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(योगी श्रीअरविंद के नाना श्री राजनारायण की गणना अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करनेवाली प्रारंभिक बंगाली पीढ़ी में होती है । उन्होंने सन्‌ १८४५ में हिंदू कॉलेज, कोलकत्ता से अपनी शिक्षा पूर्ण की । कुछ समय तक वे भी हिंदू संस्कृति एवं परंपरा से संबंध-विच्छेद के प्रवाह में बहे; किंतु सौभाग्य से उन्हें रवींदट्रनाथ ठाकुर के पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर के ऋषितुल्य व्यक्तित्व ने आकर्षित कर लिया । देवेन्द्र बाबू के प्रभाव में आकर उन्होंने बंगाल की युवा पीढ़ी पर अंग्रेजी शिक्षा के दुष्परिणामों की गहरी समीक्षा की और राष्ट्रीय पुनर्जागरण के गंभीर प्रयास की आवश्यकता अनुभव की । इस प्रयास का आरंभ करने की दृष्टि से उन्होंने एक नई संस्था की स्थापना का विचार किया । इसका नामकरण उनहोंने सोचा “सोसाइटी फॉर द प्रोमोशन ऑफ नेशनल फीलिंग अमंग दि एजुकेटेड नोटिव्ज ऑफ बंगाल' (शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था) । सन्‌ १८६६ में उन्होंने इस प्रस्तावित संस्था की भावभूमि की स्पष्ट कल्पना देने के लिए एक प्रॉस्पेक्टस या उद्देश्यावली प्रकाशित की । उसी के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं ।)  
 
(योगी श्रीअरविंद के नाना श्री राजनारायण की गणना अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करनेवाली प्रारंभिक बंगाली पीढ़ी में होती है । उन्होंने सन्‌ १८४५ में हिंदू कॉलेज, कोलकत्ता से अपनी शिक्षा पूर्ण की । कुछ समय तक वे भी हिंदू संस्कृति एवं परंपरा से संबंध-विच्छेद के प्रवाह में बहे; किंतु सौभाग्य से उन्हें रवींदट्रनाथ ठाकुर के पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर के ऋषितुल्य व्यक्तित्व ने आकर्षित कर लिया । देवेन्द्र बाबू के प्रभाव में आकर उन्होंने बंगाल की युवा पीढ़ी पर अंग्रेजी शिक्षा के दुष्परिणामों की गहरी समीक्षा की और राष्ट्रीय पुनर्जागरण के गंभीर प्रयास की आवश्यकता अनुभव की । इस प्रयास का आरंभ करने की दृष्टि से उन्होंने एक नई संस्था की स्थापना का विचार किया । इसका नामकरण उनहोंने सोचा “सोसाइटी फॉर द प्रोमोशन ऑफ नेशनल फीलिंग अमंग दि एजुकेटेड नोटिव्ज ऑफ बंगाल' (शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था) । सन्‌ १८६६ में उन्होंने इस प्रस्तावित संस्था की भावभूमि की स्पष्ट कल्पना देने के लिए एक प्रॉस्पेक्टस या उद्देश्यावली प्रकाशित की । उसी के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं ।)  
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बंगाल में यूरोपीय विचारों का गहरा प्रवेश होने के फलस्वरूप बंगाली मानस शताब्दियों लंबी नींद में से जाग उठा है । बंगाली समाज में एक बेचैनी भरी हलचल प्रारंभ हो गई है । परिवर्तन और प्रगति की आकांक्षा सब ओर दिखाई दे रही है । पुराने रीति-रिवाजों और व्यवस्थाओं से असंतुष्ट लोग सुधार के लिए छटपटा रहे हैं । पहले ही युवकों की एक टोली हिंदू समाज से पूरी तरह नाता तोड़ने, यहाँ तक कि हिंदू नामों का परित्याग करने की इच्छा व्यक्त कर चुकी है । आशंका होने लगी है कि कहीं क्रांति का यह ज्वार अपने साथ उस सब अच्छाई को भी बहाकर न ले जाए जो हमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है । इस सर्वनाश को टालने एवं भावी सुधारों की जड़ों को राष्ट्रीय भूमि में बनाए रखने की दृष्टि से मेरा सुझाव है कि देश व समाज के प्रभावशाली सदस्य मिलकर एक ऐसी संस्था की स्थापना करें, जिसका मुख्य कार्य बंगाल के शिक्षित लोगों में राष्ट्रीय भावना का विकास करना रहेगा । राष्ट्रीय भाव को विकसित किए बिना कोई भी राष्ट्र महानता के शिखर पर नहीं पहुँच सकता । समूचा इतिहास इस सत्य का साक्षी है ।
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बंगाल में यूरोपीय विचारों का गहरा प्रवेश होने के फलस्वरूप बंगाली मानस शताब्दियों लंबी नींद में से जाग उठा है । बंगाली समाज में एक बेचैनी भरी हलचल प्रारंभ हो गई है । परिवर्तन और प्रगति की आकांक्षा सब ओर दिखाई दे रही है । पुराने रीति-रिवाजों और व्यवस्थाओं से असंतुष्ट लोग सुधार के लिए छटपटा रहे हैं । पहले ही युवकों की एक टोली हिंदू समाज से पूरी तरह नाता तोड़ने, यहाँ तक कि हिंदू नामों का परित्याग करने की इच्छा व्यक्त कर चुकी है । आशंका होने लगी है कि कहीं क्रांति का यह ज्वार अपने साथ उस सब अच्छाई को भी बहाकर न ले जाए जो हमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है । इस सर्वनाश को टालने एवं भावी सुधारों की जड़़ों को राष्ट्रीय भूमि में बनाए रखने की दृष्टि से मेरा सुझाव है कि देश व समाज के प्रभावशाली सदस्य मिलकर एक ऐसी संस्था की स्थापना करें, जिसका मुख्य कार्य बंगाल के शिक्षित लोगोंं में राष्ट्रीय भावना का विकास करना रहेगा । राष्ट्रीय भाव को विकसित किए बिना कोई भी राष्ट्र महानता के शिखर पर नहीं पहुँच सकता । समूचा इतिहास इस सत्य का साक्षी है ।
    
यह राष्ट्रीयता संचारिणी संस्था सर्वप्रथम हमारी राष्ट्रीय शारीरिक फ्रीडाओं व व्यायामों को पुनरुब्जीवित करने की दिशा में गंभीर प्रयास करेगी । राष्ट्रीयता संचारिणी संस्था हिंदू संगीत की शिक्षा देने के लिए एक आदर्श विद्यालय की स्थापना करेगी । राष्ट्रीयता संचारिणी संस्था हिंदू चिकित्सा- शास्त्र (आयुर्वेद) का विद्यालय स्थापित करेगी, जहाँ हिंदू वैद्यक शास्त्र एवं ओषधि विज्ञान को सभी वर्तमान विकृतियों एवं न्यूनताओं से शुद्ध करके सिखाया जाएगा । इस हिंदू चिकित्सा विद्यालय में ऐसे व्यक्ति को शिक्षक नियुक्त किया जाएगा, जिसे अंग्रेजी एवं हिंदी दोनों प्रकार के बैद्यक शास्त्रों का ज्ञान हो।
 
यह राष्ट्रीयता संचारिणी संस्था सर्वप्रथम हमारी राष्ट्रीय शारीरिक फ्रीडाओं व व्यायामों को पुनरुब्जीवित करने की दिशा में गंभीर प्रयास करेगी । राष्ट्रीयता संचारिणी संस्था हिंदू संगीत की शिक्षा देने के लिए एक आदर्श विद्यालय की स्थापना करेगी । राष्ट्रीयता संचारिणी संस्था हिंदू चिकित्सा- शास्त्र (आयुर्वेद) का विद्यालय स्थापित करेगी, जहाँ हिंदू वैद्यक शास्त्र एवं ओषधि विज्ञान को सभी वर्तमान विकृतियों एवं न्यूनताओं से शुद्ध करके सिखाया जाएगा । इस हिंदू चिकित्सा विद्यालय में ऐसे व्यक्ति को शिक्षक नियुक्त किया जाएगा, जिसे अंग्रेजी एवं हिंदी दोनों प्रकार के बैद्यक शास्त्रों का ज्ञान हो।
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श्री अरविंद कॉलेज से विदा
 
