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आज विद्यालय तो ज्ञान के मॉल बन गये है। गणवेश, बस्ता, पुस्तकें, अन्य सारा साहित्य खरिदना विद्यालयों में अनिवार्य बना दिया है। कहीं कहीं तो विद्यालय ने बच्चोंं की सुविधा के रूप दिन में बच्चोंं के लिए केन्टीन खोला है। और विद्यालय के बाद उसे ही होटल का स्वरूप दिया है। नये से भर्ती होने वाले शिक्षको से दान स्वरूप राशी लेना यह आज बडी मात्रा में दिखाई देता है। ऐसे विपरीत वातावरण में कुछ अच्छे निष्ठावान, तत्त्व से चलनेवाले विद्यालय है भी परन्तु उनकी मात्रा नगण्य जैसी ही है। ज्ञानदान का पवित्र कार्य करनेवाले ज्ञानमंदिर हमने ही अपवित्र किये है।।
 
आज विद्यालय तो ज्ञान के मॉल बन गये है। गणवेश, बस्ता, पुस्तकें, अन्य सारा साहित्य खरिदना विद्यालयों में अनिवार्य बना दिया है। कहीं कहीं तो विद्यालय ने बच्चोंं की सुविधा के रूप दिन में बच्चोंं के लिए केन्टीन खोला है। और विद्यालय के बाद उसे ही होटल का स्वरूप दिया है। नये से भर्ती होने वाले शिक्षको से दान स्वरूप राशी लेना यह आज बडी मात्रा में दिखाई देता है। ऐसे विपरीत वातावरण में कुछ अच्छे निष्ठावान, तत्त्व से चलनेवाले विद्यालय है भी परन्तु उनकी मात्रा नगण्य जैसी ही है। ज्ञानदान का पवित्र कार्य करनेवाले ज्ञानमंदिर हमने ही अपवित्र किये है।।
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विद्यालय अध्ययन और अध्यापन का केन्द्र है यह बात तो सही है फिर भी उसे अर्थ की आवश्यकता तो रहती ही है। विद्यालय भौतिक पदार्थ के उत्पादन या वितरण का केन्द्र तो है नहीं, तो फिर उसका निभाव कैसे होगा ?
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विद्यालय अध्ययन और अध्यापन का केन्द्र है यह बात तो सही है तथापि उसे अर्थ की आवश्यकता तो रहती ही है। विद्यालय भौतिक पदार्थ के उत्पादन या वितरण का केन्द्र तो है नहीं, तो फिर उसका निभाव कैसे होगा ?
    
एक के बाद एक मुद्दे का विचार करना चाहिये ।
 
एक के बाद एक मुद्दे का विचार करना चाहिये ।
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# विद्यालय में अध्ययन अध्यापन हेतु विभिन्न प्रकार के शैक्षिक उपकरण तथा व्यवस्थायें चाहिये । इनका खर्च एक ही बार नहीं होता । यह आवर्ती खर्च होता है। यह भी पर्याप्त मात्रा में अधिक होता है। साथ ही अनेक प्रकार के कार्यक्रम होते हैं । इन कार्यक्रमों के लिये भी खर्च होता है।  
 
# विद्यालय में अध्ययन अध्यापन हेतु विभिन्न प्रकार के शैक्षिक उपकरण तथा व्यवस्थायें चाहिये । इनका खर्च एक ही बार नहीं होता । यह आवर्ती खर्च होता है। यह भी पर्याप्त मात्रा में अधिक होता है। साथ ही अनेक प्रकार के कार्यक्रम होते हैं । इन कार्यक्रमों के लिये भी खर्च होता है।  
 
# सबसे महत्त्वपूर्ण खर्च है शिक्षकों के वेतन का । उन्हें अर्थनिरपेक्ष शिक्षा की दुहाई देकर वेतन नहीं लेने के लिये तो समझाया नहीं जा सकता क्योंकि उनका और उनके परिवार का निर्वाह तो चलना ही चाहिये । साथ ही उनके गौरव और सम्मान की रक्षा हो ऐसा वेतन भी चाहिये। ये तीन तो न्यूनतम खर्च है। इन की व्यवस्था हेतु विद्यालय के पास आय की क्या व्यवस्था होती है।  
 
# सबसे महत्त्वपूर्ण खर्च है शिक्षकों के वेतन का । उन्हें अर्थनिरपेक्ष शिक्षा की दुहाई देकर वेतन नहीं लेने के लिये तो समझाया नहीं जा सकता क्योंकि उनका और उनके परिवार का निर्वाह तो चलना ही चाहिये । साथ ही उनके गौरव और सम्मान की रक्षा हो ऐसा वेतन भी चाहिये। ये तीन तो न्यूनतम खर्च है। इन की व्यवस्था हेतु विद्यालय के पास आय की क्या व्यवस्था होती है।  
# एक तो आय होती है विद्यार्थियों से मिलने वाले शुल्क की। शुल्क के साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी महत्त्वपूर्ण होती है। शुल्क यदि कम रखा जाये तो आय अधिक नहीं होती और शुल्क ऊँचा रखा जाय तो विद्यार्थियों की संख्या कम हो जाने की सम्भावना रहती है फिर भी शुल्क कितना भी अधिक रखा जाय तो भी विद्यालय संचालन का पूर्ण व्यय उससे नहीं होता। बहुत कम ऐसे विद्यालय होते हैं जहाँ बहुत ऊँचे शुल्क से खर्च की पूरा करने की व्यवस्था हो पाती है। अन्यथा शुल्क के साथ ही अन्य उपाय करने होते हैं । अन्य उपाय करने में कोई बुराई नहीं है, उल्टे अन्य उपायों की सराहना ही करनी चाहिये । शुल्क तो जितना कम हो उतना अच्छा ही है।  
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# एक तो आय होती है विद्यार्थियों से मिलने वाले शुल्क की। शुल्क के साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी महत्त्वपूर्ण होती है। शुल्क यदि कम रखा जाये तो आय अधिक नहीं होती और शुल्क ऊँचा रखा जाय तो विद्यार्थियों की संख्या कम हो जाने की सम्भावना रहती है तथापि शुल्क कितना भी अधिक रखा जाय तो भी विद्यालय संचालन का पूर्ण व्यय उससे नहीं होता। बहुत कम ऐसे विद्यालय होते हैं जहाँ बहुत ऊँचे शुल्क से खर्च की पूरा करने की व्यवस्था हो पाती है। अन्यथा शुल्क के साथ ही अन्य उपाय करने होते हैं । अन्य उपाय करने में कोई बुराई नहीं है, उल्टे अन्य उपायों की सराहना ही करनी चाहिये । शुल्क तो जितना कम हो उतना अच्छा ही है।  
 
# दूसरा उपाय होता है शासन से अनुदान का । ऐसा एक बड़ा वर्ग है जहाँ सम्यक खर्च शासन का ही होता है। आईआईटी, आईआईएम जैसे बड़े संस्थान अधिकांश विश्वविद्यालय, अनेक महाविद्यालय, अधिकांश प्राथमिक विद्यालय शत प्रतिशत सरकारी खर्च से ही चलते है। सरकार यह खर्च प्रजा से जो कर मिलता है उसमें से करती है। अनेक छोटे बडे निजी विद्यालय शासन द्वारा दिये गये आवर्ती अनुदान से चलते हैं।  
 
# दूसरा उपाय होता है शासन से अनुदान का । ऐसा एक बड़ा वर्ग है जहाँ सम्यक खर्च शासन का ही होता है। आईआईटी, आईआईएम जैसे बड़े संस्थान अधिकांश विश्वविद्यालय, अनेक महाविद्यालय, अधिकांश प्राथमिक विद्यालय शत प्रतिशत सरकारी खर्च से ही चलते है। सरकार यह खर्च प्रजा से जो कर मिलता है उसमें से करती है। अनेक छोटे बडे निजी विद्यालय शासन द्वारा दिये गये आवर्ती अनुदान से चलते हैं।  
 
# निजी विद्यालयों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे शिक्षकों के वेतन हेतु अनुदान मिलता है परन्तु भवन, फर्नीचर तथा अन्य समग्री के लिये स्वयं का पैसा खर्च करना पडता है। तब यह पैसा समाज के दान के रूप में ही मिलता है। ऐसे विद्यालयों का संचालन सार्वजनिक संस्थायें करती हैं। समाज के दानशील लोग इन्हें सहायता करते हैं। जो संस्था के नहीं अपितु सर्वथा निजी मालिकी के विद्यालय या विश्वविद्यालय होते हैं उनकी आर्थिक जिम्मेदारी उस मालिक की ही होती है। परन्तु वे शुद्ध बाजार के रूप में ही उन्हें चलाते हैं। अधिकांश ये उद्योजकों की मालिकी के ही होते हैं और उनके उद्योग के एक अंग के रूप में वे चलते हैं। ऐसे विद्यालयों के लिये शुल्क के अतिरिक्त आय का और कोई स्रोत नहीं होता। इन विद्यालयों के मालिक उद्योजक होते हैं, शिक्षक नहीं इसलिये ये विद्यालय कम, उद्योग ही अधिक होते है।  
 
# निजी विद्यालयों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे शिक्षकों के वेतन हेतु अनुदान मिलता है परन्तु भवन, फर्नीचर तथा अन्य समग्री के लिये स्वयं का पैसा खर्च करना पडता है। तब यह पैसा समाज के दान के रूप में ही मिलता है। ऐसे विद्यालयों का संचालन सार्वजनिक संस्थायें करती हैं। समाज के दानशील लोग इन्हें सहायता करते हैं। जो संस्था के नहीं अपितु सर्वथा निजी मालिकी के विद्यालय या विश्वविद्यालय होते हैं उनकी आर्थिक जिम्मेदारी उस मालिक की ही होती है। परन्तु वे शुद्ध बाजार के रूप में ही उन्हें चलाते हैं। अधिकांश ये उद्योजकों की मालिकी के ही होते हैं और उनके उद्योग के एक अंग के रूप में वे चलते हैं। ऐसे विद्यालयों के लिये शुल्क के अतिरिक्त आय का और कोई स्रोत नहीं होता। इन विद्यालयों के मालिक उद्योजक होते हैं, शिक्षक नहीं इसलिये ये विद्यालय कम, उद्योग ही अधिक होते है।  
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# अपने पास जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने के लिये आता है, पढ़ने के लिये आता है, उसकी योग्य रूप से परीक्षा करने के बाद अध्यापक उसे पढ़ाने की जिम्मेदारी लेता है। उसके आगे धन विषयक शर्ते नही रखता है। किन्तु भारत में एक परंपरा ऐसी भी है, कि हमें जिनसे ज्ञान प्राप्त करना है उनके पास हम खाली हाथ नहीं जा सकते। अपनी अपनी हैसियत के अनुसार पढ़ने वाले को पढ़ाने वाले के लिये कुछ न कुछ लेकर ही जाना होता है। इसके लिये शब्दप्रयोग हुआ है, 'समित्पाणि'। विद्यार्थी को शिक्षक के पास समित्पाणि होकर ही जाना चाहिये। 'समित्' का अर्थ है, 'समिधा'। और 'समिधा' का अर्थ है, यज्ञ में आहुति देने के लिये उपयोग में आने वाली पवित्र लकड़ी। यह एक प्रतीक है। जब यज्ञ संस्कृति पूर्ण विकसित थी तब यज्ञ में आहुति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कुछ लेकर जाना। क्या और कितना लेकर जाना यह बात निश्चित नहीं होती। अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार लेकर जाना यह भी उचित नहीं। श्रद्धा तो सबकी एक समान ही होती है। अपनी अपनी हैसियत के अनुसार लेकर जाना यही उचित है। राजा का बेटा अपनी हैसियत के अनुसार ले जायेगा, निर्धन का बेटा अपनी हैसियत के अनुसार ले जायेगा। दोनों का ज्ञानप्राप्ति का अधिकार समान ही माना जायेगा। अध्यापक के योगक्षेम का यह भी एक साधन माना जा सकता है।
 
# अपने पास जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने के लिये आता है, पढ़ने के लिये आता है, उसकी योग्य रूप से परीक्षा करने के बाद अध्यापक उसे पढ़ाने की जिम्मेदारी लेता है। उसके आगे धन विषयक शर्ते नही रखता है। किन्तु भारत में एक परंपरा ऐसी भी है, कि हमें जिनसे ज्ञान प्राप्त करना है उनके पास हम खाली हाथ नहीं जा सकते। अपनी अपनी हैसियत के अनुसार पढ़ने वाले को पढ़ाने वाले के लिये कुछ न कुछ लेकर ही जाना होता है। इसके लिये शब्दप्रयोग हुआ है, 'समित्पाणि'। विद्यार्थी को शिक्षक के पास समित्पाणि होकर ही जाना चाहिये। 'समित्' का अर्थ है, 'समिधा'। और 'समिधा' का अर्थ है, यज्ञ में आहुति देने के लिये उपयोग में आने वाली पवित्र लकड़ी। यह एक प्रतीक है। जब यज्ञ संस्कृति पूर्ण विकसित थी तब यज्ञ में आहुति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कुछ लेकर जाना। क्या और कितना लेकर जाना यह बात निश्चित नहीं होती। अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार लेकर जाना यह भी उचित नहीं। श्रद्धा तो सबकी एक समान ही होती है। अपनी अपनी हैसियत के अनुसार लेकर जाना यही उचित है। राजा का बेटा अपनी हैसियत के अनुसार ले जायेगा, निर्धन का बेटा अपनी हैसियत के अनुसार ले जायेगा। दोनों का ज्ञानप्राप्ति का अधिकार समान ही माना जायेगा। अध्यापक के योगक्षेम का यह भी एक साधन माना जा सकता है।
 
# उसी प्रकार अध्ययन पूर्ण होने के बाद गुरुदक्षिणा देना यह भी प्रत्येक अध्येता का नैतिक दायित्व माना जाता है। इस दायित्व को भूलने की तो अच्छे विद्यार्थी को कल्पना भी नहीं आती। गुरुदक्षिणा भी शिष्य की हैसियत के अनुसार ही होगी यह एक व्यावहारिक बात है। किसी विशेष परिस्थिति में गुरु की अपेक्षा के अनुसार गुरुदक्षिणा देना भी शिष्य का कर्तव्य बनता है। गुरु भी शिष्य की हैसियत का, सामर्थ्य का विचार करने के बाद ही गुरुदक्षिणा माँगेंगें यह भी एक स्वाभाविक बात है। इस स्थिति में यदि शिष्य गुरु की अपेक्षा के प्रति संदेह करे, या उस अपेक्षा के औचित्य या अनौचित्य का मूल्यांकन करे यह भी कल्पना के परे की बात मानी जायेगी।
 
# उसी प्रकार अध्ययन पूर्ण होने के बाद गुरुदक्षिणा देना यह भी प्रत्येक अध्येता का नैतिक दायित्व माना जाता है। इस दायित्व को भूलने की तो अच्छे विद्यार्थी को कल्पना भी नहीं आती। गुरुदक्षिणा भी शिष्य की हैसियत के अनुसार ही होगी यह एक व्यावहारिक बात है। किसी विशेष परिस्थिति में गुरु की अपेक्षा के अनुसार गुरुदक्षिणा देना भी शिष्य का कर्तव्य बनता है। गुरु भी शिष्य की हैसियत का, सामर्थ्य का विचार करने के बाद ही गुरुदक्षिणा माँगेंगें यह भी एक स्वाभाविक बात है। इस स्थिति में यदि शिष्य गुरु की अपेक्षा के प्रति संदेह करे, या उस अपेक्षा के औचित्य या अनौचित्य का मूल्यांकन करे यह भी कल्पना के परे की बात मानी जायेगी।
# गुरु जब गुरुदक्षिणा के विषय में अपनी अपेक्षा व्यक्त करते हैं, तब अधिकांश वह सामाजिक हित के विषय की ही बात हो सकती है। गुरु कभी भी व्यक्तिगत रूप से अपने लिये किसी भी बात की अपेक्षा व्यक्त नहीं करते। फिर भी यह अपेक्षा किसी सामाजिक हित के लिये है या किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये यह सोचने का काम शिष्य का नहीं है।
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# गुरु जब गुरुदक्षिणा के विषय में अपनी अपेक्षा व्यक्त करते हैं, तब अधिकांश वह सामाजिक हित के विषय की ही बात हो सकती है। गुरु कभी भी व्यक्तिगत रूप से अपने लिये किसी भी बात की अपेक्षा व्यक्त नहीं करते। तथापि यह अपेक्षा किसी सामाजिक हित के लिये है या किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये यह सोचने का काम शिष्य का नहीं है।
 
# भारत में गुरुकुल परंपरा रही है। गुरुकुल के अधिष्ठाता को कुलपति कहा जाता है। कुलपति उसे कहते हैं जो दस हजार शिष्यों की शिक्षा और निर्वाह का दायित्व अपने ऊपर ले। इसका वास्तविक अर्थ तो यह हुआ कि पढ़ने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं है। शिक्षा देने की सभी प्रकार की जिम्मेदारी पढ़ाने वाले की ही है। आज के समय में इसकी कल्पना तक करना कठिन है। लेकिन यह काल्पनिक बात नहीं है, यह भी हम सब जानते हैं। अनेक कुलपतियों के नाम भी हम सब जानते हैं। कुलपति किस प्रकार यह व्यवस्था करते होंगे यह एक बहुत बड़ा, महत्त्वपूर्ण शोध का विषय है।
 
# भारत में गुरुकुल परंपरा रही है। गुरुकुल के अधिष्ठाता को कुलपति कहा जाता है। कुलपति उसे कहते हैं जो दस हजार शिष्यों की शिक्षा और निर्वाह का दायित्व अपने ऊपर ले। इसका वास्तविक अर्थ तो यह हुआ कि पढ़ने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं है। शिक्षा देने की सभी प्रकार की जिम्मेदारी पढ़ाने वाले की ही है। आज के समय में इसकी कल्पना तक करना कठिन है। लेकिन यह काल्पनिक बात नहीं है, यह भी हम सब जानते हैं। अनेक कुलपतियों के नाम भी हम सब जानते हैं। कुलपति किस प्रकार यह व्यवस्था करते होंगे यह एक बहुत बड़ा, महत्त्वपूर्ण शोध का विषय है।
 
# केवल गुरुकुल ही नहीं, आश्रम भी चलते थे। आश्रमों में शिष्य भिक्षा माँगने जायेंगे ऐसी व्यवस्था थी। यह भी निर्वाह की एक पद्धति ही है। इस भिक्षातंत्र का नियोजन भी गुरु ही करते थे, किन्तु उसका निर्वाह समाज के आधार पर ही होता था। भिक्षा को विवशता मान लेना अथवा एक तिरस्करणीय कार्य मान लेना यह उसका गलत अर्थघटन होगा। विद्याकेंद्रों के निर्वाह के लिये समाज की सहभागिता होना यह एक मानवीय व्यवस्था मानी जानी चाहिये।
 
# केवल गुरुकुल ही नहीं, आश्रम भी चलते थे। आश्रमों में शिष्य भिक्षा माँगने जायेंगे ऐसी व्यवस्था थी। यह भी निर्वाह की एक पद्धति ही है। इस भिक्षातंत्र का नियोजन भी गुरु ही करते थे, किन्तु उसका निर्वाह समाज के आधार पर ही होता था। भिक्षा को विवशता मान लेना अथवा एक तिरस्करणीय कार्य मान लेना यह उसका गलत अर्थघटन होगा। विद्याकेंद्रों के निर्वाह के लिये समाज की सहभागिता होना यह एक मानवीय व्यवस्था मानी जानी चाहिये।
 
# भारत के शिक्षा के इतिहास में तक्षशिला, नालंदा जैसे बड़े बड़े विद्यापीठों के नाम भी प्रसिद्ध हैं। ये विद्यापीठ विद्याभवन, ग्रंथभांडार, निवास, भोजन जैसी व्यवस्थाओं में समृद्ध थे। ये सभी व्यवस्थाएँ राज्य और समाज के द्वारा होती थी, किन्तु इसको 'अनुदान' नहीं कहा जाता था। अनुदान कहने के साथ ही शर्ते और अधीनता आ जाती है। विद्यीपीठों ने कभी राज्य या समाज की अधीनता का स्वीकार नहीं किया था। अर्थात् समाज अथवा राज्य के द्वारा विद्याकेन्द्रों का योगक्षेम चल रहा हो तो भी समग्र योजना का सूत्र संचालन अध्यापक के हाथ में ही हो यह धार्मिक शिक्षा व्यवस्था की एक विशेषता रही है।
 
# भारत के शिक्षा के इतिहास में तक्षशिला, नालंदा जैसे बड़े बड़े विद्यापीठों के नाम भी प्रसिद्ध हैं। ये विद्यापीठ विद्याभवन, ग्रंथभांडार, निवास, भोजन जैसी व्यवस्थाओं में समृद्ध थे। ये सभी व्यवस्थाएँ राज्य और समाज के द्वारा होती थी, किन्तु इसको 'अनुदान' नहीं कहा जाता था। अनुदान कहने के साथ ही शर्ते और अधीनता आ जाती है। विद्यीपीठों ने कभी राज्य या समाज की अधीनता का स्वीकार नहीं किया था। अर्थात् समाज अथवा राज्य के द्वारा विद्याकेन्द्रों का योगक्षेम चल रहा हो तो भी समग्र योजना का सूत्र संचालन अध्यापक के हाथ में ही हो यह धार्मिक शिक्षा व्यवस्था की एक विशेषता रही है।
ये सभी मुद्दे पर्याप्त शोध और अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी बातें आज के युग में अकल्प्य, अवास्तविक और अव्यावहारिक लग सकती हैं। आज के युग में इस प्रकार की व्यवस्था चलाने का कोई विचार भी नहीं कर सकता। फिर भी हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि अभी अभी तक ये सभी व्यवस्थाएँ हमारे देश में मौजूद थीं। इसलिये अर्थनिरपेक्ष, फिर भी (या तो इसीलिये) टिकाऊ और गुणवत्ता से पूर्ण व्यवस्थाओं के विषय में विचार करने की आवश्यकता है।
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ये सभी मुद्दे पर्याप्त शोध और अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी बातें आज के युग में अकल्प्य, अवास्तविक और अव्यावहारिक लग सकती हैं। आज के युग में इस प्रकार की व्यवस्था चलाने का कोई विचार भी नहीं कर सकता। तथापि हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि अभी अभी तक ये सभी व्यवस्थाएँ हमारे देश में मौजूद थीं। इसलिये अर्थनिरपेक्ष, तथापि (या तो इसीलिये) टिकाऊ और गुणवत्ता से पूर्ण व्यवस्थाओं के विषय में विचार करने की आवश्यकता है।
    
=== अर्थविचार ===
 
=== अर्थविचार ===
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==== शिक्षा के नाम पर अनावश्यक खर्च ====
 
==== शिक्षा के नाम पर अनावश्यक खर्च ====
पढ़ने के लिये जो अनावश्यक खर्च होता है उसके सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिये । आज कल ऐसी बातों पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है जिन पर बिलकुल ही खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिये छोटे बच्चे जब लेखन सीखना प्रारम्भ करते हैं तब आज क्या होता है इसका विचार करें । रेत पर उँगली से भी 'अ' लिखा जाता है, भूमि पर खड़िया से भी 'अ' लिखा जाता है, पत्थर की पाटी पर लेखनी से 'अ' लिखा जाता है, कागज पर कलम से 'अ' लिखा जाता है, संगणक के पर्दे पर भी 'अ' लिखा जाता है । रेत पर ऊँगली से लिखने में एक पैसा भी खर्च नहीं होता है, जबकि संगणक पर हजारों रुपये खर्च होते हैं। एक पैसा खर्च करो या हजार, लिखा तो 'अ' ही जाता है। उँगली से लिखने में 'अ' का अनुभव अधिक गहन होता है । शैक्षिक दृष्टि से वह अधिक अच्छा है और आर्थिक दृष्टि से अधिक सुकर । फिर भी आज संगणक का आकर्षण अधिक है। लोगोंं को लगता है कि संगणक अधिक अच्छा है, पाटी पर या रेत पर लिखना पिछड़ेपन का लक्षण है। यह मानसिक रुग्णावस्था है जो जीवन के हर क्षेत्र में आज दिखाई देती है। संगणक बनाने वाली कम्पनियाँ इस अवस्था का लाभ उठाती हैं और विज्ञापनों के माध्यम से लोगोंं को और लालायित करती हैं । सरकारें चुनावों में मत बटोरने के लिये लोगोंं को संगणक का आमिष देते हैं और बड़े-बड़े उद्योगगृह ऊंचा शुल्क वसूलने के लिये संगणक प्रस्तुत करते हैं । संगणक का सम्यक् उपयोग सिखाने के स्थान पर अत्र-तत्र-सर्वत्र संगणक के उपयोग का आवाहन किया जाता है। संगणक तो एक उदाहरण है। ऐसी असंख्य बातें हैं जो जरा भी उपयोगी नहीं हैं, अथवा अत्यन्त अल्प मात्रा में उपयोगी हैं, परन्तु खर्च उनके लिये बहुत अधिक होता है। ऐसे खर्च के लिये लोगोंं को अधिक पैसा कमाना पड़ता है, अधिक पैसा कमाने के लिये अधिक कष्ट करना पड़ता है और अधिक समय देना पड़ता है । इस प्रकार पैसे का एक दुष्ट चक्र आरम्भ होता है, एक बार आरम्भ हुआ तो कैसे भी रुकता नहीं है और फिर शान्ति से विचार करने का समय भी नहीं रहता है।  
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पढ़ने के लिये जो अनावश्यक खर्च होता है उसके सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिये । आज कल ऐसी बातों पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है जिन पर बिलकुल ही खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिये छोटे बच्चे जब लेखन सीखना प्रारम्भ करते हैं तब आज क्या होता है इसका विचार करें । रेत पर उँगली से भी 'अ' लिखा जाता है, भूमि पर खड़िया से भी 'अ' लिखा जाता है, पत्थर की पाटी पर लेखनी से 'अ' लिखा जाता है, कागज पर कलम से 'अ' लिखा जाता है, संगणक के पर्दे पर भी 'अ' लिखा जाता है । रेत पर ऊँगली से लिखने में एक पैसा भी खर्च नहीं होता है, जबकि संगणक पर हजारों रुपये खर्च होते हैं। एक पैसा खर्च करो या हजार, लिखा तो 'अ' ही जाता है। उँगली से लिखने में 'अ' का अनुभव अधिक गहन होता है । शैक्षिक दृष्टि से वह अधिक अच्छा है और आर्थिक दृष्टि से अधिक सुकर । तथापि आज संगणक का आकर्षण अधिक है। लोगोंं को लगता है कि संगणक अधिक अच्छा है, पाटी पर या रेत पर लिखना पिछड़ेपन का लक्षण है। यह मानसिक रुग्णावस्था है जो जीवन के हर क्षेत्र में आज दिखाई देती है। संगणक बनाने वाली कम्पनियाँ इस अवस्था का लाभ उठाती हैं और विज्ञापनों के माध्यम से लोगोंं को और लालायित करती हैं । सरकारें चुनावों में मत बटोरने के लिये लोगोंं को संगणक का आमिष देते हैं और बड़े-बड़े उद्योगगृह ऊंचा शुल्क वसूलने के लिये संगणक प्रस्तुत करते हैं । संगणक का सम्यक् उपयोग सिखाने के स्थान पर अत्र-तत्र-सर्वत्र संगणक के उपयोग का आवाहन किया जाता है। संगणक तो एक उदाहरण है। ऐसी असंख्य बातें हैं जो जरा भी उपयोगी नहीं हैं, अथवा अत्यन्त अल्प मात्रा में उपयोगी हैं, परन्तु खर्च उनके लिये बहुत अधिक होता है। ऐसे खर्च के लिये लोगोंं को अधिक पैसा कमाना पड़ता है, अधिक पैसा कमाने के लिये अधिक कष्ट करना पड़ता है और अधिक समय देना पड़ता है । इस प्रकार पैसे का एक दुष्ट चक्र आरम्भ होता है, एक बार आरम्भ हुआ तो कैसे भी रुकता नहीं है और फिर शान्ति से विचार करने का समय भी नहीं रहता है।  
    
अतः शिक्षा के विषय में तत्त्वचिन्तन के साथ-साथ इन छोटी परन्तु दूरगामी परिणाम करने वाली बातों को लेकर चिन्ता करने की आवश्यकता है। ऐसी कोई कार्य योजना बननी चाहिये ताकि लोगोंं को इन निरर्थक और अनर्थक उलझनों से छुटकारा मिले।
 
अतः शिक्षा के विषय में तत्त्वचिन्तन के साथ-साथ इन छोटी परन्तु दूरगामी परिणाम करने वाली बातों को लेकर चिन्ता करने की आवश्यकता है। ऐसी कोई कार्य योजना बननी चाहिये ताकि लोगोंं को इन निरर्थक और अनर्थक उलझनों से छुटकारा मिले।
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# शिक्षा की अर्थव्यवस्था के कुछ आयामों के साथ भिक्षा की योजना को जोड़कर विचार करने पर कुछ सूत्र समझ में आयेंगे।
 
# शिक्षा की अर्थव्यवस्था के कुछ आयामों के साथ भिक्षा की योजना को जोड़कर विचार करने पर कुछ सूत्र समझ में आयेंगे।
 
## भोजन छात्रों के निर्वाहखर्च का एक बड़ा हिस्सा है। उस हिस्से को पूरा करने के दायित्व में समाज का सीधा सहभाग भिक्षा के रूप में है। साथ ही अध्ययन करने वाले शिष्यों का भी सीधा सहभाग है। इस प्रकार अध्ययन के साथ-साथ दायित्व निभाने की शिक्षा भी मिलती है।  
 
## भोजन छात्रों के निर्वाहखर्च का एक बड़ा हिस्सा है। उस हिस्से को पूरा करने के दायित्व में समाज का सीधा सहभाग भिक्षा के रूप में है। साथ ही अध्ययन करने वाले शिष्यों का भी सीधा सहभाग है। इस प्रकार अध्ययन के साथ-साथ दायित्व निभाने की शिक्षा भी मिलती है।  
## विद्यादान का शुल्क तो लिया नहीं जाता अतः शिष्य शुल्क नहीं देंगे। शिक्षा संस्था चलाने के लिये अनुदान भी नहीं लिया जाता क्यों कि अनुदान की शर्तों के कारण स्वतंत्रता और स्वायत्तता का लोप होता है। फिर भी समाज की सहभागिता तो होनी ही चाहिये। अतः भिक्षा के रूप में समाज अपना दायित्व निभाता है।  
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## विद्यादान का शुल्क तो लिया नहीं जाता अतः शिष्य शुल्क नहीं देंगे। शिक्षा संस्था चलाने के लिये अनुदान भी नहीं लिया जाता क्यों कि अनुदान की शर्तों के कारण स्वतंत्रता और स्वायत्तता का लोप होता है। तथापि समाज की सहभागिता तो होनी ही चाहिये। अतः भिक्षा के रूप में समाज अपना दायित्व निभाता है।  
 
## भिक्षा माँगना अध्ययन करने वाले का नैतिक अधिकार है, कानूनी नहीं । भिक्षा माँगने की पात्रता सद्गुण, सदाचार, संयम, विनय, शील आदि से आती है। भिक्षा व्यवस्था में चरित्र की शिक्षा अपने आप प्राप्त होती है। भिक्षा के निमित्त से घर घर जाना पड़ता है और समाज से सम्पर्क बना रहता है । मानव स्वभाव, समाज की स्थिति, व्यवहार की जटिलता अपने आप सीखने को मिलते हैं। यह बहुत बड़ी सामाजिक शिक्षा है।  
 
