Difference between revisions of "विद्यालय का समाज में स्थान"

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=== अध्याय ११ ===
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{{One source}}
  
=== विद्यालय का समाज में स्थान ===
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== विद्यालय किसका ? ==
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प्रबन्धसमिति, शासन, प्रधानाचार्य, आचार्य, अन्य कर्मचारी, छात्र, अभिभावक<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व ३: अध्याय ११, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> :
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# इन सभी के विद्यालय के साथ के स्वस्थ सम्बन्धोंका व्यवहारिक स्वरूप कैसा होना चाहिये ?
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# इन सभी की आपसी सम्बन्ध की व्यावहारिक भूमिका कैसी होनी चाहिये ?
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# ऐसी कौन सी बातें हैं जो इन सभी को समान रूप से लागू होनी चाहिये ?
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# इन सभी में विद्यालय किस दृष्टि से किसका होता है?
  
==== विद्यालय किसका ? ====
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=== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ===
, प्रबन्धसमिति
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इस वैचारिक स्वरूप की प्रश्नावली पर गुजरात के आचार्यो ने अपने कुछ मत प्रकट किए।वास्तव में विद्यालय मे अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया में आचार्य और छात्रो के मध्य आंतरक्रिया चलती है; अतः इन दोनो का ही विद्यालय होता है। प्रबंध समिती, शासन, प्रधानाचार्य अन्य कर्मचारी अभिभावक ये पाँच घटक पूरक बनना चाहिये।विद्यालय का परिचय गुरु के ही नाम से होता है ऐसी परंपरा भारत मे रही है। वसिष्ठ, सांदिपनी, द्रोणाचार्य इनके गुरुकुल उनके ही नाम से पहचाने जाते थे। टैगोर जी का शान्तिनिकेतन, तिलक जी का न्यूइंग्लिश स्कूल, गांधीजी का बुनियादी विद्यालय रहा है। अतः आचार्य और छात्र दोनों का ही विद्यालय अभिप्रेत है।
  
२. शासन 2. इन सभी की आपसी सम्बन्ध की व्यावहारिक
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प्रबंध समिति भवन आदि व्यवस्था करे। आज शासन अनुदान द्वारा आचार्यों की वेतनपूर्ति, प्रधानाचार्य आचार्यों को शैक्षिक मार्गदर्शन, अन्य कर्मचारी प्रशासकीय व्यवस्थाएँ सम्भालना, अभिभावक विद्यालय की आपूर्ति करना, इसमे सहायक बने। परंतु आज प्रबंधन समिति एवं शासन अपना अधिकार जमाने का कार्य करते है। इन सब घटकों का व्यवहारिक स्वरूप के संदर्भ मे प्रबंध समिति एवं शासन विद्यालय के संरक्षक प्रधानाचार्य आचार्य एवं कर्मचारियों के मार्गदर्शक तथा शासन प्रबंध समिती और विद्यालय के मध्य सेतू के रूप में कार्य करे, अभिभावक का आचार्यों के साथ आत्मीय सबंध हो। विद्यालय मे श्रद्धा हो ऐसा मत प्रकट हुआ।
  
३. प्रधानाचार्य
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छात्र का विकास यह बात समान रूप से यह सभी को लागू चाहिये तथा सभी में घनिष्ठता होनी चाहिये।
  
४. आचार्य
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==== विमर्श ====
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विद्यालय किसका इस प्रश्न पर चर्चा करने से पूर्व हम जरा इस विषय पर भी विचार करें कि विद्यालय किसे कहते हैं। जिस प्रकार मकान घर नहीं होता है, मकान में रहने वाला परिवार घर होता है, उस प्रकार केवल मकान विद्यालय नहीं होता है, उसमें होनेवाले अध्ययन, अध्यापन के कारण, उसमें पढने वाले विद्यार्थी और पढ़ाने वाले अध्यापकों के कारण विद्यालय विद्यालय होता है।
  
५. अन्य कर्मचारी
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इस प्रकार तीन घटकों का मिलकर विद्यालय होता है। पहला: शिक्षा का कार्य अर्थात्‌ अध्ययन अध्यापन का कार्य, दूसरा: विद्यार्थी और शिक्षक तथा तीसरा: विद्यालय का भवन । इन तीनों के एक दूसरे से सम्बन्ध से ही विद्यालय विद्यालय बनता है। विद्यालय के भवन की बात आती है तब और एक घटक भी साथ जुड़ता है! वह है संचालक। साथ ही एक घटक और भी जुड़ता है!  वह है सरकार।
  
६. छात्र
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विद्यार्थी, शिक्षक, संचालक और सरकार इन चार घटकों में विद्यालय किसका होता है ?
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* विद्यार्थी कहेंगे कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हम उसमें पढते हैं।
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* शिक्षक कहेंगे कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हम उसमें पढाते हैं।
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* संचालक कहेंगे कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हमने उसे बनाया है।
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* सरकार कहेगी कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हमने उसे मान्यता दी है।
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इस प्रकार सब कहेंगे कि विद्यालय हमारा है। तो फिर वास्तव में विद्यालय किसका होता है ?
  
७. अभिभावक
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==== कसौटी क्या है ? ====
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किसी विद्यार्थी पर तथाकथित अन्याय होता है, अथवा विद्यार्थी संघकी कोई बात नहीं मानी जाती है तब विद्यार्थी आन्दोलन करते हैं, हडताल करते हैं, विरोध प्रदर्शन करते हैं। विरोध प्रदर्शन में पथराव होता है, फर्नीचर तोडा जाता है, विद्यालय को भारी नुकसान पहुँचता है। तब विद्यालय किसका होता है ? क्या विद्यार्थियों का होता है ? यदि वह विद्यार्थियों का है तो उसे नुकसान कैसे पहुँचाया जा सकता है ?
  
से लागू होनी चाहिये ?
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बडे विद्यार्थियों की ही बात क्यों करें ? छोटे विद्यार्थी बेन्च और डेस्क पर कुछ लिखते हैं, पंखों के पंख मरोडते हैं, स्वीचों को तोडते हैं, दीवारों को गन्दा करते हैं, कूडा कहीं पर भी फैंकते हैं तब विद्यालय किसका होता है ? विद्यालय के भवन को यदि आग लग जाय तो किसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ?
  
इन सभी के विद्यालय के साथ के स्वस्थ सम्बन्धों
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विद्यार्थी का कोई नुकसान नहीं होता, उन्हें दुःख नहीं होता, न वे नुकसान भरपाई के लिये कुछ भी करते हैं।शिक्षकों को कोई दुःख नहीं होगा । उल्टे दो तीन दिन की छुट्टी होने की खुशी ही होगी।संचालकों का क्या होगा ? यदि भवन की मालिकी किसी एक व्यक्ति की है तो उसे चिन्ता होगी, यदि ट्रस्ट की है तो भागदौड की परेशानी होगी अन्यथा कोई दुःख नहीं होगा क्योंकि वह समाज के पैसे से बना है इसलिये समाज का नुकसान होगा।
  
का व्यवहारिक स्वरूप कैसा होना चाहिये ?
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सरकार को तो दुःख होने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि सरकार किसी व्यक्ति की नहीं बनती, वह एक व्यवस्था है, एक तन्त्र है व्यवस्था में भावना नहीं होती।यह तो विद्यालय के भवन की बात हुई। यह तो केवल भौतिक पदार्थ है।
  
रे,
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परन्तु विद्यालय में किसी विद्यार्थी ने किसी लडकी पर बलात्कार किया, या विद्यालय के विद्यार्थी परीक्षा में नकल करते पकडे गये या विद्यालय के शिक्षक परीक्षा में भ्रष्टाचार करते पकडे गये तो विद्यार्थी, शिक्षक, संचालक और सरकार की क्या प्रतिक्रिया होगी ? या विद्यालय में अच्छी पढाई नहीं होती ऐसा बोला जाता है तब किसकी क्या प्रतिक्रिया होती है ?सरकारी विद्यालयों के व्यवस्थातन्त्र के बारे में, शिक्षकों के बारे में खूब आलोचना होती है तब सरकार और शिक्षकों की क्या प्रतिक्रिया होती है ?
  
इन सभी में विद्यालय किस दृष्टि से किसका होता
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देखा यह जाता है कि इन चारों में से किसी भी वर्ग का विद्यालय के साथ कोई भावनात्मक सम्बन्ध नहीं होता । सबका अपने अपने स्वार्थ से प्रेरित सम्बन्ध होता है और अपने स्वार्थ की पूर्ति होने पर समाप्त हो जाता है।
  
है?
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विद्यार्थी अपनी पढाई हेतु विद्यालय से जुडा है, विद्यालय के भवन से, व्यवस्थातन्त्र से, नीतिनियमों से उसका कोई लेना देना नहीं है। पढाई के कार्य में भी प्रत्यक्ष ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं, परीक्षा के परिणाम के साथ ही सम्बन्ध है। इसलिये परीक्षा समाप्त होते ही अध्ययन से, अध्यापकों से, विद्यालय की व्यवस्था से, विद्यालय की रीतिनीति से उसका सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के अलावा उसे और कुछ नहीं करना है । इसलिये विद्यालय के भवन को आग लगे, या शिक्षकों पर कोई आरोप लगे या विद्यालय की प्रतिष्ठा दांव पर लगे उसका कोई नुकसान नहीं होता। यह हकीकत बताती है कि विद्यालय विद्यार्थियों का तो नहीं है। वे विद्यालयके लिये कुछ भी नहीं करेंगे।
  
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शिक्षकों का भाव कैसा है ? हम सरकार के अथवा संचालकों के विद्यालय में नौकरी करते हैं। वेतन के बदले में पढाना हमारा काम है। पढाने के सम्बन्ध में जो नियम कानून हैं उनको हम मानेंगे, उनका पालन करेंगे । पढाने के सम्बन्ध में हमारे जो अधिकार हैं वे माँगेंगे। विद्यालय का समय पूरा हुआ हमारा काम भी पूरा हुआ। शेष समय हमारा है। उस शेष समय में विद्यालय का विचार करने की हमारी जिम्मेदारी नहीं।
  
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
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संचालक कहते हैं कि विद्यालय के भवन की मालिकी हमारी है, हमने शिक्षकों को नियुक्त किया है, हमने विद्यर्थियों को प्रवेश दिया है इसलिये हमारा अधिकार है परन्तु पढाने का काम हमारा नहीं है, उसकी जिम्मेदारी हमारी नहीं है। अध्ययन विषयक, विद्यार्थियों के चरित्र विषयक कोई अनहोनी होती है तो उसकी जिम्मेदारी शिक्षकों और अभिभावकों की है । हम उनके विरुद्ध कार्यवाही करेंगे, उन्हें दण्ड देंगे।
  
प्रश्नावली से पाप्त उत्तर
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परन्तु इससे आगे बात नहीं बढती।
  
इस वैचारिक स्वरूप की प्रश्नावली पर गुजरात के
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सरकार की तो कोई भूमिका बनती ही नहीं है।
  
आचार्यो ने अपने कुछ मत प्रकट किए ।
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शिक्षा संस्थाओं को लेकर चित्र आज ऐसा है। विद्यालय के भवन की मालिकी संचालकों की इसलिये उनका मालिकयत का सम्बन्ध, सरकार का नियन्त्रक के नाते सम्बन्ध. शिक्षकों का अपने वेतन का सम्बन्ध और विद्यार्थियों का अपनी परीक्षा से सम्बन्ध। इसमें विद्या कहाँ है ? विद्या की प्रतिष्ठा कहाँ है ? विद्या की साधना का तो प्रश्न ही नहीं है। ज्ञानसाधना का मिशन होने की सम्भावना ही नहीं है।
  
वास्तव में विद्यालय मे अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया में
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देश में अनेक विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय हैं जहाँ अध्ययन - अध्यापन अच्छा होता है और ज्ञानसाधना भी होती है परन्तु वह व्यक्तियों के कारण से होता है. व्यवस्था के कारण से नहीं। भले ही व्यक्तियों के कारण हो, उसका लाभ अवश्य होता है। परन्तु यह अपवाद रूप स्थिति है। सार्वत्रिक स्थिति तो सरोकार विहीनता की ही है।
  
आचार्य और छात्रो के बीच आंतरक्रिया चलती है; अतः इन
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==== इस का उपाय क्या है ? ====
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शिक्षाक्षेत्र में नौकरी की व्यवस्था जब तक समाप्त नहीं होती तब तक परिस्थिति में सुधार नहीं हो सकता। घर में कोई नौकरी नहीं करता, काम सब करते हैं। घर में रहने का घर के सभी सदस्यों को जन्मसिद्ध अधिकार है। घर सबका है और सेवा करना ही सबका धर्म है। एकदूसरे के लिये सब काम करते हैं। घर की प्रतिष्ठा सबकी चिन्ता का विषय है। घर की बदनामी सबकी बदनामी है। मातापिता सन्तानों के लिये और सन्ताने मातापिता के लिये जीते हैं। तभी वह परिवार है । परिवार भावना, व्यवस्था और सम्बन्धों से बनता है। तीनों बातें एक ही स्थान पर केन्द्रित हुई है।
  
दोनो का ही विद्यालय होता है । प्रबंध समिती, शासन,
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विद्यालय भी परिवार बनना चाहिये, तभी वह धार्मिक संकल्पना का विद्यालय बनेगा। व्यवस्था, नियन्त्रण, कार्य जब भिन्न भिन्न स्थानों पर केन्द्रित होंगे तब वह एकसंध परिवार नहीं बनेगा। वर्तमान व्यवस्था ही ऐसी बनी है जहाँ विद्यालय परिवार बनने की सम्भावना नहीं है। विद्यालय को परिवार मानने के लिये शिक्षकों और विद्यार्थियों का प्रबोधन करने की भावनात्मक बातें बहुत की जाती हैं परन्तु परिणाम दिखाई नहीं देता क्योंकि परिवार बनने के लिये जो एकसंघ व्यवस्था चाहिये उसकी हम बात नहीं करते। व्यवस्था विशृंखलता की और अनेक केन्द्री स्वार्थों की और भावना परिवार की ऐसी दो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।
  
प्रधानाचार्य अन्य कर्मचारी अभिभावक ये पाँच घटक पूरक
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शिक्षक केन्द्रित विद्यालय ही इसका सही और परिणामकारी उपाय है। इस व्यवस्था के लिये शिक्षकों को सिद्ध और समर्थ बनना होगा तथा संचालकों और सरकार को अनुकूल। शिक्षकाधीन शिक्षा इसका सार्थक सूत्र है।
  
बनना चाहिये ।
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== विद्यालय का शैक्षिक भ्रमण कार्यक्रम ==
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# शैक्षिक भ्रमण का अर्थ क्या है ?
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# भ्रमण के लिये स्थान का चयन किस प्रकार से करना चाहिये ?
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# भ्रमण के समय शैक्षिक व्यवहार कैसा होता है ?
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# भ्रमण के समय छात्र एवं आचायों के व्यवहार के सम्बन्ध में किन किन बातों पर विचार करना चाहिये ?
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# यदि भ्रमण शैक्षिक है तो वह सभी छात्रों के लिये होना चाहिये । इसकी व्यवस्था कैसे कर सकते हैं?
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# भ्रमण की आर्थिक व्यवस्था के सम्बन्ध में क्या विचार करना चाहिये ?
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# शैक्षिक भ्रमण का पाठ्यक्रम के साथ क्या सम्बन्ध है ?
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# भ्रमण की पूर्वतैयारी एवं भ्रमण का अनुवर्ती कार्य - ये दोनों कैसे होते हैं ?
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# भ्रमण के माध्यम से सांस्कृतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय विकास किस प्रकार से होता है ?
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# भ्रमण के माध्यम से व्यावहारिक ज्ञान का विकास किस प्रकार से होता है ?
  
विद्यालय का परिचय गुरु के ही नाम से होता है ऐसी
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==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
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विद्याभारती केवल प्रान्त के कृष्णदासजीने प्रान्त के आचार्य प्रश्नावली भरवायी है। भाषा की समस्या के कारण प्रश्न और उत्तर समझने में दोनो तरफ से कठिनाई अनुभव हुई। तथापि उत्साह से यह कार्य किया गया अतः चर्चा के माध्यम से जो समझ में आया उसे अभिमत मे स्थान दिया है। आचार्य एवं अभिभावकों ने इस प्रश्नावली के संबंध मे कुछ विचार किया है। निसर्ग समृद्ध भूमि का जिन्हें प्रत्यक्ष अनुभव है। अतः निसर्ग के साथ रहने हेतू भ्रमण (ट्रिप) योजना करना यही विचार प्रधान मानकर प्रश्नावली के उत्तर लिखे गये। भ्रमण के लिए अच्छे स्थान एवं उनके नाम बताए गये। भ्रमण समय में कौन सी सावधानीयाँ रखना इसका भी विचार हुआ परन्तु भ्रमण के साथ शैक्षिक बातों का विचार बहुत कम रहा।
  
परंपरा भारत मे रही है । वसिष्ठ, सांदिपनी, द्रोणाचार्य इनके
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अत्यंत विचारपूर्ण और गहराई मे विचार करने वाली यह दस प्रश्नों की प्रश्नावली थी। देखना और निरीक्षण करना दोनों भी दृश्येंद्रिय से की जानेवाली क्रियाएँ हैं। देखना आँखोंसे होता है परंतु निरीक्षण मे आँखों के साथ मन और बुद्धी भी जुड़ते हैं। उसी प्रकार भ्रमण और शैक्षिक भ्रमण में भी अंतर है। आज विद्यालयों में भ्रमण कार्यक्रम का अर्थ भ्रमण इतना ही किया जाता है।
  
गुरुकुल उनके ही नाम से पहचाने जाते थे । टेगोरजी का
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==== अभिमत ====
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भ्रमण अर्थात् घूमना। शैक्षिक भ्रमण अर्थात् कुछ जानने समझने के लिए घूमना।
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# उस दृष्टि से गाँव का साप्ताहिक बाजार, मेले, प्राचीन मन्दिर, अखाड़े, प्रेक्षणीय स्थान, जंगल, उद्याने, उपवन, बाँध, पर्वतारोहण, नदीकिनारा, समुद्रकिनारा, म्युझियम, कारखाने, गोशाला, फसल से भरी खेती, फल के बगीचे, निसर्गरम्य स्थान, प्रपात, गरमपानी के झरने इत्यादि प्रकार के स्थान शैक्षिक भ्रमण के लिए होने चाहिये।
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# जहाँ जाना वहाँ क्या देखना, किससे मिलना, कैसी पूछताछ करना, उसकी विस्तृत चर्चा शिक्षकों ने विद्यार्थियों के साथ करनी चाहिये।
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# भ्रमण के समय अध्यापक और छात्र दोनों में समवयस्क जैसा व्यवहार हो परंतु अनुशासन, और आदरभाव भी होना आवश्यक है।
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# भ्रमण शैक्षिक होने के कारण सब विद्यार्थियों की सहभागिता अवश्य हो। क्षेत्रभेंट करनेके लिए छात्रों की टोली बने ये टोलियाँ ३-४ स्थानों पर अलग अलग जाये। दूसरे दिन सब छात्र मिलकर चर्चा में सम्मिलित हों इस प्रकार का आयोजन करना चाहिये। भ्रमण खर्च सब कर सके ऐसा ही हो कभी कभी खर्चिले भ्रमण मे ऐच्छिकता से सम्मिलित होने का प्रावधान किया जाता है ऐसा न हो। ऐसा भ्रमण शैक्षिक नहीं होता है, मात्र मनोरंजन को दिया गया व्यावसायिक रूप ही है।
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शैक्षिक भ्रमण से इतिहास भूगोल समाजविज्ञान आदि विषयों का अध्ययन होता है। भ्रमण से पूर्व योग्य सूचनाएँ सावधानी एवं पूर्वजानकारी (स्थान संदर्भ में) और वापसी के बाद उस विषय में चर्चा लेखन प्रश्नावलियाँ तैयार करना आदि अवश्य करें।
  
शान्तिनिकेतन, तिलक जी का न्यूइंग्लिश स्कूल, गांधीजी का
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कुंभ मेला, वेदपाठशाला आदि स्थानों में जाकर संस्कृति परिचय होता है। सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास होता है। पूर्व के जमाने में संतवृन्द, शंकराचार्य पैदल यात्रा करते थे। उन्हें देशकाल परिस्थिति का आकलन होता था। वह शैक्षिक भ्रमण था। आज वह तत्व ध्यान में रखकर परिस्थिति एवं छात्रों की आयु क्षमता ध्यान में लेते हुए योग्य परिवर्तन करके विद्यालयों ने शैक्षिक भ्रमण की योजना बनानी चाहिये।
  
