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२१. शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है तब शिक्षक छात्र को अपना मानस पुत्र मानता है और उसके कल्याण की कामना करता है । वह अपने से भी सवाया हो ऐसी उसकी इच्छा होती है । छात्र शिक्षक को भगवान के समान आदर देता है और उसकी सेवा को अपना धर्म मानता है ।
 
२१. शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है तब शिक्षक छात्र को अपना मानस पुत्र मानता है और उसके कल्याण की कामना करता है । वह अपने से भी सवाया हो ऐसी उसकी इच्छा होती है । छात्र शिक्षक को भगवान के समान आदर देता है और उसकी सेवा को अपना धर्म मानता है ।
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२२. आत्मीयता के सम्बन्ध के आधार पर सारे व्यवसायी जब अपना व्यवसाय करते हैं तब कृषक समाज में अन्न का अभाव न रहे अतः खेती करता है, बुनकर प्रजा की वस्त्र की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए कपड़ा बुनता है,मोची लोगों के पैरों की रक्षा हो सके अतः जूते बनाता है । संक्षेप में सब दूसरों के काम आ सके इस उद्देश्य से काम करते हैं ।
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२२. आत्मीयता के सम्बन्ध के आधार पर सारे व्यवसायी जब अपना व्यवसाय करते हैं तब कृषक समाज में अन्न का अभाव न रहे अतः खेती करता है, बुनकर प्रजा की वस्त्र की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए कपड़ा बुनता है,मोची लोगोंं के पैरों की रक्षा हो सके अतः जूते बनाता है । संक्षेप में सब दूसरों के काम आ सके इस उद्देश्य से काम करते हैं ।
    
२३. काम करते समय सेवा के साथ साथ कर्तव्य बुद्धि होती है । दूसरों के साथ व्यवहार करते समय कर्तव्य बुद्धि से ही विचार का प्रारम्भ होता है । होता यह है कि जब सब कर्तव्य से प्रेरित होकर व्यवहार करते हैं तब सबके अधिकारों कि रक्षा सहज ही हो जाती है, सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति अपने आप हो जाती है ।
 
२३. काम करते समय सेवा के साथ साथ कर्तव्य बुद्धि होती है । दूसरों के साथ व्यवहार करते समय कर्तव्य बुद्धि से ही विचार का प्रारम्भ होता है । होता यह है कि जब सब कर्तव्य से प्रेरित होकर व्यवहार करते हैं तब सबके अधिकारों कि रक्षा सहज ही हो जाती है, सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति अपने आप हो जाती है ।
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५६. शिक्षा के तन्त्र की दायित्व लेने वाला कोई नहीं है । अधिकार रखने वाले तो बहुत हैं परन्तु जवाबदेही किसीकी भी नहीं है । यहाँ कुछ भी हो सकता है और कुछ भी नहीं होता । कोई किसीका खास कुछ बिगाड़ नहीं सकता ।
 
५६. शिक्षा के तन्त्र की दायित्व लेने वाला कोई नहीं है । अधिकार रखने वाले तो बहुत हैं परन्तु जवाबदेही किसीकी भी नहीं है । यहाँ कुछ भी हो सकता है और कुछ भी नहीं होता । कोई किसीका खास कुछ बिगाड़ नहीं सकता ।
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५७. यहाँ तन्त्र काम करता है, व्यक्ति नहीं । व्यवस्था बहुत अच्छी है परन्तु व्यवस्था को सम्हालने वाला व्यक्ति नहीं है । व्यवस्था ही व्यवस्था को सम्हालती है। लोगों की शिकायत होती है कि तन्त्र बहुत जड़ हो गया है । तन्त्र तो जड़ होता ही है, परन्तु खास बात यह है कि तन्त्र ने मनुष्य को भी जड़ बना दिया है । तंत्र मनुष्य के लिए है, व्यवस्था के लिए नहीं ।
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५७. यहाँ तन्त्र काम करता है, व्यक्ति नहीं । व्यवस्था बहुत अच्छी है परन्तु व्यवस्था को सम्हालने वाला व्यक्ति नहीं है । व्यवस्था ही व्यवस्था को सम्हालती है। लोगोंं की शिकायत होती है कि तन्त्र बहुत जड़ हो गया है । तन्त्र तो जड़ होता ही है, परन्तु खास बात यह है कि तन्त्र ने मनुष्य को भी जड़ बना दिया है । तंत्र मनुष्य के लिए है, व्यवस्था के लिए नहीं ।
    
५८. आज वास्तव में देखा जाता है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाया ही नहीं जाता है । आठ वर्ष पढ़ने पर भी छात्रों को अक्षसज्ञान नहीं होता है । जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षक सबसे अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं । समस्या उनकी योग्यता कि नहीं है, उनकी नियत कि है । समस्या उन्हें प्रेरित करने वाली या नियमन में रखने वाली व्यवस्था की है । सब यह जानते हैं तो भी उन्हें कुछ किया नहीं जा सकता ।
 
५८. आज वास्तव में देखा जाता है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाया ही नहीं जाता है । आठ वर्ष पढ़ने पर भी छात्रों को अक्षसज्ञान नहीं होता है । जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षक सबसे अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं । समस्या उनकी योग्यता कि नहीं है, उनकी नियत कि है । समस्या उन्हें प्रेरित करने वाली या नियमन में रखने वाली व्यवस्था की है । सब यह जानते हैं तो भी उन्हें कुछ किया नहीं जा सकता ।
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६५. जड़ तन्त्र को लगता है कि सुविधा होने से छात्र शिक्षा ग्रहण करेंगे। अत: यह तन्त्र छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देने की, पाठ्यपुस्तकें देने की, भोजन देने की, गणवेश देने की व्यवस्था करता है । इसमें सदूभाव होता है । परन्तु यह जड़ सद्धाव है । छात्रों के परिवार को सहायता मिलती है परन्तु छात्र शिक्षा ग्रहण नहीं करते । शिक्षा जिज्ञासा के कारण ग्रहण कि जाती है, सुविधा प्राप्त होने से नहीं । जिज्ञासा जागृत करने का काम सुविधा के बस की बात नहीं है ।
 
६५. जड़ तन्त्र को लगता है कि सुविधा होने से छात्र शिक्षा ग्रहण करेंगे। अत: यह तन्त्र छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देने की, पाठ्यपुस्तकें देने की, भोजन देने की, गणवेश देने की व्यवस्था करता है । इसमें सदूभाव होता है । परन्तु यह जड़ सद्धाव है । छात्रों के परिवार को सहायता मिलती है परन्तु छात्र शिक्षा ग्रहण नहीं करते । शिक्षा जिज्ञासा के कारण ग्रहण कि जाती है, सुविधा प्राप्त होने से नहीं । जिज्ञासा जागृत करने का काम सुविधा के बस की बात नहीं है ।
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६६. जड़ तन्त्र कभी दायित्वबोध की, निष्ठा की, छात्र के कल्याण की भावना की शिक्षा नहीं दे सकता । अत: शिक्षकों में, या तन्त्र सम्हालने वाले लोगों में ये तत्त्व प्रभावी होंगे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती । इस स्थिति में मनुष्य का मन उसे और स्वैराचारी बनाता है । अनिबंध मन हमेशा पानी की तरह नीचे की ओर बहता है, अर्थात दायित्वबोध, निष्ठा आदि से भागता है। मन को सज्जन बनाने की व्यवस्था किए बिना शिक्षा का कार्य अध्यापक, छात्र या तन्त्र के लिए कदापि संभव नहीं है ।
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६६. जड़ तन्त्र कभी दायित्वबोध की, निष्ठा की, छात्र के कल्याण की भावना की शिक्षा नहीं दे सकता । अत: शिक्षकों में, या तन्त्र सम्हालने वाले लोगोंं में ये तत्त्व प्रभावी होंगे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती । इस स्थिति में मनुष्य का मन उसे और स्वैराचारी बनाता है । अनिबंध मन हमेशा पानी की तरह नीचे की ओर बहता है, अर्थात दायित्वबोध, निष्ठा आदि से भागता है। मन को सज्जन बनाने की व्यवस्था किए बिना शिक्षा का कार्य अध्यापक, छात्र या तन्त्र के लिए कदापि संभव नहीं है ।
    
६७. वर्तमान भारत में एक अतार्किक धारणा साक्षरता को शिक्षा मानती है । पढ़ना और लिखना आने से न ज्ञान आता है न संस्कार । पढ़ने लिखने से ही जानकारी भी नहीं मिलती । साक्षरता अलग है, शिक्षा अलग यह बात अनेक मंचों से बार बार बोली जाती है परन्तु तन्त्र के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती ।
 
६७. वर्तमान भारत में एक अतार्किक धारणा साक्षरता को शिक्षा मानती है । पढ़ना और लिखना आने से न ज्ञान आता है न संस्कार । पढ़ने लिखने से ही जानकारी भी नहीं मिलती । साक्षरता अलग है, शिक्षा अलग यह बात अनेक मंचों से बार बार बोली जाती है परन्तु तन्त्र के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती ।
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७२. साक्षरता को शिक्षा मानने का उपक्रम बढ़ते बढ़ते बहुत दूर तक जाता है । आगे चलकर जानकारी को शिक्षा मानना, परीक्षा उत्तीर्ण करने को शिक्षा ग्रहण करना मानना, भौतिक साधनों से नापे जाने वाले तत्त्वों को प्रमाण मानना साक्षरता की संकल्पना का ही विस्तार है । परन्तु वह जड़ ही है । उच्च शिक्षा का क्षेत्र इसका शिकार हो गया है ।
 
७२. साक्षरता को शिक्षा मानने का उपक्रम बढ़ते बढ़ते बहुत दूर तक जाता है । आगे चलकर जानकारी को शिक्षा मानना, परीक्षा उत्तीर्ण करने को शिक्षा ग्रहण करना मानना, भौतिक साधनों से नापे जाने वाले तत्त्वों को प्रमाण मानना साक्षरता की संकल्पना का ही विस्तार है । परन्तु वह जड़ ही है । उच्च शिक्षा का क्षेत्र इसका शिकार हो गया है ।
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७३. यह बहुत बड़ा अनिष्ट है, कल्पनातीत बड़ा है । इसके चलते पंद्रह बीस वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी शिक्षित लोगों की जो दुर्गति होती है उसका कोई हिसाब नहीं है। जीवन का मूल्यवान समय केवल दुर्गति को अपनी झोली में डालने के लिए खर्च हो जाते हैं । वे स्वयं इसके लिए दोषी नहीं हैं । वे इस दुर्गति के लायक नहीं हैं । उन्हें जड़ तन्त्र ने जकड़ लिया होता है ।
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७३. यह बहुत बड़ा अनिष्ट है, कल्पनातीत बड़ा है । इसके चलते पंद्रह बीस वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी शिक्षित लोगोंं की जो दुर्गति होती है उसका कोई हिसाब नहीं है। जीवन का मूल्यवान समय केवल दुर्गति को अपनी झोली में डालने के लिए खर्च हो जाते हैं । वे स्वयं इसके लिए दोषी नहीं हैं । वे इस दुर्गति के लायक नहीं हैं । उन्हें जड़ तन्त्र ने जकड़ लिया होता है ।

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