वर्तमानकालीन वैश्विक परिस्थिति

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पर्व २

अध्याय १७

विश्वस्थिति का आकलन

विश्व के सारे देश एकदूसरे को प्रभावित करते हुए ही अपना राष्ट्रजीवन चलाते हैं । संचार माध्यमों के कारण यह कार्य अत्यन्त तेजी से होता है । इसके परिणाम स्वरूप छोटी मोटी अनेक बातें झट से आन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप धारण कर लेती हैं, यहाँ तक कि वस्त्रों के फैशन और खानपान के स्वाद आन्तर्राष्ट्रीय बन जाते हैं । साथ ही गम्भीर बातों को फैलने में भी सुविधा बन जाती है । विश्व के अनेक संकट कहीं एक स्थान पर जन्मे और विश्वभर में फैल गये हैं। आज की गति, अकर्मण्यता, यन्त्रवाद आदि ने अनिष्टों को व्यापक और प्रभावी बनाने में बड़ा योगदान दिया है।

- प्रथम पर्व में हमने एक प्रकार की संकलित जानकारी देखी । अभी इस पर्व में समाज और सृष्टि की संकटग्रस्त स्थिति का आकलन विभिन्न विषयों के विद्वानों द्वारा प्रस्तुत हुआ है । यान्त्रिक आकलन एक बात दर्शाता है और वैचारिक आकलन दूसरी । इस स्थिति में दोनों का क्या करना इसका विचार करने की आवश्यकता है।

अनुक्रमणिका

१७. वर्तमानकालीन वैश्विक परिस्थिति

१८. राजनीतिक प्रवाहों का वैश्विक परिदृश्य

१९. अमेरिका एक समस्या

२०. 'द प्रिजन' का सारांश

२१. आर्थिक हत्यारे की स्वीकारोक्ति

२२. अमेरिका का एक्सरे

२३. नव साम्यवाद के लक्षण और स्वरूप

२४. राष्ट्रवाद की पश्चिमी संकल्पना

अध्याय १७

वर्तमानकालीन वैश्विक परिस्थिति

अशोक मोदक

आज विश्वमें बहुत बडी उठापटक हो रही है। जिस युरोप ने एशिया, आफ्रिका एवं लेटिन अमरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये हुए थे, अपने साम्राज्य खडे किये थे, वही युरोप वर्तमान में पतन की कगार पर खडे होने का अनुभव कर रहा है। जब कि उपरोक्त त्रिखंड में से एक एशिया विकासमार्ग का यात्री है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने सन १९०२ में अपनी एक कविता में 'विश्वमें आज तक शाश्वत क्या रहा है ?' ऐसा प्रश्न उपस्थित किया था । वर्तमान में वही प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक सिद्ध हुआ है।

गत वर्ष में सोवियट संघ के विध्वंस के पचीस साल पूरे हुए। तो इस वर्ष युरोपिअन युनिअन के जन्म को पचीस वर्ष पूरे हो रहे हैं । परंतु अपनी पचीसी पूरी कर रहे युरोपिअन युनिअन को अपना कोई भविष्य है कि नहीं यह प्रश्न विश्व के विचारक लोग पूछने लगे हैं। तात्पर्य यह है कि 'वर्तमानकालीन वैश्विक परिस्थिति' यह विषय सांप्रत अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रस्तुत है । इस लेख में जिस क्रम से हम विषय का विवेचन करने जा रहे हैं वह इस प्रकार है

१. सोवियत संघ का विनाश,

२. युरो अटलान्टिक विश्व का (युरोपिअन युनिअन और अमरिका) पतन की दिशामें प्रवास और इन्डो पॅसिफिक विश्व का उदय (एशिया खंड की उन्नति) ,