बुनियादी विद्यालय रहा है । इसलिए आचार्य और छात्र
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==== विमर्श ====
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===== शैक्षिक भ्रमण सम्बन्धी विचारणीय मुद्दे =====
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आज हमने सभी बातों को उल्टा कर दिया है। उसमें भ्रमण का भी विषय समाविष्ट है। जरा इन मुद्दों पर विचार करें...
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# शैक्षिक भ्रमण में से शैक्षिक शब्द छूट गया है, विस्मृत हो गया है। उसका कोई प्रयोजन नहीं रहा। अब केवल भ्रमण ही रह गया है जिसका उद्देश्य शैक्षिक नहीं है, मनोरंजन है, मजा करना है।
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# औपचारिकता के लिये अभी भी यह शैक्षिक भ्रमण है। भ्रमण यदि शैक्षिक है तो रेलवे की ओर से ५० प्रतिशत किराया कम हो जाता है, दस विद्यार्थियों पर एक शिक्षक की निःशुल्क यात्रा होती है। इसलिये सरकारी एवं विद्यालय के कार्यालयमें और रेलवे या अन्य यातायात के लिये यह शैक्षिक भ्रमण है, विद्यर्थियों और शिक्षकों - भ्रमण हेतु जाने वालों - के लिये यह मनोरंजन यात्रा है।
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# सबसे पहले यह दुविधा दूर करनी चाहिये। यह दुविधा अप्रामाणिकता है, दम्भ है, झूठ बोलकर लाभ लेने की वृत्ति प्रवृत्ति है। विद्यार्थियों पर इससे भ्रष्टाचार के संस्कार होते हैं।
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# विद्यार्थियों, अभिभावकों और शिक्षकों में शैक्षिक भ्रमण' शब्द परिचित, प्रचलित और प्रतिष्ठित करना चाहिये और विद्यार्थियों को शैक्षिक भ्रमण का अर्थ और उद्देश्य समझाना चाहिये।
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# इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, संस्कृति आदि विषयों के साथ भ्रमण कार्यक्रम को जाड़ना चाहिये। भिन्न भिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रम के साथ उसे जोड़ना चाहिये। कक्षा और विषय के अनुसार विभिन्न गट बनाने चाहिये। गट में एक साथ कम संख्या होनी चाहिये ताकि व्यवस्था ठीक बनी रहे।
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# जब ठीक से प्रबोधन नहीं किया जाता है तब जहाँ जाते हैं उस दर्शनीय स्थान के दर्शन और अवलोकन तो एक और रह जाते हैं और यात्रा के दौरान का दंगा, खान पान, वेश और फैशन, फोटो सेशन, खरीदी आदि मुख्य बातें बन जाती हैं। विद्यार्थियों और शिक्षकों की इस मानसिकता का उपचार करने की आवश्यकता है। शिक्षकों का उपचार शिक्षाशास्त्रियों ने और विद्यार्थीयों का उपचार शिक्षकों ने करना चाहिये।
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# शैक्षिक भ्रमण देशदर्शन और संस्कृति दर्शन हेतु होता है, इतिहास दर्शन हेतु भी होता है।
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# अपने ही नगर का भूगोल और दर्शनीय स्थान देखने से भ्रमण कार्यक्रम की शुरुआत होती है। आगे चलकर अपना जिला, अपना राज्य और अपने देश का भ्रमण करना चाहिये।
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# कुछ उदाहरण देखें:
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## कक्षा में यदि शिवाजी महाराज का इतिहास पढ़ना है तो दो प्रकार से भ्रमण गट बन सकते हैं। एक गट महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज के गढ़ और किले देखने के लिये और दसरा गट आगरा और दिल्ली के किले, जहाँ शिवाजी महाराज को औरंगजेबने कैद में रखा था और मिठाई की टोकरियों में बैठकर पुत्र के साथ वे कैद से भागकर वापस अपनी राजधानी रायगढ़ पहुंचे थे।
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## संस्कृति विषय में बारह ज्योतिर्लिंग और चार धाम का वर्णन आता है। वहाँ जाकर उन्हें देखने की योजना बनानी चाहिये।
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## दिल्ली का लोहस्तम्भ, अजंता की चित्रावलि, कैलास मन्दिर, वाराणसी की वेधशाला के अवशेष आदि भारत की कारीगरी के नमूने हैं, गौरवबिन्दु हैं। उन्हें देखने की योजना बना सकते हैं।
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# इस प्रकार विशिष्ट उद्देश्यों को लेकर भ्रमण की योजना बनानी चाहिये। परन्तु भ्रमण हेतु जाने से पहले और आने के बाद बहुत सारी शैक्षिक गतिविधियों को भ्रमण के साथ जोड़ना आवश्यक है।
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# भ्रमण में जाने से पूर्व स्थानों की पूरी जानकारी, यात्रा का उद्देश्य, वहाँ जाकर करने के काम, वापस आकर देने के वृत्त हेतु करने के कार्य की जानकारी देनी चाहिये।
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# यात्रा के दौरान जिन आचारों का पालन करना है उस सम्बन्ध में उचित पद्धति से विद्यार्थियों का प्रबोधन करना चाहिये। यह बात बहुत कठिन है क्योंकि भ्रमण के साथ विद्यार्थियों की उन्मुक्तता की वृत्ति जुड़ी हुई होती है। दैनन्दिन जीवन में भी उनकी अभिमुखता शिक्षा, संस्कृति, देश आदि की ओर बनाना कठिन हो जाता है। सारा विद्यार्थीजगत भ्रमण की ओर मनोरंजन की दृष्टि से देखता है तब एक विद्यालय के विद्यार्थियों को यात्रा के दौरान शिष्ट व्यवहार करने को कहना कठिन ही होता है तथापि कुछ विद्यालयों के उदाहरण ऐसे भी हैं जो इस बात को सम्भव बनाते हैं। उनके अनुभव से हम कह सकते हैं कि यह कार्य कठिन अवश्य होगा, असम्भव नहीं है।
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# भ्रमण के दौरान लेखन पुस्तिका में अनुभव लिखकर स्मृति में रखने लायक स्थानों के छायाचित्र लेना, सम्बन्धित लोगोंं के साथ वार्तालाप करना, वहाँ यदि कोई गाइड है तो उसे प्रश्न पूछना आदि बातों में शिक्षकों ने विद्यार्थीयों का मार्गदर्शन और सहायता करनी चाहिये। एक स्थान पर बार बार जाना होता नहीं है अतः पूर्ण रूप से अनुभव लेना आवश्यक है।
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# वापस आने के बाद अनुभव कथन और लेखन, वृत्त-कथन और लेखन, छायाचित्रों की प्रदर्शनी आदि कार्यक्रम करने चाहिये। अपना किस विषय के साथ कैसा सम्बन्ध जुड़ा यह भी समझाना चाहिये।
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# शैक्षिक भ्रमण यह क्रियात्मक शिक्षण ही है। शिक्षण में यदि आनन्द आता है तो यह विशेष लाभ है। यह आनन्द शैक्षिक है तो और भी लाभ है। आनन्द जानकारी की तरह बाहर से हृदय में नहीं डाला जाता, वह अन्दर जन्मता है और बाहर प्रकट होता है। ऐसे आनन्द का अनुभव आता है तो भ्रमण कार्यक्रम सार्थक हुआ यह कह सकते हैं। शिक्षकों को इस दिशा में प्रयास करना चाहिये।
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# आजकल कुछ इण्टरनेशनल विद्यालय विद्यार्थियों को विदेश यात्रा के लिये ले जाते हैं। विदेशयात्रा यह शैक्षिक विषय नहीं है, विद्यालय में प्रवेश हेतु आकर्षण का इनका उदाहरण अनेकों को अनुकरण आकर्षण का इनका उदाहरण अनेकों को अनुकरण की प्रेरणा देता है। फिर विद्यालयों में स्पर्धा होने लगती है। स्पर्धा के अनेक क्षेत्र खुल जाते हैं और शैक्षिक उद्देश्य उपेक्षित हो जाते हैं।
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# शैक्षिक भ्रमण को हम अध्ययन यात्रा का नाम भी दे सकते हैं। देश के अनेक भूषण रूप विद्वान, वैज्ञानिक, कारीगर, कलाकार आदि से भेंट कर उनके साथ वार्तालाप करना अध्ययन यात्रा का उद्देश्य हो सकता है। उदाहरण के लिये परम संगणक के जनक डॉ. विजय भटकर, महान वैज्ञानिक डॉ. रघुनाथ माशेलकर, वाराणसी के शास्त्री लक्ष्मण शास्त्री द्रविड, प्रसिद्ध सन्त मोरारी बापू, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प. पू. सरसंघचालक मोहनजी भागवत, पू. रामदेव महाराज, दक्षिण की अम्मा माता अमृतानन्दमयी आदि अनेक महानुभाव हैं जो विद्यार्थियों के आदर्श बन सकते हैं और जिनसे मिलना विशिष्ट अनुभव हो सकता है। ये तो कुछ संकेत मात्र हैं। भारत तो ऐसे महापुरुषों की खान है।
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इसी प्रकार से अनेक सेवा प्रकल्प, निर्माण प्रकल्प, शिक्षा प्रकल्प चलते हैं जिन की भेंट करना ज्ञान में वृद्धि करना है।
  
दोनों का ही विद्यालय अभिप्रेत है ।
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===== दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता =====
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शैक्षिक दृष्टि से यदि विचार करने लगें तो शैक्षिक। भ्रमण के विषय में हम अनेक नई बातें सोच सकते हैं। केवल दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा के ठहरे हुए पानी को प्रवाहित करने से सडाँध दूर होगी और शैक्षिक गतिविधियाँ परिष्कृत होंगी।
  
प्रबंध समिति भवन आदि व्यवस्था करे । आज शासन
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देश में कुछ जाने और जानने योग्य स्थान
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# पुनर्रचित नालन्दा विश्वविद्यालय
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# पोखरण जहाँ १९९८ में अणुपरीक्षण हुआ था ।
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# कालडी, केरल जो भगवान शंकराचार्य का जन्मस्थान है।
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# बासर, आन्ध्रप्रदेश का सरस्वती मन्दिर जो भगवान वेदव्यास द्वारा निर्मित है। 
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# कानपुर के पास बिठूर जो झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्मस्थान है और जहाँ तात्या टोपे का घर है।
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# हम्पी, कर्नाटक जो विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी।
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# सम्पूर्ण बाम्बू केन्द्र, लवादा, महाराष्ट्र जहाँ बाम्बू तथा अन्य कारीगरी के गुरुकुल हैं ।  
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# बेरफूट युनिवर्सिटी, जयपुर जहाँ जिन्हें लिखना पढ़ना नहीं आता ऐसी महिलायें कम्प्यूटर का काम करती
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# कुरुक्षेत्र, हरियाणा जहाँ महाभारत का युद्ध हुआ था और भगवान श्रीकृष्णने गीता का उपदेश दिया था।
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# नैमिषारण्य, उत्तर प्रदेश जहाँ आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व ८८,००० ऋषि एकत्रित हुए थे और बारह वर्ष तक ज्ञानयज्ञ किया था।
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# विवेकानन्द शिला स्मारक, कन्याकुमारी जहाँ बैठकर स्वामीजीने तीन दिन ध्यान किया था।
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# जगन्नाथपुरी, उडीसा जहाँ भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकलती है।
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# कामाख्या मन्दिर, असम जहाँ देवी कामाख्या शक्तिपीठ है।
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# हिमालय में रोहतांग पास जहाँ से व्यास (बियास) नदी निकलती है और जहाँ बैठकर भगवान वेदव्यास ने गणेशजी को महाभारत लिखवाया था।
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# आदि बद्री, हरियाणा जो भारत की महान नदी सरस्वती का उद्गम स्थान है।
  
अनुदान द्वारा आचार्यों की बेतनपूर्ति , प्रधानाचार्य आचार्यों को
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== विद्यालय में सांस्कृतिक गतिविधियाँ ==
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# संस्कृति का अर्थ क्या है ?
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# सांस्कृतिक गतिविधियाँ किसे कहते हैं ?
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# विद्यालय में दैनन्दिन स्वरूप की सांस्कृतिक गतिविधियाँ कौन कौन सी होती हैं ?
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# विद्यालय में समय समय पर होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियाँ कौन सी हैं ?
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# सांस्कृतिक गतिविधियों में कभी कभी सांस्कृतिक दृष्टिकोण बनाये रखना कठिन होता है। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा न हो इसलिये क्या करें ?
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# सांस्कृतिक गतिविधियों का शैक्षिक कार्य के साथ सम्बन्ध किस प्रकार से बिठाया जा सकता है ?
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# आज की वैश्विक समस्यायें एवं विद्यालय की सांस्कृतिक गतिविधियाँ - इन दो में सामंजस्य कैसे बिठा सकते हैं ?
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# सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ छात्र के परिवार एवं सम्पूर्ण समाज का सम्बन्ध कैसे बिठा सकते हैं ?
  
शैक्षिक मार्गदर्शन, अन्य कर्मचारी प्रशासकीय व्यवस्थाएँ
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==== विमर्श ====
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जब से भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व स्थापित हुआ है तब से विचार के क्षेत्र में घालमेल आरम्भ हो गया है। इसमें बहुत बड़ी भूमिका अनुवाद की है। धार्मिक भाषाओं के संकल्पनात्मक शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद इसके खास उदाहरण हैं। उदाहरण के लिये 'धर्म' का अनुवाद ‘रिलीजन' और 'संस्कृति' का अनुवाद 'कल्चर' किया जाता है। यदि केवल अनुवाद तक ही बात सीमित रहती है तब बहत चिन्ता की बात नहीं रहती है। यदि अंग्रेजी भाषी लोग ‘संस्कृति' को 'कल्चर' के रूप में और 'धर्म' को ‘रिलीजन' के रूप में समझते हैं तब सीमित समझ उनकी ही समस्या बनेगी । परन्तु हुआ यह है कि हम धार्मिक 'धर्म' को 'रिलीजन' और 'संस्कृति' को 'कल्चर' समझने लगे हैं। अंग्रेजी को ही मानक के रूप में प्रतिष्ठित करने का और उसे प्रमाण के रूप में स्वीकार करने का कार्य हमारे देश का बौद्धिक जगत तथा सरकार करती है। परिणाम स्वरूप सामान्यजन को भी उसका स्वीकार करना ही पड़ता है। भले ही हम धार्मिक भाषा में संस्कृति' बोले, हमारे मनमस्तिष्क में उसकी समझ 'कल्चर' के रूप में ही होती है।
  
सम्भालना, अभिभावक विद्यालय की आपूर्ति करना, इसमे
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इसलिये प्रथम आवश्यकता ‘संस्कृति' को 'कल्चर' से मुक्त कर संस्कृति' के ही अर्थ में समझने की है।
  
सहायक बने परंतु आज प्रबंध समिति एवं शासन अपना
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संस्कृति का अर्थ होता है ‘सम्यक् कृति' अर्थात् अच्छी तरह से की हुई कृति । जिसमें अव्यवस्था, न हो, अनौचित्य न हो, कुरूपता न हो, अशुद्धि न हो, जो सबका कल्याण करने वाली , सुख देने वाली, आनन्द देने वाली, सुन्दर, सुशोभित सही कृति है वह संस्कृति है । इस रूप में वह जीवनशैली है । वह व्यक्तिगत नहीं अपितु समस्त प्रजा की अर्थात् राष्ट्र की जीवनशैली है
  
अधिकार जमाने का कार्य करते है ।
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संस्कृति के दो आयाम हैं । एक तो वह धर्म का कृतिरूप है । वह धर्म की प्रणाली है । तभी वह सबका भला करने वाली, सबका कल्याण करनेवाली बनती है । दूसरी ओर वह सुन्दर है । अतः संस्कृति में कल्याणकारी और सुन्दर ऐसे दोनों रूप प्रकट होते हैं।
  
इन सब घटकों का व्यवहारिक स्वरूप के संदर्भ मे
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जीवन के हर व्यावहारिक आविष्कार में यह स्वरूप प्रकट होता है। भोजन स्वादिष्ट, हृद्य, सात्त्विक और पौष्टिक होता है.अकेला स्वादिष्ट या अकेला सात्त्विक नहीं, वस्त्र और अलंकार शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं साथ ही शोभा भी बढाते हैं और दृष्टि को आनन्द का अनुभव भी करवाते हैं; नृत्य, गीत-संगीत, आनन्द भी देते हैं और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। श्रेय और प्रेय को एकदूसरे में ओतप्रोत बनाने की यह धार्मिक सांस्कृतिक दृष्टि है जो बर्तन साफ करने के, पानी भरने के, मिट्टी कूटने के, भूमि जोतने के, कपडा बुनने के, लकडी काटने के कामों में सुन्दरता, आनन्द, मुक्ति की साधना और लोककल्याण के सभी आयामों को एकत्र गूंथती है। यह समग्रता का दर्शन है।
  
प्रबंध समिति एवं शासन विद्यालय के संरक्षक प्रधानाचार्य
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अतः विद्यालयों में केवल रंगमंच कार्यक्रम अर्थात् नृत्य, गीत, नाटक और रंगोली, चित्र, सुशोभन ही सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है। ये सब भी अपने आपमें सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हैं। उनके साथ जब शुभ और पवित्र भाव, शुद्ध आनन्द और मुक्ति की भावना जुडती हैं तब वे सांस्कृतिक कार्यक्रम कहे जाने योग्य होते हैं, अन्यथा वे केवल मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं। संस्कृति के मूल तत्वों के अभाव में तो वे भडकाऊ, उत्तेजक और निकृष्ट मनोवृत्तियों का ही प्रकटीकरण बन जाते हैं। अतः पहली बात तो जिन्हें हम एक रूढि के तहत सांस्कृतिक कार्यक्रम कहते हैं उन्हें परिष्कृत करने की अवश्यकता है। इसके लिये कुल मिलाकर रुचि परिष्कृत करने की आवश्यकता होती है।
  
आचार्य एवं कर्मचारियों के मार्गदर्शक तथा शासन प्रबंध
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साथ ही शरीर के अंगउपांगों से होने वाले सभी छोटे छोटे काम उत्तम और सही पद्धति से करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये कागज चिपकाने का, कपड़े की तह करने का, बस्ते में सामान जमाने का, कपड़े पहनने का काम भी उत्तम पद्धति से करने का अभ्यास बनाना चाहिये।
  
समिती और विद्यालय के बीच सेतू के रूप में कार्य करे,
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दूसरी आवश्यकता मनोभावों को शुद्ध करने की होती है।
  
अभिभावक का आचार्यों के साथ आत्मीय सबंध हो ।
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विद्यालय में समाजसेवा के कार्य भी सांस्कृतिक कार्यक्रम ही कहे जाने चाहिये। समाजप्रबोधन हेतु प्रभातफेरी, ग्रन्थों की शोभायात्रा और पूजन, यज्ञ, जन्मदिनोत्सव, कृष्णजन्माष्टमी जैसे उत्सव, मेले सत्संग आदि सब सांस्कृतिक कार्यक्रम ही हैं। विद्यालय में मन्दिर, पुस्तकालय, कक्षाकक्ष, प्रवेशद्वार आदि का सुशोभन भी सांस्कृतिक गतिविधि ही कहा जायेगा। अतिथियों का मन्त्रोच्चार सहित स्वागत पुष्पार्पण आदि भी सांस्कृतिक कार्य ही है।
  
विद्यालय मे श्रद्धा हो ऐसा मत प्रकट हुआ
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परन्तु पुष्पगुच्छ अर्पण यदि प्लास्टिक के या सुगन्धरहित फूलों का है तो वह सांस्कृतिक नहीं है, मन्त्रोच्चार यदि अशुद्ध और बेसूरे हैं तो वे सांस्कृतिक नहीं है, रंगोली यदि सुरुचिपूर्ण और कलात्मक नहीं है तो वह सांस्कृतिक नहीं है सामान्य वेशभूषा भी यदि शालीन नहीं है तो वह सांस्कृतिक नहीं है।
  
छात्र का विकास यह बात समान रूप से यह सभी को
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सम्पूर्ण विद्यालय परिसर यदि स्वच्छ, सुशोभित, शान्त सौहार्दपूर्ण, स्वागतोत्सुक है तो वह सांस्कृतिक है। यही संस्कारक्षम वातावरण है।
  
लागू चाहिये तथा सभी में घनिष्टता होनी चाहिये ।
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संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व के सारे निम्न स्तर के, निकृष्ट दर्जे के तत्वों को दूर कर उसे शिष्ट, सभ्य, शुद्ध, उच्च, उत्कृष्ट बनाती है। यही उसका विकास है। शिक्षा के इस प्रकार का विकास अपेक्षित है। यह विकास शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी स्तरों पर होता है। ऐसा विकास सिद्ध होता है इसलिये धर्म और संस्कृति को साथ साथ बोलने का प्रचलन है।
  
विमर्श
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विद्यालय के सांस्कृतिक स्वरूप की संकल्पना को ही प्रथम सुसंस्कृत बनाने की आवश्यकता है । मनोयोग से इन बातों का चिन्तन करने से यह किया जा सकता है, सतही बातचीत या विचार से यह नहीं होता है।
  
विद्यालय किसका इस प्रश्न पर चर्चा करने से पूर्व हम
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== विद्यालय की प्रतिष्ठा ==
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# विद्यालय की प्रतिष्ठा का क्या अर्थ है ?
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# विद्यालय की प्रतिष्ठा का निम्नलिखित बातों के साथ क्या सम्बन्ध है ?
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## परीक्षा परिणाम
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## सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास
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## अन्यान्य कार्यक्रम एवं कार्य
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## प्रतियोगिताओं में अग्रक्रम
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## सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यों में सहभाग
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## समाज को मार्गदर्शन
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## हिन्दुत्व का दृष्टिकोण
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## हिन्दुत्वनिष्ठ व्यवहार का आग्रह
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## संख्या, भवन, शुल्क, सुविधायें
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## अंग्रेजी माध्यम
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# उपर्युक्त सूची में किन बातों का आग्रह उपयुक्त है और किन बातों का अनुपयुक्त ?
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# विद्यालय की प्रतिष्ठा एवं विद्यालय के लक्ष्य में कितना सम्बन्ध होना चाहिये ? सम्बन्ध न होने से क्या क्या उपाय करने चाहिये?
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# समसम्बन्ध न होने पर कितने समझौते करने चाहिये ?
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# प्रतिष्ठा के मापदण्ड किस आधार पर बनते हैं ?
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चार पाँच विद्यालयों को यह प्रश्नावली भेजी थी। परंतु किसी से भी उत्तर प्राप्त नहीं हुए। प्रश्न तो सरल थे। उसका शब्दार्थ और ध्वन्यार्थ भी हम समझते तो है परंतु आज शिक्षा की गाडी जो अत्यंत विपरीत पटरी पर जा रही है इसके कारण सत्य तो जानते है व्यवहार उलटा हो रहा है यह जानकर सरल प्रश्न भी उत्तर लिखने में कठीन लगते होंगे ऐसा अनुमान है।
  
जरा इस विषय पर भी विचार करें कि विद्यालय किसे कहते
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=== अभिमत ===
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विद्या + आलय संधि से विद्यालय शब्द बनता है। आलय का अर्थ घर। ज्ञान का विद्या का घर अर्थात्‌ स्थान विद्यालय कहलाता है।
  
हैं । जिस प्रकार मकान घर नहीं होता है, मकान में रहने
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जहाँ ज्ञान की प्रतिष्ठा हो, ज्ञान की पतरित्रता को जानते हुए सभी व्यवहार हो, तेजस्वी, मेधावि, जिज्ञासु एवं विनयशील छात्र हो वास्तव मे वहीं गौरवशाली एवं प्रतिष्ठित विद्यालय होता है।
  
वाला परिवार घर होता है उस प्रकार केवल मकान विद्यालय
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=== विमर्श ===
  
नहीं होता है, उसमें होनेवाले अध्ययन, अध्यापन के कारण,
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==== विद्यालय साधनास्थली है ====
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विद्यालय शिक्षक एवं छात्रो की साधनास्थली है। तपस्थली है। अतः वह पवित्र स्थान है। जहाँ छात्र का शारीरिक, मानसिक, प्राणिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास होता है वह गौरवप्राप्त विद्यालय होता है। पर्यावरण, स्वच्छता, अन्याय का प्रतिकार करना इस प्रकार समाज को सुल्यवस्थित रखनेवाले सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में जिसका सक्रीय सहयोग हो वह प्रतिष्ठित विद्यालय है । विद्यालय सामाजिक चेतना का केन्द्र है अतः समाज को मार्गदर्शन करना उसका दायित्व बनता है। हिन्दुत्व का दूष्टीकोन एवं हिन्दुत्वनिष्ठ व्यवहार का आग्रह रखनेवाला विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त होता है।
  
श्८्५्‌
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परंतु आज हमारी भ्रमित सोच एवं शिक्षा के व्यवसायीकरण से प्रतिष्ठा के मापदंड उल्टे पड़े दिखाई देते है। अंग्रेजी माध्यम, सी.बी.एस.सी., इ.सी.एस.ई बोर्ड के मान्यता प्राप्त विद्यालय क्रमशः समाज मे प्रतिष्ठित बने है। प्रतिष्ठित होने के नाते प्रवेश अधिक अतः छात्रसंख्या अधिक यह भी प्रतिष्ठा का लक्षण माना जाता है। प्रतिष्ठा प्राप्त है तो लाखों रुपया शुल्क लेना प्रतिष्ठा बन गई है। बडा, भव्य एवं वातानुकुलित कॉम्प्यूटराइड विद्यालय प्रतिष्ठा के मापदृण्ड बने है। अनेक प्रतियोगिताओं में सहभागी होना एवं उसमे प्रथम क्रमांक प्राप्त करने हेतु अनुचित मार्ग अपनाना यह बात स्वाभाविक लगती है। ऐसी अनिष्ट बातों को हटाकर ज्ञान की प्रतिष्ठा हो वह विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त होगा यह समझ विकसित करना धार्मिक शिक्षा का व्यावहारिक आयाम है।
  
उसमें पढने वाले विद्यार्थी और पढ़ाने
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==== तक्षशिला विद्यापीठ ====
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“चाणक्य' धारावाहिक जब देखते हैं तब एक बात की ओर ध्यान आकर्षित होता है। राज्यसभा में हो या विद्रतसभा में, तक्षशिला विद्यापीठ का नामोट्लेख होता है तब सबके हाथ श्रद्धा और आदर के भाव से जुड़ जाते हैं। यह श्रद्धा और आदर किस बात के लिये हैं ? वहाँ की श्रेष्ठ ज्ञान साधना और ज्ञानपरम्परा के लिये। काल के प्रवाह में तक्षशिला विद्यापीठ एक ऐसा एकमेवाद्धितीय विद्यापीठ है, एक ऐसा सार्वकालीन विक्रम स्थापित करनेवाला विद्यापीठ है जिसने लगभग ग्यारहसौ वर्षों तक अपनी श्रेष्ठ ज्ञानपरम्परा बनाये रखी और सम्पूर्ण विश्व में अपनी श्रेष्ठता स्थापित की। देशविदेश के विद्वज्जन इस विद्यापीठ में अध्ययन हेतु आते थे।
  
वाले अध्यापकों के कारण विद्यालय विद्यालय होता है
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अर्थात्‌ विद्यालय की प्रतिष्ठा का सबसे पहला मापदण्ड उसकी ज्ञान साधना है, उसका अध्ययन और अध्यापन है।
  
इस प्रकार तीन घटकों का मिलकर विद्यालय होता है
+
आज भी विद्यालय जाने जाते हैं उनकी पढाई से। वर्तमान समय के अनुसार ये मानक बोर्ड और युनिवर्सिटी की परीक्षाओं के परिणाम पढाई के मानक हैं। कितने अधिक संख्या में विद्यार्थी कितने अधिक अंकों से परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए इस बात को प्रसिद्धि दी जाती है क्योंकि उसीसे प्रतिष्ठा होती है, उसीसे मान्यता होती है, उसीसे पुरस्कार प्राप्त होते हैं। कितने विविध प्रकार के विषय पढाये जाते हैं, कितनी विद्याशाखायें हैं, इसकी भी दखल ली जाती है। कितना और कैसा अनुसन्धान होता है, देश- विदेश की शोधपत्रिकाओं में कितने शोधपत्र छपते हैं, कितने आन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्रप्त होते हैं यह प्रतिष्ठा का विषय है।
  
, शिक्षा का कार्य अर्थात्‌ अध्ययन अध्यापन का कार्य, 2.
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यह सारा शोधकार्य, विभिन्न विद्याशाखायें, परीक्षा के परिणाम, पुरस्कार आदि सब अध्यापकों के कारण से होता है। अतः विद्यालय की प्रतिष्ठा उसके शिक्षकों से होती है। तक्षशिला विद्यापीठ भी चाणक्य और जीवक जैसे शिक्षकों के कारण प्रतिष्ठित हुआ।
  
विद्यार्थी और शिक्षक तथा ३. विद्यालय का भवन । इन तीनों
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शिक्षकों की प्रतिष्ठा उनके ज्ञान, चरित्र और कर्तृत्व के कारण होती है, होनी चाहिये।
  
के एक दूसरे से सम्बन्ध से ही विद्यालय विद्यालय बनता है
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अध्यापन कौशल जिसके कारण समर्थ विद्यार्थी तैयार होते हैं, जिस समर्थ समाज का निर्माण करते हैं और ज्ञान का एक पीढी से हस्तान्तरण होकर ज्ञान परम्परा बनती है और ज्ञानधारा नित्य प्रवाहित रहती है; स्वाध्याय, जिसके कारण अध्यापक अधिकाधिक ज्ञानवान बनते हैं और अनुसन्धान, जिसके कारण ज्ञान परिष्कृत होता रहता है, समृद्ध बनता है और युगानुकूल बनता है शिक्षक की प्रतिष्ठा के विषय हैं। अर्थात्‌ जो अध्यापन कला में कुशल नहीं वह विद्वान भले ही हो, शिक्षक नहीं; जो स्वाध्याय न करता हो वह न अच्छा विद्वान है न अच्छा शिक्षक, और जो अनुसन्धान नहीं करता वह श्रेष्ठ शिक्षक नहीं बन सकता।
  
विद्यालय के भवन की बात आती है तब और एक
+
==== श्रेष्ठ शिक्षक विद्यालय की प्रतिष्ठा है। ====
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विद्यालय की प्रतिष्ठा इसमें है कि श्रेष्ठ शिक्षकों का आदर होता है, जहाँ शिक्षकों का सम्मान नहीं, स्वतन्त्रता नहीं वह विद्यालय अच्छा नहीं माना जाता । जो शिक्षक नौकरी करने के लिये तैयार हो जाते हैं वे शिक्षक शिक्षक नहीं और जो शिक्षकों को नौकर बनने के लिये मजबूर करती है वह व्यवस्था श्रेष्ठ व्यवस्था नहीं । ऐसी व्यवस्था में शिक्षकों का सम्मान भी नौकरों के सम्मान की तरह किया जाता है। ऐसे विद्यालय की धार्मिक मानकों के अनुसार कोई प्रतिष्ठा नहीं, पाश्चात्य मानकों के अनुसार भले ही हो।
  
घटक भी साथ जुड़ता है । वह है संचालक । साथ ही एक
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शिक्षकों और विद्यार्थियों का चरित्र विद्यालय की प्रतिष्ठा का विषय है। शिक्षकों में शराब, जुआ, भ्रष्टाचार जैसे व्यसन न हों, अध्यापन कार्य में अप्रामाणिकता न हो और आचारविचार श्रेष्ठ हों यह शिक्षकों का चरित्र है और शिक्षकों के प्रति आदर और श्रद्धा हो, अध्ययन में तत्परता और परिश्रमशीलता हों तथा सद्गुण और सदाचार हों यह विद्यार्थियों का चरित्र है । इस विद्यालय में परीक्षा में कभी नकल नहीं होती, परीक्षा विषयक कोई भ्रष्टाचार नहीं होता, जिस विद्यालय के विद्यार्थियों को ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती, जिस विद्यालय में विद्यार्थियों के प्रवेश या शिक्षकों की नियुक्ति हेतु डोनेशन नहीं लिया जाता, जिस विद्यालय में अधिक वेतन पर हस्ताक्षर करवाकर कम वेतन नहीं दिया जाता आदि बातें जब सुनिश्चित होती हैं तब वह विद्यालय समाज में प्रतिष्ठित होता है।
  
घटक और भी जुड़ता है । वह है सरकार ।
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इतिहास में तक्षशिला एक और बात के लिये प्रतिष्ठित है। समाज और शास्त्रों की रक्षा के लिये समाज को, विद्वानों को, शिक्षकों को और गणराज्यों को संगठित कर अत्याचारी सम्राट को पटुश्रष्ट कर उसके स्थान पर योग्य सम्राट को अभिषिक्त करने का दायित्व आचार्य चाणक्य के नेतृत्व में विद्यापीठ ने निभाया। यह ज्ञान की प्रतिष्ठा नहीं, ज्ञान का दायित्व और कर्तृत्व है। अपने इस दायित्व को निभानेवाला करनेवाला विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।
  
विद्यार्थी, शिक्षक, संचालक और सरकार इन चार
+
ज्ञान और चरित्र के साथ साथ समाज को मार्गदर्शन करना, समाज का संगठन करना और समाज की सेवा करना विद्यालय का काम है। प्राकृतिक आपदाओं के समय सेवाकार्य करना, सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों में समाज को सही दिशा देना और समाज की सुस्थिति हेतु राज्य को सहायता करना विद्यालय की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है।
  
घटकों में विद्यालय किसका होता है ?
+
==== प्रतिष्ठा के आज के मापदण्ड ====
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परन्तु आजकल स्थिति कुछ विपरीत भी बनी है। आज विद्यालय उनके भवन, सुविधाओं और विद्यार्थी संख्या से जाने जाते हैं । विद्यालय परिसर जितना विशाल, विद्यालय का भवन जितना भव्य, भवनों की संख्या जितनी अधिक, वाहन जितने अधिक, विद्यालय की सुविधायें जितनी अद्यतन और इन सबके अनुपात में विद्यालय का शुल्क जितना ऊँचा उतनी विद्यालय की प्रतिष्ठा भी अधिक ।
  
विद्यार्थी कहेंगे कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हम
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अंग्रेजी माध्यम प्रतिष्ठा का और एक विषय है । जितनी कम आयु में अंग्रेजी पढाया जाता है उतनी अधिक प्रतिष्ठा होती है । अंग्रेजी के साथ साथ यदि अन्य विदेशी भाषायें भी सिखाई जाती हैं तो और भी अच्छा है। विद्यालय में यदि विदेशी छात्र पढ़ते हैं तो वह भी गौरव का विषय बनता है । विदेशी अतिथि आते हैं तो प्रतिष्ठा बढती है
  
उसमें पढते हैं ।
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विदेशी खेल खेले जाते हैं, विदेश में शैक्षिक भ्रमण के लिये जाना होता है, आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की मान्यता है, विदेशी वेश का गणवेश, विद्यालय के कैण्टीन में कण्टीनेन्टल नाश्ता मिलता है तो विद्यालय प्रतिष्ठित माना जाता है
  
शिक्षक कहेंगे कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हम उसमें
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जिन विद्यालयों महाविद्यालयों में कैम्पस में ही नौकरी मिल जाती है उन विद्यालयों की प्रतिष्ठा बढती है । जहाँ मन्त्रियों, प्रशासनिक अधिकारियों, धनाढ्यो की संताने पढ़ती है वे विद्यालय प्रतिष्ठिट है।
  
पढाते हैं
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अर्थात् प्रतिष्ठा का केन्द्र बिन्दु अब बदल गया है ज्ञान, चरित्र, संस्कार, सेवा आदि से खिसककर पैसा, सत्ता, वैभव और नोकरी पर आ गया है । इस बदले हुए केन्द्र का इतना विस्तार हुआ है कि अब वह लोकमानस में बैठ गया है। शिक्षकों ने इसे स्वीकार कर लिया है और समाज ने इसे मान लिया है।
  
संचालक कहेंगे कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हमने
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परन्तु इससे तो समाज की दुर्गति होगी। समाज को यदि दुर्गति से बचना है तो इस बदले हुए केन्द्र का त्याग कर ज्ञान को केन्द्र में प्रतिष्ठित करना होगा।
  
उसे बनाया है
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==== ज्ञान को प्रतिष्ठित करने के कुछ कठोर उपाय ====
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ज्ञान को केन्द्र में प्रतिष्ठित करने हेतु कुछ कठोर नियम भी बनाने होंगे प्रारम्भ में वे अव्यावहारिक और असम्भव लगेंगे परन्तु अन्ततोगत्वा वे ही इष्ट परिणाम देने वाले सिद्ध होंगे।
  
सरकार कहेगी कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हमने उसे
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ये नियम कुछ इस प्रकार होंगे:
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# अध्ययन शुल्क क्रमशः कम करते करते निःशेष करना । शुल्क नहीं होगा तो ज्ञान पर धनिकों का प्रभाव कम होगा।
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# शिक्षकों को आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त करना होगा । नौकरी करना छोडकर अपनी जिम्मेदारी पर विद्यालय चलनें होंगे।
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# शिक्षा का नौकरी से सम्बन्ध विच्छेद करना होगा। स्वतन्त्र रहकर, समाज की सेवा करने की वृत्ति से, समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उद्योग कर अर्थार्जन करना सिखाना होगा। इस प्रकार समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता निर्माण करनी होगी। स्वतन्त्र समाज अपने स्वमान की रक्षा करता है और शिक्षा का सम्मान करता है।
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# चरित्र का सम्मान करना होगा । शिक्षकों को स्वयं चरित्रवान बनकर विद्यार्थियों को चरित्रवान बनाना होगा।
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# परीक्षा केन्द्रों को विद्यालय में लाना होगा। शिक्षक ही अपने विद्यार्थियों को प्रमाणपत्र दे सकें ऐसा विश्वसनीय बनना होगा।
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# विद्यालय भवन और सुविधाओं से नहीं अपितु ज्ञान और चरित्र से जाना जाय इसे बार बार लोगोंं के समक्ष बताना होगा।
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# धार्मिक ज्ञानधारा को युगानुकूल प्रवाहित करने हेतु अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य को धार्मिक जीवनदृष्टि में केन्द्रित करना होगा।
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यह एक आन्तरिक परिवर्तन है और धैर्यपूर्वक निरन्तर प्रयास की अपेक्षा करता है । चाणक्य और तक्षशिला यदि आदर्श हैं तो इन आदर्शों को मूर्त करना कोई सरल काम नहीं है।
  
मान्यता दी है ।
+
==References==
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<references />
  
इस प्रकार सब कहेंगे कि विद्यालय हमारा है । तो फिर
+
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 3: विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ]]
 
 
वास्तव में विद्यालय किसका होता है ?
 
 
 
कसौटी क्या है ?
 
 
 
किसी विद्यार्थी पर तथाकथित अन्याय होता है, अथवा
 
 
 
विद्यार्थी संघकी कोई बात नहीं मानी जाती है तब विद्यार्थी
 
 
 
आन्दोलन करते हैं, हडताल करते हैं, विरोध प्रदर्शन करते
 
 
 
हैं । विरोध प्रदर्शन में पथराव होता है, फर्नीचर तोडा जाता है,
 
 
 
विद्यालय को भारी नुकसान पहुँचता है। तब विद्यालय
 
 
 
किसका होता है ? क्या विद्यार्थियों का होता है ? यदि वह
 
 
 
विद्यार्थियों का है तो उसे नुकसान कैसे पहुँचाया जा सकता
 
 
 
है ?
 
 
 
बडे विद्यार्थियों की ही बात क्यों करें ? छोटे विद्यार्थी
 
 
 
बेन्च और डेस्क पर कुछ लिखते हैं, पंखों के पंख मरोडते हैं,
 
 
 
स्वीचों को तोडते हैं, दीवारों को गन्दा करते हैं, कूडा कहीं पर
 
 
 
भी फैंकते हैं तब विद्यालय किसका होता है ?
 
 
 
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
विद्यालय के भवन को यदि आग. से, विद्यालय की व्यवस्था से, विद्यालय की रीतिनीति से
 
 
 
लग जाय तो किसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? उसका सम्बन्ध समाप्त हो जाता है । परीक्षा में उत्तीर्ण होने के
 
 
 
विद्यार्थी का कोई नुकसान नहीं होता, उन्हें दुःख नहीं... अलावा उसे और कुछ नहीं करना है । इसलिये विद्यालय के
 
 
 
होता, न वे नुकसान भरपाई के लिये कुछ भी करते हैं । भवन को आग लगे, या शिक्षकों पर कोई आरोप लगे या
 
 
 
शिक्षकों को कोई दुःख नहीं होगा । उल्टे दो तीन दिन... विद्यालय की प्रतिष्ठा दाँव पर लगे उसका कोई नुकसान नहीं
 
 
 
की छुट्टी होने की खुशी ही होगी । होता । यह हकीकत बताती है कि विद्यालय विद्यार्थियों का
 
 
 
संचालकों का क्या होगा ? यदि भवन की मालिकी तो नहीं है । वे विद्यालयके लिये कुछ भी नहीं करेंगे ।
 
 
 
किसी एक व्यक्ति की है तो उसे चिन्ता होगी, यदि ट्रस्ट की है शिक्षकों का भाव कैसा है ?हम सरकार के अथवा
 
 
 
तो भागदौड की परेशानी होगी अन्यथा कोई दुःख नहीं होगा... संचालकों के विद्यालय में नौकरी करते हैं । वेतन के बदले में
 
 
 
क्योंकि वह समाज के पैसे से बना है इसलिये समाज का... पढ़ाना हमारा काम है । पढ़ाने के सम्बन्ध में जो नियम कानून
 
 
 
नुकसान होगा | हैं उनको हम मानेंगे, उनका पालन करेंगे । पढ़ाने के सम्बन्ध
 
 
 
सरकार को तो दुःख होने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि... में हमारे जो अधिकार हैं वे माँगेंगे । विद्यालय का समय पूरा
 
 
 
सरकार किसी व्यक्ति की नहीं बनती, वह एक व्यवस्था है, हुआ हमारा काम भी पूरा हुआ । शेष समय हमारा है । उस
 
 
 
एक तन्त्र है व्यवस्था में भावना नहीं होती । शेष समय में विद्यालय का विचार करने की हमारी जिम्मेदारी
 
 
 
यह तो विद्यालय के भवन की बात हुई । यह तो... नहीं ।
 
 
 
केवल भौतिक पदार्थ है । संचालक कहते हैं कि विद्यालय के भवन की मालिकी
 
 
 
परन्तु विद्यालय में किसी विद्यार्थी ने किसी लडकी पर... हमारी है, हमने शिक्षकों को नियुक्त किया है, हमने विद्र्थियों
 
 
 
बलात्कार किया, या विद्यालय के विद्यार्थी परीक्षा में नकल. को प्रवेश दिया है इसलिये हमारा अधिकार है परन्तु पढ़ाने का
 
 
 
करते पकडे गये या विद्यालय के शिक्षक परीक्षा में भ्रष्टाचार... काम हमारा नहीं है, उसकी जिम्मेदारी हमारी नहीं है।
 
 
 
करते पकडे गये तो विद्यार्थी, शिक्षक, संचालक और सरकार. अध्ययन विषयक, विद्यार्थियों के चरित्र विषयक कोई
 
 
 
की क्या प्रतिक्रिया होगी ? अनहोनी होती है तो उसकी जिम्मेदारी शिक्षकों और
 
 
 
या विद्यालय में अच्छी पढाई नहीं होती ऐसा बोला... अभिभावकों की है । हम उनके विरुद्ध कार्यवाही करेंगे, उन्हें
 
 
 
जाता है तब किसकी क्या प्रतिक्रिया होती है ? दण्ड देंगे ।
 
 
 
सरकारी विद्यालयों के व्यवस्थातन्त्र के बारे में, परन्तु इससे आगे बात नहीं बढती ।
 
 
 
शिक्षकों के बारे में खूब आलोचना होती है तब सरकार और सरकार की तो कोई भूमिका बनती ही नहीं है ।
 
 
 
शिक्षकों की क्या प्रतिक्रिया होती है ? शिक्षा संस्थाओं को लेकर चित्र आज ऐसा है ।
 
 
 
देखा यह जाता है कि इन चारों में से किसी भी वर्ग का... विद्यालय के भवन की मालिकी संचालकों की इसलिये
 
 
 
विद्यालय के साथ कोई भावनात्मक सम्बन्ध नहीं होता ।.. उनका मालिकयत का सम्बन्ध, सरकार का नियन्त्रक के नाते
 
 
 
सबका अपने अपने स्वार्थ से प्रेरित सम्बन्ध होता है और सम्बन्ध, शिक्षकों का अपने वेतन का सम्बन्ध और
 
 
 
अपने स्वार्थ की पूर्ति होने पर समाप्त हो जाता है । विद्यार्थियों का अपनी परीक्षा से सम्बन्ध । इसमें विद्या कहाँ
 
 
 
विद्यार्थी अपनी पढाई हेतु विद्यालय से जुडा है, है ? विद्या की प्रतिष्ठा कहाँ है ? विद्या की साधना का तो
 
 
 
विद्यालय के भवन से, व्यवस्थातन्त्र से, नीतिनियमों से उसका. प्रश्न ही नहीं है । ज्ञानसाधना का मिशन होने की सम्भावना
 
 
 
कोई लेना देना नहीं है । पढाई के कार्य में भी प्रत्यक्ष ज्ञान से. ही नहीं है ।
 
 
 
कोई सम्बन्ध नहीं, परीक्षा के परिणाम के साथ ही सम्बन्ध देश में अनेक विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय
 
 
 
है । इसलिये परीक्षा समाप्त होते ही अध्ययन से, अध्यापकों हैं जहाँ अध्ययन - अध्यापन अच्छा होता है और
 
 
 
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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
ज्ञानसाधना भी होती है परन्तु वह व्यक्तियों के कारण से होता
 
 
 
है, व्यवस्था के कारण से नहीं । भले ही व्यक्तियों के कारण
 
 
 
हो, उसका लाभ अवश्य होता है । परन्तु यह अपवाद रूप
 
 
 
स्थिति है । सार्वत्रिक स्थिति तो सरोकार विहीनता की ही
 
 
 
है।
 
 
 
इस का उपाय क्या है ?
 
