Changes

Jump to navigation Jump to search
Line 252: Line 252:  
* किसी भी बड़े कार्य का प्रारम्भ छोटा ही होता है। अतः शिक्षकों के एक छोटे गट ने इस प्रकार की व्यवस्था का प्रयोग प्रारम्भ करना चाहिये । परन्तु इस संकल्पना की विद्वानों में, छात्रों में, शासकीय अधिकारियों में और आम समाज में चर्चा प्रसृत करने की अतीव आवश्यकता है। यदि सर्वसम्मति नहीं हुई तो यह प्रयोग तो चल जायेगा। ऐसे तो अनेक एकसे बढ़कर एक अच्छे प्रयोग देशभर में चलते ही है। परन्तु व्यवस्था नहीं बदलेगी। हमारा लक्ष्य प्रयोग करके सन्तुष्ट होना नहीं है, व्यवस्था में परिवर्तन करने का है।  
 
* किसी भी बड़े कार्य का प्रारम्भ छोटा ही होता है। अतः शिक्षकों के एक छोटे गट ने इस प्रकार की व्यवस्था का प्रयोग प्रारम्भ करना चाहिये । परन्तु इस संकल्पना की विद्वानों में, छात्रों में, शासकीय अधिकारियों में और आम समाज में चर्चा प्रसृत करने की अतीव आवश्यकता है। यदि सर्वसम्मति नहीं हुई तो यह प्रयोग तो चल जायेगा। ऐसे तो अनेक एकसे बढ़कर एक अच्छे प्रयोग देशभर में चलते ही है। परन्तु व्यवस्था नहीं बदलेगी। हमारा लक्ष्य प्रयोग करके सन्तुष्ट होना नहीं है, व्यवस्था में परिवर्तन करने का है।  
 
* शिक्षा के साथ जुड़े हुए तो ये सारे वर्ग हैं परन्तु उसका केन्द्रवर्ती स्थान और केन्द्रवर्ती दायित्व शिक्षक का ही है। जिस दिन इस देश का शिक्षक अपने आपको इस कार्य के लिये प्रस्तुत करेगा उस दिन से शिक्षा की अर्थव्यवस्था और समग्र शिक्षाक्षेत्र ठीक पटरी पर आ जायेगा यह निश्चित है । हमारा इतिहास और हमारी परम्परा भी यही कहती है।
 
* शिक्षा के साथ जुड़े हुए तो ये सारे वर्ग हैं परन्तु उसका केन्द्रवर्ती स्थान और केन्द्रवर्ती दायित्व शिक्षक का ही है। जिस दिन इस देश का शिक्षक अपने आपको इस कार्य के लिये प्रस्तुत करेगा उस दिन से शिक्षा की अर्थव्यवस्था और समग्र शिक्षाक्षेत्र ठीक पटरी पर आ जायेगा यह निश्चित है । हमारा इतिहास और हमारी परम्परा भी यही कहती है।
'''शिक्षा के नाम पर अनावश्यक खर्च'''
     −
पढ़ने के लिये जो अनावश्यक खर्च होता है उसके
+
==== '''शिक्षा के नाम पर अनावश्यक खर्च''' ====
 +
पढ़ने के लिये जो अनावश्यक खर्च होता है उसके सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिये । आज कल ऐसी बातों पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है जिन पर बिलकुल ही खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिये छोटे बच्चे जब लेखन सीखना प्रारम्भ करते हैं तब आज क्या होता है इसका विचार करें । रेत पर उँगली से भी 'अ' लिखा जाता है, भूमि पर खड़िया से भी 'अ' लिखा जाता है, पत्थर की पाटी पर लेखनी से 'अ' लिखा जाता है, कागज पर कलम से 'अ' लिखा जाता है, संगणक के पर्दे पर भी 'अ' लिखा जाता है । रेत पर ऊँगली से लिखने में एक पैसा भी खर्च नहीं होता है, जबकि संगणक पर हजारों रुपये खर्च होते हैं। एक पैसा खर्च करो या हजार, लिखा तो 'अ' ही जाता है। उँगली से लिखने में 'अ' का अनुभव अधिक गहन होता है । शैक्षिक दृष्टि से वह अधिक अच्छा है और आर्थिक दृष्टि से अधिक सुकर । फिर भी आज संगणक का आकर्षण अधिक है। लोगों को लगता है कि संगणक अधिक अच्छा है, पाटी पर या रेत पर लिखना पिछड़ेपन का लक्षण है। यह मानसिक रुग्णावस्था है जो जीवन के हर क्षेत्र में आज दिखाई देती है। संगणक बनाने वाली कम्पनियाँ इस अवस्था का लाभ उठाती हैं और विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को और लालायित करती हैं । सरकारें चुनावों में मत बटोरने के लिये लोगों को संगणक का आमिष देते हैं और बड़े-बड़े उद्योगगृह ऊंचा शुल्क वसूलने के लिये संगणक प्रस्तुत करते हैं । संगणक का सम्यक् उपयोग सिखाने के स्थान पर अत्र-तत्र-सर्वत्र संगणक के उपयोग का आवाहन किया जाता है। संगणक तो एक उदाहरण है। ऐसी असंख्य बातें हैं जो जरा भी उपयोगी नहीं हैं, अथवा अत्यन्त अल्प मात्रा में उपयोगी हैं, परन्तु खर्च उनके लिये बहुत अधिक होता है। ऐसे खर्च के लिये लोगों को अधिक पैसा कमाना पड़ता है, अधिक पैसा कमाने के लिये अधिक कष्ट करना पड़ता है और अधिक समय देना पड़ता है । इस प्रकार पैसे का एक दुष्ट चक्र शुरू होता है, एक बार शुरू हुआ तो कैसे भी रुकता नहीं है और फिर शान्ति से विचार करने का समय भी नहीं रहता है।
 +
 