श्री अरविंद कॉलेज से विदा
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श्री अरविंद इन दिनों बंगाल नेशनल कॉलेज के प्रधानाचार्य के साथ-साथ अंग्रेजी दैनिक “बंदे मातरम्‌ के संपादक का दायित्व भी सँभाल रहे थे । समूचे स्वदेशी आंदोलन का वे केंद्र बन गए थे । ब्रिटिश सरकार उन्हें कानून के शिकंजे में फैंसाकर कारावास में दूँसने का अवसर ढूँढ रही थी । 'वंदे मातरम्‌' में प्रकाशित एक लेख को आधार बनाकर उनके विस्द्ध राजद्रोह का मुदूकमा चलाया गया । इस मुकदमे के आगे बढ़ने पर ऐसा लगने लगा कि शायद श्री अरविंद बच न सकेंगे और उन्हें सजा हो जाएगी । उस स्थिति में नेशनल कॉलेज पर किसी प्रकार की आँच न आने पावे, यह सोचकर श्री अरविंद ने अगस्त १९०७ में प्रिंसिपल पद से त्यागपत्र दे दिया । उनके इस पत्र से छात्रों, अध्यापकों व संचालकों को बहुत परेशानी हुई और उन्होंने एक सभा में सरकार की दमन नीति की निंदा करते हुए श्री अरविंद से अपना त्यागपत्र वापस लेने की प्रार्थना की । किंतु वे अटल रहे। अतः २२ अगस्त, १९०७ को उनको अश्रुपूरित भावभीनी विदाई दी गई । इस अवसर पर अपने संक्षिप्त भाषण में श्री अरविंदने राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के बारे में अपनी उस समय की कल्पना को प्रस्तुत करते हुए कहा -
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श्री अरविंद इन दिनों बंगाल नेशनल कॉलेज के प्रधानाचार्य के साथ-साथ अंग्रेजी दैनिक “बंदे मातरम्‌ के संपादक का दायित्व भी सँभाल रहे थे । समूचे स्वदेशी आंदोलन का वे केंद्र बन गए थे । ब्रिटिश सरकार उन्हें कानून के शिकंजे में फैंसाकर कारावास में दूँसने का अवसर ढूँढ रही थी । 'वंदे मातरम्‌' में प्रकाशित एक लेख को आधार बनाकर उनके विस्द्ध राजद्रोह का मुदूकमा चलाया गया । इस मुकदमे के आगे बढ़ने पर ऐसा लगने लगा कि संभवतः श्री अरविंद बच न सकेंगे और उन्हें सजा हो जाएगी । उस स्थिति में नेशनल कॉलेज पर किसी प्रकार की आँच न आने पावे, यह सोचकर श्री अरविंद ने अगस्त १९०७ में प्रिंसिपल पद से त्यागपत्र दे दिया । उनके इस पत्र से छात्रों, अध्यापकों व संचालकों को बहुत परेशानी हुई और उन्होंने एक सभा में सरकार की दमन नीति की निंदा करते हुए श्री अरविंद से अपना त्यागपत्र वापस लेने की प्रार्थना की । किंतु वे अटल रहे। अतः २२ अगस्त, १९०७ को उनको अश्रुपूरित भावभीनी विदाई दी गई । इस अवसर पर अपने संक्षिप्त भाषण में श्री अरविंदने राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के बारे में अपनी उस समय की कल्पना को प्रस्तुत करते हुए कहा -
    
'जिस समय हमने इस कॉलेज की स्थापना की और अपने अन्य धंधों व जीवन के अवसरों को लात मारकर अपने जीवनों को इस संस्था के प्रति समर्पित करने का संकल्प लिया, तब हमने आशा की थी कि इस संस्था के रूप में एक नए राष्ट्र, एक नए भारत की आधारशिला रख रहे हैं। हमने कभी यह इच्छा नहीं की कि केवल कुछ जानकारियाँ आपके दिमागों में दूस दें अथवा जीविकार्जन के लुभावने अवसर आपको उपलब्ध करा दें; बल्कि हमारी इच्छा रही है कि आप में से मातृभूमि के ऐसे सपूत पैदा करें जो उसके लिए जीवित रहें और कष्ट उठाएँ ।'  
 
'जिस समय हमने इस कॉलेज की स्थापना की और अपने अन्य धंधों व जीवन के अवसरों को लात मारकर अपने जीवनों को इस संस्था के प्रति समर्पित करने का संकल्प लिया, तब हमने आशा की थी कि इस संस्था के रूप में एक नए राष्ट्र, एक नए भारत की आधारशिला रख रहे हैं। हमने कभी यह इच्छा नहीं की कि केवल कुछ जानकारियाँ आपके दिमागों में दूस दें अथवा जीविकार्जन के लुभावने अवसर आपको उपलब्ध करा दें; बल्कि हमारी इच्छा रही है कि आप में से मातृभूमि के ऐसे सपूत पैदा करें जो उसके लिए जीवित रहें और कष्ट उठाएँ ।'  
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==== नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? ====
 
==== नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? ====
इस विश्लेषण के पश्चात्‌ श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि नई शिक्षा-प्रणाली सफल नहीं हो सकी तो उसका एक कारण तो यह था कि उसके अध्यापकों को नई प्रणाली की आवश्यकताओं का सम्यक्‌ बोध नहीं था, दूसरा यह था कि “उसके नियंत्रणकर्ता एवं निर्देशकगण पुरानी (अंग्रेजी) शिक्षा-प्रणाली की मान्यताओं से चिपके हुए थे ।' उन्होंने कहा कि “इस प्रयोग ने अपने लिए ‘usta’ नाम धारण तो कर लिया, किंतु इसमें पूर्वजों की महान्‌ उपलब्धियों की आधारशिला अर्थात्‌ ज्ञान के उपकरणों के चरम विकास के सिद्धांत की पूर्ण उपेक्षा की गई ।' श्री अरविंद ने अंत में लिखा - “हमारा यह कहना कदापि नहीं है कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली के बाह्य रूप को ज्यों-का- त्यों पुनरुज्जीवित किया जाए, जैसा कि अतीत के अनेक भावुक भक्त माँग करते देखे जाते हैं, क्योंकि प्राचीन शिक्षा- पद्धति की अनेक बातें आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं; किंतु उसके मूलभूत सिद्धांत सब कालों के लिए समान रूप से लागू होते हैं और जब तक उससे अधिक प्रभावकारी शिक्षा-पद्धति का आविष्कार नहीं होता तब तक उसे त्यागना उचित नहीं है । निश्चय ही यूरोपीय शिक्षा-पद्धति हमें वह विकल्प प्रदान नहीं करती ।'
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इस विश्लेषण के पश्चात्‌ श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि नई शिक्षा-प्रणाली सफल नहीं हो सकी तो उसका एक कारण तो यह था कि उसके अध्यापकों को नई प्रणाली की आवश्यकताओं का सम्यक्‌ बोध नहीं था, दूसरा यह था कि “उसके नियंत्रणकर्ता एवं निर्देशकगण पुरानी (अंग्रेजी) शिक्षा-प्रणाली की मान्यताओं से चिपके हुए थे ।' उन्होंने कहा कि “इस प्रयोग ने अपने लिए ‘usta’ नाम धारण तो कर लिया, किंतु इसमें पूर्वजों की महान‌ उपलब्धियों की आधारशिला अर्थात्‌ ज्ञान के उपकरणों के चरम विकास के सिद्धांत की पूर्ण उपेक्षा की गई ।' श्री अरविंद ने अंत में लिखा - “हमारा यह कहना कदापि नहीं है कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली के बाह्य रूप को ज्यों-का- त्यों पुनरुज्जीवित किया जाए, जैसा कि अतीत के अनेक भावुक भक्त माँग करते देखे जाते हैं, क्योंकि प्राचीन शिक्षा- पद्धति की अनेक बातें आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं; किंतु उसके मूलभूत सिद्धांत सब कालों के लिए समान रूप से लागू होते हैं और जब तक उससे अधिक प्रभावकारी शिक्षा-पद्धति का आविष्कार नहीं होता तब तक उसे त्यागना उचित नहीं है । निश्चय ही यूरोपीय शिक्षा-पद्धति हमें वह विकल्प प्रदान नहीं करती ।'
    