 
 
शिक्षाक्षेत्र में नौकरी की व्यवस्था जब तक समाप्त नहीं
 
 
 
होती तब तक परिस्थिति में सुधार नहीं हो सकता । घर में
 
 
 
कोई नौकरी नहीं करता, काम सब करते हैं । घर में रहने का
 
 
 
घर के सभी सदस्यों को जन्मसिद्ध अधिकार है । घर सबका है
 
 
 
और सेवा करना ही सबका धर्म है । एकदूसरे के लिये सब
 
 
 
काम करते हैं । घर की प्रतिष्ठा सबकी चिन्ता का विषय है ।
 
 
 
घर की बदनामी सबकी बदनामी है । मातापिता सन्तानों के
 
 
 
लिये और सन्तानें मातापिता के लिये जीते हैं । तभी वह
 
 
 
परिवार है । परिवार भावना, व्यवस्था और सम्बन्धों से बनता
 
 
 
है । तीनों बातें एक ही स्थान पर केन्द्रित हुई है ।
 
 
 
विद्यालय भी. परिवार बनना
 
 
 
चाहिये तभी वह भारतीय संकल्पना का विद्यालय बनेगा ।
 
 
 
व्यवस्था, नियन्त्रण, कार्य जब भिन्न भिन्न स्थानों पर केन्द्रित
 
 
 
होंगे तब वह एकसंध परिवार नहीं बनेगा । वर्तमान व्यवस्था
 
 
 
ही ऐसी बनी है जहाँ विद्यालय परिवार बनने की सम्भावना
 
 
 
नहीं है ।
 
 
 
विद्यालय को परिवार मानने की, इसके लिये शिक्षकों
 
 
 
और विद्यार्थियों का प्रबोधन करने की भावनात्मक बातें बहुत
 
 
 
की जाती हैं परन्तु परिणाम दिखाई नहीं देता क्योंकि परिवार
 
 
 
बनने के लिये जो एकसंघ व्यवस्था चाहिये उसकी हम बात
 
 
 
नहीं करते । व्यवस्था विशूंखलता की और अनेक केन्द्री
 
 
 
स्वार्थों की और भावना परिवार की ऐसी दो बातें एक साथ
 
 
 
नहीं हो सकतीं ।
 
 
 
शिक्षक केन्द्रित विद्यालय ही इसका सही और
 
 
 
परिणामकारी उपाय है । इस व्यवस्था के लिये शिक्षकों को
 
 
 
सिद्ध और समर्थ बनना होगा तथा संचालकों और सरकार को
 
 
 
अनुकूल । शिक्षकाधीन शिक्षा इसका सार्थक सूत्र है ।
 
 
 
विद्यालय का शैक्षिक भ्रमण कार्यक्रम
 
 
 
१, शैक्षिक भ्रमण का अर्थ क्या है ?
 
 
 
2. भ्रमण के लिये स्थान का चयन किस प्रकार से
 
 
 
करना चाहिये ?
 
 
 
३. भ्रमण के समय शैक्षिक व्यवहार कैसा होता है ?
 
 
 
¥. भ्रमण के समय छात्र एवं आचायों के व्यवहार के
 
 
 
सम्बन्ध में किन किन बातों पर विचार करना
 
 
 
चाहिये ?
 
 
 
५... यदि भ्रमण शैक्षिक है तो वह सभी छात्रों के लिये
 
 
 
होना चाहिये । इसकी व्यवस्था कैसे कर सकते
 
 
 
हैं?
 
 
 
६. wan cht आर्थिक व्यवस्था के सम्बन्ध में क्या
 
 
 
विचार करना चाहिये ?
 
 
 
७. शैक्षिक भ्रमण का पाठ्यक्रम के साथ क्या
 
 
 
सम्बन्ध है ?
 
 
 
८... भ्रमण की पूर्वतैयारी एवं भ्रमण का अनुवर्ती कार्य
 
 
 
१८७
 
 
 
- ये दोनों कैसे होते हैं ?
 
 
 
९. भ्रमण के माध्यम से सांस्कृतिक, सामाजिक,
 
 
 
राष्ट्रीय विकास किस प्रकार से होता है ?
 
 
 
१०, भ्रमण के माध्यम से व्यावहारिक ज्ञान का
 
 
 
विकास किस प्रकार से होता है ?
 
 
 
प्रश्नावली से पाप्त उत्तर
 
 
 
विद्याभारती केल प्रान्त के कृष्णदासजीने प्रान्त के
 
 
 
आचार्य प्रश्नावली भरवायी है । भाषाकी समस्या के कारण
 
 
 
प्रश्न और उत्तर समझने में दोनो तरफ से कठीनाई महसूस
 
 
 
हुई । फिर भी उत्साह से यह कार्य किया गया अतः चर्चा
 
 
 
के माध्यम से जो समझ में आया उसे अभिमत मे स्थान
 
 
 
दिया है । आचार्य एवं अभिभावकों ने इस प्रश्नावली के
 
 
 
संबंध मे कुछ विचार किया है । निसर्ग समृद्ध भूमि का जिन्हें
 
 
 
प्रत्यक्ष अनुभव है । अतः निसर्ग के साथ रहने हेतू भ्रमण
 
 
 
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(ट्रि) योजना करना यही विचार प्रधान
 
 
 
मानकर प्रश्नावली के उत्तर लिखे गये । भ्रमण के लिए
 
 
 
अच्छे स्थान एवं उनके नाम बताए गये । भ्रमण समय में
 
 
 
कौन सी सावधानीयाँ रखना इसका भी विचार हुआ परन्तु
 
 
 
भ्रमण के साथ शैक्षिक बातों का विचार बहुत कम TT |
 
 
 
अत्यंत विचारपूर्ण और गहराई मे विचार करने वाली
 
 
 
यह दस प्रश्नों की प्रश्नावली थी । देखना और निरीक्षण
 
 
 
करना दोनों भी दृश्येंट्रिय से की जानेवाली क्रियाएँ हैं ।
 
 
 
देखना आँखोंसे होता है परंतु निरीक्षण मे आँखों के साथ
 
 
 
मन और बुद्धी भी जुड़ते हैं । उसी प्रकार भ्रमण और शैक्षिक
 
 
 
भ्रमण में भी अंतर है । आज विद्यालयों में भ्रमण कार्यक्रम
 
 
 
का अर्थ भ्रमण इतना ही किया जाता है ।
 
 
 
अभिमत
 
 
 
भ्रमण अर्थात्‌ घूमना । शैक्षिक भ्रमण अर्थात्‌ कुछ
 
 
 
जानने समझने के लिए घूमना । उस दृष्टि से गाँव का
 
 
 
साप्ताहिक बाजार, मेले, प्राचीन मन्दिर, अखाड़े, प्रेक्षणीय
 
 
 
CIM, Wie, उद्याने, Bie, su, dane,
 
 
 
नदीकिनारा, समुद्रकिनारा, म्युझियम, कारखाने, गोशाला,
 
 
 
फसल से भरी खेती, फल के बगीचे, निसर्गरम्य स्थान,
 
 
 
प्रपात, गरमपानी के झरने इत्यादि प्रकार के स्थान शैक्षिक
 
 
 
भ्रमण के लिए होने चाहिये ।
 
 
 
2. जहाँ जाना वहाँ क्‍या, देखना, किससे
 
 
 
मिलना, कैसी पूछताछ करना, उसकी विस्तृत चर्चा शिक्षकों
 
 
 
ने विद्यार्थियों के साथ करनी चाहिये ।
 
 
 
३. भ्रमण के समय अध्यापक और छात्र दोनों में
 
 
 
समवयस्क जैसा व्यवहार हो परंतु अनुशासन, और
 
 
 
आदृरभाव भी होना जरूरी है ।
 
 
 
४. भ्रमण शैक्षिक होने के कारण सब विद्यार्थियों की
 
 
 
सहभागिता अवश्य हो । क्षेत्रभेट करनेके लिए छात्रों की
 
 
 
टोली बने ये टोलियाँ ३-४ स्थानों पर अलग अलग जाये |
 
 
 
दूसरे दिन सब छात्र मिलकर चर्चा में सम्मिलित हों इस
 
 
 
प्रकार का आयोजन करना चाहिये । भ्रमण खर्च सब कर
 
 
 
सके ऐसा ही हो कभी कभी खर्चिले भ्रमण मे ऐच्छिकता से
 
 
 
सम्मिलित होने का प्रावधान किया जाता है ऐसा न हो ।
 
 
 
श्८८
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
ऐसा भ्रमण शैक्षिक नहीं होता है, मात्र मनोरंजन को दिया
 
 
 
गया व्यावसायिक रूप ही है ।
 
 
 
शैक्षिक भ्रमण से इतिहास भूगोल समाजविज्ञान आदि
 
 
 
विषयों का अध्ययन होता है । भ्रमण से पूर्व योग्य सूचनाएँ
 
 
 
सावधानी एवं पूर्वजानकारी (स्थान संदर्भ में) और वापसी
 
 
 
के बाद उस विषय में चर्चा लेखन प्रश्नावलियाँ तैयार करना
 
 
 
आदि अवश्य करें ।
 
 
 
कुंभ मेला, वेदपाठशाला आदि स्थानों में जाकर
 
 
 
संस्कृति परिचय होता है । सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास
 
 
 
होता है । पूर्व के जमाने में संतवृन्द, शंकराचार्य पैदल यात्रा
 
 
 
करते थे । उन्हें देशकाल परिस्थिति का आकलन होता
 
 
 
था । वह शैक्षिक भ्रमण था । आज वह तत्त्व ध्यान में
 
 
 
रखकर परिस्थिति एवं छात्रों की आयु क्षमता ध्यान में लेते
 
 
 
हुए योग्य परिवर्तन करके विद्यालयों ने शैक्षिक भ्रमण की
 
 
 
योजना बनानी चाहिये ।
 
 
 
विमर्श
 
 
 
शैक्षिक भ्रमण सम्बन्धी विचारणीय मुद्दे
 
 
 
आज हमने सभी बातों को उल्टा कर दिया है । उसमें
 
 
 
भ्रमण का भी विषय समाविष्ट है । जरा इन मुद्दों पर विचार
 
 
 
१... शैक्षिक भ्रमण में से शैक्षिक शब्द छूट गया है, विस्मृत
 
 
 
हो गया है । उसका कोई प्रयोजन नहीं रहा । अब
 
 
 
केवल भ्रमण ही रह गया है जिसका उद्देश्य शैक्षिक
 
 
 
नहीं है, मनोरंजन है, मजा करना है ।
 
 
 
औपचारिकता के लिये अभी भी यह शैक्षिक भ्रमण
 
 
 
है । भ्रमण यदि शैक्षिक है तो रेलवे की ओर से ५०
 
 
 
प्रतिशत किराया कम हो जाता है, दस विद्यार्थियों पर
 
 
 
एक शिक्षक की निःशुल्क यात्रा होती है । इसलिये
 
 
 
सरकारी एवं विद्यालय के कार्यालयमें और रेलवे या
 
 
 
अन्य यातायात के लिये यह शैक्षिक भ्रमण है,
 
 
 
विद्यार्थियों और शिक्षकों - भ्रमण हेतु जाने वालों -
 
 
 
के लिये यह मनोरंजन यात्रा है ।
 
 
 
सबसे पहले यह दुविधा दूर करनी चाहिये । यह
 
 
 
दुविधा अप्रामाणिकता है, दम्भ है, झूठ बोलकर लाभ
 
 
 
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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
लेने की वृत्ति प्रवृत्ति है। विद्यार्थियों पर इससे पहुँचे थे ।
 
 
 
भ्रष्टाचार के संस्कार होते हैं । ०... संस्कृति विषय में बारह ज्योतिर्लिंग और चार धाम
 
 
 
४. विद्यार्थियों, अभिभावकों और शिक्षकों में शैक्षिक का वर्णन आता है। वहाँ जाकर उन्हें देखने की
 
 
 
भ्रमण' शब्द परिचित, प्रचलित और प्रतिष्ठित करना योजना बनानी चाहिये ।
 
 
 
चाहिये और विद्यार्थियों को शैक्षिक भ्रमण का अर्थ... *... दिल्ली का लोहस्तम्भ, अजंता की चित्रावलि, कैलास
 
 
 
और उद्देश्य समझाना चाहिये । मन्दिर, वाराणसी की वेधशाला के अवशेष आदि
 
 
 
५... इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, संस्कृति आदि विषयों भारत की कारीगरी के नमूने हैं, गौरवबिन्दु हैं । उन्हें
 
 
 
के साथ भ्रमण कार्यक्रम को जाड़ना चाहिये । भिन्न देखने की योजना बना सकते हैं ।
 
 
 
भिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रम के साथ उसे जोड़ना... १०. इस प्रकार विशिष्ट उद्देश्यों को लेकर भ्रमण की योजना
 
 
 
चाहिये । कक्षा और विषय के अनुसार विभिन्न गट बनानी चाहिये । परन्तु भ्रमण हेतु जाने से पहले और
 
 
 
बनाने चाहिये । गट में एक साथ कम संख्या होनी आने के बाद बहुत सारी शैक्षिक गतिविधियों को
 
 
 
चाहिये ताकि व्यवस्था ठीक बनी रहे । भ्रमण के साथ जोड़ना आवश्यक है ।
 
 
 
६... जब ठीक से प्रबोधन नहीं किया जाता है तब जहाँ. ११. भ्रमण में जाने से पूर्व स्थानों की पूरी जानकारी, यात्रा
 
 
 
जाते हैं उस दर्शनीय स्थान के दर्शन और अवलोकन का उद्देश्य, वहाँ जाकर करने के काम, वापस आकर
 
 
 
तो एक और रह जाते हैं और यात्रा के दौरान का देने के वृत्त हेतु करने के कार्य की जानकारी देनी
 
 
 
दंगा, खान पान, वेश और फैशन, फोटो सेशन, चाहिये ।
 
 
 
खरीदी आदि मुख्य बातें बन जाती हैं । विद्यार्थियों. १२. यात्रा के दौरान जिन आचारों का पालन करना है उस
 
 
 
और शिक्षकों की इस मानसिकता का उपचार करने सम्बन्ध में उचित पद्धति से विद्यार्थियों का प्रबोधन
 
 
 
की. आवश्यकता है। शिक्षकों का. उपचार करना चाहिये । यह बात बहुत कठिन है क्योंकि
 
 
 
शिक्षाशाख्रियों ने और विद्यार्थीयों का उपचार शिक्षकों भ्रमण के साथ विद्यार्थियों की उन्मुक्तता की वृत्ति
 
 
 
ने करना चाहिये । जुड़ी हुई होती है । दैनन्दिन जीवन में भी उनकी
 
 
 
७... शैक्षिक भ्रमण देशदर्शन और संस्कृति दर्शन हेतु होता अभिमुखता शिक्षा, संस्कृति, देश आदि की atk
 
 
 
है, इतिहास दर्शन हेतु भी होता है । बनाना कठिन हो जाता है । सारा विद्यार्थीजगत भ्रमण
 
 
 
८... अपने ही नगर का भूगोल और दर्शनीय स्थान देखने की ओर मनोरंजन की दृष्टि से देखता है तब एक
 
 
 
से भ्रमण कार्यक्रम की शुरुआत होती है । आगे विद्यालय के विद्यार्थियों को यात्रा के दौरान शिष्ट
 
 
 
चलकर अपना जिला, अपना राज्य और अपने देश व्यवहार करने को कहना कठिन ही होता है तथापि
 
 
 
का भ्रमण करना चाहिये । कुछ विद्यालयों के उदाहरण ऐसे भी हैं जो इस बात
 
 
 
8. कुछ उदाहरण देखें... को सम्भव बनाते हैं । उनके अनुभव से हम कह
 
 
 
०"... कक्षा में यदि शिवाजी महाराज का इतिहास पढ़ना है सकते हैं कि यह कार्य कठिन अवश्य होगा, असम्भव
 
 
 
तो दो प्रकार से भ्रमण गट बन सकते हैं । एक गट नहीं है ।
 
 
 
महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज के गढ़ और किले देखने. १३. भ्रमण के दौरान लेखन पुस्तिका में अनुभव लिखकर
 
 
 
के लिये और दूसरा गट आगरा और दिल्ली के किले, स्मृति में रखने लायक स्थानों के छायाचित्र लेना,
 
 
 
जहाँ शिवाजी महाराज को औरंगजेबने कैद में रखा सम्बन्धित लोगों के साथ वार्तालाप करना, वहाँ यदि
 
 
 
था और मिठाई की टोकरियों में बैठकर पुत्र के साथ कोई गाइड है तो उसे प्रश्न पूछना आदि बातों में
 
 
 
वे कैद से भागकर वापस अपनी राजधानी रायगढ़ शिक्षकों ने विद्यार्थीयों का मार्गदर्शन और सहायता
 
 
 
828
 
 
 
............. page-206 .............
 
 
 
RY.
 
 
 
a4.
 
 
 
&&.
 
 
 
Ru.
 
 
 
करनी चाहिये । एक स्थान पर बार बार
 
 
 
जाना होता नहीं है अतः पूर्ण रूप से अनुभव लेना
 
 
 
आवश्यक है |
 
 
 
वापस आने के बाद अनुभव कथन और लेखन,
 
 
 
वृत्त-कथन और लेखन, छायाचित्रों की प्रदर्शनी
 
 
 
आदि कार्यक्रम करने चाहिये । अपना किस विषय के
 
 
 
साथ कैसा सम्बन्ध जुड़ा यह भी समझाना चाहिये ।
 
 
 
शैक्षिक भ्रमण यह क्रियात्मक शिक्षण ही है । शिक्षण
 
 
 
में यदि आनन्द आता है तो यह विशेष लाभ है । यह
 
 
 
आनन्द शैक्षिक है तो और भी लाभ है । आनन्द
 
 
 
जानकारी की तरह बाहर से हृदय में नहीं डाला
 
 
 
जाता, वह अन्दर जन्मता है और बाहर प्रकट होता
 
 
 
है। ऐसे आनन्द का अनुभव आता है तो भ्रमण
 
 
 
कार्यक्रम सार्थक हुआ यह कह सकते हैं । शिक्षकों
 
 
 
को इस दिशा में प्रयास करना चाहिये ।
 
 
 
आजकल कुछ इण्टरनेशनल विद्यालय विद्यार्थियों को
 
 
 
विदेश यात्रा के लिये ले जाते हैं । विदेशयात्रा यह
 
 
 
शैक्षिक विषय नहीं है, विद्यालय में प्रवेश हेतु
 
 
 
आकर्षण का इनका उदाहरण अनेकों को अनुकरण
 
 
 
की प्रेरणा देता है। फिर विद्यालयों में स्पर्धा होने
 
 
 
लगती है । स्पर्धा के अनेक क्षेत्र खुल जाते हैं और
 
 
 
शैक्षिक उद्देश्य उपेक्षित हो जाते हैं ।
 
 
 
शैक्षिक भ्रमण को हम अध्ययन यात्रा का नाम भी दे
 
 
 
सकते हैं । देश के अनेक भूषण रूप विद्वान, वैज्ञानिक,
 
 
 
कारीगर, कलाकार आदि से भेंट कर उनके साथ
 
 
 
वार्तालाप करना अध्ययन यात्रा का उद्देश्य हो सकता
 
 
 
है । उदाहरण के लिये परम संगणक के जनक डॉ.
 
 
 
विजय भटकर, महान वैज्ञानिक डॉ, रघुनाथ माशेलकर,
 
 
 
वाराणसी के शास्त्री लक्ष्मण शास्त्री ट्रविड , प्रसिद्ध सन्त
 
 
 
मोरारी बापू, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प. पू.
 
 
 
सरसंघचालक मोहनजी भागवत, पू, रामदेव महाराज,
 
 
 
दक्षिण की अम्मा माता अमृतानन्द्मयी आदि अनेक
 
 
 
महानुभाव हैं जो विद्यार्थियों के आदर्श बन सकते हैं
 
 
 
और जिनसे मिलना विशिष्ट अनुभव हो सकता है । ये
 
 
 
श्९०
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
तो कुछ संकेत मात्र हैं । भारत तो ऐसे महापुरुषों की
 
 
 
खान है ।
 
 
 
इसी प्रकार से अनेक सेवा प्रकल्प, निर्माण प्रकल्प,
 
 
 
शिक्षा प्रकल्प चलते हैं जिन की भेंट करना ज्ञान में वृद्धि
 
 
 
करना है ।
 
 
 
दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता
 
 
 
शैक्षिक दृष्टि से यदि विचार करने लगें तो शैक्षिक
 
 
 
भ्रमण के विषय में हम अनेक नई बातें सोच सकते हैं ।
 
 
 
केवल दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है । शिक्षा के
 
 
 
ठहरे हुए पानी को प्रवाहित करने से सडाँध दूर होगी और
 
 
 
शैक्षिक गतिविधियाँ परिष्कृत होंगी ।
 
 
 
देश में कुछ जाने और जानने योग्य स्थान
 
 
 
g. पुनर्रचित नालन्दा विश्वविद्यालय
 
 
 
२... पोखरण जहाँ १९९८ में अणुपरीक्षण हुआ था ।
 
 
 
३... कालडी, केरल जो भगवान शंकराचार्य का जन्मस्थान
 
 
 
है।
 
 
 
४... बासर, आन्थ्रप्रदेश का सरस्वती मन्दिर जो भगवान
 
 
 
वेदव्यास ट्रारा निर्मित है ।
 
 
 
५... कानपुर के पास बिढूर जो झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई
 
 
 
का जन्मस्थान है और जहाँ तात्या टोपे का घर है ।
 
 
 
६. हम्पी, कर्नाटक जो विजयनगर साम्राज्य की राजधानी
 
 
 
थी।
 
 
 
७... सम्पूर्ण बाम्बू केन्द्र, लवादा, महाराष्ट्र जहाँ बाम्बू तथा
 
 
 
अन्य कारीगरी के गुरुकुल हैं ।
 
 
 
८. . बेरफूट युनिवर्सिटी, जयपुर जहाँ जिन्हें लिखना पढ़ना
 
 
 
नहीं आता ऐसी महिलायें कम्प्यूटर का काम करती
 
 
 
a |
 
 
 
8. कुरुक्षेत्र, हरियाणा जहाँ महाभारत का युद्ध हुआ था
 
 
 
और भगवान श्रीकृष्णने गीता का उपदेश दिया था ।
 
 
 
१०, नैमिषारण्य, उत्तर प्रदेश जहाँ आज से पाँच हजार वर्ष
 
 
 
पूर्व ८८,००० ऋषि एकत्रित हुए थे और बारह वर्ष
 
 
 
तक ज्ञानयज्ञ किया था ।
 
 
 
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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
१४१, fader शिला स्मारक, कन्याकुमारी जहाँ बैठकर
 
 
 
१४. हिमालय में रोहतांग पास जहाँ से
 
 
 
व्यास (बियास) नदी निकलती है और जहाँ बैठकर
 
 
 
भगवान aq ने. गणेशजी को. महाभारत
 
 
 
लिखवाया था |
 
 
 
आदि बद्री, हरियाणा जो भारत की महान नदी
 
 
 
सरस्वती का उद्गम स्थान है ।
 
 
 
4.
 
 
 
विद्यालय में सांस्कृतिक गतिविधियाँ
 
 
 
स्वामीजीने तीन दिन ध्यान किया था ।
 
 
 
१२. जगन्नाथपुरी, उडीसा जहाँ भगवान जगन्नाथ की
 
 
 
रथयात्रा निकलती है ।
 
 
 
१३, कामाख्या मन्दिर, असम जहाँ देवी कामाख्या
 
 
 
शक्तिपीठ है ।
 
 
 
१. संस्कृति का अर्थ क्या है ?
 
 
 
२... सांस्कृतिक गतिविधियाँ किसे कहते हैं ?
 
 
 
३.. विद्यालय में दैनन्दिन स्वरूप की सांस्कृतिक
 
 
 
गतिविधियाँ कौन कौन सी होती हैं ?
 
 
 
४. विद्यालय में समय समय पर होने वाली
 
 
 
सांस्कृतिक गतिविधियाँ कौन सी हैं ?
 
 
 
५... सांस्कृतिक गतिविधियों में कभी. कभी
 
 
 
सांस्कृतिक दृष्टिकोण बनाये रखना कठिन होता
 
 
 
है। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा न हो इसलिये
 
 
 
क्या करें ?
 
 
 
६... सांस्कृतिक गतिविधियों का शैक्षिक कार्य के
 
 
 
साथ सम्बन्ध किस प्रकार से बिठाया जा सकता
 
 
 
है?
 
 
 
७. आज की वैश्विक समस्‍यायें एवं विद्यालय की
 
 
 
सांस्कृतिक गतिविधियाँ - इन दो में सामंजस्य
 
 
 
कैसे बिठा सकते हैं ?
 
 
 
८... सॉस्कृतिक गतिविधियों के साथ छात्र के
 
 
 
परिवार एवं सम्पूर्ण समाज का सम्बन्ध कैसे
 
 
 
बिठा सकते हैं ?
 
 
 
विमर्श
 
 
 
जब से भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व स्थापित
 
 
 
हुआ है तब से विचार के क्षेत्र में घालमेल शुरू हो गया
 
 
 
है । इसमें बहुत बडी भूमिका अनुवाद की है । भारतीय
 
 
 
भाषाओं के संकल्पनात्मक शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद इसके
 
 
 
१९१
 
 
 
खास उदाहरण हैं । उदाहरण के लिये “धर्म' का अनुवाद
 
 
 
<nowiki>*</nowiki>रिलीजन' और “संस्कृति का अनुवाद “कल्चर किया
 
 
 
जाता है । यदि केवल अनुवाद तक ही बात सीमित रहती
 
 
 
है तब बहुत चिन्ता की बात नहीं रहती है । यदि अंग्रेजी
 
 
 
भाषी लोग “संस्कृति को “कल्चर के रूप में और “धर्म'
 
 
 
al “रिलीजन' के रूप में समझते हैं तब सीमित समझ
 
 
 
उनकी ही समस्या बनेगी । परन्तु हुआ यह है कि हम
 
 
 
भारतीय “धर्म' को 'रिलीजन' और “संस्कृति को 'कल्चर'
 
 
 
समझने लगे हैं । अंग्रेजी को ही मानक के रूप में
 
 
 
प्रतिष्ठित करने का और उसे प्रमाण के रूप में स्वीकार
 
 
 
करने का कार्य हमारे देश का बौद्धिक जगत तथा सरकार
 
 
 
करती है । परिणाम स्वरूप सामान्यजन को भी उसका
 
 
 
स्वीकार करना ही पडता है । भले ही हम भारतीय भाषा
 
 
 
में “संस्कृति' बोले, हमारे मनमस्तिष्क में उसकी समझ
 
 
 
“कल्चर के रूप में ही होती है ।
 
 
 
इसलिये प्रथम आवश्यकता “संस्कृति को “कल्चर
 
 
 
से मुक्त कर “संस्कृति' के ही अर्थ में समझने की है ।
 
 
 
संस्कृति का अर्थ होता है “सम्यकू कृति' अर्थात्‌
 
 
 
अच्छी तरह से की हुई कृति । जिसमें अव्यवस्था, न हो,
 
 
 
अनौचित्य न हो, कुरूपता न हो, अशुद्धि न हो, जो
 
 
 
सबका कल्याण करने वाली , सुख देने वाली, आनन्द
 
 
 
देने वाली, सुन्दर, सुशोभित सही कृति है वह संस्कृति है
 
 
 
। इस रूप में वह जीवनशैली है । वह व्यक्तिगत नहीं
 
 
 
अपितु समस्त प्रजा की अर्थात्‌ राष्ट्र की जीवनशैली है |
 
 
 
संस्कृति के दो आयाम हैं । एक तो वह धर्म का
 
 
 
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कृतिरूप है । वह धर्म की प्रणाली है
 
 
 
| aft वह सबका भला करने वाली, सबका कल्याण
 
 
 
करनेवाली बनती है । दूसरी ओर वह सुन्दर है । अतः
 
 
 
संस्कृति में कल्याणकारी और सुन्दर ऐसे दोनों रूप प्रकट
 
 
 
होते हैं ।
 
 
 
जीवन के हर व्यावहारिक आविष्कार में यह स्वरूप
 
 
 
प्रकट होता है । भोजन स्वादिष्ट, हृद्य, सात्त्तिक और
 
 
 
पौष्टिक होता है, अकेला eles a adhe aan
 
 
 
नहीं, वस्र और अलंकार शरीर का रक्षण और पोषण करते
 
 
 
हैं साथ ही शोभा भी बढ़ाते हैं और दृष्टि को आनन्द का
 
 
 
अनुभव भी करवाते हैं; नृत्य, गीत-संगीत, आनन्द भी देते
 
 
 
हैं और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं । श्रेय और प्रेय
 
 
 
को wage में ओतप्रोत बनाने की यह भारतीय
 
 
 
सांस्कृतिक दृष्टि है जो बर्तन साफ करने के, पानी भरने
 
 
 
के, मिट्टी कूटने के, भूमि जोतने के, कपडा बुनने के,
 
 
 
लकडी काटने के कामों में सुन्दरता, आनन्द, मुक्ति की
 
 
 
साधना और लोककल्याण के सभी आयामों को एकत्र
 
 
 
गूंथती है । यह समग्रता का दर्शन है ।
 
 
 
अतः विद्यालयों में केवल रंगमंच कार्यक्रम अर्थात्‌
 
 
 
नृत्य, गीत, नाटक और रंगोली, चित्र, सुशोभन ही
 
 
 
सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है । ये सब भी अपने आपमें
 
 
 
सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हैं । उनके साथ जब शुभ और
 
 
 
पवित्र भाव, शुद्ध आनन्द और मुक्ति की भावना ज़ुडती हैं
 
 
 
तब वे सांस्कृतिक कार्यक्रम कहे जाने योग्य होते हैं,
 
 
 
अन्यथा वे केवल मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं । संस्कृति के
 
 
 
मूल तत्त्वों के अभाव में तो वे भडकाऊ, उत्तेजक और
 
 
 
निकृष्ट मनोवृत्तियों का ही प्रकटीकरण बन जाते हैं । अतः
 
 
 
पहली बात तो जिन्हें हम एक रूढ़ि के तहत सांस्कृतिक
 
 
 
कार्यक्रम कहते हैं उन्हें परिष्कृत करने की अवश्यकता है ।
 
 
 
इसके लिये कुल मिलाकर रुचि परिष्कृत करने की
 
 
 
आवश्यकता होती है |
 
 
 
साथ ही शरीर के अंगउपांगों से होने वाले सभी
 
 
 
छोटे छोटे काम उत्तम और सही पद्धति से करने की
 
 
 
आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिये कागज चिपकाने
 
 
 
श्९२
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
का, कपडे की तह करने का, बस्ते में सामान जमाने का,
 
 
 
कपडे पहनने का काम भी उत्तम पद्धति से करने का
 
 
 
अभ्यास बनाना चाहिये ।
 
 
 
दूसरी आवश्यकता मनोभावों को शुद्ध करने की
 
 
 
होती है ।
 
 
 
विद्यालय में समाजसेवा के कार्य भी सांस्कृतिक
 
 
 
कार्यक्रम ही कहे जाने चाहिये । समाजप्रबोधन हेतु
 
 
 
प्रभातफेरी, ग्रन्थों की. शोभायात्रा और पूजन, यज्ञ,
 
 
 
जन्मदिनोत्सव, कृष्णजन्माष्टमी जैसे उत्सव, मेले सत्संग
 
 
 
आदि सब सांस्कृतिक कार्यक्रम ही हैं । विद्यालय में
 
 
 
मन्दिर, पुस्तकालय, कक्षाकक्ष, प्रवेशट्वरार आदि का
 
 
 
सुशोभन भी सांस्कृतिक गतिविधि ही कहा जायेगा ।
 
 
 
अतिथियों का मन्त्रोच्चार सहित स्वागत पुष्पार्पषण आदि भी
 
 
 
सांस्कृतिक कार्य ही है ।
 
 
 
परन्तु पुष्पगुच्छ ato यदि प्लास्टिक के या
 
 
 
सुगन्धरहित फूलों का है तो वह सांस्कृतिक नहीं है,
 
 
 
मन्त्रोच्चार यदि अशुद्ध और बेसूरे हैं तो वे सांस्कृतिक नहीं
 
 
 
है, रंगोली यदि सुरुचिपूर्ण और कलात्मक नहीं है तो वह
 
 
 
सांस्कृतिक नहीं है । सामान्य वेशभूषा भी यदि शालीन
 
 
 
नहीं है तो वह सांस्कृतिक नहीं है ।
 
 
 
सम्पूर्ण विद्यालय परिसर यदि स्वच्छ, सुशोभित,
 
 
 
शान्त सौहार्दपूर्ण, स्वागतोत्सुक है तो वह सांस्कृतिक है ।
 
 
 
यही संस्कारक्षम वातावरण है |
 
 
 
संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व के सारे निम्न स्तर के,
 
 
 
निकृष्ट दर्ज के तत्त्वों को दूर कर उसे शिष्ट, सभ्य, शुद्ध,
 
 
 
उच्च, उत्कृष्ट बनाती है । यही उसका विकास है । शिक्षा
 
 
 
के इस प्रकार का विकास अपेक्षित है । यह विकास
 
 
 
शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी स्तरों पर होता है ।
 
 
 
ऐसा विकास सिद्ध होता है इसलिये धर्म और संस्कृति को
 
 
 
साथ साथ बोलने का प्रचलन है ।
 
 
 
विद्यालय के सांस्कृतिक स्वरूप की संकल्पना को
 
 
 
ही प्रथम सुसंस्कृत बनाने की आवश्यकता है । मनोयोग से
 
 
 
इन बातों का चिन्तन करने से यह किया जा सकता है,
 
 
 
सतही बातचीत या विचार से यह नहीं होता है ।
 
 
 
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पर्व : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
विद्यालय की प्रतिष्ठा का क्या अर्थ है ?
 
 
 
विद्यालय की प्रतिष्ठा का निम्नलिखित बातों के
 
 
 
साथ क्या सम्बन्ध है ?
 
 
 
१, परीक्षा परिणाम
 
 
 
. सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास
 
 
 
« अन्यान्य कार्यक्रम एवं कार्य
 
 
 
. प्रतियोगिताओं में अग्रक्रम
 
 
 
. सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यों में सहभाग
 
 
 
. समाज को मार्गदर्शन
 
 
 
. हिन्दुत्व का दृष्टिकोण
 
 
 
. हिन्दुत्वनिष्ठ व्यवहार का आग्रह
 
 
 
,. संख्या, भवन, शुल्क, सुविधायें
 
 
 
१०, अंग्रेजी माध्यम
 
 
 
उपर्युक्त सूची में किन बातों का आग्रह उपयुक्त है
 
 
 
और किन बातों का अनुपयुक्त ?
 
 
 
विद्यालय की प्रतिष्ठा एवं विद्यालय के लक्ष्य में
 
 
 
कितना सम्बन्ध होना चाहिये ? सम्बन्ध न होने से
 
 
 
क्या क्या उपाय करने चाहिये ?
 
 
 
समसम्बन्ध न होने पर कितने समझौते करने
 
 
 
चाहिये ?
 
 
 
प्रतिष्ठा के मापदण्ड किस आधार पर बनते हैं ?
 
 
 
चार पाँच विद्यालयों को यह प्रश्नावली भेजी थी ।
 
 
 
परंतु किसी से भी उत्तर प्राप्त नहीं हुए । प्रश्न तो सरल थे ।
 
 
 
उसका शब्दार्थ और ध्वन्यार्थ भी हम समझते तो है परंतु
 
 
 
आज शिक्षा की गाडी जो अत्यंत विपरीत पटरी पर जा रही
 
 
 
है इसके कारण सत्य तो जानते है व्यवहार उलटा हो रहा है
 
 
 
यह जानकर सरल प्रश्न भी उत्तर लिखने में कठीन लगते
 
 
 
होंगे ऐसा अनुमान है ।
 
 
 
अभिमत : विद्या + आलय संधि से विद्यालय शब्द
 
 
 
बनता है । आलय का अर्थ घर । ज्ञान का विद्या का घर
 
 
 
अर्थात्‌ स्थान विद्यालय कहलाता है ।
 
 
 
A 07 CGC MM LF K ww w
 
 
 
विद्यालय की प्रतिष्ठा
 
 
 
१९३
 
 
 
जहाँ ज्ञान की प्रतिष्ठा हो, ज्ञान की पतरित्रता को
 
 
 
जानते हुए सभी व्यवहार हो, तेजस्वी, मेधावि, जिज्ञासु एवं
 
 
 
विनयशील छात्र हो वास्तव मे वहीं गौरवशाली एवं
 
 
 
प्रतिष्ठित विद्यालय होता है ।
 
 
 
विमर्श
 
 
 
विद्यालय साधनास्थली है
 
 
 
विद्यालय शिक्षक एवं छात्रो की साधनास्थली है ।
 
 
 
तपस्थली है । अतः वह पवित्र स्थान है । जहाँ छात्र का
 
 
 
शारीरिक, मानसिक, प्राणिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास
 
 
 
होता है वह गौरवप्राप्त विद्यालय होता है । पर्यावरण,
 
 
 
स्वच्छता, अन्याय का प्रतिकार करना इस प्रकार समाज को
 
 
 
सुल्यवस्थित रखनेवाले सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में
 
 
 
जिसका सक्रीय सहयोग हो वह प्रतिष्ठित विद्यालय है ।
 
 
 
विद्यालय सामाजिक चेतना का केन्द्र है इसलिए समाज को
 
 
 
मार्गदर्शन करना उसका दायित्व बनता है । हिन्दुत्व का
 
 
 
दूष्टीकोन एवं हिन्दुत्वनिष्ठ व्यवहार का आग्रह रखनेवाला
 
 
 
विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त होता है ।
 
 
 
परंतु आज हमारी भ्रमित सोच एवं शिक्षा के
 
 
 
व्यवसायीकरण से प्रतिष्ठा के मापदंड उल्टे पड़े दिखाई देते
 
 
 
है । अंग्रेजी माध्यम, सी.बी.एस.सी., इ.सी.एस.ई बोर्ड के
 
 
 
मान्यता प्राप्त विद्यालय क्रमशः समाज मे प्रतिष्ठित बने है ।
 
 
 
प्रतिष्ठित होने के नाते प्रवेश अधिक अतः छात्रसंख्या
 
 
 
अधिक यह भी प्रतिष्ठा का लक्षण माना जाता है । प्रतिष्ठा
 
 
 
प्राप्त है तो लाखों रुपया शुल्क लेना प्रतिष्ठा बन गई है ।
 
 
 
बडा, भव्य एवं वातानुकुलित कॉम्प्यूटराइड विद्यालय प्रतिष्ठा
 
 
 
के मापदृण्ड बने है । अनेक प्रतियोगिताओं में सहभागी होना
 
 
 
एवं उसमे प्रथम क्रमांक प्राप्त करने हेतु अनुचित मार्ग
 
 
 
अपनाना यह बात स्वाभाविक लगती है । ऐसी अनिष्ट
 
 
 
बातों को हटाकर ज्ञान की प्रतिष्ठा हो वह विद्यालय प्रतिष्ठा
 
 
 
प्राप्त होगा यह समझ विकसित करना भारतीय शिक्षा का
 
 
 
व्यावहारिक आयाम है ।
 
 
 
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तक्षशिला विद्यापीठ
 
 
 
“चाणक्य' धारावाहिक जब देखते हैं तब एक बात
 
 
 
की ओर ध्यान आकर्षित होता है । राज्यसभा में हो या
 
 
 
विद्रतसभा में, तक्षशिला विद्यापीठ का नामोट्लेख होता है
 
 
 
तब सबके हाथ श्रद्धा और आदर के भाव से जुड़ जाते हैं ।
 
 
 
यह श्रद्धा और आदर किस बात के लिये हैं ? वहाँ की श्रेष्ठ
 
 
 
ज्ञान साधना और ज्ञानपरम्परा के लिये । काल के प्रवाह में
 
 
 
तक्षशिला विद्यापीठ एक ऐसा एकमेवाद्धितीय विद्यापीठ है,
 
 
 
एक ऐसा सार्वकालीन विक्रम स्थापित करनेवाला विद्यापीठ
 
 
 
है जिसने लगभग ग्यारहसौ वर्षों तक अपनी श्रेष्ठ ज्ञानपरम्परा
 
 
 
बनाये रखी और सम्पूर्ण विश्व में अपनी श्रेष्ठता स्थापित
 
 
 
की । देशविदेश के fager इस विद्यापीठ में अध्ययन हेतु
 
 
 
आते थे ।
 
 
 
अर्थात्‌ विद्यालय की प्रतिष्ठा का सबसे पहला
 
 
 
मापदण्ड उसकी ज्ञान साधना है, उसका अध्ययन और
 
 
 
अध्यापन है ।
 
 
 
आज भी विद्यालय जाने जाते हैं उनकी पढाई से ।
 
 
 
वर्तमान समय के अनुसार ये मानक बोर्ड और युनिवर्सिटी
 
 
 
की परीक्षाओं के परिणाम पढाई के मानक हैं । कितने
 
 
 
अधिक संख्या में विद्यार्थी कितने अधिक अंकों से परीक्षाओं
 
 
 
में उत्तीर्ण हुए इस बात को प्रसिद्धि दी जाती है क्योंकि
 
 
 
उसीसे प्रतिष्ठा होती है, उसीसे मान्यता होती है, उसीसे
 
 
 
पुरस्कार प्राप्त होते हैं । कितने विविध प्रकार के विषय
 
 
 
पढाये जाते हैं, कितनी विद्याशाखायें हैं, इसकी भी दखल
 
 
 
ली जाती है । कितना और कैसा अनुसन्धान होता है, देश-
 
 
 
विदेश की शोधपत्रिकाओं में कितने शोधपत्र छपते हैं,
 
 
 
कितने आन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्रप्त होते हैं यह प्रतिष्ठा का
 
 
 
विषय है ।
 
 
 
यह सारा शोधकार्य, विभिन्न विद्याशाखायें, परीक्षा के
 
 
 
परिणाम, पुरस्कार आदि सब अध्यापकों के कारण से होता
 
 
 
है । अतः विद्यालय की प्रतिष्ठा उसके शिक्षकों से होती है ।
 
 
 
