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पुरी बातचीत से शुल्क अनिवार्य है यही समझ मन में बैठ गयी है ऐसा लगता है । विद्या का दान नही होता तो हमने उसे बेचने की चीज बना दी है । दक्षिणा स्वैच्छिक होती है । शुल्क को दक्षिणा मानना यह अनुचित बात को अच्छा लेबल लगाने जैसा होता है । विद्यालयों में सबका शुल्क समान एवं अनिवार्य ही होता है । शिक्षा की गुणवत्ता और शुल्क का कोई सम्बन्ध कही दिखाई ही नहीं देता । ज्यादा शुल्क वाले विद्यालय में अच्छी पढाई होती है यह आभासी विचार ज्यादातर लोगों का है । अभिभावक भी आजकल अपने इकलौते बेटे को ए.सी., मिनरल वोटर, बैठने की स्वतंत्र सुंदर व्यवस्था ऐसी सुविधाएँ विद्यालय में भी मिले ऐसा सोचते है, इसलिये ज्यादा शुल्क देने की उनकी तैयारी है। मध्यमवर्गीय लोग बालक को पढाते है तो इतना शुल्क देना ही पडेगा ऐसा सोचते हैं । जितना ज्यादा शुल्क इतनी ज्यादा सुविधायें यह समझ आज सर्वत्र दृढ हुई है। सरकार की ओर से अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षकों का वेतन निवृत्ति वेतन तक निश्चित होता है । उस विचार से हमारा अन्नदाता सरकार है अभिभावक नहीं अतः शिक्षा की कोई गुणवत्ता टिकानी चाहिये यह बात वे भूल गये है। निजी विद्यालयों में अभी गुणवत्ता के संबंध से आपस में बहोत होड़ लगी रहती है। परंतु वह शिक्षकोंने अच्छा पढाना अनिवार्य नहीं होता, ज्यादा गुण देने से विद्यालय की गुणवत्ता वे सिद्ध करते है । आज समाज में निःशुल्क शिक्षा निकृष्ट शिक्षा और उंचे शुल्क लेनेवाली उत्कृष्ट शिक्षा ऐसा मापदण्ड निश्चित किया है । वेतन ज्यादा देने से अध्यापन की गुणवत्ता बढेगी यह संभव नहीं होता ।
 
पुरी बातचीत से शुल्क अनिवार्य है यही समझ मन में बैठ गयी है ऐसा लगता है । विद्या का दान नही होता तो हमने उसे बेचने की चीज बना दी है । दक्षिणा स्वैच्छिक होती है । शुल्क को दक्षिणा मानना यह अनुचित बात को अच्छा लेबल लगाने जैसा होता है । विद्यालयों में सबका शुल्क समान एवं अनिवार्य ही होता है । शिक्षा की गुणवत्ता और शुल्क का कोई सम्बन्ध कही दिखाई ही नहीं देता । ज्यादा शुल्क वाले विद्यालय में अच्छी पढाई होती है यह आभासी विचार ज्यादातर लोगों का है । अभिभावक भी आजकल अपने इकलौते बेटे को ए.सी., मिनरल वोटर, बैठने की स्वतंत्र सुंदर व्यवस्था ऐसी सुविधाएँ विद्यालय में भी मिले ऐसा सोचते है, इसलिये ज्यादा शुल्क देने की उनकी तैयारी है। मध्यमवर्गीय लोग बालक को पढाते है तो इतना शुल्क देना ही पडेगा ऐसा सोचते हैं । जितना ज्यादा शुल्क इतनी ज्यादा सुविधायें यह समझ आज सर्वत्र दृढ हुई है। सरकार की ओर से अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षकों का वेतन निवृत्ति वेतन तक निश्चित होता है । उस विचार से हमारा अन्नदाता सरकार है अभिभावक नहीं अतः शिक्षा की कोई गुणवत्ता टिकानी चाहिये यह बात वे भूल गये है। निजी विद्यालयों में अभी गुणवत्ता के संबंध से आपस में बहोत होड़ लगी रहती है। परंतु वह शिक्षकोंने अच्छा पढाना अनिवार्य नहीं होता, ज्यादा गुण देने से विद्यालय की गुणवत्ता वे सिद्ध करते है । आज समाज में निःशुल्क शिक्षा निकृष्ट शिक्षा और उंचे शुल्क लेनेवाली उत्कृष्ट शिक्षा ऐसा मापदण्ड निश्चित किया है । वेतन ज्यादा देने से अध्यापन की गुणवत्ता बढेगी यह संभव नहीं होता ।
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शुल्क के विषय में भारतीय मानस और वर्तमान व्यवस्था एकदूसरे से सर्वथा विपरीत हैं । मूल भारतीय विचार में शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ से अधिक है। अर्थ शिक्षा का मापदण्ड नहीं हो सकता । अर्थ केवल भौतिक पदार्थों का ही मापदण्ड हो सकता है। अधिक पैसा देने से अधिक अच्छा पढ़ाया जाता है और कम पैसे से नहीं यह सम्भव नहीं है । अच्छा पढाया इसलिये अधिक पैसा दिया जाना चाहिये ऐसा भी नहीं होता। इस स्वाभाविक बात को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था अर्थनिरपेक्ष बनाई गई थी । परन्तु आज का मानस कहता है कि जिसके पैसे नहीं दिये जाते उसकी कोई कीमत नहीं होती। जिसे पैसा नहीं दिया जाता उस पर कोई बन्धन या दबाव भी नहीं होता । इसलिये शिक्षा का शुल्क होना चाहिये यह सबका मत बनता है।
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शुल्क के विषय में धार्मिक मानस और वर्तमान व्यवस्था एकदूसरे से सर्वथा विपरीत हैं । मूल धार्मिक विचार में शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ से अधिक है। अर्थ शिक्षा का मापदण्ड नहीं हो सकता । अर्थ केवल भौतिक पदार्थों का ही मापदण्ड हो सकता है। अधिक पैसा देने से अधिक अच्छा पढ़ाया जाता है और कम पैसे से नहीं यह सम्भव नहीं है । अच्छा पढाया इसलिये अधिक पैसा दिया जाना चाहिये ऐसा भी नहीं होता। इस स्वाभाविक बात को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था अर्थनिरपेक्ष बनाई गई थी । परन्तु आज का मानस कहता है कि जिसके पैसे नहीं दिये जाते उसकी कोई कीमत नहीं होती। जिसे पैसा नहीं दिया जाता उस पर कोई बन्धन या दबाव भी नहीं होता । इसलिये शिक्षा का शुल्क होना चाहिये यह सबका मत बनता है।
    
एक प्रकार से विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ शुल्क बहुत कम लिया जाता है । कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या अधिक होती है । विद्यालय में सुविधायें भी कम होती है । शिक्षकों को वेतन कम दिया जाता है । ऐसे विद्यालयों में संचालकों, अभिभावकों और शिक्षकों में हमेशा तनाव रहता है । अभिभावक शुल्क बढाने का विरोध करते हैं, शिक्षक वेतन में वृद्धि चाहते हैं और शुल्क बढाये बिना संचालक अधिक वेतन नहीं दे सकते । विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाने से शुल्क की आय में वृद्धि होती है परन्तु उससे पढाई प्रभावित होती है इसलिये अभिभावकों की उसमें सहमति नहीं होती।
 
एक प्रकार से विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ शुल्क बहुत कम लिया जाता है । कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या अधिक होती है । विद्यालय में सुविधायें भी कम होती है । शिक्षकों को वेतन कम दिया जाता है । ऐसे विद्यालयों में संचालकों, अभिभावकों और शिक्षकों में हमेशा तनाव रहता है । अभिभावक शुल्क बढाने का विरोध करते हैं, शिक्षक वेतन में वृद्धि चाहते हैं और शुल्क बढाये बिना संचालक अधिक वेतन नहीं दे सकते । विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाने से शुल्क की आय में वृद्धि होती है परन्तु उससे पढाई प्रभावित होती है इसलिये अभिभावकों की उसमें सहमति नहीं होती।
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समाज में बिना अनुदान चलनेवाले अधिकांश विद्यालयों की यही स्थिति होती है । इन विद्यालयों में इस तनावपूर्ण स्थिति को शान्त करने की आवश्यकता रहती है । इसके दो उपाय हैं । एक तो समझदार अभिभावक, शिक्षकों और संचालकों के प्रतिनिधियों ने साथ बैठता चाहिये और अबिभावकों की आर्थिक स्थिति, शिक्षकों की आवश्यकता और विद्यालय भवन में सुविधाओं के सम्बन्ध में परस्पर सहानुभूति पूर्वक विचार कर हल खोजना चाहिये । दूसरा तरीका यह है की संचालकों ने समाज से भिक्षा मांगनी चाहिए। संचालकों का बड़ा वर्ग है जो मानता है और कहता है कि समाज भवन तथा अन्य सुविधाओं के लिए तो सहयोग करता है परन्तु शिक्षकों के वेतन के लिये दान देने के लिये सहमत नहीं होता। शिक्षकों का वेतन तो शुल्क में से ही देना होता है। परन्तु यह बात ऐसे ही छोड़नी नहीं चाहिये। शिक्षकों का वेतन शुल्क पर ही अवलम्बित  रहे यह व्यवस्था ही ठीक नहीं है । विद्यालय की अन्य व्यवस्थाओं से भी शिक्षकों के वेतन का महत्त्व अधिक है । उसे विद्यार्थियों की संख्या और अभिभावकों के द्वारा दिये जाने वाले शुल्क के सामने दाँव पर लगाना उचित नहीं है । शिक्षकों को आदर देने की और उनकी आर्थिक सुरक्षा की ओर ध्यान देने की समाज की भी जिम्मेदारी है । इसलिये समाज से भिक्षा माँगने का प्रयास तो करना ही चाहिये । यह प्रयोग यदि अच्छा चला तो आगे समाज के ही योगदान से निःशुल्क शिक्षा की योजना भी हो सकती है।
 
समाज में बिना अनुदान चलनेवाले अधिकांश विद्यालयों की यही स्थिति होती है । इन विद्यालयों में इस तनावपूर्ण स्थिति को शान्त करने की आवश्यकता रहती है । इसके दो उपाय हैं । एक तो समझदार अभिभावक, शिक्षकों और संचालकों के प्रतिनिधियों ने साथ बैठता चाहिये और अबिभावकों की आर्थिक स्थिति, शिक्षकों की आवश्यकता और विद्यालय भवन में सुविधाओं के सम्बन्ध में परस्पर सहानुभूति पूर्वक विचार कर हल खोजना चाहिये । दूसरा तरीका यह है की संचालकों ने समाज से भिक्षा मांगनी चाहिए। संचालकों का बड़ा वर्ग है जो मानता है और कहता है कि समाज भवन तथा अन्य सुविधाओं के लिए तो सहयोग करता है परन्तु शिक्षकों के वेतन के लिये दान देने के लिये सहमत नहीं होता। शिक्षकों का वेतन तो शुल्क में से ही देना होता है। परन्तु यह बात ऐसे ही छोड़नी नहीं चाहिये। शिक्षकों का वेतन शुल्क पर ही अवलम्बित  रहे यह व्यवस्था ही ठीक नहीं है । विद्यालय की अन्य व्यवस्थाओं से भी शिक्षकों के वेतन का महत्त्व अधिक है । उसे विद्यार्थियों की संख्या और अभिभावकों के द्वारा दिये जाने वाले शुल्क के सामने दाँव पर लगाना उचित नहीं है । शिक्षकों को आदर देने की और उनकी आर्थिक सुरक्षा की ओर ध्यान देने की समाज की भी जिम्मेदारी है । इसलिये समाज से भिक्षा माँगने का प्रयास तो करना ही चाहिये । यह प्रयोग यदि अच्छा चला तो आगे समाज के ही योगदान से निःशुल्क शिक्षा की योजना भी हो सकती है।
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यह तो सर्वसामान्य विद्यालयों की बात है । परन्तु विद्यालयों का एक वर्ग ऐसा है जिसमें मानते हैं कि भारतीय शिक्षा अर्थनिरपेक्ष होती है और वह होनी चाहिये।
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यह तो सर्वसामान्य विद्यालयों की बात है । परन्तु विद्यालयों का एक वर्ग ऐसा है जिसमें मानते हैं कि धार्मिक शिक्षा अर्थनिरपेक्ष होती है और वह होनी चाहिये।
    
ऐसे लोगों को सक्रिय होने की आवश्यकता है । ऐसे लोगों को मुखर होना चाहिये । ऐक चिरपुरातन परन्तु आज अपरिचित और विस्मृत विचार को पुनः प्रतिष्ठित करने हेतु जितने और जिस प्रकार के उपाय करने होते हैं वे सब करने चाहिये । शीघ्र ही ध्यान में आयेगा कि समाज इसे अपनाने के लिये तैयार हो जायेगा।
 
ऐसे लोगों को सक्रिय होने की आवश्यकता है । ऐसे लोगों को मुखर होना चाहिये । ऐक चिरपुरातन परन्तु आज अपरिचित और विस्मृत विचार को पुनः प्रतिष्ठित करने हेतु जितने और जिस प्रकार के उपाय करने होते हैं वे सब करने चाहिये । शीघ्र ही ध्यान में आयेगा कि समाज इसे अपनाने के लिये तैयार हो जायेगा।
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# व्यय एवं विद्यालय की प्रतिष्ठा का क्या सम्बन्ध है ?
 
# व्यय एवं विद्यालय की प्रतिष्ठा का क्या सम्बन्ध है ?
 
# व्यय के अनुरूप आय होनी चाहिये या आय के अनुरूप व्यय ?  
 
# व्यय के अनुरूप आय होनी चाहिये या आय के अनुरूप व्यय ?  
३. आय एवं व्यय के सम्बन्ध में भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टि में क्या अन्तर है ? भारतीय दृष्टि को व्यावहारिक बनाने के लिये क्या क्या कर सकते हैं ?
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३. आय एवं व्यय के सम्बन्ध में धार्मिक एवं पाश्चात्य दृष्टि में क्या अन्तर है ? धार्मिक दृष्टि को व्यावहारिक बनाने के लिये क्या क्या कर सकते हैं ?
    
विद्यालय संचालन के जो आयव्यय के संबंध में एक गट के साथ चर्चा की उनसे प्राप्त उत्तर ऐसे हैं
 
विद्यालय संचालन के जो आयव्यय के संबंध में एक गट के साथ चर्चा की उनसे प्राप्त उत्तर ऐसे हैं
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# दूसरा उपाय होता है शासन से अनुदान का । ऐसा एक बड़ा वर्ग है जहाँ सम्यक खर्च शासन का ही होता है। आईआईटी, आईआईएम जैसे बड़े संस्थान अधिकांश विश्वविद्यालय, अनेक महाविद्यालय, अधिकांश प्राथमिक विद्यालय शत प्रतिशत सरकारी खर्च से ही चलते है। सरकार यह खर्च प्रजा से जो कर मिलता है उसमें से करती है। अनेक छोटे बडे निजी विद्यालय शासन द्वारा दिये गये आवर्ती अनुदान से चलते हैं।  
 
# दूसरा उपाय होता है शासन से अनुदान का । ऐसा एक बड़ा वर्ग है जहाँ सम्यक खर्च शासन का ही होता है। आईआईटी, आईआईएम जैसे बड़े संस्थान अधिकांश विश्वविद्यालय, अनेक महाविद्यालय, अधिकांश प्राथमिक विद्यालय शत प्रतिशत सरकारी खर्च से ही चलते है। सरकार यह खर्च प्रजा से जो कर मिलता है उसमें से करती है। अनेक छोटे बडे निजी विद्यालय शासन द्वारा दिये गये आवर्ती अनुदान से चलते हैं।  
 
# निजी विद्यालयों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे शिक्षकों के वेतन हेतु अनुदान मिलता है परन्तु भवन, फर्नीचर तथा अन्य समग्री के लिये स्वयं का पैसा खर्च करना पडता है। तब यह पैसा समाज के दान के रूप में ही मिलता है। ऐसे विद्यालयों का संचालन सार्वजनिक संस्थायें करती हैं। समाज के दानशील लोग इन्हें सहायता करते हैं। जो संस्था के नहीं अपितु सर्वथा निजी मालिकी के विद्यालय या विश्वविद्यालय होते हैं उनकी आर्थिक जिम्मेदारी उस मालिक की ही होती है। परन्तु वे शुद्ध बाजार के रूप में ही उन्हें चलाते हैं। अधिकांश ये उद्योजकों की मालिकी के ही होते हैं और उनके उद्योग के एक अंग के रूप में वे चलते हैं। ऐसे विद्यालयों के लिये शुल्क के अतिरिक्त आय का और कोई स्रोत नहीं होता। इन विद्यालयों के मालिक उद्योजक होते हैं, शिक्षक नहीं इसलिये ये विद्यालय कम, उद्योग ही अधिक होते है।  
 
# निजी विद्यालयों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे शिक्षकों के वेतन हेतु अनुदान मिलता है परन्तु भवन, फर्नीचर तथा अन्य समग्री के लिये स्वयं का पैसा खर्च करना पडता है। तब यह पैसा समाज के दान के रूप में ही मिलता है। ऐसे विद्यालयों का संचालन सार्वजनिक संस्थायें करती हैं। समाज के दानशील लोग इन्हें सहायता करते हैं। जो संस्था के नहीं अपितु सर्वथा निजी मालिकी के विद्यालय या विश्वविद्यालय होते हैं उनकी आर्थिक जिम्मेदारी उस मालिक की ही होती है। परन्तु वे शुद्ध बाजार के रूप में ही उन्हें चलाते हैं। अधिकांश ये उद्योजकों की मालिकी के ही होते हैं और उनके उद्योग के एक अंग के रूप में वे चलते हैं। ऐसे विद्यालयों के लिये शुल्क के अतिरिक्त आय का और कोई स्रोत नहीं होता। इन विद्यालयों के मालिक उद्योजक होते हैं, शिक्षक नहीं इसलिये ये विद्यालय कम, उद्योग ही अधिक होते है।  
क्वचित् ऐसे भी विद्यालय होते हैं जिनके पास पर्याप्त भूमि होती है। इस भूमि पर फलों की अथवा तत्सम पदार्थों की फसल ली जाती है जिससे उन्हें अच्छी आय होती है और उनका निभाव अच्छी तरह होता है। विद्यालय के निभाव हेतु विद्यालय का कोई न कोई व्यवसाय भी होता है। ये विद्यालय वास्तव में अत्यन्त व्यवहावादी कहे जाने चाहिये । परन्तु ये इनेगिने ही होते हैं। ये सब वर्तमान परिस्थिति का विचार कर अपनाये गये मार्ग हैं। परन्तु भारतीय दृष्टि से तो विद्यार्थियों द्वारा दी गई गुरुदक्षिणा, पूर्व छात्रों द्वारा विद्यालय की ली गई आर्थिक जिम्मेदारी तथा समाज द्वारा दिया गया दान ही विद्यालय का आय का स्रोत होना चाहिये । साथ ही विद्यालय द्वारा अपनाई गई सादगी, स्वावलम्बन और मितव्ययिता ही सही उपाय है। इन मुद्दों की विस्तारपूर्वक चर्चा इस ग्रन्थ में अन्यत्र की गई हैं इसलिये यहाँ केवल संकेत ही किया है ।
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क्वचित् ऐसे भी विद्यालय होते हैं जिनके पास पर्याप्त भूमि होती है। इस भूमि पर फलों की अथवा तत्सम पदार्थों की फसल ली जाती है जिससे उन्हें अच्छी आय होती है और उनका निभाव अच्छी तरह होता है। विद्यालय के निभाव हेतु विद्यालय का कोई न कोई व्यवसाय भी होता है। ये विद्यालय वास्तव में अत्यन्त व्यवहावादी कहे जाने चाहिये । परन्तु ये इनेगिने ही होते हैं। ये सब वर्तमान परिस्थिति का विचार कर अपनाये गये मार्ग हैं। परन्तु धार्मिक दृष्टि से तो विद्यार्थियों द्वारा दी गई गुरुदक्षिणा, पूर्व छात्रों द्वारा विद्यालय की ली गई आर्थिक जिम्मेदारी तथा समाज द्वारा दिया गया दान ही विद्यालय का आय का स्रोत होना चाहिये । साथ ही विद्यालय द्वारा अपनाई गई सादगी, स्वावलम्बन और मितव्ययिता ही सही उपाय है। इन मुद्दों की विस्तारपूर्वक चर्चा इस ग्रन्थ में अन्यत्र की गई हैं इसलिये यहाँ केवल संकेत ही किया है ।
    
==== मूल विचार जानना ====
 
==== मूल विचार जानना ====
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६. केवल गुरुकुल ही नहीं, आश्रम भी चलते थे। आश्रमों में शिष्य भिक्षा माँगने जायेंगे ऐसी व्यवस्था थी। यह भी निर्वाह की एक पद्धति ही है। इस भिक्षातंत्र का नियोजन भी गुरु ही करते थे, किन्तु उसका निर्वाह समाज के आधार पर ही होता था। भिक्षा को विवशता मान लेना अथवा एक तिरस्करणीय कार्य मान लेना यह उसका गलत अर्थघटन होगा। विद्याकेंद्रों के निर्वाह के लिये समाज की सहभागिता होना यह एक मानवीय व्यवस्था मानी जानी चाहिये।  
 
६. केवल गुरुकुल ही नहीं, आश्रम भी चलते थे। आश्रमों में शिष्य भिक्षा माँगने जायेंगे ऐसी व्यवस्था थी। यह भी निर्वाह की एक पद्धति ही है। इस भिक्षातंत्र का नियोजन भी गुरु ही करते थे, किन्तु उसका निर्वाह समाज के आधार पर ही होता था। भिक्षा को विवशता मान लेना अथवा एक तिरस्करणीय कार्य मान लेना यह उसका गलत अर्थघटन होगा। विद्याकेंद्रों के निर्वाह के लिये समाज की सहभागिता होना यह एक मानवीय व्यवस्था मानी जानी चाहिये।  
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७. भारत के शिक्षा के इतिहास में तक्षशिला, नालंदा जैसे बड़े बड़े विद्यापीठों के नाम भी प्रसिद्ध हैं। ये विद्यापीठ विद्याभवन, ग्रंथभांडार, निवास, भोजन जैसी व्यवस्थाओं में समृद्ध थे। ये सभी व्यवस्थाएँ राज्य और समाज के द्वारा होती थी, किन्तु इसको 'अनुदान' नहीं कहा जाता था। अनुदान कहने के साथ ही शर्ते और अधीनता आ जाती है। विद्यीपीठों ने कभी राज्य या समाज की अधीनता का स्वीकार नहीं किया था। अर्थात् समाज अथवा राज्य के द्वारा विद्याकेन्द्रों का योगक्षेम चल रहा हो तो भी समग्र योजना का सूत्र संचालन अध्यापक के हाथ में ही हो यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की एक विशेषता रही है।
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७. भारत के शिक्षा के इतिहास में तक्षशिला, नालंदा जैसे बड़े बड़े विद्यापीठों के नाम भी प्रसिद्ध हैं। ये विद्यापीठ विद्याभवन, ग्रंथभांडार, निवास, भोजन जैसी व्यवस्थाओं में समृद्ध थे। ये सभी व्यवस्थाएँ राज्य और समाज के द्वारा होती थी, किन्तु इसको 'अनुदान' नहीं कहा जाता था। अनुदान कहने के साथ ही शर्ते और अधीनता आ जाती है। विद्यीपीठों ने कभी राज्य या समाज की अधीनता का स्वीकार नहीं किया था। अर्थात् समाज अथवा राज्य के द्वारा विद्याकेन्द्रों का योगक्षेम चल रहा हो तो भी समग्र योजना का सूत्र संचालन अध्यापक के हाथ में ही हो यह धार्मिक शिक्षा व्यवस्था की एक विशेषता रही है।
    
ये सभी मुद्दे पर्याप्त शोध और अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी बातें आज के युग में अकल्प्य, अवास्तविक और अव्यावहारिक लग सकती हैं। आज के युग में इस प्रकार की व्यवस्था चलाने का कोई विचार भी नहीं कर सकता। फिर भी हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि अभी अभी तक ये सभी व्यवस्थाएँ हमारे देश में मौजूद थीं। इसलिये अर्थनिरपेक्ष, फिर भी (या तो इसीलिये) टिकाऊ और गुणवत्ता से पूर्ण व्यवस्थाओं के विषय में विचार करने की आवश्यकता है।
 
ये सभी मुद्दे पर्याप्त शोध और अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी बातें आज के युग में अकल्प्य, अवास्तविक और अव्यावहारिक लग सकती हैं। आज के युग में इस प्रकार की व्यवस्था चलाने का कोई विचार भी नहीं कर सकता। फिर भी हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि अभी अभी तक ये सभी व्यवस्थाएँ हमारे देश में मौजूद थीं। इसलिये अर्थनिरपेक्ष, फिर भी (या तो इसीलिये) टिकाऊ और गुणवत्ता से पूर्ण व्यवस्थाओं के विषय में विचार करने की आवश्यकता है।
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निजी विद्यालयों की स्थिति तो इससे भी खराब है। निजी विद्यालय दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के विद्यालय सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों के द्वारा अथवा सेवाभावी व्यक्तियों के द्वारा चलाये जाते हैं । दूसरे प्रकार के विद्यालय पैसा कमाने की दृष्टि से चलाये जाते हैं। ये भी व्यक्तियों के द्वारा, संस्थाओं के द्वारा अथवा उद्योगगृहों के द्वारा चलाये जाते हैं। सेवाभावी संस्थाओं अथवा सांस्कृतिक संगठनों के द्वारा चलाये जाने वाले विद्यालयों में शिक्षकों के वेतन तो पहले से ही कम होते हैं। वेतन का मुद्दा तो अलग है, यहाँ भी शिक्षक अपने विषय में निर्णय करने हेतु स्वतन्त्र नहीं है। वह यदि कम वेतन में काम करता है तो भी वह उसकी स्वेच्छा नहीं है, विवशता है। स्वेच्छा और विवशता में कभी-कभी अन्तर करना असम्भव हो जाता है क्योंकि उसकी परीक्षा करने के अवसर न के बराबर होते हैं। ऐसे शिक्षक पढ़ाने के पैसे न लेने का निश्चय नहीं कर सकते हैं।
 
निजी विद्यालयों की स्थिति तो इससे भी खराब है। निजी विद्यालय दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के विद्यालय सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों के द्वारा अथवा सेवाभावी व्यक्तियों के द्वारा चलाये जाते हैं । दूसरे प्रकार के विद्यालय पैसा कमाने की दृष्टि से चलाये जाते हैं। ये भी व्यक्तियों के द्वारा, संस्थाओं के द्वारा अथवा उद्योगगृहों के द्वारा चलाये जाते हैं। सेवाभावी संस्थाओं अथवा सांस्कृतिक संगठनों के द्वारा चलाये जाने वाले विद्यालयों में शिक्षकों के वेतन तो पहले से ही कम होते हैं। वेतन का मुद्दा तो अलग है, यहाँ भी शिक्षक अपने विषय में निर्णय करने हेतु स्वतन्त्र नहीं है। वह यदि कम वेतन में काम करता है तो भी वह उसकी स्वेच्छा नहीं है, विवशता है। स्वेच्छा और विवशता में कभी-कभी अन्तर करना असम्भव हो जाता है क्योंकि उसकी परीक्षा करने के अवसर न के बराबर होते हैं। ऐसे शिक्षक पढ़ाने के पैसे न लेने का निश्चय नहीं कर सकते हैं।
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भारतीय समाज में जब शिक्षा अर्थ निरपेक्ष थी और शिक्षक और छात्र भिक्षा माँगकर अपनी ज़िम्मेदारी पर विद्यालय चलाते थे तब समाज भी अपनी ज़िम्मेदारी समझने वाला था। वह शिक्षकों तथा गुरुकुलों के योगक्षेम की चिन्ता बराबर करता था। आज शिक्षक समाज पर ऐसा भरोसा नहीं कर सकते । सर्व सामान्य रूप से समाज को शिक्षक के प्रति आदर नहीं है और शिक्षकों को समाज पर भरोसा नहीं है। ऐसे परस्पर अविश्वास और अश्रद्धा के वातावरण में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा सम्भव नहीं हो सकती।
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धार्मिक समाज में जब शिक्षा अर्थ निरपेक्ष थी और शिक्षक और छात्र भिक्षा माँगकर अपनी ज़िम्मेदारी पर विद्यालय चलाते थे तब समाज भी अपनी ज़िम्मेदारी समझने वाला था। वह शिक्षकों तथा गुरुकुलों के योगक्षेम की चिन्ता बराबर करता था। आज शिक्षक समाज पर ऐसा भरोसा नहीं कर सकते । सर्व सामान्य रूप से समाज को शिक्षक के प्रति आदर नहीं है और शिक्षकों को समाज पर भरोसा नहीं है। ऐसे परस्पर अविश्वास और अश्रद्धा के वातावरण में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा सम्भव नहीं हो सकती।
    
संचालकों के द्वारा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करना एक बात है और शिक्षकों द्वारा पढ़ाने के पैसे नहीं लेना सर्वथा भिन्न बात है। सही अर्थ में अर्थनिरपेक्ष शिक्षा तभी बन सकती है जब शिक्षक स्वतन्त्र हो । आज शिक्षक स्वतन्त्र नहीं है। वह चाहे तो भी स्वतन्त्र नहीं हो सकता है। यह मुद्दा शिक्षा की स्वायत्तता के मुद्दे के साथ सीधा जुड़ा हुआ है । स्वायत्तता के मुद्दे की चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने की आवश्यकता है। हम वह करेंगे भी। अभी तो इतना कहना सुसंगत है कि बिना स्वायत्तता के शिक्षा अर्थ निरपेक्ष हो नहीं सकती।
 
संचालकों के द्वारा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करना एक बात है और शिक्षकों द्वारा पढ़ाने के पैसे नहीं लेना सर्वथा भिन्न बात है। सही अर्थ में अर्थनिरपेक्ष शिक्षा तभी बन सकती है जब शिक्षक स्वतन्त्र हो । आज शिक्षक स्वतन्त्र नहीं है। वह चाहे तो भी स्वतन्त्र नहीं हो सकता है। यह मुद्दा शिक्षा की स्वायत्तता के मुद्दे के साथ सीधा जुड़ा हुआ है । स्वायत्तता के मुद्दे की चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने की आवश्यकता है। हम वह करेंगे भी। अभी तो इतना कहना सुसंगत है कि बिना स्वायत्तता के शिक्षा अर्थ निरपेक्ष हो नहीं सकती।
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==== शिक्षा का रमणीयवृक्ष ====
 
==== शिक्षा का रमणीयवृक्ष ====
* इस आधार पर भारत में समाजव्यवस्था बनी हुई थी और शिक्षाव्यवस्था उसीका एक अंग थी। हमारा इतिहास बताता है कि ऐसी व्यवस्था सहस्रों वर्षों तक चली। धर्मपालजी की पुस्तक 'रमणीय वृक्ष' में अठारहवीं शताब्दी की भारतीय शिक्षा का वर्णन मिलता है। उसके अनुसार उस समय भारत में पाँच लाख प्राथमिक विद्यालय थे और उसी अनुपात में उच्च शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु शिक्षकों को वेतन, छात्रों के लिये शुल्क और राज्य की ओर से अनुदान की कोई व्यवस्था नहीं थी। हाँ, मन्दिरों और धनी लोगों से दान अवश्य मिलता था। राज्य भी योगक्षेम की चिन्ता करता था। अर्थ व्यवस्था शिक्षक की स्वतन्त्रता और ज्ञान की गरिमा का मूल्य चुकाकर नहीं होती थी।  
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* इस आधार पर भारत में समाजव्यवस्था बनी हुई थी और शिक्षाव्यवस्था उसीका एक अंग थी। हमारा इतिहास बताता है कि ऐसी व्यवस्था सहस्रों वर्षों तक चली। धर्मपालजी की पुस्तक 'रमणीय वृक्ष' में अठारहवीं शताब्दी की धार्मिक शिक्षा का वर्णन मिलता है। उसके अनुसार उस समय भारत में पाँच लाख प्राथमिक विद्यालय थे और उसी अनुपात में उच्च शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु शिक्षकों को वेतन, छात्रों के लिये शुल्क और राज्य की ओर से अनुदान की कोई व्यवस्था नहीं थी। हाँ, मन्दिरों और धनी लोगों से दान अवश्य मिलता था। राज्य भी योगक्षेम की चिन्ता करता था। अर्थ व्यवस्था शिक्षक की स्वतन्त्रता और ज्ञान की गरिमा का मूल्य चुकाकर नहीं होती थी।  
 
* परन्तु अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा व्यवस्था में चंचुपात करना प्रारम्भ किया और स्थितियाँ शीघ्र ही बदलने लगीं। अंग्रेजों की जीवनदृष्टि जड़वादी थी। पूर्व में वर्णन किया है उस प्रकार आसुरी थी। भारत धर्मप्रधान जीवनदृष्टि वाला देश था परन्तु वे अर्थ प्रधान जीवनदृष्टि वाले थे। अतः उन्होंने ज्ञान को भी भौतिक पदार्थ प्राप्त करने का साधन मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार शुरू किया। उन्होंने शिक्षा के तन्त्र को राज्य के अधीन बनाया और शिक्षा को आर्थिक लेनदेन के व्यवहार में जोड़ दिया। शिक्षा के क्षेत्र में अर्थ विषयक समस्याओं और विपरीत स्थितियों के मूल में यह जीवनदृष्टि है।  
 
* परन्तु अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा व्यवस्था में चंचुपात करना प्रारम्भ किया और स्थितियाँ शीघ्र ही बदलने लगीं। अंग्रेजों की जीवनदृष्टि जड़वादी थी। पूर्व में वर्णन किया है उस प्रकार आसुरी थी। भारत धर्मप्रधान जीवनदृष्टि वाला देश था परन्तु वे अर्थ प्रधान जीवनदृष्टि वाले थे। अतः उन्होंने ज्ञान को भी भौतिक पदार्थ प्राप्त करने का साधन मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार शुरू किया। उन्होंने शिक्षा के तन्त्र को राज्य के अधीन बनाया और शिक्षा को आर्थिक लेनदेन के व्यवहार में जोड़ दिया। शिक्षा के क्षेत्र में अर्थ विषयक समस्याओं और विपरीत स्थितियों के मूल में यह जीवनदृष्टि है।  
* अंग्रेजों का भारत की शिक्षा के साथ खिलवाड़ सन १७७३ से शुरू हुआ। बढ़ते-बढ़ते सन १८५७ में वह पूर्णता को प्राप्त हुआ, जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा भारत में तीन विश्वविद्यालय प्रारम्भ हुए। इसके साथ ही भारत की शिक्षा का अंग्रेजीकरण पूर्ण हुआ। १९४७ में जब हम स्वाधीन हुए तब तक यही व्यवस्था चलती रही । लगभग पौने दो सौ वर्षों के इस कालखण्ड में भारतीय शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण रूप से अंग्रेजीकरण हो गया । हमारी लगभग दस पीढ़ियाँ इस व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करती रहीं । कोई आश्चर्य नहीं कि स्वाधीनता के बाद भी भारत में यही व्यवस्था बनी रही। शिक्षा तो क्या स्वाधीनता के साथ भारत की कोई भी व्यवस्था नहीं बदली । कारण स्पष्ट है, उचित अनुचित का विवेक करने वाली बुद्धि ही अंग्रेजीयत से ग्रस्त हो गई थी और कामप्रधान दृष्टि के प्रभाव में मन दुर्बल हो गया था । भारत की व्यवस्थाओं में परिवर्तन नहीं होना समझ में आने वाली बात है। आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि पौने दोसौ वर्षों की ज्ञान के क्षेत्र की दासता के बाद भी भारत में स्वत्व का सम्पूर्ण लोप नहीं हो गया । विश्व में इतनी बलवती जिजीविषा से युक्त देश और कोई नहीं है। इसलिये विवश और दुर्बल बन जाने के बाद भी अन्दर अन्दर हम भारतीय स्वभाव को जानते हैं और मानते भी हैं। इस कारण से तो हम अभी कर रहे हैं वैसी चर्चायें देश में स्थान-स्थान पर चलती हैं। अंग्रेजों द्वारा समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ढाये गये कहर को पहचानने और समझने का प्रयास चल रहा है और मार्ग ढूँढकर शिक्षा की गाड़ी पुनः भारतीयता की अपनी पटरी पर लाने का कार्य चल रहा है।  
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* अंग्रेजों का भारत की शिक्षा के साथ खिलवाड़ सन १७७३ से शुरू हुआ। बढ़ते-बढ़ते सन १८५७ में वह पूर्णता को प्राप्त हुआ, जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा भारत में तीन विश्वविद्यालय प्रारम्भ हुए। इसके साथ ही भारत की शिक्षा का अंग्रेजीकरण पूर्ण हुआ। १९४७ में जब हम स्वाधीन हुए तब तक यही व्यवस्था चलती रही । लगभग पौने दो सौ वर्षों के इस कालखण्ड में धार्मिक शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण रूप से अंग्रेजीकरण हो गया । हमारी लगभग दस पीढ़ियाँ इस व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करती रहीं । कोई आश्चर्य नहीं कि स्वाधीनता के बाद भी भारत में यही व्यवस्था बनी रही। शिक्षा तो क्या स्वाधीनता के साथ भारत की कोई भी व्यवस्था नहीं बदली । कारण स्पष्ट है, उचित अनुचित का विवेक करने वाली बुद्धि ही अंग्रेजीयत से ग्रस्त हो गई थी और कामप्रधान दृष्टि के प्रभाव में मन दुर्बल हो गया था । भारत की व्यवस्थाओं में परिवर्तन नहीं होना समझ में आने वाली बात है। आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि पौने दोसौ वर्षों की ज्ञान के क्षेत्र की दासता के बाद भी भारत में स्वत्व का सम्पूर्ण लोप नहीं हो गया । विश्व में इतनी बलवती जिजीविषा से युक्त देश और कोई नहीं है। इसलिये विवश और दुर्बल बन जाने के बाद भी अन्दर अन्दर हम धार्मिक स्वभाव को जानते हैं और मानते भी हैं। इस कारण से तो हम अभी कर रहे हैं वैसी चर्चायें देश में स्थान-स्थान पर चलती हैं। अंग्रेजों द्वारा समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ढाये गये कहर को पहचानने और समझने का प्रयास चल रहा है और मार्ग ढूँढकर शिक्षा की गाड़ी पुनः धार्मिकता की अपनी पटरी पर लाने का कार्य चल रहा है।  
 
* हमने यदि मूल को ठीक से जान लिया तो हमारे प्रयास की दिशा और स्वरूप ठीक रहेगा । इसी दृष्टि से कुछ बातों को फिर से कहा है। अब हमारा मुख्य काम है, शिक्षा को अर्थ निरपेक्ष बनाने के साथ-साथ उसकी अर्थ व्यवस्था का सम्यक् स्वरूप निर्धारित करना।  
 
* हमने यदि मूल को ठीक से जान लिया तो हमारे प्रयास की दिशा और स्वरूप ठीक रहेगा । इसी दृष्टि से कुछ बातों को फिर से कहा है। अब हमारा मुख्य काम है, शिक्षा को अर्थ निरपेक्ष बनाने के साथ-साथ उसकी अर्थ व्यवस्था का सम्यक् स्वरूप निर्धारित करना।  
 
* सर्व प्रथम काम, हमें शिक्षकों के साथ करना होगा। शिक्षा का क्षेत्र शिक्षकों का है । वह उनकी ज़िम्मेदारी से चलना चाहिये। उनमें दायित्वबोध जगाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करना चाहिये । इसका दूसरा पक्ष है, शिक्षकों के विषय में गौरव और आदर निर्माण करना । प्रथम शिक्षकों के हृदय में शिक्षा के कार्य के प्रति, शिक्षा के व्यवसाय के प्रति आदर होना आवश्यक है। हम एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ कार्य कर रहे हैं, ऐसा भाव भी जागृत होना चाहिये । समाज के मन में भी शिक्षा के प्रति और शिक्षकों के प्रति आदर की भावना निर्माण करना आवश्यक है।
 
* सर्व प्रथम काम, हमें शिक्षकों के साथ करना होगा। शिक्षा का क्षेत्र शिक्षकों का है । वह उनकी ज़िम्मेदारी से चलना चाहिये। उनमें दायित्वबोध जगाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करना चाहिये । इसका दूसरा पक्ष है, शिक्षकों के विषय में गौरव और आदर निर्माण करना । प्रथम शिक्षकों के हृदय में शिक्षा के कार्य के प्रति, शिक्षा के व्यवसाय के प्रति आदर होना आवश्यक है। हम एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ कार्य कर रहे हैं, ऐसा भाव भी जागृत होना चाहिये । समाज के मन में भी शिक्षा के प्रति और शिक्षकों के प्रति आदर की भावना निर्माण करना आवश्यक है।
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इस सन्दर्भ में अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय का उदाहरण ध्यान देने योग्य है। हार्वर्ड विश्वप्रसिद्ध श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है। वह शासन से कोई अनुदान नहीं लेता है। उसकी सारी अर्थव्यवस्था उसके पूर्व छात्र ही सँभालते हैं। ये छात्र विश्वभर में फैले हुए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में उन्होंने नाम और दाम कमाये हैं। परन्तु अपने विश्वविद्यालय हेतु धनदान करना अपना धर्म मानते हैं। यदि आज के जमाने में अमेरिका जैसे देश में यह सम्भव है तो भारत तो स्वभाव से ही जिससे ज्ञान मिला उसका ऋण मानने वाला है। गुरुदक्षिणा की संकल्पना उसे सहज स्वीकार्य होगी। गुरुदक्षिणा की परम्परा को पुनः जीवित करना होगा।  
 
इस सन्दर्भ में अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय का उदाहरण ध्यान देने योग्य है। हार्वर्ड विश्वप्रसिद्ध श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है। वह शासन से कोई अनुदान नहीं लेता है। उसकी सारी अर्थव्यवस्था उसके पूर्व छात्र ही सँभालते हैं। ये छात्र विश्वभर में फैले हुए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में उन्होंने नाम और दाम कमाये हैं। परन्तु अपने विश्वविद्यालय हेतु धनदान करना अपना धर्म मानते हैं। यदि आज के जमाने में अमेरिका जैसे देश में यह सम्भव है तो भारत तो स्वभाव से ही जिससे ज्ञान मिला उसका ऋण मानने वाला है। गुरुदक्षिणा की संकल्पना उसे सहज स्वीकार्य होगी। गुरुदक्षिणा की परम्परा को पुनः जीवित करना होगा।  
 
* साधन-सामग्री के सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है । वर्तमान सन्दर्भ में साधन-सामग्री और सुविधाओं की मात्रा बहुत कम करने की आवश्यकता है। वास्तव में इनके कारण से ही आज शिक्षा महँगी हो गई है । ज्ञानार्जन का सिद्धान्त तो स्पष्ट कहता है कि अध्ययन हेतु साधनों की नहीं साधना की आवश्यकता होती है। यदि छात्रों को साधना करना सिखाया जाय तो अनेक अतिरिक्त खर्चे बन्द हो जायेंगे। ज्ञानार्जन के विषय में हमने इस ग्रन्थमाला के प्रथम खण्ड में विस्तार से चर्चा की है, इसलिये पुनरावर्तन की आवश्यकता नहीं है।  
 
* साधन-सामग्री के सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है । वर्तमान सन्दर्भ में साधन-सामग्री और सुविधाओं की मात्रा बहुत कम करने की आवश्यकता है। वास्तव में इनके कारण से ही आज शिक्षा महँगी हो गई है । ज्ञानार्जन का सिद्धान्त तो स्पष्ट कहता है कि अध्ययन हेतु साधनों की नहीं साधना की आवश्यकता होती है। यदि छात्रों को साधना करना सिखाया जाय तो अनेक अतिरिक्त खर्चे बन्द हो जायेंगे। ज्ञानार्जन के विषय में हमने इस ग्रन्थमाला के प्रथम खण्ड में विस्तार से चर्चा की है, इसलिये पुनरावर्तन की आवश्यकता नहीं है।  
* इस सन्दर्भ में एक उदाहरण और है। गुजरात के सूरत में समग्र विकास का विद्यालय चलता है। वहाँ समर्थ भारत केन्द्र भी चलता है। इस केन्द्र में समर्थ बच्चों को जन्म देने हेतु माता-पिता को समर्थ बनने की शिक्षा दी जाती है। यह एक अभिनव प्रयोग है। इस केन्द्र में भारतीय परम्परा का अनुसरण करते हुए कोई शुल्क नहीं लिया जाता । परन्तु गर्भाधान आदि संस्कार करने हेतु यज्ञ आदि करने के लिये जो सामग्री उपयोग में लाई जाती है उस खर्च की भरपाई करने की दृष्टि से इक्यावन रुपये की राशि ली जाती थी। माता-पिता यह राशि खुशी से देते भी थे। परन्तु एक बार आचार्यों के मन में विचार आया कि इतनी सी राशि लेकर निःशुल्क शिक्षा की संकल्पना को क्यों दूषित करें। यह राशि भी समाज से प्राप्त कर लेंगे । ऐसा विचार कर उन्होंने इक्यावन रुपये की राशि लेना बन्द किया। दूसरी ओर जिन पर संस्कार होता था उन माता-पिता को लगा कि हमारे भावी बालक को समर्थ बनाने वाले संस्कार हम बिना दक्षिणा दिये कैसे करवा सकते हैं। कोई भी वस्तु मुफ्त में नहीं लेना, यह भारतीय मानस तो है ही। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका विस्मरण हुआ है। परन्तु निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था देखते ही वे सुप्त संस्कार जाग उठे और उन्होंने दक्षिणा देने का आग्रह शुरू किया। अतः आचार्यों ने दक्षिणा पात्र रख दिया। जो लोग शुल्क के रूप में इक्यावन रुपये देते थे उन्होंने दक्षिणा के रूप में दोसौ इक्यावन रुपये दिये । यह कलियुग की इक्कीसवीं शताब्दी का ही उदाहरण है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि समाज आज भी गुणग्राही है ! हाँ, इक्यावन के स्थान पर दोसौ इक्यावन मिलते हैं इसलिये ही जो निःशुल्क शिक्षा की सिद्धता करेगा उसे तो कदाचित इक्यावन भी नहीं मिलेंगे। मूल्य पैसे का नहीं, निरपेक्षता का है।  
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* इस सन्दर्भ में एक उदाहरण और है। गुजरात के सूरत में समग्र विकास का विद्यालय चलता है। वहाँ समर्थ भारत केन्द्र भी चलता है। इस केन्द्र में समर्थ बच्चों को जन्म देने हेतु माता-पिता को समर्थ बनने की शिक्षा दी जाती है। यह एक अभिनव प्रयोग है। इस केन्द्र में धार्मिक परम्परा का अनुसरण करते हुए कोई शुल्क नहीं लिया जाता । परन्तु गर्भाधान आदि संस्कार करने हेतु यज्ञ आदि करने के लिये जो सामग्री उपयोग में लाई जाती है उस खर्च की भरपाई करने की दृष्टि से इक्यावन रुपये की राशि ली जाती थी। माता-पिता यह राशि खुशी से देते भी थे। परन्तु एक बार आचार्यों के मन में विचार आया कि इतनी सी राशि लेकर निःशुल्क शिक्षा की संकल्पना को क्यों दूषित करें। यह राशि भी समाज से प्राप्त कर लेंगे । ऐसा विचार कर उन्होंने इक्यावन रुपये की राशि लेना बन्द किया। दूसरी ओर जिन पर संस्कार होता था उन माता-पिता को लगा कि हमारे भावी बालक को समर्थ बनाने वाले संस्कार हम बिना दक्षिणा दिये कैसे करवा सकते हैं। कोई भी वस्तु मुफ्त में नहीं लेना, यह धार्मिक मानस तो है ही। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका विस्मरण हुआ है। परन्तु निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था देखते ही वे सुप्त संस्कार जाग उठे और उन्होंने दक्षिणा देने का आग्रह शुरू किया। अतः आचार्यों ने दक्षिणा पात्र रख दिया। जो लोग शुल्क के रूप में इक्यावन रुपये देते थे उन्होंने दक्षिणा के रूप में दोसौ इक्यावन रुपये दिये । यह कलियुग की इक्कीसवीं शताब्दी का ही उदाहरण है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि समाज आज भी गुणग्राही है ! हाँ, इक्यावन के स्थान पर दोसौ इक्यावन मिलते हैं इसलिये ही जो निःशुल्क शिक्षा की सिद्धता करेगा उसे तो कदाचित इक्यावन भी नहीं मिलेंगे। मूल्य पैसे का नहीं, निरपेक्षता का है।  
 
* अत: निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग साहस पूर्वक करना चाहिये।  
 
* अत: निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग साहस पूर्वक करना चाहिये।  
 
* किसी भी बड़े कार्य का प्रारम्भ छोटा ही होता है। अतः शिक्षकों के एक छोटे गट ने इस प्रकार की व्यवस्था का प्रयोग प्रारम्भ करना चाहिये । परन्तु इस संकल्पना की विद्वानों में, छात्रों में, शासकीय अधिकारियों में और आम समाज में चर्चा प्रसृत करने की अतीव आवश्यकता है। यदि सर्वसम्मति नहीं हुई तो यह प्रयोग तो चल जायेगा। ऐसे तो अनेक एकसे बढ़कर एक अच्छे प्रयोग देशभर में चलते ही है। परन्तु व्यवस्था नहीं बदलेगी। हमारा लक्ष्य प्रयोग करके सन्तुष्ट होना नहीं है, व्यवस्था में परिवर्तन करने का है।  
 
* किसी भी बड़े कार्य का प्रारम्भ छोटा ही होता है। अतः शिक्षकों के एक छोटे गट ने इस प्रकार की व्यवस्था का प्रयोग प्रारम्भ करना चाहिये । परन्तु इस संकल्पना की विद्वानों में, छात्रों में, शासकीय अधिकारियों में और आम समाज में चर्चा प्रसृत करने की अतीव आवश्यकता है। यदि सर्वसम्मति नहीं हुई तो यह प्रयोग तो चल जायेगा। ऐसे तो अनेक एकसे बढ़कर एक अच्छे प्रयोग देशभर में चलते ही है। परन्तु व्यवस्था नहीं बदलेगी। हमारा लक्ष्य प्रयोग करके सन्तुष्ट होना नहीं है, व्यवस्था में परिवर्तन करने का है।  
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सामान्य अर्थ में हम यही मानते हैं कि भिक्षा माँगना याने भीख माँगना । भीख माँगने की क्रिया को हम तिरस्कारयुक्त दृष्टि से देखते हैं। बिना कोई उद्यम किये, बिना अधिकार के मुफ्त में कुछ प्राप्त करने की वृत्ति को हम भिक्षा माँगना कहते हैं। भिखारी को समाज में प्रतिष्ठायुक्त स्थान प्राप्त नहीं होता है।
 
सामान्य अर्थ में हम यही मानते हैं कि भिक्षा माँगना याने भीख माँगना । भीख माँगने की क्रिया को हम तिरस्कारयुक्त दृष्टि से देखते हैं। बिना कोई उद्यम किये, बिना अधिकार के मुफ्त में कुछ प्राप्त करने की वृत्ति को हम भिक्षा माँगना कहते हैं। भिखारी को समाज में प्रतिष्ठायुक्त स्थान प्राप्त नहीं होता है।
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परन्तु हमारे सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास में 'भिक्षा' शब्द को अथवा भिक्षा माँगने की क्रिया को हेय दृष्टि से नहीं देखा गया है। उदाहरण के लिये संन्यासी भिक्षा माँगकर ही अपना निर्वाह करता है । यह सर्वमान्य प्रथा है, और संन्यासी छोटे बड़े सभी के लिये आदरणीय है। साधु भिक्षा माँगता है परंतु साधु को भिक्षा के साथ साथ आदर भी मिलता है। तात्पर्य यह है कि 'भिक्षा' कोई क्षुद्र शब्द या क्षुद्र क्रिया नहीं है । इस एक बात को ध्यान में रखकर अब भारतीय शिक्षा व्यवस्था के साथ भिक्षा किस प्रकार से जुड़ी हुई है यह समझने का प्रयास करेंगे।  
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परन्तु हमारे सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास में 'भिक्षा' शब्द को अथवा भिक्षा माँगने की क्रिया को हेय दृष्टि से नहीं देखा गया है। उदाहरण के लिये संन्यासी भिक्षा माँगकर ही अपना निर्वाह करता है । यह सर्वमान्य प्रथा है, और संन्यासी छोटे बड़े सभी के लिये आदरणीय है। साधु भिक्षा माँगता है परंतु साधु को भिक्षा के साथ साथ आदर भी मिलता है। तात्पर्य यह है कि 'भिक्षा' कोई क्षुद्र शब्द या क्षुद्र क्रिया नहीं है । इस एक बात को ध्यान में रखकर अब धार्मिक शिक्षा व्यवस्था के साथ भिक्षा किस प्रकार से जुड़ी हुई है यह समझने का प्रयास करेंगे।  
 
# हम गुरुकुलों एवं आश्रमों के विषय में पढ़ते हैं कि वहाँ विद्याध्ययन करने वाले छात्र भिक्षा माँगने हेतु जाते थे। भिक्षा लाकर गुरु को अर्पित करते थे । लाई हुई भिक्षा में से गुरु जो देते थे वही लेते थे और सन्तुष्ट रहते थे।  
 
# हम गुरुकुलों एवं आश्रमों के विषय में पढ़ते हैं कि वहाँ विद्याध्ययन करने वाले छात्र भिक्षा माँगने हेतु जाते थे। भिक्षा लाकर गुरु को अर्पित करते थे । लाई हुई भिक्षा में से गुरु जो देते थे वही लेते थे और सन्तुष्ट रहते थे।  
 
# सामान्य रूप से अन्न ही भिक्षा में लिया जाता होगा ऐसी हमारी धारणा बनती है परन्तु यह भी मान सकते हैं कि वस्त्र, और यज्ञ करना है तो यज्ञ की सामग्री की भी भिक्षा हो सकती है।  
 
# सामान्य रूप से अन्न ही भिक्षा में लिया जाता होगा ऐसी हमारी धारणा बनती है परन्तु यह भी मान सकते हैं कि वस्त्र, और यज्ञ करना है तो यज्ञ की सामग्री की भी भिक्षा हो सकती है।  
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यह एक ऐसी व्यवस्था का हिस्सा है जहाँ अपना काम अपनी ज़िम्मेदारी पर किया जाना स्वाभाविक माना जाता है । अध्ययन और अध्यापन से भले ही समाज की भलाई होती हो तो भी वह आचार्यों और छात्रों का अपना काम है। वे समाज पर उपकार करने की भावना से नहीं अपितु अपना कर्तव्य समझकर और सेवा के भाव से ही अध्ययन और अध्यापन करते हैं। इसलिये वह अपनी ही ज़िम्मेदारी से करना है, अनुदान या अन्यों से अपेक्षा करना उचित नहीं है।  
 
यह एक ऐसी व्यवस्था का हिस्सा है जहाँ अपना काम अपनी ज़िम्मेदारी पर किया जाना स्वाभाविक माना जाता है । अध्ययन और अध्यापन से भले ही समाज की भलाई होती हो तो भी वह आचार्यों और छात्रों का अपना काम है। वे समाज पर उपकार करने की भावना से नहीं अपितु अपना कर्तव्य समझकर और सेवा के भाव से ही अध्ययन और अध्यापन करते हैं। इसलिये वह अपनी ही ज़िम्मेदारी से करना है, अनुदान या अन्यों से अपेक्षा करना उचित नहीं है।  
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समाज आधारित शिक्षा का यह उत्तम उदाहरण है। भारतीय व्यवस्था में समाज के लिये उपयोगी कार्य हमेशा समाज की व्यवस्था से ही होते हैं, राज्य की व्यवस्था से नहीं। इसलिये राज्य का हिस्सा इसमें अपेक्षित नहीं है।  
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समाज आधारित शिक्षा का यह उत्तम उदाहरण है। धार्मिक व्यवस्था में समाज के लिये उपयोगी कार्य हमेशा समाज की व्यवस्था से ही होते हैं, राज्य की व्यवस्था से नहीं। इसलिये राज्य का हिस्सा इसमें अपेक्षित नहीं है।  
    
जिस शिक्षा से समाज धर्माचरणी बनता है उस शिक्षा के और उन शिक्षकों और आचार्यों के प्रति समाज हमेशा कृतज्ञ रहता है और उनके योगक्षेम की चिन्ता स्वतः ही करता है । इसलिये विद्याकेन्द्र, शिक्षक और छात्र सम्पन्न समाज में कभी भी बेचारे और दरिद्र नहीं रहते । भारत में शिक्षक हमेशा निर्धन और बेचारे होते थे, ऐसा जब कहा जाता है तब वह अज्ञान, अल्पज्ञान और विपरीत ज्ञान के कारण ही कहा जाता है।  
 
जिस शिक्षा से समाज धर्माचरणी बनता है उस शिक्षा के और उन शिक्षकों और आचार्यों के प्रति समाज हमेशा कृतज्ञ रहता है और उनके योगक्षेम की चिन्ता स्वतः ही करता है । इसलिये विद्याकेन्द्र, शिक्षक और छात्र सम्पन्न समाज में कभी भी बेचारे और दरिद्र नहीं रहते । भारत में शिक्षक हमेशा निर्धन और बेचारे होते थे, ऐसा जब कहा जाता है तब वह अज्ञान, अल्पज्ञान और विपरीत ज्ञान के कारण ही कहा जाता है।  
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==== '''परिवर्तन के बिन्दु''' ====
 
==== '''परिवर्तन के बिन्दु''' ====
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थक्षेत्र को भारतीय जीवनव्यवस्था के साथ अनुकूल बनाने हेतु जो परिवर्तन करने पडेंगे इस के मुख्य बिन्दु इस प्रकार होंगे...
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महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थक्षेत्र को धार्मिक जीवनव्यवस्था के साथ अनुकूल बनाने हेतु जो परिवर्तन करने पडेंगे इस के मुख्य बिन्दु इस प्रकार होंगे...
 
# मनुष्य की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये । सर्व प्रकार की स्वतन्त्रता मनुष्य का ही नहीं तो सृष्टि के सभी पदार्थों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सृष्टि के अनेक पदार्थ मनुष्य के लिये अनिवार्य हैं । उदाहरण के लिये भूमि, भूमि पर उगने वाले वृक्ष, पंचमहाभूत आदि मनुष्य के जीवन के लिये अनिवार्य हैं । इनका उपयोग तो करना ही पडेगा परन्तु उपयोग करते समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना और उनका आवश्यकता से अधिक उपयोग नहीं करना मनुष्य के लिये बाध्यता है । किसी भी पदार्थ का, प्राणी का या मनुष्य का संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करना परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करना आवश्यक है। इस नियम को लागू कर मनुष्य की अर्थव्यवस्था बननी चाहिये। इस दष्टि से हर व्यक्ति को अपने अर्थार्जन हेतु स्वतन्त्र व्यवसाय मिलना चाहिये।  
 
# मनुष्य की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये । सर्व प्रकार की स्वतन्त्रता मनुष्य का ही नहीं तो सृष्टि के सभी पदार्थों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सृष्टि के अनेक पदार्थ मनुष्य के लिये अनिवार्य हैं । उदाहरण के लिये भूमि, भूमि पर उगने वाले वृक्ष, पंचमहाभूत आदि मनुष्य के जीवन के लिये अनिवार्य हैं । इनका उपयोग तो करना ही पडेगा परन्तु उपयोग करते समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना और उनका आवश्यकता से अधिक उपयोग नहीं करना मनुष्य के लिये बाध्यता है । किसी भी पदार्थ का, प्राणी का या मनुष्य का संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करना परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करना आवश्यक है। इस नियम को लागू कर मनुष्य की अर्थव्यवस्था बननी चाहिये। इस दष्टि से हर व्यक्ति को अपने अर्थार्जन हेतु स्वतन्त्र व्यवसाय मिलना चाहिये।  
 
# हर मनुष्य को चाहिये कि अपना स्वामित्व युक्त व्यवसाय समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु होना चाहिये, आवश्यकता नहीं है ऐसी वस्तुयें विज्ञापन के माध्यम से लोगों को खरीदने हेतु बाध्य करने हेतु नहीं।  
 
# हर मनुष्य को चाहिये कि अपना स्वामित्व युक्त व्यवसाय समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु होना चाहिये, आवश्यकता नहीं है ऐसी वस्तुयें विज्ञापन के माध्यम से लोगों को खरीदने हेतु बाध्य करने हेतु नहीं।  
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ज्ञान, अन्न, पानी, हवा, न्याय, चिकित्सा आदि आर्थिक लेनदेन से परे हैं । ये वाणिज्य के विषय नहीं हैं। नौकरी अर्थव्यवस्था का आधार नहीं हो सकती। नौकरी को सेवा भी नहीं कहा जा सकता । सेवा बहुत ऊँची चीज है, उसका अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं।
 
ज्ञान, अन्न, पानी, हवा, न्याय, चिकित्सा आदि आर्थिक लेनदेन से परे हैं । ये वाणिज्य के विषय नहीं हैं। नौकरी अर्थव्यवस्था का आधार नहीं हो सकती। नौकरी को सेवा भी नहीं कहा जा सकता । सेवा बहुत ऊँची चीज है, उसका अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं।
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ये तो सारे तत्त्व हैं। इन्हें यदि भारतीय व्यवस्था के मूल तत्त्व माने तो यह ध्यान में आयेगा कि आज हम विपरीत दिशा में बहुत दूर निकल गये हैं। हमारे गृहीत ही सर्वथा बदल गये हैं।
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ये तो सारे तत्त्व हैं। इन्हें यदि धार्मिक व्यवस्था के मूल तत्त्व माने तो यह ध्यान में आयेगा कि आज हम विपरीत दिशा में बहुत दूर निकल गये हैं। हमारे गृहीत ही सर्वथा बदल गये हैं।
    
इन गृहीतों को बदलने के कारण जिन्हें घाटा हुआ है वे तो इन्हें बदलने के लिये तैयार हो जायेंगे परन्तु जिन्हें लाभ ही हआ है वे कैसे तैयार होंगे?
 
इन गृहीतों को बदलने के कारण जिन्हें घाटा हुआ है वे तो इन्हें बदलने के लिये तैयार हो जायेंगे परन्तु जिन्हें लाभ ही हआ है वे कैसे तैयार होंगे?
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अर्थ अनिष्टकारी है यह बात ठीक है लेकिन अर्थ की आवश्यकता कम करने के लिये कौन तैयार होगा ?  
 
अर्थ अनिष्टकारी है यह बात ठीक है लेकिन अर्थ की आवश्यकता कम करने के लिये कौन तैयार होगा ?  
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==== अर्थक्षेत्र को भारतीय बनाना ====
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==== अर्थक्षेत्र को धार्मिक बनाना ====
इसलिये शिक्षा में परिवर्तन करना और उसे भारतीय बनाना तो सहमत होने की बात है परन्तु अर्थक्षेत्र को भारतीय बनाने की बात जल्दी समझ में नहीं आती।
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इसलिये शिक्षा में परिवर्तन करना और उसे धार्मिक बनाना तो सहमत होने की बात है परन्तु अर्थक्षेत्र को धार्मिक बनाने की बात जल्दी समझ में नहीं आती।
    
इस दृष्टि से तीन क्षेत्रों के साथ संवाद करना होगा।  
 
इस दृष्टि से तीन क्षेत्रों के साथ संवाद करना होगा।  
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आज उत्पादन और बाजार क्षेत्र में वैश्विक प्रवाहों का असर भी बहुत बड़ा है। अमेरिका, विश्व व्यापार संगठन, विश्वबैंक आदि अनेक संस्थाओं का प्रभाव भारत के अर्थक्षेत्र पर है। इससे मुक्त होने के रास्ते भी ढूँढने होंगे।
 
आज उत्पादन और बाजार क्षेत्र में वैश्विक प्रवाहों का असर भी बहुत बड़ा है। अमेरिका, विश्व व्यापार संगठन, विश्वबैंक आदि अनेक संस्थाओं का प्रभाव भारत के अर्थक्षेत्र पर है। इससे मुक्त होने के रास्ते भी ढूँढने होंगे।
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शिक्षाक्षेत्र एक दीर्घकालीन योजना बनाये यह आवश्यक है। आज जो विद्यार्थी छोटी आयु के हैं उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था के मूलसूत्रों के आधार पर शिक्षा देने की योजना करनी चाहिये । वे जब गृहस्थ बनें और अपना अर्थार्जन शुरू करें तब अध्ययन के दौरान प्राप्त शिक्षा के अनुसार करें ऐसी इस योजना की परिणति होनी चाहिये ।  
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शिक्षाक्षेत्र एक दीर्घकालीन योजना बनाये यह आवश्यक है। आज जो विद्यार्थी छोटी आयु के हैं उन्हें धार्मिक अर्थव्यवस्था के मूलसूत्रों के आधार पर शिक्षा देने की योजना करनी चाहिये । वे जब गृहस्थ बनें और अपना अर्थार्जन शुरू करें तब अध्ययन के दौरान प्राप्त शिक्षा के अनुसार करें ऐसी इस योजना की परिणति होनी चाहिये ।  
    
==== शिक्षा क्षेत्र को अर्थनिरपेक्ष बनाना ====
 
==== शिक्षा क्षेत्र को अर्थनिरपेक्ष बनाना ====
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यह सारा काम आज के आज नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट है । यह लोकमानस को परिवर्तित करने की बात है। वह धीरे धीरे ही होता है। अतः हमें दो पीढियों तक निरन्तर रूप से इसे करने की आवश्यकता रहेगी।
 
यह सारा काम आज के आज नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट है । यह लोकमानस को परिवर्तित करने की बात है। वह धीरे धीरे ही होता है। अतः हमें दो पीढियों तक निरन्तर रूप से इसे करने की आवश्यकता रहेगी।
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भारतीय शिक्षा की पुनर्रचना करने में अर्थक्षेत्र की पुनर्रचना भी करनी पडेगी। इसके लिये प्रथम पर्यायी अर्थतन्त्र की संकल्पना, बाद में उसकी रचना और उसके साथ ही अर्थतन्त्र के वर्तमान मांधाताओं के साथ संवाद करने की आवश्यकता रहेगी।
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धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना करने में अर्थक्षेत्र की पुनर्रचना भी करनी पडेगी। इसके लिये प्रथम पर्यायी अर्थतन्त्र की संकल्पना, बाद में उसकी रचना और उसके साथ ही अर्थतन्त्र के वर्तमान मांधाताओं के साथ संवाद करने की आवश्यकता रहेगी।
    
=== सर्कार की भूमिका ===
 
=== सर्कार की भूमिका ===
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# शिक्षा को स्वायत्त बनाने हेतु प्रथम एक वैचारिक रूपरेखा शिक्षाशास्त्रियों की सहायता से शैक्षिक संगठनों को करनी चाहिये।  
 
# शिक्षा को स्वायत्त बनाने हेतु प्रथम एक वैचारिक रूपरेखा शिक्षाशास्त्रियों की सहायता से शैक्षिक संगठनों को करनी चाहिये।  
 
# स्वायत्तता के विषय में सरकार के साथ संवाद बनाना चाहिये । सरकार की भी शिक्षा को स्वायत्त बनाने की मानसिकता बननी चाहिये ।  रूपरेखा बनाने में सरकार की भी भूमिका सहभागिता की बननी चाहिये।  
 
# स्वायत्तता के विषय में सरकार के साथ संवाद बनाना चाहिये । सरकार की भी शिक्षा को स्वायत्त बनाने की मानसिकता बननी चाहिये ।  रूपरेखा बनाने में सरकार की भी भूमिका सहभागिता की बननी चाहिये।  
# सरकार से तात्पर्य है शासन और प्रशासन दोनों के प्रतिनिधि। शासन अपने पक्ष की विचारधारा के अनुसार चलता है, प्रशासन भारतीय संविधान की धारा नियमों और कानूनों के अनुसार।  
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# सरकार से तात्पर्य है शासन और प्रशासन दोनों के प्रतिनिधि। शासन अपने पक्ष की विचारधारा के अनुसार चलता है, प्रशासन धार्मिक संविधान की धारा नियमों और कानूनों के अनुसार।  
 
# शैक्षिक संगठनों को विद्वज्जन, कार्यकर्ता, अध्यापक आदि का मिलकर एक गट बनाना चाहिये । देशभर के अन्यान्य लोगों और वर्गों के साथ मिलकर इस विषय पर जागृति निर्माण कर, उन्हें विचार करने हेतु प्रेरित कर प्रारूप बनाने का प्रयास करना चाहिये ।  
 
# शैक्षिक संगठनों को विद्वज्जन, कार्यकर्ता, अध्यापक आदि का मिलकर एक गट बनाना चाहिये । देशभर के अन्यान्य लोगों और वर्गों के साथ मिलकर इस विषय पर जागृति निर्माण कर, उन्हें विचार करने हेतु प्रेरित कर प्रारूप बनाने का प्रयास करना चाहिये ।  
 
# स्वायत्तता का प्रारूप भी सरकार के साथ संवाद बनाये रखते हुए होना चाहिये।  
 
# स्वायत्तता का प्रारूप भी सरकार के साथ संवाद बनाये रखते हुए होना चाहिये।  
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सबसे कठिन प्रश्न है । इसे सुलझाने में अनेक अन्य छोटे मोटे प्रश्न भी सुलझाने की आवश्यकता होगी । परन्तु इसके सुलझने के बाद अनेक बडे बडे प्रश्न भी सुलझ जायेंगे।  
 
सबसे कठिन प्रश्न है । इसे सुलझाने में अनेक अन्य छोटे मोटे प्रश्न भी सुलझाने की आवश्यकता होगी । परन्तु इसके सुलझने के बाद अनेक बडे बडे प्रश्न भी सुलझ जायेंगे।  
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एक अत्यन्त प्रभावी परन्तु अत्यन्त साहसी निर्णय यदि सरकार करती है तो यह प्रश्न कदाचित जल्दी हल होगा । एक अच्छा दिन देखकर लाल किले से घोषणा करना कि कल से देश की समस्त शिक्षा संस्थायें बन्द हो जायेंगी। इसके बाद धीरे धीरे जो शैक्षिक वातावरण बनता जायेगा वह न केवल स्वायत्त होगा अपितु भारतीय भी होगा।
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एक अत्यन्त प्रभावी परन्तु अत्यन्त साहसी निर्णय यदि सरकार करती है तो यह प्रश्न कदाचित जल्दी हल होगा । एक अच्छा दिन देखकर लाल किले से घोषणा करना कि कल से देश की समस्त शिक्षा संस्थायें बन्द हो जायेंगी। इसके बाद धीरे धीरे जो शैक्षिक वातावरण बनता जायेगा वह न केवल स्वायत्त होगा अपितु धार्मिक भी होगा।
    
=== अर्थ शिक्षाक्षेत्र को भी ग्रसित करता है ===
 
=== अर्थ शिक्षाक्षेत्र को भी ग्रसित करता है ===
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यह बडा सांस्कृतिक संकट है। इसलिये सर्वप्रथम शिक्षा के अर्थक्षेत्र को ही व्यवस्थित करना होगा।
 
यह बडा सांस्कृतिक संकट है। इसलिये सर्वप्रथम शिक्षा के अर्थक्षेत्र को ही व्यवस्थित करना होगा।
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शिक्षा को भारतीय बनाने हेतु स्थापित विश्वविद्यालयों ने समाज के अर्थक्षेत्र के नियमन और निर्देशन का प्रथम विचार करना चाहिये । इस दृष्टि से कुछ सूत्र इस प्रकार होंगे...  
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शिक्षा को धार्मिक बनाने हेतु स्थापित विश्वविद्यालयों ने समाज के अर्थक्षेत्र के नियमन और निर्देशन का प्रथम विचार करना चाहिये । इस दृष्टि से कुछ सूत्र इस प्रकार होंगे...  
 
# समाज के प्रत्येक सक्षम व्यक्तिको अर्थार्जन करना ही चाहिये और उसे अर्थार्जन का अवसर भी मिलना चाहिये।  
 
# समाज के प्रत्येक सक्षम व्यक्तिको अर्थार्जन करना ही चाहिये और उसे अर्थार्जन का अवसर भी मिलना चाहिये।  
 
# पढ़ने वाले विद्यार्थी, पढानेवाले शिक्षक, वानप्रस्थी, संन्यासी, रोगी, धर्माचार्य, अपंग आदि लोगों को अर्थार्जन करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिये । उनके पोषण का दायित्व सरकार का नहीं अपितु परिवारजनों का होना चाहिये।  
 
# पढ़ने वाले विद्यार्थी, पढानेवाले शिक्षक, वानप्रस्थी, संन्यासी, रोगी, धर्माचार्य, अपंग आदि लोगों को अर्थार्जन करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिये । उनके पोषण का दायित्व सरकार का नहीं अपितु परिवारजनों का होना चाहिये।  
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==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 
[[Category:Education Series]]
 
[[Category:Education Series]]
[[Category:भारतीय शिक्षा : भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]]

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