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===== शिक्षा का यूरोपीकरण =====
 
===== शिक्षा का यूरोपीकरण =====
अंग्रेजों ने जब भारतीय शिक्षा का यूरोपीकरण करना प्रारम्भ किया, उसका एक अंग था शिक्षाक्षेत्र को सरकार के हस्तक करना <ref>भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व २: अध्याय ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। यह एक अप्रत्याशित घटना थी । भारतीय मानस और भारतीय व्यवस्था में न बैठने वाली यह बात थी। परन्तु आर्थिक क्षेत्र में भारत ने इतनी अधिक मार खाई थी कि शिक्षाव्यवस्था के इस परिवर्तन का प्रतीकार करने का उसे होश नहीं था । या कहें कि भारत का भाग्य ही ऐसा था। परन्तु यह परिवर्तन अनेक संकटों की परम्परा का प्रारम्भ बना । आज भी उसका प्रभाव इतना अधिक है कि हम उसकी तीव्रता को समझ नहीं रहे हैं । उसे समझना शिक्षा को रोगमुक्त करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है ।
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अंग्रेजों ने जब धार्मिक शिक्षा का यूरोपीकरण करना प्रारम्भ किया, उसका एक अंग था शिक्षाक्षेत्र को सरकार के हस्तक करना <ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व २: अध्याय ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। यह एक अप्रत्याशित घटना थी । धार्मिक मानस और धार्मिक व्यवस्था में न बैठने वाली यह बात थी। परन्तु आर्थिक क्षेत्र में भारत ने इतनी अधिक मार खाई थी कि शिक्षाव्यवस्था के इस परिवर्तन का प्रतीकार करने का उसे होश नहीं था । या कहें कि भारत का भाग्य ही ऐसा था। परन्तु यह परिवर्तन अनेक संकटों की परम्परा का प्रारम्भ बना । आज भी उसका प्रभाव इतना अधिक है कि हम उसकी तीव्रता को समझ नहीं रहे हैं । उसे समझना शिक्षा को रोगमुक्त करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है ।
    
===== शिक्षा सरकार के अधीन =====
 
===== शिक्षा सरकार के अधीन =====
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===== आज की विडम्बना =====
 
===== आज की विडम्बना =====
आज स्थिति ऐसी है । विडम्बना यह है कि आज भी हम शिक्षक को गुरु कहते हैं । आचार्य कहते हैं । आज भी गुरुपूर्णिमा जैसे उत्सव मनाये जाते हैं । आज भी गुरुदक्षिणा दी जाती है। आज भी कहीं कहीं शिक्षक को सम्मानित किया जाता है। छोटी कक्षाओं में विद्यार्थी शिक्षक के सम्मान में खडे होते हैं । आज भी शिक्षक के चरण स्पर्श किये जाते हैं। परन्तु ये केवल उपचार है। युगों से भारतीयों के अन्तःकरण में गुरुपद्‌ का जो सम्माननीय स्थान है उसका स्मरण है, उस व्यवस्था के प्रति प्रेम है उसका स्वीकार है। वह इस रूप में व्यक्त होता है परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है । वही गुरुपद से शोभायमान व्यक्ति अब कर्मचारी है । उसे नियुक्त करनेवाले के सामने वह खडा हो जाता है, उसकी ताडें सुन लेता है । शासन के समक्ष घुटने टेकता है, सरकार पुरस्कार देती है तो खुश हो जाता है। विधायक, सांसद, मंत्री उसके विविध देवता हैं और प्रशासन के अधिकारियों से वह डरता है । वह विद्यार्थियों और अभिभावकों से सहमा सहमा रहता है । वह सर्व प्रकार के खुलासे देने के लिये बाध्य हो जाता है । वह ज्ञाननिष्ठा, विद्याप्रीति और समाजसेवा से प्रेरित होकर नहीं पढ़ाता है, वेतन के लिये ही पढ़ाता है ।
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आज स्थिति ऐसी है । विडम्बना यह है कि आज भी हम शिक्षक को गुरु कहते हैं । आचार्य कहते हैं । आज भी गुरुपूर्णिमा जैसे उत्सव मनाये जाते हैं । आज भी गुरुदक्षिणा दी जाती है। आज भी कहीं कहीं शिक्षक को सम्मानित किया जाता है। छोटी कक्षाओं में विद्यार्थी शिक्षक के सम्मान में खडे होते हैं । आज भी शिक्षक के चरण स्पर्श किये जाते हैं। परन्तु ये केवल उपचार है। युगों से धार्मिकों के अन्तःकरण में गुरुपद्‌ का जो सम्माननीय स्थान है उसका स्मरण है, उस व्यवस्था के प्रति प्रेम है उसका स्वीकार है। वह इस रूप में व्यक्त होता है परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है । वही गुरुपद से शोभायमान व्यक्ति अब कर्मचारी है । उसे नियुक्त करनेवाले के सामने वह खडा हो जाता है, उसकी ताडें सुन लेता है । शासन के समक्ष घुटने टेकता है, सरकार पुरस्कार देती है तो खुश हो जाता है। विधायक, सांसद, मंत्री उसके विविध देवता हैं और प्रशासन के अधिकारियों से वह डरता है । वह विद्यार्थियों और अभिभावकों से सहमा सहमा रहता है । वह सर्व प्रकार के खुलासे देने के लिये बाध्य हो जाता है । वह ज्ञाननिष्ठा, विद्याप्रीति और समाजसेवा से प्रेरित होकर नहीं पढ़ाता है, वेतन के लिये ही पढ़ाता है ।
    
वह क्या पढ़ाता है, क्यों पढ़ाता है उससे उसे कोई अंतर नहीं पडता । शासन कहता है कि भगतसिंह हत्यारा है तो वह वैसा पढायेगा, शासन कहता है कि शिवाजी पहाड का चूहा है तो वह वैसा पढायेगा । शासन कहता है कि अफझल खान दुष्ट है तो वह वैसा पढायेगा। उसे कोई अंतर नहीं पडता । उसके हाथ में दी गई पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत में अनेक सुधार किये तो वह वैसा पढायेगा, आर्य बाहर से भारत में आये तो वैसा पढायेगा, छोटा परिवार सुखी परिवार तो वैसा पढायेगा । उसे कोई अंतर नहीं पडता । अर्थात्‌ वह बेपरवाह है । और क्यों नहीं होगा ? नौकर की क्या कभी अपनी मर्जी, अपना मत होता है ? वह किसी दूसरे का काम कर रहा हैं, उसे बताया काम करना है, वह चिन्ता क्यों करेगा ?
 
वह क्या पढ़ाता है, क्यों पढ़ाता है उससे उसे कोई अंतर नहीं पडता । शासन कहता है कि भगतसिंह हत्यारा है तो वह वैसा पढायेगा, शासन कहता है कि शिवाजी पहाड का चूहा है तो वह वैसा पढायेगा । शासन कहता है कि अफझल खान दुष्ट है तो वह वैसा पढायेगा। उसे कोई अंतर नहीं पडता । उसके हाथ में दी गई पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत में अनेक सुधार किये तो वह वैसा पढायेगा, आर्य बाहर से भारत में आये तो वैसा पढायेगा, छोटा परिवार सुखी परिवार तो वैसा पढायेगा । उसे कोई अंतर नहीं पडता । अर्थात्‌ वह बेपरवाह है । और क्यों नहीं होगा ? नौकर की क्या कभी अपनी मर्जी, अपना मत होता है ? वह किसी दूसरे का काम कर रहा हैं, उसे बताया काम करना है, वह चिन्ता क्यों करेगा ?
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विडम्बना यह भी है कि ऐसी स्थिति में भी हम शिक्षकों को आचार्य बनने की, गुरु बनने की, राष्ट्रनिर्माता बनने की, विद्यार्थियों का चरित्रगठन  करने की शिक्षा देते हैं, उनका प्रबोधन करते हैं। ऐसी स्थिति में भी हम “ज्ञान पवित्र है', “विद्या मुक्ति दिलाती है', “गुरु देवता है' आदि बातें करते हैं । विद्या की देवी सरस्वती को लक्ष्मी की दासी बनाकर अब सरस्वती की स्तुति करते हैं ।
 
विडम्बना यह भी है कि ऐसी स्थिति में भी हम शिक्षकों को आचार्य बनने की, गुरु बनने की, राष्ट्रनिर्माता बनने की, विद्यार्थियों का चरित्रगठन  करने की शिक्षा देते हैं, उनका प्रबोधन करते हैं। ऐसी स्थिति में भी हम “ज्ञान पवित्र है', “विद्या मुक्ति दिलाती है', “गुरु देवता है' आदि बातें करते हैं । विद्या की देवी सरस्वती को लक्ष्मी की दासी बनाकर अब सरस्वती की स्तुति करते हैं ।
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भारतीयता का तत्व कितना भी श्रेष्ठ हो उसका वर्तमान व्यावहारिक स्वरूप तो ऐसा ही है। यह एक अनर्थकारी व्यवस्था है। हम शिक्षा को भारतीय बनाना चाहते हैं । तब हम क्या करना चाहते हैं। हम शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिये ऐसा कहते हैं । तब क्या चाहते हैं ?
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धार्मिकता का तत्व कितना भी श्रेष्ठ हो उसका वर्तमान व्यावहारिक स्वरूप तो ऐसा ही है। यह एक अनर्थकारी व्यवस्था है। हम शिक्षा को धार्मिक बनाना चाहते हैं । तब हम क्या करना चाहते हैं। हम शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिये ऐसा कहते हैं । तब क्या चाहते हैं ?
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===== शिक्षा में भारतीय करण के उपाय =====
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===== शिक्षा में धार्मिक करण के उपाय =====
वास्तव में शिक्षा का भारतीयकरण करने के लिये व्यवस्थातन्त्र का विचार तो करना ही पडेगा । हमें प्रयोग भी करने पड़ेंगे । हमे साहस दिखाना होगा ।
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वास्तव में शिक्षा का धार्मिककरण करने के लिये व्यवस्थातन्त्र का विचार तो करना ही पडेगा । हमें प्रयोग भी करने पड़ेंगे । हमे साहस दिखाना होगा ।
    
एक प्रयोग ऐसा हो सकता है - कुछ शिक्षकों ने मिलकर एक विद्यालय शुरू करना । इस विद्यालय हेतु शासन की मान्यता नहीं माँगना । शासन की मान्यता नहीं होगी तो बोर्ड की परीक्षा भी नहीं होगी । प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा । नौकरी नहीं मिलेगी । इस प्रयोग के लिये नौकरी की चाह नहीं रखने वाले, प्रमाणपत्र की आकांक्षा नहीं रखने वाले साहसी मातापिताओं को इन शिक्षकों का साथ देना होगा। इस विद्यालयमें शिक्षित विद्यार्थी अच्छा अथर्जिन कर सकें ऐसी शिक्षा उन्हें देनी होगी । समझो, वे किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं तो उसे खरीद करने वाला ग्राहक वर्ग भी निर्माण करना होगा । यदि ऐसे विद्यालयों की संख्या बढ सके तो एक पर्याय निर्माण होने की सम्भावना बन सकती है । शिक्षा को स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है ।
 
एक प्रयोग ऐसा हो सकता है - कुछ शिक्षकों ने मिलकर एक विद्यालय शुरू करना । इस विद्यालय हेतु शासन की मान्यता नहीं माँगना । शासन की मान्यता नहीं होगी तो बोर्ड की परीक्षा भी नहीं होगी । प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा । नौकरी नहीं मिलेगी । इस प्रयोग के लिये नौकरी की चाह नहीं रखने वाले, प्रमाणपत्र की आकांक्षा नहीं रखने वाले साहसी मातापिताओं को इन शिक्षकों का साथ देना होगा। इस विद्यालयमें शिक्षित विद्यार्थी अच्छा अथर्जिन कर सकें ऐसी शिक्षा उन्हें देनी होगी । समझो, वे किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं तो उसे खरीद करने वाला ग्राहक वर्ग भी निर्माण करना होगा । यदि ऐसे विद्यालयों की संख्या बढ सके तो एक पर्याय निर्माण होने की सम्भावना बन सकती है । शिक्षा को स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है ।
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===== उपाय योजना =====
 
===== उपाय योजना =====
वास्तव में भारतीय शिक्षा अध्यात्मनिष्ठ होनी चाहिये, वर्तमान व्यवस्था उसे देहनिष्ठ बना देती है।
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वास्तव में धार्मिक शिक्षा अध्यात्मनिष्ठ होनी चाहिये, वर्तमान व्यवस्था उसे देहनिष्ठ बना देती है।
    
ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं । इनका विवरण अधिक अधिक करने के स्थान पर इसका उपाय क्या करना यही सोचना चाहिये।
 
ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं । इनका विवरण अधिक अधिक करने के स्थान पर इसका उपाय क्या करना यही सोचना चाहिये।
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प्रश्न यह है कि इसका क्या किया जाय ।  
 
प्रश्न यह है कि इसका क्या किया जाय ।  
 
* सर्वप्रथम शिक्षकों को अधिक विश्वसनीय बनना चाहिये । सारी समस्याओं की जड शिक्षक विश्वसनीय और दायित्व को समझने वाले नहीं रहे यह है ।  
 
* सर्वप्रथम शिक्षकों को अधिक विश्वसनीय बनना चाहिये । सारी समस्याओं की जड शिक्षक विश्वसनीय और दायित्व को समझने वाले नहीं रहे यह है ।  
* विश्वसनीय और दायित्वबोध से युक्त होने के बाद शिक्षकों को यान्त्रिकता यह प्रश्न क्या है, उसका स्वरूप कैसा है, उसके परिणाम कैसे हैं और भारतीय जीवनदृष्टि और भारतीय जनमानस के साथ यह कितना विसंगत है यह समझना होगा । यह शिशु से उच्चशिक्षा तक सर्वत्र व्याप्त प्रश्न है यह भी समझना होगा । अपने अपने स्तर पर इसके उपाय का विचार करना होगा ।  
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* विश्वसनीय और दायित्वबोध से युक्त होने के बाद शिक्षकों को यान्त्रिकता यह प्रश्न क्या है, उसका स्वरूप कैसा है, उसके परिणाम कैसे हैं और धार्मिक जीवनदृष्टि और धार्मिक जनमानस के साथ यह कितना विसंगत है यह समझना होगा । यह शिशु से उच्चशिक्षा तक सर्वत्र व्याप्त प्रश्न है यह भी समझना होगा । अपने अपने स्तर पर इसके उपाय का विचार करना होगा ।  
    
* विद्यालय की आन्तरिक व्यवस्थाओं का मामला प्रथम हाथ में लेना चाहिये । जो शिक्षकों के हाथ में है वह पहले करना चाहिये । उदाहरण के लिये समयसारिणी में परिवर्तन कर सकते हैं । विद्यालय के समय में भी परिवर्तन हो सकता है। गृहकार्य, पाठ्यपुस्तक से बाहर की शैक्षिक तथा अन्य गतिविधियाँ आदि में बदल कर सकते हैं। इनमें मौलिकता, सृजनशीलता, स्वतन्त्र बुद्धि का विकास आदि को अधिकाधिक अवसर दिया जा सकता है । धीरे धीरे इस विषय की चर्चा अभिभावकों के साथ करते हुए यथासम्भव परिवर्तन किया जा सकता है । उन्हें ही अपने बालक के मूल्यांकन का अवसर दिया जा सकता है, उसकी सम्भावनाओं की चर्चा की जा सकती है।
 
* विद्यालय की आन्तरिक व्यवस्थाओं का मामला प्रथम हाथ में लेना चाहिये । जो शिक्षकों के हाथ में है वह पहले करना चाहिये । उदाहरण के लिये समयसारिणी में परिवर्तन कर सकते हैं । विद्यालय के समय में भी परिवर्तन हो सकता है। गृहकार्य, पाठ्यपुस्तक से बाहर की शैक्षिक तथा अन्य गतिविधियाँ आदि में बदल कर सकते हैं। इनमें मौलिकता, सृजनशीलता, स्वतन्त्र बुद्धि का विकास आदि को अधिकाधिक अवसर दिया जा सकता है । धीरे धीरे इस विषय की चर्चा अभिभावकों के साथ करते हुए यथासम्भव परिवर्तन किया जा सकता है । उन्हें ही अपने बालक के मूल्यांकन का अवसर दिया जा सकता है, उसकी सम्भावनाओं की चर्चा की जा सकती है।
 
यह प्रश्न बहुत धीरे धीरे हल होने वाला प्रश्न है यह व्यवस्था का नहीं, समझ का प्रश्न है । समझ धीरे धीरे खुलती जाती है, विकसित होती जाती है।
 
यह प्रश्न बहुत धीरे धीरे हल होने वाला प्रश्न है यह व्यवस्था का नहीं, समझ का प्रश्न है । समझ धीरे धीरे खुलती जाती है, विकसित होती जाती है।
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यह केवल एक विद्यालय का विषय नहीं है। केवल प्राथमिक या उच्च शिक्षा का विषय नहीं है। देखा जाय तो सम्पूर्ण जीवन का विषय है। यह भारतीय और अधार्मिक जीवनदृष्टि का विषय है।
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यह केवल एक विद्यालय का विषय नहीं है। केवल प्राथमिक या उच्च शिक्षा का विषय नहीं है। देखा जाय तो सम्पूर्ण जीवन का विषय है। यह धार्मिक और अधार्मिक जीवनदृष्टि का विषय है।
    
परन्तु परिवर्तन का प्रारम्भ मूल से और बहुत छोटी बातों से किया जाता है । केवल चिन्तन के स्तर पर परिवर्तन होने से काम नहीं चलता, व्यवहार में होने की आवश्यकता होती है । तत्व कितना भी श्रेष्ठ हो, जब तक वह व्यवहार का रूप धारण नहीं करता, परिणामकारी नहीं होता ।
 
परन्तु परिवर्तन का प्रारम्भ मूल से और बहुत छोटी बातों से किया जाता है । केवल चिन्तन के स्तर पर परिवर्तन होने से काम नहीं चलता, व्यवहार में होने की आवश्यकता होती है । तत्व कितना भी श्रेष्ठ हो, जब तक वह व्यवहार का रूप धारण नहीं करता, परिणामकारी नहीं होता ।
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कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं:  
 
कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं:  
# संचालक, मुख्यध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक मिलकर विद्यालय परिवार बनता है । इस परिवार का मखिया मख्याध्यापक है यह बात सर्वस्वीकृत बनने की आवश्यकता है। वर्तमान में संचालक अपने आपको बड़े मानते हैं, संचालक मंडल का अध्यक्ष सबसे बड़ा माना जाता है और शिक्षकवृन्द, स्वयं मुख्याध्यापक भी इस व्यवस्था का स्वीकार कर लेते हैं।परन्तु यह मामला ठीक तो कर ही लेना चाहिये । भारतीय शिक्षा संकल्पना तो यह स्पष्ट कहती है कि शिक्षा शिक्षकाधीन होती है। यह केवल सिद्धान्त नहीं है, केवल प्राचीन व्यवस्था नहीं है, उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी व्यवस्था में हमारे विद्यालय चलते आये हैं ।
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# संचालक, मुख्यध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक मिलकर विद्यालय परिवार बनता है । इस परिवार का मखिया मख्याध्यापक है यह बात सर्वस्वीकृत बनने की आवश्यकता है। वर्तमान में संचालक अपने आपको बड़े मानते हैं, संचालक मंडल का अध्यक्ष सबसे बड़ा माना जाता है और शिक्षकवृन्द, स्वयं मुख्याध्यापक भी इस व्यवस्था का स्वीकार कर लेते हैं।परन्तु यह मामला ठीक तो कर ही लेना चाहिये । धार्मिक शिक्षा संकल्पना तो यह स्पष्ट कहती है कि शिक्षा शिक्षकाधीन होती है। यह केवल सिद्धान्त नहीं है, केवल प्राचीन व्यवस्था नहीं है, उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी व्यवस्था में हमारे विद्यालय चलते आये हैं ।
 
# अतः यह अभी अभी तक चलती रही हमारी दीर्घ परम्परा भी है। ब्रिटिशों ने इसे उल्टापुल्टा कर दिया । उसे अभी दो सौ वर्ष ही हुए हैं । हम बीच के दो सौ वर्ष लाँघकर अपनी परम्परा से चलें यह आवश्यक है । थोडा विचारशील बनने से यह हमारे लिये स्वाभाविक बन सकता है । अतः समस्त विद्यालय परिवार मुख्याध्यापक का आदर करे और आदरपूर्वक अभिवादन करे यह आवश्यक है। आदर दर्शाने का सम्बोधन क्या हो और अभिवादन के शब्द क्या हों यह विद्यालय अपनी पद्धति से निश्चित कर सकते हैं। अभिवादन की पद्धति क्या हो यह भी विद्यालय स्वतः निश्चित कर सकता है । परन्तु अंग्रेजी के सर या मैडम, गुड मोर्निंग, हलो, हस्तधूनन आदि न हों यही उचित है।
 
# अतः यह अभी अभी तक चलती रही हमारी दीर्घ परम्परा भी है। ब्रिटिशों ने इसे उल्टापुल्टा कर दिया । उसे अभी दो सौ वर्ष ही हुए हैं । हम बीच के दो सौ वर्ष लाँघकर अपनी परम्परा से चलें यह आवश्यक है । थोडा विचारशील बनने से यह हमारे लिये स्वाभाविक बन सकता है । अतः समस्त विद्यालय परिवार मुख्याध्यापक का आदर करे और आदरपूर्वक अभिवादन करे यह आवश्यक है। आदर दर्शाने का सम्बोधन क्या हो और अभिवादन के शब्द क्या हों यह विद्यालय अपनी पद्धति से निश्चित कर सकते हैं। अभिवादन की पद्धति क्या हो यह भी विद्यालय स्वतः निश्चित कर सकता है । परन्तु अंग्रेजी के सर या मैडम, गुड मोर्निंग, हलो, हस्तधूनन आदि न हों यही उचित है।
 
# शिक्षकों का आपस में सम्बोधन और अभिवादन के शब्द तथा पद्धति क्या हो यह भी विचारणीय है । यहाँ भी सर, मैडम, हाय, हलो, हस्तधनन अच्छा नहीं है।
 
# शिक्षकों का आपस में सम्बोधन और अभिवादन के शब्द तथा पद्धति क्या हो यह भी विचारणीय है । यहाँ भी सर, मैडम, हाय, हलो, हस्तधनन अच्छा नहीं है।
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विद्यालय परिसर में माँस, मदिरा, तम्बाकु आदि वस्तुओं को लेकर नहीं आना और उनका सेवन नहीं करना । परिसर के बाहर भी उनका सेवन नहीं करना ही अपेक्षित है।
 
विद्यालय परिसर में माँस, मदिरा, तम्बाकु आदि वस्तुओं को लेकर नहीं आना और उनका सेवन नहीं करना । परिसर के बाहर भी उनका सेवन नहीं करना ही अपेक्षित है।
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व्यक्तिगत जीवन और विद्यालय व्यवहार का क्या सम्बन्ध है ऐसा तर्क भारतीय मानसिकता तो नहीं करती । एक शिक्षक सर्वत्र शिक्षक है, एक विद्यार्थी सर्वत्र विद्यार्थी । इस दृष्टि से विद्यालय परिसर में शेअर बाजार, चुनाव, व्यवसाय आदि की मन्त्रणायें भी नहीं होना अपेक्षित है।
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व्यक्तिगत जीवन और विद्यालय व्यवहार का क्या सम्बन्ध है ऐसा तर्क धार्मिक मानसिकता तो नहीं करती । एक शिक्षक सर्वत्र शिक्षक है, एक विद्यार्थी सर्वत्र विद्यार्थी । इस दृष्टि से विद्यालय परिसर में शेअर बाजार, चुनाव, व्यवसाय आदि की मन्त्रणायें भी नहीं होना अपेक्षित है।
    
विद्यालय परिसर में अशिष्ट वेश धारण करके आना, अशिष्ट भाषा बोलना, झगडा करना भी निषिद्ध होना चाहिये । विद्यालय परिसर में कोलाहल करना, नारेबाजी करना आदि भी नहीं होना चाहिये।
 
विद्यालय परिसर में अशिष्ट वेश धारण करके आना, अशिष्ट भाषा बोलना, झगडा करना भी निषिद्ध होना चाहिये । विद्यालय परिसर में कोलाहल करना, नारेबाजी करना आदि भी नहीं होना चाहिये।
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===== विद्यालय एक परिवार है =====
 
===== विद्यालय एक परिवार है =====
विद्यालय परिवार के दो ही प्रमुख अंग हैं । एक है शिक्षक और दूसरा है विद्यार्थी । शिक्षाक्षेत्र की वर्तमान व्यवस्था में और दो पक्ष जुड गये हैं। ये हैं सरकार और संचालक । मूल भारतीय व्यवस्था में नियन्त्रण और संचालन करने की व्यवस्था विद्यालय के अन्तर्गत ही रहती थी, बाहर से किसी प्रकार का नियन्त्रण और नियमन नहीं होता था।
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विद्यालय परिवार के दो ही प्रमुख अंग हैं । एक है शिक्षक और दूसरा है विद्यार्थी । शिक्षाक्षेत्र की वर्तमान व्यवस्था में और दो पक्ष जुड गये हैं। ये हैं सरकार और संचालक । मूल धार्मिक व्यवस्था में नियन्त्रण और संचालन करने की व्यवस्था विद्यालय के अन्तर्गत ही रहती थी, बाहर से किसी प्रकार का नियन्त्रण और नियमन नहीं होता था।
    
विद्यालय यदि परिवार है तो उसका संचालन भी परिवार की ही रीतिनीति से होता है। परिवार संचालन के सूत्र हैं स्वतन्त्रता, स्वजिम्मेदारी और स्वपुरुषार्थ । परिवार का नियन्त्रण आन्तरिक व्यवस्था से ही होता है, परिवार चलाना परिवार के सभी सदस्यों की सामूहिक जिम्मेदारी है और अपनी क्षमता के अनुसार ही परिवार अपनी व्यवस्थायें चलाता है।
 
विद्यालय यदि परिवार है तो उसका संचालन भी परिवार की ही रीतिनीति से होता है। परिवार संचालन के सूत्र हैं स्वतन्त्रता, स्वजिम्मेदारी और स्वपुरुषार्थ । परिवार का नियन्त्रण आन्तरिक व्यवस्था से ही होता है, परिवार चलाना परिवार के सभी सदस्यों की सामूहिक जिम्मेदारी है और अपनी क्षमता के अनुसार ही परिवार अपनी व्यवस्थायें चलाता है।
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विद्यालय संचालन में भी शिक्षकों की मुख्य जिम्मेदारी होती है और विद्यार्थी उनके सहयोगी होते हैं। आज ऐसी व्यवस्था नहीं दिखाई देती । आज विद्यार्थी केवल लाभार्थी है, वे केवल पढने के लिये आते हैं । पढने हेतु वे शुल्क देते हैं इसलिये पढाई के अतिरिक्त कोई काम करना उन्हें अपना काम नहीं लगता । यदि पढाई के अलावा कुछ भी काम किया तो अभिभावकों को भी आपत्ति होती है ।
 
विद्यालय संचालन में भी शिक्षकों की मुख्य जिम्मेदारी होती है और विद्यार्थी उनके सहयोगी होते हैं। आज ऐसी व्यवस्था नहीं दिखाई देती । आज विद्यार्थी केवल लाभार्थी है, वे केवल पढने के लिये आते हैं । पढने हेतु वे शुल्क देते हैं इसलिये पढाई के अतिरिक्त कोई काम करना उन्हें अपना काम नहीं लगता । यदि पढाई के अलावा कुछ भी काम किया तो अभिभावकों को भी आपत्ति होती है ।
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परन्तु हमें विद्यालय के भारतीय स्वरूप का विचार करना है । उसके लिये वर्तमान स्वरूप में यदि परिवर्तन करने की आवश्यकता है तो वह कैसे हो सकता है इसका ही विचार करना चाहिये।
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परन्तु हमें विद्यालय के धार्मिक स्वरूप का विचार करना है । उसके लिये वर्तमान स्वरूप में यदि परिवर्तन करने की आवश्यकता है तो वह कैसे हो सकता है इसका ही विचार करना चाहिये।
    
वर्तमान में विद्यालय की आर्थिक व्यवस्था भी शिक्षकों के जिम्मे नहीं होती। वे केवल पढाने के लिये होते हैं । पढाने के लिये उन्हें वेतन मिलता है । विद्यालय की आर्थिक जिम्मेदारी संचालकों की अथवा सरकार की होती है । भवन, साधनसामग्री, फर्नीचर आदि सब उनकी जिम्मेदारी में है और उसका स्वामित्व भी उनका ही है।
 
वर्तमान में विद्यालय की आर्थिक व्यवस्था भी शिक्षकों के जिम्मे नहीं होती। वे केवल पढाने के लिये होते हैं । पढाने के लिये उन्हें वेतन मिलता है । विद्यालय की आर्थिक जिम्मेदारी संचालकों की अथवा सरकार की होती है । भवन, साधनसामग्री, फर्नीचर आदि सब उनकी जिम्मेदारी में है और उसका स्वामित्व भी उनका ही है।
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# हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पडे। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
 
# हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पडे। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
 
# विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व  कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
 
# विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व  कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
# किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब भारतीय होगी तब भारत की शिक्षा भारतीय होगी और शिक्षा जब भारतीय होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बड़े बड़े देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
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# किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब धार्मिक होगी तब भारत की शिक्षा धार्मिक होगी और शिक्षा जब धार्मिक होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बड़े बड़े देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
 
# विद्यार्थी की अपेक्षा शिक्षकों की मानसिकता अत्यन्त महत्व पूर्ण है। वेतन की अपेक्षा, अध्यापन का अत्यन्त संकुचित अर्थ और दायित्वबोध का अभाव समाज के अन्य घटकों की तरह शिक्षक समुदाय को भी ग्रस रहे हैं। वास्तव में शिक्षकों की भूमिका इसमें केन्द्रवर्ती है। उनका प्रबोधन, प्रशिक्षण और सज्जता बढाने के प्रभावी प्रयास करने होंगे।  
 
# विद्यार्थी की अपेक्षा शिक्षकों की मानसिकता अत्यन्त महत्व पूर्ण है। वेतन की अपेक्षा, अध्यापन का अत्यन्त संकुचित अर्थ और दायित्वबोध का अभाव समाज के अन्य घटकों की तरह शिक्षक समुदाय को भी ग्रस रहे हैं। वास्तव में शिक्षकों की भूमिका इसमें केन्द्रवर्ती है। उनका प्रबोधन, प्रशिक्षण और सज्जता बढाने के प्रभावी प्रयास करने होंगे।  
# यह कार्य त्वरित गति से तो नहीं होगा । धैर्यपूर्वक और निरन्तरतापूर्वक इस कार्य में लगे रहने की आवश्यकता है। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु यह करना अनिवार्य है यह निश्चित है।  
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# यह कार्य त्वरित गति से तो नहीं होगा । धैर्यपूर्वक और निरन्तरतापूर्वक इस कार्य में लगे रहने की आवश्यकता है। धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु यह करना अनिवार्य है यह निश्चित है।  
    
== विद्यालय और पूर्व छात्र ==
 
== विद्यालय और पूर्व छात्र ==
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===== विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी साँझी =====
 
===== विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी साँझी =====
बहुत बड़े महत्व  का विषय यह है कि भारतीय संकल्पना के अनुसार विद्यालय चलाने की ज़िम्मेदारी शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों की है। जिस प्रकार घर घर के लोग मिलकर चलाते हैं उसी प्रकार विद्यालय विद्यालय के लोग मिलकर चलाएंगे यह स्वाभाविक माना जाना चाहिए । विद्यालय चलाने के शैक्षिक और भौतिक ऐसे दो पक्ष होते हैं । विद्यालय में पढ़ना और पढ़ाना होता है। यह एक आयाम है। पढ़ने पढ़ाने की व्यवस्था के लिए स्थान, भवन, फर्नीचर, शैक्षिक सामग्री आदि की आवश्यकता होती है। अर्थात् विद्यालय चलाने के लिए अर्थव्यवस्था भी करनी होती है। ये दोनों कार्य विद्यालय के पूर्व छात्र करेंगे । कुछ बातें इस प्रकार सोची जा सकती हैं
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बहुत बड़े महत्व  का विषय यह है कि धार्मिक संकल्पना के अनुसार विद्यालय चलाने की ज़िम्मेदारी शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों की है। जिस प्रकार घर घर के लोग मिलकर चलाते हैं उसी प्रकार विद्यालय विद्यालय के लोग मिलकर चलाएंगे यह स्वाभाविक माना जाना चाहिए । विद्यालय चलाने के शैक्षिक और भौतिक ऐसे दो पक्ष होते हैं । विद्यालय में पढ़ना और पढ़ाना होता है। यह एक आयाम है। पढ़ने पढ़ाने की व्यवस्था के लिए स्थान, भवन, फर्नीचर, शैक्षिक सामग्री आदि की आवश्यकता होती है। अर्थात् विद्यालय चलाने के लिए अर्थव्यवस्था भी करनी होती है। ये दोनों कार्य विद्यालय के पूर्व छात्र करेंगे । कुछ बातें इस प्रकार सोची जा सकती हैं
    
जो विद्यार्थी अध्ययन में तेजस्वी हैं उन्हें विद्यालय में शिक्षक बनना चाहिए। शिक्षक बनकर पैसे कितने मिलते हैं यह स्वतन्त्र विषय है। हो सकता है कि न भी मिले या कम मिले । जिस प्रकार अच्छा वर या अच्छी वधू पाने के लिए गुण और कर्तृत्व देखे जाते हैं, रूप या पैसा नहीं उसी प्रकार ज्ञानदान का पवित्र और श्रेष्ठ कार्य करने का भाग्य मिलता है तो पैसे नहीं देखे जाते । अतः विद्यालय के लिए शिक्षकों की पीढ़ियाँ विद्यालय ही तैयार करेगा और वर्तमान विद्यार्थी ही भावी शिक्षक होंगे। इस दृष्टि से विद्यालय ने विद्यार्थियों का चयन करना होगा और विद्यार्थी तथा उनके अभिभावकों ने इस बात के लिए अपने आपको प्रस्तुत करना होगा। यह कार्य विद्यालय की आवश्यकता और विद्यार्थियों की क्षमता और सिद्धता के अनुसार होगा।  
 
जो विद्यार्थी अध्ययन में तेजस्वी हैं उन्हें विद्यालय में शिक्षक बनना चाहिए। शिक्षक बनकर पैसे कितने मिलते हैं यह स्वतन्त्र विषय है। हो सकता है कि न भी मिले या कम मिले । जिस प्रकार अच्छा वर या अच्छी वधू पाने के लिए गुण और कर्तृत्व देखे जाते हैं, रूप या पैसा नहीं उसी प्रकार ज्ञानदान का पवित्र और श्रेष्ठ कार्य करने का भाग्य मिलता है तो पैसे नहीं देखे जाते । अतः विद्यालय के लिए शिक्षकों की पीढ़ियाँ विद्यालय ही तैयार करेगा और वर्तमान विद्यार्थी ही भावी शिक्षक होंगे। इस दृष्टि से विद्यालय ने विद्यार्थियों का चयन करना होगा और विद्यार्थी तथा उनके अभिभावकों ने इस बात के लिए अपने आपको प्रस्तुत करना होगा। यह कार्य विद्यालय की आवश्यकता और विद्यार्थियों की क्षमता और सिद्धता के अनुसार होगा।  
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* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
 
* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
 
* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय शुरू करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके इसलिए बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से शुरू करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन शुरू करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन शुरू करेंगे।
 
* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय शुरू करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके इसलिए बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से शुरू करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन शुरू करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन शुरू करेंगे।
* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के भारतीय प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगों की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
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* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगों की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
 
* इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
 
* इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
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समाज को सुसंस्कृत बनाने का और संस्कृति के प्रवाह को निरन्तर प्रवाहित तथा शुद्ध रखने का कार्य विद्यालय कैसे करेगा ?
 
समाज को सुसंस्कृत बनाने का और संस्कृति के प्रवाह को निरन्तर प्रवाहित तथा शुद्ध रखने का कार्य विद्यालय कैसे करेगा ?
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व्यवस्थाओं को जीवनदृष्टि के अनुरूप बनाने हेतु विभिन्न शास्त्रों की रचना करना और सिखाना विद्यालय का प्रमुख कार्य है। सर्वे भवन्तु सुखिनः यह भारतीय जीवनदृष्टि है । इस दृष्टि के अनुरूप राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था आदि होनी चाहिये। इस दृष्टि से राजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि शास्त्रों की रचना करना विद्यालय का कार्य है । यह सही है कि यह अध्ययन, अनुसन्धान और ग्रन्थों के निर्माण का कार्य है और उच्चशिक्षा के केन्द्रों में होगा । परन्तु होगा तो विद्यालय में ही। इसके अध्यापन के माध्यम से विद्वान, दक्ष और कार्यकुशल लोग तैयार करने का काम भी विद्यालय को ही करना है। मंत्री हो या प्रशासक, सैनिक हो या जासूस, व्यापारी हो या उत्पादक शिक्षक हो या वैज्ञानिक, बाबू हो या मुकादम, ये सारे विद्यालय से ही अपनी अपनी विद्या सीखते हैं। इन सभी क्षेत्रों में यदि गडबड है तो यह विद्यालय की अधूरी या अनुचित शिक्षा का ही परिणाम माना जाना चाहिये । देश के कानून, विभिन्न प्रकार के तन्त्र, यदि ठीक नहीं हैं तो हम मान सकते हैं कि विद्यालय ने सही कानून, सही नीतियाँ, सही तन्त्र बनानेवाले लोग निर्माण नहीं किये हैं।
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व्यवस्थाओं को जीवनदृष्टि के अनुरूप बनाने हेतु विभिन्न शास्त्रों की रचना करना और सिखाना विद्यालय का प्रमुख कार्य है। सर्वे भवन्तु सुखिनः यह धार्मिक जीवनदृष्टि है । इस दृष्टि के अनुरूप राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था आदि होनी चाहिये। इस दृष्टि से राजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि शास्त्रों की रचना करना विद्यालय का कार्य है । यह सही है कि यह अध्ययन, अनुसन्धान और ग्रन्थों के निर्माण का कार्य है और उच्चशिक्षा के केन्द्रों में होगा । परन्तु होगा तो विद्यालय में ही। इसके अध्यापन के माध्यम से विद्वान, दक्ष और कार्यकुशल लोग तैयार करने का काम भी विद्यालय को ही करना है। मंत्री हो या प्रशासक, सैनिक हो या जासूस, व्यापारी हो या उत्पादक शिक्षक हो या वैज्ञानिक, बाबू हो या मुकादम, ये सारे विद्यालय से ही अपनी अपनी विद्या सीखते हैं। इन सभी क्षेत्रों में यदि गडबड है तो यह विद्यालय की अधूरी या अनुचित शिक्षा का ही परिणाम माना जाना चाहिये । देश के कानून, विभिन्न प्रकार के तन्त्र, यदि ठीक नहीं हैं तो हम मान सकते हैं कि विद्यालय ने सही कानून, सही नीतियाँ, सही तन्त्र बनानेवाले लोग निर्माण नहीं किये हैं।
    
समाज में हिंसा, चोरी, अनाचार, भ्रष्टाचार, असत्य, धोखाधडी आदि दिखाई देता है तो मानना चाहिये कि देश के विद्यालयों में (तथा परिवार में) सद्गुण और सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाती है, शिक्षकों की तथा संचालकों की नीयत ठीक नहीं है, मातापिता गैरजिम्मेदार हैं। विद्यालय को समाज के संस्कारों का भी रक्षक और नियामक होना चाहिये।
 
समाज में हिंसा, चोरी, अनाचार, भ्रष्टाचार, असत्य, धोखाधडी आदि दिखाई देता है तो मानना चाहिये कि देश के विद्यालयों में (तथा परिवार में) सद्गुण और सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाती है, शिक्षकों की तथा संचालकों की नीयत ठीक नहीं है, मातापिता गैरजिम्मेदार हैं। विद्यालय को समाज के संस्कारों का भी रक्षक और नियामक होना चाहिये।
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* प्राकृतिक या मानवनिर्मित आपत्तियों में सेवा कार्यों में जुटना, उनके लिये अर्थसंग्रह करना, विभिन्न प्रकार के अभियान चलाना विद्यालय का काम है। उदाहरण के लिये स्वदेशी जागरण अभियान, नवरात्रि सांस्कृतिकीकरण अभियान, सामाजिक समरसता अभियान आदि।
 
* प्राकृतिक या मानवनिर्मित आपत्तियों में सेवा कार्यों में जुटना, उनके लिये अर्थसंग्रह करना, विभिन्न प्रकार के अभियान चलाना विद्यालय का काम है। उदाहरण के लिये स्वदेशी जागरण अभियान, नवरात्रि सांस्कृतिकीकरण अभियान, सामाजिक समरसता अभियान आदि।
 
* वर्तमान में चले गाँव की ओर', भारत का ग्रामीणीकरण, गोरक्षा आन्दोलन, स्वतन्त्र उद्योगकरो, नौकरी छोडो, प्रबोधन कार्यक्रम ‘हाथ कुशल कारीगर' अभियान चलाने की आवश्यकता है।  
 
* वर्तमान में चले गाँव की ओर', भारत का ग्रामीणीकरण, गोरक्षा आन्दोलन, स्वतन्त्र उद्योगकरो, नौकरी छोडो, प्रबोधन कार्यक्रम ‘हाथ कुशल कारीगर' अभियान चलाने की आवश्यकता है।  
* 'भारतीयों, भारत में रहो, भारतीय बनो' भी अत्यन्त महत्व पूर्ण विषय है। वैसा ही महत्व पूर्ण विषय ‘परिवार प्रथम पाठशाला' है।
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* 'धार्मिकों, भारत में रहो, धार्मिक बनो' भी अत्यन्त महत्व पूर्ण विषय है। वैसा ही महत्व पूर्ण विषय ‘परिवार प्रथम पाठशाला' है।
 
* शिक्षा के क्षेत्र में ‘पाँच वर्ष से पहले विद्यालय नहीं' का विषय लेकर समाजप्रबोधन करने की आवश्यकता है।
 
* शिक्षा के क्षेत्र में ‘पाँच वर्ष से पहले विद्यालय नहीं' का विषय लेकर समाजप्रबोधन करने की आवश्यकता है।
 
इस प्रकार संस्कृति, धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में रक्षण, संवर्धन और शोधन का कार्य कर विद्यालय समाज को सुस्थिति में रखता है।विद्यालय का अर्थ है शिक्षक और विद्यार्थी । शिक्षकों के निर्देशन में शिक्षा और समाज का प्रबोधन दोनों काम साथ साथ चलते हैं । यह सब होता है इसलिये विद्यालयों को ‘सामाजिक चेतना के केन्द्र' कहा जाता है ।
 
इस प्रकार संस्कृति, धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में रक्षण, संवर्धन और शोधन का कार्य कर विद्यालय समाज को सुस्थिति में रखता है।विद्यालय का अर्थ है शिक्षक और विद्यार्थी । शिक्षकों के निर्देशन में शिक्षा और समाज का प्रबोधन दोनों काम साथ साथ चलते हैं । यह सब होता है इसलिये विद्यालयों को ‘सामाजिक चेतना के केन्द्र' कहा जाता है ।
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====== आवासीय विद्यालय - आज वे कैसे चलते हैं ? ======
 
====== आवासीय विद्यालय - आज वे कैसे चलते हैं ? ======
 
ये विद्यालय वास्तव में हमें प्राचीन गुरुकुलों का स्मरण करवाने वाले हैं, जहाँ पूर्ण समय विद्यार्थी अपने अध्यापकों के साथ रहते हैं। परन्तु गुरुकुल की सही संकल्पना ज्ञात न होने के कारण से आज वे उनसे भिन्न रूप में चलते हैं।
 
ये विद्यालय वास्तव में हमें प्राचीन गुरुकुलों का स्मरण करवाने वाले हैं, जहाँ पूर्ण समय विद्यार्थी अपने अध्यापकों के साथ रहते हैं। परन्तु गुरुकुल की सही संकल्पना ज्ञात न होने के कारण से आज वे उनसे भिन्न रूप में चलते हैं।
# इन विद्यालयों की दिनचर्या बहुत आदर्श मानी जाय ऐसी होती है। प्रातः जल्दी जगना, प्रातःप्रार्थना, योगाभ्यास, व्यायाम आदि करना, अल्पाहार और गृहपाठ करना, ग्यारह बजे विद्यालय जाना, बीच में भोजन की छुट्टी होना, पुनः विद्यालय जाना, सायंकाल मैदान में खेलना, सायंप्रार्थना करना, भोजन करना, स्वाध्याय या गृहपाठ करना और सो जाना यही दिनक्रम रहता है। रविवार को छुट्टी रहती है । उस दिन की दिनचर्या कुछ विशेष रहती है। अन्य विद्यालयों की तरह ही परीक्षायें और अवकाश रहते हैं जब विद्यार्थी घर जाते हैं । परन्तु इन विद्यालयों में भारतीय पद्धति से शिक्षा की अनेक सम्भावनायें हैं जिनका ज्ञान होने से उनको वास्तविक रूप दिया जा सकता है।
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# इन विद्यालयों की दिनचर्या बहुत आदर्श मानी जाय ऐसी होती है। प्रातः जल्दी जगना, प्रातःप्रार्थना, योगाभ्यास, व्यायाम आदि करना, अल्पाहार और गृहपाठ करना, ग्यारह बजे विद्यालय जाना, बीच में भोजन की छुट्टी होना, पुनः विद्यालय जाना, सायंकाल मैदान में खेलना, सायंप्रार्थना करना, भोजन करना, स्वाध्याय या गृहपाठ करना और सो जाना यही दिनक्रम रहता है। रविवार को छुट्टी रहती है । उस दिन की दिनचर्या कुछ विशेष रहती है। अन्य विद्यालयों की तरह ही परीक्षायें और अवकाश रहते हैं जब विद्यार्थी घर जाते हैं । परन्तु इन विद्यालयों में धार्मिक पद्धति से शिक्षा की अनेक सम्भावनायें हैं जिनका ज्ञान होने से उनको वास्तविक रूप दिया जा सकता है।
 
# ये चौबीस घण्टे के विद्यालय हैं। अर्थात् चौबीस घण्टे का जीवन ही शिक्षा का विषय है, वही पाठ्यक्रम है । इस बात को ध्यान में रखकर नियोजन किया जा सकता है। प्रातःकाल जगने से रात्रि को सोने तक की सारी बातें क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से सिखाई जा सकती हैं।
 
# ये चौबीस घण्टे के विद्यालय हैं। अर्थात् चौबीस घण्टे का जीवन ही शिक्षा का विषय है, वही पाठ्यक्रम है । इस बात को ध्यान में रखकर नियोजन किया जा सकता है। प्रातःकाल जगने से रात्रि को सोने तक की सारी बातें क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से सिखाई जा सकती हैं।
 
# इन विद्यालयों की दिनचर्या प्रकृति के नियमानुसार बनाई जा सकती है । उदाहरण के लिये सोने, जागने, भोजन करने, खेलने, पढने और विश्रान्ति का समय वैज्ञानिक पद्धति से निश्चित कर सकते हैं । दोपहर में भोजन का समय मध्याह्न से पूर्व, सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व, जगने का समय ब्राह्ममुहूर्त, अध्ययन का समय प्रातःकाल और सायंकाल आदि कर सकते हैं।
 
# इन विद्यालयों की दिनचर्या प्रकृति के नियमानुसार बनाई जा सकती है । उदाहरण के लिये सोने, जागने, भोजन करने, खेलने, पढने और विश्रान्ति का समय वैज्ञानिक पद्धति से निश्चित कर सकते हैं । दोपहर में भोजन का समय मध्याह्न से पूर्व, सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व, जगने का समय ब्राह्ममुहूर्त, अध्ययन का समय प्रातःकाल और सायंकाल आदि कर सकते हैं।

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