३. इस्लामिक आतंकवाद का प्रसार और

४. चीन का उत्पात ।

१. सोवियत संघ का विनाश

सन १९१७में रुस में बोल्शेविक क्रान्ति हुई। सन २०१७ में उस क्रान्ति की शताब्दी पूरी हो रही है। परन्तु उस क्रान्ति के कारण पूरे विश्व में श्रमिकों का राज्य लागू हो जायेगा ऐसे भविष्यकथन के मूल पर ही आघात हुआ है। जो कुछ भी पुराना है उसे नष्ट कर देने का उद्घोष करते हुए सन १९२२ में उदयमान हुआ सोवियत संघ अपने अस्तित्व के पचहत्तर साल पूरे करने से पूर्व ही मृतावस्था को प्राप्त हो गया । मार्क्सवाद को व्यवहार में कार्यान्वित करने के हेतु से सोवियत संघ का जन्म हुआ था परंतु मार्क्सवाद की गिनती के अनुसार मूडीवाद के पतन के पश्चात समाजवाद का उदय अपेक्षित था । रुस में तो सन १९१७ में सामंतवाद अस्तित्व में था ही । अर्थात नियति को अनदेखा कर के ही सोवियत संघ नामक शिशु समयपूर्व ही जन्म ले चूका था । सुमंत बेनर्जी नामक एक साम्यवादी चिंतक ने इसीलिये इस बात का विश्लेषण करते हुए महाभारत के अष्टावक्र की कथा सुनाई है । अष्टावक्र माता की कोख में था । वहां से ही उसने जन्मदाता पिता के साथ विवाद किया और उसके परिणाम स्वरूप पिताने शाप दिया 'बेटम जी, आप जन्म लेंगे वही अष्टावक्र हो कर !'आठ अंगो से वक्र, विकृत अष्टावक्र ने ही सन १९१७ में बोल्शेविक क्रान्ति के बाद सोवियत युनियन के स्वरूप में जन्म लिया ।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के कथनानुसार जो समाज अपना सर्वस्व राज्य शासन के हाथ में सोंप देता है वह जीते जी अपनी कबर तैयार करता है। दीनदयालजी की यह मीमांसा भी सुमंत बेनर्जी के विश्लेषण के साथ सुसंगत है । जिस गति से कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता में आने के बाद औद्योगीकरण को बढावा दिया, भौतिक चीजों का उत्पादन बढाने का प्रारम्भ किया और नौकरशाही के माध्यम से प्राचीन संस्थाओं को और चिन्हों को नष्ट करने का बीडा उठाया वह बड़ा विस्मयकारक था । परन्तु बाढ़ के पानी से जो उथल पुथल मचती है वह पानी उतर जाने के बाद अति शीघ्र समाप्त भी हो जाती है। सोवियत संघ में भी वही हुआ । अर्थात दूसरे महायुद्ध में जर्मन सैन्य को मिट्टी में मिलाने वाले सोवियत युनिअन ने विश्व को प्रभावित किया था इस में कोई सन्देह नहीं है परन्तु वह विजय रुसी राष्ट्रवाद का था, सोवियत समाजवाद का नहीं । स्वाभाविक रूप से दूसरे महायुद्ध के बाद विजय का नशा उतरने के साथ ही स्तालिन की स्मृति का निष्कासन, निजी साहस का प्रारम्भ और लाभ के प्रेरणास्रोत को आमंत्रण, ब्रेझनेवकालीन गतिशून्यता और फिर प्रचंड गति से मृत्यु की दिशा में दौड और अंत में सर्वनाश यह भाटे की स्थिति यदि समज लेते हैं तो कम्युनिस्ट वर्ग की शोकांतिका ध्यान में आ जायेगी। पुराना सब मिट्टी में मिला दिया परंतु 'नवनिर्माण के लिये अवकाश ही नहीं मिला, परिणामतः उसकी भग्नावस्था और मूल अवस्था ही सब के सामने आ गयी।

सन १९९१में सोवियत संघ के पार्थिव में से पंद्रह राष्ट्रों का जन्म हुआ। इन राष्ट्रों में अब सोवियत पूर्व कालखंड का शोध प्रारम्भ हुआ है। मध्य एशिया के मुस्लिम राष्ट्र तो इस्लाम पूर्व का इतिहास जानने के लिये उतावले हो रहे हैं। अर्थात सन १९९१ से पूर्व 'नया सो चाहिये' यह मंत्र गूंज रहा था , परन्तु विगत छब्बीस वर्ष से 'पुराना सो बेहतर'यह कहावत मान्यता प्राप्त किये हुए है। सोवियत संघ के ध्वस्त होने के परिणाम स्वरूप अमरिका को आह्वान देने वाला एक ध्रुव समाप्त हो गया ऐसा कहा जाता है परन्तु मूलतः वह ध्रुव था ही नहीं. गीता में भी कहा गया है 'यो ध्रुवाणी परित्यज्य अध्रुवं परिषेवते। ध्रुवाणी तस्य नश्यन्ति अध्रुवम् नष्टमेवच ।।

