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२. वर्तमान में वैश्विक परिभाषाओं के अन्तर्गत मूल्यव्यवस्था, मूल्यशिक्षा, मूल्यों का समूह आदि संज्ञायें व्यापक रूप में प्रचलित हैं । केवल शिक्षा के  ही नहीं तो समग्र जीवनव्यवस्था के सन्दर्भ में इन संज्ञाओं का प्रयोग होता है ।   
 
२. वर्तमान में वैश्विक परिभाषाओं के अन्तर्गत मूल्यव्यवस्था, मूल्यशिक्षा, मूल्यों का समूह आदि संज्ञायें व्यापक रूप में प्रचलित हैं । केवल शिक्षा के  ही नहीं तो समग्र जीवनव्यवस्था के सन्दर्भ में इन संज्ञाओं का प्रयोग होता है ।   
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३. मूल्य संज्ञा भारतीय नहीं है। वह “वेल्यु' नामक अंग्रेजी संज्ञा का भारतीय अनुवाद है । मूल्य संज्ञा से जो लक्षित होता है उसे भारत में धर्म कहते हैं । व्यवहार में उसे नीति या नैतिकता भी कहा जाता है । फिर भी धर्म संज्ञा ही पूर्ण रूप से सटीक है ।   
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३. मूल्य संज्ञा भारतीय नहीं है। वह “वेल्यु' नामक अंग्रेजी संज्ञा का भारतीय अनुवाद है । मूल्य संज्ञा से जो लक्षित होता है उसे भारत में धर्म कहते हैं । व्यवहार में उसे नीति या नैतिकता भी कहा जाता है । तथापि धर्म संज्ञा ही पूर्ण रूप से सटीक है ।   
    
४. धर्म संज्ञा का स्वीकार करने पर जो लक्षित होता है वह सवर्थि में परिपूर्ण है, सर्वसमाबेशक है । अतः मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर कथन असंदिग्ध बनता है ।
 
४. धर्म संज्ञा का स्वीकार करने पर जो लक्षित होता है वह सवर्थि में परिपूर्ण है, सर्वसमाबेशक है । अतः मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर कथन असंदिग्ध बनता है ।
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३५. परन्तु भारत में ज्ञान पवित्र है, भक्ति पवित्र है, अन्न पवित्र है, जल पवित्र है । इनका मूल्य पैसे से आँका नहीं जाता है । ये सब अर्थ से परे हैं । इन्हें दान में  दिया जाता है और कृपा के रूप में मांगा जाता है । समाज की सेवा ईश्वर की सेवा है ।
 
३५. परन्तु भारत में ज्ञान पवित्र है, भक्ति पवित्र है, अन्न पवित्र है, जल पवित्र है । इनका मूल्य पैसे से आँका नहीं जाता है । ये सब अर्थ से परे हैं । इन्हें दान में  दिया जाता है और कृपा के रूप में मांगा जाता है । समाज की सेवा ईश्वर की सेवा है ।
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३६. भारत में वर्तमान में सामान्य लोग इन दो विरोधी बातों में फंसे हुए हैं । वे पुण्य कमाने के लिए तीर्थयात्रा पर जाते हैं जहां दर्शन और प्रसाद दोनों बिकते हैं । वे मानते हैं कि तीर्थयात्रा में जितना अधिक कष्ट है उतना ही पुण्य अधिक प्राप्त होता है फिर भी यात्रा में सुविधा ढूंढते हैं । तीर्थयात्रा और सैर कि खिचड़ी हो गई है ।
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३६. भारत में वर्तमान में सामान्य लोग इन दो विरोधी बातों में फंसे हुए हैं । वे पुण्य कमाने के लिए तीर्थयात्रा पर जाते हैं जहां दर्शन और प्रसाद दोनों बिकते हैं । वे मानते हैं कि तीर्थयात्रा में जितना अधिक कष्ट है उतना ही पुण्य अधिक प्राप्त होता है तथापि यात्रा में सुविधा ढूंढते हैं । तीर्थयात्रा और सैर कि खिचड़ी हो गई है ।
    
३७. परस्त्री माता समान है और पराया धन मिट्टी के समान है ऐसी दृढ़ धारणा के कारण स्त्रीपुरुष सम्बन्धों में तथा अर्थार्जन में शील का रक्षण सहज होता है । परन्तु अधार्मिक दृष्टि में कामसंबंध और अधथार्जन में नैतिकता की आवश्यकता नहीं है । केवल कानून का ही बंधन पर्याप्त है । ऐसे समाज में शिलरक्षण को गंभीरता से नहीं लिया जाता ।
 
३७. परस्त्री माता समान है और पराया धन मिट्टी के समान है ऐसी दृढ़ धारणा के कारण स्त्रीपुरुष सम्बन्धों में तथा अर्थार्जन में शील का रक्षण सहज होता है । परन्तु अधार्मिक दृष्टि में कामसंबंध और अधथार्जन में नैतिकता की आवश्यकता नहीं है । केवल कानून का ही बंधन पर्याप्त है । ऐसे समाज में शिलरक्षण को गंभीरता से नहीं लिया जाता ।

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