लोकशिक्षा का उद्देश्य और परिणाम

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पूर्व के अध्याय में हमने लोकशिक्षा के माध्यमों का उल्लेख किया।

... होता है यह निश्चित करता है मानस कैसा बनेगा । उदाहरण

उल्लेख किया । अब विचार यह करना है कि माध्यम कितने. के लिये उत्तम वक्तृत्वशैली और प्रभावी व्यक्तित्व के

भी प्रभावी हों तो भी लोकशिक्षा की विषयवस्तु कया है इस. करिश्मा से लोगों की भावनाओं को भड़काकर तोड़फोड भी

के ऊपर ही निर्भर करता है कि लोक कैसा होगा ?. करवाई जा सकती है और सेवा के काम, देश के लिये

उदाहरण के लिये विज्ञापन मानस को तत्काल प्रभावित. त्याग भी करने को प्रेरित किया जा सकता है । प्रचार के

करने वाला एक सशक्त माध्यम है । वह निरन्तर चलाया... माध्यम से “छोटा परिवार सुखी परिवार' या “बड़ा परिवार

जाय तो मानस में गहरा भी बैठता है । परन्तु किस पदार्थ. सुखी परिवार' दोनों बातें मानस में बिठाई जा सकती हैं ।

या विचार का विज्ञापन है और किस रूप में वह प्रस्तुत इसलिये माध्यमों से भी अधिक लोकशिक्षा की विषयवस्तु

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का विचार करना चाहिये । इसका

विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है

१, लोकशिक्षा धर्मप्रधान है

यह सबसे अहम्‌ बात है । समाज को अच्छा बनाने

की शिक्षा की सर्वप्रथम आवश्यकता है । व्यक्तिगत रूप से

अच्छा बनने की शिक्षा सज्जन व्यक्तियों का निर्माण तो

करती है परन्तु अच्छाई की सामुदायिक शिक्षा की भी

आवश्यकता होती है । अनेक बातें ऐसी होती हैं जो अकेले

में सीखी नहीं जातीं । उदाहरण के लिये संगठित होकर,

एक समूह बनकर किसी बड़े संकल्प को सिद्ध करने का

कार्य सामुदायिक शिक्षा से ही सम्भव है । अतः समाज को

अन्य प्रकार की शिक्षा देने से पहले सज्जन बनने की शिक्षा

देने की आवश्यकता है। सज्जन बनने की शिक्षा ही

धर्मशिक्षा है। सज्जनता में मनुष्य के मनुष्य के प्रति,

व्यक्तिगत स्तर पर व्यवहार, मनुष्य को समस्त मानव

समुदाय के प्रति व्यवहार, मनुष्य के सृष्टि के प्रति व्यवहार

और मनुष्य के परमेष्ठी के प्रति व्यवहार का समावेश होता

है। अतः दान, सेवा, यज्ञ, प्रेम आदि की शिक्षा

लोकशिक्षा का आधारभूत पाठ्यक्रम है । सदाब्रतों, प्याऊ,

नदियों पर घाट, धर्मशाला, मन्दिर, बगीचे आदि बनवाने

की प्रेरणा देना लोकशिक्षा है । आज इसकी सम्यक्‌ शिक्षा

के अभाव में ये सारे काम सरकार की जिम्मेदारी बन गये

हैं। वास्तव में सज्जन समाज को इन सभी बातों की

जिम्मेदारी लेकर सरकार को दायित्व से मुक्त करना चाहिए,

यह समाज की स्वायत्तता है। भारतीय समाज हमेशा

स्वायत्त समाज रहा है ।

समाज की सज्जनता के सूत्रसंचालक धर्माचार्य ही

होते हैं । छोटे गाँव में भी पुरोहित होता है जो इन बातों का

नियमन और निर्देशन करता है । राजा और राजकुल का

पुरोहित होता है जो राजा के प्रजा के प्रति धर्म की सुरक्षा

करता है । मठपति, संन्यासी, साधु, सन्त सभी समाज को

धर्मप्रवण बनने का उपदेश देते हैं, साथ ही समाजसेवा के

कार्यों का निर्देशन भी करते हैं। कर्तव्यधर्म और

सम्प्रदायधर्म दोनों का निर्दशन धर्माचार्य ही करते हैं ।

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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

समाज यदि धर्मशील नहीं है तो धर्माचार्यों का प्रभाव कम

हुआ है और अधर्म का बढ़ा है यही कहना चाहिये । अतः

लोकशिक्षा हेतु धर्माचार्यों को समर्थ बनना चाहिये ।

लोकमानस को प्रभावित करने की शक्ति ही सामर्थ्य है ।

लोकमानस को तत्काल प्रभावित करना और

लोकमानस को संस्कारित कर अच्छा बनने की दिशा में

परिवर्तित करना भिन्न बातें हैं । करिश्माई व्यक्तित्व से,

आकर्षक प्रस्तुति से, वाकचातुरी से मानस को प्रभावित

करना सरल है । विज्ञापन, चुनावी भाषण, नकली सन्त

आदि लोगों के ये तरीके होते हैं । समाज को बहकाना,

दिग्श्रमित करना, अपना कार्य साध लेना आदि इनके काम

होते हैं । इनसे तत्काल प्रयोजन तो सिद्ध हो जाते हैं परन्तु

यह शिक्षा नहीं है, यह छल है ।

लोकमानस पर सही प्रभाव होता है सच्चरित्र का, तप

का, सदूभाव का, त्याग का । इसलिये तपस्वी संन्यासी

लोकशिक्षा का काम उत्तम पद्धति से कर सकते हैं । धर्मतत्त्व

को केवल जानने से प्रभाव निर्माण नहीं होता, उसके

आचरण से सामर्थ्य प्राप्त होता है । वास्तव में धर्माचरणी को

ही धर्माचार्य कहा जाता है । समाज में यदि सामर्थ्यवान

धर्माचार्य नहीं होते हैं तो समाज की दुर्गति होती है ।

२. वर्तमान समस्याओं के बारे में कर्तव्यविचार

कभी कभी, अथवा अधिकांश, एसा होता है कि

व्यक्ति अपने आप में सज्जन होता है, अन्य व्यक्तियों के साथ

सज्जनता से ही व्यवहार करना है, नीतिमान और

सदूभावनापूर्ण होता है तो भी समाज संकटों से घिरा हुआ ही

रहता है । वर्तमान भारत का ही उदाहरण लें । राष्ट्र में अभी

हीनताबोध का भीषण संकट व्याप्त है । भारतीय मानस

पश्चिमीकरण के प्रभाव से ग्रस्त है । इस स्थिति में सांस्कृतिक

परतन्त्रता का संकट समझना सज्जन व्यक्ति के लिये भी

कठिन हो जाता है । वह दान करता है, गरीबों की सहायता

करता है, कभी असत्य नहीं बोलता परन्तु अंग्रेजी माध्यम में

अपने बच्चों को पढ़ाने में उसे संकोच नहीं होता । अपने

बच्चों को डॉक्टर, इन्जिनीयर, संगणक निष्णात बनाने में वह

पैसा खर्च करता है, उसमें सफलता मिलने पर उसे हर्ष होता

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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा

है। अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ने और कमाने हेतु भेजने

में भी उसे गर्व का ही अनुभव होता है । वह बढ़ती हुई

यान्त्रिकता, प्रदूषण आदि से अपने आपको बचाने का तो

प्रयास करता है, कदाचित पानी और बिजली बचाने का

प्रयास भी करता है परन्तु प्रदूषण के मूल किस में है उसे

जानने का प्रयास नहीं करता, देश की गरीबी क्यों बढ रही

है, लोगों का स्वास्थ्य क्यों गिर रहा है, देश अधिक से

अधिकतर गुलामी के गर्त में क्यों जा रहा है आदि बातों का

उसे भान नहीं है, ज्ञान नहीं है और उसे कुछ करना चाहिये

ऐसा उसे लगता नहीं है । अर्थात्‌ सारा जीवनव्यवहार दो

भागों में बट गया है। एक ओर तो एकदूसरे के प्रति

भावनाओं की सज्जनता है दूसरी ओर गहरे sat में

निष्क्रिता है जो समाज का नुकसान कर रही है । इन गहरे

संकटों का जाल बड़ा जटिल है । इसका हल कोई एक

व्यक्ति नहीं कर सकता । सामूहिक रूप में, विट्रज्जन,

धर्माचार्य और सरकार मिलकर यदि कुछ करते हैं तो हल हो

सकता है । अर्थात्‌ राष्ट्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक संकरटों के

बारे में लोकशिक्षा की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक होती

है । समय समय पर ऐसे संकट निर्माण होते ही हैं । साथ ही

ऐसे संकट निर्मान न हों इस दृष्टि से भी लोकशिक्षा की

आवश्यकता रहती है । इस दृष्टि से लोकशिक्षा का जिम्मा तो

धर्माचार्यों और विट्रज्जनों का ही होता है ।

३. सामाजिक संकटो का स्वरूप मनोवैज्ञानिक

समाज जब संकटों से घिरता है तो वे आर्थिक,

ज्ञानात्मक स्वास्थ्य से सम्बन्धित, राजकीय आदि विभिन्न

स्वरूपों के होते हैं परन्तु इन सभी संकटों के प्रति समाज

मानस का जो स्वरूप होता है वह मनोवैज्ञानिक होता है ।

इस कारण से इन संकटों के निराकरण के उपाय यदि केवल

ज्ञानात्मक रूप में ही किये जाय तो उसमें सफलता प्राप्त

नहीं होती । उदाहरण के लिये पश्चिमी शैली को आधुनिक

शैली मानना, अंग्रेजी को अनिवार्य मानना, चौड़ी संड़कों

और अधिक संख्या में वाहनों को विकास का पर्याय मानना

आदि समस्‍यायें मुख्य रूप से मनोवैज्ञानिक हैं । असंख्य

अकाटूय तर्क दिये जाय तो भी इन संकटों के स्रोतों का

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त्याग करने के लिये जनमानस तैयार

नहीं होता है । उदाहरण के लिये घर की रसोई में माइक्रोवेव

होना स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यन्त हानिकारक है ऐसा

अनेक प्रमाणों से विज्ञान सिद्ध कर दे तो भी माइक्रोवेव का

आकर्षक विज्ञापन जनमानस को शिकंजे में ले लेता है।

बाजार जनमानस की इस स्थिति का फायदा उठाता है ।

यही बात सिन्थेटिक कपड़ों, संगणक, फास्टफूड, बाइक की

सवारी, बड़े से बड़े यन्त्रों की सहायता से चलने वाले बड़े

कारखानों के बारे में है । मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल

मनोवैज्ञानिक पद्धति से ही होता है । मनोवैज्ञानिक हल दो

प्रकार से होता है । एक तो होता है मन के स्तर पर उतरकर

अनिष्ट तत्त्वों की Fear करना । उदाहरण के लिये “तुम

अंग्रेजी बालते हो दूर हटो तुम्हारे मुँह से दुर्गनध आती है

तुमने प्लास्टिक के गिलास में पानी दिया है मैं नहीं पिऊँगा,

तुमने अनेक लोगों की रोजी छीननेवाला कारखाना शुरू

किया है मैं तुमसे बात नहीं करूँगा' कहना मनोवैज्ञानिक

उपाय है । यह निन्‍्दा अथवा आलोचना तो बहुत सौम्य है,

इससे तीव्र निन्‍्दा भी हो सकती है । सामाजिक स्तर पर ये

उपाय बहुत कारगर भी होते हैं । परन्तु वे प्रतिष्ठित व्यक्तियों

द्वारा साथ ही साथ व्यापक स्तर पर भी होने चाहिये ।

इसका दूसरा आयाम मन को संस्कारित करने का भी

है। इसके लिये समाज में श्रद्धय और श्रद्धावान लोग

चाहिये । जो श्रद्धय होते हैं वे ही समाजमन को प्रभावित

कर सकते हैं । साथ ही समाजमन यदि श्रद्धावान है तो

श्रद्धय व्यक्तियों का मार्गदर्शन फलदायी हो सकता है । वे

यदि सही पद्धति से सही रूप में समझायें और लोग अच्छे

मन से श्रद्धापूर्वक सुनें तो लोकशिक्षा, सम्यक्‌ स्वरूप में हो

सकती है । इसलिये लोकशिक्षा का प्रथम चरण तो

श्रद्धावान बनाना ही होता है । उसके बाद ही मुख्य संकटों

के सम्बन्ध में लोकशिक्षा हो सकती है ।

४.समाज प्रबोधन को लेकर कठिनाई

टीवी के सभी चैनलों पर चौबीस घण्टे में पचास बार

किसी वस्तु का विज्ञापन आता है, रास्ते पर निकलो तो

स्थान स्थान पर उसके बड़े बड़े फलक दिखाई देते हैं,

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अखबारों में विज्ञापन आते हैं जिसके

प्रभाव से लोग बच नहीं सकते । वह वस्तु खरीद करने के

लिये वे विवश हो जाते हैं, भले ही विज्ञापनों का खर्च उनसे

ही वसूल किया जाता हो । किसी एक वस्तु की प्रशंसा दस

लोग कर देते हैं तब भी व्यक्ति का मानस परिवर्तन हो जाता

है।

यह तो बहुत छोटी बात है । विचारधाराओं के क्षेत्र

में भी यह आतंक चलता है । मुस्लिम युवकों को जन्नत का

लालच देकर आतंकवादी बनाया जाता है । साम्यवादी धर्म

को अफीम बताकर अनेक लोगों को निधर्मी बना देते हैं ।

भोंदू धर्माचार्य लोगों को अन्धश्रद्धा और रूढिवादिता के

चक्कर में डालदेते हैं । यही नहीं तो अतिशय अत्याचार और

आर्थिक बेहाली से लोगों के मन को मार दिया और गुलाम

बना दिया जाता है । ब्रिटिशों द्वारा इस मार के साथ शिक्षा

के माध्यम से उल्टे पाठ पढ़ाये गये और पूरे भारतीय समाज

को मानसिक गुलामी में डाल दिया गया। आज भी

भारतीय मानस इस गुलामी से नहीं उबर रहा है।

लोकशिक्षा के ये अत्यन्त नकारात्मक उदाहरण हैं ।

जब मन दुर्बल होते हैं तब इन बातों का प्रभाव जल्दी

होता है और अधिक होता है । विभिन्न उपायों से प्रथम तो

लोकमानस को दुर्बल बना दिया जाता है, अथवा विभिन्न

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

कारणों से लोगों के मन दुर्बल हो जाते हैं, बाद में उसे

उल्टी पट्टी पढाना सरल होता है ।

अतः जो सकारात्मक पद्धति से लोकशिक्षा करना

चाहता है उसे इस बात को ध्यान में लेकर प्रथम तो

लोकमानस को बलवान और समर्थ बनाना चाहिये ।

बलवान मन सरलता से श्रद्धावान भी बन सकता है।

श्रद्धावान मन को बुद्धिपूर्वक की गई बातें भी जल्दी समझ

में आती हैं । यह कार्य धर्माचार्यों का है ।

घर में संस्कार प्राप्त होते हैं, विद्यालयों में ज्ञान ।

मातापिता और शिक्षकों को अपनी सन्तानों और अपने

विद्यार्थियों को मन की शिक्षा कैसे दी जाती है यह सिखाना

चाहिये । घर, विद्यालय और मन्दिर इन तीनों संस्थाओं में

समन्वय होना चाहिये । इन सभी संस्थाओं की रक्षा करने

का दायित्व राज्य का है ।

इस प्रकार किन विषयों को लेकर और किस पद्धति

से लोकशिक्षा करना इसका निर्णय करना एक अत्यन्त

महत्त्वपूर्ण कार्य है । यदि लोकशिक्षा की सम्यक्‌ व्यवस्था न

की जाय तो कुट्म्ब की शिक्षा और विद्यालयीन शिक्षा

अपना कार्य परिणामकारी रूप में नहीं कर सकती । इन

दोनों से लोकशिक्षा व्यापक भी है और दीर्घ अवधि की भी

है।