विक्रम और बेताल - स्वार्थ से फल की प्राप्ति नहीं होती

From Dharmawiki
Revision as of 22:31, 12 December 2020 by Adiagr (talk | contribs) (Text replacement - "कथाए" to "कथाएँ")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

विक्रम ने बेताल को पेड़ से पकड़कर अपने कंधे पर बिठा लिया। कंधे पर बैठकर बेताल ने विक्रम से कहा मैं तुम्हे एक कहानी सुनाऊंगा अगर तुमने कुछ बोला तो मैं उड़ जाऊंगा। विक्रम से बेताल ने कहा कि कहानी के अंत में मैं एक प्रश्न पूछूँगा। उस प्रश्न का उत्तर ज्ञात होते हुए भी यदि तुमने नहीं दिया तो तुम्हारे सर के सौ टुकड़े हो जाएंगे। बेताल विक्रम को कहानी सुनाने लगा।

एक राज्य में बहुत ही तपस्वी और ज्ञानी साधू रहते थे, उनका दिया हुआ आशीर्वाद कभी असफल नही होता था। साधू महाराज एक दिन नगर में घुमने निकले। साधू महाराज जब नगर में घूम रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति गरीबो में जीवन उपयोगी वस्तुए और धन दान कर रहा था। साधू महाराज को देखकर उस दानी ने साधू महाराज से अपने घर में कुछ दिन विश्रांति का आग्रह किया। साधू महाराज उस दानी व्यक्ति का आग्रह टाल ना सके और उस दानी व्यक्ति के घर ठहरने का निश्चय किया।

उस दानी व्यक्ति ने साधू महाराज की पूरी श्रद्धा भाव से बहुत सेवा की। साधू महाराज दानी व्यक्ति की दानवीरता और सेवा पर प्रसन्न हो गये और दानी व्यक्ति को कहा मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे जो आशीर्वाद चाहते हो बताओ मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा। मेरा दिया हुआ आशीर्वाद कभी असफल नहीं होगा। तुम जो आशीर्वाद निस्वार्थ भाव से इच्छा करोगे वह पूर्ण होगा ।

दानी व्यक्ति ने साधू से कहा जी साधू महाराज मैं निस्वार्थ भाव से ही मागूंगा। दानी व्यक्ति ने साधू से आशीर्वाद माँगा कि मेरे पास इतनी संपत्ति आए कि मेरे हाथों द्वारा गरीबों को दान मिले। कोई मेरे द्वार से कभी रिक्त हाथों से ना जाये। कुछ दिन बाद दानी व्यक्ति गरीब हो गया। दानी व्यक्ति की ऐसी हालत हो गई की जो दूसरे लोग दान लेकर जाते थे उसी से उसका गुजरा चलने लगा ।

कहानी को मध्य में रोककर बेताल ने विक्रम से पूछा कि परमज्ञानी साधू का आशीर्वाद सत्य क्यों नही हुआ? क्या उस साधू को वरदान देने की सिद्धि नही प्राप्त थी? अगर इस प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी तुमने उत्तर नही दिया तो तुम्हारे सर के सौ टुकड़े होकर तुम्हारे कदमों में गिर जायेंगे ।

विक्रम ने उत्तर दिया की दानी व्यक्ति ने निस्वार्थ भाव से आशीर्वाद नही माँगा, इस लिए साधू का आशीर्वाद असफल हो गया। अगर दानी व्यक्ति ने ऐसा आशीर्वाद माँगा होता कि समाज में किसी को भी दान लेने की आवशकता ही ना पड़े और कोई गरीब ही ना रहे, ऐसा आशीर्वाद मांगता तो इसे निःस्वार्थी का रंग दिया जाता । इस लिए साधू का आशीर्वाद आसफल हो गया ।

कहानी से सिख : - दान का अर्थ होता है निस्वार्थता, दाहिने हाथ से किये हुए दान का एहसास बायें हाथ को भी नहीं होना चाहिए । दान में स्वार्थ आ गया तो वह कार्य कभी भी सफल नही होता

जो कोई करै सो स्वार्थी, अरस परस गुन देत

बिन किये करै सो सूरमा, परमारथ के हेत।

जो अपने हेतु किये गये के बदले में कुछ करता है वह स्वार्थी है। जो किसी के किये गये उपकार के बिना किसी का उपकार करता है। वह परमार्थ के लिये करता है।