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इसका अर्थ यह हुआ कि हर मनुष्य का अपना अपना वर्ण होता है। जितने मनुष्य उतने ही वर्ण होंगे । परन्तु हमारी पारम्परिक व्यवस्था में वर्ण कदाचित पहली बार गुणकर्म के आधार पर निश्चित हुए होंगे, बाद में कुल के आधार पर ही निश्चित होते रहे हैं। जिस वर्ण के मातापिता के घर जन्म हुआ है उन्हीं का वर्ण संतानों को भी प्राप्त होता है। अर्थात् स्वभाव के लिए वर्ण गुण और कर्म के आधार पर तय होते हैं, व्यवस्था के लिए वर्ण जन्म के आधार पर निश्चित होते रहे हैं।
 
इसका अर्थ यह हुआ कि हर मनुष्य का अपना अपना वर्ण होता है। जितने मनुष्य उतने ही वर्ण होंगे । परन्तु हमारी पारम्परिक व्यवस्था में वर्ण कदाचित पहली बार गुणकर्म के आधार पर निश्चित हुए होंगे, बाद में कुल के आधार पर ही निश्चित होते रहे हैं। जिस वर्ण के मातापिता के घर जन्म हुआ है उन्हीं का वर्ण संतानों को भी प्राप्त होता है। अर्थात् स्वभाव के लिए वर्ण गुण और कर्म के आधार पर तय होते हैं, व्यवस्था के लिए वर्ण जन्म के आधार पर निश्चित होते रहे हैं।
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पारम्परिक रूप में देखा जाय तो वर्णव्यवस्था विवाह, आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में स्थापित हुई है। वर्ण के अनुसार ही व्यवसाय करना है। वर्ण के अनुसार ही विवाह भी करना है और वर्ण के अनुसार ही आचार का पालन करना है। समाज को समृद्ध और सुरक्षित रखने के लिए इन तीन संदर्भो में वर्णव्यवस्था का पालन कड़ाई से करने का आग्रह किया जाता रहा है। फिर भी यह व्यवस्था विवाह के सम्बन्ध में कुछ लचीली भी दिखाई देती है परन्तु आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में जरा भी शिथिलता सहन नहीं करती है । उदाहरण के लिए अनुलोम विवाह के रूप में वर्णान्तर विवाह प्रचलित रहे हैं।  
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पारम्परिक रूप में देखा जाय तो वर्णव्यवस्था विवाह, आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में स्थापित हुई है। वर्ण के अनुसार ही व्यवसाय करना है। वर्ण के अनुसार ही विवाह भी करना है और वर्ण के अनुसार ही आचार का पालन करना है। समाज को समृद्ध और सुरक्षित रखने के लिए इन तीन संदर्भो में वर्णव्यवस्था का पालन कड़ाई से करने का आग्रह किया जाता रहा है। तथापि यह व्यवस्था विवाह के सम्बन्ध में कुछ लचीली भी दिखाई देती है परन्तु आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में जरा भी शिथिलता सहन नहीं करती है । उदाहरण के लिए अनुलोम विवाह के रूप में वर्णान्तर विवाह प्रचलित रहे हैं।  
    
अनुलोम विवाह का अर्थ है ब्राह्मण वर्ण का पुरुष क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र स्त्री से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय वर्ण का पुरुष वैश्य या शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, वैश्य वर्ण का पुरुष शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। इस सीमित रूप में वर्णव्यवस्था लचीली है। दो भिन्न भिन्न वर्गों के स्त्री और पुरुष की संतानों को वर्णसंकर कहते हैं । महाभारत में ऐसे वर्णसंकरों के अनेक प्रकार बताए गए हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन वर्णसंकरों के भी व्यवसाय आग्रहपूर्वक निश्चित किए गए हैं । यदि मनुष्य व्यवसाय बदल देता है तो उसका वर्ण भी बदल जाता है। आचार छोड़ने की तनिक भी अनुमति नहीं है।
 
अनुलोम विवाह का अर्थ है ब्राह्मण वर्ण का पुरुष क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र स्त्री से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय वर्ण का पुरुष वैश्य या शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, वैश्य वर्ण का पुरुष शुद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। इस सीमित रूप में वर्णव्यवस्था लचीली है। दो भिन्न भिन्न वर्गों के स्त्री और पुरुष की संतानों को वर्णसंकर कहते हैं । महाभारत में ऐसे वर्णसंकरों के अनेक प्रकार बताए गए हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन वर्णसंकरों के भी व्यवसाय आग्रहपूर्वक निश्चित किए गए हैं । यदि मनुष्य व्यवसाय बदल देता है तो उसका वर्ण भी बदल जाता है। आचार छोड़ने की तनिक भी अनुमति नहीं है।
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इसका परिणाम यह हुआ है कि जन्म से ब्राह्मण है परन्तु वृत्ति और व्यवसाय से वह ब्राह्मण नहीं है । जन्म से ब्राह्मण होने में कोई गौरव नहीं है, वृत्ति और व्यवसाय से ब्राह्मण होने में ही गौरव है । अब जन्म अर्थात्‌ कुल और वृत्ति दोनों में विच्छेद हो गया । ब्राह्मण का ऐसा हुआ तो अन्य वर्णों का भी हुआ है । अध्ययन अध्यापन करने वाले दूसरे वर्णों के लोग भी हो गये । परन्तु चूँकि मूल वृत्ति वणिक की है और अब ब्राह्मणों ने अध्यापन को शद्वों का काम बना दिया है तो वैश्य भी ज्ञान का व्यापार करने लगे हैं। अब किस वर्ण का व्यक्ति कौन सा काम करेगा इसकी निश्चिति नहीं रही है ।
 
इसका परिणाम यह हुआ है कि जन्म से ब्राह्मण है परन्तु वृत्ति और व्यवसाय से वह ब्राह्मण नहीं है । जन्म से ब्राह्मण होने में कोई गौरव नहीं है, वृत्ति और व्यवसाय से ब्राह्मण होने में ही गौरव है । अब जन्म अर्थात्‌ कुल और वृत्ति दोनों में विच्छेद हो गया । ब्राह्मण का ऐसा हुआ तो अन्य वर्णों का भी हुआ है । अध्ययन अध्यापन करने वाले दूसरे वर्णों के लोग भी हो गये । परन्तु चूँकि मूल वृत्ति वणिक की है और अब ब्राह्मणों ने अध्यापन को शद्वों का काम बना दिया है तो वैश्य भी ज्ञान का व्यापार करने लगे हैं। अब किस वर्ण का व्यक्ति कौन सा काम करेगा इसकी निश्चिति नहीं रही है ।
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ब्राह्मणों का एक काम यजन और याजन का है । अभी भी वह काम जन्म से ब्राह्मण हैं वे कर रहे हैं । परन्तु स्वयं यजन करना नहीवत्‌ हो गया है । यज्ञ करवाते हैं परन्तु कुल मिलाकर यज्ञ का प्रचलन ही समाज में कम हो गया है । जो भी बचा है वह ब्राह्मणों के जिम्मे है । परन्तु अधिकांश वे अब पौरोहित्य करते हैं। मन्दिरों में पूजारी का काम भी उनका ही है । समारोहों में भोजन बनाने का काम भी ब्राह्मणों का ही होता था । ये दोनों काम अब अन्य वर्णों के लोग करने लगे हैं फिर भी ब्राह्मणों का वर्चस्व अभी समाप्त नहीं हुआ है । परन्तु अब पौरोहित्य हो या पूजारी का काम, वेद्पठन हो या भोजन बनाने का काम, ब्राह्मणों के लिये यह अथार्जिन हेतु व्यवसाय बन गया है ।
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ब्राह्मणों का एक काम यजन और याजन का है । अभी भी वह काम जन्म से ब्राह्मण हैं वे कर रहे हैं । परन्तु स्वयं यजन करना नहीवत्‌ हो गया है । यज्ञ करवाते हैं परन्तु कुल मिलाकर यज्ञ का प्रचलन ही समाज में कम हो गया है । जो भी बचा है वह ब्राह्मणों के जिम्मे है । परन्तु अधिकांश वे अब पौरोहित्य करते हैं। मन्दिरों में पूजारी का काम भी उनका ही है । समारोहों में भोजन बनाने का काम भी ब्राह्मणों का ही होता था । ये दोनों काम अब अन्य वर्णों के लोग करने लगे हैं तथापि ब्राह्मणों का वर्चस्व अभी समाप्त नहीं हुआ है । परन्तु अब पौरोहित्य हो या पूजारी का काम, वेद्पठन हो या भोजन बनाने का काम, ब्राह्मणों के लिये यह अथार्जिन हेतु व्यवसाय बन गया है ।
    
भारत को सनातन राष्ट्र कहा गया है और भारत के हिन्दू धर्म को सनातन धर्म । सनातन का अर्थ है जो स्थान और काल में निरन्तर बना रहता है । इस सनातनता का ही प्रताप है कि अभी भी ऐसे ब्राह्मण बचे हैं जो शुद्धि और पवित्रता की रक्षा करते हैं, बिना शुल्क लिये अध्यापन करते हैं, वेदाध्ययन का दायित्व सम्हालते हैं । अभी भी वे ज्ञान की गरिमा को कम नहीं होने देते हैं । धार्मिक समाज की आशा अभी उनके कारण ही समाप्त नहीं हुई है।
 
भारत को सनातन राष्ट्र कहा गया है और भारत के हिन्दू धर्म को सनातन धर्म । सनातन का अर्थ है जो स्थान और काल में निरन्तर बना रहता है । इस सनातनता का ही प्रताप है कि अभी भी ऐसे ब्राह्मण बचे हैं जो शुद्धि और पवित्रता की रक्षा करते हैं, बिना शुल्क लिये अध्यापन करते हैं, वेदाध्ययन का दायित्व सम्हालते हैं । अभी भी वे ज्ञान की गरिमा को कम नहीं होने देते हैं । धार्मिक समाज की आशा अभी उनके कारण ही समाप्त नहीं हुई है।
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आज जिस प्रकार वैश्य वर्ण का बोलबाला है उसी प्रकार शूद्र वर्ण का अलग प्रकार से बोलबाला है । शूद्र का काम है परिचर्या करना । परिचर्या का अर्थ है किसीकी अंगसेवा करना । किसी का सिर दबाना, पैर दबाना, मालिश करना, नहलाना आदि कार्य परिचर्या कहे जाते हैं। उसी के आधार पर कपड़े धोना, बाल काटना आदि भी परिचर्या के काम हैं। आगे चलकर सारा कारीगर वर्ग शूद्र वर्ण में समाविष्ट है। एक परिभाषा ऐसी भी दी जाती है कि जो सजीव से दूसरा सजीव निर्माण करता है वह तो वैश्य है परन्तु निर्जीव से निर्जीव वस्तु का उत्पादन करता है वह शूद्र है। इस अर्थ में कृषक वैश्य है परन्तु बढ़ई या लोहार शूद्र है। इस प्रकार बहुत बड़ा समाज आज शूद्र वर्ण का ही है ।
 
आज जिस प्रकार वैश्य वर्ण का बोलबाला है उसी प्रकार शूद्र वर्ण का अलग प्रकार से बोलबाला है । शूद्र का काम है परिचर्या करना । परिचर्या का अर्थ है किसीकी अंगसेवा करना । किसी का सिर दबाना, पैर दबाना, मालिश करना, नहलाना आदि कार्य परिचर्या कहे जाते हैं। उसी के आधार पर कपड़े धोना, बाल काटना आदि भी परिचर्या के काम हैं। आगे चलकर सारा कारीगर वर्ग शूद्र वर्ण में समाविष्ट है। एक परिभाषा ऐसी भी दी जाती है कि जो सजीव से दूसरा सजीव निर्माण करता है वह तो वैश्य है परन्तु निर्जीव से निर्जीव वस्तु का उत्पादन करता है वह शूद्र है। इस अर्थ में कृषक वैश्य है परन्तु बढ़ई या लोहार शूद्र है। इस प्रकार बहुत बड़ा समाज आज शूद्र वर्ण का ही है ।
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शूद्र वस्तुओं का सृजन करता है। वैश्य उसकी व्यवस्था करता है। दोनों मिलकर समाज को समृद्ध बनाते हैं । इस दृष्टि से शूद्र वर्ण का महत्त्व अत्यधिक है । कोई भी समाज शूद्र वर्ण के बिना जी ही नहीं सकता । फिर भी शूद्र वर्ण को नीचा मानना यह अत्यन्त बेतुकी बात है । पर हमारे समाज ने ऐसा किया और शूद्र वर्ण को बहुत अपमानित किया। इसके परिणाम बहुत घातक हुए हैं। हमने फिर उसमें अस्पृश्यता का प्रश्न जोड़ दिया। इससे तो मामला बहुत उलझ गया । इसकी चर्चा पूर्व में हुई है इसलिये अभी पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है।
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शूद्र वस्तुओं का सृजन करता है। वैश्य उसकी व्यवस्था करता है। दोनों मिलकर समाज को समृद्ध बनाते हैं । इस दृष्टि से शूद्र वर्ण का महत्त्व अत्यधिक है । कोई भी समाज शूद्र वर्ण के बिना जी ही नहीं सकता । तथापि शूद्र वर्ण को नीचा मानना यह अत्यन्त बेतुकी बात है । पर हमारे समाज ने ऐसा किया और शूद्र वर्ण को बहुत अपमानित किया। इसके परिणाम बहुत घातक हुए हैं। हमने फिर उसमें अस्पृश्यता का प्रश्न जोड़ दिया। इससे तो मामला बहुत उलझ गया । इसकी चर्चा पूर्व में हुई है इसलिये अभी पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है।
    
भले ही अपने आपको ब्राह्मण कहें और शूद्र न कहें तो भी ब्राह्मणों ने अपने आपको शुद्र ही बना दिया है। आर्थिक सुरक्षा यह शूद्रों का अधिकार है। आज ब्राह्मण भी आर्थिक सुरक्षा ही खोजते हैं । इसलिये भी उनका व्यवहार शूद्र जैसा है। _आरक्षण के मामले ने भी समाज का सन्तुलन बिगाड़ दिया है। मान्यता ऐसी है कि शूद्र गरीब, दलित और शोषित ही होते हैं । वास्तविकता इससे भिन्न है । शूद्र कारीगर होते हैं । वे वस्तुओं का सृजन करते हैं। कारीगर सदा समृद्ध ही होता है । कारीगरों से ही समाज समृद्ध बनता है।  
 
भले ही अपने आपको ब्राह्मण कहें और शूद्र न कहें तो भी ब्राह्मणों ने अपने आपको शुद्र ही बना दिया है। आर्थिक सुरक्षा यह शूद्रों का अधिकार है। आज ब्राह्मण भी आर्थिक सुरक्षा ही खोजते हैं । इसलिये भी उनका व्यवहार शूद्र जैसा है। _आरक्षण के मामले ने भी समाज का सन्तुलन बिगाड़ दिया है। मान्यता ऐसी है कि शूद्र गरीब, दलित और शोषित ही होते हैं । वास्तविकता इससे भिन्न है । शूद्र कारीगर होते हैं । वे वस्तुओं का सृजन करते हैं। कारीगर सदा समृद्ध ही होता है । कारीगरों से ही समाज समृद्ध बनता है।  
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== कुछ सामान्य बातें ==
 
== कुछ सामान्य बातें ==
# अब तक हमने चारों वर्गों की विशिष्ट शिक्षा की चर्चा की। फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जो चारों वर्णों के लिए समान हैं। उदाहरण के लिए वाचन और लेखन, सामान्य हिसाब, सामान्य शिष्टाचार, देश दुनिया की जानकारी सभी वर्गों की शिक्षा का अंग होना चाहिए।
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# अब तक हमने चारों वर्गों की विशिष्ट शिक्षा की चर्चा की। तथापि कुछ बातें ऐसी हैं जो चारों वर्णों के लिए समान हैं। उदाहरण के लिए वाचन और लेखन, सामान्य हिसाब, सामान्य शिष्टाचार, देश दुनिया की जानकारी सभी वर्गों की शिक्षा का अंग होना चाहिए।
 
# सद्गुण और सदाचार की शिक्षा सभी वर्गों के लिए आवश्यक है। व्यक्तिगत जीवन की शुद्धता और पवित्रता, सार्वजनिक जीवन की नीतिमतता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, धर्मनिष्ठा, धर्म और संस्कृति का ज्ञान आदि बातें सभी वर्गों के लिए आवश्यक हैं।  
 
# सद्गुण और सदाचार की शिक्षा सभी वर्गों के लिए आवश्यक है। व्यक्तिगत जीवन की शुद्धता और पवित्रता, सार्वजनिक जीवन की नीतिमतता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, धर्मनिष्ठा, धर्म और संस्कृति का ज्ञान आदि बातें सभी वर्गों के लिए आवश्यक हैं।  
 
# ऐसा लग सकता है कि आज माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा सबके लिए समान ही है । वह इस स्वरूप की हो सकती है। परन्तु हितकारी यह होगा कि चारों वर्गों की स्वतंत्र शिक्षा कि व्यवस्था हो और ये सारी बातें उसके साथ समरस बनाकर सिखाई जाएँ । ऐसा होने से अपने वर्ण की शिक्षा छोटी आयु से ही प्राप्त हो सकेगी । व्यक्ति के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है।
 
# ऐसा लग सकता है कि आज माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा सबके लिए समान ही है । वह इस स्वरूप की हो सकती है। परन्तु हितकारी यह होगा कि चारों वर्गों की स्वतंत्र शिक्षा कि व्यवस्था हो और ये सारी बातें उसके साथ समरस बनाकर सिखाई जाएँ । ऐसा होने से अपने वर्ण की शिक्षा छोटी आयु से ही प्राप्त हो सकेगी । व्यक्ति के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है।

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