वर्णचतुष्टय और शिक्षा

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धार्मिक समाजव्यवस्था के दो मूल आधार हैं। एक है आश्रमव्यवस्था और दूसरा है वर्णव्यवस्था। आश्रमव्यवस्था के विषय में हमने पूर्व में चर्चा की है । इस अध्याय में वर्णव्यवस्था की चर्चा करेंगे।[1]

चार वर्ण

वर्ण क्या है ? लिखित अक्षर को वर्ण कहते हैं। उदाहरण के लिए क, ख़ आदि वर्ण हैं । रंग को भी वर्ण कहते हैं । उदाहरण के लिए श्रेतवर्ण, श्यामवर्ण आदि । परंतु सामाजिक व्यवस्था में वर्ण मनुष्य के स्वभाव के अनुसार होते हैं ।

स्वभाव क्या है ? मनुष्य का गुणधर्म ही मनुष्य का स्वभाव है । मनुष्य की पहचान मनुष्य के स्वभाव से ही होती है । कोई स्वभाव से ही दयावान होता है, कोई क्रोधी होता है, कोई शूर होता है, कोई भीरु होता है, कोई स्वार्थी होता है, कोई उदार होता है, ऐसे अनेक प्रकार के मनुष्य होते हैं। ये गुण उनको स्वभाव से ही मिले हैं । इस स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य के वर्ण भी निश्चित होते हैं।

मनुष्य का स्वभाव भी जन्मजन्मांतर के कर्मों के प्रति उसके मन के सम्बन्ध के अनुसार बनता है । मनुष्य को जीवनयापन के लिए अनेक प्रकार के काम करने ही होते हैं।एक क्षण भी मनुष्य कर्म किए बिना रह नहीं सकता है। ये कर्म शारीरिक भी होते हैं और बौद्धिक भी।

उदाहरण के लिए खाना, चलना, वस्त्र पहनना ये शारीरिक कर्म हैं परंतु अध्ययन करना, समस्या सुलझाना आदि बौद्धिक कर्म हैं। इन सब कर्मों के परिणाम होते हैं जिन्हें कर्मफल कहते हैं। कर्म किए तो कर्मफल होते ही हैं। अच्छे कर्मों के अच्छे फल होते हैं, बुरे कर्मों के बुरे फल । मनुष्य का मन ऐसा होता है कि उसे अच्छे फल तो चाहिए परंतु बुरे फल नहीं चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं होता । कर्मों के फल तो भुगतने ही होते हैं । इस जन्म में यदि भोग नहीं हो सका तो दूसरे जन्म में वे संचित कर्मों के रूप में साथ आते हैं । इन कर्मों के आधार पर वर्ण बनते हैं । कर्मों के साथ ही साथ मनुष्य को गुण भी स्वाभाविक रूप में ही मिलते हैं । गुण तीन हैं। वे हैं सत्त्व, रज और तम। इन गुणों के अनुसार वर्ण बनते हैं। गुण और कर्मों के अनुसार मनुष्य को वर्ण प्राप्त होते हैं।

इसका अर्थ यह हुआ कि हर मनुष्य का अपना अपना वर्ण होता है। जितने मनुष्य उतने ही वर्ण होंगे । परन्तु हमारी पारम्परिक व्यवस्था में वर्ण कदाचित पहली बार गुणकर्म के आधार पर निश्चित हुए होंगे, बाद में कुल के आधार पर ही निश्चित होते रहे हैं। जिस वर्ण के मातापिता के घर जन्म हुआ है उन्हीं का वर्ण संतानों को भी प्राप्त होता है। अर्थात् स्वभाव के लिए वर्ण गुण और कर्म के आधार पर तय होते हैं, व्यवस्था के लिए वर्ण जन्म के आधार पर निश्चित होते रहे हैं।

पारम्परिक रूप में देखा जाय तो वर्णव्यवस्था विवाह, आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में स्थापित हुई है। वर्ण के अनुसार ही व्यवसाय करना है। वर्ण के अनुसार ही विवाह भी करना है और वर्ण के अनुसार ही आचार का पालन करना है। समाज को समृद्ध और सुरक्षित रखने के लिए इन तीन संदर्भो में वर्णव्यवस्था का पालन कड़ाई से करने का आग्रह किया जाता रहा है। तथापि यह व्यवस्था विवाह के सम्बन्ध में कुछ लचीली भी दिखाई देती है परन्तु आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में जरा भी शिथिलता सहन नहीं करती है । उदाहरण के लिए अनुलोम विवाह के रूप में वर्णान्तर विवाह प्रचलित रहे हैं।

अनुलोम विवाह का अर्थ है ब्राह्मण वर्ण का पुरुष क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र स्त्री से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय वर्ण का पुरुष वैश्य या शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, वैश्य वर्ण का पुरुष शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। इस सीमित रूप में वर्णव्यवस्था लचीली है। दो भिन्न भिन्न वर्गों के स्त्री और पुरुष की संतानों को वर्णसंकर कहते हैं । महाभारत में ऐसे वर्णसंकरों के अनेक प्रकार बताए गए हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन वर्णसंकरों के भी व्यवसाय आग्रहपूर्वक निश्चित किए गए हैं । यदि मनुष्य व्यवसाय बदल देता है तो उसका वर्ण भी बदल जाता है। आचार छोड़ने की तनिक भी अनुमति नहीं है।

जो विचारधारा समाज को जीवमान इकाई मानती है और समाज तथा व्यक्ति के मध्य अंग और अंगी का सम्बन्ध बताती है वहाँ समाज अंगी होता है और व्यक्ति अंग होता है। व्यक्ति समाज की शाश्वतता, सुस्थिति और सुदृढ़ता के लिए अपने आपको सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ समायोजित करेगा । व्यक्ति अपना जीवन समाज की सेवा के लिए समर्पित करेगा और अपने आपको धन्य मानेगा। ऐसे समाज में ही वर्णव्यवस्था का प्रयोजन रहता है। जिस समाज में व्यक्ति को ही स्वतंत्र और सर्वोपरि मानता है और समाज को केवल करार की व्यवस्था ही माना जाता है वहाँ वर्णव्यवस्था का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। आज भारत में वर्णव्यवस्था की जो उपेक्षा, तिरस्कार और दुरवस्था दिखाई देती है वह व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना के कारण ही है । धार्मिक समाज को एक बार निश्चित हो जाने की आवश्यकता है कि उसे करार वाली जीवनव्यवस्था चाहिए कि कुटुंबभावना वाली। यदि हम कुटुंबभावना वाली समाजव्यवस्था को चाहते हैं तो हमें वर्णव्यवस्था को स्वीकार करना होगा।

यहाँ ऐसी समाजव्यवस्था चाहिए, अनेक प्रकार से वह लाभदायी है, ऐसा मानकर ही सारे विषयों का ऊहापोह किया गया है यह स्पष्ट है।

वर्ण चार हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ।

ब्राह्मण वर्ण

ब्राह्मण श्रेष्ठ वर्ण माना गया है। ज्ञान और संस्कार उसके क्षेत्र हैं। किसी भी समाज में ज्ञान और संस्कारों की स्थापना ब्राह्मण वर्ण से होती है । यज्ञ और ज्ञानसाधना से वह समाज की सेवा करता है । ब्राह्मण को अपनी पवित्रता और शुद्धि सुरक्षित रखनी चाहिये । यह उसका आचार धर्म होता है। ब्राह्मण की दिनचर्या शास्त्र के अनुसार होनी चाहिये। उसे यज्ञ करना और करवाना चाहिये। अध्यापन करना चाहिये। भौतिक उत्पादन नहीं करना चाहिये। परन्तु आज ब्राह्मण अपने वर्ण के आचार का पालन नहीं करता है। शुद्धि और पवित्रता की सुरक्षा नहीं करता है। समाज को ज्ञाननिष्ठ बनाना ब्राह्मण का काम है। जब वह ज्ञानसाधना छोड़ देता है तब ज्ञान के क्षेत्र में समाज की हानि होती है।

सबसे बड़ी अनवस्था हुई है व्यवसाय के क्षेत्र में। ब्राह्मण का काम पढ़ाने का है। पैसे लेकर पढ़ाने वाले ब्राह्मण को ज्ञान का व्यापार करने वाला वणिज कहा गया है। आज ब्राह्मण पैसे लेकर पढ़ाता है। उसने वैश्यवृत्ति को स्वीकार कर लिया है। उससे भी आगे वह पढ़ाने का स्वतन्त्र व्यवसाय नहीं करता है। वह नौकरी करता है । नौकरी करना शूद्र का काम है। ब्राह्मण ने आज शुूद्र होना भी स्वीकार कर लिया है । उसने अपनी तो हानि की ही है, परन्तु ज्ञान की पवित्रता भी नष्ट कर दी है । उसके नौकर होने के कारण से विद्या का गौरव नष्ट हुआ है । जिस समाज में विद्या, स्वाध्याय, पवित्रता, शुद्धता नहीं रहती है उस समाज की अधोगति होना स्वाभाविक है । ब्राह्मण के वणिज होने के कारण से समाज ज्ञाननिष्ठ के स्थान पर अर्थनिष्ठ हो गया है। पवित्रता नहीं रहने से समाज भोगप्रधान और कामप्रधान हो गया है। भोगप्रधानता केवल ब्राह्मण वर्ग में ही है ऐसा नहीं है। चारों वर्णों का पूरा समाज ही भोगप्रधान बन गया है, परन्तु इसमें ब्राह्मण का दायित्व सबसे बड़ा है क्योंकि संसार का नियम है कि जैसा बड़े और श्रेष्ठ करते हैं वैसा ही कनिष्ठ करते हैं। सामान्य लोगोंं को बड़ों का आचरण ही प्रेरक और मार्गदर्शक होता है । ब्राह्मणों ने यदि ज्ञान की श्रेष्ठता नहीं रखी तो और लोग क्या करेंगे? वे तो उनका अनुसरण ही करेंगे । अतः श्रेष्ठों के पतन से सारे समाज का पतन होता है ।

ब्राह्मणों ने विद्या को तो पण्य अर्थात्‌ व्यापार की वस्तु बना दी है । परन्तु उनका आर्थिक क्षेत्र का अपराध इतना ही नहीं है । उन्होंने अपना व्यवसाय छोड़कर दूसरे वर्णों के व्यवसाय ले लिये । आज ब्राह्मण नौकरी भी करता है, दुकान भी चलाता है, कारख़ाना भी चलाता है, मजदूरी भी करता है । इससे उसे तो अर्थार्जन के अच्छे अवसर मिल जाते हैं । जो तपश्चर्या छोड़ देता है उसकी सांस्कारिक या आध्यात्मिक हानि होती है परन्तु जिनके व्यवसाय छिन जाते हैं उनकी तो सभी प्रकार की हानि होती है । ज्ञान और संस्कार के क्षेत्र में मार्गदर्शक नहीं रहने से सांस्कारिक हानि भी होती है और व्यवसाय छिन जाने से आर्थिक या भौतिक हानि होती है ।

परम्परा से ब्राह्मण की श्रेष्ठता रही है । उसका क्षेत्र ज्ञान का रहा है । वह सबका मार्गदर्शक और प्रेरक रहा है । वह ज्ञान का उपासक रहा है । इसलिये वह जब अपने स्थान से च्युत होता है तब उसे मार्गदर्शन करने वाला या उसे रोकने वाला कोई नहीं रहता है । उसे अपने से नीचे के स्तर के सभी लाभ मिल जाते हैं । स्थिति ऐसी होती है कि उसका मूल काम तो कोई नहीं कर सकता पर वह दूसरों का काम कर सकता है ।

