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२. वर्तमान में वैश्विक परिभाषाओं के अन्तर्गत मूल्यव्यवस्था, मूल्यशिक्षा, मूल्यों का समूह आदि संज्ञायें व्यापक रूप में प्रचलित हैं । केवल शिक्षा के  ही नहीं तो समग्र जीवनव्यवस्था के सन्दर्भ में इन संज्ञाओं का प्रयोग होता है ।   
 
२. वर्तमान में वैश्विक परिभाषाओं के अन्तर्गत मूल्यव्यवस्था, मूल्यशिक्षा, मूल्यों का समूह आदि संज्ञायें व्यापक रूप में प्रचलित हैं । केवल शिक्षा के  ही नहीं तो समग्र जीवनव्यवस्था के सन्दर्भ में इन संज्ञाओं का प्रयोग होता है ।   
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३. मूल्य संज्ञा भारतीय नहीं है। वह “वेल्यु' नामक अंग्रेजी संज्ञा का भारतीय अनुवाद है । मूल्य संज्ञा से जो लक्षित होता है उसे भारत में धर्म कहते हैं । व्यवहार में उसे नीति या नैतिकता भी कहा जाता है । फिर भी धर्म संज्ञा ही पूर्ण रूप से सटीक है ।   
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३. मूल्य संज्ञा भारतीय नहीं है। वह “वेल्यु' नामक अंग्रेजी संज्ञा का भारतीय अनुवाद है । मूल्य संज्ञा से जो लक्षित होता है उसे भारत में धर्म कहते हैं । व्यवहार में उसे नीति या नैतिकता भी कहा जाता है । तथापि धर्म संज्ञा ही पूर्ण रूप से सटीक है ।   
    
४. धर्म संज्ञा का स्वीकार करने पर जो लक्षित होता है वह सवर्थि में परिपूर्ण है, सर्वसमाबेशक है । अतः मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर कथन असंदिग्ध बनता है ।
 
४. धर्म संज्ञा का स्वीकार करने पर जो लक्षित होता है वह सवर्थि में परिपूर्ण है, सर्वसमाबेशक है । अतः मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर कथन असंदिग्ध बनता है ।
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=== दो विरोधी प्रतिमान ===
 
=== दो विरोधी प्रतिमान ===
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१६. एक आत्मतत्त्व को मानता है, दूसरा नहीं मानता । एक मानता है कि सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है । दूसरा जगत का स्वरूप भौतिक मानता है । एक जड़ और चेतन के समरस स्वरूप में चेतन को कारक मानता है दूसरा जड़ को ।
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१६. एक आत्मतत्त्व को मानता है, दूसरा नहीं मानता । एक मानता है कि सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है । दूसरा जगत का स्वरूप भौतिक मानता है । एक जड़़ और चेतन के समरस स्वरूप में चेतन को कारक मानता है दूसरा जड़़ को ।
    
१७. भारत ,में सारे सम्बन्ध प्रेम के आधार पर विकसित होते हैं जबकि यूरोअमेरिकी प्रतिमान में वे उपयोगिता के आधार पर नापे जाते हैं । प्रेम में आत्मीयता होती है, उपयोगिता में हिसाब । उपयोगिता स्वयम्‌ के घाटे या फायदे का हिसाब करती है, प्रेम दूसरे के सुख और आनन्द का ।
 
१७. भारत ,में सारे सम्बन्ध प्रेम के आधार पर विकसित होते हैं जबकि यूरोअमेरिकी प्रतिमान में वे उपयोगिता के आधार पर नापे जाते हैं । प्रेम में आत्मीयता होती है, उपयोगिता में हिसाब । उपयोगिता स्वयम्‌ के घाटे या फायदे का हिसाब करती है, प्रेम दूसरे के सुख और आनन्द का ।
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२४. इस प्रकार के दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप समाज में श्रद्धा और विश्वास आधारभूत तत्त्व बनते हैं । इससे निर्शिताता आती है । चिन्ता एवं मानसिक तनाव पैदा ही नहीं होते । इस स्थिति में स्वास्थ्य, सुरक्षा, शान्ति, समृद्धि और सुख,स्वाभाविक हो जाते हैं ।
 
२४. इस प्रकार के दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप समाज में श्रद्धा और विश्वास आधारभूत तत्त्व बनते हैं । इससे निर्शिताता आती है । चिन्ता एवं मानसिक तनाव पैदा ही नहीं होते । इस स्थिति में स्वास्थ्य, सुरक्षा, शान्ति, समृद्धि और सुख,स्वाभाविक हो जाते हैं ।
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२५, एकमात्र आत्मीयता के मूल्य से इतना लाभ होता है । जहां स्वकेन्द्री विचार है वहाँ स्वयं के हितों की रक्षा के लिए हमेशा चिन्ता रहती है, अपने जानमाल की रक्षा के लिए सावधानी रखनी पड़ती है, अपने फायदे के लिए ही सारा व्यवहार होता है ।
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२५, एकमात्र आत्मीयता के मूल्य से इतना लाभ होता है । जहां स्वकेन्द्री विचार है वहाँ स्वयं के हितों की रक्षा के लिए सदा चिन्ता रहती है, अपने जानमाल की रक्षा के लिए सावधानी रखनी पड़ती है, अपने फायदे के लिए ही सारा व्यवहार होता है ।
    
२६. समाज में परस्पर विश्वास का अभाव रहता है, पुलिस, न्यायालय, जेल,हॉस्पिटल, अनाथालय, वृद्धाश्रम आदि की संख्या बढ़ती है ।
 
२६. समाज में परस्पर विश्वास का अभाव रहता है, पुलिस, न्यायालय, जेल,हॉस्पिटल, अनाथालय, वृद्धाश्रम आदि की संख्या बढ़ती है ।
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३५. परन्तु भारत में ज्ञान पवित्र है, भक्ति पवित्र है, अन्न पवित्र है, जल पवित्र है । इनका मूल्य पैसे से आँका नहीं जाता है । ये सब अर्थ से परे हैं । इन्हें दान में  दिया जाता है और कृपा के रूप में मांगा जाता है । समाज की सेवा ईश्वर की सेवा है ।
 
३५. परन्तु भारत में ज्ञान पवित्र है, भक्ति पवित्र है, अन्न पवित्र है, जल पवित्र है । इनका मूल्य पैसे से आँका नहीं जाता है । ये सब अर्थ से परे हैं । इन्हें दान में  दिया जाता है और कृपा के रूप में मांगा जाता है । समाज की सेवा ईश्वर की सेवा है ।
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३६. भारत में वर्तमान में सामान्य लोग इन दो विरोधी बातों में फंसे हुए हैं । वे पुण्य कमाने के लिए तीर्थयात्रा पर जाते हैं जहां दर्शन और प्रसाद दोनों बिकते हैं । वे मानते हैं कि तीर्थयात्रा में जितना अधिक कष्ट है उतना ही पुण्य अधिक प्राप्त होता है फिर भी यात्रा में सुविधा ढूंढते हैं । तीर्थयात्रा और सैर कि खिचड़ी हो गई है ।
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३६. भारत में वर्तमान में सामान्य लोग इन दो विरोधी बातों में फंसे हुए हैं । वे पुण्य कमाने के लिए तीर्थयात्रा पर जाते हैं जहां दर्शन और प्रसाद दोनों बिकते हैं । वे मानते हैं कि तीर्थयात्रा में जितना अधिक कष्ट है उतना ही पुण्य अधिक प्राप्त होता है तथापि यात्रा में सुविधा ढूंढते हैं । तीर्थयात्रा और सैर कि खिचड़ी हो गई है ।
    