२. युरो आटलिन्टिक विश्व का पतन और इन्डो पॅसिफिक विश्व का उदय

आट्लान्टिक महासागर के इर्दगीर्द मूडीवादी राष्ट्रों ने अपना डेरा जमाया है । एक समय था जब इन राष्ट्रों का बहुत बोलबाला था । ग्रेट ब्रिटन भारत पर राज्य जमाये हुए था, तो बेल्जियम जैसे छोटे राष्ट्र ने आफ्रिका के विस्तृत काँगो पर अधिराज्य स्थापित किया था । दूसरा महायुद्ध समाप्त हुआ और विभिन्न उपनिवेष पारतंत्र्य के बन्धन से मुक्त होने लगे । तब पश्चिम युरोप के भूतकालीन साम्राज्यों के समक्ष अस्तित्व का प्रश्न चिह्न उठ खडा हुआ। फिर उसी अस्तित्व को बनाये रखने के लिये सन १९५७ में, अर्थात ६० वर्ष पूर्व छः राष्ट्रों ने मिल कर 'युरोपिअन इकॉनोमिक कम्युनिटी' को जन्म दिया। सोवियत संघ ध्वस्त होने के बाद, सन १९९२ में उस कम्युनिटी में और छः राष्ट्र शामिल हुए और युरोपिअन युनिअन का उदय हुआ। सन २००४ में पूर्वी युरोप के सोलह राष्ट्रों ने उस युनिअन में प्रवेश लिया। इसका अर्थ हुआ ५१ कोटि जनसंख्या के २८ राष्ट्रों का युरोपिअन युनिअन सन १९५७ से २००४ तक विस्तारित होता रहा । इस विस्तार को ही किसी की बुरी नजर लग गई की क्या, पर उसी दौरान युरोप के दो बड़े राष्ट्र फ्रान्स और जर्मनी ने अमरिका के साथ वाक्युद्ध प्रारम्भ कर दिया । अमरिका युनाईटेड नेशन्स नामक वैश्विक संगठनकी परवा न करते हुए इराक में हस्तक्षेप करने के लिये आगे बढ़ गया था वह इस वाक्युद्ध का कारण था । स्वयं अमरिका के लिये भी पश्चिम युरोप के राष्ट्रों की मैत्री निरर्थक ही थी । मोस्को के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप आटलांटिक के दोनों ओर जम कर बैठे राष्ट्र इकठे हुए। मॉस्को का किल्ला ध्वस्त होने के बाद युरोपियन युनिअन अप्रस्तुत सिद्ध हो रहा था । वॉशिंग्टन स्थित मूडीपतियों के ध्यान में आया कि उनके न्यूयोर्क स्थित 'ट्रिन टॉवर' अर्थात विश्व व्यापार संगठन पर जो हमला हुआ वह इस्लामी आतंकवादियों की ओर से हुआ था । सन २००१ का वह ११ सप्टेंबर का दिन था । उसके बाद ओसामा बिन लादेन और उसके साथियोंने सीधे अफघानिस्तान का रास्ता लिया । परिणाम स्वरूप अमरिका को स्वरक्षा के लिये अपना मोहरा युरोपसे हटाकर एशिया की ओर करना पड़ा। एशिया में तब तक चीन एक शक्तिशाली देश के रूप में उभर रहा था । अब जो चुनौति है वह चीन की ओर से है यह निष्कर्ष तक अमरिका पहुँच गया था । युरो आट्लांटिक विश्व का जो ह्रास प्रारंभ हुआ वह इस पृष्ठभूमि पर था । सन २००८ में लेहमन धोखाधड़ी का मामला सामने आया और अमरिका, ब्रिटन, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन जैसे कई मूडीवादी देशों का विकास दर ७ प्रतिशत से नीचे आता हुआ २ प्रतिशत पर आ गया । सारांश यह कि सोवियत संघ समाप्त होने से युरोपिअन युनिअन के साथ की दोस्ती निरर्थक सिद्ध

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे