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हम कहते हैं की इसमें बहुत सुविधा है और यह दिखाता भी सुंदर है। परन्तु सुविधा और सुन्दरता बहुत आभासी है । वास्तविक सुविधा और सुंदरता विनाशक नहीं होती । यदि वह विनाशक है तो सुंदर नहीं है, और सुविधा तो वह हो ही कैसे सकती है ?
 
हम कहते हैं की इसमें बहुत सुविधा है और यह दिखाता भी सुंदर है। परन्तु सुविधा और सुन्दरता बहुत आभासी है । वास्तविक सुविधा और सुंदरता विनाशक नहीं होती । यदि वह विनाशक है तो सुंदर नहीं है, और सुविधा तो वह हो ही कैसे सकती है ?
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तो फिर भवनों में कौनसी सामग्री प्रयुक्त होनी चाहिए ? पहला नियम यह है की जिंदा लोगों को रहने के लिए, सुख से रहने के लिए प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग होना चाहिए । मिट्टी, चूना, लकड़ी, पत्थर आदि सामग्री प्राकृतिक है । यह सामग्री पर्यावरण और स्वास्थ्य के अविरोधी होती है । आज अनेक लोगों की धारणा हो गई है की ऐसा घर कच्चा होता है परन्तु यह धारणा सही नहीं है । वैज्ञानिक परीक्षण करें या पारम्परिक नमूने देखें तो इस सामग्री से बने भवन अधिक पक्के होते हैं । इस सामग्री का उपयोग कर विविध प्रकार के भवन बनाने का स्थापत्यशास्त्र भारत में बहुत प्रगत है । स्थपतियोंने विस्मयकारक भवन निर्माण किए हैं । आज भी यह कारीगरी जीवित है परन्तु वर्तमान शिक्षा के परिणामस्वरूप हमारी पद्धतियाँ और नीतियाँ विपरीत ही बनी हैं अतः शिक्षित लोगों को इसकी जानकारी नहीं है, अज्ञान, विपरीतज्ञान और हीनताबोध के कारण हमें उसके प्रति आस्था नहीं है, हमारी
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तो फिर भवनों में कौनसी सामग्री प्रयुक्त होनी चाहिए ? पहला नियम यह है की जिंदा लोगोंं को रहने के लिए, सुख से रहने के लिए प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग होना चाहिए । मिट्टी, चूना, लकड़ी, पत्थर आदि सामग्री प्राकृतिक है । यह सामग्री पर्यावरण और स्वास्थ्य के अविरोधी होती है । आज अनेक लोगोंं की धारणा हो गई है की ऐसा घर कच्चा होता है परन्तु यह धारणा सही नहीं है । वैज्ञानिक परीक्षण करें या पारम्परिक नमूने देखें तो इस सामग्री से बने भवन अधिक पक्के होते हैं । इस सामग्री का उपयोग कर विविध प्रकार के भवन बनाने का स्थापत्यशास्त्र भारत में बहुत प्रगत है । स्थपतियोंने विस्मयकारक भवन निर्माण किए हैं । आज भी यह कारीगरी जीवित है परन्तु वर्तमान शिक्षा के परिणामस्वरूप हमारी पद्धतियाँ और नीतियाँ विपरीत ही बनी हैं अतः शिक्षित लोगोंं को इसकी जानकारी नहीं है, अज्ञान, विपरीतज्ञान और हीनताबोध के कारण हमें उसके प्रति आस्था नहीं है, हमारी
    
सौंदर्यदृष्टि भी बदल गई है अतः हम बहुत अविचारी ढंग से अप्राकृतिक सामग्री से अप्राकृतिक रचना वाले भवन बनाते हैं और संकटों को अपने ऊपर आने देते हैं । संकटों को निमंत्रण देने की यह आधुनिक पद्धति है ।
 
सौंदर्यदृष्टि भी बदल गई है अतः हम बहुत अविचारी ढंग से अप्राकृतिक सामग्री से अप्राकृतिक रचना वाले भवन बनाते हैं और संकटों को अपने ऊपर आने देते हैं । संकटों को निमंत्रण देने की यह आधुनिक पद्धति है ।
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==== भवन का भावात्मक पक्ष ====
 
==== भवन का भावात्मक पक्ष ====
विद्यालय का भवन भावात्मक दृष्टि से शिक्षा के अनुकूल होना चाहिए । इसका अर्थ है वह प्रथम तो पवित्र होना चाहिए । पवित्रता स्वच्छता की तो अपेक्षा रखती ही है साथ ही सात्त्विकता की भी अपेक्षा रखती है। आज सात्त्विकता नामक संज्ञा भी अनेक लोगों को परिचित नहीं है यह बात सही है परन्तु वह मायने तो बहुत रखती है । भवन बनाने वालों का और बनवाने वालों का भाव अच्छा होना महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए पैसा खर्च करने वाले. भवन बनते समय ध्यान रखने वाले, प्रत्यक्ष भवन बनाने वाले और सामग्री जहाँ से आती है वे लोग विद्यालय के प्रति यदि अच्छी भावना रखते हैं तो विद्यालय भवन के वातावरण में  
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विद्यालय का भवन भावात्मक दृष्टि से शिक्षा के अनुकूल होना चाहिए । इसका अर्थ है वह प्रथम तो पवित्र होना चाहिए । पवित्रता स्वच्छता की तो अपेक्षा रखती ही है साथ ही सात्त्विकता की भी अपेक्षा रखती है। आज सात्त्विकता नामक संज्ञा भी अनेक लोगोंं को परिचित नहीं है यह बात सही है परन्तु वह मायने तो बहुत रखती है । भवन बनाने वालों का और बनवाने वालों का भाव अच्छा होना महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए पैसा खर्च करने वाले. भवन बनते समय ध्यान रखने वाले, प्रत्यक्ष भवन बनाने वाले और सामग्री जहाँ से आती है वे लोग विद्यालय के प्रति यदि अच्छी भावना रखते हैं तो विद्यालय भवन के वातावरण में  
    
पवित्रता आती है। पवित्रता हम चाहते तो हैं । अतः तो हम भूमिपूजन, शिलान्यास, वास्तुशांति, यज्ञ, भवनप्रवेश जैसे विधिविधानों का अनुसरण करते हैं । ये केवल कर्मकाण्ड नहीं हैं। इनका भी अर्थ समझकर पूर्ण मनोयोग से किया तो बहुत लाभ होता है । परन्तु समझने का अर्थ क्रियात्मक भी होता है। उदाहरण के लिए ग्रामदेवता. वास्तुदेवता आदि की प्रार्थना और उन्हें सन्तुष्ट करने की बात मंत्रों में कही जाती है । तब सन्तुष्ट करने का क्रियात्मक अर्थ वह होता है कि हम सामग्री का या वास्तु का दुरुपयोग नहीं करेंगे, उसका उचित सम्मान करेंगे, उसका रक्षण करेंगे आदि । यह तो सदा के व्यवहार की बातें हैं। भारत की पवित्रता की संकल्पना भी क्रियात्मक ही होती है ।
 
पवित्रता आती है। पवित्रता हम चाहते तो हैं । अतः तो हम भूमिपूजन, शिलान्यास, वास्तुशांति, यज्ञ, भवनप्रवेश जैसे विधिविधानों का अनुसरण करते हैं । ये केवल कर्मकाण्ड नहीं हैं। इनका भी अर्थ समझकर पूर्ण मनोयोग से किया तो बहुत लाभ होता है । परन्तु समझने का अर्थ क्रियात्मक भी होता है। उदाहरण के लिए ग्रामदेवता. वास्तुदेवता आदि की प्रार्थना और उन्हें सन्तुष्ट करने की बात मंत्रों में कही जाती है । तब सन्तुष्ट करने का क्रियात्मक अर्थ वह होता है कि हम सामग्री का या वास्तु का दुरुपयोग नहीं करेंगे, उसका उचित सम्मान करेंगे, उसका रक्षण करेंगे आदि । यह तो सदा के व्यवहार की बातें हैं। भारत की पवित्रता की संकल्पना भी क्रियात्मक ही होती है ।
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पवित्रता के साथ साथ भवन में शान्ति होनी चाहिए । उसकी ध्वनिव्यवस्था ठीक होना यह पहली बात है। कभी कभी कक्ष की रचना ऐसी बनती है कि पचीस लोगों में कही हुई बात भी सुनाई नहीं देती, तो अच्छी रचना में सौ लोगों को सनने के लिए भी ध्वनिवर्धक यन्त्र की आवश्यकता नहीं पडती। ऐसी उत्तम ध्वनिव्यवस्था होना अपेक्षित है। यह शान्ति का प्रथम चरण है । साथ ही आसपास के कोलाहल के प्रभाव से मुक्त रह सकें ऐसी रचना होनी चाहिए । कोलाहल के कारण अध्ययन के समय एकाग्रता नहीं हो सकती । कभी कभी पूरे भवन की रचना कुछ ऐसी बनती है कि लोग एकदूसरे से क्या बात कर रहे हैं यह समझ में नहीं आता या तो धीमी आवाज भी बहुत बड़ी लगती है । यह भवन की रचना का ही दोष होता है ।
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पवित्रता के साथ साथ भवन में शान्ति होनी चाहिए । उसकी ध्वनिव्यवस्था ठीक होना यह पहली बात है। कभी कभी कक्ष की रचना ऐसी बनती है कि पचीस लोगोंं में कही हुई बात भी सुनाई नहीं देती, तो अच्छी रचना में सौ लोगोंं को सनने के लिए भी ध्वनिवर्धक यन्त्र की आवश्यकता नहीं पडती। ऐसी उत्तम ध्वनिव्यवस्था होना अपेक्षित है। यह शान्ति का प्रथम चरण है । साथ ही आसपास के कोलाहल के प्रभाव से मुक्त रह सकें ऐसी रचना होनी चाहिए । कोलाहल के कारण अध्ययन के समय एकाग्रता नहीं हो सकती । कभी कभी पूरे भवन की रचना कुछ ऐसी बनती है कि लोग एकदूसरे से क्या बात कर रहे हैं यह समझ में नहीं आता या तो धीमी आवाज भी बहुत बड़ी लगती है । यह भवन की रचना का ही दोष होता है ।
    
भवन की बनावट पक्की होनी चाहिए । व्यवस्थित और सुन्दर होनी चाहिए । पानी, प्रकाश, हवा आदि की अच्छी सुविधा उसमें होनी चाहिए। हम इन बिंदुओं की चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने वाले हैं अतः यहाँ केवल उल्लेख ही किया है। कभी कभी भवन की बनावट ऐसी होती है कि __ उसकी स्वच्छता रखना कठिन हो जाता है । यह भी बनावट __ का ही दोष होता है।
 
भवन की बनावट पक्की होनी चाहिए । व्यवस्थित और सुन्दर होनी चाहिए । पानी, प्रकाश, हवा आदि की अच्छी सुविधा उसमें होनी चाहिए। हम इन बिंदुओं की चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने वाले हैं अतः यहाँ केवल उल्लेख ही किया है। कभी कभी भवन की बनावट ऐसी होती है कि __ उसकी स्वच्छता रखना कठिन हो जाता है । यह भी बनावट __ का ही दोष होता है।
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==== प्रश्नावली से पाप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से पाप्त उत्तर ====
विद्यालय के कक्षा-कक्ष के सम्बन्ध में अपना मंतव्य इस प्रश्नावली में प्रकट हुआ है। १२ प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर नागपुर के १३ शिक्षकों, २ प्रधानाचार्यों व एक संस्था चालक अर्थात् कुल १७ लोगों ने दिये हैं । इस कार्य में सौ. वैशालीताई नायगावकरने सहयोग दिया ।
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विद्यालय के कक्षा-कक्ष के सम्बन्ध में अपना मंतव्य इस प्रश्नावली में प्रकट हुआ है। १२ प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर नागपुर के १३ शिक्षकों, २ प्रधानाचार्यों व एक संस्था चालक अर्थात् कुल १७ लोगोंं ने दिये हैं । इस कार्य में सौ. वैशालीताई नायगावकरने सहयोग दिया ।
    
प्रश्न १, २, ३ व ५ - ५० से ६० विद्यार्थी आराम से बैठ सके इतना बड़ा कक्ष होना आवश्यक है। कक्षा कक्ष चौरस, आयातकार या अर्धवर्तुलाकार हो सकते हैं । कमरों में भरपूर प्रकाश एवं वायु आती हो, तथा पास के कक्षों की आवाज इस कक्ष में चल रहे कार्य में बाधक न हो, इस प्रकार की कक्षा की रचना विद्यालय में करनी चाहिये।  
 
प्रश्न १, २, ३ व ५ - ५० से ६० विद्यार्थी आराम से बैठ सके इतना बड़ा कक्ष होना आवश्यक है। कक्षा कक्ष चौरस, आयातकार या अर्धवर्तुलाकार हो सकते हैं । कमरों में भरपूर प्रकाश एवं वायु आती हो, तथा पास के कक्षों की आवाज इस कक्ष में चल रहे कार्य में बाधक न हो, इस प्रकार की कक्षा की रचना विद्यालय में करनी चाहिये।  
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प्रश्न ६ - उपस्कर (फर्निचर) के सम्बन्ध में, प्राथमिक कक्षाओं में नीचे बैठना और माध्यमिक कक्षाओं के लिए डेस्क व बेंच होनी चाहिए, सबका मत यही था ।
 
प्रश्न ६ - उपस्कर (फर्निचर) के सम्बन्ध में, प्राथमिक कक्षाओं में नीचे बैठना और माध्यमिक कक्षाओं के लिए डेस्क व बेंच होनी चाहिए, सबका मत यही था ।
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प्रश्न ७ - कमरों के दरवाजे लोहे के हों, खिडकियाँ जमीन से साढ़े तीन फीट की ऊँचाई पर हो ऐसा मत कुछ लोगों का था । बाहर खड़े निरीक्षक को पता चल सके उतनी ऊँचाई पर खिड़कियाँ हों, यह मत भी कुछ लोगों का था । कक्षा में फलक काँच के अथवा व्हाइट बोर्ड के होने चाहिए । शैक्षिक सामग्री व अन्य वस्तुएँ रखने के लिए अलमारी होनी चाहिए ।
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प्रश्न ७ - कमरों के दरवाजे लोहे के हों, खिडकियाँ जमीन से साढ़े तीन फीट की ऊँचाई पर हो ऐसा मत कुछ लोगोंं का था । बाहर खड़े निरीक्षक को पता चल सके उतनी ऊँचाई पर खिड़कियाँ हों, यह मत भी कुछ लोगोंं का था । कक्षा में फलक काँच के अथवा व्हाइट बोर्ड के होने चाहिए । शैक्षिक सामग्री व अन्य वस्तुएँ रखने के लिए अलमारी होनी चाहिए ।
    
प्रश्न १० - कक्षा का वातावरण
 
प्रश्न १० - कक्षा का वातावरण
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==== खिड़कियों की ऊँचाई ====
 
==== खिड़कियों की ऊँचाई ====
कक्षाकक्ष में बैठने की व्यवस्था कैसी है उसके आधार पर अन्य बातों की भी व्यवस्था की जायेंगी । अधिकांश कक्षाकक्षों में बैठने की व्यवस्था टेबल कुर्सी और बेन्च डेस्क पर की जाती है । इस हिसाब से खिडकियों की ऊंचाई ढाई या तीन फीट की रखी जाती है । नीचे भूमि पर बैठकर अध्ययन, भोजन आदि करना है तो खिड़कियों की भूतल से ऊंचाई १० से १२ इंच होनी चाहिये । नियम यह है कि कक्ष में बैठे हुए लोगों को खिड़की से बाहर का दृश्य दिख सके । कई बार तो बाहर का दिखाई न दे इसी उद्देश्य से खिड़कियाँ और भी ऊँचाई पर बनाई जाती हैं । बाहर की दखल न हो और विद्यार्थी भी बाहर न झाँक सर्के ऐसा दुहरा उद्देश्य होता है परन्तु यह उचित नहीं है, शास्त्रीय नहीं है ।
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कक्षाकक्ष में बैठने की व्यवस्था कैसी है उसके आधार पर अन्य बातों की भी व्यवस्था की जायेंगी । अधिकांश कक्षाकक्षों में बैठने की व्यवस्था टेबल कुर्सी और बेन्च डेस्क पर की जाती है । इस हिसाब से खिडकियों की ऊंचाई ढाई या तीन फीट की रखी जाती है । नीचे भूमि पर बैठकर अध्ययन, भोजन आदि करना है तो खिड़कियों की भूतल से ऊंचाई १० से १२ इंच होनी चाहिये । नियम यह है कि कक्ष में बैठे हुए लोगोंं को खिड़की से बाहर का दृश्य दिख सके । कई बार तो बाहर का दिखाई न दे इसी उद्देश्य से खिड़कियाँ और भी ऊँचाई पर बनाई जाती हैं । बाहर की दखल न हो और विद्यार्थी भी बाहर न झाँक सर्के ऐसा दुहरा उद्देश्य होता है परन्तु यह उचित नहीं है, शास्त्रीय नहीं है ।
    
==== बैठने की दिशा ====
 
==== बैठने की दिशा ====
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७. स्वच्छता बनाये रखने के लिये कौन कौन से उपाय कर सकते हैं ?  
 
७. स्वच्छता बनाये रखने के लिये कौन कौन से उपाय कर सकते हैं ?  
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८. स्वच्छता बनाये रखने के लिये सम्बन्धित सभी लोगों की मानसिकता, आदतें एवं व्यवहार कैसा होना चाहिये ?  
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८. स्वच्छता बनाये रखने के लिये सम्बन्धित सभी लोगोंं की मानसिकता, आदतें एवं व्यवहार कैसा होना चाहिये ?  
    
९. आन्तरिक स्वच्छता एवं बाह्य स्वच्छता में क्या अन्तर है ?  
 
९. आन्तरिक स्वच्छता एवं बाह्य स्वच्छता में क्या अन्तर है ?  
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यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
 
यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
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प्रश्न १ : स्वच्छता का अर्थ लिखते समय तन की स्वच्छता, मन की स्वच्छता, पर्यावरण की स्वच्छता का विचार एक अभिभावक ने रखा । कुछ लोगों ने आसपास का परिसर साफ रखना यह विचार भी रखा।
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प्रश्न १ : स्वच्छता का अर्थ लिखते समय तन की स्वच्छता, मन की स्वच्छता, पर्यावरण की स्वच्छता का विचार एक अभिभावक ने रखा । कुछ लोगोंं ने आसपास का परिसर साफ रखना यह विचार भी रखा।
    
प्रश्न २-३ : स्वच्छता एवं पर्यावरण ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसी प्रकार के संक्षिप्त उत्तर स्वच्छता और स्वास्थ्य के विषय में प्राप्त हुए। इनमें विद्यार्थी, अभिभावक, सफाई कर्मचारी इन सबकी सहभागिता अपेक्षित है। पानी के पाउच, बाजारी चीजों के रेपर्स, फूड पेकेट्स के कवर आदि जो गन्दगी फैलाते हैं उन्हें वर्जित करना चाहिए ऐसा सभी चाहते हैं । प्रश्न ६ के उत्तर में स्वच्छता एवं पवित्रता के परस्पर सम्बन्धों का योग्य उत्तर नहीं मिला । प्रश्न ७ में स्वच्छता बनाये रखने के लिए स्थान-स्थान पर 'कचरापात्र' रखें जायें, यह सुझाव मिला। प्र. ८ स्वच्छता का आग्रह शतप्रतिशत होना ही चाहिए ऐसा सर्वानुमत था। गन्दगी फैलाने वाले पर आर्थिक दण्ड और कानूनी कार्यवाही करने की बात भी एक के उत्तर में आई।
 
प्रश्न २-३ : स्वच्छता एवं पर्यावरण ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसी प्रकार के संक्षिप्त उत्तर स्वच्छता और स्वास्थ्य के विषय में प्राप्त हुए। इनमें विद्यार्थी, अभिभावक, सफाई कर्मचारी इन सबकी सहभागिता अपेक्षित है। पानी के पाउच, बाजारी चीजों के रेपर्स, फूड पेकेट्स के कवर आदि जो गन्दगी फैलाते हैं उन्हें वर्जित करना चाहिए ऐसा सभी चाहते हैं । प्रश्न ६ के उत्तर में स्वच्छता एवं पवित्रता के परस्पर सम्बन्धों का योग्य उत्तर नहीं मिला । प्रश्न ७ में स्वच्छता बनाये रखने के लिए स्थान-स्थान पर 'कचरापात्र' रखें जायें, यह सुझाव मिला। प्र. ८ स्वच्छता का आग्रह शतप्रतिशत होना ही चाहिए ऐसा सर्वानुमत था। गन्दगी फैलाने वाले पर आर्थिक दण्ड और कानूनी कार्यवाही करने की बात भी एक के उत्तर में आई।
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* सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है। इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है । अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व धार्मिक समाज स्वायत्त था। स्वायत्तता का एक लक्षण स्वयंप्रेरणा से सामाजिक दायित्वों का निर्वाहण करने का भी था । परन्तु अंग्रेजों ने सत्ता ग्रहण कर लेने के बाद समाज धीरे धीरे शासन के अधीन होता गया। इस नई व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सरकार की और काम समाज का ऐसा विभाजन हो गया। सरकार जिम्मेदार थी परन्तु स्वयं काम करने के स्थान पर काम करवाती थी । जो काम करता था उसका अधिकार नहीं था, जिसका अधिकार था वह काम नहीं करता था । धीरे धीरे काम करना हेय और करवाना श्रेष्ठ माना जाने लगा । आज ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं । यह व्यवस्था हमारी सभी रचनाओं में दिखाई देती है।  
 
* सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है। इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है । अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व धार्मिक समाज स्वायत्त था। स्वायत्तता का एक लक्षण स्वयंप्रेरणा से सामाजिक दायित्वों का निर्वाहण करने का भी था । परन्तु अंग्रेजों ने सत्ता ग्रहण कर लेने के बाद समाज धीरे धीरे शासन के अधीन होता गया। इस नई व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सरकार की और काम समाज का ऐसा विभाजन हो गया। सरकार जिम्मेदार थी परन्तु स्वयं काम करने के स्थान पर काम करवाती थी । जो काम करता था उसका अधिकार नहीं था, जिसका अधिकार था वह काम नहीं करता था । धीरे धीरे काम करना हेय और करवाना श्रेष्ठ माना जाने लगा । आज ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं । यह व्यवस्था हमारी सभी रचनाओं में दिखाई देती है।  
 
* विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है। प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है।  
 
* विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है। प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है।  
* स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर, कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगों को, वहीं पर काम करने वाले लोगों को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये अतः नहीं होगा।  
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* स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर, कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगोंं को, वहीं पर काम करने वाले लोगोंं को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये अतः नहीं होगा।  
 
* विद्यालय की स्वच्छता में केवल भवन की स्वच्छता ही नहीं होती। पुस्तकें, शैक्षिक सामग्री,बगीचा, मैदान, उपस्कर आदि सभी बातों की स्वच्छता भी होनी चाहिये । छात्रों का वेश, पदवेश, बस्ता आदि भी स्वच्छ होना अपेक्षित है।  
 
* विद्यालय की स्वच्छता में केवल भवन की स्वच्छता ही नहीं होती। पुस्तकें, शैक्षिक सामग्री,बगीचा, मैदान, उपस्कर आदि सभी बातों की स्वच्छता भी होनी चाहिये । छात्रों का वेश, पदवेश, बस्ता आदि भी स्वच्छ होना अपेक्षित है।  
 
* स्वच्छता के लिए प्रयोग में ली जाने वाली सामग्री चिन्ता का विषय है। साबुन, डीटेर्जेंट, एसिड, फिनाइल आदि सफाई की जो सामग्री होती है वह कृत्रिम और पर्यावरण का प्रदूषण करने वाली ही होती है। इससे होने वाली सफाई सुन्दर दिखाई देने वाली ही होती है परन्तु इसके पीछे व्यापक अस्वच्छता जन्म लेती है जो प्रदूषण पैदा करती है। ऐसी सुन्दर अस्वच्छता की संकल्पना छात्रों को समझ में आए ऐसा करने की आवश्यकता है। विद्यालय की स्वच्छता छात्रों का सरोकार बने यही शिक्षा है। स्वच्छता अपने आपमें साध्य भी है और छात्रों के विकास का माध्यम भी है । यह व्यावहारिक शिक्षा है, कारीगरी की शिक्षा है, विज्ञान की शिक्षा है, सामाजिक शिक्षा भी है।
 
* स्वच्छता के लिए प्रयोग में ली जाने वाली सामग्री चिन्ता का विषय है। साबुन, डीटेर्जेंट, एसिड, फिनाइल आदि सफाई की जो सामग्री होती है वह कृत्रिम और पर्यावरण का प्रदूषण करने वाली ही होती है। इससे होने वाली सफाई सुन्दर दिखाई देने वाली ही होती है परन्तु इसके पीछे व्यापक अस्वच्छता जन्म लेती है जो प्रदूषण पैदा करती है। ऐसी सुन्दर अस्वच्छता की संकल्पना छात्रों को समझ में आए ऐसा करने की आवश्यकता है। विद्यालय की स्वच्छता छात्रों का सरोकार बने यही शिक्षा है। स्वच्छता अपने आपमें साध्य भी है और छात्रों के विकास का माध्यम भी है । यह व्यावहारिक शिक्षा है, कारीगरी की शिक्षा है, विज्ञान की शिक्षा है, सामाजिक शिक्षा भी है।
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यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
 
यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
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प्रश्न १ : स्वच्छता का अर्थ लिखते समय तन की स्वच्छता, मन की स्वच्छता, पर्यावरण की स्वच्छता का विचार एक अभिभावक ने रखा । कुछ लोगों ने आसपास का परिसर साफ रखना यह विचार भी रखा ।
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प्रश्न १ : स्वच्छता का अर्थ लिखते समय तन की स्वच्छता, मन की स्वच्छता, पर्यावरण की स्वच्छता का विचार एक अभिभावक ने रखा । कुछ लोगोंं ने आसपास का परिसर साफ रखना यह विचार भी रखा ।
    
प्रश्न २-३ : स्वच्छता एवं पर्यावरण ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसी प्रकार के संक्षिप्त उत्तर स्वच्छता और स्वास्थ्य के विषय में प्राप्त हुए। इनमें विद्यार्थी, अभिभावक, सफाई कर्मचारी इन सबकी सहभागिता अपेक्षित है। पानी के पाउच, बाजारी चीजों के रेपर्स, फूड पेकेट्स के कवर आदि जो गन्दगी फैलाते हैं उन्हें वर्जित करना चाहिए ऐसा सभी चाहते हैं । प्रश्न ६ के उत्तर में स्वच्छता एवं पवित्रता के परस्पर सम्बन्धों का योग्य उत्तर नहीं मिला । प्रश्न ७ में स्वच्छता बनाये रखने के लिए स्थान-स्थान पर 'कचरापात्र' रखें जायें, यह सुझाव मिला । प्र. ८ स्वच्छता का आग्रह शतप्रतिशत होना ही चाहिए ऐसा सर्वानुमत था। गन्दगी फैलाने वाले पर आर्थिक दण्ड और कानूनी कार्यवाही करने की बात भी एक के उत्तर में आई।
 
प्रश्न २-३ : स्वच्छता एवं पर्यावरण ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसी प्रकार के संक्षिप्त उत्तर स्वच्छता और स्वास्थ्य के विषय में प्राप्त हुए। इनमें विद्यार्थी, अभिभावक, सफाई कर्मचारी इन सबकी सहभागिता अपेक्षित है। पानी के पाउच, बाजारी चीजों के रेपर्स, फूड पेकेट्स के कवर आदि जो गन्दगी फैलाते हैं उन्हें वर्जित करना चाहिए ऐसा सभी चाहते हैं । प्रश्न ६ के उत्तर में स्वच्छता एवं पवित्रता के परस्पर सम्बन्धों का योग्य उत्तर नहीं मिला । प्रश्न ७ में स्वच्छता बनाये रखने के लिए स्थान-स्थान पर 'कचरापात्र' रखें जायें, यह सुझाव मिला । प्र. ८ स्वच्छता का आग्रह शतप्रतिशत होना ही चाहिए ऐसा सर्वानुमत था। गन्दगी फैलाने वाले पर आर्थिक दण्ड और कानूनी कार्यवाही करने की बात भी एक के उत्तर में आई।
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* सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है । इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है। अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व धार्मिक समाज स्वायत्त था। स्वायत्तता का एक लक्षण स्वयंप्रेरणा से सामाजिक दायित्वों का निर्वाहण करने का भी था । परन्तु अंग्रेजों ने सत्ता ग्रहण कर लेने के बाद समाज धीरे धीरे शासन के अधीन होता गया। इस नई व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सरकार की और काम समाज का ऐसा विभाजन हो गया। सरकार जिम्मेदार थी परन्तु स्वयं काम करने के स्थान पर काम करवाती थी । जो काम करता था उसका अधिकार नहीं था, जिसका अधिकार था वह काम नहीं करता था । धीरे धीरे काम करना हेय और करवाना श्रेष्ठ माना जाने लगा। आज ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं । यह व्यवस्था हमारी सभी रचनाओं में दिखाई देती है।  
 
* सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है । इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है। अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व धार्मिक समाज स्वायत्त था। स्वायत्तता का एक लक्षण स्वयंप्रेरणा से सामाजिक दायित्वों का निर्वाहण करने का भी था । परन्तु अंग्रेजों ने सत्ता ग्रहण कर लेने के बाद समाज धीरे धीरे शासन के अधीन होता गया। इस नई व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सरकार की और काम समाज का ऐसा विभाजन हो गया। सरकार जिम्मेदार थी परन्तु स्वयं काम करने के स्थान पर काम करवाती थी । जो काम करता था उसका अधिकार नहीं था, जिसका अधिकार था वह काम नहीं करता था । धीरे धीरे काम करना हेय और करवाना श्रेष्ठ माना जाने लगा। आज ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं । यह व्यवस्था हमारी सभी रचनाओं में दिखाई देती है।  
 
* विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है।  प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है।  
 
* विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है।  प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है।  
* स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर,कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगों को, वहीं पर काम करने वाले लोगों को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये अतः नहीं होगा।  
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* स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर,कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगोंं को, वहीं पर काम करने वाले लोगोंं को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये अतः नहीं होगा।  
 
* विद्यालय की स्वच्छता में केवल भवन की स्वच्छता ही नहीं होती। पुस्तकें, शैक्षिक सामग्री,बगीचा, मैदान, उपस्कर आदि सभी बातों की स्वच्छता भी होनी चाहिये । छात्रों का वेश, पदवेश, बस्ता आदि भी स्वच्छ होना अपेक्षित है।  
 
* विद्यालय की स्वच्छता में केवल भवन की स्वच्छता ही नहीं होती। पुस्तकें, शैक्षिक सामग्री,बगीचा, मैदान, उपस्कर आदि सभी बातों की स्वच्छता भी होनी चाहिये । छात्रों का वेश, पदवेश, बस्ता आदि भी स्वच्छ होना अपेक्षित है।  
 
* स्वच्छता के लिए प्रयोग में ली जाने वाली सामग्री चिन्ता का विषय है। साबुन, डीटेर्जेंट, एसिड, फिनाइल आदि सफाई की जो सामग्री होती है वह कृत्रिम और पर्यावरण का प्रदूषण करने वाली ही होती है। इससे होने वाली सफाई सुन्दर दिखाई देने वाली ही होती है परन्तु इसके पीछे व्यापक अस्वच्छता जन्म लेती है जो प्रदूषण पैदा करती है। ऐसी सुन्दर अस्वच्छता की संकल्पना छात्रों को समझ में आए ऐसा करने की आवश्यकता है। विद्यालय की स्वच्छता छात्रों का सरोकार बने यही शिक्षा है। स्वच्छता अपने आपमें साध्य भी है और छात्रों के विकास का माध्यम भी है । यह व्यावहारिक शिक्षा है, कारीगरी की शिक्षा है, विज्ञान की शिक्षा है, सामाजिक शिक्षा भी है।
 
* स्वच्छता के लिए प्रयोग में ली जाने वाली सामग्री चिन्ता का विषय है। साबुन, डीटेर्जेंट, एसिड, फिनाइल आदि सफाई की जो सामग्री होती है वह कृत्रिम और पर्यावरण का प्रदूषण करने वाली ही होती है। इससे होने वाली सफाई सुन्दर दिखाई देने वाली ही होती है परन्तु इसके पीछे व्यापक अस्वच्छता जन्म लेती है जो प्रदूषण पैदा करती है। ऐसी सुन्दर अस्वच्छता की संकल्पना छात्रों को समझ में आए ऐसा करने की आवश्यकता है। विद्यालय की स्वच्छता छात्रों का सरोकार बने यही शिक्षा है। स्वच्छता अपने आपमें साध्य भी है और छात्रों के विकास का माध्यम भी है । यह व्यावहारिक शिक्षा है, कारीगरी की शिक्षा है, विज्ञान की शिक्षा है, सामाजिक शिक्षा भी है।
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# देखा जाता है कि जहाँ ऐसा नियम बनाया जाता है वहाँ विद्यार्थी या अभिभावक पेट्रोल-डिजल चलित वाहन तो लाते हैं, परन्तु उसे कुछ दूरी पर रखते हैं और बाद में पैदल चलकर विद्यालय आते हैं । यह तो इस बात का निदर्शक है कि विद्यार्थी और उनके मातापिता अप्रामाणिक हैं, नियम का पालन करते नहीं हैं इसलिये अनुशासनहीन हैं और विद्यालय के लोग यह जानते हैं तो भी कुछ नहीं कर सकते इतने प्रभावहीन हैं। वास्तव में इस व्यवस्था को सबके मन में स्वीकृत करवाना विद्यालय का प्रथम दायित्व है।  
 
# देखा जाता है कि जहाँ ऐसा नियम बनाया जाता है वहाँ विद्यार्थी या अभिभावक पेट्रोल-डिजल चलित वाहन तो लाते हैं, परन्तु उसे कुछ दूरी पर रखते हैं और बाद में पैदल चलकर विद्यालय आते हैं । यह तो इस बात का निदर्शक है कि विद्यार्थी और उनके मातापिता अप्रामाणिक हैं, नियम का पालन करते नहीं हैं इसलिये अनुशासनहीन हैं और विद्यालय के लोग यह जानते हैं तो भी कुछ नहीं कर सकते इतने प्रभावहीन हैं। वास्तव में इस व्यवस्था को सबके मन में स्वीकृत करवाना विद्यालय का प्रथम दायित्व है।  
 
# महाविद्यालयों में मोटर साइकिल एक आर्थिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक अनिष्ट बन गया है। मार्गों पर दुर्घटनायें युवाओं के बेतहाशा वाहन चलाने के कारण होती हैं । महाविद्यालय के परिसर में और आसपास पार्किंग की समस्या इन्हीं के कारण से होती है। पिरीयड बंक करने का प्रचलन इसी के आकर्षण से होता है। मित्रों के साथ मजे करने का एक माध्यम मोटरसाइकिल की सवारी । वह दस प्रतिशत उपयोगी और नब्बे प्रतिशत अनिष्टकारी वाहन बन गया है। महाविद्यालयों का किसी भी प्रकार का नैतिक प्रभाव विद्यार्थियों पर नहीं है इसलिये वे उन्हें मोटरसाइकिल के उपयोग से रोक नहीं सकते । परन्तु इसका एकमात्र उपाय नैतिक प्रभाव निर्माण करने का, विद्यार्थियों का प्रबोधन करने का और महाविद्यालय में साइकिल लेकर आने की प्रेरणा देने का है। इसके बाद मोटरसाइकिल लेकर नहीं आने का नियम बनाया जा सकता है।  
 
# महाविद्यालयों में मोटर साइकिल एक आर्थिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक अनिष्ट बन गया है। मार्गों पर दुर्घटनायें युवाओं के बेतहाशा वाहन चलाने के कारण होती हैं । महाविद्यालय के परिसर में और आसपास पार्किंग की समस्या इन्हीं के कारण से होती है। पिरीयड बंक करने का प्रचलन इसी के आकर्षण से होता है। मित्रों के साथ मजे करने का एक माध्यम मोटरसाइकिल की सवारी । वह दस प्रतिशत उपयोगी और नब्बे प्रतिशत अनिष्टकारी वाहन बन गया है। महाविद्यालयों का किसी भी प्रकार का नैतिक प्रभाव विद्यार्थियों पर नहीं है इसलिये वे उन्हें मोटरसाइकिल के उपयोग से रोक नहीं सकते । परन्तु इसका एकमात्र उपाय नैतिक प्रभाव निर्माण करने का, विद्यार्थियों का प्रबोधन करने का और महाविद्यालय में साइकिल लेकर आने की प्रेरणा देने का है। इसके बाद मोटरसाइकिल लेकर नहीं आने का नियम बनाया जा सकता है।  
# वास्तव में साइकिल संस्कृति का विकास करने की आवश्यकता है । सडकों पर साइकिल के लिये अलग से व्यवस्था बन सकती है। पैदल चलनेवालों और साइकिल का प्रयोग करने वालों की प्रतिष्ठा बढनी चाहिये। विद्यालयों ने इसे अपना मिशन बनाना चाहिये । सरकार ने आवाहन करना चाहिये । समाज के प्रतिष्ठित लोगों ने नेतृत्व करना चाहिये ।
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# वास्तव में साइकिल संस्कृति का विकास करने की आवश्यकता है । सडकों पर साइकिल के लिये अलग से व्यवस्था बन सकती है। पैदल चलनेवालों और साइकिल का प्रयोग करने वालों की प्रतिष्ठा बढनी चाहिये। विद्यालयों ने इसे अपना मिशन बनाना चाहिये । सरकार ने आवाहन करना चाहिये । समाज के प्रतिष्ठित लोगोंं ने नेतृत्व करना चाहिये ।
 
जिस दिन वाहनव्यवस्था और वाहनमानसिकता में परिवर्तन होगा उस दिन से हम स्वास्थ्य, शान्ति और समृद्धि की दिशा में चलना आरम्भ करेंगे।
 
जिस दिन वाहनव्यवस्था और वाहनमानसिकता में परिवर्तन होगा उस दिन से हम स्वास्थ्य, शान्ति और समृद्धि की दिशा में चलना आरम्भ करेंगे।
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# अच्छी ध्वनिव्यवस्था का क्या अर्थ है ?  
 
# अच्छी ध्वनिव्यवस्था का क्या अर्थ है ?  
 
# ध्वनि का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव होता है ?  
 
# ध्वनि का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव होता है ?  
# ध्वनि व्यवस्था की दृष्टि से निम्नलिखित बातों में क्या क्या सावधानियां रखनी चाहिये ? १. ध्वनिवर्धक यंत्र २. ध्वनिमुद्रण यंत्र एवं ध्वनमुद्रिकायें ३. ध्वनिक्षेपक यंत्र ४. विद्यालय की विभिन्न प्रकार की घण्टियां ५. कक्षाकक्ष की रचना ६. संगीत के साधन ७. लोगों का बोलने का ढंग  
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# ध्वनि व्यवस्था की दृष्टि से निम्नलिखित बातों में क्या क्या सावधानियां रखनी चाहिये ? १. ध्वनिवर्धक यंत्र २. ध्वनिमुद्रण यंत्र एवं ध्वनमुद्रिकायें ३. ध्वनिक्षेपक यंत्र ४. विद्यालय की विभिन्न प्रकार की घण्टियां ५. कक्षाकक्ष की रचना ६. संगीत के साधन ७. लोगोंं का बोलने का ढंग  
 
# ध्वनिप्रदूषण का निवारण करने के क्या उपाय है ?
 
# ध्वनिप्रदूषण का निवारण करने के क्या उपाय है ?
 
# अच्छी ध्वनिव्यवस्था के शैक्षिक लाभ क्या हैं ?
 
# अच्छी ध्वनिव्यवस्था के शैक्षिक लाभ क्या हैं ?

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