इसका परिणाम यह हुआ है कि जन्म से ब्राह्मण है परन्तु वृत्ति और व्यवसाय से वह ब्राह्मण नहीं है । जन्म से ब्राह्मण होने में कोई गौरव नहीं है, वृत्ति और व्यवसाय से ब्राह्मण होने में ही गौरव है । अब जन्म अर्थात्‌ कुल और वृत्ति दोनों में विच्छेद हो गया । ब्राह्मण का ऐसा हुआ तो अन्य वर्णों का भी हुआ है । अध्ययन अध्यापन करने वाले दूसरे वर्णों के लोग भी हो गये । परन्तु चूँकि मूल वृत्ति वणिक की है और अब ब्राह्मणों ने अध्यापन को शद्वों का काम बना दिया है तो वैश्य भी ज्ञान का व्यापार करने लगे हैं। अब किस वर्ण का व्यक्ति कौन सा काम करेगा इसकी निश्चिति नहीं रही है ।

ब्राह्मणों का एक काम यजन और याजन का है । अभी भी वह काम जन्म से ब्राह्मण हैं वे कर रहे हैं । परन्तु स्वयं यजन करना नहीवत्‌ हो गया है । यज्ञ करवाते हैं परन्तु कुल मिलाकर यज्ञ का प्रचलन ही समाज में कम हो गया है । जो भी बचा है वह ब्राह्मणों के जिम्मे है । परन्तु अधिकांश वे अब पौरोहित्य करते हैं। मन्दिरों में पूजारी का काम भी उनका ही है । समारोहों में भोजन बनाने का काम भी ब्राह्मणों का ही होता था । ये दोनों काम अब अन्य वर्णों के लोग करने लगे हैं तथापि ब्राह्मणों का वर्चस्व अभी समाप्त नहीं हुआ है । परन्तु अब पौरोहित्य हो या पूजारी का काम, वेद्पठन हो या भोजन बनाने का काम, ब्राह्मणों के लिये यह अथार्जिन हेतु व्यवसाय बन गया है ।

भारत को सनातन राष्ट्र कहा गया है और भारत के हिन्दू धर्म को सनातन धर्म । सनातन का अर्थ है जो स्थान और काल में निरन्तर बना रहता है । इस सनातनता का ही प्रताप है कि अभी भी ऐसे ब्राह्मण बचे हैं जो शुद्धि और पवित्रता की रक्षा करते हैं, बिना शुल्क लिये अध्यापन करते हैं, वेदाध्ययन का दायित्व सम्हालते हैं । अभी भी वे ज्ञान की गरिमा को कम नहीं होने देते हैं । धार्मिक समाज की आशा अभी उनके कारण ही समाप्त नहीं हुई है।

क्षत्रिय वर्ण

वर्तमान में क्षत्रिय वर्ण की प्रतिष्ठा वैश्यों से कम हो गई है। शस्त्र धारण करना, दुर्बल की, विशेष रूप से गाय, ब्राह्मण और स्त्री की रक्षा करना, दुष्ट को दण्ड देना, युद्ध में पराक्रम करना, शासन करना, देश की रक्षा हेतु युद्ध करना क्षत्रिय के काम हैं । आज शासन क्षत्रिय के हाथ से चला गया। लोकतान्त्रिक शासन पद्धति में अब कोई परम्परागत राजा नहीं रहा है । चुनाव के माध्यम से अब सरकार बनती है। इसलिये क्षत्रिय के एक काम का तो अन्त हो गया।

अब सभी वर्णों की नई खासियत को लेकर वे नौकरी करने लगे हैं। इसका अर्थ है वे भी शूद्र में परिवर्तित हो रहे हैं। सेना में भर्ती होने वालों में भी क्षत्रियों का ही बहुमत है, ऐसा कह नहीं सकते। बड़े बड़े राजमहल अब होटलों में परिवर्तित हो गये हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि वे अब व्यापार करने लगे हैं । अर्थात्‌ वे वैश्य वर्ण में परिवर्तित हो रहे हैं। गोब्राह्मण प्रतिपालक का दायित्व तो वे कब के छोड़ चुके हैं। शस्त्र धारण करना भी छूट गया है।

क्षत्रिय वर्ण के पतन और विघटन के कारण अब समाज का पराक्रम नष्ट हो गया है । कानून भी सर्वसामान्य प्रजा को शस्त्र रखने की और चलाने की अनुमति नहीं देता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में शस्त्रविद्या सिखाई नहीं जाती है। ऐसी अवस्था में शासन करने की वृत्ति दादागिरी करने में भी बदल जाती है । विजयी होने का दृढ़ निर्धार, वचनपालन, स्त्री दाक्षिण्य आदि क्षत्रिय के दुर्लभ गुण होते हैं । आज वे वास्तव में दुर्लभ बन गये हैं ।

समाजव्यवस्था में क्षत्रिय की भूमिका अब सरकार ने ले ली है । सरकार वर्ण के अनुसार बनती नहीं है । इसके परिणामस्वरूप क्षत्रिय वर्ण ही आज आप्रासंगिक हो गया है।

वैश्य वर्ण

आज यदि किसी वर्ण का बोलबाला है तो वह है वैश्य वर्ण । पूरा समाज अर्थाधिष्टित हो गया है । सभी वर्णों के लोग अपने अपने वर्णधर्म को छोड़कर वैश्यवृत्ति ही अपनाने लगे हैं। शिक्षक का ज्ञान, चिकित्सक की चिकित्सा, पुरोहित का पौरोहित्य सब वैश्यवृत्ति के अधीन हो गया है ।

वैश्य वास्तव में समाज का पोषण करने वाला होता है। परन्तु उसने यह दायित्व छोड़ दिया है । वह अपनी कमाई की सोचता है, समाज की आवश्यकताओं का विचार नहीं करता है । अर्थार्जन के क्षेत्र में, उत्पादन के क्षेत्र में और वितरण के क्षेत्र में आज अनेक प्रकार से विपरीत परिस्थिति पैदा हो गई है । वास्तव में वैश्य वर्ण को इस बात की चिन्ता करनी चाहिये पर वह नहीं करता है।

समाज के पोषण के लिये अन्न को सबसे अधिक महत्त्व देना चाहिये । इसलिये कृषि सबसे प्रमुख उद्योग बनना चाहिये । परन्तु आज सब कृषि से कतराते हैं । कृषकों की संख्या धीरे धीरे कम हो रही है । यान्त्रिकीकरण के चलते कृषि अब कृषकों के लिये कठिन भी हो गई है । रासायनिक खाद, कीटनाशक और यन्त्र तीनों ने मिलकर कृषि को, कृषि के साथ कृषक को और अन्न की आवश्यकता है ऐसे समाज को गहरे संकट में डाल दिया है। रासायनिक खाद से भूमि रसहीन बन रही है, महँगे खाद और यन्त्रों के कारण कृषक बरबाद हो रहा है और प्रजा को दूषित अन्न, सागसब्जी और फल खाने पड रहे हैं, इसलिये उसके स्वास्थ्य का संकट पैदा हो गया है । कृषि ट्रेक्टर जैसे यन्त्रों से होने के कारण गोवंश की हत्या हो रही है । सांस्कृतिक संकट इससे बढ़ता है, प्रजा पाप की भागी बनती है । आहार से शरीर, मन, बुद्धि, चित्त सभी प्रभावित होते हैं।

इनके ऊपर जो संकट आ पड़ा है इसका अन्तिम दायित्व वैश्य वर्ण का ही माना जाना चाहिये। समाज की समृद्धि का आधार वैश्य वर्ण पर है । जब अर्थतन्त्र उत्पादक उद्योगों पर आधारित होता है तब समाज समृद्ध होता है । आज हमारा अर्थतन्त्र अनुत्यादक बन गया है। यातायात, विज्ञापन, निवेश और बिचौलियों के कारण वस्तुओं की कीमतें और लोगोंं की व्यस्तता बढ़ती है और पैसे की अनुत्पादक हेराफेरी होती है। कहा यह जाता है कि इससे रोजगार निर्माण होते हैं परन्तु यह आभासी रोजगार है, ठोस नहीं।

यंत्रों से उत्पादन, आर्थिक क्षेत्र का अनिष्ट है। इससे उद्योगों का केन्ट्रीकरण होता है। बड़े कारखानों के कारण उत्पादन की प्रभूतता होती है परन्तु केन्द्रीकरण होने के कारण से लोगोंं के स्वतन्त्र रोजगार छिन जाते हैं। कारीगर मालिक न रहकर नौकर बन जाते हैं। आर्थिक स्वतन्त्रता नष्ट होने के कारण से प्रजामानस भी स्वतन्त्र नहीं रहता। कारीगरों के साथ साथ कारीगरी भी नष्ट होती है । जब हाथ से वस्तु का उत्पादन होता है तब वस्तु में वैविध्य और सौन्दर्य, कारीगर में सृूजनशीलता और कल्पनाशीलता और कुल मिलाकर उत्पादन में उत्कृष्टता और प्रभूतता बढ़ती है। काम में जीवन्तता और आनन्द होते हैं। इससे मानसिक सुख मिलता है। मानसिक सुख से संतोष बढ़ता है। उत्पादन का यह सांस्कृतिक पक्ष है।

अर्थतन्त्र का एक भीषण अनिष्ट है विज्ञापन। यह आसुरी स्वभाव वाला है। यह मनुष्य को झूठ बोलने वाला बनाता है। सबसे पहला दूषण है अपनी ही वस्तु की आप ही प्रशंसा करना। यह तत्त्व स्वयं संस्कार के विस्द्ध है। अपनी वस्तु की और लोग सराहना करें यह स्वाभाविक लगता है, खुद बढ़ाचढ़ा कर कहें यह अशिष्ट और अनृत है। अतः पूरा विज्ञापन उद्योग झूठ और असंस्कार के आधार पर खड़ा हुआ है । विज्ञापन झूठ है इसका पता होने पर भी ग्राहक फँसते हैं । छोटे बच्चे और भोले वयस्क भी इसकी माया के शिकार होते हैं । इसका पाप भी वैश्य वर्ण का ही है । विज्ञापन से वस्तु महँगी होती है यह तो अलग ही विषय है । व्यापारी की कमाई के लिये विज्ञापन होते हैं और उसकी कीमत चुकानी पड़ती है ग्राहकों को ऐसा उलटा तरीका भी आज सर्वमान्य हो गया है । तीसरा है लोगोंं की सौन्दर्यदृष्टि की हानि । दूरदर्शन के पर्दे पर, रास्तों के किनारे, दीवारों पर, पत्रपत्रिकाओं में जहाँ देखो वहाँ भाँति भाँति के विज्ञापन दिखाई देते हैं । इससे सुरुचिभंग होता है । जहाँ देखो वहाँ जिस किसी बिक्री योग्य वस्तु के साथ स्त्रियों के चित्रविचित्र भंगिमाओं में चित्र दिखाई देते हैं ।

मनोरंजन उद्योग ने भी कहर मचा रखा है । संगीत, नृत्य, नाटक, फिल्में, धारावाहिक, अन्य रियालिटि शो आदि सब मनुष्य को बहकाने की स्पर्धा में उतरे हैं । मनुष्य शरीर की गरिमा, कला की पवित्रता, मन की स्वस्थता आदि सब दाँव पर लग गया है । दिन ब दिन कला का क्षेत्र घटिया से और घटिया हो रहा है । इसमें संस्कारों का क्षरण तेजी से होता है ।

आनन्द, प्रेम, सद्धाव, संस्कार, सेवा, परिचर्या, मार्गदर्शन, सहायता, शिक्षा, चिकित्सा, धर्म सब कुछ बिकाऊ बन गया है, या बिकाऊ बना दिया गया है। कलाकारों , शिक्षकों, धर्मगुरुओं, चिकित्सकों ने इसे बिकाऊ बना दिया है यह एक बात है और वैश्यों ने इसे बिकाऊ बना दिया है यह दूसरी बात है । इससे समाज का अधःपात न हो तो ही आश्चर्य है । मनुष्य स्वयं बिकाऊ बन गया है। अन्न, पानी, औषध, विद्या को बेचा जाना घोर सांस्कृतिक संकट है । दान की प्रवृत्ति लाभ की गिनती कर के होना भी असंस्कारिता ही है । आर्थिक व्यवहार में अनीति करना कोई पाप नहीं है, किसीकी विवशता का लाभ उठाने में कुछ गलत नहीं है ऐसा कहना और करना भी अन्यायपूर्ण ही है। परन्तु यह सब नि:संकोच होता है।

समाज की उपयोगिता को देखकर उत्पादन होना चाहिये यह रीत है, परन्तु अब केवल कम मेहनत से, कम लागत से, कम समय में अधिक से अधिक अर्थार्जन हो इस प्रकार से उत्पादन किया जाता है और विज्ञापन के माध्यम से कृत्रिम रूप से माँग बढाई जाती है । यह समाज के साथ किया हुआ अन्याय है।

सारी पृथ्वी को और जीवन की सारी गतिविधियों को बाजार के रूप में देखो यह आज के वैश्यों का एकमेव सूत्र बन गया है। सभी बातों का बाजारीकरण कर दिया जाता है। भारत में सभी बातों का आधार परिवारभावना है, परन्तु अब परिवार भी बाजार की तरह चलते हैं । उधार लेना, कमाई से अधिक खर्चा करने के लिये प्रेरित करना, अनावश्यक वस्तुओं से भरे हुए घर को प्रतिष्ठा का विषय बनाना आदि सब आर्थिक क्षेत्र के अनिष्ट ही हैं।

व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को परवाने, विदेशी कर्जा, विदेश व्यापार ये सब देश की समृद्धि का विचार करने पर बहुत भीषण संकट के रूप में ही दिखाई पड़ते हैं । फिर इसमें भी अनेक प्रकार की रिश्वतों का दौर चलता है। आर्थिक क्षेत्र के भ्रष्टाचारों से दुनिया बुरी तरह से त्रस्त हो गई है। परन्तु लोग उसे स्वीकार करके चलते हैं और भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार कहते हैं । समाज में अब ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं है, वैश्य श्रेष्ठ है यह प्रस्थापित हो गया है और वैश्यों ने इसे स्वीकार कर लिया है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो समाज अब धर्माधिष्ठित नहीं है परन्तु अर्थाधिष्ठित बन गया है।

आज वैश्य वर्ण की यह स्थिति है।

शूद्रवर्ण

आज जिस प्रकार वैश्य वर्ण का बोलबाला है उसी प्रकार शूद्र वर्ण का अलग प्रकार से बोलबाला है । शूद्र का काम है परिचर्या करना । परिचर्या का अर्थ है किसीकी अंगसेवा करना । किसी का सिर दबाना, पैर दबाना, मालिश करना, नहलाना आदि कार्य परिचर्या कहे जाते हैं। उसी के आधार पर कपड़े धोना, बाल काटना आदि भी परिचर्या के काम हैं। आगे चलकर सारा कारीगर वर्ग शूद्र वर्ण में समाविष्ट है। एक परिभाषा ऐसी भी दी जाती है कि जो सजीव से दूसरा सजीव निर्माण करता है वह तो वैश्य है परन्तु निर्जीव से निर्जीव वस्तु का उत्पादन करता है वह शूद्र है। इस अर्थ में कृषक वैश्य है परन्तु बढ़ई या लोहार शूद्र है। इस प्रकार बहुत बड़ा समाज आज शूद्र वर्ण का ही है ।

शूद्र वस्तुओं का सृजन करता है। वैश्य उसकी व्यवस्था करता है। दोनों मिलकर समाज को समृद्ध बनाते हैं । इस दृष्टि से शूद्र वर्ण का महत्त्व अत्यधिक है । कोई भी समाज शूद्र वर्ण के बिना जी ही नहीं सकता । तथापि शूद्र वर्ण को नीचा मानना यह अत्यन्त बेतुकी बात है । पर हमारे समाज ने ऐसा किया और शूद्र वर्ण को बहुत अपमानित किया। इसके परिणाम बहुत घातक हुए हैं। हमने फिर उसमें अस्पृश्यता का प्रश्न जोड़ दिया। इससे तो मामला बहुत उलझ गया । इसकी चर्चा पूर्व में हुई है इसलिये अभी पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है।

भले ही अपने आपको ब्राह्मण कहें और शूद्र न कहें तो भी ब्राह्मणों ने अपने आपको शुद्र ही बना दिया है। आर्थिक सुरक्षा यह शूद्रों का अधिकार है। आज ब्राह्मण भी आर्थिक सुरक्षा ही खोजते हैं । इसलिये भी उनका व्यवहार शूद्र जैसा है। _आरक्षण के मामले ने भी समाज का सन्तुलन बिगाड़ दिया है। मान्यता ऐसी है कि शूद्र गरीब, दलित और शोषित ही होते हैं । वास्तविकता इससे भिन्न है । शूद्र कारीगर होते हैं । वे वस्तुओं का सृजन करते हैं। कारीगर सदा समृद्ध ही होता है । कारीगरों से ही समाज समृद्ध बनता है।

इतिहास में प्रमाण मिलते हैं कि भारत कारीगरी के क्षेत्र में विश्व में अनन्य साधारण स्थान रखता था । लोहे का निर्माण हो या सिमेण्ट का, वस्त्र का निर्माण हो या आभूषणों का, वस्तु का निर्माण हो या औजारों का, भारत के कारीगरों ने विश्व में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था। यह प्रतिष्ठा शूद्रों के कारण ही थी। परन्तु अस्पृश्यता के प्रश्न के चलते कारीगरों ने अपने आपको शूद्र कहलाना बन्द कर दिया । आज अब आरक्षण की नीति में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। इन्होंने भी आर्थिक सुरक्षा की लालच में इसको स्वीकार कर लिया है । परन्तु यह शब्दावली ही बड़ी गड़बड़ है। भारत में वर्गों को लेकर कभी अगड़ा या पिछड़ा जैसा वर्गीकरण नहीं हुआ है, न अवर्ण और सवर्ण का । नीतिनिर्धारकों की उलटी समझ ने ये शब्द प्रयुक्त किये और निरर्थक और अनर्थक विखवाद और विवाद खड़े कर दिये । सभी वर्गों का अपना अपना दायित्व होता है और उसके अनुसार इसका महत्त्व भी होता है । जिस प्रकार ब्राह्मण वर्ण ज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत है उसी प्रकार शूद्र वर्ण भौतिक उत्पादन के क्षेत्र में कार्यरत है। जिस प्रकार ज्ञान के बिना नहीं चलता उसी प्रकार भौतिक वस्तुओं के बिना भी नहीं चलता है। दोनों अनिवार्य हैं। दोनों का समान महत्त्व है। एक समृद्धि का क्षेत्र है, दूसरा संस्कृति का । समृद्धि और संस्कृति साथ ही साथ रहने चाहिये। तभी अच्छा समाजजीवन सम्भव है । इस तथ्य को भूलने और भुलाने के कारण बहुत अनर्थ हुआ है । हमें अब इस अनर्थ को समाप्त कर पुन: सुस्थिति लाने का प्रयास करना चाहिये ।

वर्णानुसारी शिक्षा व्यवस्था

ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा

ब्राह्मण की शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं:

  1. ब्राह्मण को सर्वप्रथम निश्चित कर लेना चाहिए कि उसे ब्राह्मण रहना है कि नहीं क्योंकि ब्राह्मण के आचारों का पालन सरल नहीं है। इस बात का उल्लेख अतः करना उचित है क्योंकि आज ब्राह्मण बिना आचार का पालन किए ही अपने आपको श्रेष्ठ बताने की चेष्टा करता है । इस अनुचित व्यवहार को ठीक करने के लिए ब्राह्मण की शिक्षा का प्रथम आयाम आचार का होना चाहिए । आचार की शुद्धता और पवित्रता पहली बात है। आहार विहार की शुद्धता और पवित्रता अपेक्षित है। शुद्धता और पवित्रता की व्याख्या करने की बहुत आवश्यकता नहीं है क्योंकि साधारण रूप से वह सबकी जानकारी में होती है।
  2. आहार विहार की शुद्धता और पवित्रता हेतु संयम और तपश्चर्या की आवश्यकता होती है । वह ब्राह्मण ही नहीं जो इन दोनों को नहीं अपनाता है । अत: ये दोनों उसकी शिक्षा के प्रमुख अंग हैं।
  3. शास्त्रों का अध्ययन करना ब्राह्मण का सामाजिक दायित्व है । शास्त्रों की रक्षा करना उसका ज्ञानात्मक दायित्व है । अध्ययन का शास्त्र कहता है कि बुद्धि कि शुद्धता, पवित्रता, तेजस्विता के लिए आहारविहार की शुद्धता आवश्यक होती है। शास्त्रों का अध्ययन करने हेतु शिशु अवस्था, बाल अवस्था और किशोर अवस्था की जो अध्ययन पद्धति है उसे अपनाते हुए शास्त्रग्रंथों का अध्ययन करना है। तात्पर्य यह है कि व्यवहार की शिक्षा तो उसे प्राप्त करनी ही है।
  4. शास्त्रीय अध्ययन हेतु आवश्यक आचारों की शिक्षा उसे घर में ही प्राप्त होनी चाहिए क्योंकि वह घर में ही प्राप्त हो सकती है । शास्त्रों की शिक्षा उसे गुरुकुल में प्राप्त हो सकती है । गुरुकुल यदि आवासीय है तो वह गुरुगृहवास है अतः आचार की शिक्षा उसे वहाँ भी प्राप्त हो सकती है।
  5. ब्राह्मण को पौरोहित्य करना होता है । अतः मंत्रों का उच्चारण और गान, यज्ञ की विधि, संस्कारों की विधि, विभिन्न पूजाओं की विधि उसे सीखनी है। संस्कारों के सारे कर्मकांड आज की तरह समाज में बिना समझे किए जाते हैं ऐसी स्थिति न रहे इस दृष्टि से उसे अध्ययन करना है और पौरोहित्य करना है।
  6. शास्त्रों के अध्ययन के साथ साथ उसे अध्यापन भी करना है अतः अध्यापन शास्त्र की शिक्षा भी उसे प्राप्त करनी चाहिए । पारम्परिक रूप में उसे अध्यापन या पौरोहित्य को अर्थार्जन का विषय नहीं बनाना है । यह केवल प्राचीन काल में ही सम्भव था ऐसा नहीं है । आज के समय में भी उसे सम्भव बनाना है । सादगी, संयम और तपश्चर्या विवशता नहीं है, चरित्र का उन्नयन है, यह विश्वास समाज में जागृत करना और प्रतिष्ठित करना उसका काम है । इसके लिए समाज पर भरोसा रखने की आवश्यकता होती है।
  7. शास्त्रों को युगानुकूल बनाने हेतु व्यावहारिक अनुसन्धान करना उसका काम है । यह भी उसकी शिक्षा का प्रमुख हिस्सा है।
  8. वर्तमान सन्दर्भ में इसे उच्च शिक्षा कहते हैं । उच्च शिक्षा के दो प्रमुख आयाम तत्त्वचिन्तन और अनुसन्धान हैं । आज ये दोनों बातें कोई भी करता है। केवल ब्राह्मण ही करे इस बात का सार्वत्रिक विरोध होगा । हम कह सकते हैं कि जो भी आचार विचार में, आहार विहार में शुद्धता और पवित्रता रख सकता है, संयम और सादगी अपना सकता है, तपश्चर्या कर सकता है, विद्याप्रीति, ज्ञाननिष्ठा और ज्ञान कि श्रेष्ठता और पवित्रता हेतु कष्ट सह सकता है और अपने निर्वाह के लिए समाज पर भरोसा कर सकता है वही उच्च शिक्षा का अधिकारी है । वह किसी भी वर्ण में जन्मा हो तो भी ब्राह्मण ही है। आज शिक्षाक्षेत्र में ऐसे लोग ही नहीं हैं यही समाज कि दुर्गति का कारण है । स्वाभाविक है कि ऐसे लोग संख्या में कम ही होंगे परन्तु कम संख्या में भी उनका होना अनिवार्य है । अपने आपको ब्राह्मण कहलाने वाले लोगोंं को सही अर्थ में ब्राह्मण बनना चाहिए |
  9. ब्राह्मण को युद्ध नहीं करना है, युद्ध का शास्त्र जानना है, व्यापार नहीं करना है, व्यापार का शास्त्र जानना है, राज्य नहीं करना है, राज्य का शास्त्र जानना है और योद्धा, व्यापारी तथा राजा का मार्गदर्शन करना है। इसी प्रकार आवश्यकता के अनुसार नए व्यवहारशास्त्रों की रचना भी करना है। युग के अनुसार शास्त्रों का नया नया अर्थघटन भी करना है । ऐसा करने हेतु जो निःस्वार्थ बुद्धि चाहिए उसकी शिक्षा ब्राह्मण के लिए आवश्यक है ।

क्षत्रिय वर्ण की शिक्षा

क्षत्रिय वर्ण की शिक्षा के प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं:

  1. क्षत्रिय को समाज की रक्षा करनी है यह बात अपने आपको क्षत्रिय कहलाने वाले के हृदय में बैठनी चाहिए। इसकी शिक्षा सर्व प्रथम देने की आवश्यकता है । क्षत्रियों को गोब्राह्मण प्रतिपाल का बिरुद्‌ दिया जाता है । ब्राह्मण से तात्पर्य है ज्ञान और संस्कृति की उपासना करने वाला वर्ग । गाय से तात्पर्य है सर्व प्रकार की भौतिक समृद्धि का स्रोत । इन दोनों की रक्षा करना क्षत्रिय का परम कर्तव्य है ।
  2. मानसिकता निर्माण करने के साथ साथ युद्धकला की शिक्षा भी अत्यन्त आवश्यक है । वैसे सारी प्रजा को युद्धकला, पराक्रम, विजिगिषु मनोवृत्ति, सज्जनों की रक्षा, देशभक्ति आदि की शिक्षा मिलनी ही चाहिए परन्तु क्षत्रियों को युद्धकला की विशेष रूप से शिक्षा देनी चाहिए ।
  3. धर्म, संस्कृति, इतिहास, सामान्य व्यवहार आदि अनेक विषयों की शिक्षा तो उन्हें मिलनी ही चाहिए ।
  4. राज्य कैसे किया जाता है इसका शास्त्र भी क्षत्रियों को सिखाया जाना चाहिए ।
  5. क्षत्रिय वर्ण की शिक्षा प्राप्त करने हेतु व्यक्ति में क्षत्रिय वर्ण से अपेक्षित बल, बुद्धि,दुर्जनों को दण्ड देने की वृत्ति आदि के आधार पर परीक्षा देनी चाहिए । भीरु, कायर, दुर्बल, स्वार्थी, अपने आपको बचाने की वृत्ति वाला व्यक्ति क्षत्रिय नहीं हो सकता और उसे क्षत्रियोचित शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती | वचन का पालन करना, रणक्षेत्र से मुँह नहीं मोड़ना, किसीका रक्षण करते समय अपनी कठिनाइयों या घावों की चिन्ता नहीं करना, भिक्षा के लिए कभी भी हाथ नहीं पसारना, किसीके द्वारा भिक्षा माँगी जाने पर कभी नकार नहीं देना क्षत्रियोचित स्वभाव है । इस स्वभाव का जागरण और जतन हो ऐसी शिक्षाव्यवस्था होनी चाहिए ।
  6. समाज में ऐसे लोगोंं की अतीव आवश्यकता है, इस बात से सब सहमत होंगे । इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए केवल सैन्य में भर्ती होना ही पर्याप्त नहीं है । सार्वजनिक जीवन में ये गुण दिखाई देने चाहिए । सैनिक हो या न हो दुर्बलों का रक्षण करने की, न्याय का पक्ष लेने की और अन्याय का विरोध करने की प्रवृत्ति समाज में दिखाई देनी चाहिए ।

वैश्य वर्ण की शिक्षा

वैश्य वर्ण की शिक्षा के आयाम इस प्रकार हैं:

  1. वैश्य समाज का भरण पोषण करने वाला है। भगवान विष्णु जो जगत के पालक हैं उनके आदर्श हैं। अतः समाज को किसी भी प्रकार के अभावों में जीना न पड़े यह देखने की ज़िम्मेदारी वैश्य वर्ण की है। वैश्य वर्ण के कामों का कौशल सिखाने से पूर्व यह मानसिकता निर्माण करना शिक्षा का प्रमुख अंग होना चाहिए ।
  2. कृषि और गोपालन वैश्य का प्रमुख व्यवसाय है। अतः भूमि और गाय के साथ नाता बहुत छोटी आयु से ही जोड़ना चाहिए । ये दोनों परिश्रमपूर्वक करने के काम हैं अतः छोटी आयु से ही मिट्टी और गाय के साथ जुड़कर परिश्रम करने में आनन्द आए ऐसी व्यवस्था शिक्षा में करनी चाहिए।
  3. कृषि के साथ साथ वाणिज्य भी वैश्य वर्ण का ही काम है। अतः वाणिज्य के साथ संबन्धित शिक्षा की व्यवस्था भी छोटी आयु से होनी चाहिए।
  4. दान देना, सम्पत्ति का स्वामी होना, वैभव में रहना वैश्य वर्ण का स्वभाव है।
  5. वैश्य का हाथ लेने के लिए आगे नहीं बढ़ता है और देने की बात आती है तो कभी पीछे नहीं हटता है। देश की आर्थिक समस्या क्या है, प्राकृतिक संसाधनों का जतन किस प्रकार किया जाना चाहिए, यंत्रों का उपयोग करने में किस प्रकार विवेक बरतना चाहिए, लोग बेरोजगार न हों, काम करने के लायक बनें इस दृष्टि से क्या व्यवस्था करनी चाहिए, इसका विचार और योजना करना भी वैश्यों का ही काम है।
  6. व्यापार के लिए देश विदेश में जाना, विदेश व्यापार इस प्रकार करना कि हमें विश्वभर से श्रेष्ठ और मूल्यवान वस्तुयें तो प्राप्त हों परंतु हमारा धन विदेश में चला जाय और हम गरीब बन जाय ऐसी स्थिति न बने।
  7. समृद्धि और अर्थव्यवस्था का क्षेत्र धर्मविहीन न बने और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण तथा मनुष्यों के स्वास्थ्य और संस्कारों की हानि न हो । इस प्रकार से वाणिज्य का क्षेत्र नियोजित करना भी वैश्यों को सिखाना चाहिए।

शूद्र वर्ण की शिक्षा

शूद्र वर्ण की शिक्षा के प्रमुख अंग इस प्रकार हैं:

  1. शूद्र वर्ण के साथ निर्माण और स्वच्छता के सारे कार्य जुड़े हुए हैं । प्रजा का आरोग्य और असंख्य वस्तुओं की सुविधा का आधार शूद्रों पर है । उदाहरण के लिए विभिन्न प्रकार के पात्र बनाना, कृषि के लिए आवश्यक यंत्र निर्माण करना, वस्त्रों, भवनों, वाहनों आदि का निर्माण करना शूद्रों का काम है। स्वाभाविक ही है कि समाज की समृद्धि का मूल आधार प्रथम शूद्रों पर है और दूसरा वैश्यों पर है। शूद्रों द्वारा निर्माण की हुई वस्तुओं के बाजार की व्यवस्था वैश्य करता है ।
  2. सम्पूर्ण समाज को सर्व प्रकार की सुविधा प्राप्त हो, कष्ट दूर हों यह देखने का दायित्व शूद्रों का है। इस दायित्व का बोध कराने वाली शिक्षा शूद्रों के लिए होनी चाहिए।
  3. आज की भाषा में कहें तो सर्व प्रकार का इंजीनियरिंग, सर्व प्रकार के कारखाने, सड़क, पुल, बांध आदि निर्माण करने के प्रकल्प शूद्रों के खाते में ही जाएँगे। इन कामों के साथ जुड़ी हुई शिक्षा संस्थायें भी शूद्रों के ही अधिकार में रहेंगी।
  4. शूद्रों के साथ विगत दो सौ वर्षों से बहुत अन्याय और अत्याचार हुए हैं। समाज के ब्राह्मण आदि तीनों वर्गों का यह अपराध है। परिणामस्वरूप शूद्रों में एक ओर हीनताबोध और उसके ही एक स्वरूप में विद्रोह तथा अन्य वर्गों के प्रति द्वेष और तिरस्कार की भावना पनप उठी है । इसमें उनका दोष नहीं है । विद्रोह की भावना जागना स्वाभाविक ही है। परन्तु इससे समाज का स्वास्थ्य खराब होता ही है । समाज का स्वास्थ्य ठीक हो इस दृष्टि से सभी वर्गों के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था होना आवश्यक है।
  5. निर्माण का क्षेत्र कारीगरी का क्षेत्र है। कारीगरी की हर वस्तु में उत्कृष्टता शूद्रों के काम का लक्ष्य है। अतीत में अनेक वस्तुओं में उत्कृष्टता के श्रेष्ठतम नमूने हमने विश्व को दिये हैं इस बात का स्मरण हमने शूद्रों को कराना चाहिए। ऐसी कारीगरी की प्रेरणा भी देनी चाहिए।

कुछ सामान्य बातें

  1. अब तक हमने चारों वर्गों की विशिष्ट शिक्षा की चर्चा की। तथापि कुछ बातें ऐसी हैं जो चारों वर्णों के लिए समान हैं। उदाहरण के लिए वाचन और लेखन, सामान्य हिसाब, सामान्य शिष्टाचार, देश दुनिया की जानकारी सभी वर्गों की शिक्षा का अंग होना चाहिए।
  2. सद्गुण और सदाचार की शिक्षा सभी वर्गों के लिए आवश्यक है। व्यक्तिगत जीवन की शुद्धता और पवित्रता, सार्वजनिक जीवन की नीतिमतता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, धर्मनिष्ठा, धर्म और संस्कृति का ज्ञान आदि बातें सभी वर्गों के लिए आवश्यक हैं।
  3. ऐसा लग सकता है कि आज माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा सबके लिए समान ही है । वह इस स्वरूप की हो सकती है। परन्तु हितकारी यह होगा कि चारों वर्गों की स्वतंत्र शिक्षा कि व्यवस्था हो और ये सारी बातें उसके साथ समरस बनाकर सिखाई जाएँ । ऐसा होने से अपने वर्ण की शिक्षा छोटी आयु से ही प्राप्त हो सकेगी । व्यक्ति के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है।
  4. वर्ण के साथ आचार और व्यवसाय जुड़े हुए हैं। किसी भी व्यवसाय के साथ उस व्यवसाय की शिक्षा भी जुड़ी हुई होनी चाहिए। उस शिक्षा का शिशु अवस्था से लेकर उच्च शिक्षा तक की व्यवस्था उस व्यवसाय का ही अंग बननी चाहिए । अनुसन्धान भी उसका अंग होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि हर व्यवसाय के गुरुकुल, या प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के केंद्र एक स्थान पर ही होंगे । इस अर्थ में चारों वर्गों के लोग समान रूप से उच्च शिक्षित हो सकते हैं, अपने विषय का अध्यापन कर सकते हैं और अपने विषय में अनुसन्धान भी कर सकते हैं ।
  5. यदि हम जन्म से वर्ण चाहते हैं तो बहुत समस्या नहीं है । परन्तु यदि हम जन्म से वर्ण नहीं चाहते हैं और अपना वर्ण स्वयं निश्चित करना चाहते हैं तो यह कार्य औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व करना चाहिए ताकि प्रारम्भ से ही अपने वर्ण के अनुरूप शिक्षा मिले । ध्यान यह रखना चाहिए कि हम दो वर्गों में एक साथ न रहें। जन्म से हम ब्राह्मण हैं और व्यवसाय हम वैश्य या शूद्र का कर रहे हैं तो दोनों वर्गों के लाभ लेना चाहेंगे और दोनों के बंधनों से मुक्त रहेंगे ऐसा नहीं हो सकता । आज ऐसा ही हो रहा है अतः इस बात का विशेष उल्लेख करने की आवश्यकता लगती है।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १)- अध्याय ‌‍९, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे