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{{One source|date=August 2019}}भारतीय समाजव्यवस्था के दो मूल आधार हैं। एक है आश्रमव्यवस्था और दूसरा है वर्णव्यवस्था। आश्रमव्यवस्था के विषय में हमने पूर्व में चर्चा की है । इस अध्याय में वर्णव्यवस्था की चर्चा करेंगे।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १)-
 
{{One source|date=August 2019}}भारतीय समाजव्यवस्था के दो मूल आधार हैं। एक है आश्रमव्यवस्था और दूसरा है वर्णव्यवस्था। आश्रमव्यवस्था के विषय में हमने पूर्व में चर्चा की है । इस अध्याय में वर्णव्यवस्था की चर्चा करेंगे।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १)-
   
अध्याय ‌‍९, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>
 
अध्याय ‌‍९, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>
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इतिहास में प्रमाण मिलते हैं कि भारत कारीगरी के क्षेत्र में विश्व में अनन्य साधारण स्थान रखता था । लोहे का निर्माण हो या सिमेण्ट का, वस्त्र का निर्माण हो या आभूषणों का, वस्तु का निर्माण हो या औजारों का, भारत के कारीगरों ने विश्व में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था। यह प्रतिष्ठा शूद्रों के कारण ही थी। परन्तु अस्पृश्यता के प्रश्न के चलते कारीगरों ने अपने आपको शूद्र कहलाना बन्द कर दिया । आज अब आरक्षण की नीति में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। इन्होंने भी आर्थिक सुरक्षा की लालच में इसको स्वीकार कर लिया है । परन्तु यह शब्दावली ही बड़ी गड़बड़ है। भारत में वर्गों को लेकर कभी अगड़ा या पिछड़ा जैसा वर्गीकरण नहीं हुआ है, न अवर्ण और सवर्ण का । नीतिनिर्धारकों की उलटी समझ ने ये शब्द प्रयुक्त किये और निरर्थक और अनर्थक विखवाद और विवाद खड़े कर दिये । सभी वर्गों का अपना अपना दायित्व होता है और उसके अनुसार इसका महत्त्व भी होता है । जिस प्रकार ब्राह्मण वर्ण ज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत है उसी प्रकार शूद्र वर्ण भौतिक उत्पादन के क्षेत्र में कार्यरत है। जिस प्रकार ज्ञान के बिना नहीं चलता उसी प्रकार भौतिक वस्तुओं के बिना भी नहीं चलता है। दोनों अनिवार्य हैं। दोनों का समान महत्त्व है। एक समृद्धि का क्षेत्र है, दूसरा संस्कृति का । समृद्धि और संस्कृति साथ ही साथ रहने चाहिये। तभी अच्छा समाजजीवन सम्भव है । इस तथ्य को भूलने और भुलाने के कारण बहुत अनर्थ हुआ है । हमें अब इस अनर्थ को समाप्त कर पुन: सुस्थिति लाने का प्रयास करना चाहिये ।
 
इतिहास में प्रमाण मिलते हैं कि भारत कारीगरी के क्षेत्र में विश्व में अनन्य साधारण स्थान रखता था । लोहे का निर्माण हो या सिमेण्ट का, वस्त्र का निर्माण हो या आभूषणों का, वस्तु का निर्माण हो या औजारों का, भारत के कारीगरों ने विश्व में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था। यह प्रतिष्ठा शूद्रों के कारण ही थी। परन्तु अस्पृश्यता के प्रश्न के चलते कारीगरों ने अपने आपको शूद्र कहलाना बन्द कर दिया । आज अब आरक्षण की नीति में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। इन्होंने भी आर्थिक सुरक्षा की लालच में इसको स्वीकार कर लिया है । परन्तु यह शब्दावली ही बड़ी गड़बड़ है। भारत में वर्गों को लेकर कभी अगड़ा या पिछड़ा जैसा वर्गीकरण नहीं हुआ है, न अवर्ण और सवर्ण का । नीतिनिर्धारकों की उलटी समझ ने ये शब्द प्रयुक्त किये और निरर्थक और अनर्थक विखवाद और विवाद खड़े कर दिये । सभी वर्गों का अपना अपना दायित्व होता है और उसके अनुसार इसका महत्त्व भी होता है । जिस प्रकार ब्राह्मण वर्ण ज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत है उसी प्रकार शूद्र वर्ण भौतिक उत्पादन के क्षेत्र में कार्यरत है। जिस प्रकार ज्ञान के बिना नहीं चलता उसी प्रकार भौतिक वस्तुओं के बिना भी नहीं चलता है। दोनों अनिवार्य हैं। दोनों का समान महत्त्व है। एक समृद्धि का क्षेत्र है, दूसरा संस्कृति का । समृद्धि और संस्कृति साथ ही साथ रहने चाहिये। तभी अच्छा समाजजीवन सम्भव है । इस तथ्य को भूलने और भुलाने के कारण बहुत अनर्थ हुआ है । हमें अब इस अनर्थ को समाप्त कर पुन: सुस्थिति लाने का प्रयास करना चाहिये ।
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== '''वर्णानुसारी शिक्षा व्यवस्था''' ==
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== वर्णानुसारी शिक्षा व्यवस्था ==
    
=== ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा ===
 
=== ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा ===

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