युगानुकूल पद्धति की खोज
 
युगानुकूल पद्धति की खोज
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==== ताड़ना नहीं, सहानुभूति ====
 
==== ताड़ना नहीं, सहानुभूति ====
हमें विधायक विचार सामने रखने चाहिये । निषेधात्मक विचार लोगों को दुर्बल बना देते हैं । क्या तुमने यह नहीं देखा कि जहाँ माता-पिता पढ़ने-लिखने के लिए अपने बालकों के सदा पीछे लगे रहते हैं और कहा करते हैं कि तुम कभी कुछ सीख नहीं सकते, तुम गधे बने रहोगे - वहाँ बालक यथार्थ में वैसे ही बन जाते हैं । यदि तुम उनसे सहानुभूति भरी बातें करो और उन्हें उत्साह दो तो समय पाकर उनकी उन्नति होना निश्चित है । यदि तुम उनके सामने विधायक विचार रखो तो उनमें मनुषत्व आएगा और वे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखेंगे । भाषा और साहित्य,
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हमें विधायक विचार सामने रखने चाहिये । निषेधात्मक विचार लोगोंं को दुर्बल बना देते हैं । क्या तुमने यह नहीं देखा कि जहाँ माता-पिता पढ़ने-लिखने के लिए अपने बालकों के सदा पीछे लगे रहते हैं और कहा करते हैं कि तुम कभी कुछ सीख नहीं सकते, तुम गधे बने रहोगे - वहाँ बालक यथार्थ में वैसे ही बन जाते हैं । यदि तुम उनसे सहानुभूति भरी बातें करो और उन्हें उत्साह दो तो समय पाकर उनकी उन्नति होना निश्चित है । यदि तुम उनके सामने विधायक विचार रखो तो उनमें मनुषत्व आएगा और वे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखेंगे । भाषा और साहित्य,
    
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आज भारत की शिक्षा को न केवल “राष्ट्री' अपितु “राष्ट्र-विधायिका' होना है । हम देख चुके हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा किसे कहते हैं, एक ऐसा प्रशिक्षण, जिसमें अपने स्वत्व का विशिष्ट रंग रहता है और जो प्रारंभ में तो बच्चे का उसके संपूर्ण परिचित-परिवेश के माध्यम से उसके घर और अपने देश के साथ संबंध-सूत्र जोड़ता है, परंतु जो अंत में उसको इन सब सीमाओं से “सर्वमुक्त' बना देता है अर्थात्‌ सच्चे अर्थों में सार्वदेशिक एवं वैश्विक । सभी देशों में स्वस्थ शिक्षा के लिए यह अनिवार्य शर्त है, भले ही वहाँ की राजनीतिक स्थिति अथवा विकास का स्तर कैसा भी हो । ये सामान्य कथन इंग्लैंड और फ्रांस के लिए उतने ही सत्य हैं जितने भारत के लिए और वैभव-काल में भी उतने ही सुसंगत हैं जितने संकट-काल में ।
 
आज भारत की शिक्षा को न केवल “राष्ट्री' अपितु “राष्ट्र-विधायिका' होना है । हम देख चुके हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा किसे कहते हैं, एक ऐसा प्रशिक्षण, जिसमें अपने स्वत्व का विशिष्ट रंग रहता है और जो प्रारंभ में तो बच्चे का उसके संपूर्ण परिचित-परिवेश के माध्यम से उसके घर और अपने देश के साथ संबंध-सूत्र जोड़ता है, परंतु जो अंत में उसको इन सब सीमाओं से “सर्वमुक्त' बना देता है अर्थात्‌ सच्चे अर्थों में सार्वदेशिक एवं वैश्विक । सभी देशों में स्वस्थ शिक्षा के लिए यह अनिवार्य शर्त है, भले ही वहाँ की राजनीतिक स्थिति अथवा विकास का स्तर कैसा भी हो । ये सामान्य कथन इंग्लैंड और फ्रांस के लिए उतने ही सत्य हैं जितने भारत के लिए और वैभव-काल में भी उतने ही सुसंगत हैं जितने संकट-काल में ।
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राष्ट्रभाव का सर्वोपरि अर्थ है - परहित चिंतन । उसकी जड़े जनसेवा व सशक्त नागरिक प्रवृत्ति में होती हैं । परंतु ये भारी भरकम शब्द भी 'सुयोजित निस्स्वार्थ भाव' का ही दूसरा नाम हैं । राष्ट्रनिर्माण के संस्कार बालक पर डालने की सर्वोत्तम विधि है कि घर के बड़े लोग उसे हर क्षण स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यापक लोक-कल्याण के लिए चिंतित दिखाई दें ।
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राष्ट्रभाव का सर्वोपरि अर्थ है - परहित चिंतन । उसकी जड़़े जनसेवा व सशक्त नागरिक प्रवृत्ति में होती हैं । परंतु ये भारी भरकम शब्द भी 'सुयोजित निस्स्वार्थ भाव' का ही दूसरा नाम हैं । राष्ट्रनिर्माण के संस्कार बालक पर डालने की सर्वोत्तम विधि है कि घर के बड़े लोग उसे हर क्षण स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यापक लोक-कल्याण के लिए चिंतित दिखाई दें ।
    
लोककल्याण की तीव्र इच्छा स्वयं एक उच्च जीवनलक्ष्य है । अवतारों के हृदयों में दुःखी मानवता के प्रति जगनेवाली अनंत करुणा उसी का रूप है । राष्ट्रनिर्माण के यही मूल एवं बीज तत्त्व हैं। “राष्ट्र तब बनता है जब प्रत्येक व्यक्ति समष्टि का अंग बन जाता है और जब समष्टि का प्रत्येक अंग अनमोल हो जाता है एवं जब समाज की तुलना में परिवार भी नगण्य प्रतीत होता है ।
 
लोककल्याण की तीव्र इच्छा स्वयं एक उच्च जीवनलक्ष्य है । अवतारों के हृदयों में दुःखी मानवता के प्रति जगनेवाली अनंत करुणा उसी का रूप है । राष्ट्रनिर्माण के यही मूल एवं बीज तत्त्व हैं। “राष्ट्र तब बनता है जब प्रत्येक व्यक्ति समष्टि का अंग बन जाता है और जब समष्टि का प्रत्येक अंग अनमोल हो जाता है एवं जब समाज की तुलना में परिवार भी नगण्य प्रतीत होता है ।
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हमें बालकों के चारों ओर राष्ट्र तथा देशप्रेम का वायुमंडल निर्माण करना चाहिए । उनकी निष्ठाओं का आधारबिंदु परिवार से बाहर होना चाहिए । हमें उनसे अपने भारत देश के लिए बलिदान, भारत के लिए भक्ति, भारत के लिए ज्ञान का आह्वान करना चाहिए । आदर्श स्वयं लक्ष्य हो; भारत का उत्थान भारत के लिए हो । यह भाव उनके जीवन में प्राण के समान व्याप्त हो । हमें उन्हें विद्यालय और घर दोनों में भारत के विषय में बताते रहना चाहिए ।
 
हमें बालकों के चारों ओर राष्ट्र तथा देशप्रेम का वायुमंडल निर्माण करना चाहिए । उनकी निष्ठाओं का आधारबिंदु परिवार से बाहर होना चाहिए । हमें उनसे अपने भारत देश के लिए बलिदान, भारत के लिए भक्ति, भारत के लिए ज्ञान का आह्वान करना चाहिए । आदर्श स्वयं लक्ष्य हो; भारत का उत्थान भारत के लिए हो । यह भाव उनके जीवन में प्राण के समान व्याप्त हो । हमें उन्हें विद्यालय और घर दोनों में भारत के विषय में बताते रहना चाहिए ।
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राष्ट्र के पुननिर्माण की प्रक्रिया का आरंभ उसके arent की व्याख्या से करना होगा । यह अतः कि राष्ट्र में हमें तीन मूलभूत तत्त्वों का विचार करना है पहला देश अथवा क्षेत्र, दूसरा हमारा समाज और तीसरा राष्ट्रमानस । इनमें से अंतिम सर्वाधिक प्रभावशाली और सर्वनिदेशक है । उसको शक्तिशाली बनाकर हम शेष किसी एक या दोनों तत्त्वों में संशोधन, यहाँ तक कि उसकी पुरनरचना भी कर सकते हैं, जबकि इन दोनों तत्त्वों का उस पर प्रभाव अपेक्षाकृत क्षीण तथा अप्रत्यक्ष है । मनोशक्ति के द्वारा तो चाहे जितनी जड़ एवं दिद्रोही वस्तु का भी कायाकल्प
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राष्ट्र के पुननिर्माण की प्रक्रिया का आरंभ उसके arent की व्याख्या से करना होगा । यह अतः कि राष्ट्र में हमें तीन मूलभूत तत्त्वों का विचार करना है पहला देश अथवा क्षेत्र, दूसरा हमारा समाज और तीसरा राष्ट्रमानस । इनमें से अंतिम सर्वाधिक प्रभावशाली और सर्वनिदेशक है । उसको शक्तिशाली बनाकर हम शेष किसी एक या दोनों तत्त्वों में संशोधन, यहाँ तक कि उसकी पुरनरचना भी कर सकते हैं, जबकि इन दोनों तत्त्वों का उस पर प्रभाव अपेक्षाकृत क्षीण तथा अप्रत्यक्ष है । मनोशक्ति के द्वारा तो चाहे जितनी जड़़ एवं दिद्रोही वस्तु का भी कायाकल्प
    
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शिक्षाप्रणाली में अनेक तत्त्वों का विचार करना पड़ता है विशेष प्रकार की शिक्षण विधियों की खोज, विभिन्न प्रकार के ज्ञान का उपयुक्त मात्रा में आत्मसातीकरण और स्वयं मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण । निस्संदेह इन सब में यह अंतिम तत्त्व ही है । मनुष्य के अंदर भी उसके आदर्श ही सर्वोपरि निर्णायक तत्त्व होते हैं । किसी भी मनुष्य को ऐसा कुछ सिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है, जिसे सीखने को वह इच्छुक नहीं है । जिस लाभ को वह लेना ही नहीं चाहता, उसे उस पर लादना मुूर्खता है । शिक्षा का काम खान खोदने के समान है, वह भी ऊपरी सतह से आदर्शों से आरम्भ होता है ।
 
शिक्षाप्रणाली में अनेक तत्त्वों का विचार करना पड़ता है विशेष प्रकार की शिक्षण विधियों की खोज, विभिन्न प्रकार के ज्ञान का उपयुक्त मात्रा में आत्मसातीकरण और स्वयं मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण । निस्संदेह इन सब में यह अंतिम तत्त्व ही है । मनुष्य के अंदर भी उसके आदर्श ही सर्वोपरि निर्णायक तत्त्व होते हैं । किसी भी मनुष्य को ऐसा कुछ सिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है, जिसे सीखने को वह इच्छुक नहीं है । जिस लाभ को वह लेना ही नहीं चाहता, उसे उस पर लादना मुूर्खता है । शिक्षा का काम खान खोदने के समान है, वह भी ऊपरी सतह से आदर्शों से आरम्भ होता है ।
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पुराने आदर्शों के माध्यम से ही नए आदर्शों तक पहुँचा जा सकता है । “अज्ञात' की यात्रा 'ज्ञात' से ही आरम्भ होती है । वास्तव में एक तो “आदर्श' है और एक उसे अभिव्यक्ति देनेवाला कोई स्थूल रूप होता है ale हम उस आदर्श तक पहुँच गए तो समझ लो कि हमने अनंत को प्राप्त कर लिया । यहाँ सारी मानवता एक हो जाती है । यहां न कुछ पुराना है, न नया है; न अपना है, न पराया है । आदर्श को सीमाबद्ध करनेवाले स्थूल रूप भले ही नए पुराने हो सकते हैं, परंतु आदर्श स्वयं में “कालातीत' होता है । फिर भी “नए आदर्श' जैसी शब्दावली का एक विशिष्ट अर्थ होता है । उदाहरणार्थ, यूरोपीय काव्य में सगाई हो चुकी हुई कुमारी को महानता और दिव्यता प्रदान की गई है; धार्मिक काव्य पतितव्रता पत्नी का वैसा ही गुणगान करता है । ये दोनों ही परंपरागत रूप हैं, जिनके माध्यम से 'नारी की पवित्रता के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है । फिर भी किसी यूरोपीय रूपक के माध्यम से धार्मिक बालक की कल्पना को इस आदर्श तक ले जाना उसी प्रकार निष्फल रहेगा जिस प्रकार कि भारत में प्रचलित किसी रूपक के माध्यम से यूरोपीय बालक की कल्पना का उद्बुद्ध करना । परंतु जब शिक्षा के द्वारा कल्पना का उदात्तीकरण होकर नारीत्व के महान्‌ तथा दिव्य स्वरूप का दर्शन हो जाता है तो नए रूपों में भी उस आदर्श को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होगी । कोई प्रशिक्षित एवं विकसित हृदय टेनीसन अथवा ब्राउनिंग के काव्य को उसकी समस्त ऊँचाइयों व गहराइयों के साथ सुगमता से समझ सकेगा; परंतु इन Heat के माध्यम से किसी धार्मिक बालक के विकास का प्रयास करना भारी अपराध होगा । उसी प्रकार किसी यूरोपीय बालक को बीट्रिस या जॉन ऑफ आर्क के बजाय सीता और सातित्री के चरित्र के माध्यम से शिक्षा देना उतना ही मुूर्खतापूर्ण होगा यद्यपि वही बालक बड़ा होने पर पौर्वात्य नारी रत्नों के प्रति सहज सहानुभूति से अभिभूत होकर अपनी संस्कृति की गहराई को आँक सकेगा ।
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पुराने आदर्शों के माध्यम से ही नए आदर्शों तक पहुँचा जा सकता है । “अज्ञात' की यात्रा 'ज्ञात' से ही आरम्भ होती है । वास्तव में एक तो “आदर्श' है और एक उसे अभिव्यक्ति देनेवाला कोई स्थूल रूप होता है ale हम उस आदर्श तक पहुँच गए तो समझ लो कि हमने अनंत को प्राप्त कर लिया । यहाँ सारी मानवता एक हो जाती है । यहां न कुछ पुराना है, न नया है; न अपना है, न पराया है । आदर्श को सीमाबद्ध करनेवाले स्थूल रूप भले ही नए पुराने हो सकते हैं, परंतु आदर्श स्वयं में “कालातीत' होता है । तथापि “नए आदर्श' जैसी शब्दावली का एक विशिष्ट अर्थ होता है । उदाहरणार्थ, यूरोपीय काव्य में सगाई हो चुकी हुई कुमारी को महानता और दिव्यता प्रदान की गई है; धार्मिक काव्य पतितव्रता पत्नी का वैसा ही गुणगान करता है । ये दोनों ही परंपरागत रूप हैं, जिनके माध्यम से 'नारी की पवित्रता के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है । तथापि किसी यूरोपीय रूपक के माध्यम से धार्मिक बालक की कल्पना को इस आदर्श तक ले जाना उसी प्रकार निष्फल रहेगा जिस प्रकार कि भारत में प्रचलित किसी रूपक के माध्यम से यूरोपीय बालक की कल्पना का उद्बुद्ध करना । परंतु जब शिक्षा के द्वारा कल्पना का उदात्तीकरण होकर नारीत्व के महान‌ तथा दिव्य स्वरूप का दर्शन हो जाता है तो नए रूपों में भी उस आदर्श को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होगी । कोई प्रशिक्षित एवं विकसित हृदय टेनीसन अथवा ब्राउनिंग के काव्य को उसकी समस्त ऊँचाइयों व गहराइयों के साथ सुगमता से समझ सकेगा; परंतु इन Heat के माध्यम से किसी धार्मिक बालक के विकास का प्रयास करना भारी अपराध होगा । उसी प्रकार किसी यूरोपीय बालक को बीट्रिस या जॉन ऑफ आर्क के बजाय सीता और सातित्री के चरित्र के माध्यम से शिक्षा देना उतना ही मुूर्खतापूर्ण होगा यद्यपि वही बालक बड़ा होने पर पौर्वात्य नारी रत्नों के प्रति सहज सहानुभूति से अभिभूत होकर अपनी संस्कृति की गहराई को आँक सकेगा ।
    
राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या
 
राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या
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राष्ट्रीय शिक्षा की पहली और सर्वोपरि व्याख्या है कि वह राष्ट्रीय आदर्शों का ज्ञान व संस्कार देनेवाली शिक्षा है । परंतु हमें याद रखना चाहिए कि शिक्षा का अंतिम उद्देश्य “सहानुभूति एवं विवेकबुद्धि का उदात्तीकरण' है । विदेशी प्रणालियों के द्वारा इस लक्ष्य पर पहुंचना प्रायः संभव नहीं होता । अधिकतम लोगों के उदृत्तीकरण के कार्य को सरल और प्रभावकारी ढंग से संपन्न करने के लिए आवश्यक है कि सुपरिचित आदर्शों और रूपकों का सहारा लिया जाए । प्रत्येक छात्र की शिक्षा को एक सतत प्रक्रिया के रूप में आयोजित करना होगा, ताकि उसकी बाल्यावस्था के अनुभवों एवं बाद के अनुभवों के मध्य भारी दूरी न दिखाई दे। ऐसी दूरी से विचारों में संभ्रम पैदा होता है और यह वैचारिक भटकाव एक प्रकार से शैक्षिक प्रलय है । अतः राष्ट्रीय शिक्षा का तानाबाना परिचित परिवेश के आधार पर ही बुना जाना चाहिए। आदर्शों को सदैव हमारे अपने
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राष्ट्रीय शिक्षा की पहली और सर्वोपरि व्याख्या है कि वह राष्ट्रीय आदर्शों का ज्ञान व संस्कार देनेवाली शिक्षा है । परंतु हमें याद रखना चाहिए कि शिक्षा का अंतिम उद्देश्य “सहानुभूति एवं विवेकबुद्धि का उदात्तीकरण' है । विदेशी प्रणालियों के द्वारा इस लक्ष्य पर पहुंचना प्रायः संभव नहीं होता । अधिकतम लोगोंं के उदृत्तीकरण के कार्य को सरल और प्रभावकारी ढंग से संपन्न करने के लिए आवश्यक है कि सुपरिचित आदर्शों और रूपकों का सहारा लिया जाए । प्रत्येक छात्र की शिक्षा को एक सतत प्रक्रिया के रूप में आयोजित करना होगा, ताकि उसकी बाल्यावस्था के अनुभवों एवं बाद के अनुभवों के मध्य भारी दूरी न दिखाई दे। ऐसी दूरी से विचारों में संभ्रम पैदा होता है और यह वैचारिक भटकाव एक प्रकार से शैक्षिक प्रलय है । अतः राष्ट्रीय शिक्षा का तानाबाना परिचित परिवेश के आधार पर ही बुना जाना चाहिए। आदर्शों को सदैव हमारे अपने
    
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पहुँची है । हमारा चरित्र विदेशी आधार पर अंकुरित हुआ है । केवल बीज ही नहीं, गमला भी विदेशी है । हमारा पौरुष बरामदे में अमरबेल की तरह निराधार झूल रहा है, जिसकी जड़ें इस देश की वास्तविकता हमारे जीवन एवं हमारा समाज की पुरानी परंपराओं में कहीं नहीं है ।
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पहुँची है । हमारा चरित्र विदेशी आधार पर अंकुरित हुआ है । केवल बीज ही नहीं, गमला भी विदेशी है । हमारा पौरुष बरामदे में अमरबेल की तरह निराधार झूल रहा है, जिसकी जड़़ें इस देश की वास्तविकता हमारे जीवन एवं हमारा समाज की पुरानी परंपराओं में कहीं नहीं है ।
    
भारत में विगत काल में देशभक्ति का हास शिक्षा और राष्ट्रजीवन में इस विच्छेद्‌ के कारण ही हुआ है ।
 
भारत में विगत काल में देशभक्ति का हास शिक्षा और राष्ट्रजीवन में इस विच्छेद्‌ के कारण ही हुआ है ।
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हमारी शिक्षाप्रणाली का ढाँचा
 
हमारी शिक्षाप्रणाली का ढाँचा
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अपने इस देश में हम जो शिक्षाप्रणाली आरंभ करना चाहते हैं, उसमें उदार तथा विज्ञानसम्मत सांस्कृतिक शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा दोनों का योग रहेगा । नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशन ऑफ बंगाल (बंगाल की राष्ट्रीय शिक्षा परिषदू) के तत्त्वावधान में हमने पहले से ही जिस प्रणाली का ढाँचा तैयार किया है, उसमें भी उदार तथा वैज्ञानिक शिक्षा एवं तकनीकी प्रशिक्षण को साथसाथ मिलाया है । अन्य देशों में चाहे जो भी किया जा रहा हो, भारत में उदार तथा वैज्ञानिक शिक्षण से बिलकुल अलग करके केवल तकनीकी प्रशिक्षण को प्रस्थापित करना आत्मघाती होगा । हम मूलतः बुद्धिप्रधान राष्ट्र हैं और हम मात्र रोटीरोजी के लिए बौद्धिक जीवन का बलिदान नहीं कर सकते । आदमी केवल रोटी के लिए ही तो जिंदा नहीं रहता और न ही राष्ट्र केवल रोटी के लिए जीवित रहते हैं । किसी राष्ट्र के भावी भाग्य का निर्माण केवल साबुन के कारखाने तथा कपड़ा मिलें स्थापित करके नहीं होता । वास्तव में तो राष्ट्रकी आर्थिक उन्नति के लिए भी उदार तथा वैज्ञानिक शिक्षा अनिवार्य है । बुद्धि का प्रशिक्षण उदार शिक्षा एवं उदार संस्कारों से ही होता है। साथ ही तकनीकी विकास के लिए पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है । यह पदार्थज्ञान वैज्ञानिक शिक्षा द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । अतएव राष्ट्रीय शिक्षा की अपनी प्रणाली में हमने बारह वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए स्कूलों की छोटी कक्षाओं में तकनीकी प्रशिक्षण के साथ उदार तथा वैज्ञानिक शिक्षा का अनिवार्य सम्मिश्रण किया है। सामान्यतः उन कक्षाओं में जहाँ तक बारह वर्ष की आयु का बालक पहुँचता है, हम तकनीकी शिल्प नहीं सिखाते | इस कालावधि का पूरा उपयोग बालककी सहज बुद्धि का विकास करने, उसकी ग्रहणशक्ति को बढ़ाने एवं उसकी आँखों व हाथों को अधिक पुष्ट बनाने के लिए किया जाता है । इस काल में उनकी ज्ञानेंद्रियों के प्रशिक्षण की ओर भी ध्यान दिया जाता है । इंट्रियों के प्रशिक्षण के लिए उसे पदार्थों का सामान्य ज्ञान प्रदान किया जाता है । तेरहवें से चौदहवें वर्ष की आयु तक अर्थात्‌ दो वर्षों में इस प्रशिक्षित बुद्धि का और विकास हौता है एवं पदार्थज्ञान में और वृद्धि होती है । साथ ही हम उसे सिखाते हैं कि कैसे वह अपनी विकसित बुद्धि का दोनों कालखंडों में विशिष्ट वैज्ञानिक वातावरण में अर्जित पदार्थज्ञान पर प्रयोग करके किसीनकिसी विक्रय योग्य वस्तु का उत्पादन करें । और यह प्रशिक्षण क्रमशः आगे बढ़ता जाता है ।
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अपने इस देश में हम जो शिक्षाप्रणाली आरंभ करना चाहते हैं, उसमें उदार तथा विज्ञानसम्मत सांस्कृतिक शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा दोनों का योग रहेगा । नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशन ऑफ बंगाल (बंगाल की राष्ट्रीय शिक्षा परिषदू) के तत्त्वावधान में हमने पहले से ही जिस प्रणाली का ढाँचा तैयार किया है, उसमें भी उदार तथा वैज्ञानिक शिक्षा एवं तकनीकी प्रशिक्षण को साथसाथ मिलाया है । अन्य देशों में चाहे जो भी किया जा रहा हो, भारत में उदार तथा वैज्ञानिक शिक्षण से बिलकुल अलग करके केवल तकनीकी प्रशिक्षण को प्रस्थापित करना आत्मघाती होगा । हम मूलतः बुद्धिप्रधान राष्ट्र हैं और हम मात्र रोटीरोजी के लिए बौद्धिक जीवन का बलिदान नहीं कर सकते । आदमी केवल रोटी के लिए ही तो जिंदा नहीं रहता और न ही राष्ट्र केवल रोटी के लिए जीवित रहते हैं । किसी राष्ट्र के भावी भाग्य का निर्माण केवल साबुन के कारखाने तथा कपड़ा मिलें स्थापित करके नहीं होता । वास्तव में तो राष्ट्रकी आर्थिक उन्नति के लिए भी उदार तथा वैज्ञानिक शिक्षा अनिवार्य है । बुद्धि का प्रशिक्षण उदार शिक्षा एवं उदार संस्कारों से ही होता है। साथ ही तकनीकी विकास के लिए पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है । यह पदार्थज्ञान वैज्ञानिक शिक्षा द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । अतएव राष्ट्रीय शिक्षा की अपनी प्रणाली में हमने बारह वर्ष की आयु तक के बच्चोंं के लिए स्कूलों की छोटी कक्षाओं में तकनीकी प्रशिक्षण के साथ उदार तथा वैज्ञानिक शिक्षा का अनिवार्य सम्मिश्रण किया है। सामान्यतः उन कक्षाओं में जहाँ तक बारह वर्ष की आयु का बालक पहुँचता है, हम तकनीकी शिल्प नहीं सिखाते | इस कालावधि का पूरा उपयोग बालककी सहज बुद्धि का विकास करने, उसकी ग्रहणशक्ति को बढ़ाने एवं उसकी आँखों व हाथों को अधिक पुष्ट बनाने के लिए किया जाता है । इस काल में उनकी ज्ञानेंद्रियों के प्रशिक्षण की ओर भी ध्यान दिया जाता है । इंट्रियों के प्रशिक्षण के लिए उसे पदार्थों का सामान्य ज्ञान प्रदान किया जाता है । तेरहवें से चौदहवें वर्ष की आयु तक अर्थात्‌ दो वर्षों में इस प्रशिक्षित बुद्धि का और विकास हौता है एवं पदार्थज्ञान में और वृद्धि होती है । साथ ही हम उसे सिखाते हैं कि कैसे वह अपनी विकसित बुद्धि का दोनों कालखंडों में विशिष्ट वैज्ञानिक वातावरण में अर्जित पदार्थज्ञान पर प्रयोग करके किसीनकिसी विक्रय योग्य वस्तु का उत्पादन करें । और यह प्रशिक्षण क्रमशः आगे बढ़ता जाता है ।
    
तीन शाखाएँ
 
तीन शाखाएँ
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लोकशिक्षा संसद्‌
 
लोकशिक्षा संसद्‌
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खींद्रनाथ चाहते थे कि देश के ऐसे असंख्य लोगों के लिए भी उच्च शिक्षा सुलभ हो, जो धनाभाव के कारण स्कूलों और कॉलेजों में नहीं पढ़ पाते । उनके लिए वे देश में शिक्षा और परीक्षा के केंद्रों का जाल बिछा देना चाहते थे । अतएव उन्होंने सन्‌ १९३६ में लोकशिक्षा संसदू की स्थापना की । संसदू ने मैट्रीकुलेशन, इंटरमीडिएट तथा बी.ए. के समकक्ष आद्या, मध्या और उपाधि की परीक्षाएँ लेना आरंभ किया तथा बाद में पूर्वमैट्रीकुलेशन की भी परीक्षा चलाई ।
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खींद्रनाथ चाहते थे कि देश के ऐसे असंख्य लोगोंं के लिए भी उच्च शिक्षा सुलभ हो, जो धनाभाव के कारण स्कूलों और कॉलेजों में नहीं पढ़ पाते । उनके लिए वे देश में शिक्षा और परीक्षा के केंद्रों का जाल बिछा देना चाहते थे । अतएव उन्होंने सन्‌ १९३६ में लोकशिक्षा संसदू की स्थापना की । संसदू ने मैट्रीकुलेशन, इंटरमीडिएट तथा बी.ए. के समकक्ष आद्या, मध्या और उपाधि की परीक्षाएँ लेना आरंभ किया तथा बाद में पूर्वमैट्रीकुलेशन की भी परीक्षा चलाई ।
    
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पाठ्यक्रम में बँगला, प्रारंभिक हिंदी, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान, हाइजीन, सामान्य ज्ञान आदि विषय रखे गए थे ।
 
पाठ्यक्रम में बँगला, प्रारंभिक हिंदी, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान, हाइजीन, सामान्य ज्ञान आदि विषय रखे गए थे ।
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इसके तत्त्वावधान में उन्होंने सरल संक्षिप्त भाषा में सस्ती पुस्तकें प्रकाशित करने की व्यवस्था की, जिससे सामान्य ज्ञान का लोगों में विस्तार हो सके । इस लोकशिक्षा ग्रंथमाला के अंतर्गत उनके द्वारा लिखित पहला प्रकाशन “विश्व परिचय था, जो विज्ञान की पुस्तक थी । इसी प्रकार साहित्य, इतिहास, संस्कृति और विज्ञान पर अन्य अनेक ग्रंथों का प्रकाशन हुआ । जन शिक्षा के लिए किया गया यह उनका महत्त्वपूर्ण प्रयास था । उनका विश्वास था कि देश के उत्थान के लिए अधिकाधिक शिक्षा का प्रसार आवश्यक है ।
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इसके तत्त्वावधान में उन्होंने सरल संक्षिप्त भाषा में सस्ती पुस्तकें प्रकाशित करने की व्यवस्था की, जिससे सामान्य ज्ञान का लोगोंं में विस्तार हो सके । इस लोकशिक्षा ग्रंथमाला के अंतर्गत उनके द्वारा लिखित पहला प्रकाशन “विश्व परिचय था, जो विज्ञान की पुस्तक थी । इसी प्रकार साहित्य, इतिहास, संस्कृति और विज्ञान पर अन्य अनेक ग्रंथों का प्रकाशन हुआ । जन शिक्षा के लिए किया गया यह उनका महत्त्वपूर्ण प्रयास था । उनका विश्वास था कि देश के उत्थान के लिए अधिकाधिक शिक्षा का प्रसार आवश्यक है ।
    
विश्वभारती
 
विश्वभारती
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प्रत्यक्ष अनुभव
 
प्रत्यक्ष अनुभव
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गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचार किताबी ज्ञान पर आधारित नहीं थे । जनवरी १८९७ में गांधीजी दक्षिण आफ्रीका वापस लौटकर डरबन में अपने परिवार के साथ रहने लगे । उस समय उनके तीन बच्चे थे, जिनकी आयु क्रमशः दस, आठ और पाँच वर्ष थी । उनकी शिक्षा का प्रश्न जब उपस्थित हुआ तो सबसे पहले उनके मन में शिक्षा संबंधी विचार उठे । गांधीजी के शब्दों में - “बच्चे एक सुन्यवस्थित घर में कुदरती तौर पर जो शिक्षा ग्रहण करते हैं, वह छात्रावासों में मिलना असंभव है; अतः मैंने अपने बच्चों को अपने साथ रखा ।' कुछ धंधों के माध्यम से गांधीजी ने अपने बच्चों को शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया । सन्‌ १९०४ में गांधीजीने अपने साथियों के सहयोग से डरबन से १४ मील दूर एवं फीनिक्स स्टेशन से २.५ मील दूर २० एकड़ भूमि पर “फीनिक्स परिवार नाम से एक आश्रम की स्थापना की और वहाँ के बच्चों की शिक्षा- दीक्षा का प्रबंध किया । सन्‌ १९०९ में ट्रांससाल नामक स्थान पर “टॉल्स्टॉय आश्रम' की स्थापना करके गांधीजीने उपयोगी शिक्षा-पद्धति खोज निकालने का संकल्प लिया । फीनिक्स परिवार के अनुभव उनके पास थे ही । टॉल्स्टॉय आश्रम में उन्होंने अपनी दो मूलभूत धारणाओं को मूर्तरूप दिया । उनकी पहली धारणा यह थी कि सच्ची शिक्षा माता-पिता ही दे सकते हैं । अतः उन्होंने आश्रम में अपने को पिता के स्थान पर रखकर कार्यारिंभ किया । उनकी दूसरी धारणा थी कि सच्ची शिक्षा की नींव चरित्र-निर्माण है । अतः टॉल्स्टॉय आश्रम में चरित्र-निर्माण पर बल था ।
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गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचार किताबी ज्ञान पर आधारित नहीं थे । जनवरी १८९७ में गांधीजी दक्षिण आफ्रीका वापस लौटकर डरबन में अपने परिवार के साथ रहने लगे । उस समय उनके तीन बच्चे थे, जिनकी आयु क्रमशः दस, आठ और पाँच वर्ष थी । उनकी शिक्षा का प्रश्न जब उपस्थित हुआ तो सबसे पहले उनके मन में शिक्षा संबंधी विचार उठे । गांधीजी के शब्दों में - “बच्चे एक सुन्यवस्थित घर में कुदरती तौर पर जो शिक्षा ग्रहण करते हैं, वह छात्रावासों में मिलना असंभव है; अतः मैंने अपने बच्चोंं को अपने साथ रखा ।' कुछ धंधों के माध्यम से गांधीजी ने अपने बच्चोंं को शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया । सन्‌ १९०४ में गांधीजीने अपने साथियों के सहयोग से डरबन से १४ मील दूर एवं फीनिक्स स्टेशन से २.५ मील दूर २० एकड़ भूमि पर “फीनिक्स परिवार नाम से एक आश्रम की स्थापना की और वहाँ के बच्चोंं की शिक्षा- दीक्षा का प्रबंध किया । सन्‌ १९०९ में ट्रांससाल नामक स्थान पर “टॉल्स्टॉय आश्रम' की स्थापना करके गांधीजीने उपयोगी शिक्षा-पद्धति खोज निकालने का संकल्प लिया । फीनिक्स परिवार के अनुभव उनके पास थे ही । टॉल्स्टॉय आश्रम में उन्होंने अपनी दो मूलभूत धारणाओं को मूर्तरूप दिया । उनकी पहली धारणा यह थी कि सच्ची शिक्षा माता-पिता ही दे सकते हैं । अतः उन्होंने आश्रम में अपने को पिता के स्थान पर रखकर कार्यारिंभ किया । उनकी दूसरी धारणा थी कि सच्ची शिक्षा की नींव चरित्र-निर्माण है । अतः टॉल्स्टॉय आश्रम में चरित्र-निर्माण पर बल था ।
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गांधीजी जब भारत आए तो कुछ समय शांति निकेतन में रहने के बाद उन्होंने अहमदाबाद के समीप साबरमती आश्रम की स्थापना की । साबरमती आश्रम में उन्होंने उत्पादक उद्योगों की ओर बालकों का ध्यान आकृष्ट किया और साक्षरता के साथ-साथ किसी उद्योग को सीखने के लिए बालकों को प्रोत्साहित किया । साबरमती के बाद गांधीजी वर्धा जिले के सेवाग्राम में रहने लगे, यहाँ पर भी आश्रम के बच्चों पर उनके शिक्षा-प्रयोग चलते रहे ।
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गांधीजी जब भारत आए तो कुछ समय शांति निकेतन में रहने के बाद उन्होंने अहमदाबाद के समीप साबरमती आश्रम की स्थापना की । साबरमती आश्रम में उन्होंने उत्पादक उद्योगों की ओर बालकों का ध्यान आकृष्ट किया और साक्षरता के साथ-साथ किसी उद्योग को सीखने के लिए बालकों को प्रोत्साहित किया । साबरमती के बाद गांधीजी वर्धा जिले के सेवाग्राम में रहने लगे, यहाँ पर भी आश्रम के बच्चोंं पर उनके शिक्षा-प्रयोग चलते रहे ।
    
विद्यापीठों की श्रृंखला
 
विद्यापीठों की श्रृंखला
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दो वर्ष बाद जामिया पर आर्थिक संकट आ गया । राष्ट्रीयता का जोश कुछ ठंडा होने लगा । उस समय गांधीजी इसके “विजिटर' थे । उन्होंने हकीम साहब को हिम्मत दिलाई और उनकी प्रेरणा से सन्‌ १९२४ में जामिया को अलीगढ़ से दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया । कुछ समय पश्चात्‌ इसके कुलपति के रूप में डॉ. जाकिर हुसैन का आगमन हुआ और यह संस्था दिनानुदिन विकसित होती गई ।
 
दो वर्ष बाद जामिया पर आर्थिक संकट आ गया । राष्ट्रीयता का जोश कुछ ठंडा होने लगा । उस समय गांधीजी इसके “विजिटर' थे । उन्होंने हकीम साहब को हिम्मत दिलाई और उनकी प्रेरणा से सन्‌ १९२४ में जामिया को अलीगढ़ से दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया । कुछ समय पश्चात्‌ इसके कुलपति के रूप में डॉ. जाकिर हुसैन का आगमन हुआ और यह संस्था दिनानुदिन विकसित होती गई ।
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जामिया मिढ़लिया में गांधीजी के बेसिक शिक्षा के सिद्धांतों को मूर्तरूप देने का प्रयास किया गया । यही नहीं, आधुनिकतम शिक्षण-विधियों को अपनाने में जामिया को कोई झिझक नहीं हुई । प्रोजेक्ट मैथड पर उपयोगी कार्य हुआ । बच्चों का बैंक खोला गया, बच्चों की दुकान खोली
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जामिया मिढ़लिया में गांधीजी के बेसिक शिक्षा के सिद्धांतों को मूर्तरूप देने का प्रयास किया गया । यही नहीं, आधुनिकतम शिक्षण-विधियों को अपनाने में जामिया को कोई झिझक नहीं हुई । प्रोजेक्ट मैथड पर उपयोगी कार्य हुआ । बच्चोंं का बैंक खोला गया, बच्चोंं की दुकान खोली
    
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“बेसिक शिक्षा' अथवा “आधारभूत शिक्षा' या “बुनियादी शिक्षा' या बुनियादी तालीम' या “नई तालीम' के नाम से जानी गई इस शिक्षा के चार प्रमुख सिद्धांत हैं -
 
“बेसिक शिक्षा' अथवा “आधारभूत शिक्षा' या “बुनियादी शिक्षा' या बुनियादी तालीम' या “नई तालीम' के नाम से जानी गई इस शिक्षा के चार प्रमुख सिद्धांत हैं -
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१, सार्वभौम अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा - वर्धा सम्मेलन में पारित पहला प्रस्ताव था । “इस परिषदू की सम्मति में देश के सब बच्चों के लिए सात वर्षों की निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध होना चाहिए ।' वैसे वर्धा सम्मेलन के सत्ताईस वर्ष पूर्व गोपाल कृष्ण गोखले ने एक प्रस्ताव द्वारा प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने की माँग की थी और सन्‌ १९११ में उन्होंने इस आशय का एक बिल भी पेश किया था, जो पास नहीं हो सका था । सन्‌ १९१८-२० में विभिन्न प्रांतीय सरकारों ने प्राइमरी एजुकेशन एक्ट पास कर प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का अधिकार जिला परिषदों एवं नगर पालिकाओं को दे दिया; किंतु इससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ |
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१, सार्वभौम अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा - वर्धा सम्मेलन में पारित पहला प्रस्ताव था । “इस परिषदू की सम्मति में देश के सब बच्चोंं के लिए सात वर्षों की निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध होना चाहिए ।' वैसे वर्धा सम्मेलन के सत्ताईस वर्ष पूर्व गोपाल कृष्ण गोखले ने एक प्रस्ताव द्वारा प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने की माँग की थी और सन्‌ १९११ में उन्होंने इस आशय का एक बिल भी पेश किया था, जो पास नहीं हो सका था । सन्‌ १९१८-२० में विभिन्न प्रांतीय सरकारों ने प्राइमरी एजुकेशन एक्ट पास कर प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का अधिकार जिला परिषदों एवं नगर पालिकाओं को दे दिया; किंतु इससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ |
    
जिस समय बेसिक शिक्षा की कल्पना की गई उस समय देश परतंत्र था, अनेक अभिशापों से ग्रस्त था । धार्मिक गरीब, दुःखी व निरक्षर थे । प्राकृतिक साधनों से संपन्न यह देश विदेशियों की विलास-स्थली बना हुआ था । अपने ही देश में धार्मिक बच्चे पराए थे, परित्यक्त थे और उपेक्षित व दीन-हीन थे । इसका मूल कारण था व्यापक निरक्षरता व अशिक्षा । कुछ गिने-चुने लोग साक्षर एवं सचेत हो रहे थे; किंतु जब तक व्यापक रूप में जनता शिक्षित न हो तब तक विकास अवरुद्ध ही रहेगा । यह सब तभी संभव है जब कुछ समय तक की शिक्षा को अनिवार्य किया जाए। अंग्रेजी शिक्षा की तत्कालीन प्रणाली में अनिवार्यता नहीं थी । कुछ साधन-संपन्न लोग पढ़ाई का खर्च उठा सकने में समर्थ थे और वे ही शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। शेष अज्ञान तथा अंधकार में डूबे हुए थे । अतः अनिवार्यता के लिए यह आवश्यक था कि शिक्षा को निःशुल्क बनाया जाए । इसीलिए मूल प्रस्ताव के अनुसार सात वर्षों की शिक्षा को निःशुल्क एवं अनिवार्य बनाने का आग्रह किया गया । बाद में स्वतंत्र भारत में संविधान ने चौदह वर्ष की आयु तक के बालकों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा देने की घोषणा की ।
 
जिस समय बेसिक शिक्षा की कल्पना की गई उस समय देश परतंत्र था, अनेक अभिशापों से ग्रस्त था । धार्मिक गरीब, दुःखी व निरक्षर थे । प्राकृतिक साधनों से संपन्न यह देश विदेशियों की विलास-स्थली बना हुआ था । अपने ही देश में धार्मिक बच्चे पराए थे, परित्यक्त थे और उपेक्षित व दीन-हीन थे । इसका मूल कारण था व्यापक निरक्षरता व अशिक्षा । कुछ गिने-चुने लोग साक्षर एवं सचेत हो रहे थे; किंतु जब तक व्यापक रूप में जनता शिक्षित न हो तब तक विकास अवरुद्ध ही रहेगा । यह सब तभी संभव है जब कुछ समय तक की शिक्षा को अनिवार्य किया जाए। अंग्रेजी शिक्षा की तत्कालीन प्रणाली में अनिवार्यता नहीं थी । कुछ साधन-संपन्न लोग पढ़ाई का खर्च उठा सकने में समर्थ थे और वे ही शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। शेष अज्ञान तथा अंधकार में डूबे हुए थे । अतः अनिवार्यता के लिए यह आवश्यक था कि शिक्षा को निःशुल्क बनाया जाए । इसीलिए मूल प्रस्ताव के अनुसार सात वर्षों की शिक्षा को निःशुल्क एवं अनिवार्य बनाने का आग्रह किया गया । बाद में स्वतंत्र भारत में संविधान ने चौदह वर्ष की आयु तक के बालकों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा देने की घोषणा की ।
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भाषण देने को विद्धता की कसौटी मानते हैं । इसके विपरीत गांधीजी का साहस देखिए, उन्होंने सन्‌ १९१८ में अंग्रेज वायसराय के सामने हिंदी में भाषण दिया था । अंग्रेजी आतंक के उस वातावरण में उनका भाषण जिस साहस का प्रतीक था, उसका लेशमात्र भी आज के किसी राजनेता या शिक्षा-चिंतक में क्या दिखाई पड़ता है ? सन्‌ १९३१ में संयुक्त भारत के चैंबर ऑफ कोमर्स के कराची अधिवेशन में अंग्रेजीदाँ लोगों के सामने गांधीजी ने हिंदी में भाषण दिया था । दिसंबर १९१६ में कांग्रेस के इक्कीसवें अधिवेशन में लखनऊ में गांधीजी ने हिंदी में भाषण प्रारंभ किया कि इतने में मद्रासी प्रतिनिधियों ने “इंग्लिश प्लीज' की आवाज लगाई । उत्तर में गांधीजी ने कहा, “आपकी आज्ञा मुझे स्वीकार है, पर एक शर्त है - अगले साल की कांग्रेस तक आपको यह “लिंगुआ फ्रांका' (अर्थात्‌ हिंदी) अवश्य सीख लेनी चाहिए । देखिए, इसमें गलती या लापरवाही न हो ।' है ऐसा साहस आज के धार्मिक कर्णधारो में ? तब यदि बेसिक शिक्षा को आज तिलांजलि दे दी गई है तो क्या आश्चर्य ! आज गली-गली में, कस्बे में और प्रत्येक मुहट्ले में अंग्रेजी माध्यम के कॉन्‍न्वेंट स्कूल खोलने एवं उनमें अपने बच्चों को पढ़ाने की धार्मिक समाज में होड़ लगी हुई है । इतना अंग्रेजी-मोह तो परतंत्र भारत में भी नहीं था । राष्ट्रीयता की दृष्टि से हम आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे हटे हैं ।
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भाषण देने को विद्धता की कसौटी मानते हैं । इसके विपरीत गांधीजी का साहस देखिए, उन्होंने सन्‌ १९१८ में अंग्रेज वायसराय के सामने हिंदी में भाषण दिया था । अंग्रेजी आतंक के उस वातावरण में उनका भाषण जिस साहस का प्रतीक था, उसका लेशमात्र भी आज के किसी राजनेता या शिक्षा-चिंतक में क्या दिखाई पड़ता है ? सन्‌ १९३१ में संयुक्त भारत के चैंबर ऑफ कोमर्स के कराची अधिवेशन में अंग्रेजीदाँ लोगोंं के सामने गांधीजी ने हिंदी में भाषण दिया था । दिसंबर १९१६ में कांग्रेस के इक्कीसवें अधिवेशन में लखनऊ में गांधीजी ने हिंदी में भाषण प्रारंभ किया कि इतने में मद्रासी प्रतिनिधियों ने “इंग्लिश प्लीज' की आवाज लगाई । उत्तर में गांधीजी ने कहा, “आपकी आज्ञा मुझे स्वीकार है, पर एक शर्त है - अगले साल की कांग्रेस तक आपको यह “लिंगुआ फ्रांका' (अर्थात्‌ हिंदी) अवश्य सीख लेनी चाहिए । देखिए, इसमें गलती या लापरवाही न हो ।' है ऐसा साहस आज के धार्मिक कर्णधारो में ? तब यदि बेसिक शिक्षा को आज तिलांजलि दे दी गई है तो क्या आश्चर्य ! आज गली-गली में, कस्बे में और प्रत्येक मुहट्ले में अंग्रेजी माध्यम के कॉन्‍न्वेंट स्कूल खोलने एवं उनमें अपने बच्चोंं को पढ़ाने की धार्मिक समाज में होड़ लगी हुई है । इतना अंग्रेजी-मोह तो परतंत्र भारत में भी नहीं था । राष्ट्रीयता की दृष्टि से हम आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे हटे हैं ।
    
क्रिया-केंद्रित शिक्षा की विदेशों में भी मान्यता
 
क्रिया-केंद्रित शिक्षा की विदेशों में भी मान्यता

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