## भिक्षा माँगना अध्ययन करने वाले का नैतिक अधिकार है, कानूनी नहीं । भिक्षा माँगने की पात्रता सद्गुण, सदाचार, संयम, विनय, शील आदि से आती है। भिक्षा व्यवस्था में चरित्र की शिक्षा अपने आप प्राप्त होती है। भिक्षा के निमित्त से घर घर जाना पड़ता है और समाज से सम्पर्क बना रहता है । मानव स्वभाव, समाज की स्थिति, व्यवहार की जटिलता अपने आप सीखने को मिलते हैं। यह बहुत बड़ी सामाजिक शिक्षा है।  
 
## भिक्षा के माध्यम से समाज पर आधारित रहना पड़ता है। अतः संपन्न परिवार से आने वाले छात्रों का अहंकार नियंत्रित होता है और गरीब परिवार से आने वाले छात्रों में हीनता भाव नहीं आता ।  
 
## भिक्षा के माध्यम से समाज पर आधारित रहना पड़ता है। अतः संपन्न परिवार से आने वाले छात्रों का अहंकार नियंत्रित होता है और गरीब परिवार से आने वाले छात्रों में हीनता भाव नहीं आता ।  
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# गुरुदक्षिणा की गणना इस आधार पर नहीं होती थी कि गुरु ने कितना और कैसा पढाया है। शिष्य की देने की क्षमता के अनुसार ही दी जाती है। कम कमाने वाला व्यक्ति कम और अधिक कमाने वाला अधिक देता है, यह स्वाभाविक है।  
 
# गुरुदक्षिणा की गणना इस आधार पर नहीं होती थी कि गुरु ने कितना और कैसा पढाया है। शिष्य की देने की क्षमता के अनुसार ही दी जाती है। कम कमाने वाला व्यक्ति कम और अधिक कमाने वाला अधिक देता है, यह स्वाभाविक है।  
 
# विशेष संयोग के समय शिष्य गुरु से उनकी अपेक्षा  पूछता है, तब गुरु । आवश्यकतानुसार अपेक्षा व्यक्त भी करता है। परन्तु यह भी शिष्य की क्षमताओं का अनुमान लगाकर ही बताई जाती है। शिष्य के द्वारा स्वयं पूछने के बाद और गुरु के द्वारा अपेक्षा व्यक्त कर देने के पश्चात् यदि शिष्य वह अपेक्षा पूर्ण नहीं करता तो यह शिष्य के लिए मरण योग्य बात हो जाती है।  
 
# विशेष संयोग के समय शिष्य गुरु से उनकी अपेक्षा  पूछता है, तब गुरु । आवश्यकतानुसार अपेक्षा व्यक्त भी करता है। परन्तु यह भी शिष्य की क्षमताओं का अनुमान लगाकर ही बताई जाती है। शिष्य के द्वारा स्वयं पूछने के बाद और गुरु के द्वारा अपेक्षा व्यक्त कर देने के पश्चात् यदि शिष्य वह अपेक्षा पूर्ण नहीं करता तो यह शिष्य के लिए मरण योग्य बात हो जाती है।  
# गुरुदक्षिणा अर्पित करने में गुरु के प्रति शिष्य की कृतज्ञता व्यक्त होती है। गुरु इसे अपना अधिकार नहीं मानते फिर भी शिष्य इसे अपना कर्तव्य मानते
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# गुरुदक्षिणा अर्पित करने में गुरु के प्रति शिष्य की कृतज्ञता व्यक्त होती है। गुरु इसे अपना अधिकार नहीं मानते तथापि शिष्य इसे अपना कर्तव्य मानते
 
# सामर्थ्य होते हुए भी गुरुदक्षिणा नहीं देना, जितना सामर्थ्य है उससे कम देना इसकी कल्पना भी शिष्य के मन में नहीं आती।  
 
# सामर्थ्य होते हुए भी गुरुदक्षिणा नहीं देना, जितना सामर्थ्य है उससे कम देना इसकी कल्पना भी शिष्य के मन में नहीं आती।  
 
# अधिक गुरुदक्षिणा का गुरु के ऊपर प्रभाव पड़ेगा और शिष्य गुरु से अपने हित की बात करवा सकेगा अथवा गुरु इसके प्रति पक्षपात करेंगे यह भी कल्पना से परे की बात है।  
 
# अधिक गुरुदक्षिणा का गुरु के ऊपर प्रभाव पड़ेगा और शिष्य गुरु से अपने हित की बात करवा सकेगा अथवा गुरु इसके प्रति पक्षपात करेंगे यह भी कल्पना से परे की बात है।  
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# तथापि गुरुदक्षिणा का नियमन और सूत्रसंचालन गुरु के हाथ में नहीं होता। इसी प्रकार गुरु और शिष्य के अतिरिक्त अन्य किसी तीसरे पक्ष के (आज की भाषा में कहना हो तो संचालक और सरकार) हाथ में भी नहीं है। यह पूर्णरूप से शिष्य के ही हाथ में है।  
 
# तथापि गुरुदक्षिणा का नियमन और सूत्रसंचालन गुरु के हाथ में नहीं होता। इसी प्रकार गुरु और शिष्य के अतिरिक्त अन्य किसी तीसरे पक्ष के (आज की भाषा में कहना हो तो संचालक और सरकार) हाथ में भी नहीं है। यह पूर्णरूप से शिष्य के ही हाथ में है।  
 
# गुरुदक्षिणा विद्याध्ययन के बदले में ही दी जाती है, और उससे ही गुरु का जीवन निर्वाह चलता है यह वास्तविकता होते हुए भी इसमें जीवन निर्वाह की और गुरु द्वारा अध्यापन करवाने की गणना करने के स्थान पर कृतज्ञता एवं गुरुऋण से उऋण होने का भाव ही मुख्य है। विद्या एवं धन की बराबरी नहीं हो सकती। विद्या से धन श्रेष्ठ नहीं अपितु धन से विद्या श्रेष्ठ है। हमारे यहाँ यही स्वीकार्य है।  
 
# गुरुदक्षिणा विद्याध्ययन के बदले में ही दी जाती है, और उससे ही गुरु का जीवन निर्वाह चलता है यह वास्तविकता होते हुए भी इसमें जीवन निर्वाह की और गुरु द्वारा अध्यापन करवाने की गणना करने के स्थान पर कृतज्ञता एवं गुरुऋण से उऋण होने का भाव ही मुख्य है। विद्या एवं धन की बराबरी नहीं हो सकती। विद्या से धन श्रेष्ठ नहीं अपितु धन से विद्या श्रेष्ठ है। हमारे यहाँ यही स्वीकार्य है।  
# गुरुदक्षिणा के बारे में कोई नियम, कोई कानून, कोई अनिवार्यता या कोई शर्त न होते हुए भी, हमारे सामने स्पष्ट है कि गुरु का जीवन निर्वाह इस पर ही निर्भर है फिर भी गुरु इसके बारे में तनिक भी चिन्ता करते नहीं । ऐसा होने पर भी गुरु का निर्वाह कभी रुकता नहीं। यह दर्शाता है कि विश्वास, श्रद्धा, आदर, कृतज्ञता और अपेक्षारहितता ये सब सामर्थ्य, कायदाकानून, नियम और शर्तों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान हैं।  
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# गुरुदक्षिणा के बारे में कोई नियम, कोई कानून, कोई अनिवार्यता या कोई शर्त न होते हुए भी, हमारे सामने स्पष्ट है कि गुरु का जीवन निर्वाह इस पर ही निर्भर है तथापि गुरु इसके बारे में तनिक भी चिन्ता करते नहीं । ऐसा होने पर भी गुरु का निर्वाह कभी रुकता नहीं। यह दर्शाता है कि विश्वास, श्रद्धा, आदर, कृतज्ञता और अपेक्षारहितता ये सब सामर्थ्य, कायदाकानून, नियम और शर्तों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान हैं।  
 
# गुरुदक्षिणा की संकल्पना श्रेष्ठ एवं संस्कारित समाज में ही सम्भव है। मनुष्य में निहित सद्वृत्ति के आधार पर ही ऐसी व्यवस्थाएँ सम्भव होती हैं। स्वार्थ, अप्रामाणिकता, कृतज्ञता का अभाव जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ जब प्रबल बनती हैं तब शर्ते, कायदा-कानून भंग होते हैं, अतः दण्ड आदि सभी व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं।  
 
# गुरुदक्षिणा की संकल्पना श्रेष्ठ एवं संस्कारित समाज में ही सम्भव है। मनुष्य में निहित सद्वृत्ति के आधार पर ही ऐसी व्यवस्थाएँ सम्भव होती हैं। स्वार्थ, अप्रामाणिकता, कृतज्ञता का अभाव जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ जब प्रबल बनती हैं तब शर्ते, कायदा-कानून भंग होते हैं, अतः दण्ड आदि सभी व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं।  
 
# समाज आधारित शिक्षण का यह उत्तम नमूना है। इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था में शिक्षक और विद्यार्थी-गुरु और शिष्य - के मध्य में अथवा इन दोनों का नियमन करने वाला कोई तत्त्व, कोई व्यवस्था नहीं होती। फिर यह सरकारी अर्थात् राजकीय और प्रशासनिक व्यवस्था भी नहीं है। यह सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था है।  
 
# समाज आधारित शिक्षण का यह उत्तम नमूना है। इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था में शिक्षक और विद्यार्थी-गुरु और शिष्य - के मध्य में अथवा इन दोनों का नियमन करने वाला कोई तत्त्व, कोई व्यवस्था नहीं होती। फिर यह सरकारी अर्थात् राजकीय और प्रशासनिक व्यवस्था भी नहीं है। यह सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था है।  
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==== शिक्षा स्वायत्त कैसे हो सकती है ====
 
==== शिक्षा स्वायत्त कैसे हो सकती है ====
फिर भी शैक्षिक सिद्धान्त तो यही है कि शिक्षा स्वायत्त होनी ही चाहिये । यह कैसे होगी इसकी योजना करनी चाहिये।
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तथापि शैक्षिक सिद्धान्त तो यही है कि शिक्षा स्वायत्त होनी ही चाहिये । यह कैसे होगी इसकी योजना करनी चाहिये।
    
कुछ बातें इस प्रकार विचारणीय हैं:
 
कुछ बातें इस प्रकार विचारणीय हैं:

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