 +
अतः शिक्षा के विषय में । तत्त्वचिन्तन के साथ-साथ इन छोटी परन्तु दूरगामी परिणाम करने वाली बातों को लेकर चिन्ता करने की आवश्यकता है। ऐसी कोई कार्य योजना बननी चाहिये ताकि लोगों को इन निरर्थक और अनर्थक उलझनों से छुटकारा मिले ।
 +
 
 +
शिक्षा में और एक विषय में कुल मिलाकर व्यर्थ खर्च होता है। ऐसे कितने ही लोग हैं जो पढ़ते तो हैं स्नातक अथवा स्नातकोत्तर पदवी प्राप्त करने तक परन्तु काम करते हैं बैंक में या सरकारी अथवा गैरसरकारी कार्यालय में __ बाबूगिरी का । उन्होंने बाबूगिरी की कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की होती है, दूसरी ओर इतिहास, भाषा या संस्कृत पढ़ने का बाबूगिरी में कोई उपयोग नहीं है । इंजीनियर की शिक्षा प्राप्त करने पर वे काम इंजीनियरिंग का नहीं करते हैं। शिक्षा प्राप्त करते हैं आयुर्विज्ञान की परन्तु काम चिकित्सा के क्षेत्र में नहीं करते हैं, कला या साहित्य के क्षेत्र में करते हैं। कई महिलायें डॉक्टरी की पढ़ाई के बाद चिकित्सा नहीं करती हैं । यह तो बाजार के नियम के विरुद्ध है । एक-एक छात्र की शिक्षा के लिये उसके माता-पिता के तथा सरकार के बहुत पैसे खर्च होते हैं। परन्तु छात्र पर उसकी भरपाई करने का दायित्व नहीं दिया जाता है। इस सन्दर्भ में तर्क दिया जाता है कि ज्ञान-ज्ञान है, उसे अर्थार्जन के मापदण्ड से नहीं नापा जाना चाहिये । परन्तु यह तो ज्ञानार्जन और अर्थार्जन के सन्दर्भो का घालमेल है। यदि ज्ञानार्जन ही करना है तो पूर्ण रूप से ज्ञानार्जन के ही नियम लागू करने चाहिये । अर्थार्जन करना है तो अर्थार्जन के नियम लागू करने चाहिये । दोनों का मिश्रण करने से अन्ततोगत्वा व्यक्ति और समाज की आर्थिक हानि ही होती है। आज समाज में इस बात की इतनी अव्यवस्था छाई है कि उससे होने वाली हानि का कोई हिसाब नहीं है।
 +
 
 +
==== शिक्षा को बाजारीकरण से मुक्त करना ====
 +
इसी प्रकार गणवेश, बस्ता, वाहन, विद्यालय में पानी, पंखे, मेज-कुर्सी आदि अनेक बातें ऐसी हैं जिन्हें लेकर बेसुमार खर्च होता है । ट्यूशन और कोचिंग भी भारी
    
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
1,815

edits

Navigation menu