राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अन्यान्य संगठनों के प्रयास

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डॉ. राधाकृष्ण अग्रवाल ने की ।

इसके पूर्व ९, १० फरवरी, १९७५ को दिल्ली में

१. “शैक्षिक नियोजन एवं राष्ट्रीय विकास' तथा

२. “शिक्षा-परिवर्तन हेतु गैर शासकीय प्रयास' विषयों पर राष्ट्रीय संविमर्श आयोजित किया जा चुका था,

जिसमें उच्च शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन और उसे अधिक व्यापक बनाये जाने हेतु गैर सरकारी प्रयासों, उसकी आवश्यकता और प्रभाव पर विचार किया गया । साथ ही समाज से उस दिशा में और अधिक पहल करने का आह्वान भी किया गया । आगरा में सन्‌ १९७८ की ११, १२ फरवरी को “उच्च शिक्षा में स्वायत्तता' विषय पर एक राष्ट्रीय संविमर्श आयोजित हुआ, जिसमें शिक्षा को अधिक स्वायत्त बनाये जाने की आवश्यकता महसूस की गयी । ८; ९ सितम्बर, १९७९ को दिल्ली में १) “शिक्षा-परिवर्तन हेतु दिशा, आग्रह एवं प्रक्रिया' और २) “शिक्षा-परिवर्तन हेतु प्रशासनिक ta विषयों पर विस्तार से विचार-विमर्श संपन्न हुआ और उसकी संस्तुतियों से सरकार को अवगत कराया गया । १९८० की २३ व २४ फरवरी को भोपाल में “ग्रामाभिमुख शिक्षा, ८-९ मार्च को बेंगलुरु में “आधुनिक शिक्षा में धार्मिक मूल्य', १९-२० अआप्रैल को राँची में “परीक्षा पद्धति पर; २६ से २८ sa aH वाराणसी में “शिक्षा में अवसरों की समानता विषय पर और २ व ३ अगस्त, १९८० को पुणे में “शिक्षा का व्यावसायीकरण' जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर राष्ट्रीय संविमर्शों के आयोजन किए गए और यह प्रयास हुआ कि शिक्षा को समग्रता से समझकर उसमें आवश्यक परिवर्तन किए जा सकें । १९७९ के मार्च महीने में पटना से दिल्ली तक एक “शैक्षिक ज्योति- यात्रा' निकाली गयी और देश के लोगों को, विशेषकर पूर्वात्तर की शैक्षिक समस्याओं से अवगत कराया गया ।

तकनीकी शिक्षा पर बल

अपने देश में १९९० के बाद भू-मंडलीकरण का समय आरंभ होता है, इसी बात को समझते हुए आनेवाली जटिलताओं के पूर्वाभास के कारण १७-१८ फरवरी, १९९० कौ बैंगलुरु-कर्नाटक में 'तकनीकी शिक्षा - समीक्षा एवं संभावनाएँ विषय पर; १७-१८ मार्च, १९९० को मुंबई में “तकनीकी (पॉलीटेक्नीक) शिक्षा' विषय पर तथा दो राष्ट्रीय संविमर्श महाराष्ट्र के नागपुर में भी आयोजित किये गये । इन तीनों संविमर्शों के माध्यम से देश में तकनीकी शिक्षा के समग्र स्वरूप, उसकी परिस्थितियों, चुनौतियों, अवसरों तथा संभावनाओं पर विचार किया गया । देश में भू-मंडलीकरण के बढ़ते दबाव को देखते हुए जुलाई, १९९४ में “उच्च शिक्षा की वित्त- व्यवस्था विषय पर दिल्ली में और मई, १९९५ में दिल्ली में ही “निजी विश्वविद्यालय : स्वीकार्याहता एवं व्यावहारिकता' विषयों पर राष्ट्रीय परिसंवाद आयोजित हुए । इनमें शिक्षा के निजीकरण के खतरों के प्रति सरकार को आगाह किया गया |

१९८९-९९ का वर्ष राष्ट्रीय संविमर्शों की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है । हम पाते हैं कि शिक्षा के विभिन्न आयामों पर राष्ट्रीय शैक्षिक संविमर्शों की एक सघन प्रणाली हमारे सामने आती है - १९९८ में १३, १४ अक्टूबर को हैदराबाद में “इकीसवीं शताब्दी में उच्च शिक्षा : नयी अवधारणा” विषय पर; २, ३ नवम्बर को लखनऊ में “आर्थिक एवं सामाजिक विकास मे शिक्षा की भूमिका' विषय पर; १९९९ की ५, ६ फरवरी को बड़ौदरा में “महिला शिक्षा : समस्या और समाधान' १९, २० फरवरी को चण्डीगढ़ में 'तकनीकी शिक्षा की चुनौतियाँ और १३, १४ मार्च को गुवाहाटी में “उच्चशिक्षा के सम्मुख चुनौतियाँ' जैसे विषयों पर राष्ट्रीय स्तर के परिसंवादों के सफल आयोजन किये गये और शिक्षा को सर्वागीणता के साथ समझने की चेष्टा की गयी । २० सितम्बर १, २ अक्टूबर को मुंबई में राष्ट्रीय शैक्षिक कार्यशाला संपन्न हुई, जबकि २३ मार्च, २००३ को हैदराबाद में “अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थाओं के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और उसके परिणाम' विषय पर राष्ट्रीय संविमर्श संपन्न हुआ । इसमें तत्संबंधी सांविधानिक प्रावधानों, चुनौतियों der छात्रों के समक्ष आनेवाली समस्याओं के संदर्भ में विचार- विमर्श किया गया । अखिल धार्मिक विद्यार्थी परिषदू के स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में होनेवाले राष्ट्रीय अधिवेशन से

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आयोजन होता है जिनमें छात्रों एवं शिक्षकों की सहभागिता के अतिरिक्त देश के वरिष्ठ वैज्ञानिक भी छात्रों का मार्गदर्शन करते हैं ।

. वैदिक गणित - विद्या भारती के विद्यालयों में वैदिक गणित का शिक्षण-प्रशिक्षण, पाठ्यक्रम में रखे गए प्रश्नों को वैदिक गणित की पद्धति से हल करना आदि का अभ्यास कराया जाता है । इससे जहाँ एक ओर बालकों में भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के प्रति गौरव का भाव जागय्रत होता है, वहीं उनको प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना सरल हो जाता है । सोमनाथ स्थित संस्कृत विश्वविद्यालय के साथ वैदिक गणित प्रशिक्षण के सम्बन्ध में विद्या भारती का MOU हुआ है |

. राष्ट्रीय खेलकूद - विद्यालय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक प्रतिवर्ष खेल स्पर्धाओं का आयोजन होता है । स्कूल गेम्स फैडेशन ऑफ इंडिया (SGFI)ने विद्या भारती को एक राज्य के रूप में मान्यता प्रदान की है।

. परशिक्षण योजनाएँ - योग्य, दृष्टि सम्पन्न एवं समर्पित शिक्षकों की उपलब्धता इतने बड़े कार्य को सफलतापूर्वक चलाने की सबसे पहली एवं महती आवश्यकता है । इसके लिए जहाँ विद्या भारती के कुछ प्रशिक्षण विद्यालय कार्य कर रहे हैं, वहीं ग्रीष्मावकाश के दिनों में प्रत्येक प्रांत में १० दिनों से लेकर २ महीनों की अवधि तक के प्रशिक्षण वर्गों का आयोजन विद्या भारती द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त अनेक विद्यालय भी अपने स्तर पर विद्यालय आधारित सघन प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाते हैं। पिछले कुछ समय से शिक्षकों के अतिरिक्त प्रबन्धकर्ताओं, अभिभावकों एवं कर्मचारी बन्धुओं के लिए भी प्रशिक्षण के कुछ कार्यक्रम प्रारंभ हुए हैं । सांस्थानिक प्रशिक्षण की दृष्टि से विद्या भारती से सम्बद्ध १८ शिक्षा महाविद्यालय भी बी.एड./ डी.एड. /बी.टी.सी. आदि शिक्षा शास्त्रों के उपाधि पाठ्यक्रमों का संचालन कर रहे हैं ।

. सेवा क्षेत्र की शिक्षा - स्वाधीनता के ६६ वर्ष पश्चात्‌ भी देश के करोड़ों लोग शिक्षा के प्रकाश से वंचित हैं । झुग्गी-झॉंपड़ियों, महानगरों की निर्बल बस्तियों, वनवासी क्षेत्रों में बसने वाले करोड़ों देश बाँधवों के लिए विद्या भारती ने संस्कार केन्द्र एवं एकल शिक्षक विद्यालय प्रारंभ किए हैं । इन सभी विद्यालयों के पोषण के लिए सामान्य विद्यालयों के छात्र, अभिभावक, शिक्षक एवं अन्य हितचिंतक प्रतिवर्ष बसंत पंचमी के दिन समर्पण दिवस का आयोजन करते हैं । जिसमें एकत्र सहयोग राशि अपेक्षित क्षेत्रों की शिक्षा के लिए व्यय की जाती है |

. जनजातीय क्षेत्र की शिक्षा - प्रकृति के सर्वाधिक निकट रहकर विलक्षण मानवीय गुण सम्पदा का अर्जन करते हुए सहस्रावधि वर्षों से वनक्षेत्रों में निवास करने वाले करोड़ों वनवासी बंधुओं ने अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखने एवं धार्मिकता के भाव का संरक्षण करने में अनुपम भूमिका का निर्वहन किया है, किन्तु औपनिवेशिक शासन के समय इस समाज के अभावों का लाभ उठाकर उनकी निष्ठा परिवर्तन के जो षड़्यत्र हुए हैं, विद्या भारती ने उसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया । आज विद्या भारती द्वारा वनवासी क्षेत्रों में चलाए जा रहे लगभग २००० विद्यालयों द्वारा वनवासी समाज का न केवल शेष समाज से जुड़ाव बढ़ा है बल्कि उसके आत्म- विश्वास में भी आशातीत वृद्धि हुई है ।

. बालिका शिक्षा - सुदृढ़ परिवार व्यवस्था धार्मिक संस्कृति की एक विशिष्ट पहचान है । माताएँ परिवार की व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु हैं। आज विद्यालय में अध्ययनरत बालिकाएँ पारिवारिक व्यवस्था एवं उत्तरदायित्वों के प्रति सजग, सचेत बनें एवं उसके निर्वहन की कुशलता भी अर्जित करें, इसके लिए विद्या भारती ने बालिका शिक्षा का एक विशिष्ट

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६० के दशक में दिल्ली, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में भी तेजी से इन शिशु मंदिरों/विद्या मंदिरों का कार्य बढ़ने लगा और अनके प्रदेशों में प्रांतीय प्रबंध समितियों का गठन हुआ । वर्ष १९७७ में इन सभी प्रांतीय समितियों को समेकित करते हुए विद्या भारती अखिल धार्मिक शिक्षा संस्थान की स्थापना की गई । आज मिजोरम एवं लक्षद्वीप को छोड़कर भारत के प्रत्येक राज्य में विद्या भारती से सम्बद्ध विद्यालय चल रहे हैं । अनेक राज्य तो ऐसे हैं जिनके प्रत्येक जिले एवं तहसील तक भी विद्यालय प्रारंभ हो गए हैं । कुल मिलाकर आज विद्या भारती के अन्तर्गत १३५१४ शिक्षण संस्थान चल रहे हैं, जिनमें ४९ महाविद्यालय, ९२३ वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, २५५३ माध्यमिक, ४२४४ उच्च प्राथमिक विद्यालय, ५१२ प्राथमिक तथा ६३३ पूर्व प्राथमिक विद्यालय/शिशु वाटिका है । संस्थान के ९८०६ अनौपचारिक शिक्षण/ सेवा केन्द्र भी कार्यरत हैं । विशेष उल्लेखनीय है कि विद्या भारती के विद्यालयों का प्रसार अनेक महानगरों के सम्पन्न क्षेत्रों से लेकर झुग्गी- झॉपड़ियों, सुदूर ग्रामीण, वनवासी एवं पर्वत अँचलों तक हुआ है। २१२ आवासीय विद्यालय भी कार्य कर रहे हैं, जहाँ विद्यार्थी २४ घण्टे रहकर शिक्षा एवं संस्कार ग्रहण करते हैं । १७२ विद्यालय देश के अग्रणी शिक्षा बोर्ड, केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से सम्बद्ध हैं ।

कार्य का भौगोलिक विस्तार

शासकीय प्रान्त ३७ कार्ययुक्त 3४

सांगठनिक प्रान्त ४७ कार्ययुक्त ४७

कुल जिला ६७१ कार्ययुक्त ५८५

कुल विकास खंड ५७३९. कार्ययुक्त ३३०९

औपचारिक विद्यालय

प्राथमिक (शिशु से पंचम) ४६८३

पूर्व माध्यमिक (षष्ठी से अष्टमी) दर ४५६४

माध्यमिक (नौवीं से दशमी ) २२३९

वरिष्ठ माध्यमिक (एकादशी से दट्वादशी) ८७८

योग १२३६४

अनौपचारिक केन्द्र

संस्कार केन्द्र ४१७३

एकल विद्यालय ७८२८

योग १२००१

महायोग २४३६५

छात्र संख्या भैया  बहिन योग

औपचारिक विद्यालय १९४२७५० १२६३४६२ ३२०६२१२

अनौपचारिक केन्द्र

संस्कार केन्द्र ५६६११ ४०६९२ ९७३०३

एकल विद्यालय ८७०२६ ६१०७४ १४८१००

महायोग २०८६३८७ १३६५२२८ ३४५१६१५

आचार्य पुरुष महिला

योग

औपचारिक विद्यालय ७१९३४ ६३५६६ १३५५००

अनौपचारिक केन्द्र

संस्कार केन्द्र २२८० १६०४ ३८८४

एकल विद्यालय ४४४० २८१९ ७२५९

महायोग ७८६५४ ६७९८९ १४६६४३

कार्यकर्ता पुरुष महिला योग

पूर्कालिक ६०८ १२ ६२०

प्रचारक ५६ . ५६

प्रत्येक विद्यालय एक स्थानीय प्रबन्ध समिति की देखरेख में संचालित किया जाता है । एक छोटे क्षेत्र में स्थित ८-१० विद्यालयों को मिलाकर एक संकुल रचना कार्य करती है । संकुल रचना मुख्यतः शैक्षणिक सहकार की योजना है । प्रत्येक प्रांत में एक या अधिक पंजीकृत शिक्षा समितियाँ हैं जिन्हें देशभर के विभिन्न प्रांतों के अनुसार ११ क्षेत्रों में बाँटा गया है । क्षेत्रीय स्तर पर एक समिति, क्षेत्रीय संगठन मंत्री एवं महामंत्री कार्य करते हैं जो प्रांतीय समितियों के सतत सम्पर्क में रहते हैं ।

अखिल धार्मिक स्तर पर एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी, साधारण सभा एवं विभिन्न विषयों के संयोजक कार्यरत हैं जो

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प्रांतीय समितियों को अपना मार्गदर्शन प्रदान करते हैं । दिल्ली में विद्या भारती का केन्द्रीय कार्यालय है तथा लखनऊ एवं कुरुक्षेत्र में उपकार्यालय स्थापित हैं ।

४. उद्देश्य के अनुरूप उपलब्धि

पूरे देश में विद्या भारती के विद्यालयों की उपस्थिति मात्र ही नहीं है अपितु शिशु एवं संस्कारों के क्षेत्र में विद्यालयों ने अपनी साधना एवं समर्पण के बल पर अपने लिए समाज में एक विशिष्ट स्थान अर्जित किया है । कानपुर के बी.एन.एस.डी. शिक्षा निकेतन, गुडीलोवा विशाखापट्टनम के विज्ञान विहार एवं कुरुक्षेत्र के गीता निकेतन ऐसे कुछ विद्यालयों में सम्मिलित हैं जो अपने- अपने क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं । अनेक शिक्षा बोर्डों की सार्वजनिक परीक्षाओं की सम्मान सूची में विद्या भारती के विद्यालयों के छात्र बड़ी संख्या में स्थान प्राप्त करते हैं । विद्या भारती के विद्यालय अच्छे संस्कार प्रदान करते हैं, ऐसी धारणा तो स्थानीय समाज में विद्या भारती के प्रत्येक विद्यालय के सम्बन्ध में है । आज हमारे विद्यालयों के अनेक प्राचार्यों, वरिष्ठ शिक्षकों को अपने-अपने क्षेत्रों में शिक्षा की रीति-नीति, पाठ्यक्रम एवं क्रिया-कलापों के निर्धारण में अग्रणी भूमिका प्राप्त है । अनेक शिक्षक देश भर में पाठ्य पुस्तकों के विकास में अपना योगदान कर रहे हैं । अनेक विद्यालय विभिन्न प्रकार की सामाजिक गतिविधियों के केन्द्र के रूप में भी विकसित हुए हैं । स्कूल गेम्स फैडरेशन ऑफ इण्डिया (SGFI) ने विद्या भारती को एक राज्य इकाई के रूप में स्थायी मान्यता प्रदान की है तथा खेलों में अनुशासन एवं खेल भावना का प्रदर्शन करने के लिए विशेष रूप से सम्मानित किया है। राज्यों / संघशासित प्रदेशों की तालिका में विद्या भारती का २४वाँ स्थान है। आज विद्या भारती के विद्यालयों से निकले लगभग १५ लाख पूर्व छात्र प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा, अभियांत्रिकी, विधि एवं अन्य सभी क्षेत्रों में सक्रिय भागीदारी करते हुए अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का सफलतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं । अखिल धार्मिक सेवाओं के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में विद्या भारती के पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी कर रहे हैं, जो शिक्षा एवं संस्कारों का संदेश समाज में गहराई तक लेकर जा रहे हैं । राष्ट्रीय स्तर पर भी “विद्या भारती प्रदीपिका' एवं “धार्मिक शिक्षा शोध पत्रिका ' का प्रकाशन होता है । विद्या भारती द्वारा इन्दौर से प्रकाशित “देवपुत्र' आज देश की सर्वाधिक प्रसार संख्या वाली बाल पत्रिका के रूप में जानी जाती है ।

परीक्षा परिणाम, राज्यों के प्रावीण्य सूची में स्थान, प्रतियोगी परीक्षाओं तथा व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए वर्षानुवर्ष विद्यार्थियों का चयन आदि को देखकर आज समाज विद्या भारती की शैक्षिक उपलब्धियों की चर्चा करता है । प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने वैचारिक अधिष्ठान पर अविचल रह कर - समाज के सामान्यजन के लिए शिक्षा, मातृभाषा माध्यम से शिक्षा, व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय जीवन के लिए उपयुक्त दृष्टि विकसित कर समाज का निर्माण - नेतृत्व करने में सक्षम देशभक्त युवा पीढ़ी का निर्माण करने में सक्षम संस्कारयुक्त शिक्षा - की निरन्तर अलख जगाए हुए विद्या भारती अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर बढ़ती रहे, इसके लिए ध्येयनिष्ठ और समयदानी कार्यकर्ताओं की देशभर में एक बड़ी संख्या भी विद्या भारती की उल्लेखनीय उपलब्धि है । विद्यालय परिसर के बाहर जाकर निकटवर्ती समाज के विकास, उनके मध्य शिक्षा और संस्कारों के प्रकाश का प्रसार और उन्हें सामाजिक रूढ़ियों - कुरीतियों से मुक्त होने की प्रेरणा देकर सामाजिक समरसतायुक्त समाज के रूप में खड़ा होने के लिए विद्या भारती के कार्यकर्ता अथक परिश्रम कर रहे हैं ।

विघा भारती के विद्यालय शैक्षिक तथा सामाजिक नेतृत्व में सक्षम और सकारात्मक परिवर्तन के वाहक बन सके हैं, यही उपलब्धि विशेषतः समाधान का कारण है ।

५. समाज से अपेक्षा

विघा भारती द्वारा संचालित शिक्षा के इस राष्ट्रीय यज्ञ में समाज के सभी वर्ग इस प्रकार सहभागी बन सकते हैं :

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१. विघा भारती ट्वारा आयोजित होने वाले. कार्यक्रमों / विचार गोष्टियों / कार्यशालाओं में सहभागिता करके;

२. शिक्षा सम्बन्धी गतिविधियों के विकास में अपने बहुमूल्य सुझाव देकर;

३. विघा भारती से सम्बन्धित विद्यालयों के संसाधन विकास में सहयोग करके;

¥. विघा भारती के प्रकाशनों में शैक्षिक विषयों पर प्रकाशनार्थ लेख आदि देकर तथा उनके आजीवन / वार्षिक सदस्य बन कर;

५. यदि आप किसी शैक्षिक/सामाजिक/ आध्यात्मिक संगठन से जुड़े हैं तो उसके कार्यक्रमों को विद्या भारती के कार्यक्रमों के साथ जोड़ने में सहयोग करके;

६. हमारे आयामों यथा : शिक्षा क्षेत्र के विद्वानों के लिए विद्वत्त परिषद्‌, धार्मिक शिक्षा शोध संस्थान तथा पूर्व छात्र, अपने विद्यालय / प्रान्त की पूर्व छात्र परिषद्‌ से जुड़ कर ।

३. अखिल धार्मिक वनवासी कल्याणा श्रम

शिक्षा विभाग

पुराने समय में गुरुकुल विद्या पद्धति में सारे गुरुकुल वनों में जंगलों में होते थे । सहजता से ही वनों में बसने के कारण वनवासी जन आसानी से गुरुकुलों में पढ़ते थे । अन्य समाज के बराबर वे भी पढ़ाई में आगे रहते थे । अतः धार्मिक संस्कृति को अरप्य संस्कृति कहते थे । आज की स्थिति में वनवासी क्षेत्र से गुरुकुल पद्धति लुप्त हुई है और आधुनिक विद्यालय उनके पहुँच में नहीं है । सर्व शिक्षा अभियान के कारण बहुत सारे गाँवों में विद्यालय प्रारंभ हुए हैं । परंतु सुदूर नवाँचल और पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत जगहों में अध्यापक नहीं जा पा रहे हैं ।

सरकारी नीति के अनुसार विद्यालयों में सबको उत्तीर्ण करना अनिवार्य होने के कारण जनजाति क्षेत्रों में स्नातक तक पढ़कर भी उनका स्तर बहुत कम है । अतः परीक्षा में उत्तीर्ण होने की अनिवार्यता पुनः रखना चाहिए । वनवासी वीर जिन्होंने हमारी संस्कृति एवं धर्म की रक्षा की थी और जो स्वतंत्र वीर थे, उन सबका इतिहास पाठ्यक्रम में जोड़ना चाहिए । वनवासियों के जीवन प्रकृति माता से जुड़े हुए होने के कारण उनके गीत, नृत्य, भाषा, रीति-रिवाज, लोक-कला इत्यादि विषयों को पाठ्यक्रम में जोड़ना चाहिए |

भारत में जनजातियों की संख्या ६७५ से अधिक है । उनकी अलग-अलग बोलियाँ होने के कारण विद्यालय की पढ़ाई में कष्ट महसूस कर रहें है : अतः उनकी अपनी मातृभाषा में पढ़ाना और लिपि उस राज्य की होनी चाहिए तभी जनजाति बच्चों में ड्रापव-आउट कम होगा ।

वनवासी बन्धु आधुनिक विद्या से वंचित हैं, परंतु लोक ज्ञान में आगे हैं । प्रकृति, भूमि, पशु-पक्षी इत्यादि विषयों में वे ज्ञान संपन्न हैं। इन विषयों को शिक्षा में जोड़ना चाहिए । शिक्षा का उद्देश्य जीवन के लक्ष्य को पूरा करनेवाला होना चाहिए ।

साक्षरता में जनजाति समुदाय अन्य लोगों से पीछे हैं, यह दरार शीघ्र ही भरना आवश्यक है । जनजाति क्षेत्र में शिक्षण संस्थाओं की संख्या और धनराशि बड़ी मात्रा में प्रावधान करना चाहिए । जनजाति क्षेत्र में विभिन्न कौशलों की शिक्षा देनेवाले विद्यालयों और उच्च शिक्षा केन्द्रों पर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है ।

भारत की जनजातियाँ शिक्षा में अन्य सामान्य जन संख्या से बहुत पीछे हैं । देश भर में सामान्य जनता में साक्षरता दर ७३% है तो जनजाति जनता में ५९% है । महिला क्षेत्र में सामान्य जनता में साक्षरता दर ६५% है, जो जनजाति महिलाओं में ५०% है । जनजातियों में बीच में ही पढ़ाई छोड़ने वाले (ड्राप आउट) की दर बहुत ज्यादा है । कक्षा एक से दसवीं पढ़नेवालों में सामान्य लड़कियों में ड्राप आउट की संख्या और अधिक है । वनवासियों में

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पढ़नेवालों की संख्या बढ़ाना और ड्राप आउट कम करने के प्रयास तेज गति से होने की आवश्यकता है । इसलिये शिक्षा प्रणाली में जनजाति बच्चों का सामान्य स्तर एवं विषयों में सुधार लाना चाहिए । विशेषकर जनजातियों की संस्कृति, इतिहास, पर्यावरण एवं उनकी आवश्यकताओं के बारे में समेकित शिक्षा पर सोचना चाहिए ।

इस निबंध के अन्त में अखिल धार्मिक वनवासी कल्याणआश्रम के कुछ सुझाव भी दिया जा रहा है ।

कल्याणाश्रम ट्वारा चलनेवाले शिक्षा प्रकल्प

छात्रावास २१९

माध्यमिक पाठशाला ४९

प्राथमिक पाठशाला १९७

पूर्व प्राथमिक पाठशाला ६४६

एकल विद्यालय १६६८

बालवाड़ी ४८६

बाल संस्कार केन्द्र ११४३

रात्रि पाठशाला १७८

कुल ४३६७

लाभान्वित ७४९०

उपलब्धि : कल्याणाश्रम के शिक्षा प्रकल्पों के कारण बहुत कुछ परिवर्तन दिखाई दिया है । कुछ उदाहरण

१. छत्तीस गढ़ के रायपुर छात्रावास में एम.ए. पढ़ी हुई नागा महिला, नागालैण्ड में हिन्दी अध्यापिका बन गयी । उस महिला ने अधिकारियों से कहा कि नियुक्ति शहर में अपने गाँव न होकर सुदूर वनाँचल में करनी चाहिए। पूछने से उत्तर दिया के वे कल्याणाश्रम के संस्कारों के कारण वह सुदूर वनाँचल ग्रामों में सेवा करना चाहती है ।

२. झारखण्ड चक्रधरपुर जिले के निश्चिन्तपुर गाँव की जनजाति लड़की पहाड़ों की स्पर्धा में ६३ पहाडें कंठस्थ करके बोलकर सर्वप्रथम निकली/बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए वहाँ के कार्यकर्ता ज्यादा पहाड़े कंठस्थ करनेवाले बच्चों को पहाड़ा महाराज, पहाडा चक्रवर्ती, पहाडा सम्राट ऐसी उपाधि से सम्मानित करते थे ।

३. राजस्थान के बाँसवाडा जिले का भाटमोडी संपूर्ण साक्षर गाँव और व्यसन मुक्त गाँव बन गया ।

शिक्षा एवं जनजातियाँ

सामाजिक विकास के अन्य मापकों की तरह भारत की जनजातियाँ शिक्षा में भी सामान्य जनसंख्या से बहुत पीछे है ।

२०११ की जनगणना के अनुसार (सारणी १ देखें) । जनजातियों की साक्षरता दर ५९ प्रतिशत है जो कि कुल जनसंख्या से १४ प्रतिशत एवं अनुसूचित जातियों की जनसंख्या से भी ७ प्रतिशत कम है ।

साक्षरता दर में सुधार नामांकन के आँकड़ों में भी झलकता है । मानव विकास संसाधन मंत्रालय के योजना, निगरानी एवं सांख्यिकी ब्यूरों के अनुसार २०१०-११ में प्राथमिक स्तर पर जनजातियों का सकल नामांकन अनुपात बालक एवं बालिका दोनों में १३७ प्रतिशत था । अनुसूचित जातियों के बालकों में १३१ एवं बालिकाओं में १३३ प्रतिशत था एवं कुल जनसंख्या के लिये यह आंकड़ा क्रमशः ११५ एवं ११७ प्रतिशत था । माध्यमिक या उच्च प्राथमिक स्तर पर फिर भी आंकड़ों में आशा की एक किरण दिखाई देती है । २००१ एवं २०११ के बीच जनजातियों की साक्षरता दर में १२ प्रतिशत का सुधार हुआ जो कि कुल जनसंख्या में हुए ८ प्रतिशत के सुधार से भी अधिक है । जनजातियों की महिला साक्षरता में सुधार तो और भी अधिक है; २००१ की तुलना में उनमें १४ प्रतिशत की वृद्धि हुई, इस अवधि में महिलाओं की कुल साक्षरता में ११ प्रतिशत की अच्छी वृद्धि हुई है । पर नामांकन थोड़ा था फिर भी जनजाति लड़कों के लिये ९१ एवं लड़कियों के लिये ८७ प्रतिशत जितना ऊँचा था । सम्बन्धित आँकड़ा अनुसूचित जातियों के लिये क्रमशः ९४ एवं ९१ प्रतिशत था, सम्पूर्ण जनसंख्या के लिये ८८ एवं ८३ प्रतिशत था ।

परन्तु जनजातियों में बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने

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(ड्राप आउट) की दर औसत से अभी भी अधिक है । जैसा कि यहाँ दी गई सारणी-२ से प्रकट है, जनजाति बालकों की ड्राप आउट दर कक्षा I-V तक ३७.२ प्रतिशत है, जबकि कुल जनसंख्या के लिये यह २८.७ प्रतिशत है I कक्षा I -VIII तक ये दूर क्रमशः ५४.७ प्रतिशत एवं ४०.३ तथा कक्षा I-X तक के लिये ७०.६ एवं ५०.४ प्रतिशत क्रमशः जनजाति एवं कुल जनसंख्या के लिये है ।

रोचक बात यह है कि लड़कियों का प्राथमिक स्तर (कक्षा I-V) तक ड्राप आउट दर लड़कों से कम है - जनजातियों में भी और कुल जनसंख्या में भी । जनजाति लड़कियों में यह दर ३३.९ प्रतिशत है जबकि सारी जनसंख्या के लिये यह २५.१ प्रतिशत है । उच्च स्तरों पर लड़कों की तुलना में लड़कियों की ड्राप आउट दर अधिक है परन्तु अधिक अंतर नहीं है ।

उपरोक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि गत कुछ समय से सभी वर्गों में विद्यालय नामांकन एवं साक्षरता बढ़ाने हेतु सघन प्रयास किए गए विशेषकर जनजातियों में । बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान गया लगता है । यदि यह प्रवृत्ति सतत रही तो जनजातियों एवं seat की साक्षरता की खाई को जल्दी ही पाटा जा सकता है और देश वैश्विक साक्षरता की ओर बढ़ना शुरू कर सकता है ।

इसलिये अब समय है कि हम शिक्षा के सामान्य स्तर एवं विषयों में सुधार पर विचार करना शुरू करें । विशेषकर जनजातियों की पर्यावरण, संस्कृति, इतिहास एवं उनकी आवश्यकताओं के बारे में समेकित शिक्षा पर सोचें । इसी बात को ध्यान में रखते हुए कि शिक्षा एवं साक्षरता का वर्तमान प्रवाह इसी उत्साह, प्रतिबद्धता एवं ऊर्जा के साथ समन्वित प्रयासों के साथ चलता रहेगा ।

जनजाति शिक्षा की दृष्टि से मुख्य बातें

प्राथमिक शिक्षा

१. आने वाले १० वर्षों में जनजाति समुदाय भी शिक्षा के सभी राष्ट्रीय मानकों की बराबरी पर होंगे । सरकार के सभी कार्यक्रम इस दिशा में केन्द्रित हों ।

२. १०० प्रतिशत साक्षरता दर पाने के लिये प्राथमिक स्तरों की शिक्षा पर सर्वोच्च प्राथमिकता हो । विद्यार्थियों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिये तैयार करने हेतु आँगनबाड़ी कर्मियों को विशेष प्रशिक्षण दिया जा सकता है । ग्राम या संच स्तर पर छोटे बच्चों की माताओं के मासिक सम्मेलन के रूप में चेतना शिविर आयोजित हों ।

३. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्ष २००७-०८ में ८८.५ प्रतिशत जनजाति बस्तियों के १ कि.मी. के दायरे में प्राथमिक विद्यालय उपलब्ध था (राष्ट्रीय सेंपल सर्वे ६४वीं आवृत्ति) । आशा करनी चाहिए कि शीघ्र ही सभी जनजाति टोलों के लगकर ही प्राथमिक विद्यालय उपलब्ध होंगे ।

४. प्राथमिक विद्यालय भवनों की बनावट स्थानीय पारम्परिक भवन शैली में करने के प्रयास हों जिसमें स्थानीय सामग्री का प्रयोग करते हुए स्थानीय कारीगरों से बनवाए जाने को प्राथमिकता दी जाए । इससे बच्चों एवं समुदाय में आत्मविश्वास एवं अपने परिवेश के प्रति सम्मान का भाव जगेगा ।

५. प्राथमिक शिक्षा स्थानीय बोली में दी जाए जिसे मानक क्षेत्रीय भाषा से पूरक किया जा सकता है । विश्व भाषा कोष, शब्द-कोष एवं ऐसी ही बहुभाषी शिक्षण सामग्री सभी प्राथमिक विद्यालय में उपलब्ध कराई जाए । भाषा सम्बन्धी मामलों को संभालने के लिये यह सुनिश्चित किया जाए कि प्राथमिक विद्यालयों में कुछ शिक्षक स्थानीय समुदाय से हों ।

६. शिक्षा, विशेषकर जनजाति क्षेत्रों में, करते करते सीखने का शक्तिशाली घटक होना चाहिए । पाठ्यक्रम एवं शिक्षा-शास्त्र ऐसा हो जिसमें स्थानीय ज्ञान, पद्धतियों एवं तकनीकी को समाहित कर इन्हें शिक्षण का नियमित भाग बनाया जाए ।

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उच्च प्राथमिक शिक्षा

१. इस स्तर पर पाठ्य पुस्तकों में क्रमबद्ध अनुपात में स्थानीय एवं राष्ट्रीय विषयों का समावेश हो ताकि बच्चे मौलिक तथ्यों एवं वैश्विक रूप से स्वीकृत सिद्धान्तों को स्थानीय ज्ञान के साथ सीख सकें । इस स्तर पर सूचना संकलन, प्रक्रियात्मक कुशलता एवं संवाद कौशल पर अधिक ध्यान होगा । सभी जनजाति समुदायों की अपनी स्वयं की लोक कला है और परम्परा से ही वे कुशल कारीगर हैं, इसलिये इस स्तर के पाठ्यक्रमों में कला एवं शिल्प पर पर्याप्त जोर होगा । स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों , परम्परागत व्यवहारों, स्थानीय भूगोल, सामाजिक परम्पराएँ एवं जीवन, परम्परागत एवं समुचित तकनीक ये सब पाठ्यक्रम एवं मूल्यांकन के भाग हो सकते हैं ।

२. इस स्तर पर पूर्व व्यावसायिक शिक्षा (कोर्स) को जोड़ा जा सकता है । जनजाति बच्चे अपने प्राकृतिक निवास स्थानों (वन), कृषि, जंगल से खाद्य पदार्थों के संग्रह, मछली पालन, भवन निर्माण आदि सम्बन्धित कौशल में निपुण होते हैं। इन्हें उच्च प्राथमिक एवं सेकेण्डरी स्तर के पाठ्यक्रम में जोड़ा जा सकता है ।

३. जनजाति क्षेत्रों के विद्यालयों में पृथक रूप से कौशल विकास का एक कार्यक्रम बनाकर उसे विशेष अभियान के रूप में जोड़ा जा सकता है जैसा कि हाल ही घोषित राष्ट्रीय कौशल विकास नीति २०१५ में भी संकल्पित है । उनके क्षेत्रों में खड़ी की जा रही रोजगारों की नई संभावनाओं - अवसरों का उपयोग कर स्वरोजगार एवं कुशल कारीगरों के रूप में प्रशिक्षित हो कहीं काम में लग सकें, यह इस मिशन का यह लक्ष्य होना चाहिए ।

४. जनजाति नायकों, जनजाति स्वतंत्रता सैनानी एवं जनजातियों की संघर्ष गाथाओं पर पाठ्य सामग्री तैयार करवाई जाए और इनका इतिहास की पूरक पठन सामग्री के रूप में जनजाति एवं गैर जनजाति दोनों क्षेत्रों में उपयोग किया जाए |

५. सेकेण्डरी स्तर के समाज-विज्ञान विषय के पाठ्यक्रम में जनजातियों से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण कानूनों, अधिनियमों, योजनाओं को लिया जा सकता है। इससे वे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं एवं. प्राकृतिक संसाधनों पर अपने संवैधानिक अधिकारों से परिचित हो सकते हैं ।

६. जनजाति क्षेत्रों में आश्रम शालाएँ एक सफल प्रयोग सिद्ध हो चुकी हैं । इन्हें चालू रखा जाए तथा इन शालाओं को एकलव्य तथा कस्तूरबा विद्यालयों की तरह से क्रमोन्नत करने के प्रयास हों । प्रयास ये भी हों कि छात्रावासों एवं विद्यालयों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जाए । जिन प्रखण्डों में २० प्रतिशत से अधिक जनसंख्या जनजातियों की हैं उन सभी में आवासीय विद्यालय खोले जाएँ । इन विद्यालयों में प्राथमिकता देकर २५ प्रतिशत विद्यार्थी गैर जनजाति समुदायों के लिये जाएँ ।

७. कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों के माध्यम से बहुत से दूरस्थ जनजाति क्षेत्रों में सर्वशिक्षा अभियान पहुँच चुका है । इससे आगे की उपयुक्त कड़ी बनाई जाए, ताकि जनजाति बालिकाएँ विद्यालयीन शिक्षा से आगे भी अपनी शिक्षा चालू रख सकें ।

८. संभागीय स्तरों पर आदर्श आवासीय खेल विद्यालय खोलने पर विचार हो ।

९. जनजाति बहुल जनसंख्या वाले जिलों के सैनिक विद्यालयों में जनजाति बच्चों के प्रवेश को प्राथमिकता देकर प्रवेश दिया जाए ।

१०. विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए । जनजाति विद्यार्थियों को विज्ञान विषय लेने हेतु प्रोत्साहित किया जाए । एतदूर्थ आवश्यक हो तो जनजाति विद्यार्थियों हेतु पूरक, अतिरिक्त एवं उपायात्मक कक्षाओं की व्यवस्था की जाए । जब तक ऐसी स्थायी व्यवस्था नहीं बने तब तक एतदर्थ

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मूल्यवर्धन हो ? ये दोनों कार्य मंडल के शैक्षिक प्रकोष्ठ द्वारा निरंतर किये जाता हैं ।

३. शिक्षापद्धति पर अनुसंधान अध्ययन की वैज्ञानिक विधि पर अनुसंधान भी आवश्यक है । इसके अंतर्गत शिक्षा का माध्यम, अनुभूतिजन्य शिक्षा हेतु प्रायोगिक शिक्षा, प्रकल्प विधि आदि के बारे में अनुसंधान किया जाता है ।

४. विषय निहाय धार्मिक ज्ञान : विभिन्न विषयों में धार्मिक परंपरा के ज्ञान पर अनुसंधान भी आवश्यक है । इसके अंतर्गत उस विषय की ऐतिहौसिक पृष्ठभूमि तथा धार्मिक दर्शन पर आधारित विषयवस्तु दोनों पर अनुसंधान आवश्यक है। शोध मार्गद्शकों at जोड़कर पी.एच.डी. प्रबंधों के माध्यम से यह अनुसंधान कराने का प्रयास किया जाता है ।

५. संकलन : देश में अनेक ऐसे शैक्षिक प्रयोग चल रहे हैं जिनका अध्ययन कर उनकी पद्धतियों और परिणामों का संकलन किया जाना आगामी अनुसंधान के लिये आवश्यक है । आं्तर्ष्ट्रीय स्तर पर भी इस दिशा में जो हो रहा है उसका भी संकलन करना होगा । यह कार्य knowledge Resource Center के माध्यम से किया जा रहा है ।

आ. प्रबोधन :

शिक्षा में धार्मिकता के विषय को सर्वांगीण रीति से समाज में चलायें रखने के लिये व्यक्तिगत संपर्क, सभायें, सेमिनार आदि के आयोजन द्वारा सभी स्तरों पर प्रबोधन का कार्य करना होगा । प्रबोधन मात्र ऊपरी जनजागरण नहीं है। शिक्षा व्यवस्था की वर्तमान दुरवस्था के भिन्न-भिन्न आयाम, उनके बहुविध बाह्म कारण इनके प्रति सुयोग्य जागरण आवश्यक है । इस सब के मूल में शिक्षा में स्वदेशी तत्त्व धार्मिकता का अभाव' यह सबसे मूलभूत कारण है, इस और समाज को सप्रणाम, तर्क द्वारा ले जाना प्रबोधन है । आत्मविस्मृत समाज को प्रबुद्धता से स्वबोध में प्रतिष्ठित करना प्रबोधन का लक्ष्य है ।

१. नीति-निर्धारकों से संवाद : शिक्षमंत्रियों से खण्ड स्तर तक के शिक्षाधिकारी इस वर्ग में आते हैं । उन सबसे सार्थक सम्पर्क स्थापित करना, शिक्षण मण्डल का कार्य है। शिक्षा से सम्बंधित नीति निर्धारण करने वाली अनेक संस्थायें केन्द्रीय व राज्य स्तर पर कार्यरत हैं । NCERT CBSE, UGC, AICTE जैसी संस्थाये शिक्षा का पाठ्यक्रम, नीति व रीति को तय करती हैं । इन सबके साथ संवाद स्थापित करना अत्यावश्यक है ।

२. शिक्षाविदों से विमर्श : देश में अनेक शिक्षाविद गंभीर चिंतन, साहित्य सृजन व शैक्षिक प्रयोगों में ae हैं । इनको सुचीबद्ध कर उनके साथ जीवंत संपर्क स्थापित करना ।

३. अध्यापकों का उद्बोधन : प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक के अध्यापकों से संवाद के द्वारा धार्मिकता के प्रसार, प्रचार तथा प्रत्यक्ष प्रयोग लिये प्रेरणा देने का कार्य किया जाना आवश्यक है ।

४. अभिभावक जागरण : शिक्षा प्रबंधन के त्रिकोण का तीसरा कोना अभिभावक है । नीति निर्धारिकों, शिक्षकों के साथ अभिभावकों की शिक्षा के प्रति दृष्टि, शिक्षण से अपेक्षा तथा विद्यार्थी से उनका व्यवहार इन सबका छात्र के विकास पर प्रभाव होता है । अतः अभिभावकों में धार्मिक दृष्टि का जागरण भी अनिवार्य है ।

५. सामायिक विषयों पर जन-जागरण : अनेक मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर समाजमन को प्रभावित करना भी उतना ही अनिवार्य है। इन दृष्टि से जन-जागरण कार्यक्रमों की योजना बनानी होगी । शिक्षा का अधिकार, शिक्षा का व्यापारीकरण, स्वायत्तता ऐसे अनेक विषय समय पर आते हैं, जिन पर जन- जागरण करना आवश्यक होता है ।

इ. प्रेरणा (प्रशिक्षण)

धार्मिक शिक्षण मंडल शिक्षण संस्थाओं के लिये प्रत्यक्ष उपयोगी संगठन बनना चाहिये, इस दृष्टि से विभिन्न स्तरों पर प्रशिक्षण कार्यक्रम लिये जाते हैं । शालेय प्रकल्प

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के अंतर्गत इन कार्यशालाओं का संचालन किया जाता है ।

१. संस्थाचालक परामर्श : एक दिन, ३ घण्टे के संस्थाचालक परामर्श का मूल विषय धार्मिकता की अभिव्यक्ति के वैज्ञानिक लाभों से संस्थाचालकों को अवगत कराना है ।

२. शिक्षक स्वाध्याय : शिक्षा की नीति व पाठ्यक्रम में परिवर्तन तो एक दूरगामी कार्य है । किंतु वर्तमान बाधाओं के मध्य भी अध्यापन में धार्मिकता का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है । तीन दिवसीय कार्यशाला की रचना इस प्रकार की है कि शिक्षक सामूहिक चिंतन कर शिक्षा में धार्मिकता का अंतर्भाव करने के लिये प्रेरित हों। स्वाध्याय के उपरांत सीधे कार्य में उतारने योग्य कृति संकल्प लिए जाते हैं । अनुभव है कि इस प्रकार तीन दिन के स्वाध्याय के तुरंत बाद शिक्षकों के अध्यापन, कक्षा प्रबंधन तथा संस्था के वातावरण में सकारात्मक परिवर्तन प्रारंभ होते हैं ।

३. अभिभावक उद्बोधन : शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग अभिभावक है । उनकी भूमिका के बारे में स्पष्टता आवश्यक है । अतः वैज्ञानिक आधार पर उनके प्रबोधन की कार्यशालाओं की भी रचना की है । दो दिन, तीन घण्टे प्रतिदिन की कार्यशाला में अभिभावकों की शिक्षा विषयक दृष्टि स्पष्ट की जाती है |

यदि कोई शिक्षा संस्थान तीनों कार्यशालाओं में सहभागी होता है तो उस संस्थान के शैक्षिक, संस्कारात्मक व संचालनात्मक परिणामों में उल्लेखनीय उन्नति स्पष्टता से अनुभव की जाती है ।

ई. प्रकाशन

साहित्य के प्रकाशन के ट्वारा कार्य को अधिक स्थायी स्वरूप प्राप्त होता है । प्रकाशनों में निम्न प्रकार होते हैं ।

१. नियतकालिक : वर्तमान में मंडल द्वारा मराठी मासिक “धार्मिक शिक्षण' , अंग्रेजी मासिक In quest of bharatiya shikshan तथा हिंदी त्रैमासिक “धार्मिक शिक्षण सत्य, तथ्य, कथ्य' तथा वैचारिक वार्षिकी “दर्शन' प्रकाशित होते हैं ।

२. पुस्तिका : विभिन्न विषयों पर छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के माध्यम से प्रबोधन का कार्य ठीक ढंग से किया जा सकता है। शिक्षकों के लिये पूरक सामग्री का निर्माण करना, विभिन्न विषयों में धार्मिक परंपरा की जानकारी उपलब्ध कराना इस हेतु पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया जाता है ।

३. ग्रंथावली : गंभीर विषयों पर पर्याप्त शोध के बाद ग्रंथों का प्रकाशन । ऐसे ग्रंथ जो धार्मिक पाठ्यक्रम के लिये संदर्भ ग्रंथों का काम कर सर्के । धर्मपाल समग्र का मराठी अनुवाद का प्रकाशन विदर्भ प्रांत ट्वारा किया गया |

४. प्रचार सामग्री : पत्र, पोस्टर, सूचना पुस्तिका आदि का प्रकाशन

५. संगोष्ठी विवरण : विभिन्न विषयों पर आयोजित सेमिनार, संगोष्ठी आदि में प्रतिपादित विषयों का सुब्यवस्थित प्रकाशन होता है । व्याख्यानों की पुस्तिकायें भी प्रकाशत होती हैं ।

उ. संगठन

उपरोक्त चारों कार्यों को करने के लिये संगठन का गठन किया जाता है ।

१. मंडल रचना : १. विश्वविद्यालय, बड़े महाविद्यालय जैसे शैक्षिक परिसरों तथा विभिन्न शहरों, कस्बों में शिक्षा में शोध तथा अध्ययन में रुचि रखनेवाले लोगों को एकत्रित कर अध्ययन समूह के रूप में संगठित किया जाता है। २. विषयों के अनुसार अनुसंधान तथा अध्ययन करने के लिये समूह बनाये जाते हैं । ३. शिक्षा पर नियमित चिंतन हेतु मण्डल रचना होती है ।

२. सुत्रबंधन (Networking) : शिक्षा के क्षेत्र में काम करनेवाले समविचारी संस्थाओं तथा संगठनों को एक सूत्र में बाँधना । नियमित संपर्क, एकत्र बैठकर विचार

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तथा एक दूसरे के कार्य में सहयोग के द्वारा सबके कार्य को राष्ट्रहित में प्रभावी करना ।

३. संपर्क : अन्य शासकीय तथा गैर शासकीय निकायों से प्रभावी संपर्क स्थापित करना । इस हेतु योग्य व्यक्तियों को संगठन में जोड़ना ।

४. कार्यकर्ता निर्माण : हर स्तर पर कार्यकताओं के समुचित निर्माण की व्यवस्था है । प्रांत, क्षेत्र व अखिल धार्मिक स्तर पर “अभ्यास वर्गो' द्वारा कार्यकर्ताओं को सघन प्रशिक्षण दिया जाता है ।

शिक्षण मंडल का गौरवमय इतिहास

दि. १९ अप्रैल १९६९ : मुंबई चेरिटी कमिश्नर से धार्मिक शिक्षण मंडल को पंजीयन क्रमांक -  F1738 प्राप्त हुआ । उसके पहले रामनवमी २७ मार्च को मुंबई में श्री श्रीराम मंत्री के घर प्रारंभिक बैठक हुई थी । उस बैठक में २५ शिक्षाविदों के साथ ही मा. बालासाहेब देवरस भी उपस्थित रहे और उनका मार्गदर्शन भी प्राप्त हुआ । इसी कारण हम रामनवमी को स्थापना दिवस मनाते हैं ।

१९७४ में पुणे में नैतिक शिक्षा विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया । इस संगोष्ठी के परिणाम स्वरूप नैतिक शिक्षा विषय पर एक व्यापक प्रारूप तैयार किया गया, जिसकी प्रतियाँ महाराष्ट्र तथा केन्द्र शासन को प्रेषित की गयी । कुछ प्रांतों की शालाओं में इस पाठ्यक्रम को लागू किया गया ।

१९७७ में दिल्ली में NCERT द्वारा १० + २ + ३ प्रणाली पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गयी । इस संगोष्ठी में धार्मिक शिक्षण मंडल के दस प्रांते के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । मंडल के अनेक मूल्यवान सुझाव स्वीकृत हुए ।

शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन की दृष्टि से धार्मिक शिक्षण मंडल ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप बनाने का एक बृहत प्रकल्प हाथ में लिया । प्रकल्प का सून्रपात वर्ष १९७७ में नागपूर में आयोजित कार्यकर्ताओं की त्रिदिवसीय अखिल धार्मिक बैठक में हुआ । बैठक को मा. श्री बालासाहेब देवरस तथा मा. रज्जू भैया का मार्गदर्शन प्राप्त

हुआ । एक मसौदा और उसके आधार पर प्रश्नावली तैयार की गई । इसे देश की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कर शिक्षाविदों तथा शिक्षकों को भेजी गई | ३००० लोगों तक यह प्रश्नावली पहुँचायी गई । वर्ष १९७९ में दिल्ली में इसी विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें तत्कालिन उपराष्ट्रपति श्री बी. डी. जत्ती, केंद्रीय शिक्षा मंत्री मा. पी. सी. सुंदर तथा मा, बापुरावजी मोघे, केदारनाथ साहनी आदि महानुभावों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ | इस संगोष्ठी में प्रारंभिक प्रारूप की प्रकाशित पुस्तिका तथा प्राप्त प्रश्नावली के उत्तरों के आधार पर विस्तार से चर्चा की गयी और राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अंतिम स्वरूप प्रदान किया गया ।

'शिक्षा में धार्मिकत्व' प्रकल्प का प्रारंभ वर्ष १९८० में पुणे अभ्यास वर्ग में हुआ था । एक प्रश्नावली देश के सभी प्रांतों के शिक्षाविदों तथा शिक्षकों को वितरित की गई । लगभग १०० जिलों में दो सौ सभा-संगोष्टियाँ आयोजित हुईं । इसी विषय पर वर्ष १९८३ में ग्वालियर में उत्तरी प्रांतों तथा हैदरबाद में दक्षिणी प्रांतों की संगोष्ठियाँ आयोजित की गईं । संगोष्टियों में पद्मश्री डॉ. वाकणकर, केंद्रीय मंत्री श्री पी. शिवशंकर, स्वामी रंगनाथानंद, मा. रज्जू भय्या तथा श्री दत्तोपंत ठेंगडी जैसे महानुभावों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ ।

नई शिक्षा-नीति १९८६ : केन्द्र शासन द्वारा नई शिक्षा नीति तथा आयोजित बहस में धार्मिक शिक्षण मंडल ने विभिन्न स्तरों पर पूरी सक्रियता से भाग लिया । केंद्र- शासन को प्राप्त कुल १२००० सुझावों में से ३००० सुझाव धार्मिक शिक्षण मंडल की विभिन्न इकाइयों से प्राप्त हुए थे । दिल्ली में नीति के क्रियान्वयन पर एक परिसंवाद आयोजित किया गया जिसमें डॉ. मुरली मनोहर जोषी, प्रो. जे, वही, wed, डॉ. एस. के. मित्रा, डॉ. प्रेमकृपालजी, श्री किशोरीलाल ढंढानिया, मा. रज्जु भैय्याजी जैसे महानुभावों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था ।

१९८७ में जन-जागरण की दृष्टि से छह सूत्रीय अभियान स्वीकार किया । २८ मार्च, १९८९ को दो हजार स्थानों पर सभाओं का आयोजन किया गया । छह सूत्रों के

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राज्यस्तरीय संगठन तथा ५० से अधिक विश्वविद्यालयों के संगठन महासंघ से सम्बद्ध हैं ।

पंजीकरण एवं केन्द्रीय कार्यालय

अखिल धार्मिक राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ का वर्ष १९९३ में पंजीकरण हुआ है, जिसका पंजीकरण संख्या S/ 25125/1993 है | महासंघ का स्वयं के भवन में केन्द्रीय कार्यालय दिल्ली में है ।

दॄष्टि

राष्ट्र के हित में शिक्षा । शिक्षा के हित में शिक्षक । शिक्षक के हित में समाज

संगठन संरचना

अखिल धार्मिक राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ पूर्णतया स्वतन्त्र एवं स्वायत्त संगठन है जो अपने विधान के अनुसार कार्याकलाप करता है । जिसकी संगठन संरचना संघीय ढांचे के आधार पर है । महासंघ की साधारण सभा में महासंघ के पदाधिकारियों का चुनाव होता है । वर्तमान में अध्यक्ष (१) उपाध्यक्ष (२ + १ महिला) महामंत्री (१), अतिरिक्त महामंत्री (१) सचिव (३ + १ महिला, संयुक्त सचिव (३ + १), कोषाध्यक्ष (१), आंतरिक अंकेक्षक (१) । संगठन मंत्री, सहसंगठन मंत्री एवं उच्च शिक्षा संवर्ग के प्रभारी के रूप में तीन पूर्णकालिक कार्यकर्ता इसमें कार्यरत हैं । विभिन्न प्रकोष्ठों एवं आयामों के प्रमुखों के अलावा ९ क्षेत्र प्रमुख भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं । प्रत्येक राज्य संगठन से अध्यक्ष अथवा महामंत्री में से एक तथा राज्य संगठन द्वारा मनोनीत एक प्रतिनिधि, प्रत्येक सम्बद्ध राज्य संगठन से एक महिला प्रतिनिधि तथा इसके अतिरिक्त तीन सदस्य अन्य छोटे संगठनों से चुने जाते हैं । आमंत्रित सदस्य भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सहभाग करते हैं । इन सबसे मिलकर राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनती है जो महासंघ द्वारा निर्धारित नीतियों एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्यक्रमों को अन्तिम रूप देने तथा क्रियान्वयन कराने के कदम उठाती है । राष्ट्रीय कार्यकारिणी की वर्ष में तीन एवं राष्ट्रीय साधारण सभा की

एक बैठक सुनिश्चित है। महासंघ विभिन्न सम्बद्ध संगठनों के कार्यों के अवलोकन करने, परामर्श देने, प्रोत्साहित करने के कार्य के अलावा अखिल धार्मिक स्तर पर एक समान चार स्थायी कार्यक्रम यथा आंदोलनात्मक, प्रशिक्षात्मक, रचनात्मक एवं सामाजिक सरोकारों के कार्यक्रम क्रियान्वयन हेतु नियोजित करता है ।

सम्बद्धता

प्रदेश स्तरीय शिक्षक संगठन, विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षक संगठन एवं अन्य स्वतन्त्र शिक्षक संगठन, जो महासंघ के विधान, रीतिनीति एवं वैचारिक अधिष्ठान से सहमत हैं वे अखिल धार्मिक राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ से सम्बद्धता प्राप्त करने के लिए आवेदन कर सकते हैं । राष्ट्रीय कारियकारिणी के अनुमोदन के पश्चात्‌ ही किसी संगठन को सम्बद्धता प्रदान की जाती है ।

उद्देश्य

. देश के राष्ट्रीय विचारों के सभी क्षेत्रों के शिक्षकों को एक मंच पर लाने का प्रयास करना ।

. पूर्व प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक के समस्त शिक्षकों के शैक्षिक, आर्थिक एवं सामाजिक स्तर में सुधार लाना ।

. शिक्षक वर्ग की समस्याओं , कठिनाइयों को शासन के समक्ष रखना एवं उनका समाधान कराना ।

. देश में शिक्षा के स्वरूप को धार्मिक संस्कृति एवं राष्ट्रीय जीवनधारा के अनुरूप बनाने का कार्य करना ।

. शिक्षा की नीति निर्धारण, प्रबन्ध व्यवस्था एवं नियन्त्रण में शिक्षकों की उचित भागीदारी सुनिश्चित कराना तथा शिक्षा को गैर शैक्षिक प्रशासनिक नियन्त्रण से मुक्त कराना ।

. विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता को अक्षुण्ण रखना ।

. शिक्षकों में राष्ट्र, समाज तथा धार्मिक मूल्यों के प्रति कर्तव्य की भावना जागृत करना ।

. शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शासन द्वारा निर्धारित की जाने वाली नीतियों में अपेक्षित सुधार

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लाने हेतु सुझाव देना ।

. शिक्षा के क्षेत्र में शोध, अनुसंधान व नवाचार को प्रात्सोहित करना एवं श्रेष्ठ धार्मिक शिक्षा व्यवस्था के प्रति वैश्विक दृष्टि विकसित करना ।

. विश्व के अन्य देशों में कार्य करने वाले शिक्षक संगठनों से सम्पर्क स्थापित करना ।

. असाधारण एवं उत्कृष्ट कार्य करने वाले शिक्षकों का सम्मान करना ।

. उत्कृष्ट साहित्य एवं पत्रिका प्रकाशन का कार्य करना |

. शिक्षा के विभिन्न विषयों पर विचार गोष्टियाँ, परिसंवाद, भाषणमाला, शिबिर, प्रदर्शनी, यात्राएँ, सम्मेलन आदि कार्यों की योजना करना ।

. सामाजिक समरसता बढ़ाने, छात्रों, अभिभावकों एवं समाज के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करना |

. विषय-विशेषज्ञों की संदर्भ सूची का निर्धारण कर, उन्हें परस्पर जोड़ना ।

. विद्वरत परिषद्‌ का गठन करना ।

कार्यक्रम

. प्रतिवर्ष १२ जनवरी (स्वामी विवेकानन्द जयन्ती) से लेकर २३ जनवरी (नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जयन्ती) तक कर्तव्य बोध दिवस (संकल्प दिवस) मनाना ।

. धार्मिक नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को राष्ट्रीय स्वाभिमान दिवस के रूप में समारोहपूर्वक मनाना ।

. गुरूपूर्णिमा पर गुरु वन्दन के रूप में धार्मिक शिक्षक परंपरा के प्रकाश में कार्यक्रम करना तथा शैक्षिक दृष्टि से असाधारण एवं उत्कृष्ट कार्य करने वाले शिक्षकों को सम्मानित व पुरस्कृत करना ।

. शिक्षा के किसी एक विषय को लेकर प्रतिवर्ष सम्पूर्ण देश में जनजागरण अभियान चलाना ।

. विषय-विशेषज्ञों की संदर्भ सूची केन्द्र स्तर पर तैयार करना एवं उसका उचित उपयोग करना ।

. समसामयिक विषयों पर सम्पूर्ण देश में संगोष्ठी, कार्यशालाएँ, भाषणमाला एवं परिसंवाद आयोजित करना ।

. शैक्षिक विषयों पर पुस्तकों का प्रकाशन, शैक्षिक मंथन मासिक पत्रिका का नियमित प्रकाशन तथा राज्यों द्वारा मासिक/पाक्षिक पत्रिकाओं का प्रकाशन करना ।

. शिक्षकों की समस्याओं के समाधान के लिये सभी प्रकार के कार्यक्रम आयोजित करना एवं शक्ति प्रदर्शन करना ।

. शासन द्वारा निर्धारित की जाने वाली शिक्षक विषयक नीतिओं पर महासंघ का पक्ष प्रस्तुत करना ।

. कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए संभाग, प्रदेश एवं राष्ट्रीय स्तर पर कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग आयोजित करना ।

. विश्वविद्यालय, प्रदेश एवं अखिल धार्मिक स्तर पर शिक्षकों के सम्मेलन आयोजित करना ।

. संवर्गश : (यथा प्राथमिक संवर्ग, माध्यमिक संवर्ग, उच्च शिक्षा संवर्ग तथा महिला संवर्ग) सम्मेलन आयोजित करना ।

. शिक्षा क्षेत्र में राष्ट्रभाव की जाग्रति के लिए वैचारिक कार्यक्रमों का आयोजन करना ।

. शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों एवं सम्बद्ध शिक्षक संगठनों द्वारा समाज सेवा के कार्य करना ।

. शिक्षा के व्यावसायीकरण को रोकने के लिए सार्थक कदम उठाना ।

आगामी योजना

. महिला संवर्ग की सक्रियता बढ़ाने एवं विभिन्न कार्यक्रमों में उनके सहभाग को बढ़ाने का कार्य करना ।

. प्रत्येक राज्य में राज्य स्तरीय महिला सम्मेलनों तथा राज्यस्तरीय महिला कार्यकर्ता अभ्यासवर्ग का आयोजन करना । मेट्रो शहरों में महिला कार्यकर्ता बैठकें आयोजित करना ।

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को पुष्ट करना, प्रचारित तथा प्रसारित करना |

. धार्मिक भाषाओं में प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्चतम कक्षाओं तथा अनुसंधान के लिये सभी विषयों की पुस्तकें तैयार कराना ।

. धार्मिक भाषाओं के संवर्धन के लिये धार्मिक भाषा अनुसंधान केन्द्र स्थापित करना ।

. देश में धार्मिक भाषाओं को उचित स्थान दिलाने के लिए पूर्णसमर्पित कार्यकर्ताओं की टोली तैयार करना |

. राष्ट्रीय एवं प्रदेश स्तर पर धार्मिक भाषा सम्बन्धित संगोष्ठियाँ एवं परिचर्चाएँ आयोजित करना तथा भाषा शाख्रियों, शिक्षाविदों एवं विचारकों का सहयोग एवं परामर्श प्राप्त करना ।

. भारत सरकार की धार्मिक भाषाओं की योजनाओं एवं कार्यक्रमों में आवश्यक सहयोग एवं परामर्श प्रदान करना |

. धार्मिक भाषाओं के माध्यम से वैकल्पिक संस्चना स्थापित करने के लिये विधिवत कार्य करना ।

. प्रदर्शनियों , संगोष्टियों, . प्रवचनों, _ दृश्य-मुद्रिकाओं (वीडियो कैसेट), प्रकाशन तथा भाषण-मालाओं के माध्यम से जन-जागरण तथा सामाजिक दायित्व-बोध जगाना और उनमें इस कार्य हेतु सर्वाधिक सहयोग तथा सहायता प्राप्त करना ।

. उक्त उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ऐसे सभी विधि सम्मत कार्य करना जो न्यासियों की दृष्टि में आवश्यक हों ।

३. उद्देश्यपूर्ति हेतु अपनाई गई पद्धति

. न्यास का स्पष्ट मानना है कि अकेले के प्रयास से यह कार्य संभव नहीं है। इस हेतु विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं के साथ मिलकर संयुक्त रूप से कार्य करना ।

. शिक्षा में विभिन्न विषयों पर अच्छे कार्य करने वाली संस्थाएँ एक मंच पर आकर सामूहिक प्रयास को आगे बढ़ाना ।

. न्यास का मानना है कि किसी भी क्षेत्र में परिवर्तन का बाहर से किया गया प्रयास सफल नहीं हो सकता । इस हेतु वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से अन्दर से ही परिवर्तन का प्रयास प्रारम्भ हो, जिसमें हमारी सहयोगात्मक भूमिका रहे। इस हेतु निजी एवं सरकारी शैक्षिक संस्थानों के ऐसे दोनों स्तरों पर प्रयास किये जा रहे है ।

४. संख्यात्मक जानकारी

शासकीय दृष्टि से १४ राज्यों तथा संघ की दृष्टि से २२ प्रांतों में न्यास का कार्य है । इसी प्रकार ११ प्रांतो में सम्पर्क है ।

५. प्रमुख कार्यक्रम

. चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व विकास

. वैद्कि गणित

. मातृभाषा / धार्मिक भाषा में शिक्षा

. मूल्य आधारित शिक्षा

. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति

. संघ लोकसेवा आयोग सहित प्रतियोगी परीक्षा पर कार्य

. शिक्षक शिक्षा पाठ्यक्रम

. प्रबंधन का धार्मिक दृष्टि से पाठ्यक्रम

. पर्यावरण शिक्षा

विस्तार : शिक्षा बचाओ आन्दोलन के नाम से शुरू हुआ यह कार्य निम्नांकित मंचों के द्वारा किया जा रहा है :

. शिक्षा बचाओ आन्दोलन

. शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास

. धार्मिक भाषा मंच

. धार्मिक भाषा अभियान

. शिक्षा स्वास्थ्य न्यास

इन आयामों के माध्यम से जो कार्य किया जा रहा है, उसका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित में है ।

धार्मिक भाषा मंच

धार्मिक भाषाओं के विकास एवं प्रचार-प्रसार हेतु

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देशव्यापी अभियान चलाने के लिए विगत २० दिसम्बर को धार्मिक भाषा मंच का गठन किया गया है । इस मंच में धार्मिक भाषा पर कार्य करने वाली संस्थाएँ एवं विद्वान एक मंच पर आकर कार्य करेगा तथा अभी तक धार्मिक भाषाओं को देश को खण्डित करने के कार्य में उपयोग किया गया है / जा रहा है उसके स्थान पर मंच धार्मिक भाषाओं को जोड़कर देश की एकता हेतु कार्य करेगा ।

धार्मिक भाषा अभियान

विधि एवं न्याय के क्षेत्र में धार्मिक भाषाओं को प्रतिष्ठित करने हेतु अधिवक्ताओं ने इस मंच का गठन किया है जिसके द्वारा न्यायलयों, विधि (Law) की शिक्षा एवं विघायन (Legislative) को अपना कार्यक्षेत्र बनाया है ।

संघ लोक सेवा आयोग (UPSC)

अपनी माँग के अनुसार संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा आई.ए.एस., आई.पी.एस. आदि की परीक्षाओं के पाठ्यक्रम की समीक्षा हेतु ७ विद्वानों की एक समिति का गठन किया गया है। न्यास के द्वारा, आई.पी.एस., आई.पी.एस. वर्तमान एवं पूर्व तथा इस परीक्षा व्यवस्था से जुड़े, शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोगों की बैठकें, गोष्ठियाँ करके सुझाव प्राप्त करके एक ज्ञापन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा गठित समिति को दिया गया है ।

धार्मिक भाषा मंच

लंबे समय से देश के भीतर और बाहर धार्मिक भाषा-प्रेमियों के बीच में धार्मिक भाषाओं को समृद्ध करने की दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर धार्मिक भाषाओं के लिए पूर्णतः समर्पित एक संगठन के गठन की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा था, जिसकी पृष्ठभूमि में भारत के विभिन्न राज्यों में धार्मिक भाषा-प्रेमियों के बीच अनेक संवाद और संगोष्टियाँ हुई, जिनमें गम्भीर चर्चा के पश्चात्‌ यह निर्णय लिया गया कि राष्ट्रीय स्तर पर “धार्मिक भाषा मंच' का गठन किया जाए, जो धार्मिक भाषाओं के हितों की रक्षा और समृद्धि हेतु कार्य करे ।

भाषा की आजादी ही हमारी वास्तविक आजादी है, 'निज भाषा की उन्नति ही सब प्रकार की उन्नति का आधार है' इस सूत्र को साकार करने तथा धार्मिक भाषाओं के विकास व प्रसार, दैनिक कार्यों में स्व-भाषा के प्रयोग को बढावा देने के लिए धार्मिक भाषा मंच का गठन दिनांक २०-१२-२०१५ को नई दिल्ली में किया गया । यह सर्व-विदित तथ्य है कि सभी धार्मिक भाषाओं की मूल वर्ण्माला, वाक्य विन्यास तथा वर्ण्य विषय, लगभग एक समान हैं, परन्तु गुलामी के कालखण्ड में ट्रविड-आर्य-भेद्‌ डालकर भाषाई वैमनस्य को बढ़ावा दिया गया, इसी वैमनस्य की खाई को पाटने के लिए धार्मिक भाषा मंच के रूप में यह पहल है ।

धार्मिक भाषा मंच के उद्देश्य व कार्य

धार्मिक भाषा मंच, प्रमुख रूप से निम्नलिखित विषयों /बिन्दुओं पर काम करेगा और आगे आवश्यकता पड़ने पर इस सूची में यथा-अपेक्षित कुछ-और बिन्दु/विषय जोड़े जा सकते हैं :

१. धार्मिक भाषाओं की वर्तमान स्थिति तथा उसमें सुधार व संवर्धन के उपाय करना ।

२. धार्मिक भाषाओं के लिए काम करने वाले सभी भाषा-प्रेमी व्यक्तियों, विद्वानों और संस्थाओं को एक मंच पर लाना तथा उनके मध्य सौहार्द एवं समन्वय स्थापित करना ।

३. प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा में (चिकित्सा, इंजीनियरी, प्रबंधन और तकनीकी शिक्षा सहित) सभी स्तरों पर शिक्षा का माध्यम, हिन्दी और धार्मिक भाषाएँ हों, इस दिशा में जागरूक रहकर प्रयास करना ।

४. सभी विश्वविद्यालयों, शिक्षा-संस्थानों के विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रवेश हेतु ली जाने वाली प्रवेश परीक्षाओं का माध्यम धार्मिक भाषाएँ हों, इस हेतु प्रयास करना ।

५. सभी प्रकार की प्रतियोगी और भर्ती परीक्षाओं का माध्यम हिन्दी और धार्मिक भाषाओं में हों, इस हेतु

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प्रयत्न करना ।

६, सभी शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों में शिक्षण-प्रशिक्षण का माध्यम हिन्दी और धार्मिक भाषाओं को बनवाने के लिए यत्न करना ।

७. विधि, न्याय और प्रशासन, सूचना प्रौद्योगिकी (ई- गवर्नेस, डिजिटल इंडिया और ऑनलाइन सेवा, आदि) ई.आर.पी.-९, सोफ्टवेयर के प्रयोग द्वारा उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में धार्मिक भाषाओं के प्रयोग को बढ़ाने के लिए यत्न करना ।

८. केन्द्र व राज्य सम्बन्धी विधायन कार्यों में हिन्दी और धार्मिक भाषाओं को लागू करवाने हेतु निरंतर प्रयत्न करना ।

९, उच्चतम न्यायालय में देश की राजभाषा में और उच्च न्यायालयों में राज्य की राजभाषाओं के प्रयोग की अनुमति हो, इस हेतु प्रयास करना ।

१०. केन्द्र एवं राज्यों के अर्ध-न्यायिक निकायों, न्यायाधिकरणों आदि में राजभाषा हिन्दी एवं संबंधित राज्यों में वहाँ की राजभाषा के प्रयोग का प्रावधान करवाना । जहाँ पहले से प्रावधान है, पर उसका पालन नहीं हो पा रहा है, वहाँ उसके पालन करवाने हेतु प्रयत्न करना ।

११. धार्मिक भाषाओं के संरक्षण व संवर्धन के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों, उनकी संस्थाओं व उपक्रमों आदि को सुझाव देना तथा इस दिशा में निरंतर जागरूक रहकर प्रयत्न करना ।

१२. केन्द्र स्तर पर देश की राजभाषा में तथा राज्य स्तर पर विभिन्न सरकारों व उनके कार्यालयों का समस्त कार्य उनकी राजभाषा में हो, इस दिशा में प्रयत्न करना ।

१३. धार्मिक भाषाओं के लिए कार्य करने वाले सक्रिय संगठनों व संस्थाओं को चिह्नित कर उनकी व उनके कार्यों की सूची बनाना व उनके उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता एवं समन्वय करना ।

१४. ऐसे कार्यों को चिह्नित करना, जो धार्मिक भाषाओं की उन्नति के लिए आवश्यक हैं, उनकी सूची बनाना, उन्हें करने या क्रियान्वित करवाने के लिए प्रयत्न करना ।

१५. विभिन्न विश्वविद्यालयों / संस्थाओं / संगठनों के द्वारा किये जाने वाले शैक्षिक एवं शोध कार्यों खासतौर से उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा, प्रबंधन शिक्षा, कृषि शिक्षा आदि क्षेत्रों में हिन्दी और धार्मिक भाषाओं के माध्यम से किये जा रहे शोध कार्यों को आगे बढ़ाना और उन्हें करवाने के लिये राज्य स्तर, केन्द्रीय स्तर पर प्रयत्न करना ।

१६. प्रदेश स्तर पर व प्रदेशों के भीतर भी धार्मिक भाषा मंच की शाखाएँ गठित करना / कराना और उनमें आपस में सहयोग, समन्वय स्थापित करने हेतु सहायता करना |

१७. धार्मिक भाषाओं के विकास के लिए तकनीकी यंत्रों , सूचना प्रौद्योगिकी के उपकरणों के विकास के आयामों में सहयोग एवं समन्वय करना तथा इस हेतु संबंधित संस्थाओं को प्रेरित करना ।

१८. सभी धार्मिक भाषाओं में परस्पर अनुवाद की प्रक्रिया को बढ़ाने हेतु प्रयास करना ।

हमारा मानना है कि उपर्युक्त सारे प्रयासों से देश में पुनः धार्मिक भाषाओं के पक्ष में वातावरण बना है एवं सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त हुए हैं । इसी लक्ष्य के साथ आगामी दिनों में देश-भर में जन-जागरण करने से प्राथमिक से लेकर उच्च एवं न्यायालय सहित सरकारी कार्य का माध्यम धार्मिक भाषाएँ बनें व इस दिशा में तेज गति से योजना-बद्ध ढंग से ठोस कार्य करने की दिशा में हम सब साथ मिलकर कदम से कदम मिलाकर यदि आगे बढ़ेंगे, तो हमें विश्वास है कि हम पुनः धार्मिक भाषाओं को देश में स्थापित करके भारत को एक समृद्ध व सशक्त राष्ट्र बना सकेंगे, जिसका सपना स्वतंत्रता के पुरोधाओं व राष्ट्र को समृद्ध करने की आकांक्षा वालों ने देखा था ।

सम्पन्न कार्य

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के द्वारा अभी तक राज्य स्तर पर कोलकाता, अहमदाबाद, राँची, ग्वालियर, नई दिल्ली, जालंधर, कानपुर, भोपाल, उज्जैन, मुम्बई,

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हैदराबाद, बैंगलोर, रोहतक, पुणे, लुधियाना, राठ, मथुरा, अलीगढ़, संभाजीनगर; राष्ट्रीय स्तर पर नागपुर, जयपुर, बिलासपुर, वाराणसी, हैदराबाद, झाँसी, ग्वालियर, रायपुर, भोपाल तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आस्ट्रेलिया तथा अमेरिका में विविध प्रकार के कार्यक्रमों (परिसंवाद, प्रशिक्षण, प्रास्ताविक व्याख्यान आदि) के आयोजन किए गए हैं ।

. देश के अधिकांश कोचिंग केन्द्रों में गणितीय ज्ञान को पुष्ठ करने में वैदिक गणित की विधियों का उपयोग विगत पच्चीस वर्षों से किया जा रहा है ।

. शासकीय स्तर पर १९९२ में सर्वप्रथम माध्यमिक शिक्षा परिषद उ.प्र. द्वारा माध्यमिक विद्यालयों के गणित के पाठ्यक्रम में वैदिक गणित का समावेश किया गया था ।

. २००४ में राजस्थान बोर्ड द्वारा विद्यालय स्तर पर वैदिक गणित का शुभास्भ किया गया था ।

. अब तक देश के मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तरांचल, छत्तीसगढ़ एवं महाराष्ट्र कुल ८ राज्यों में वैदिक गणित का कुछ मात्रा में पाठ्यक्रम में समावेश किया गया है ।

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास : एक परिचय

शिक्षा के क्षेत्र में अधुनातन एवं सार्थक विकल्प की आवश्यकता तथा अपरिहार्यता का परिणाम है - शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास । न्यास द्वारा चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास का पाठ्यक्रम तैयार किया गया है । जिसका उपयोग विद्यालयीन शिक्षा में प्रचुर मात्रा में हो रहा है । वैदिक गणित, पर्यावरण शिक्षा और मूल्य शिक्षा को लेकर राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर अनेक कार्यशालायें तथा संगोष्टियाँ आयोजित की गयी हैं व पाठ्यक्रमों की रचना की गयी है । न्यास का सुविचारित मत है कि शिक्षा स्वायत्त हो एवं शिक्षा का माध्यम धार्मिक भाषायें ही हों, इस दिशा में भी सफल प्रयोग किये गये हैं । प्राचीन उपलब्धियों तथा आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान का पूर्ण उपयोग करते हुए ऐसी शिक्षण प्रणाली को विकसित करना, जिससे

छात्रों का सर्वांगीण विकास हो और जीवन मूल्यों सहित शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति हो एवं राष्ट्र के पुनरुत्थान का सम्यक मार्ग प्रशस्त हो, यह सभी का प्रयास होना ही चाहिये ।

न्यास का उद्देश्य है -

. शिक्षा के क्षेत्र में देशव्यापी जन जागरण करना ।

. शिक्षा के माध्यम, पाठ्यक्रम, व्यवस्था, पद्धति एवं नीति में परिवर्तन करते हुए सक्षम विकल्प तैयार करना |

. शिक्षा के विविध विषयों हेतु वैकल्पिक पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकें तैयार करना ।

. अध्यापकों के प्रशिक्षण हेतु सामग्री निर्माण करना ।

. अभिभावकों के मार्गदर्शन हेतु संदर्भ साहित्य की रचना करना |

. विद्यालय    , शैक्षिक संस्थानों व शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत संगठनों को सक्रिय रूप से जोड़कर विकेन्द्रित एवं देशव्यापी प्रयास करना ।

. पूर्व प्रयासों को संकलित करके शिक्षा का प्रारूप तैयार करने हेतु स्वायत्त शिक्षा आयोग के गठन का मार्ग प्रशस्त करना |

. तैयार सामग्री को केन्द्र सरकार, राज्य सरकारें तथा निजी संस्थाएँ स्वीकार कर विद्यालयीन व प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में समाहित करें, ऐसा सदूप्रयत्न करना ।

. द्विमासिक पत्रिका शिक्षा उत्थान का प्रकाशन करना |

. शिक्षा जगत के स्वनामधन्य व मुूर्धन्य विद्वानों सम्मान करना |

शिक्षा स्वास्थ्य न्यास

शिक्षा स्वास्थ्य न्यास की आवश्यकता क्यो ?

देश में शिक्षा एवं स्वास्थ्य काफी महंगा हुआ है। इन दोनों क्षेत्रों में निजीकरण बढ़ा है । पूर्व में विभिन्न प्रकार के शैक्षिक संस्थान एवं चिकित्सालय सेवा भावी संस्थानों के माध्यम से चलाये जाते थे । पूर्व में हमारे देश में ये दोनों

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क्षेत्रों को सेवा के क्षेत्र माने गये थे । आज अधिकतर निजी क्षेत्र के संस्थान यानी व्यवसाय हो गया है ।

इसी प्रकार पूर्व में सरकारी शैक्षिक संस्थानों में भी शिक्षा की गुणवत्ता अच्छी थी इस लिये सभी प्रकार के छात्र उन संस्थानों में पढ़ाई करते थे । पिछले कुछ वर्षों से क्रमशः उनका स्तर इतना गिर गया की आज गरीब से गरीब व्यक्ति भी सरकारी विद्यालयों में अपने बालक को पढ़ाना नहीं चाहते ।

इन कारणों से अच्छी शिक्षा एवं चिकित्सा आम, गरीब एवं मध्यम वर्ग की पहुँच से बहार हो गई है । इन परिस्थितियों में समाज अपना कुछ योगदान देकर आवश्यकता वाले छात्रों / लोगों का सहयोग कर सके इस हेतु से यह न्यास का समाज के ही कुछ सेवाभावी लोगों ने गठन किया है ।

न्यास का कार्य

. पिछड़ी बस्ती, जनजातीय क्षेत्रों में विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों को सहायता करना |

. उच्च शिक्षा हेतु अधिक राशि की आवश्यकता वाले छात्रों को ऋण (लोन) के रूप में बिना ब्याज सहायता देना ।

. आर्थिक दृष्टि से अक्षम लोगों को चिकित्सा हेतु विभिन्न स्वरूप में मदद करना ।

. इस हेतु कुछ निजी अस्पताल, चिकित्सालयों से सम्पर्क स्थापित करके वहाँ अस्वस्थ लोगों की व्यवस्था करना । एक प्रकार से अस्पताल एवं आर्थिक दृष्टि से अक्षम अस्वस्थ लोगों की कड़ी बनना ।

आप किस प्रकार सहयोग कर सकते है ?

. एक विद्यालय को एक वर्ष के लिये गोद लेना । इस हेतु एक वर्ष के लिये २४ हजार की राशि दान करना |

. उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु जिन छात्रों को लोन चाहिये, उनको बिना ब्याज लोन हेतु सहयोग करना |

. अगर आप डाक्टर है तो अपने चिकित्सालय में हर माह कुछ निश्चित संख्या में गरीब, अस्वस्थ लोगों को बिना शुल्क चिकित्सा उपलब्ध कराना । अपने सम्पर्क में इस प्रकार के डॉक्टर या अस्पताल हैं तो उनको इस कार्य में सहयोग करने हेतु प्रेरित करना ।