३७. परस्त्री माता समान है और पराया धन मिट्टी के समान है ऐसी दृढ़ धारणा के कारण स्त्रीपुरुष सम्बन्धों में तथा अर्थार्जन में शील का रक्षण सहज होता है । परन्तु अधार्मिक दृष्टि में कामसंबंध और अधथार्जन में नैतिकता की आवश्यकता नहीं है । केवल कानून का ही बंधन पर्याप्त है । ऐसे समाज में शिलरक्षण को गंभीरता से नहीं लिया जाता ।
 
३७. परस्त्री माता समान है और पराया धन मिट्टी के समान है ऐसी दृढ़ धारणा के कारण स्त्रीपुरुष सम्बन्धों में तथा अर्थार्जन में शील का रक्षण सहज होता है । परन्तु अधार्मिक दृष्टि में कामसंबंध और अधथार्जन में नैतिकता की आवश्यकता नहीं है । केवल कानून का ही बंधन पर्याप्त है । ऐसे समाज में शिलरक्षण को गंभीरता से नहीं लिया जाता ।
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४९. वैचारीक स्तर पर अनेक असम्बद्ध संकल्पनाओं का प्रयोग होता है। उदाहरण के लिए वैश्विकता, आधुनिकता, वैज्ञानिकता आदि संकल्पनाओं के अर्थ बहुत ही विचित्र हो गए हैं । धर्मनिरपेक्षता एक ऐसी ही संदिग्ध संकल्पना है जो अपनाई भी नहीं जा सकती और छोड़ी भी नहीं जा सकती ।
 
४९. वैचारीक स्तर पर अनेक असम्बद्ध संकल्पनाओं का प्रयोग होता है। उदाहरण के लिए वैश्विकता, आधुनिकता, वैज्ञानिकता आदि संकल्पनाओं के अर्थ बहुत ही विचित्र हो गए हैं । धर्मनिरपेक्षता एक ऐसी ही संदिग्ध संकल्पना है जो अपनाई भी नहीं जा सकती और छोड़ी भी नहीं जा सकती ।
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५०. स्वतन्त्रता, ख्त्रीपुरुष समानता, बच्चों के अधिकार, मानव अधिकार आदि संकल्पनाओं ने सामाजिक समरसता को नष्ट कर दिया है । इससे किसीको लाभ नहीं मिल रहा है और नुकसान अपरिमित हो रहा है । तो भी इसे छोड़ने का साहस किसीमें नहीं है । छोड़ने पर अपराधबोध होता है ।
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५०. स्वतन्त्रता, ख्त्रीपुरुष समानता, बच्चोंं के अधिकार, मानव अधिकार आदि संकल्पनाओं ने सामाजिक समरसता को नष्ट कर दिया है । इससे किसीको लाभ नहीं मिल रहा है और नुकसान अपरिमित हो रहा है । तो भी इसे छोड़ने का साहस किसीमें नहीं है । छोड़ने पर अपराधबोध होता है ।
    
५१. शिक्षा धर्म सिखाती है, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है, शिक्षा का अधिष्ठान आध्यात्मिक है ऐसी बातें भारत के सभी धर्माचार्य और विदट्रज्जन कहते हैं परन्तु देश कि अधिकृत शिक्षाव्यवस्था यूरोअमेरिकी मोडेल पर ही चलती है । देश का संविधान, संविधान की प्रतिष्ठा के लिए बने कानून और संविधान के अनुसार देश को चलाने हेतु बनी संसद धर्म के विषय में अत्यंत ट्रिधा मनःस्थिति में रहती है । यही अवस्था शिक्षा की भी है ।
 
५१. शिक्षा धर्म सिखाती है, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है, शिक्षा का अधिष्ठान आध्यात्मिक है ऐसी बातें भारत के सभी धर्माचार्य और विदट्रज्जन कहते हैं परन्तु देश कि अधिकृत शिक्षाव्यवस्था यूरोअमेरिकी मोडेल पर ही चलती है । देश का संविधान, संविधान की प्रतिष्ठा के लिए बने कानून और संविधान के अनुसार देश को चलाने हेतु बनी संसद धर्म के विषय में अत्यंत ट्रिधा मनःस्थिति में रहती है । यही अवस्था शिक्षा की भी है ।
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५६. शिक्षा के तन्त्र की दायित्व लेने वाला कोई नहीं है । अधिकार रखने वाले तो बहुत हैं परन्तु जवाबदेही किसीकी भी नहीं है । यहाँ कुछ भी हो सकता है और कुछ भी नहीं होता । कोई किसीका खास कुछ बिगाड़ नहीं सकता ।
 
५६. शिक्षा के तन्त्र की दायित्व लेने वाला कोई नहीं है । अधिकार रखने वाले तो बहुत हैं परन्तु जवाबदेही किसीकी भी नहीं है । यहाँ कुछ भी हो सकता है और कुछ भी नहीं होता । कोई किसीका खास कुछ बिगाड़ नहीं सकता ।
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५७. यहाँ तन्त्र काम करता है, व्यक्ति नहीं । व्यवस्था बहुत अच्छी है परन्तु व्यवस्था को सम्हालने वाला व्यक्ति नहीं है । व्यवस्था ही व्यवस्था को सम्हालती है। लोगोंं की शिकायत होती है कि तन्त्र बहुत जड़ हो गया है । तन्त्र तो जड़ होता ही है, परन्तु खास बात यह है कि तन्त्र ने मनुष्य को भी जड़ बना दिया है । तंत्र मनुष्य के लिए है, व्यवस्था के लिए नहीं ।
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५७. यहाँ तन्त्र काम करता है, व्यक्ति नहीं । व्यवस्था बहुत अच्छी है परन्तु व्यवस्था को सम्हालने वाला व्यक्ति नहीं है । व्यवस्था ही व्यवस्था को सम्हालती है। लोगोंं की शिकायत होती है कि तन्त्र बहुत जड़़ हो गया है । तन्त्र तो जड़़ होता ही है, परन्तु खास बात यह है कि तन्त्र ने मनुष्य को भी जड़़ बना दिया है । तंत्र मनुष्य के लिए है, व्यवस्था के लिए नहीं ।
    
५८. आज वास्तव में देखा जाता है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाया ही नहीं जाता है । आठ वर्ष पढ़ने पर भी छात्रों को अक्षसज्ञान नहीं होता है । जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षक सबसे अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं । समस्या उनकी योग्यता कि नहीं है, उनकी नियत कि है । समस्या उन्हें प्रेरित करने वाली या नियमन में रखने वाली व्यवस्था की है । सब यह जानते हैं तो भी उन्हें कुछ किया नहीं जा सकता ।
 
५८. आज वास्तव में देखा जाता है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाया ही नहीं जाता है । आठ वर्ष पढ़ने पर भी छात्रों को अक्षसज्ञान नहीं होता है । जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षक सबसे अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं । समस्या उनकी योग्यता कि नहीं है, उनकी नियत कि है । समस्या उन्हें प्रेरित करने वाली या नियमन में रखने वाली व्यवस्था की है । सब यह जानते हैं तो भी उन्हें कुछ किया नहीं जा सकता ।
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५९, ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है । जब जड़ तन्त्र ही  नियमन करता है तब मनुष्य उस जड़ तन्त्र के अधीन हो जाता है । जड़ तन्त्र के पास विवेक नहीं होता । उसके अधीन रहना मनुष्य को अच्छा नहीं लगता है । परन्तु उसकी कुछ चलती नहीं है । अतः वह भी जड़ तन्त्र में जड़ बन जाता है । सबसे पहला काम वह दायित्वबोध को छोड देने का ही करता है ।
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५९, ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है । जब जड़़ तन्त्र ही  नियमन करता है तब मनुष्य उस जड़़ तन्त्र के अधीन हो जाता है । जड़़ तन्त्र के पास विवेक नहीं होता । उसके अधीन रहना मनुष्य को अच्छा नहीं लगता है । परन्तु उसकी कुछ चलती नहीं है । अतः वह भी जड़़ तन्त्र में जड़़ बन जाता है । सबसे पहला काम वह दायित्वबोध को छोड देने का ही करता है ।
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६०. मनुष्य का स्वभाव है कि अच्छा बने रहने के लिए, अपना काम ठीक ढंग से करने के लिए उसे किसी न किसी प्रकार कि प्रेरणा चाहिए अथवा नियंत्रण चाहिए । ये दोनों बातें जिंदा मनुष्य से ही प्राप्त होने से काम चलता है | यंत्र न तो प्रेरणा दे सकता है न नियंत्रण कर सकता है । अतः शिक्षा भी जड़ बन जाती है ।
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६०. मनुष्य का स्वभाव है कि अच्छा बने रहने के लिए, अपना काम ठीक ढंग से करने के लिए उसे किसी न किसी प्रकार कि प्रेरणा चाहिए अथवा नियंत्रण चाहिए । ये दोनों बातें जिंदा मनुष्य से ही प्राप्त होने से काम चलता है | यंत्र न तो प्रेरणा दे सकता है न नियंत्रण कर सकता है । अतः शिक्षा भी जड़़ बन जाती है ।
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६१. जड़ तन्त्र नियंत्रण तो करता है परन्तु वह जड़ का ही कर सकता है, जड़ पद्धति से ही कर सकता है । अत: उपस्थिती अनिवार्य कि जा सकती है परन्तु उपस्थित रहने से काम होता हो यह अनिवार्य नहीं है ।
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६१. जड़़ तन्त्र नियंत्रण तो करता है परन्तु वह जड़़ का ही कर सकता है, जड़़ पद्धति से ही कर सकता है । अत: उपस्थिती अनिवार्य कि जा सकती है परन्तु उपस्थित रहने से काम होता हो यह अनिवार्य नहीं है ।
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६२. विद्यालय में पूर्ण समय उपस्थित रहने, पाठ्यक्रम पूर्ण करने, विद्यालय का परीक्षाफल शतप्रतिशत प्राप्त करने की तांत्रिक व्यवस्था हो सकती है परन्तु उतने मात्र से शिक्षा नहीं होती है । ये व्यवस्थायें जड़ हैं, शिक्षा नहीं । बाध्य शरीर को, प्रक्रिया को, अंकों को किया जा सकता है, ज्ञान को नहीं । अतः छात्र उत्तीर्ण होते हैं, ज्ञानवान नहीं ।
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६२. विद्यालय में पूर्ण समय उपस्थित रहने, पाठ्यक्रम पूर्ण करने, विद्यालय का परीक्षाफल शतप्रतिशत प्राप्त करने की तांत्रिक व्यवस्था हो सकती है परन्तु उतने मात्र से शिक्षा नहीं होती है । ये व्यवस्थायें जड़़ हैं, शिक्षा नहीं । बाध्य शरीर को, प्रक्रिया को, अंकों को किया जा सकता है, ज्ञान को नहीं । अतः छात्र उत्तीर्ण होते हैं, ज्ञानवान नहीं ।
    
६३. छात्र परीक्षार्थी होते हैं, विद्यार्थी नहीं । वे परीक्षा पास करते हैं, पढ़ते नहीं हैं, शिक्षक परीक्षा पास करवाते हैं, पढ़ाते नहीं । उन्हें वेतन विद्यालय में उपस्थित रहने का मिलता है पढ़ाने का नहीं, परीक्षा पास करवाने का मिलता है पढ़ाने का नहीं ।
 
६३. छात्र परीक्षार्थी होते हैं, विद्यार्थी नहीं । वे परीक्षा पास करते हैं, पढ़ते नहीं हैं, शिक्षक परीक्षा पास करवाते हैं, पढ़ाते नहीं । उन्हें वेतन विद्यालय में उपस्थित रहने का मिलता है पढ़ाने का नहीं, परीक्षा पास करवाने का मिलता है पढ़ाने का नहीं ।
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६४. वेतन ज्ञान और संस्कार देने का, चरित्रनिर्माण करने का दिया भी नहीं जा सकता । वेतन का और ज्ञान तथा संस्कार का कोई सम्बन्ध ही नहीं है । इनका सम्बन्ध स्वेच्छा, दायित्वबोध और ज्ञाननिष्ठा से है । ये बातें धर्म की, धर्माचार्य की, स्वजनों की या स्वयं की प्रेरणा से ही प्राप्त हो सकती हैं । जड़ तन्त्र को इनकी गन्ध भी नहीं होती है । समस्या का पता ही नहीं चल सकता है ।
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६४. वेतन ज्ञान और संस्कार देने का, चरित्रनिर्माण करने का दिया भी नहीं जा सकता । वेतन का और ज्ञान तथा संस्कार का कोई सम्बन्ध ही नहीं है । इनका सम्बन्ध स्वेच्छा, दायित्वबोध और ज्ञाननिष्ठा से है । ये बातें धर्म की, धर्माचार्य की, स्वजनों की या स्वयं की प्रेरणा से ही प्राप्त हो सकती हैं । जड़़ तन्त्र को इनकी गन्ध भी नहीं होती है । समस्या का पता ही नहीं चल सकता है ।
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६५. जड़ तन्त्र को लगता है कि सुविधा होने से छात्र शिक्षा ग्रहण करेंगे। अत: यह तन्त्र छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देने की, पाठ्यपुस्तकें देने की, भोजन देने की, गणवेश देने की व्यवस्था करता है । इसमें सदूभाव होता है । परन्तु यह जड़ सद्धाव है । छात्रों के परिवार को सहायता मिलती है परन्तु छात्र शिक्षा ग्रहण नहीं करते । शिक्षा जिज्ञासा के कारण ग्रहण कि जाती है, सुविधा प्राप्त होने से नहीं । जिज्ञासा जागृत करने का काम सुविधा के बस की बात नहीं है ।
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६५. जड़़ तन्त्र को लगता है कि सुविधा होने से छात्र शिक्षा ग्रहण करेंगे। अत: यह तन्त्र छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देने की, पाठ्यपुस्तकें देने की, भोजन देने की, गणवेश देने की व्यवस्था करता है । इसमें सदूभाव होता है । परन्तु यह जड़़ सद्धाव है । छात्रों के परिवार को सहायता मिलती है परन्तु छात्र शिक्षा ग्रहण नहीं करते । शिक्षा जिज्ञासा के कारण ग्रहण कि जाती है, सुविधा प्राप्त होने से नहीं । जिज्ञासा जागृत करने का काम सुविधा के बस की बात नहीं है ।
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६६. जड़ तन्त्र कभी दायित्वबोध की, निष्ठा की, छात्र के कल्याण की भावना की शिक्षा नहीं दे सकता । अत: शिक्षकों में, या तन्त्र सम्हालने वाले लोगोंं में ये तत्त्व प्रभावी होंगे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती । इस स्थिति में मनुष्य का मन उसे और स्वैराचारी बनाता है । अनिबंध मन हमेशा पानी की तरह नीचे की ओर बहता है, अर्थात दायित्वबोध, निष्ठा आदि से भागता है। मन को सज्जन बनाने की व्यवस्था किए बिना शिक्षा का कार्य अध्यापक, छात्र या तन्त्र के लिए कदापि संभव नहीं है ।
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६६. जड़़ तन्त्र कभी दायित्वबोध की, निष्ठा की, छात्र के कल्याण की भावना की शिक्षा नहीं दे सकता । अत: शिक्षकों में, या तन्त्र सम्हालने वाले लोगोंं में ये तत्त्व प्रभावी होंगे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती । इस स्थिति में मनुष्य का मन उसे और स्वैराचारी बनाता है । अनिबंध मन सदा पानी की तरह नीचे की ओर बहता है, अर्थात दायित्वबोध, निष्ठा आदि से भागता है। मन को सज्जन बनाने की व्यवस्था किए बिना शिक्षा का कार्य अध्यापक, छात्र या तन्त्र के लिए कदापि संभव नहीं है ।
    
६७. वर्तमान भारत में एक अतार्किक धारणा साक्षरता को शिक्षा मानती है । पढ़ना और लिखना आने से न ज्ञान आता है न संस्कार । पढ़ने लिखने से ही जानकारी भी नहीं मिलती । साक्षरता अलग है, शिक्षा अलग यह बात अनेक मंचों से बार बार बोली जाती है परन्तु तन्त्र के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती ।
 
६७. वर्तमान भारत में एक अतार्किक धारणा साक्षरता को शिक्षा मानती है । पढ़ना और लिखना आने से न ज्ञान आता है न संस्कार । पढ़ने लिखने से ही जानकारी भी नहीं मिलती । साक्षरता अलग है, शिक्षा अलग यह बात अनेक मंचों से बार बार बोली जाती है परन्तु तन्त्र के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती ।
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६८. साक्षरता को ही लक्ष्य बनाकर विभिन्न प्रकार से अनेक प्रयास किए जाते हैं । पैसा खर्च किया जाता है, साहित्य निर्माण किया जाता है, प्रशिक्षण किया जाता है, प्रचार किया जाता है परन्तु न साक्षरता आती है न शिक्षा ।
 
६८. साक्षरता को ही लक्ष्य बनाकर विभिन्न प्रकार से अनेक प्रयास किए जाते हैं । पैसा खर्च किया जाता है, साहित्य निर्माण किया जाता है, प्रशिक्षण किया जाता है, प्रचार किया जाता है परन्तु न साक्षरता आती है न शिक्षा ।
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६९. हमारे ज्ञात इतिहास में ऐसे सेंकड़ों उदाहरण हैं जो लिखना पढ़ना नहीं जानते थे तो भी ज्ञानी, तत्त्वज्ञानी, योगी, भक्त, पराक्रमी, कुशल व्यापारी, कवि, साहित्यकार, उद्योजक, शास्त्रों के रचयिता थे । उन्हें लिखना पढ़ना आता भी था तो भी उनकी प्रतिभा का कारण वह नहीं था । यह तथा सहज समझ में आने वाला है तो भी जड़ तन्त्र को नहीं समझ में आना भी स्वाभाविक है ।
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६९. हमारे ज्ञात इतिहास में ऐसे सेंकड़ों उदाहरण हैं जो लिखना पढ़ना नहीं जानते थे तो भी ज्ञानी, तत्त्वज्ञानी, योगी, भक्त, पराक्रमी, कुशल व्यापारी, कवि, साहित्यकार, उद्योजक, शास्त्रों के रचयिता थे । उन्हें लिखना पढ़ना आता भी था तो भी उनकी प्रतिभा का कारण वह नहीं था । यह तथा सहज समझ में आने वाला है तो भी जड़़ तन्त्र को नहीं समझ में आना भी स्वाभाविक है ।
    
७०. वास्तव में लिखने और पढ़ने का, अर्थात साक्षरता का शिक्षा के अर्थ में प्रयोग करना ही अनुचित है । अक्षर लेखन और पठन कर्मेन्ट्रिय और ज्ञानेन्द्रिय से होता है । लेखन और पठन से पूर्व श्रवण और भाषण अपेक्षित होता है क्योंकि सुने बिना बोला नहीं जाता और पढ़े बिना लिखा नहीं जाता । सुने बिना पढ़ा नहीं जाता और पढ़े बिना लिखा नहीं जाता । परन्तु इनमें दो प्रकार के दोष हैं ।
 
७०. वास्तव में लिखने और पढ़ने का, अर्थात साक्षरता का शिक्षा के अर्थ में प्रयोग करना ही अनुचित है । अक्षर लेखन और पठन कर्मेन्ट्रिय और ज्ञानेन्द्रिय से होता है । लेखन और पठन से पूर्व श्रवण और भाषण अपेक्षित होता है क्योंकि सुने बिना बोला नहीं जाता और पढ़े बिना लिखा नहीं जाता । सुने बिना पढ़ा नहीं जाता और पढ़े बिना लिखा नहीं जाता । परन्तु इनमें दो प्रकार के दोष हैं ।
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७१. एक तो सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना ये केवल भाषा के कौशल हैं, सभी विषयों के नहीं । सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना केवल भाषा की भी पूर्ता नहीं है, समझना अपेक्षित है। साक्षारता केवल लिखने और पढ़ने के यांत्रिक कार्य में शिक्षा को सीमित कर देती है । यह बड़ा अनर्थक प्रयास है ।
 
७१. एक तो सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना ये केवल भाषा के कौशल हैं, सभी विषयों के नहीं । सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना केवल भाषा की भी पूर्ता नहीं है, समझना अपेक्षित है। साक्षारता केवल लिखने और पढ़ने के यांत्रिक कार्य में शिक्षा को सीमित कर देती है । यह बड़ा अनर्थक प्रयास है ।
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७२. साक्षरता को शिक्षा मानने का उपक्रम बढ़ते बढ़ते बहुत दूर तक जाता है । आगे चलकर जानकारी को शिक्षा मानना, परीक्षा उत्तीर्ण करने को शिक्षा ग्रहण करना मानना, भौतिक साधनों से नापे जाने वाले तत्त्वों को प्रमाण मानना साक्षरता की संकल्पना का ही विस्तार है । परन्तु वह जड़ ही है । उच्च शिक्षा का क्षेत्र इसका शिकार हो गया है ।
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७२. साक्षरता को शिक्षा मानने का उपक्रम बढ़ते बढ़ते बहुत दूर तक जाता है । आगे चलकर जानकारी को शिक्षा मानना, परीक्षा उत्तीर्ण करने को शिक्षा ग्रहण करना मानना, भौतिक साधनों से नापे जाने वाले तत्त्वों को प्रमाण मानना साक्षरता की संकल्पना का ही विस्तार है । परन्तु वह जड़़ ही है । उच्च शिक्षा का क्षेत्र इसका शिकार हो गया है ।
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७३. यह बहुत बड़ा अनिष्ट है, कल्पनातीत बड़ा है । इसके चलते पंद्रह बीस वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी शिक्षित लोगोंं की जो दुर्गति होती है उसका कोई हिसाब नहीं है। जीवन का मूल्यवान समय केवल दुर्गति को अपनी झोली में डालने के लिए खर्च हो जाते हैं । वे स्वयं इसके लिए दोषी नहीं हैं । वे इस दुर्गति के लायक नहीं हैं । उन्हें जड़ तन्त्र ने जकड़ लिया होता है ।
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७३. यह बहुत बड़ा अनिष्ट है, कल्पनातीत बड़ा है । इसके चलते पंद्रह बीस वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी शिक्षित लोगोंं की जो दुर्गति होती है उसका कोई हिसाब नहीं है। जीवन का मूल्यवान समय केवल दुर्गति को अपनी झोली में डालने के लिए खर्च हो जाते हैं । वे स्वयं इसके लिए दोषी नहीं हैं । वे इस दुर्गति के लायक नहीं हैं । उन्हें जड़़ तन्त्र ने जकड़ लिया होता है ।

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