संस्कृति और भौतिकता का सम्बन्ध विच्छेद्‌ कर

दिया है और अपने आपको संकटग्रस्त बना लिया है ।

संकटों के कठिन कवच को तोडकर उससे मुक्त होने में

पवित्रता का जतन करने की आवश्यकता है ।

विद्यालयों के लिये विचारणीय

विद्यालय समाज के निर्माण, स्वास्थ्य, सुखसुविधा,

संस्कारिता और ज्ञान के महत्त्वपूर्ण केन्द्र हैं । वर्तमान में

कुछ समस्‍यायें वैश्विक व्याप्ति लिये हुए हैं । इनमें मुख्य

समस्‍यायें स्वास्थ्य, संस्कारिता और पर्यावरण से सम्बन्धित

१३७

हैं । विद्यालय में आने वाले छात्र का स्वास्थ्य सामान्यतः

कमजोर होता है। आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों की

अनुभव शक्ति, हाथ पैर आदि कर्मन्द्रियों की कार्यकुशलता,

श्रसनतन्त्र, चेतातन्त्र, पाचनतन्त्र आदि की मन्दता और सारे

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शरीर की दुर्बलता यह दर्शाती है कि

छात्र के समग्र स्वास्थ्य का सूचकांक बहुत नीचा है ।

FEM Aa का अभाव, ओछापन, ग्रहणशीलता का

अभाव, शिष्टाचार और नम्रता का अभाव आदि दृशति हैं

कि उसकी संस्कारिता का सूचकांक बहुत नीचा है । और

पर्यावरण प्रदूषण की विश्वव्यापी समस्या के लिये किसी

उदाहरण की आवश्यकता नहीं रह जाती ।

इन परिस्थितियों में यह विचार करने योग्य बात है कि

विद्यालय नीचे बताई गई कुछ बातों पर अमल कर सकते हैं

क्या ?

१, सूती गणवेश

स्वास्थ्य की दृष्टि से सूती गणवेश उत्तम है । सूती

वस्त्र पर्यावरण की दृष्टि से भी लाभदायक है । हम जानते हैं

कि प्लास्टिक के उपयोग ने पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों

का बहुत नुकसान किया है । वैसे तो सभी को सूती वख्र

पहनने चाहिए । अनपढ़, मन्दबुद्धि, दुष्प्रभाव से अनजान,

सभी के प्रति लापरवाह रहने वाले लोग सूती कपड़े भले ही

न पहनें, किन्तु समझदार, होशियार और शिक्षित लोगों को

तो सूती कपड़े पहनने ही चाहिए । अतः विद्यालयों को

अपने छात्रों और शिक्षकों को सूती कपड़े पहनने की प्रेरणा

देनी ही चाहिये । परामर्श देने के साथ साथ आग्रह भी

करना चाहिए । इस हेतु विद्यालय का गणवेश सूती होना

चाहिए । शुरुआत में सूती और क्रमशः खादी का स्वीकार

किया जा सकता है ।

लेकिन सूती गणवेश अनिवार्य होना ही पर्याप्त नहीं

है, उचित भी नहीं है । सूती कपड़े की गुणात्मकता, योग्यता

के बारे में समझदारी देनी चाहिए । यह आस्था, आग्रह और

स्वैच्छिक रूप से स्वीकृत सिद्धान्त बनना चाहिए ।

2. विद्यालय या कक्षाकक्ष में जूते नहीं पहनना

विद्या, कक्षाकक्ष, विद्यालय सभी पवित्र हैं । पवित्र

स्थान पर हम जूते पहन कर नहीं जाते ? आज भी इस

आचरण का सर्वत्र पालन होता है । हम मन्दिर में जूते पहन

कर नहीं जाते । रसोईघर में जूते नहीं पहनते । विद्यालय में

१३८

भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

पहनते हैं क्योंकि विद्या और विद्यालय को पवित्र नहीं

मानते । कुछ समय पूर्व ऐसा नहीं था । किन्तु विद्या को

पवित्र नहीं मानना यह संस्कारिता नहीं है। इससे इस

संस्कार का पुनः्प्रस्थापित करने हेतु विद्यालय में जूते

उतारकर पढ़ने और पढ़ाने का नियम बना सकते हैं ।

वास्तव में यह कोई मुश्किल काम नहीं है । केवल हमारे

ध्यान में नहीं आता ।

भूमि पर बैठने की व्यवस्था

विद्यालयों में छात्र बैंचों या कुर्सियों पर बैठते हैं ।

शिक्षक कुर्सी पर बैठकर या खड़े होकर पढ़ाते हैं । आज

यह धारणा बन गई है कि मेज कुर्सी के बिना काम नहीं

चलेगा । आर्थिक दृष्टि से कमजोर विद्यालयों में तो ऐसी

व्यवस्था नहीं होती किन्तु ऊँची फीस लेने वाले विद्यालयों

के छात्र तो भूमि पर बैठ कर पढ़ ही नहीं सकते ? किन्तु

खड़े होकर पढ़ाना असंस्कारिता है । पढ़ने वाला छात्र बैठा

हो और पढ़ाने वाला शिक्षक खड़ा हो यह भी संस्कार के

विरुद्ध है । पालथी लगाकर पढ़ने बैठना और छात्र से कुछ

ऊँचे आसन पर बैठ कर पढ़ाना, योग्य पद्धति है । पालथी

लगाकर बैठने से ऊर्जा मस्तिष्क की ओर प्रवाहित होती है

जिससे ज्ञान ग्रहण आसान बनता है । पैर लटकाकर बैठने

या खड़े रहने से अकारण ही ऊर्जा नीचे की ओर प्रवाहित

होती है और ज्ञानार्जन में अवरोध उत्पन्न होता है । इसके

उपाय के तौर पर ऊर्जा के कुचालक आसन (सूत या ऊन)

पर पालथी लगाकर बैठकर पढ़ाने की व्यवस्था विद्यालय

कर सकते हैं ।

आर्थिक दृष्टि से भी इसमें काफी बचत है यह एक

अतिरिक्त लाभ है ।

3.

४. घर का भोजन

घर का बना भोजन स्वास्थ्य और संस्कार दोनों ही

रूप से अधिक लाभदायक है । घर पर माँ द्वारा प्रेम से

बनाया गया भोजन मन को अच्छा बनाता है और ताजा

होने के कारण से वह स्वास्थ्यप्रद भी होता है । अतः

विद्यालयों का यह आग्रह होना चाहिए कि छात्र घर में बना

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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

भोजन ही विद्यालय में लायें । वह भी स्वास्थ्य के अनुकूल... ७. श्रम प्रतिष्ठा

होना चाहिए । भोजन विषयक संस्कार, भोजन की आदतें, विद्यालय को स्वास्थ्यप्रद रखना चाहिए, सुशोभित

भोजन के विषय में आग्रह अति आवश्यक है, यह सुज्ञजन रखना चाहिए, प्रसन्न और आकर्षक रखना चाहिए । किन्तु

भली भाँति समझ सकते हैं । वैसे भी बाहर का, जंकफूड, . यह सब करेगा कौन ? यह सब पैसे दे कर नहीं कराना

कहीं भी कुछ भी न खाना यह सिखाना शिक्षा का... चाहिए । यह सब छात्र और शिक्षक सभी मिलकर करें यही

महत्त्वपूर्ण विषय तो है ही । इसीके अंश के तौर पर छात्रों. अपेक्षित है। आज कोई यह नहीं करता क्योंकि दोनों को

द्वारा विद्यालय मे लाया जाने वाला भोजन भी उचित प्रकार. ही विद्यालय अपना नहीं लगता । दूसरे, यह भी मान्यता है

का होना चाहिए । कि ये सारे काम पढ़ाई का त्यागकर नहीं होने चाहिए ।

५. प्लास्टिक का निषेध तीसरे, ऐसे काम करनेमें प्रतिष्ठा कम होना भी माना जाता

आब यह बात सब जानने लगे हैं कि स्वास्थ्य और. है! चौथे, इन कार्यों को करने की कुशलता भी नहीं

वैश्विक पर्यावरण की दृष्टि से प्लास्टिक कितना हानिकारक होती । पाँचवी बात है कि इन कार्यों को करने के लिये

है । सार्वजनिक दैनन्दिन जीवन में प्लास्टिक का उपयोग... 'वश्यक शरीर शक्ति भी नहीं होती। किन्तु इन सब

बहुत दिखाई देता है । इसीसे उसका उपाय भी छोटी बड़ी... फौरणों को दूर कर श्रम की प्रतिष्ठा, विद्यालय के प्रति

सभी बातों में सार्वजनिक ही होना चाहिए ? इसीके एक आत्मीयता, कार्यकुशलता में अभिवृद्धि से ही सार्थक विद्या

अंश के तौर पर छात्र को पानी की बोतल, भोजन का... दयंगम की जा सकती है ।

डिब्बा, बस्ता प्लास्टिक के स्थान पर पीतल या स्टील का

डिब्बा, काँच या ताँबे की बोतल और सूती बस्ता लाने के

लिये कहा जा सकता है । इनकी सामूहिक व्यवस्था भी की

जा सकती है । इस प्रकार यह काम मुश्किल भी नहीं

रहेगा ।

८. पाठ्यक्रमेतर गतिविधियाँ

शिक्षा को पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों और परीक्षा तक

सीमित नहीं कर देना चाहिए । हम सबका अनुभव है कि

यह सब करके हमने शिक्षा को अत्यन्त संकुचित बना दिया

है। परिणाम स्वरुप बारह वर्ष का, सोलह वर्ष का, या

६. कूलर के पानी का निषेध चौबीस वर्षका पाठ्यक्रम पूरा करने वाले छात्र को अपने

आज कल विद्यालयों में पीने के पानी हेतु कूलर की. विषय के अपेक्षित ज्ञान का १०% ज्ञान भी नहीं होता ।

व्यवस्था की जाती है। कुछ अति सम्पन्न विद्यालय तो... और वास्तविक जीवन में शिक्षा के व्यावहारिक उपयोग का

वातानुकूलित भी होते हैं ? आचार्य कक्ष में वातानुकूलन . परिणाम तो शून्य ही है । आज की इस व्यवस्था में सबकुछ

व्यवस्था और रेफ्रिजरेटर सामान्य व्यवस्था मानी जाती है ।.. परीक्षालक्षी बनाकर ऐसे सीमित ज्ञान वाले छात्र तैयार कर

न हो तो उसे गरीबी का लक्षण माना जाता है। किन्तु हम समाज का बड़ा अहित ही कर रहे हैं ।

विज्ञान पढ़ाने वाले विद्यालयों को यह पता होना ही चाहिये इसलिये परीक्षा के अतिरिक्त वाचन, अंकों से न जुड़ी

कि ये दोनों ही बातें स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये. हो ऐसी गतिविधियाँ करना, और स्वनिरपेक्ष अन्यों के लाभ

हानिकारक हैं । पेयजल हेतु मटके से उत्तम कोई व्यवस्था. के काम करना आदि बातें विद्यालय में होना आवश्यक है ।

नहीं है । विद्यालय भवन का तापमान अध्ययन के अनुकूल

रखने के अन्य कई तरीके अपनाये जा सकते हैं? १.८. बिना बोझ की शिक्षा

विद्यालयों को प्रारम्भ में कुछ असुविधा हो सकती है परन्तु *बिना बोज की शिक्षा' का नारा चतुर्दिक गूँज रहा

उसे सहने की सिद्धता का मार्गदर्शन देकर, विद्यालयों में _ है। किन्तु बस्ते का वजन तो रंचमात्र भी कम नहीं हो रहा

कूलर, फ्रीज और वातानुकूलन का परित्याग करना चाहिए । है । बस्ते में अनेक प्रकार की सामग्री होती है । यह महँगी

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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

भी होती है । ऊपर से कापियाँ, गाइडों .. शिक्षा दी जा सकती है । ऐसे मातापिता ही अपने बच्चों का

की संख्या भी बहुत होती है । वास्तव में तो “अँगूठा छाप. उचित पद्धति से विकास कर सकते हैं ।

के नाटक बहुत' यह सूत्र विद्यालय में सबको स्पष्ट दिखाई वास्तविक स्थिति तो यह है कि आज मातापिता को

दे, इस प्रकार लिखा जाना चाहिए । समग्र वर्ष के दौरान... योग्य मातापिता बनने का मार्गदर्शन कहीं उपलब्ध नहीं है ।

जिसकी पढ़ाई का खर्च कम से कम हो उसे पारितोषिक देना... इससे वे भी उलझन में होते हैं ।

चाहिये । खर्च कम और पढ़ने में श्रेष्ठ, विद्यार्थी को विशेष अतः छात्रों के लिये पाँच दिन का विद्यालय रख कर

पारितोषक देना चाहिये । छठे दिन अभिभावक विद्यालय चलाना चाहिए ? कोई भी

समझदार अभिभावक इससे लिये असहमत नहीं होगा ।

१०. मातापिता की शिक्षा उपरोक्त १ से ९ क्रमाँक के मुद्दे अभिभावक को

अपने बच्चों की शिक्षा के सन्दर्भ में आजकल के. समझाकर उसे सहमत करने के लिये भी ऐसी अभिभावक

शिक्षित मातापिताओं के मन में अनेक saree शाला की आवश्यकता है ।

अपेक्षाएँ, भ्रान्त धारणायें और अनावश्यक चिन्तायें और यहाँ चर्चित दस मुद्दे कदाचित पहली बार में

आग्रह घर कर गये हैं । इसका विपरीत परिणाम छात्रों की. अस्वाभाविक लगेंगे । किन्तु शान्ति और धैर्यपूर्वक विचार

मानसिकता पर पड़ता है । परिणाम स्वरूप विद्यालयों को... करने पर पता चलेगा कि यह सब कितना लाभदायी होगा ।

छात्र के साथ साथ उसके अभिभावक को भी अनिवार्य रूप... एक बार प्रयोग करके देखें । तत्पश्चात्‌ जो भी करेंगे उन्हें

से प्रशिक्षण देना चाहिये । वास्तव में तो स्वाभाविक... आपस में विचार विमर्श करना चाहिये ।

मनोवृत्ति और समझदार मातापिता के बच्चों को ही अच्छी