तक्षशिला विद्यापीठ भी चाणक्य और जीवक जैसे शिक्षकों
 
 
 
के कारण प्रतिष्ठित हुआ ।
 
 
 
शिक्षकों की प्रतिष्ठा उनके ज्ञान, चरित्र और कर्तृत्व
 
 
 
के कारण होती है, होनी चाहिये ।
 
 
 
99x
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
अध्यापन कौशल जिसके कारण समर्थ विद्यार्थी तैयार
 
 
 
होते हैं, जिस समर्थ समाज का निर्माण करते हैं और ज्ञान
 
 
 
का एक पीढी से हस्तान्तरण होकर ज्ञान परम्परा बनती है
 
 
 
और ज्ञानधारा नित्य प्रवाहित रहती है; स्वाध्याय, जिसके
 
 
 
कारण अध्यापक अधिकाधिक ज्ञानवान बनते हैं और
 
 
 
अनुसन्धान, जिसके कारण ज्ञान परिष्कृत होता रहता है,
 
 
 
समृद्ध बनता है और युगानुकूल बनता है शिक्षक की प्रतिष्ठा
 
 
 
के विषय हैं । अर्थात्‌ जो अध्यापन कला में कुशल नहीं
 
 
 
वह विद्वान भले ही हो, शिक्षक नहीं; जो स्वाध्याय न
 
 
 
करता हो वह न अच्छा विद्वान है न अच्छा शिक्षक, और
 
 
 
जो अनुसन्धान नहीं करता वह श्रेष्ठ शिक्षक नहीं बन
 
 
 
सकता ।
 
 
 
श्रेष्ठ शिक्षक विद्यालय की प्रतिष्ठा है ।
 
 
 
विद्यालय की प्रतिष्ठा इसमें है कि श्रेष्ठ शिक्षकों का
 
 
 
आदर होता है, जहाँ शिक्षकों का सम्मान नहीं, स्वतन्त्रता
 
 
 
नहीं वह विद्यालय अच्छा नहीं माना जाता । जो शिक्षक
 
 
 
नौकरी करने के लिये तैयार हो जाते हैं वे शिक्षक शिक्षक
 
 
 
नहीं और जो शिक्षकों को नौकर बनने के लिये मजबूर
 
 
 
करती है वह व्यवस्था श्रेष्ठ व्यवस्था नहीं । ऐसी व्यवस्था में
 
 
 
शिक्षकों का सम्मान भी नौकरों के सम्मान की तरह किया
 
 
 
जाता है । ऐसे विद्यालय की भारतीय मानकों के अनुसार
 
 
 
कोई प्रतिष्ठा नहीं, पाश्चात्य मानकों के अनुसार भले ही हो ।
 
 
 
शिक्षकों और विद्यार्थियों का चरित्र विद्यालय की
 
 
 
प्रतिष्ठा का विषय है । शिक्षकों में शराब, जुआ, भ्रष्टाचार
 
 
 
जैसे व्यसन न हों, अध्यापन कार्य में अप्रामाणिकता न हो
 
 
 
और आचारविचार श्रेष्ठ हों यह शिक्षकों का चरित्र है और
 
 
 
शिक्षकों के प्रति आदर और श्रद्धा हो, अध्ययन में तत्परता
 
 
 
और परिश्रमशीलता हों तथा सद्गुण और सदाचार हों यह
 
 
 
विद्यार्थियों का चरित्र है । इस विद्यालय में परीक्षा में कभी
 
 
 
नकल नहीं होती, परीक्षा विषयक कोई भ्रष्टाचार नहीं होता,
 
 
 
जिस विद्यालय के विद्यार्थियों को ट्यूशन या कोचिंग क्लास
 
 
 
की आवश्यकता नहीं होती, जिस विद्यालय में विद्यार्थियों
 
 
 
के प्रवेश या शिक्षकों की नियुक्ति हेतु डोनेशन नहीं लिया
 
 
 
जाता, जिस विद्यालय में अधिक वेतन पर हस्ताक्षर
 
 
 
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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
करवाकर कम वेतन नहीं दिया जाता आदि बातें
 
 
 
जब सुनिश्चित होती हैं तब वह विद्यालय समाज में प्रतिष्ठित
 
 
 
होता है ।
 
 
 
इतिहास में तक्षशिला एक और बात के लिये प्रतिष्ठित
 
 
 
है। समाज और शास्त्रों की रक्षा के लिये समाज को,
 
 
 
विद्वानों को, शिक्षकों को और गणराज्यों को संगठित कर
 
 
 
अत्याचारी सम्राट को पटुश्रष्ट कर उसके स्थान पर योग्य
 
 
 
सम्राट को अभिषिक्त करने का दायित्व आचार्य चाणक्य के
 
 
 
नेतृत्व में विद्यापीठ ने निभाया । यह ज्ञान की प्रतिष्ठा नहीं,
 
 
 
ज्ञान का दायित्व और कर्तृत्व है । अपने इस दायित्व को
 
 
 
Parmar ak ager fs करनेवाला विद्यालय प्रतिष्ठा
 
 
 
प्राप्त करता है ।
 
 
 
ज्ञान और चरित्र के साथ साथ समाज को मार्गदर्शन
 
 
 
करना, समाज का संगठन करना और समाज की सेवा करना
 
 
 
विद्यालय का काम है। प्राकृतिक आपदाओं के समय
 
 
 
सेवाकार्य करना, सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों में समाज को
 
 
 
सही दिशा देना और समाज की सुस्थिति हेतु राज्य को
 
 
 
सहायता करना विद्यालय की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है ।
 
 
 
प्रतिष्ठा के आज के मापदण्ड
 
 
 
परन्तु आजकल स्थिति कुछ विपरीत भी बनी है ।
 
 
 
आज विद्यालय उनके भवन, सुविधाओं और विद्यार्थी
 
 
 
संख्या से जाने जाते हैं । विद्यालय परिसर जितना विशाल,
 
 
 
विद्यालय का भवन जितना भव्य, भवनों की संख्या जितनी
 
 
 
अधिक, वाहन जितने अधिक, विद्यालय की सुविधायें
 
 
 
जितनी अद्यतन और इन सबके अनुपात में विद्यालय का
 
 
 
शुल्क जितना ऊँचा उतनी विद्यालय की प्रतिष्ठा भी
 
 
 
अधिक |
 
 
 
अंग्रेजी माध्यम प्रतिष्ठा का और एक विषय है ।
 
 
 
जितनी कम आयु में अंग्रेजी पढाया जाता है उतनी अधिक
 
 
 
प्रतिष्ठा होती है । अंग्रेजी के साथ साथ यदि अन्य विदेशी
 
 
 
भाषायें भी सिखाई जाती हैं तो और भी अच्छा है।
 
 
 
विद्यालय में यदि विदेशी छात्र पढ़ते हैं तो वह भी गौरव
 
 
 
का विषय बनता है । विदेशी मेहमान आते हैं तो प्रतिष्ठा
 
 
 
बढती है ।
 
 
 
विदेशी खेल खेले जाते हैं,
 
 
 
विदेश में शैक्षिक भ्रमण के लिये जाना होता है, आन्तर्राष्ट्रीय
 
 
 
बोर्ड की मान्यता है, विदेशी वेश का गणवेश, विद्यालय के
 
 
 
कैण्टीन में कण्टीनेन्टल नाश्ता मिलता है तो विद्यालय
 
 
 
प्रतिष्ठित माना जाता है ।
 
 
 
जिन विद्यालयों महाविद्यालयों में कैम्पस में ही नौकरी
 
 
 
मिल जाती है उन विद्यालयों की प्रतिष्ठा बढती है । जहाँ
 
 
 
मन्त्रियों, प्रशासनिक अधिकारियों, wrest Al add
 
 
 
पढ़ती हैं वे विद्यालय प्रतिष्टित हैं ।
 
 
 
अर्थात्‌ प्रतिष्ठा का केन्द्र बिन्दु अब बदल गया है ।
 
 
 
ज्ञान, चरित्र, संस्कार, सेवा आदि से खिसककर पैसा, सत्ता,
 
 
 
वैभव और नोकरी पर आ गया है । इस बदले हुए केन्द्र का
 
 
 
इतना विस्तार हुआ है कि अब वह लोकमानस में बैठ गया
 
 
 
है। शिक्षकों ने इसे स्वीकार कर लिया है और समाज ने
 
 
 
इसे मान लिया है ।
 
 
 
परन्तु इससे तो समाज की दुर्गति होगी । समाज को
 
 
 
यदि दुर्गति से बचना है तो इस बदले हुए केन्द्र का त्याग
 
 
 
कर ज्ञान को केन्द्र में प्रतिष्ठित करना होगा ।
 
 
 
ज्ञान को प्रतिष्ठित करने के कुछ कठोर उपाय
 
 
 
ज्ञान को केन्द्र में प्रतिष्ठित करने हेतु कुछ कठोर नियम
 
 
 
भी बनाने होंगे । प्रारम्भ में वे अव्यावहारिक और असम्भव
 
 
 
लगेंगे परन्तु अन्ततोगत्वा वे ही इष्ट परिणाम देने वाले सिद्ध
 
 
 
होंगे ।
 
 
 
ये नियम कुछ इस प्रकार होंगे...
 
 
 
१, अध्ययन शुल्क क्रमशः कम करते करते निःशेष
 
 
 
करना । शुल्क नहीं होगा तो ज्ञान पर धनिकों का
 
 
 
प्रभाव कम होगा |
 
 
 
२. शिक्षकों को आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त करना होगा ।
 
 
 
नौकरी करना छोडकर अपनी जिम्मेदारी पर विद्यालय
 
 
 
चलाने होंगे ।
 
 
 
३. शिक्षा का नौकरी से सम्बन्ध विच्छेद्‌ करना होगा ।
 
 
 
स्वतन्त्र रहकर, समाज की सेवा करने की वृत्ति से,
 
 
 
समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उद्योग कर
 
 
 
अथर्जिन करना सिखाना होगा । इस प्रकार समाज की
 
 
 
............. page-212 .............
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आर्थिक स्वतन्त्रता निर्माण करनी
 
 
 
और चरित्र से जाना जाय इसे बार बार लोगों के
 
 
 
होगी । स्वतन्त्र समाज अपने स्वमान की रक्षा करता समक्ष बताना होगा ।
 
 
 
है और शिक्षा का सम्मान करता है । ७... भारतीय ज्ञानधारा को युगानुकूल प्रवाहित करने हेतु
 
 
 
¥. चरित्र का सम्मान करना होगा । शिक्षकों को स्वयं अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य को भारतीय
 
 
 
चसि्रिवान बनकर विद्यार्थियों को चरित्रवान बनाना जीवनदृष्टि में केन्द्रित करना होगा ।
 
 
 
होगा । यह एक आन्तरिक परिवर्तन है और धैर्यपूर्वक निरन्तर
 
 
 
५... परीक्षा केन्द्रों को विद्यालय में लाना होगा । शिक्षक... प्रयास की अपेक्षा करता है । चाणक्य और तक्षशिला यदि
 
 
 
ही अपने विद्यार्थियों को प्रमाणपत्र दे सकें ऐसा... आदर्श हैं तो इन आदर्शों को मूर्त करना कोई सरल काम
 
 
 
विश्वसनीय बनना होगा । नहीं है ।
 
 
 
&. विद्यालय भवन और सुविधाओं से नहीं अपितु ज्ञान
 

Latest revision as of 21:46, 23 June 2021

विद्यालय किसका ?

प्रबन्धसमिति, शासन, प्रधानाचार्य, आचार्य, अन्य कर्मचारी, छात्र, अभिभावक[1] :

  1. इन सभी के विद्यालय के साथ के स्वस्थ सम्बन्धोंका व्यवहारिक स्वरूप कैसा होना चाहिये ?
  2. इन सभी की आपसी सम्बन्ध की व्यावहारिक भूमिका कैसी होनी चाहिये ?
  3. ऐसी कौन सी बातें हैं जो इन सभी को समान रूप से लागू होनी चाहिये ?
  4. इन सभी में विद्यालय किस दृष्टि से किसका होता है?

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

इस वैचारिक स्वरूप की प्रश्नावली पर गुजरात के आचार्यो ने अपने कुछ मत प्रकट किए।वास्तव में विद्यालय मे अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया में आचार्य और छात्रो के मध्य आंतरक्रिया चलती है; अतः इन दोनो का ही विद्यालय होता है। प्रबंध समिती, शासन, प्रधानाचार्य अन्य कर्मचारी अभिभावक ये पाँच घटक पूरक बनना चाहिये।विद्यालय का परिचय गुरु के ही नाम से होता है ऐसी परंपरा भारत मे रही है। वसिष्ठ, सांदिपनी, द्रोणाचार्य इनके गुरुकुल उनके ही नाम से पहचाने जाते थे। टैगोर जी का शान्तिनिकेतन, तिलक जी का न्यूइंग्लिश स्कूल, गांधीजी का बुनियादी विद्यालय रहा है। अतः आचार्य और छात्र दोनों का ही विद्यालय अभिप्रेत है।

प्रबंध समिति भवन आदि व्यवस्था करे। आज शासन अनुदान द्वारा आचार्यों की वेतनपूर्ति, प्रधानाचार्य आचार्यों को शैक्षिक मार्गदर्शन, अन्य कर्मचारी प्रशासकीय व्यवस्थाएँ सम्भालना, अभिभावक विद्यालय की आपूर्ति करना, इसमे सहायक बने। परंतु आज प्रबंधन समिति एवं शासन अपना अधिकार जमाने का कार्य करते है। इन सब घटकों का व्यवहारिक स्वरूप के संदर्भ मे प्रबंध समिति एवं शासन विद्यालय के संरक्षक प्रधानाचार्य आचार्य एवं कर्मचारियों के मार्गदर्शक तथा शासन प्रबंध समिती और विद्यालय के मध्य सेतू के रूप में कार्य करे, अभिभावक का आचार्यों के साथ आत्मीय सबंध हो। विद्यालय मे श्रद्धा हो ऐसा मत प्रकट हुआ।

छात्र का विकास यह बात समान रूप से यह सभी को लागू चाहिये तथा सभी में घनिष्ठता होनी चाहिये।

विमर्श

विद्यालय किसका इस प्रश्न पर चर्चा करने से पूर्व हम जरा इस विषय पर भी विचार करें कि विद्यालय किसे कहते हैं। जिस प्रकार मकान घर नहीं होता है, मकान में रहने वाला परिवार घर होता है, उस प्रकार केवल मकान विद्यालय नहीं होता है, उसमें होनेवाले अध्ययन, अध्यापन के कारण, उसमें पढने वाले विद्यार्थी और पढ़ाने वाले अध्यापकों के कारण विद्यालय विद्यालय होता है।

इस प्रकार तीन घटकों का मिलकर विद्यालय होता है। पहला: शिक्षा का कार्य अर्थात्‌ अध्ययन अध्यापन का कार्य, दूसरा: विद्यार्थी और शिक्षक तथा तीसरा: विद्यालय का भवन । इन तीनों के एक दूसरे से सम्बन्ध से ही विद्यालय विद्यालय बनता है। विद्यालय के भवन की बात आती है तब और एक घटक भी साथ जुड़ता है! वह है संचालक। साथ ही एक घटक और भी जुड़ता है! वह है सरकार।

विद्यार्थी, शिक्षक, संचालक और सरकार इन चार घटकों में विद्यालय किसका होता है ?

  • विद्यार्थी कहेंगे कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हम उसमें पढते हैं।
  • शिक्षक कहेंगे कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हम उसमें पढाते हैं।
  • संचालक कहेंगे कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हमने उसे बनाया है।
  • सरकार कहेगी कि विद्यालय हमारा है क्योंकि हमने उसे मान्यता दी है।

इस प्रकार सब कहेंगे कि विद्यालय हमारा है। तो फिर वास्तव में विद्यालय किसका होता है ?

कसौटी क्या है ?

किसी विद्यार्थी पर तथाकथित अन्याय होता है, अथवा विद्यार्थी संघकी कोई बात नहीं मानी जाती है तब विद्यार्थी आन्दोलन करते हैं, हडताल करते हैं, विरोध प्रदर्शन करते हैं। विरोध प्रदर्शन में पथराव होता है, फर्नीचर तोडा जाता है, विद्यालय को भारी नुकसान पहुँचता है। तब विद्यालय किसका होता है ? क्या विद्यार्थियों का होता है ? यदि वह विद्यार्थियों का है तो उसे नुकसान कैसे पहुँचाया जा सकता है ?

बडे विद्यार्थियों की ही बात क्यों करें ? छोटे विद्यार्थी बेन्च और डेस्क पर कुछ लिखते हैं, पंखों के पंख मरोडते हैं, स्वीचों को तोडते हैं, दीवारों को गन्दा करते हैं, कूडा कहीं पर भी फैंकते हैं तब विद्यालय किसका होता है ? विद्यालय के भवन को यदि आग लग जाय तो किसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ?

विद्यार्थी का कोई नुकसान नहीं होता, उन्हें दुःख नहीं होता, न वे नुकसान भरपाई के लिये कुछ भी करते हैं।शिक्षकों को कोई दुःख नहीं होगा । उल्टे दो तीन दिन की छुट्टी होने की खुशी ही होगी।संचालकों का क्या होगा ? यदि भवन की मालिकी किसी एक व्यक्ति की है तो उसे चिन्ता होगी, यदि ट्रस्ट की है तो भागदौड की परेशानी होगी अन्यथा कोई दुःख नहीं होगा क्योंकि वह समाज के पैसे से बना है इसलिये समाज का नुकसान होगा।

सरकार को तो दुःख होने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि सरकार किसी व्यक्ति की नहीं बनती, वह एक व्यवस्था है, एक तन्त्र है व्यवस्था में भावना नहीं होती।यह तो विद्यालय के भवन की बात हुई। यह तो केवल भौतिक पदार्थ है।

परन्तु विद्यालय में किसी विद्यार्थी ने किसी लडकी पर बलात्कार किया, या विद्यालय के विद्यार्थी परीक्षा में नकल करते पकडे गये या विद्यालय के शिक्षक परीक्षा में भ्रष्टाचार करते पकडे गये तो विद्यार्थी, शिक्षक, संचालक और सरकार की क्या प्रतिक्रिया होगी ? या विद्यालय में अच्छी पढाई नहीं होती ऐसा बोला जाता है तब किसकी क्या प्रतिक्रिया होती है ?सरकारी विद्यालयों के व्यवस्थातन्त्र के बारे में, शिक्षकों के बारे में खूब आलोचना होती है तब सरकार और शिक्षकों की क्या प्रतिक्रिया होती है ?

देखा यह जाता है कि इन चारों में से किसी भी वर्ग का विद्यालय के साथ कोई भावनात्मक सम्बन्ध नहीं होता । सबका अपने अपने स्वार्थ से प्रेरित सम्बन्ध होता है और अपने स्वार्थ की पूर्ति होने पर समाप्त हो जाता है।

विद्यार्थी अपनी पढाई हेतु विद्यालय से जुडा है, विद्यालय के भवन से, व्यवस्थातन्त्र से, नीतिनियमों से उसका कोई लेना देना नहीं है। पढाई के कार्य में भी प्रत्यक्ष ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं, परीक्षा के परिणाम के साथ ही सम्बन्ध है। इसलिये परीक्षा समाप्त होते ही अध्ययन से, अध्यापकों से, विद्यालय की व्यवस्था से, विद्यालय की रीतिनीति से उसका सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के अलावा उसे और कुछ नहीं करना है । इसलिये विद्यालय के भवन को आग लगे, या शिक्षकों पर कोई आरोप लगे या विद्यालय की प्रतिष्ठा दांव पर लगे उसका कोई नुकसान नहीं होता। यह हकीकत बताती है कि विद्यालय विद्यार्थियों का तो नहीं है। वे विद्यालयके लिये कुछ भी नहीं करेंगे।

शिक्षकों का भाव कैसा है ? हम सरकार के अथवा संचालकों के विद्यालय में नौकरी करते हैं। वेतन के बदले में पढाना हमारा काम है। पढाने के सम्बन्ध में जो नियम कानून हैं उनको हम मानेंगे, उनका पालन करेंगे । पढाने के सम्बन्ध में हमारे जो अधिकार हैं वे माँगेंगे। विद्यालय का समय पूरा हुआ हमारा काम भी पूरा हुआ। शेष समय हमारा है। उस शेष समय में विद्यालय का विचार करने की हमारी जिम्मेदारी नहीं।

संचालक कहते हैं कि विद्यालय के भवन की मालिकी हमारी है, हमने शिक्षकों को नियुक्त किया है, हमने विद्यर्थियों को प्रवेश दिया है इसलिये हमारा अधिकार है परन्तु पढाने का काम हमारा नहीं है, उसकी जिम्मेदारी हमारी नहीं है। अध्ययन विषयक, विद्यार्थियों के चरित्र विषयक कोई अनहोनी होती है तो उसकी जिम्मेदारी शिक्षकों और अभिभावकों की है । हम उनके विरुद्ध कार्यवाही करेंगे, उन्हें दण्ड देंगे।

परन्तु इससे आगे बात नहीं बढती।

सरकार की तो कोई भूमिका बनती ही नहीं है।

शिक्षा संस्थाओं को लेकर चित्र आज ऐसा है। विद्यालय के भवन की मालिकी संचालकों की इसलिये उनका मालिकयत का सम्बन्ध, सरकार का नियन्त्रक के नाते सम्बन्ध. शिक्षकों का अपने वेतन का सम्बन्ध और विद्यार्थियों का अपनी परीक्षा से सम्बन्ध। इसमें विद्या कहाँ है ? विद्या की प्रतिष्ठा कहाँ है ? विद्या की साधना का तो प्रश्न ही नहीं है। ज्ञानसाधना का मिशन होने की सम्भावना ही नहीं है।

देश में अनेक विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय हैं जहाँ अध्ययन - अध्यापन अच्छा होता है और ज्ञानसाधना भी होती है परन्तु वह व्यक्तियों के कारण से होता है. व्यवस्था के कारण से नहीं। भले ही व्यक्तियों के कारण हो, उसका लाभ अवश्य होता है। परन्तु यह अपवाद रूप स्थिति है। सार्वत्रिक स्थिति तो सरोकार विहीनता की ही है।

इस का उपाय क्या है ?

शिक्षाक्षेत्र में नौकरी की व्यवस्था जब तक समाप्त नहीं होती तब तक परिस्थिति में सुधार नहीं हो सकता। घर में कोई नौकरी नहीं करता, काम सब करते हैं। घर में रहने का घर के सभी सदस्यों को जन्मसिद्ध अधिकार है। घर सबका है और सेवा करना ही सबका धर्म है। एकदूसरे के लिये सब काम करते हैं। घर की प्रतिष्ठा सबकी चिन्ता का विषय है। घर की बदनामी सबकी बदनामी है। मातापिता सन्तानों के लिये और सन्ताने मातापिता के लिये जीते हैं। तभी वह परिवार है । परिवार भावना, व्यवस्था और सम्बन्धों से बनता है। तीनों बातें एक ही स्थान पर केन्द्रित हुई है।

विद्यालय भी परिवार बनना चाहिये, तभी वह धार्मिक संकल्पना का विद्यालय बनेगा। व्यवस्था, नियन्त्रण, कार्य जब भिन्न भिन्न स्थानों पर केन्द्रित होंगे तब वह एकसंध परिवार नहीं बनेगा। वर्तमान व्यवस्था ही ऐसी बनी है जहाँ विद्यालय परिवार बनने की सम्भावना नहीं है। विद्यालय को परिवार मानने के लिये शिक्षकों और विद्यार्थियों का प्रबोधन करने की भावनात्मक बातें बहुत की जाती हैं परन्तु परिणाम दिखाई नहीं देता क्योंकि परिवार बनने के लिये जो एकसंघ व्यवस्था चाहिये उसकी हम बात नहीं करते। व्यवस्था विशृंखलता की और अनेक केन्द्री स्वार्थों की और भावना परिवार की ऐसी दो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।

शिक्षक केन्द्रित विद्यालय ही इसका सही और परिणामकारी उपाय है। इस व्यवस्था के लिये शिक्षकों को सिद्ध और समर्थ बनना होगा तथा संचालकों और सरकार को अनुकूल। शिक्षकाधीन शिक्षा इसका सार्थक सूत्र है।

विद्यालय का शैक्षिक भ्रमण कार्यक्रम

  1. शैक्षिक भ्रमण का अर्थ क्या है ?
  2. भ्रमण के लिये स्थान का चयन किस प्रकार से करना चाहिये ?
  3. भ्रमण के समय शैक्षिक व्यवहार कैसा होता है ?
  4. भ्रमण के समय छात्र एवं आचायों के व्यवहार के सम्बन्ध में किन किन बातों पर विचार करना चाहिये ?
  5. यदि भ्रमण शैक्षिक है तो वह सभी छात्रों के लिये होना चाहिये । इसकी व्यवस्था कैसे कर सकते हैं?
  6. भ्रमण की आर्थिक व्यवस्था के सम्बन्ध में क्या विचार करना चाहिये ?
  7. शैक्षिक भ्रमण का पाठ्यक्रम के साथ क्या सम्बन्ध है ?
  8. भ्रमण की पूर्वतैयारी एवं भ्रमण का अनुवर्ती कार्य - ये दोनों कैसे होते हैं ?
  9. भ्रमण के माध्यम से सांस्कृतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय विकास किस प्रकार से होता है ?
  10. भ्रमण के माध्यम से व्यावहारिक ज्ञान का विकास किस प्रकार से होता है ?

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

विद्याभारती केवल प्रान्त के कृष्णदासजीने प्रान्त के आचार्य प्रश्नावली भरवायी है। भाषा की समस्या के कारण प्रश्न और उत्तर समझने में दोनो तरफ से कठिनाई अनुभव हुई। तथापि उत्साह से यह कार्य किया गया अतः चर्चा के माध्यम से जो समझ में आया उसे अभिमत मे स्थान दिया है। आचार्य एवं अभिभावकों ने इस प्रश्नावली के संबंध मे कुछ विचार किया है। निसर्ग समृद्ध भूमि का जिन्हें प्रत्यक्ष अनुभव है। अतः निसर्ग के साथ रहने हेतू भ्रमण (ट्रिप) योजना करना यही विचार प्रधान मानकर प्रश्नावली के उत्तर लिखे गये। भ्रमण के लिए अच्छे स्थान एवं उनके नाम बताए गये। भ्रमण समय में कौन सी सावधानीयाँ रखना इसका भी विचार हुआ परन्तु भ्रमण के साथ शैक्षिक बातों का विचार बहुत कम रहा।

अत्यंत विचारपूर्ण और गहराई मे विचार करने वाली यह दस प्रश्नों की प्रश्नावली थी। देखना और निरीक्षण करना दोनों भी दृश्येंद्रिय से की जानेवाली क्रियाएँ हैं। देखना आँखोंसे होता है परंतु निरीक्षण मे आँखों के साथ मन और बुद्धी भी जुड़ते हैं। उसी प्रकार भ्रमण और शैक्षिक भ्रमण में भी अंतर है। आज विद्यालयों में भ्रमण कार्यक्रम का अर्थ भ्रमण इतना ही किया जाता है।

अभिमत

भ्रमण अर्थात् घूमना। शैक्षिक भ्रमण अर्थात् कुछ जानने समझने के लिए घूमना।

  1. उस दृष्टि से गाँव का साप्ताहिक बाजार, मेले, प्राचीन मन्दिर, अखाड़े, प्रेक्षणीय स्थान, जंगल, उद्याने, उपवन, बाँध, पर्वतारोहण, नदीकिनारा, समुद्रकिनारा, म्युझियम, कारखाने, गोशाला, फसल से भरी खेती, फल के बगीचे, निसर्गरम्य स्थान, प्रपात, गरमपानी के झरने इत्यादि प्रकार के स्थान शैक्षिक भ्रमण के लिए होने चाहिये।
  2. जहाँ जाना वहाँ क्या देखना, किससे मिलना, कैसी पूछताछ करना, उसकी विस्तृत चर्चा शिक्षकों ने विद्यार्थियों के साथ करनी चाहिये।
  3. भ्रमण के समय अध्यापक और छात्र दोनों में समवयस्क जैसा व्यवहार हो परंतु अनुशासन, और आदरभाव भी होना आवश्यक है।
  4. भ्रमण शैक्षिक होने के कारण सब विद्यार्थियों की सहभागिता अवश्य हो। क्षेत्रभेंट करनेके लिए छात्रों की टोली बने ये टोलियाँ ३-४ स्थानों पर अलग अलग जाये। दूसरे दिन सब छात्र मिलकर चर्चा में सम्मिलित हों इस प्रकार का आयोजन करना चाहिये। भ्रमण खर्च सब कर सके ऐसा ही हो कभी कभी खर्चिले भ्रमण मे ऐच्छिकता से सम्मिलित होने का प्रावधान किया जाता है ऐसा न हो। ऐसा भ्रमण शैक्षिक नहीं होता है, मात्र मनोरंजन को दिया गया व्यावसायिक रूप ही है।

शैक्षिक भ्रमण से इतिहास भूगोल समाजविज्ञान आदि विषयों का अध्ययन होता है। भ्रमण से पूर्व योग्य सूचनाएँ सावधानी एवं पूर्वजानकारी (स्थान संदर्भ में) और वापसी के बाद उस विषय में चर्चा लेखन प्रश्नावलियाँ तैयार करना आदि अवश्य करें।

कुंभ मेला, वेदपाठशाला आदि स्थानों में जाकर संस्कृति परिचय होता है। सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास होता है। पूर्व के जमाने में संतवृन्द, शंकराचार्य पैदल यात्रा करते थे। उन्हें देशकाल परिस्थिति का आकलन होता था। वह शैक्षिक भ्रमण था। आज वह तत्व ध्यान में रखकर परिस्थिति एवं छात्रों की आयु क्षमता ध्यान में लेते हुए योग्य परिवर्तन करके विद्यालयों ने शैक्षिक भ्रमण की योजना बनानी चाहिये।

विमर्श

शैक्षिक भ्रमण सम्बन्धी विचारणीय मुद्दे

आज हमने सभी बातों को उल्टा कर दिया है। उसमें भ्रमण का भी विषय समाविष्ट है। जरा इन मुद्दों पर विचार करें...

  1. शैक्षिक भ्रमण में से शैक्षिक शब्द छूट गया है, विस्मृत हो गया है। उसका कोई प्रयोजन नहीं रहा। अब केवल भ्रमण ही रह गया है जिसका उद्देश्य शैक्षिक नहीं है, मनोरंजन है, मजा करना है।
  2. औपचारिकता के लिये अभी भी यह शैक्षिक भ्रमण है। भ्रमण यदि शैक्षिक है तो रेलवे की ओर से ५० प्रतिशत किराया कम हो जाता है, दस विद्यार्थियों पर एक शिक्षक की निःशुल्क यात्रा होती है। इसलिये सरकारी एवं विद्यालय के कार्यालयमें और रेलवे या अन्य यातायात के लिये यह शैक्षिक भ्रमण है, विद्यर्थियों और शिक्षकों - भ्रमण हेतु जाने वालों - के लिये यह मनोरंजन यात्रा है।
  3. सबसे पहले यह दुविधा दूर करनी चाहिये। यह दुविधा अप्रामाणिकता है, दम्भ है, झूठ बोलकर लाभ लेने की वृत्ति प्रवृत्ति है। विद्यार्थियों पर इससे भ्रष्टाचार के संस्कार होते हैं।
  4. विद्यार्थियों, अभिभावकों और शिक्षकों में शैक्षिक भ्रमण' शब्द परिचित, प्रचलित और प्रतिष्ठित करना चाहिये और विद्यार्थियों को शैक्षिक भ्रमण का अर्थ और उद्देश्य समझाना चाहिये।
  5. इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, संस्कृति आदि विषयों के साथ भ्रमण कार्यक्रम को जाड़ना चाहिये। भिन्न भिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रम के साथ उसे जोड़ना चाहिये। कक्षा और विषय के अनुसार विभिन्न गट बनाने चाहिये। गट में एक साथ कम संख्या होनी चाहिये ताकि व्यवस्था ठीक बनी रहे।
  6. जब ठीक से प्रबोधन नहीं किया जाता है तब जहाँ जाते हैं उस दर्शनीय स्थान के दर्शन और अवलोकन तो एक और रह जाते हैं और यात्रा के दौरान का दंगा, खान पान, वेश और फैशन, फोटो सेशन, खरीदी आदि मुख्य बातें बन जाती हैं। विद्यार्थियों और शिक्षकों की इस मानसिकता का उपचार करने की आवश्यकता है। शिक्षकों का उपचार शिक्षाशास्त्रियों ने और विद्यार्थीयों का उपचार शिक्षकों ने करना चाहिये।
  7. शैक्षिक भ्रमण देशदर्शन और संस्कृति दर्शन हेतु होता है, इतिहास दर्शन हेतु भी होता है।
  8. अपने ही नगर का भूगोल और दर्शनीय स्थान देखने से भ्रमण कार्यक्रम की शुरुआत होती है। आगे चलकर अपना जिला, अपना राज्य और अपने देश का भ्रमण करना चाहिये।
  9. कुछ उदाहरण देखें:
    1. कक्षा में यदि शिवाजी महाराज का इतिहास पढ़ना है तो दो प्रकार से भ्रमण गट बन सकते हैं। एक गट महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज के गढ़ और किले देखने के लिये और दसरा गट आगरा और दिल्ली के किले, जहाँ शिवाजी महाराज को औरंगजेबने कैद में रखा था और मिठाई की टोकरियों में बैठकर पुत्र के साथ वे कैद से भागकर वापस अपनी राजधानी रायगढ़ पहुंचे थे।
    2. संस्कृति विषय में बारह ज्योतिर्लिंग और चार धाम का वर्णन आता है। वहाँ जाकर उन्हें देखने की योजना बनानी चाहिये।
    3. दिल्ली का लोहस्तम्भ, अजंता की चित्रावलि, कैलास मन्दिर, वाराणसी की वेधशाला के अवशेष आदि भारत की कारीगरी के नमूने हैं, गौरवबिन्दु हैं। उन्हें देखने की योजना बना सकते हैं।
  10. इस प्रकार विशिष्ट उद्देश्यों को लेकर भ्रमण की योजना बनानी चाहिये। परन्तु भ्रमण हेतु जाने से पहले और आने के बाद बहुत सारी शैक्षिक गतिविधियों को भ्रमण के साथ जोड़ना आवश्यक है।
  11. भ्रमण में जाने से पूर्व स्थानों की पूरी जानकारी, यात्रा का उद्देश्य, वहाँ जाकर करने के काम, वापस आकर देने के वृत्त हेतु करने के कार्य की जानकारी देनी चाहिये।
  12. यात्रा के दौरान जिन आचारों का पालन करना है उस सम्बन्ध में उचित पद्धति से विद्यार्थियों का प्रबोधन करना चाहिये। यह बात बहुत कठिन है क्योंकि भ्रमण के साथ विद्यार्थियों की उन्मुक्तता की वृत्ति जुड़ी हुई होती है। दैनन्दिन जीवन में भी उनकी अभिमुखता शिक्षा, संस्कृति, देश आदि की ओर बनाना कठिन हो जाता है। सारा विद्यार्थीजगत भ्रमण की ओर मनोरंजन की दृष्टि से देखता है तब एक विद्यालय के विद्यार्थियों को यात्रा के दौरान शिष्ट व्यवहार करने को कहना कठिन ही होता है तथापि कुछ विद्यालयों के उदाहरण ऐसे भी हैं जो इस बात को सम्भव बनाते हैं। उनके अनुभव से हम कह सकते हैं कि यह कार्य कठिन अवश्य होगा, असम्भव नहीं है।
  13. भ्रमण के दौरान लेखन पुस्तिका में अनुभव लिखकर स्मृति में रखने लायक स्थानों के छायाचित्र लेना, सम्बन्धित लोगोंं के साथ वार्तालाप करना, वहाँ यदि कोई गाइड है तो उसे प्रश्न पूछना आदि बातों में शिक्षकों ने विद्यार्थीयों का मार्गदर्शन और सहायता करनी चाहिये। एक स्थान पर बार बार जाना होता नहीं है अतः पूर्ण रूप से अनुभव लेना आवश्यक है।
  14. वापस आने के बाद अनुभव कथन और लेखन, वृत्त-कथन और लेखन, छायाचित्रों की प्रदर्शनी आदि कार्यक्रम करने चाहिये। अपना किस विषय के साथ कैसा सम्बन्ध जुड़ा यह भी समझाना चाहिये।
  15. शैक्षिक भ्रमण यह क्रियात्मक शिक्षण ही है। शिक्षण में यदि आनन्द आता है तो यह विशेष लाभ है। यह आनन्द शैक्षिक है तो और भी लाभ है। आनन्द जानकारी की तरह बाहर से हृदय में नहीं डाला जाता, वह अन्दर जन्मता है और बाहर प्रकट होता है। ऐसे आनन्द का अनुभव आता है तो भ्रमण कार्यक्रम सार्थक हुआ यह कह सकते हैं। शिक्षकों को इस दिशा में प्रयास करना चाहिये।
  16. आजकल कुछ इण्टरनेशनल विद्यालय विद्यार्थियों को विदेश यात्रा के लिये ले जाते हैं। विदेशयात्रा यह शैक्षिक विषय नहीं है, विद्यालय में प्रवेश हेतु आकर्षण का इनका उदाहरण अनेकों को अनुकरण आकर्षण का इनका उदाहरण अनेकों को अनुकरण की प्रेरणा देता है। फिर विद्यालयों में स्पर्धा होने लगती है। स्पर्धा के अनेक क्षेत्र खुल जाते हैं और शैक्षिक उद्देश्य उपेक्षित हो जाते हैं।
  17. शैक्षिक भ्रमण को हम अध्ययन यात्रा का नाम भी दे सकते हैं। देश के अनेक भूषण रूप विद्वान, वैज्ञानिक, कारीगर, कलाकार आदि से भेंट कर उनके साथ वार्तालाप करना अध्ययन यात्रा का उद्देश्य हो सकता है। उदाहरण के लिये परम संगणक के जनक डॉ. विजय भटकर, महान वैज्ञानिक डॉ. रघुनाथ माशेलकर, वाराणसी के शास्त्री लक्ष्मण शास्त्री द्रविड, प्रसिद्ध सन्त मोरारी बापू, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प. पू. सरसंघचालक मोहनजी भागवत, पू. रामदेव महाराज, दक्षिण की अम्मा माता अमृतानन्दमयी आदि अनेक महानुभाव हैं जो विद्यार्थियों के आदर्श बन सकते हैं और जिनसे मिलना विशिष्ट अनुभव हो सकता है। ये तो कुछ संकेत मात्र हैं। भारत तो ऐसे महापुरुषों की खान है।

इसी प्रकार से अनेक सेवा प्रकल्प, निर्माण प्रकल्प, शिक्षा प्रकल्प चलते हैं जिन की भेंट करना ज्ञान में वृद्धि करना है।

दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता

शैक्षिक दृष्टि से यदि विचार करने लगें तो शैक्षिक। भ्रमण के विषय में हम अनेक नई बातें सोच सकते हैं। केवल दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा के ठहरे हुए पानी को प्रवाहित करने से सडाँध दूर होगी और शैक्षिक गतिविधियाँ परिष्कृत होंगी।

देश में कुछ जाने और जानने योग्य स्थान

  1. पुनर्रचित नालन्दा विश्वविद्यालय
  2. पोखरण जहाँ १९९८ में अणुपरीक्षण हुआ था ।
  3. कालडी, केरल जो भगवान शंकराचार्य का जन्मस्थान है।
  4. बासर, आन्ध्रप्रदेश का सरस्वती मन्दिर जो भगवान वेदव्यास द्वारा निर्मित है।
  5. कानपुर के पास बिठूर जो झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्मस्थान है और जहाँ तात्या टोपे का घर है।
  6. हम्पी, कर्नाटक जो विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी।
  7. सम्पूर्ण बाम्बू केन्द्र, लवादा, महाराष्ट्र जहाँ बाम्बू तथा अन्य कारीगरी के गुरुकुल हैं ।
  8. बेरफूट युनिवर्सिटी, जयपुर जहाँ जिन्हें लिखना पढ़ना नहीं आता ऐसी महिलायें कम्प्यूटर का काम करती
  9. कुरुक्षेत्र, हरियाणा जहाँ महाभारत का युद्ध हुआ था और भगवान श्रीकृष्णने गीता का उपदेश दिया था।
  10. नैमिषारण्य, उत्तर प्रदेश जहाँ आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व ८८,००० ऋषि एकत्रित हुए थे और बारह वर्ष तक ज्ञानयज्ञ किया था।
  11. विवेकानन्द शिला स्मारक, कन्याकुमारी जहाँ बैठकर स्वामीजीने तीन दिन ध्यान किया था।
  12. जगन्नाथपुरी, उडीसा जहाँ भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकलती है।
  13. कामाख्या मन्दिर, असम जहाँ देवी कामाख्या शक्तिपीठ है।
  14. हिमालय में रोहतांग पास जहाँ से व्यास (बियास) नदी निकलती है और जहाँ बैठकर भगवान वेदव्यास ने गणेशजी को महाभारत लिखवाया था।
  15. आदि बद्री, हरियाणा जो भारत की महान नदी सरस्वती का उद्गम स्थान है।

विद्यालय में सांस्कृतिक गतिविधियाँ

  1. संस्कृति का अर्थ क्या है ?
  2. सांस्कृतिक गतिविधियाँ किसे कहते हैं ?
  3. विद्यालय में दैनन्दिन स्वरूप की सांस्कृतिक गतिविधियाँ कौन कौन सी होती हैं ?
  4. विद्यालय में समय समय पर होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियाँ कौन सी हैं ?
  5. सांस्कृतिक गतिविधियों में कभी कभी सांस्कृतिक दृष्टिकोण बनाये रखना कठिन होता है। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा न हो इसलिये क्या करें ?
  6. सांस्कृतिक गतिविधियों का शैक्षिक कार्य के साथ सम्बन्ध किस प्रकार से बिठाया जा सकता है ?
  7. आज की वैश्विक समस्यायें एवं विद्यालय की सांस्कृतिक गतिविधियाँ - इन दो में सामंजस्य कैसे बिठा सकते हैं ?
  8. सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ छात्र के परिवार एवं सम्पूर्ण समाज का सम्बन्ध कैसे बिठा सकते हैं ?

विमर्श

जब से भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व स्थापित हुआ है तब से विचार के क्षेत्र में घालमेल आरम्भ हो गया है। इसमें बहुत बड़ी भूमिका अनुवाद की है। धार्मिक भाषाओं के संकल्पनात्मक शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद इसके खास उदाहरण हैं। उदाहरण के लिये 'धर्म' का अनुवाद ‘रिलीजन' और 'संस्कृति' का अनुवाद 'कल्चर' किया जाता है। यदि केवल अनुवाद तक ही बात सीमित रहती है तब बहत चिन्ता की बात नहीं रहती है। यदि अंग्रेजी भाषी लोग ‘संस्कृति' को 'कल्चर' के रूप में और 'धर्म' को ‘रिलीजन' के रूप में समझते हैं तब सीमित समझ उनकी ही समस्या बनेगी । परन्तु हुआ यह है कि हम धार्मिक 'धर्म' को 'रिलीजन' और 'संस्कृति' को 'कल्चर' समझने लगे हैं। अंग्रेजी को ही मानक के रूप में प्रतिष्ठित करने का और उसे प्रमाण के रूप में स्वीकार करने का कार्य हमारे देश का बौद्धिक जगत तथा सरकार करती है। परिणाम स्वरूप सामान्यजन को भी उसका स्वीकार करना ही पड़ता है। भले ही हम धार्मिक भाषा में संस्कृति' बोले, हमारे मनमस्तिष्क में उसकी समझ 'कल्चर' के रूप में ही होती है।

इसलिये प्रथम आवश्यकता ‘संस्कृति' को 'कल्चर' से मुक्त कर संस्कृति' के ही अर्थ में समझने की है।

संस्कृति का अर्थ होता है ‘सम्यक् कृति' अर्थात् अच्छी तरह से की हुई कृति । जिसमें अव्यवस्था, न हो, अनौचित्य न हो, कुरूपता न हो, अशुद्धि न हो, जो सबका कल्याण करने वाली , सुख देने वाली, आनन्द देने वाली, सुन्दर, सुशोभित सही कृति है वह संस्कृति है । इस रूप में वह जीवनशैली है । वह व्यक्तिगत नहीं अपितु समस्त प्रजा की अर्थात् राष्ट्र की जीवनशैली है ।

संस्कृति के दो आयाम हैं । एक तो वह धर्म का कृतिरूप है । वह धर्म की प्रणाली है । तभी वह सबका भला करने वाली, सबका कल्याण करनेवाली बनती है । दूसरी ओर वह सुन्दर है । अतः संस्कृति में कल्याणकारी और सुन्दर ऐसे दोनों रूप प्रकट होते हैं।

जीवन के हर व्यावहारिक आविष्कार में यह स्वरूप प्रकट होता है। भोजन स्वादिष्ट, हृद्य, सात्त्विक और पौष्टिक होता है.अकेला स्वादिष्ट या अकेला सात्त्विक नहीं, वस्त्र और अलंकार शरीर का रक्षण और पोषण करते हैं साथ ही शोभा भी बढाते हैं और दृष्टि को आनन्द का अनुभव भी करवाते हैं; नृत्य, गीत-संगीत, आनन्द भी देते हैं और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। श्रेय और प्रेय को एकदूसरे में ओतप्रोत बनाने की यह धार्मिक सांस्कृतिक दृष्टि है जो बर्तन साफ करने के, पानी भरने के, मिट्टी कूटने के, भूमि जोतने के, कपडा बुनने के, लकडी काटने के कामों में सुन्दरता, आनन्द, मुक्ति की साधना और लोककल्याण के सभी आयामों को एकत्र गूंथती है। यह समग्रता का दर्शन है।

अतः विद्यालयों में केवल रंगमंच कार्यक्रम अर्थात् नृत्य, गीत, नाटक और रंगोली, चित्र, सुशोभन ही सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है। ये सब भी अपने आपमें सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हैं। उनके साथ जब शुभ और पवित्र भाव, शुद्ध आनन्द और मुक्ति की भावना जुडती हैं तब वे सांस्कृतिक कार्यक्रम कहे जाने योग्य होते हैं, अन्यथा वे केवल मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं। संस्कृति के मूल तत्वों के अभाव में तो वे भडकाऊ, उत्तेजक और निकृष्ट मनोवृत्तियों का ही प्रकटीकरण बन जाते हैं। अतः पहली बात तो जिन्हें हम एक रूढि के तहत सांस्कृतिक कार्यक्रम कहते हैं उन्हें परिष्कृत करने की अवश्यकता है। इसके लिये कुल मिलाकर रुचि परिष्कृत करने की आवश्यकता होती है।

साथ ही शरीर के अंगउपांगों से होने वाले सभी छोटे छोटे काम उत्तम और सही पद्धति से करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये कागज चिपकाने का, कपड़े की तह करने का, बस्ते में सामान जमाने का, कपड़े पहनने का काम भी उत्तम पद्धति से करने का अभ्यास बनाना चाहिये।

दूसरी आवश्यकता मनोभावों को शुद्ध करने की होती है।

विद्यालय में समाजसेवा के कार्य भी सांस्कृतिक कार्यक्रम ही कहे जाने चाहिये। समाजप्रबोधन हेतु प्रभातफेरी, ग्रन्थों की शोभायात्रा और पूजन, यज्ञ, जन्मदिनोत्सव, कृष्णजन्माष्टमी जैसे उत्सव, मेले सत्संग आदि सब सांस्कृतिक कार्यक्रम ही हैं। विद्यालय में मन्दिर, पुस्तकालय, कक्षाकक्ष, प्रवेशद्वार आदि का सुशोभन भी सांस्कृतिक गतिविधि ही कहा जायेगा। अतिथियों का मन्त्रोच्चार सहित स्वागत पुष्पार्पण आदि भी सांस्कृतिक कार्य ही है।

परन्तु पुष्पगुच्छ अर्पण यदि प्लास्टिक के या सुगन्धरहित फूलों का है तो वह सांस्कृतिक नहीं है, मन्त्रोच्चार यदि अशुद्ध और बेसूरे हैं तो वे सांस्कृतिक नहीं है, रंगोली यदि सुरुचिपूर्ण और कलात्मक नहीं है तो वह सांस्कृतिक नहीं है । सामान्य वेशभूषा भी यदि शालीन नहीं है तो वह सांस्कृतिक नहीं है।

सम्पूर्ण विद्यालय परिसर यदि स्वच्छ, सुशोभित, शान्त सौहार्दपूर्ण, स्वागतोत्सुक है तो वह सांस्कृतिक है। यही संस्कारक्षम वातावरण है।

संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व के सारे निम्न स्तर के, निकृष्ट दर्जे के तत्वों को दूर कर उसे शिष्ट, सभ्य, शुद्ध, उच्च, उत्कृष्ट बनाती है। यही उसका विकास है। शिक्षा के इस प्रकार का विकास अपेक्षित है। यह विकास शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी स्तरों पर होता है। ऐसा विकास सिद्ध होता है इसलिये धर्म और संस्कृति को साथ साथ बोलने का प्रचलन है।

विद्यालय के सांस्कृतिक स्वरूप की संकल्पना को ही प्रथम सुसंस्कृत बनाने की आवश्यकता है । मनोयोग से इन बातों का चिन्तन करने से यह किया जा सकता है, सतही बातचीत या विचार से यह नहीं होता है।

विद्यालय की प्रतिष्ठा

  1. विद्यालय की प्रतिष्ठा का क्या अर्थ है ?
  2. विद्यालय की प्रतिष्ठा का निम्नलिखित बातों के साथ क्या सम्बन्ध है ?
    1. परीक्षा परिणाम
    2. सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास
    3. अन्यान्य कार्यक्रम एवं कार्य
    4. प्रतियोगिताओं में अग्रक्रम
    5. सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यों में सहभाग
    6. समाज को मार्गदर्शन
    7. हिन्दुत्व का दृष्टिकोण
    8. हिन्दुत्वनिष्ठ व्यवहार का आग्रह
    9. संख्या, भवन, शुल्क, सुविधायें
    10. अंग्रेजी माध्यम
  3. उपर्युक्त सूची में किन बातों का आग्रह उपयुक्त है और किन बातों का अनुपयुक्त ?
  4. विद्यालय की प्रतिष्ठा एवं विद्यालय के लक्ष्य में कितना सम्बन्ध होना चाहिये ? सम्बन्ध न होने से क्या क्या उपाय करने चाहिये?
  5. समसम्बन्ध न होने पर कितने समझौते करने चाहिये ?
  6. प्रतिष्ठा के मापदण्ड किस आधार पर बनते हैं ?

चार पाँच विद्यालयों को यह प्रश्नावली भेजी थी। परंतु किसी से भी उत्तर प्राप्त नहीं हुए। प्रश्न तो सरल थे। उसका शब्दार्थ और ध्वन्यार्थ भी हम समझते तो है परंतु आज शिक्षा की गाडी जो अत्यंत विपरीत पटरी पर जा रही है इसके कारण सत्य तो जानते है व्यवहार उलटा हो रहा है यह जानकर सरल प्रश्न भी उत्तर लिखने में कठीन लगते होंगे ऐसा अनुमान है।

अभिमत

विद्या + आलय संधि से विद्यालय शब्द बनता है। आलय का अर्थ घर। ज्ञान का विद्या का घर अर्थात्‌ स्थान विद्यालय कहलाता है।

जहाँ ज्ञान की प्रतिष्ठा हो, ज्ञान की पतरित्रता को जानते हुए सभी व्यवहार हो, तेजस्वी, मेधावि, जिज्ञासु एवं विनयशील छात्र हो वास्तव मे वहीं गौरवशाली एवं प्रतिष्ठित विद्यालय होता है।

विमर्श

विद्यालय साधनास्थली है

विद्यालय शिक्षक एवं छात्रो की साधनास्थली है। तपस्थली है। अतः वह पवित्र स्थान है। जहाँ छात्र का शारीरिक, मानसिक, प्राणिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास होता है वह गौरवप्राप्त विद्यालय होता है। पर्यावरण, स्वच्छता, अन्याय का प्रतिकार करना इस प्रकार समाज को सुल्यवस्थित रखनेवाले सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में जिसका सक्रीय सहयोग हो वह प्रतिष्ठित विद्यालय है । विद्यालय सामाजिक चेतना का केन्द्र है अतः समाज को मार्गदर्शन करना उसका दायित्व बनता है। हिन्दुत्व का दूष्टीकोन एवं हिन्दुत्वनिष्ठ व्यवहार का आग्रह रखनेवाला विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त होता है।

परंतु आज हमारी भ्रमित सोच एवं शिक्षा के व्यवसायीकरण से प्रतिष्ठा के मापदंड उल्टे पड़े दिखाई देते है। अंग्रेजी माध्यम, सी.बी.एस.सी., इ.सी.एस.ई बोर्ड के मान्यता प्राप्त विद्यालय क्रमशः समाज मे प्रतिष्ठित बने है। प्रतिष्ठित होने के नाते प्रवेश अधिक अतः छात्रसंख्या अधिक यह भी प्रतिष्ठा का लक्षण माना जाता है। प्रतिष्ठा प्राप्त है तो लाखों रुपया शुल्क लेना प्रतिष्ठा बन गई है। बडा, भव्य एवं वातानुकुलित कॉम्प्यूटराइड विद्यालय प्रतिष्ठा के मापदृण्ड बने है। अनेक प्रतियोगिताओं में सहभागी होना एवं उसमे प्रथम क्रमांक प्राप्त करने हेतु अनुचित मार्ग अपनाना यह बात स्वाभाविक लगती है। ऐसी अनिष्ट बातों को हटाकर ज्ञान की प्रतिष्ठा हो वह विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त होगा यह समझ विकसित करना धार्मिक शिक्षा का व्यावहारिक आयाम है।

तक्षशिला विद्यापीठ

“चाणक्य' धारावाहिक जब देखते हैं तब एक बात की ओर ध्यान आकर्षित होता है। राज्यसभा में हो या विद्रतसभा में, तक्षशिला विद्यापीठ का नामोट्लेख होता है तब सबके हाथ श्रद्धा और आदर के भाव से जुड़ जाते हैं। यह श्रद्धा और आदर किस बात के लिये हैं ? वहाँ की श्रेष्ठ ज्ञान साधना और ज्ञानपरम्परा के लिये। काल के प्रवाह में तक्षशिला विद्यापीठ एक ऐसा एकमेवाद्धितीय विद्यापीठ है, एक ऐसा सार्वकालीन विक्रम स्थापित करनेवाला विद्यापीठ है जिसने लगभग ग्यारहसौ वर्षों तक अपनी श्रेष्ठ ज्ञानपरम्परा बनाये रखी और सम्पूर्ण विश्व में अपनी श्रेष्ठता स्थापित की। देशविदेश के विद्वज्जन इस विद्यापीठ में अध्ययन हेतु आते थे।

अर्थात्‌ विद्यालय की प्रतिष्ठा का सबसे पहला मापदण्ड उसकी ज्ञान साधना है, उसका अध्ययन और अध्यापन है।

आज भी विद्यालय जाने जाते हैं उनकी पढाई से। वर्तमान समय के अनुसार ये मानक बोर्ड और युनिवर्सिटी की परीक्षाओं के परिणाम पढाई के मानक हैं। कितने अधिक संख्या में विद्यार्थी कितने अधिक अंकों से परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए इस बात को प्रसिद्धि दी जाती है क्योंकि उसीसे प्रतिष्ठा होती है, उसीसे मान्यता होती है, उसीसे पुरस्कार प्राप्त होते हैं। कितने विविध प्रकार के विषय पढाये जाते हैं, कितनी विद्याशाखायें हैं, इसकी भी दखल ली जाती है। कितना और कैसा अनुसन्धान होता है, देश- विदेश की शोधपत्रिकाओं में कितने शोधपत्र छपते हैं, कितने आन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्रप्त होते हैं यह प्रतिष्ठा का विषय है।

यह सारा शोधकार्य, विभिन्न विद्याशाखायें, परीक्षा के परिणाम, पुरस्कार आदि सब अध्यापकों के कारण से होता है। अतः विद्यालय की प्रतिष्ठा उसके शिक्षकों से होती है। तक्षशिला विद्यापीठ भी चाणक्य और जीवक जैसे शिक्षकों के कारण प्रतिष्ठित हुआ।

शिक्षकों की प्रतिष्ठा उनके ज्ञान, चरित्र और कर्तृत्व के कारण होती है, होनी चाहिये।

अध्यापन कौशल जिसके कारण समर्थ विद्यार्थी तैयार होते हैं, जिस समर्थ समाज का निर्माण करते हैं और ज्ञान का एक पीढी से हस्तान्तरण होकर ज्ञान परम्परा बनती है और ज्ञानधारा नित्य प्रवाहित रहती है; स्वाध्याय, जिसके कारण अध्यापक अधिकाधिक ज्ञानवान बनते हैं और अनुसन्धान, जिसके कारण ज्ञान परिष्कृत होता रहता है, समृद्ध बनता है और युगानुकूल बनता है शिक्षक की प्रतिष्ठा के विषय हैं। अर्थात्‌ जो अध्यापन कला में कुशल नहीं वह विद्वान भले ही हो, शिक्षक नहीं; जो स्वाध्याय न करता हो वह न अच्छा विद्वान है न अच्छा शिक्षक, और जो अनुसन्धान नहीं करता वह श्रेष्ठ शिक्षक नहीं बन सकता।

श्रेष्ठ शिक्षक विद्यालय की प्रतिष्ठा है।

विद्यालय की प्रतिष्ठा इसमें है कि श्रेष्ठ शिक्षकों का आदर होता है, जहाँ शिक्षकों का सम्मान नहीं, स्वतन्त्रता नहीं वह विद्यालय अच्छा नहीं माना जाता । जो शिक्षक नौकरी करने के लिये तैयार हो जाते हैं वे शिक्षक शिक्षक नहीं और जो शिक्षकों को नौकर बनने के लिये मजबूर करती है वह व्यवस्था श्रेष्ठ व्यवस्था नहीं । ऐसी व्यवस्था में शिक्षकों का सम्मान भी नौकरों के सम्मान की तरह किया जाता है। ऐसे विद्यालय की धार्मिक मानकों के अनुसार कोई प्रतिष्ठा नहीं, पाश्चात्य मानकों के अनुसार भले ही हो।

शिक्षकों और विद्यार्थियों का चरित्र विद्यालय की प्रतिष्ठा का विषय है। शिक्षकों में शराब, जुआ, भ्रष्टाचार जैसे व्यसन न हों, अध्यापन कार्य में अप्रामाणिकता न हो और आचारविचार श्रेष्ठ हों यह शिक्षकों का चरित्र है और शिक्षकों के प्रति आदर और श्रद्धा हो, अध्ययन में तत्परता और परिश्रमशीलता हों तथा सद्गुण और सदाचार हों यह विद्यार्थियों का चरित्र है । इस विद्यालय में परीक्षा में कभी नकल नहीं होती, परीक्षा विषयक कोई भ्रष्टाचार नहीं होता, जिस विद्यालय के विद्यार्थियों को ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती, जिस विद्यालय में विद्यार्थियों के प्रवेश या शिक्षकों की नियुक्ति हेतु डोनेशन नहीं लिया जाता, जिस विद्यालय में अधिक वेतन पर हस्ताक्षर करवाकर कम वेतन नहीं दिया जाता आदि बातें जब सुनिश्चित होती हैं तब वह विद्यालय समाज में प्रतिष्ठित होता है।

इतिहास में तक्षशिला एक और बात के लिये प्रतिष्ठित है। समाज और शास्त्रों की रक्षा के लिये समाज को, विद्वानों को, शिक्षकों को और गणराज्यों को संगठित कर अत्याचारी सम्राट को पटुश्रष्ट कर उसके स्थान पर योग्य सम्राट को अभिषिक्त करने का दायित्व आचार्य चाणक्य के नेतृत्व में विद्यापीठ ने निभाया। यह ज्ञान की प्रतिष्ठा नहीं, ज्ञान का दायित्व और कर्तृत्व है। अपने इस दायित्व को निभानेवाला करनेवाला विद्यालय प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

ज्ञान और चरित्र के साथ साथ समाज को मार्गदर्शन करना, समाज का संगठन करना और समाज की सेवा करना विद्यालय का काम है। प्राकृतिक आपदाओं के समय सेवाकार्य करना, सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों में समाज को सही दिशा देना और समाज की सुस्थिति हेतु राज्य को सहायता करना विद्यालय की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है।

प्रतिष्ठा के आज के मापदण्ड

परन्तु आजकल स्थिति कुछ विपरीत भी बनी है। आज विद्यालय उनके भवन, सुविधाओं और विद्यार्थी संख्या से जाने जाते हैं । विद्यालय परिसर जितना विशाल, विद्यालय का भवन जितना भव्य, भवनों की संख्या जितनी अधिक, वाहन जितने अधिक, विद्यालय की सुविधायें जितनी अद्यतन और इन सबके अनुपात में विद्यालय का शुल्क जितना ऊँचा उतनी विद्यालय की प्रतिष्ठा भी अधिक ।

अंग्रेजी माध्यम प्रतिष्ठा का और एक विषय है । जितनी कम आयु में अंग्रेजी पढाया जाता है उतनी अधिक प्रतिष्ठा होती है । अंग्रेजी के साथ साथ यदि अन्य विदेशी भाषायें भी सिखाई जाती हैं तो और भी अच्छा है। विद्यालय में यदि विदेशी छात्र पढ़ते हैं तो वह भी गौरव का विषय बनता है । विदेशी अतिथि आते हैं तो प्रतिष्ठा बढती है ।

विदेशी खेल खेले जाते हैं, विदेश में शैक्षिक भ्रमण के लिये जाना होता है, आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की मान्यता है, विदेशी वेश का गणवेश, विद्यालय के कैण्टीन में कण्टीनेन्टल नाश्ता मिलता है तो विद्यालय प्रतिष्ठित माना जाता है ।

जिन विद्यालयों महाविद्यालयों में कैम्पस में ही नौकरी मिल जाती है उन विद्यालयों की प्रतिष्ठा बढती है । जहाँ मन्त्रियों, प्रशासनिक अधिकारियों, धनाढ्यो की संताने पढ़ती है वे विद्यालय प्रतिष्ठिट है।

अर्थात् प्रतिष्ठा का केन्द्र बिन्दु अब बदल गया है । ज्ञान, चरित्र, संस्कार, सेवा आदि से खिसककर पैसा, सत्ता, वैभव और नोकरी पर आ गया है । इस बदले हुए केन्द्र का इतना विस्तार हुआ है कि अब वह लोकमानस में बैठ गया है। शिक्षकों ने इसे स्वीकार कर लिया है और समाज ने इसे मान लिया है।

परन्तु इससे तो समाज की दुर्गति होगी। समाज को यदि दुर्गति से बचना है तो इस बदले हुए केन्द्र का त्याग कर ज्ञान को केन्द्र में प्रतिष्ठित करना होगा।

ज्ञान को प्रतिष्ठित करने के कुछ कठोर उपाय

ज्ञान को केन्द्र में प्रतिष्ठित करने हेतु कुछ कठोर नियम भी बनाने होंगे । प्रारम्भ में वे अव्यावहारिक और असम्भव लगेंगे परन्तु अन्ततोगत्वा वे ही इष्ट परिणाम देने वाले सिद्ध होंगे।

ये नियम कुछ इस प्रकार होंगे:

  1. अध्ययन शुल्क क्रमशः कम करते करते निःशेष करना । शुल्क नहीं होगा तो ज्ञान पर धनिकों का प्रभाव कम होगा।
  2. शिक्षकों को आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त करना होगा । नौकरी करना छोडकर अपनी जिम्मेदारी पर विद्यालय चलनें होंगे।
  3. शिक्षा का नौकरी से सम्बन्ध विच्छेद करना होगा। स्वतन्त्र रहकर, समाज की सेवा करने की वृत्ति से, समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उद्योग कर अर्थार्जन करना सिखाना होगा। इस प्रकार समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता निर्माण करनी होगी। स्वतन्त्र समाज अपने स्वमान की रक्षा करता है और शिक्षा का सम्मान करता है।
  4. चरित्र का सम्मान करना होगा । शिक्षकों को स्वयं चरित्रवान बनकर विद्यार्थियों को चरित्रवान बनाना होगा।
  5. परीक्षा केन्द्रों को विद्यालय में लाना होगा। शिक्षक ही अपने विद्यार्थियों को प्रमाणपत्र दे सकें ऐसा विश्वसनीय बनना होगा।
  6. विद्यालय भवन और सुविधाओं से नहीं अपितु ज्ञान और चरित्र से जाना जाय इसे बार बार लोगोंं के समक्ष बताना होगा।
  7. धार्मिक ज्ञानधारा को युगानुकूल प्रवाहित करने हेतु अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य को धार्मिक जीवनदृष्टि में केन्द्रित करना होगा।

यह एक आन्तरिक परिवर्तन है और धैर्यपूर्वक निरन्तर प्रयास की अपेक्षा करता है । चाणक्य और तक्षशिला यदि आदर्श हैं तो इन आदर्शों को मूर्त करना कोई सरल काम नहीं है।

References

  1. धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व ३: अध्याय ११, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे