वर्तमान धार्मिक शिक्षा में मूल्यों का ह्तास

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मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर कथन असंदिग्ध बनता है ।

५ . कठिनाई यह है कि आज धर्म संज्ञा विवाद में पड गई है । धर्म को लेकर जो विवाद चल रहे हैं उसके कई आयाम हैं । विभिन्न उद्देश्यों से प्रेरित होकर विभिन्न प्रकार के लोग विभिन्न प्रकार के विवाद खड़े करते हैं ।

६. एक वर्ग ऐसा है जो धर्म संज्ञा का व्यापक अर्थ समझता ही नहीं है । उसके लिए धर्म संज्ञा सम्प्रदाय या मजहब या पुजा पद्धति को लक्षित करता है । यह वर्ग मजहबी कह्टरता से प्रेरित होकर विवाद करता है । उनका विवाद हिंसक रूप भी धारण करता है ।

७. एक वर्ग ऐसा है जो धर्म अधर्म की परवा नहीं करता है । उसे धर्म की चर्चा में रुचि नहीं है । धर्म पर चलना ही चाहिए ऐसा उसे लगता नहीं है । यह वर्ग सारी चर्चाओं, उपदेशों, बाध्यताओं के प्रति उदासीन रहता है । मन में आता है वैसा जीता है और कामनाओं की पूर्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानता है ।

८. परन्तु धर्म के बिना समाज चलता नहीं है । सृष्टि की धारणा ही धर्म से होती है । धर्म के बिना मनुष्य पशु के समान है । मनुष्य पशु के समान जी नहीं सकता । वह या तो पशु से भी नीचे गिर जाता है अथवा पशु से ऊपर उठकर जीता है ।

९. धर्म संज्ञा से वह जीवन को व्यवस्थित करने वाली व्यवस्था बनी है । धर्म आचरण का विषय है इसलिए वह सदाचार का पर्याय बनी है, कर्तव्य का पर्याय बनी है, सज्जनों के व्यवहार का पर्याय बनी है ।

१०. निष्कर्ष यह है कि जिसे जीवनमूल्य कहते हैं वह जीवनदृष्टि है । धर्म, नीति, सदाचार और मूल्यों के इस विवरण के बाद अब हम भारत में वर्तमान में इनके सम्बन्ध में क्या स्थिति है इसका विचार करेंगे ।

११. भारत में वर्तमान में दो जीवनदृष्टियों का मिश्रण चल रहा है। बड़ा बौद्धिक वर्ग इस मिश्रण को समन्वित संस्कृति कहते हैं। इसे अच्छा मानते हैं। इसे आधुनिकता और वैश्विकता का लक्षण मानकर गौरव और सन्तोष का अनुभव करते हैं ।

१२. परन्तु यह घालमेल है । यह सोचसमझकर नहीं किया गया है। यह प्रथम ज़बरदस्ती का और बाद में मानसिक ग्रंथियों का परिणाम है । यह समन्वय नहीं है, एकदूसरे से भिन्न स्वभाव वाली शैलियों का संघर्ष है जो संघर्ष न लगकर समन्वय लगता है । यह हर्ष का नहीं चिन्ता का विषय है ।

१३. दो शैलियों और दृष्टियों का संघर्ष बाह्य स्वरूप का नहीं है, आन्तरिक है । वह व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण समाज में व्याप्त हो गया है । इस आन्तरिक संघर्ष में व्यक्ति और समाज परस्पर विरोधी दिशाओं में खिंच जाते हैं ।

१४. यूरोअमेरिकी और भारतीय जीवनदृष्टि के घालमेल का असर भारतीय मनुष्य की विचारप्रणालियों, व्यवहारों, व्यवस्थाओं, सम्बन्धों तथा रचनाओं में दिखाई देता है । एकदूसरे से विपरीत स्वभावों का सम्मिश्रण इतना गहरा हो गया है कि दोनों को अलग करना बहुत कठिन हो गया है ।

१५. यूरोअमेरिकी समाजरचना व्यक्तिकेन्द्री है जबकि भारतीय. समाजरचना. परमेष्ठीकेन्द्री है जिसका व्यावहारिक स्वरूप परिवारभावना है । एक स्वयं के लिए जगत है ऐसा मानता है, दूसरा जगत के लिए मैं हूँ ऐसा मानता है । इससे सम्बन्ध का स्वरूप ही बदल जाता है।

दो विरोधी प्रतिमान

१६. एक आत्मतत्त्व को मानता है, दूसरा नहीं मानता । एक मानता है कि सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है । दूसरा जगत का स्वरूप भौतिक मानता है । एक जड़ और चेतन के समरस स्वरूप में चेतन को कारक मानता है दूसरा जड़ को ।

१७. भारत ,में सारे सम्बन्ध प्रेम के आधार पर विकसित होते हैं जबकि यूरोअमेरिकी प्रतिमान में वे उपयोगिता के आधार पर नापे जाते हैं । प्रेम में आत्मीयता होती है, उपयोगिता में हिसाब । उपयोगिता स्वयम्‌ के घाटे या फायदे का हिसाब करती है, प्रेम दूसरे के सुख और आनन्द का ।

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करता । मिलावट नहीं करनी चाहिए यह जानता है परन्तु करता अवश्य है । दान करना चाहिए यह जानता है तो भी नहीं करता । विदेशी वस्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिए यह जानता है परन्तु करता है ।

४२. भारत की अधिकृत व्यवस्थायेँ भारतीय मूल्यों से सर्वथा विपरीत बनी हैं । विज्ञापन की अधिकृतता, रासायनिक खादों का उत्पादन, गंगा जैसी नदियों के पानी का प्रदूषण करने वाले उद्योगों को मान्यता, विवाह को करार के सिद्धान्त के अनुसार मान्यता, व्यक्ति को ही समाजजीवन में केंद्र मानना आदि इसके बड़े बड़े उदाहरण हैं । सम्पूर्ण प्रजा का जीवन इन सिद्धांतों से बंधा हुआ है ।

४३. साधु सन्त, अनेक विचारशील विद्रब्नन सभाओं में भाषण करते हैं कि न्यायनीति से चलना चाहिए, विद्या, अन्न और जल को पवित्र मानना चाहिए, धन का संग्रह नहीं करना चाहिए, आध्यात्मिक जीवन का अनुसरण करना चाहिए। परन्तु प्रत्यक्ष व्यवस्थायेँ इनका पालन असंभव बनाने वाली होती हैं ।

४४. विद्यालयों की प्रार्थथाओं में गुरु की ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहकर स्तुति की जाती है, गुरुपूर्णिमा जैसे उत्सव मनाए जाते हैं परन्तु प्रत्यक्ष में गुरु कर्मचारी है और कर्मचारी बना रहना चाहता है। कोई अपने मेधावी पुत्र या छात्र को शिक्षक बनाना नहीं चाहता ।

४५. सरकार, विद्रज्जन, साधुसंत वेद और उपनिषद के ज्ञान को मनुष्यजाति के लिए कल्याणकारी मानते हैं परन्तु प्रत्यक्ष में उसकी शिक्षा नहीं दी जाती । विशेष अध्ययन न किया हो ऐसे विट्रज्जन या सामान्यजन इनके विषय में अज्ञान ही हैं ।

४६. भारत में घर, विद्यालय, बाजार और संसद भारतीय ज्ञान ने जिन मूल्यों को प्रतिष्ठित माना है उनके आधार पर चलने चाहिए परन्तु वास्तविकता यह है कि एक भी इस प्रकार नहीं चलता ।

४७. व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में इस आन्तर्संघर्ष के कारण सार्वत्रिक ट्वरिधा मनःस्थिति पैदा होती है। समाजमन में आत्मविश्वास कम होता है । मूल्यांकन के मापदंड संदिग्ध बन जाते हैं । विचित्र प्रकार का हीनताबोध पैदा होता है ।

४८. लोग अपने दृष्टिकोण के विषय में गौरवपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हैं परन्तु आचरण में उससे सर्वथा विपरीत व्यवहार करते हैं ।

४९. वैचारीक स्तर पर अनेक असम्बद्ध संकल्पनाओं का प्रयोग होता है। उदाहरण के लिए वैश्विकता, आधुनिकता, वैज्ञानिकता आदि संकल्पनाओं के अर्थ बहुत ही विचित्र हो गए हैं । धर्मनिरपेक्षता एक ऐसी ही संदिग्ध संकल्पना है जो अपनाई भी नहीं जा सकती और छोड़ी भी नहीं जा सकती ।

५०. स्वतन्त्रता, ख्त्रीपुरुष समानता, बच्चों के अधिकार, मानव अधिकार आदि संकल्पनाओं ने सामाजिक समरसता को नष्ट कर दिया है । इससे किसीको लाभ नहीं मिल रहा है और नुकसान अपरिमित हो रहा है । तो भी इसे छोड़ने का साहस किसीमें नहीं है । छोड़ने पर अपराधबोध होता है ।

५१. शिक्षा धर्म सिखाती है, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है, शिक्षा का अधिष्ठान आध्यात्मिक है ऐसी बातें भारत के सभी धर्माचार्य और विदट्रज्जन कहते हैं परन्तु देश कि अधिकृत शिक्षाव्यवस्था यूरोअमेरिकी मोडेल पर ही चलती है । देश का संविधान, संविधान की प्रतिष्ठा के लिए बने कानून और संविधान के अनुसार देश को चलाने हेतु बनी संसद धर्म के विषय में अत्यंत ट्रिधा मनःस्थिति में रहती है । यही अवस्था शिक्षा की भी है ।

५२. धर्म के पक्ष में बोलने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता । यज्ञ करने वालों की आलोचना होती है । उसे घी का अपव्यय मानने वाले भी मुखर होते हैं । विवाह संस्कार भी होते हैं और न्यायालय में पंजीकरण भी होता है । विवाहसंस्कार करना कानून की दृष्टि से अनिवार्य नहीं है, पंजीकरण करना अनिवार्य है । लोग दोनों करते हैं, एक बाध्यता के कारण और दूसरा परंपरा के प्रति आदर के कारण ।

५३. इस प्रकार हर बात में समझौते चलते रहते हैं । परस्पर

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इनकी गन्ध भी नहीं होती है । समस्या का पता ही नहीं चल सकता है ।

६५. जड़ तन्त्र को लगता है कि सुविधा होने से छात्र शिक्षा ग्रहण करेंगे। अत: यह तन्त्र छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देने की, पाठ्यपुस्तकें देने की, भोजन देने की, गणवेश देने की व्यवस्था करता है । इसमें सदूभाव होता है । परन्तु यह जड़ सद्धाव है । छात्रों के परिवार को सहायता मिलती है परन्तु छात्र शिक्षा ग्रहण नहीं करते । शिक्षा जिज्ञासा के कारण ग्रहण कि जाती है, सुविधा प्राप्त होने से नहीं । जिज्ञासा जागृत करने का काम सुविधा के बस की बात नहीं है ।

६६. जड़ तन्त्र कभी दायित्वबोध की, निष्ठा की, छात्र के कल्याण की भावना की शिक्षा नहीं दे सकता । अत: शिक्षकों में, या तन्त्र सम्हालने वाले लोगों में ये तत्त्व प्रभावी होंगे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती । इस स्थिति में मनुष्य का मन उसे और स्वैराचारी बनाता है । अनिबंध मन हमेशा पानी की तरह नीचे की ओर बहता है, अर्थात दायित्वबोध, निष्ठा आदि से भागता है। मन को सज्जन बनाने की व्यवस्था किए बिना शिक्षा का कार्य अध्यापक, छात्र या तन्त्र के लिए कदापि संभव नहीं है ।

६७. वर्तमान भारत में एक अतार्किक धारणा साक्षरता को शिक्षा मानती है । पढ़ना और लिखना आने से न ज्ञान आता है न संस्कार । पढ़ने लिखने से ही जानकारी भी नहीं मिलती । साक्षरता अलग है, शिक्षा अलग यह बात अनेक मंचों से बार बार बोली जाती है परन्तु तन्त्र के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती ।

६८. साक्षरता को ही लक्ष्य बनाकर विभिन्न प्रकार से अनेक प्रयास किए जाते हैं । पैसा खर्च किया जाता है, साहित्य निर्माण किया जाता है, प्रशिक्षण किया जाता है, प्रचार किया जाता है परन्तु न साक्षरता आती है न शिक्षा ।

६९. हमारे ज्ञात इतिहास में ऐसे सेंकड़ों उदाहरण हैं जो लिखना पढ़ना नहीं जानते थे तो भी ज्ञानी, तत्त्वज्ञानी, योगी, भक्त, पराक्रमी, कुशल व्यापारी, कवि, साहित्यकार, उद्योजक, शास्त्रों के रचयिता थे । उन्हें लिखना पढ़ना आता भी था तो भी उनकी प्रतिभा का कारण वह नहीं था । यह तथा सहज समझ में आने वाला है तो भी जड़ तन्त्र को नहीं समझ में आना भी स्वाभाविक है ।

७०. वास्तव में लिखने और पढ़ने का, अर्थात साक्षरता का शिक्षा के अर्थ में प्रयोग करना ही अनुचित है । अक्षर लेखन और पठन कर्मेन्ट्रिय और ज्ञानेन्द्रिय से होता है । लेखन और पठन से पूर्व श्रवण और भाषण अपेक्षित होता है क्योंकि सुने बिना बोला नहीं जाता और पढ़े बिना लिखा नहीं जाता । सुने बिना पढ़ा नहीं जाता और पढ़े बिना लिखा नहीं जाता । परन्तु इनमें दो प्रकार के दोष हैं ।

७१. एक तो सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना ये केवल भाषा के कौशल हैं, सभी विषयों के नहीं । सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना केवल भाषा की भी पूर्ता नहीं है, समझना अपेक्षित है। साक्षारता केवल लिखने और पढ़ने के यांत्रिक कार्य में शिक्षा को सीमित कर देती है । यह बड़ा अनर्थक प्रयास है ।

७२. साक्षरता को शिक्षा मानने का उपक्रम बढ़ते बढ़ते बहुत दूर तक जाता है । आगे चलकर जानकारी को शिक्षा मानना, परीक्षा उत्तीर्ण करने को शिक्षा ग्रहण करना मानना, भौतिक साधनों से नापे जाने वाले तत्त्वों को प्रमाण मानना साक्षरता की संकल्पना का ही विस्तार है । परन्तु वह जड़ ही है । उच्च शिक्षा का क्षेत्र इसका शिकार हो गया है ।

७३. यह बहुत बड़ा अनिष्ट है, कल्पनातीत बड़ा है । इसके चलते पंद्रह बीस वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी शिक्षित लोगों की जो दुर्गति होती है उसका कोई हिसाब नहीं है। जीवन का मूल्यवान समय केवल दुर्गति को अपनी झोली में डालने के लिए खर्च हो जाते हैं । वे स्वयं इसके लिए दोषी नहीं हैं । वे इस दुर्गति के लायक नहीं हैं । उन्हें जड़ तन्त्र ने जकड़ लिया होता है ।