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अभिमान की संस्कार-धारा और पिता डॉ. कृष्णधन घोष के माध्यम से स्वदेश के प्रति वितृष्णा और पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अंधभक्ति की संस्कार-धारा । पिता की इच्छानुसार बालक अरविंद सात वर्ष की आयु में इंग्लैंड भेज दिए गए और एक अंग्रेज परिवार में रख दिए गए - इस निर्देश के साथ कि बालक का संबंध भारतीय संस्कारों में जरा भी नहीं आना चाहिए । फलतः संस्कृत तो क्या मातृभाषा बांगला से भी नाता नहीं था । अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा आरंभ हुई । ग्रीक, लैटिन एवं यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन किया । पश्चिम के श्रेष्ठतम ज्ञान-भंडार में अवगाहन किया । बाल्‍्य, किशोर व तरुणावस्था के १४ संस्कार-क्षम वर्ष विशुद्ध पाश्चात्य वातावरण में पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली के सर्वोत्तम प्रकाश में गुजारे । सन्‌ १८९३ में इक्कीस वर्ष की आयु में जब वे भारत वापस लौटे तो उन्हें एक प्रकार से पाश्चात्य संस्कृति की उपज ही कहा जा सकता था । किंतु भारत की धरती पर पहला कदम रखते ही उनका भारतीयत्व जाग उठा, मानो माता के माध्यम से प्राप्त नाना की संस्कार-धारा झटका देकर ऊपर आ गई । भारतीय चेतना के सामने पश्चिम पराजित हो गया । अरविंद ने बड़ौदा में रहकर बांगला सीखी, संस्कृत सीखी, योग-साधना आरंभ की, भारतीय ज्ञान गंगा में डुबकियाँ लगाईं । वे पश्चिम और पूर्व के सर्वोत्तम ज्ञान को जोड़नेवाले पुल बन गए । बड़ौदा के अंग्रेजी कॉलेज में पहले अंग्रेजी व फ्रेंच भाषाओं के अध्यापक बने, फिर वाइस प्रिंसिपल का दायित्व मिला और अंत में कार्यकारी प्रिंसिपल का अवसर मिला । इस प्रकार पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली का इंग्लैंड में शुद्ध रूप देखने के बाद उन्होंने भारत में उसका विकृत रूप भी देखा । दोनों प्रकार के अनुभवों से युक्त एक ऐसा व्यक्ति ही भारत के लिए राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली का सफल अन्वेषक बन सकता था।
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अभिमान की संस्कार-धारा और पिता डॉ. कृष्णधन घोष के माध्यम से स्वदेश के प्रति वितृष्णा और पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अंधभक्ति की संस्कार-धारा । पिता की इच्छानुसार बालक अरविंद सात वर्ष की आयु में इंग्लैंड भेज दिए गए और एक अंग्रेज परिवार में रख दिए गए - इस निर्देश के साथ कि बालक का संबंध धार्मिक संस्कारों में जरा भी नहीं आना चाहिए । फलतः संस्कृत तो क्या मातृभाषा बांगला से भी नाता नहीं था । अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा आरंभ हुई । ग्रीक, लैटिन एवं यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन किया । पश्चिम के श्रेष्ठतम ज्ञान-भंडार में अवगाहन किया । बाल्‍्य, किशोर व तरुणावस्था के १४ संस्कार-क्षम वर्ष विशुद्ध पाश्चात्य वातावरण में पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली के सर्वोत्तम प्रकाश में गुजारे । सन्‌ १८९३ में इक्कीस वर्ष की आयु में जब वे भारत वापस लौटे तो उन्हें एक प्रकार से पाश्चात्य संस्कृति की उपज ही कहा जा सकता था । किंतु भारत की धरती पर पहला कदम रखते ही उनका धार्मिकत्व जाग उठा, मानो माता के माध्यम से प्राप्त नाना की संस्कार-धारा झटका देकर ऊपर आ गई । धार्मिक चेतना के सामने पश्चिम पराजित हो गया । अरविंद ने बड़ौदा में रहकर बांगला सीखी, संस्कृत सीखी, योग-साधना आरंभ की, धार्मिक ज्ञान गंगा में डुबकियाँ लगाईं । वे पश्चिम और पूर्व के सर्वोत्तम ज्ञान को जोड़नेवाले पुल बन गए । बड़ौदा के अंग्रेजी कॉलेज में पहले अंग्रेजी व फ्रेंच भाषाओं के अध्यापक बने, फिर वाइस प्रिंसिपल का दायित्व मिला और अंत में कार्यकारी प्रिंसिपल का अवसर मिला । इस प्रकार पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली का इंग्लैंड में शुद्ध रूप देखने के बाद उन्होंने भारत में उसका विकृत रूप भी देखा । दोनों प्रकार के अनुभवों से युक्त एक ऐसा व्यक्ति ही भारत के लिए राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली का सफल अन्वेषक बन सकता था।
    
श्री अरविंद कॉलेज से विदा
 
श्री अरविंद कॉलेज से विदा
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प्राचीन शिक्षा-पद्धति के मूल तत्त्व
 
प्राचीन शिक्षा-पद्धति के मूल तत्त्व
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श्री अरविंद ने प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति के मूलाधारों की खोज का प्रयास शुरू किया । इस खोज के परिणामस्वरूप उन्होंने पाया कि केवल जानकारी देना शिक्षा का मुख्य अथवा प्रथम लक्ष्य नहीं है । उनके मतानुसार “जो शिक्षा केवल जानकारी देने तक अपने को सीमित रखती है वह सिक्षा कहलाने योग्य नहीं है ।' उन्होंने कहा कि 'हिंदू धारणा के अनुसार समस्त ज्ञान मनुष्य के भीतर विद्यमान है । शिक्षा का काम यह है कि वह ज्ञान को बाहर से ठूसने के बजाय अंदर से ज्ञान के जागरण की स्थिति उत्पन्न at | और इसका उपाय है - ज्ञान को आच्छादित करनेवाले तमोभाव का क्रमशः शमन करते हुए सतोगुण का उद्रेक करते जाना । सत्य का उद्रेक करने के लिए आवृत्ति, मनन और तत््व-चर्चा की त्रिविध प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए । इसकी चरम परिणति योग-शक्ति में होती है। यह योग-शक्ति ही अध्यात्म का दूसरा नाम है। पार्थिव शरीर को इस शक्ति का उपयुक्त आधार ब्रह्मचर्य के पालन से ही बनाया जा सकता है। इसीलिए प्राचीन शिक्षा-पद्धति में ब्रह्मचर्य पर अत्यधिक बल दिया गया था । ब्रह्मचर्य के पालन से ही उस ऊर्जा का जागरण संभव है जो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की सब आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है । ब्रह्मचर्य-पालन के फलस्वरूप मनुष्य शरीर के भीतर जो ऊर्जा उत्पन्न होती थी वह समस्त शारीरिक कर्मों को पूरा करके मस्तिष्क और आत्मा के उन्नयन में लग जाती थी । श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ब्रह्मचर्य और सात्तविक विकास में से ही भारत के मस्तिष्क का गठन हुआ है, जो योग-साधना के द्वारा पूर्णता को पा सका । उन्होंने कहा कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली में एक साथ अनेक विषयों की जानकारी को छात्र के मस्तिष्क में दूसने का प्रयास नहीं किया जाता था अपितु एक ही विषय को एक बार पुख्ता ढंग से पढ़ाया जाता था, जिसके फलस्वरूप छात्र की जानकारी का क्षेत्र सीमित रहते हुए भी उसकी नींव गहरी व मजबूत होती थी और उसकी स्मरण- शक्ति दृढ़ होती थी । उन्होंने कहा कि इन्हीं मुख्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांती के आधार पर प्राचीन भारतीय मनीषा ने अपनी शिक्षा-प्रणाली का ढाँचा खड़ा किया था । बाहर से जानकारी ढूसने के बजाय छात्र की आंतरिक शक्तियों का जागरण ही इस शिक्षा-प्रणाली का मुख्य लक्ष्य था ।
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श्री अरविंद ने प्राचीन धार्मिक शिक्षा-पद्धति के मूलाधारों की खोज का प्रयास शुरू किया । इस खोज के परिणामस्वरूप उन्होंने पाया कि केवल जानकारी देना शिक्षा का मुख्य अथवा प्रथम लक्ष्य नहीं है । उनके मतानुसार “जो शिक्षा केवल जानकारी देने तक अपने को सीमित रखती है वह सिक्षा कहलाने योग्य नहीं है ।' उन्होंने कहा कि 'हिंदू धारणा के अनुसार समस्त ज्ञान मनुष्य के भीतर विद्यमान है । शिक्षा का काम यह है कि वह ज्ञान को बाहर से ठूसने के बजाय अंदर से ज्ञान के जागरण की स्थिति उत्पन्न at | और इसका उपाय है - ज्ञान को आच्छादित करनेवाले तमोभाव का क्रमशः शमन करते हुए सतोगुण का उद्रेक करते जाना । सत्य का उद्रेक करने के लिए आवृत्ति, मनन और तत््व-चर्चा की त्रिविध प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए । इसकी चरम परिणति योग-शक्ति में होती है। यह योग-शक्ति ही अध्यात्म का दूसरा नाम है। पार्थिव शरीर को इस शक्ति का उपयुक्त आधार ब्रह्मचर्य के पालन से ही बनाया जा सकता है। इसीलिए प्राचीन शिक्षा-पद्धति में ब्रह्मचर्य पर अत्यधिक बल दिया गया था । ब्रह्मचर्य के पालन से ही उस ऊर्जा का जागरण संभव है जो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की सब आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है । ब्रह्मचर्य-पालन के फलस्वरूप मनुष्य शरीर के भीतर जो ऊर्जा उत्पन्न होती थी वह समस्त शारीरिक कर्मों को पूरा करके मस्तिष्क और आत्मा के उन्नयन में लग जाती थी । श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ब्रह्मचर्य और सात्तविक विकास में से ही भारत के मस्तिष्क का गठन हुआ है, जो योग-साधना के द्वारा पूर्णता को पा सका । उन्होंने कहा कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली में एक साथ अनेक विषयों की जानकारी को छात्र के मस्तिष्क में दूसने का प्रयास नहीं किया जाता था अपितु एक ही विषय को एक बार पुख्ता ढंग से पढ़ाया जाता था, जिसके फलस्वरूप छात्र की जानकारी का क्षेत्र सीमित रहते हुए भी उसकी नींव गहरी व मजबूत होती थी और उसकी स्मरण- शक्ति दृढ़ होती थी । उन्होंने कहा कि इन्हीं मुख्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांती के आधार पर प्राचीन धार्मिक मनीषा ने अपनी शिक्षा-प्रणाली का ढाँचा खड़ा किया था । बाहर से जानकारी ढूसने के बजाय छात्र की आंतरिक शक्तियों का जागरण ही इस शिक्षा-प्रणाली का मुख्य लक्ष्य था ।
    
==== नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? ====
 
==== नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? ====
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युगानुकूल पद्धति की खोज
 
युगानुकूल पद्धति की खोज
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अब श्री अरविंद के सामने प्रश्न खड़ा हुआ कि यदि यूरोपीय शिक्षाप्रणाली का अनुकरण नहीं करना और प्राचीन शिक्षा-पद्धति को भी ज्यों-का-त्यों पुनरुज्जीवित नहीं करना तो प्राचीन भारतीय शैक्षणिक सिद्धांतों के आधार पर युगानुकूल शिक्षा-प्रणाली का स्वरूप क्या हो ? इस प्रक्ष
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अब श्री अरविंद के सामने प्रश्न खड़ा हुआ कि यदि यूरोपीय शिक्षाप्रणाली का अनुकरण नहीं करना और प्राचीन शिक्षा-पद्धति को भी ज्यों-का-त्यों पुनरुज्जीवित नहीं करना तो प्राचीन धार्मिक शैक्षणिक सिद्धांतों के आधार पर युगानुकूल शिक्षा-प्रणाली का स्वरूप क्या हो ? इस प्रक्ष
    
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==== क्या शिक्षा 'राष्ट्रीय' हो सकती है ? ====
 
==== क्या शिक्षा 'राष्ट्रीय' हो सकती है ? ====
अब श्री अरविंद के सामने प्रश्न खड़ा हो जाता है कि यदि सबकुछ नया ही बनाना है, आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान को भी शिक्षा में समाविष्ट करना है तो नई शिक्षा-पद्धति में “राष्ट्रीय क्या रह जाता है ? इससे भी अगला प्रश्न खड़ा होता है कि क्‍या “शिक्षा' का कोई राष्ट्रीय संस्करण हो सकता है ? राष्ट्रीय शिक्षा के अब तक के प्रयोगों की असफलता से हताश व भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग अब तक तर्क का आश्रय लेने लगा था कि “राष्ट्रीय शिक्षा की अवधारणा ही मिथ्या है और संकीर्ण देशप्रेम का एक ऐसे क्षेत्र में अवांछनीय, अहितकर व अनधिकार प्रवेश है, जहाँ उसके लिए कोई वैध स्थान नहीं । यहां देश-प्रेम का बस इतना ही स्थान हो सकता है कि अच्छे नागरिक होने की शिक्षा दी जाए । और इस उद्देश्य के लिए अलग-अलग प्रकार की शिक्षा देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अच्छा नागरिक बनाने के शिक्षा के मूल तत्त्व सभी जगह एक से होंगे, चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम, इंग्लैंड हो या जर्मनी, जापान हो या हिंदुस्तान ।'
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अब श्री अरविंद के सामने प्रश्न खड़ा हो जाता है कि यदि सबकुछ नया ही बनाना है, आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान को भी शिक्षा में समाविष्ट करना है तो नई शिक्षा-पद्धति में “राष्ट्रीय क्या रह जाता है ? इससे भी अगला प्रश्न खड़ा होता है कि क्‍या “शिक्षा' का कोई राष्ट्रीय संस्करण हो सकता है ? राष्ट्रीय शिक्षा के अब तक के प्रयोगों की असफलता से हताश व धार्मिक बुद्धिजीवी वर्ग अब तक तर्क का आश्रय लेने लगा था कि “राष्ट्रीय शिक्षा की अवधारणा ही मिथ्या है और संकीर्ण देशप्रेम का एक ऐसे क्षेत्र में अवांछनीय, अहितकर व अनधिकार प्रवेश है, जहाँ उसके लिए कोई वैध स्थान नहीं । यहां देश-प्रेम का बस इतना ही स्थान हो सकता है कि अच्छे नागरिक होने की शिक्षा दी जाए । और इस उद्देश्य के लिए अलग-अलग प्रकार की शिक्षा देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अच्छा नागरिक बनाने के शिक्षा के मूल तत्त्व सभी जगह एक से होंगे, चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम, इंग्लैंड हो या जर्मनी, जापान हो या हिंदुस्तान ।'
    
राष्ट्रीय शिक्षा की अवधारणा के विरुद्ध दूसरा तर्क यह दिया गया कि “मानव जाति और उसकी आवश्यकताएँ सब जगह एक हैं । सत्य और ज्ञान एक ही है, उनका कोई देश नहीं होता । अतः ज्ञान देने का साधन होने के कारण शिक्षा भी सार्वभौम होनी चाहिए, जिसकी कोई राष्ट्रीयता न हो, कोई सीमों न हों । उदाहरणार्थ, भौतिक विज्ञान में राष्ट्रीय शिक्षा का भला क्या अर्थ हो सकता है !'  
 
राष्ट्रीय शिक्षा की अवधारणा के विरुद्ध दूसरा तर्क यह दिया गया कि “मानव जाति और उसकी आवश्यकताएँ सब जगह एक हैं । सत्य और ज्ञान एक ही है, उनका कोई देश नहीं होता । अतः ज्ञान देने का साधन होने के कारण शिक्षा भी सार्वभौम होनी चाहिए, जिसकी कोई राष्ट्रीयता न हो, कोई सीमों न हों । उदाहरणार्थ, भौतिक विज्ञान में राष्ट्रीय शिक्षा का भला क्या अर्थ हो सकता है !'  
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इन तर्कों की धज्जियाँ उड़ाते हुए श्री अरविंद ने लिखा कि “राष्ट्रीय शिक्षा के विरुद्ध यह तर्क-वितर्क इस निर्जीव शैक्षिक धारणा में से शुरू होता है कि शिक्षा का एकमात्र अथवा मुख्य उद्देस्य कुछ विषयों को पढ़ाना एवं इस या उस प्रकार की जानकारी प्रदान करना भर है । लेकिन विभिन्न प्रकार के जानकारियाँ प्राप्त करना शिक्षा के उद्देश्य एवं आवश्यकताओं में से केवल एक है और वह भी केंद्रीय नहीं । शिक्षा का केंद्रीय उद्देश्य है मानव मन और आत्मा को शक्तिशाली बनाना । मैं अपने शब्दों में कहना चाहूँ तो वह उद्देश्य है ज्ञान, चरित्र और संस्कृति : तीनों का प्रबोधन ।'
 
इन तर्कों की धज्जियाँ उड़ाते हुए श्री अरविंद ने लिखा कि “राष्ट्रीय शिक्षा के विरुद्ध यह तर्क-वितर्क इस निर्जीव शैक्षिक धारणा में से शुरू होता है कि शिक्षा का एकमात्र अथवा मुख्य उद्देस्य कुछ विषयों को पढ़ाना एवं इस या उस प्रकार की जानकारी प्रदान करना भर है । लेकिन विभिन्न प्रकार के जानकारियाँ प्राप्त करना शिक्षा के उद्देश्य एवं आवश्यकताओं में से केवल एक है और वह भी केंद्रीय नहीं । शिक्षा का केंद्रीय उद्देश्य है मानव मन और आत्मा को शक्तिशाली बनाना । मैं अपने शब्दों में कहना चाहूँ तो वह उद्देश्य है ज्ञान, चरित्र और संस्कृति : तीनों का प्रबोधन ।'
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उन्होंने कहा कि हमारे सामने मुख्य प्रश्न यह नहीं है कि पश्चिम के विज्ञान को लें या नहीं अथवा कौन सा विज्ञान हम सीखें, बल्कि यह है कि हम इस विज्ञान का क्या उपयोग करेंगे और कैसे उसका नाता मानव मन की अन्य शक्तियों के साथ जोड़े सकेंगे, कैसे आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान का संबंध उस ज्ञान के साथ जोड़ सकेंगे, जिसका हमारी बुद्धि और स्वभाव के अधिक प्रकाशदायक एवं शक्तिदायक अंशों से अंतरंग संबंध है । और यही भारतीय मानस का विशेष गठन, उसकी मनोवैज्ञानिक परंपरा, उसकी आनुवंशिक क्षमता, रुझान और ज्ञान ऐसे सांस्कृतिक तत्त्व प्रस्तुत कर देते हैं जिनका अत्यधिक महत्त्व है ।
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उन्होंने कहा कि हमारे सामने मुख्य प्रश्न यह नहीं है कि पश्चिम के विज्ञान को लें या नहीं अथवा कौन सा विज्ञान हम सीखें, बल्कि यह है कि हम इस विज्ञान का क्या उपयोग करेंगे और कैसे उसका नाता मानव मन की अन्य शक्तियों के साथ जोड़े सकेंगे, कैसे आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान का संबंध उस ज्ञान के साथ जोड़ सकेंगे, जिसका हमारी बुद्धि और स्वभाव के अधिक प्रकाशदायक एवं शक्तिदायक अंशों से अंतरंग संबंध है । और यही धार्मिक मानस का विशेष गठन, उसकी मनोवैज्ञानिक परंपरा, उसकी आनुवंशिक क्षमता, रुझान और ज्ञान ऐसे सांस्कृतिक तत्त्व प्रस्तुत कर देते हैं जिनका अत्यधिक महत्त्व है ।
    
राष्रीय शिक्षा के विरुद्ध उन दिनों दूसरा तर्क यह दिया जाता था कि “आधुनिक अर्थात्‌ यूरोपीय सभ्यता ही वह चीज है जिसे हमें प्राप्त करना है और जिसके योग्य हमें स्वयं को बनाना है; क्योंकि इसी तरह हम जी और फल- फूल सकते हैं । अतः हमारी शिक्षा को हमारे लिए यही करना चाहिए ।' इस तर्क के उत्तर में श्री अरविंद ने यूरोपीय सभ्यता के पूरे विकास-क्रम का चित्र प्रस्तुत करते हुए कहा कि “पश्चिम की वैज्ञानिक, तर्कवादी, औद्योगिक एवं तथाकथित गणतंत्रवादी सभ्यता अब विघटन के दौर से गुजर रही है । यदि हम अंधे होकर आज भी इस धँसती हुई नींव के ऊपर अपने भविष्य का भवन बनाने का प्रयत्न करें तो इससे बड़ा पागलपन और क्या होगा ? आज अब यूरोप के सबसे अग्रगण्य मनीषी पश्चिम की इस सांध्यवेला में नई आध्यात्मिक सभ्यता को पाने के लिए एशिया की प्रतिभा का मुँह ताक रहे हैं, तब कितना विचित्र होगा, यदि हम अपने “स्व' को और उसमें निहित अपनी संभावनाओं को किनारे फेंककर यूरोप के विलीन होते हुए मृत्योन्मुख आज को अपना भविष्य सौंप दें ।'
 
राष्रीय शिक्षा के विरुद्ध उन दिनों दूसरा तर्क यह दिया जाता था कि “आधुनिक अर्थात्‌ यूरोपीय सभ्यता ही वह चीज है जिसे हमें प्राप्त करना है और जिसके योग्य हमें स्वयं को बनाना है; क्योंकि इसी तरह हम जी और फल- फूल सकते हैं । अतः हमारी शिक्षा को हमारे लिए यही करना चाहिए ।' इस तर्क के उत्तर में श्री अरविंद ने यूरोपीय सभ्यता के पूरे विकास-क्रम का चित्र प्रस्तुत करते हुए कहा कि “पश्चिम की वैज्ञानिक, तर्कवादी, औद्योगिक एवं तथाकथित गणतंत्रवादी सभ्यता अब विघटन के दौर से गुजर रही है । यदि हम अंधे होकर आज भी इस धँसती हुई नींव के ऊपर अपने भविष्य का भवन बनाने का प्रयत्न करें तो इससे बड़ा पागलपन और क्या होगा ? आज अब यूरोप के सबसे अग्रगण्य मनीषी पश्चिम की इस सांध्यवेला में नई आध्यात्मिक सभ्यता को पाने के लिए एशिया की प्रतिभा का मुँह ताक रहे हैं, तब कितना विचित्र होगा, यदि हम अपने “स्व' को और उसमें निहित अपनी संभावनाओं को किनारे फेंककर यूरोप के विलीन होते हुए मृत्योन्मुख आज को अपना भविष्य सौंप दें ।'
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इस कथन को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा कि सच्ची और प्राणवान्‌ शिक्षा में तीनों बातों का ध्यान रखना पड़ता है - (१) मनुष्य-व्यक्ति रूप में अपनी सामान्यता व अनोखेपन के साथ, (२) राष्ट्र या समाज और (३) समस्त मानव जाति । इससे सहज निष्कर्ष निकलता है कि सच्ची और प्राणवान्‌ शिक्षा उसे ही कहा जा सकता है जो व्यक्ति के रूप में मनुष्य कि इस प्रकार सहायता दे कि उसके भीतर विद्यमान क्षमता एवं प्रतिभा को पूरे लाभकारी ढंग से बाहर प्रगट होने का अवसर मिले और जो मानव जीवन के पूर्ण उद्देश्य व संभावनाओं की प्राप्ति की सिद्धता प्रदान करे । साथ ही जो शिक्षा मनुष्य को अपने समाज के, जिसका कि वह अंग है, जीवन, मानस व अंतरात्मा के साथ और उससे भी आगे बढ़कर संपूर्ण मानव जाति, जिसकी वह स्वयं एक इकाई है और उसका राष्ट्र या समाज जिसका सजीव, पृथक किंतु अविच्छेद्‌ सदस्य है, वे समग्र महानू जीवन, मानस व अंतरात्मा के साथ सम्यक्‌ संबंध स्थापित करने में सहायक हो।
 
इस कथन को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा कि सच्ची और प्राणवान्‌ शिक्षा में तीनों बातों का ध्यान रखना पड़ता है - (१) मनुष्य-व्यक्ति रूप में अपनी सामान्यता व अनोखेपन के साथ, (२) राष्ट्र या समाज और (३) समस्त मानव जाति । इससे सहज निष्कर्ष निकलता है कि सच्ची और प्राणवान्‌ शिक्षा उसे ही कहा जा सकता है जो व्यक्ति के रूप में मनुष्य कि इस प्रकार सहायता दे कि उसके भीतर विद्यमान क्षमता एवं प्रतिभा को पूरे लाभकारी ढंग से बाहर प्रगट होने का अवसर मिले और जो मानव जीवन के पूर्ण उद्देश्य व संभावनाओं की प्राप्ति की सिद्धता प्रदान करे । साथ ही जो शिक्षा मनुष्य को अपने समाज के, जिसका कि वह अंग है, जीवन, मानस व अंतरात्मा के साथ और उससे भी आगे बढ़कर संपूर्ण मानव जाति, जिसकी वह स्वयं एक इकाई है और उसका राष्ट्र या समाज जिसका सजीव, पृथक किंतु अविच्छेद्‌ सदस्य है, वे समग्र महानू जीवन, मानस व अंतरात्मा के साथ सम्यक्‌ संबंध स्थापित करने में सहायक हो।
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किंतु यहां मनुष्य, राष्ट्र व मानव जाति के जीवन के बारे में अलग-अलग धारणाओं का प्रश्न खड़ा हो जाता है । भिन्न धारणाओं के अनुसार शिक्षा का स्वरूप भी भिन्न होना अवश्यंभावी है । श्री अरविंद ने इन प्रश्नों को उठाकर उनके उत्तर में व्यक्ति, राष्ट्र व मानव जाति के बारे में भारत की आध्यात्मिक दृष्टि का विवेचन किया और विविधता में एकता के भारतीय दर्शन का प्रतिपादन किया । निष्कर्ष रूप में उन्होंने कहा कि “हमारी शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिसका व्यक्ति की दृष्टि से केंद्रीय लक्ष्य होगा उसकी आत्मा और उसकी शक्तियों व संभावनाओं का पूर्ण विकास; राष्ट्र की दृष्टि से उसका मुख्य प्रयास होगा । राष्ट्रीयता और धर्म का संरक्षण, दृढ़ीकरण एवं समृद्धिकरण करते हुए दोनों को मानव जाति के जीवन और मानव आत्मा की उन्नायक शक्तियों के रूप में उपर उठाना । ऐसी शिक्षा मनुष्य के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात्‌ उसकी आध्यात्मिक चेतना के जागरण और विकास को किसी भी क्षण अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने देगी ।'
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किंतु यहां मनुष्य, राष्ट्र व मानव जाति के जीवन के बारे में अलग-अलग धारणाओं का प्रश्न खड़ा हो जाता है । भिन्न धारणाओं के अनुसार शिक्षा का स्वरूप भी भिन्न होना अवश्यंभावी है । श्री अरविंद ने इन प्रश्नों को उठाकर उनके उत्तर में व्यक्ति, राष्ट्र व मानव जाति के बारे में भारत की आध्यात्मिक दृष्टि का विवेचन किया और विविधता में एकता के धार्मिक दर्शन का प्रतिपादन किया । निष्कर्ष रूप में उन्होंने कहा कि “हमारी शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिसका व्यक्ति की दृष्टि से केंद्रीय लक्ष्य होगा उसकी आत्मा और उसकी शक्तियों व संभावनाओं का पूर्ण विकास; राष्ट्र की दृष्टि से उसका मुख्य प्रयास होगा । राष्ट्रीयता और धर्म का संरक्षण, दृढ़ीकरण एवं समृद्धिकरण करते हुए दोनों को मानव जाति के जीवन और मानव आत्मा की उन्नायक शक्तियों के रूप में उपर उठाना । ऐसी शिक्षा मनुष्य के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात्‌ उसकी आध्यात्मिक चेतना के जागरण और विकास को किसी भी क्षण अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने देगी ।'
    
इस बिंदु पर आकर अचानक ही यह लेखमाला रुक जाती है । यहाँ तक श्री अरविंद सच्ची शिक्षा व्याख्या के संदर्भ में भारत के लिए राष्ट्रीय शिक्षा के आधारभूत सिद्धांतो का प्रतिपादन भर कर पाते हैं, किंतु इन सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देनेवाले संगठनात्मक ढाँचे, शिक्षण विधि एवं पाठ्यक्रम आदि की कोई ठोस रूपरेखा प्रस्तुत नहीं कर पाते । जनवरी १९२१ में ही “आर्य' का प्रकाशन बंद हो जाने के कारण यह लेखमाला भी अधूरी रह गई। बहुत संभव है कि यदि “आर्य' का प्रकाशन इसी अंक पर बंद न हो जाता तो श्री अरविंद यह रूपरेखा भी प्रस्तुत करते, क्योंकि उनका विषय-प्रतिपादन क्रमशः उसी दिशा में बढ़ रहा था । कैसा विचित्र संयोग है कि सन्‌ १९१० में “कर्मयोगी' के समान इस समय 'आर्य' में भी राष्ट्रीय शिक्षा के बारे में श्री अरविंद की कलम उसी समय उठी जब aren 'आर्य' का प्रकाशन बंद होने वाला था । आगे चलकर अरविंद आश्रम एवं उसके अंतरराष्ट्रीय शिक्षा केंद्र के माध्यम से श्री अरविंद की यह कल्पना कितनी मात्रा में रूपायित हो पाई, इसकी खोजबीन राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के विगत इतिहास की दृष्टि से ही नहीं, उसके भावी स्वरूप का विचार करने की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है ।
 
इस बिंदु पर आकर अचानक ही यह लेखमाला रुक जाती है । यहाँ तक श्री अरविंद सच्ची शिक्षा व्याख्या के संदर्भ में भारत के लिए राष्ट्रीय शिक्षा के आधारभूत सिद्धांतो का प्रतिपादन भर कर पाते हैं, किंतु इन सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देनेवाले संगठनात्मक ढाँचे, शिक्षण विधि एवं पाठ्यक्रम आदि की कोई ठोस रूपरेखा प्रस्तुत नहीं कर पाते । जनवरी १९२१ में ही “आर्य' का प्रकाशन बंद हो जाने के कारण यह लेखमाला भी अधूरी रह गई। बहुत संभव है कि यदि “आर्य' का प्रकाशन इसी अंक पर बंद न हो जाता तो श्री अरविंद यह रूपरेखा भी प्रस्तुत करते, क्योंकि उनका विषय-प्रतिपादन क्रमशः उसी दिशा में बढ़ रहा था । कैसा विचित्र संयोग है कि सन्‌ १९१० में “कर्मयोगी' के समान इस समय 'आर्य' में भी राष्ट्रीय शिक्षा के बारे में श्री अरविंद की कलम उसी समय उठी जब aren 'आर्य' का प्रकाशन बंद होने वाला था । आगे चलकर अरविंद आश्रम एवं उसके अंतरराष्ट्रीय शिक्षा केंद्र के माध्यम से श्री अरविंद की यह कल्पना कितनी मात्रा में रूपायित हो पाई, इसकी खोजबीन राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के विगत इतिहास की दृष्टि से ही नहीं, उसके भावी स्वरूप का विचार करने की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है ।
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शिक्षाप्रणाली में अनेक तत्त्वों का विचार करना पड़ता है विशेष प्रकार की शिक्षण विधियों की खोज, विभिन्न प्रकार के ज्ञान का उपयुक्त मात्रा में आत्मसातीकरण और स्वयं मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण । निस्संदेह इन सब में यह अंतिम तत्त्व ही है । मनुष्य के अंदर भी उसके आदर्श ही सर्वोपरि निर्णायक तत्त्व होते हैं । किसी भी मनुष्य को ऐसा कुछ सिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है, जिसे सीखने को वह इच्छुक नहीं है । जिस लाभ को वह लेना ही नहीं चाहता, उसे उस पर लादना मुूर्खता है । शिक्षा का काम खान खोदने के समान है, वह भी ऊपरी सतह से आदर्शों से शुरू होता है ।
 
शिक्षाप्रणाली में अनेक तत्त्वों का विचार करना पड़ता है विशेष प्रकार की शिक्षण विधियों की खोज, विभिन्न प्रकार के ज्ञान का उपयुक्त मात्रा में आत्मसातीकरण और स्वयं मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण । निस्संदेह इन सब में यह अंतिम तत्त्व ही है । मनुष्य के अंदर भी उसके आदर्श ही सर्वोपरि निर्णायक तत्त्व होते हैं । किसी भी मनुष्य को ऐसा कुछ सिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है, जिसे सीखने को वह इच्छुक नहीं है । जिस लाभ को वह लेना ही नहीं चाहता, उसे उस पर लादना मुूर्खता है । शिक्षा का काम खान खोदने के समान है, वह भी ऊपरी सतह से आदर्शों से शुरू होता है ।
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पुराने आदर्शों के माध्यम से ही नए आदर्शों तक पहुँचा जा सकता है । “अज्ञात' की यात्रा 'ज्ञात' से ही शुरू होती है । वास्तव में एक तो “आदर्श' है और एक उसे अभिव्यक्ति देनेवाला कोई स्थूल रूप होता है ale हम उस आदर्श तक पहुँच गए तो समझ लो कि हमने अनंत को प्राप्त कर लिया । यहाँ सारी मानवता एक हो जाती है । यहां न कुछ पुराना है, न नया है; न अपना है, न पराया है । आदर्श को सीमाबद्ध करनेवाले स्थूल रूप भले ही नए पुराने हो सकते हैं, परंतु आदर्श स्वयं में “कालातीत' होता है । फिर भी “नए आदर्श' जैसी शब्दावली का एक विशिष्ट अर्थ होता है । उदाहरणार्थ, यूरोपीय काव्य में सगाई हो चुकी हुई कुमारी को महानता और दिव्यता प्रदान की गई है; भारतीय काव्य पतितव्रता पत्नी का वैसा ही गुणगान करता है । ये दोनों ही परंपरागत रूप हैं, जिनके माध्यम से 'नारी की पवित्रता के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है । फिर भी किसी यूरोपीय रूपक के माध्यम से भारतीय बालक की कल्पना को इस आदर्श तक ले जाना उसी प्रकार निष्फल रहेगा जिस प्रकार कि भारत में प्रचलित किसी रूपक के माध्यम से यूरोपीय बालक की कल्पना का उद्बुद्ध करना । परंतु जब शिक्षा के द्वारा कल्पना का उदात्तीकरण होकर नारीत्व के महान्‌ तथा दिव्य स्वरूप का दर्शन हो जाता है तो नए रूपों में भी उस आदर्श को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होगी । कोई प्रशिक्षित एवं विकसित हृदय टेनीसन अथवा ब्राउनिंग के काव्य को उसकी समस्त ऊँचाइयों व गहराइयों के साथ सुगमता से समझ सकेगा; परंतु इन Heat के माध्यम से किसी भारतीय बालक के विकास का प्रयास करना भारी अपराध होगा । उसी प्रकार किसी यूरोपीय बालक को बीट्रिस या जॉन ऑफ आर्क के बजाय सीता और सातित्री के चरित्र के माध्यम से शिक्षा देना उतना ही मुूर्खतापूर्ण होगा यद्यपि वही बालक बड़ा होने पर पौर्वात्य नारी रत्नों के प्रति सहज सहानुभूति से अभिभूत होकर अपनी संस्कृति की गहराई को आँक सकेगा ।
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पुराने आदर्शों के माध्यम से ही नए आदर्शों तक पहुँचा जा सकता है । “अज्ञात' की यात्रा 'ज्ञात' से ही शुरू होती है । वास्तव में एक तो “आदर्श' है और एक उसे अभिव्यक्ति देनेवाला कोई स्थूल रूप होता है ale हम उस आदर्श तक पहुँच गए तो समझ लो कि हमने अनंत को प्राप्त कर लिया । यहाँ सारी मानवता एक हो जाती है । यहां न कुछ पुराना है, न नया है; न अपना है, न पराया है । आदर्श को सीमाबद्ध करनेवाले स्थूल रूप भले ही नए पुराने हो सकते हैं, परंतु आदर्श स्वयं में “कालातीत' होता है । फिर भी “नए आदर्श' जैसी शब्दावली का एक विशिष्ट अर्थ होता है । उदाहरणार्थ, यूरोपीय काव्य में सगाई हो चुकी हुई कुमारी को महानता और दिव्यता प्रदान की गई है; धार्मिक काव्य पतितव्रता पत्नी का वैसा ही गुणगान करता है । ये दोनों ही परंपरागत रूप हैं, जिनके माध्यम से 'नारी की पवित्रता के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है । फिर भी किसी यूरोपीय रूपक के माध्यम से धार्मिक बालक की कल्पना को इस आदर्श तक ले जाना उसी प्रकार निष्फल रहेगा जिस प्रकार कि भारत में प्रचलित किसी रूपक के माध्यम से यूरोपीय बालक की कल्पना का उद्बुद्ध करना । परंतु जब शिक्षा के द्वारा कल्पना का उदात्तीकरण होकर नारीत्व के महान्‌ तथा दिव्य स्वरूप का दर्शन हो जाता है तो नए रूपों में भी उस आदर्श को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होगी । कोई प्रशिक्षित एवं विकसित हृदय टेनीसन अथवा ब्राउनिंग के काव्य को उसकी समस्त ऊँचाइयों व गहराइयों के साथ सुगमता से समझ सकेगा; परंतु इन Heat के माध्यम से किसी धार्मिक बालक के विकास का प्रयास करना भारी अपराध होगा । उसी प्रकार किसी यूरोपीय बालक को बीट्रिस या जॉन ऑफ आर्क के बजाय सीता और सातित्री के चरित्र के माध्यम से शिक्षा देना उतना ही मुूर्खतापूर्ण होगा यद्यपि वही बालक बड़ा होने पर पौर्वात्य नारी रत्नों के प्रति सहज सहानुभूति से अभिभूत होकर अपनी संस्कृति की गहराई को आँक सकेगा ।
    
राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या
 
राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या
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विश्वभारती
 
विश्वभारती
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शांति निकेतन की स्थापना के बाद कवि के मन में यह विचार आया कि हमारे विश्वविद्यालय पाश्चात्य प्रतिमानों के अनुकरण मात्र हैं । युगों से भारत की संस्कृति गौरवमयी रही है; किंतु उसकी परंपराओं को प्रतिबिबित करनेवाली कोई संस्था नहीं है, अतएव एक भारतीय संस्कृति का केंद्र खोला जाए । किंतु इस शताब्दी के आरंभ से पाश्चात्य देशों की बढ़ती हुई राष्ट्रीयता, जिसका अंत प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका में हुआ, से वे बड़े उद्धिम हुए । कविवर सोचने लगे कि इस अहंकारी एकांतिक राष्ट्रीयता के परे जाकर समग्र मानवता तक पहुँचना चाहिए । अतएव विश्वभारती की पूर्ण संकल्पना में उन्होंने पूर्व और पश्चिम को पूरी तरह से सम्मिलित कर मानव जाति की एकता के लिए ज्ञान और आध्यात्मिक प्रयत्नों के सहयोग की सोची । इस प्रयोजन से उन्होंने शांति निकेतन में सन्‌ १९२१ में विश्वमारती की स्थापना की ।
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शांति निकेतन की स्थापना के बाद कवि के मन में यह विचार आया कि हमारे विश्वविद्यालय पाश्चात्य प्रतिमानों के अनुकरण मात्र हैं । युगों से भारत की संस्कृति गौरवमयी रही है; किंतु उसकी परंपराओं को प्रतिबिबित करनेवाली कोई संस्था नहीं है, अतएव एक धार्मिक संस्कृति का केंद्र खोला जाए । किंतु इस शताब्दी के आरंभ से पाश्चात्य देशों की बढ़ती हुई राष्ट्रीयता, जिसका अंत प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका में हुआ, से वे बड़े उद्धिम हुए । कविवर सोचने लगे कि इस अहंकारी एकांतिक राष्ट्रीयता के परे जाकर समग्र मानवता तक पहुँचना चाहिए । अतएव विश्वभारती की पूर्ण संकल्पना में उन्होंने पूर्व और पश्चिम को पूरी तरह से सम्मिलित कर मानव जाति की एकता के लिए ज्ञान और आध्यात्मिक प्रयत्नों के सहयोग की सोची । इस प्रयोजन से उन्होंने शांति निकेतन में सन्‌ १९२१ में विश्वमारती की स्थापना की ।
    
विश्वमारती का आदर्श वाक्य था -‘यत्र विधं भवति एक नीडमू' इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे -
 
विश्वमारती का आदर्श वाक्य था -‘यत्र विधं भवति एक नीडमू' इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे -
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१, भारतीय संस्कृति और आदर्शों के आधार पर शिक्षा देना,
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१, धार्मिक संस्कृति और आदर्शों के आधार पर शिक्षा देना,
    
२. प्राच्य संस्कृतियों में घनिष्ठ संबंध और सामंजस्य स्थापित करना तथा उनका पाश्चात्य विचारधारा से समन्वय करना,
 
२. प्राच्य संस्कृतियों में घनिष्ठ संबंध और सामंजस्य स्थापित करना तथा उनका पाश्चात्य विचारधारा से समन्वय करना,
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३. विश्वबंधुत्व की भावना विकसित करते हुए विश्वशांति की स्थिति उत्पन्न करना,
 
३. विश्वबंधुत्व की भावना विकसित करते हुए विश्वशांति की स्थिति उत्पन्न करना,
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¥. संस्था को ऐसा सांस्कृतिक विश्व केंद्र बनाना जहाँ धर्म, साहित्य, विज्ञान, इतिहास तथा भारतीय और पाश्चात्य सभ्यताओं का अध्ययन हो सके ।
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¥. संस्था को ऐसा सांस्कृतिक विश्व केंद्र बनाना जहाँ धर्म, साहित्य, विज्ञान, इतिहास तथा धार्मिक और पाश्चात्य सभ्यताओं का अध्ययन हो सके ।
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विश्वभारती के क्रियाकलापों को चार क्षेत्रों में विभाजित किया गया है, यथाभारतीय संस्कृति का केंद्र, प्राच्य संस्कृति का केंद्र, आंतरराष्ट्रीय संस्कृति का केंद्र तथा ग्राम्य पुनर्निर्माण एवं जन-कल्याण केंद्र ।
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विश्वभारती के क्रियाकलापों को चार क्षेत्रों में विभाजित किया गया है, यथाधार्मिक संस्कृति का केंद्र, प्राच्य संस्कृति का केंद्र, आंतरराष्ट्रीय संस्कृति का केंद्र तथा ग्राम्य पुनर्निर्माण एवं जन-कल्याण केंद्र ।
    
विश्वभारती में अग्रांकित दस विभाग हैं -
 
विश्वभारती में अग्रांकित दस विभाग हैं -
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१, पथ भवन - शालेय शिक्षा का विभाग, २. शिक्षा भवन - उच्चतर माध्यमिक विभाग, २. विद्या भवन - महाविद्यालय विभाग, ४. विनय भवन - शिक्षक प्रशिक्षण विभाग, ५. कला भवन - ललित कला विभाग, ६. शिल्प भवन - कुटीर उद्योग विभाग, ७. संगीत भवन - संगीत नृत्य विभाग, ८. चीन भवन - चीनी एवं भारतीय संस्कृतियों का अध्ययन विभाग, ९. हिंदी भवन - हिंदी तथा तिब्बती शोध विभाग, और १०. श्री निकेतन - ग्रामोद्धार विभाग ।
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१, पथ भवन - शालेय शिक्षा का विभाग, २. शिक्षा भवन - उच्चतर माध्यमिक विभाग, २. विद्या भवन - महाविद्यालय विभाग, ४. विनय भवन - शिक्षक प्रशिक्षण विभाग, ५. कला भवन - ललित कला विभाग, ६. शिल्प भवन - कुटीर उद्योग विभाग, ७. संगीत भवन - संगीत नृत्य विभाग, ८. चीन भवन - चीनी एवं धार्मिक संस्कृतियों का अध्ययन विभाग, ९. हिंदी भवन - हिंदी तथा तिब्बती शोध विभाग, और १०. श्री निकेतन - ग्रामोद्धार विभाग ।
    
विश्वभारती की अनेक विशेषताएँ हैं । इसका पाठ्यक्रम बड़ा व्यापक है, जिससे छात्र अपनी रुचि का विषय चुन सकते हैं । यहाँ भारत के विभिन्न प्रदेशों तथा एशिया, यूरोप और अमेरिका के अनेक देशों से छात्र व छात्राएँ अध्ययन करने आते हैं । वे किसी एक विभाग में प्रवेश लेने पर बिना अतिरिक्त शुल्क दिए अपनी रुचि अनुसार अन्य विभागों में भी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं । यहाँ सामुदायिक जीवनयापन और समाज सेवा पर बल दिया जाता है । मारजरी साइबस के कथनानुसार - “विश्वभारती में तीन संकेंद्रीय वृत्त हैं - सबसे आंतरिक भारत का, दूसरा एशिया का और तीसरा सारे विश्व का । जाति, धर्म, वर्ण आदि के भेदों के परे यह संस्था परम सत्ता के नाम पर प्राच्य एवं पाश्चात्य विद्वानों तथा चिंतकों के विचार-विनिमय करने का संगम स्थल है ।'
 
विश्वभारती की अनेक विशेषताएँ हैं । इसका पाठ्यक्रम बड़ा व्यापक है, जिससे छात्र अपनी रुचि का विषय चुन सकते हैं । यहाँ भारत के विभिन्न प्रदेशों तथा एशिया, यूरोप और अमेरिका के अनेक देशों से छात्र व छात्राएँ अध्ययन करने आते हैं । वे किसी एक विभाग में प्रवेश लेने पर बिना अतिरिक्त शुल्क दिए अपनी रुचि अनुसार अन्य विभागों में भी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं । यहाँ सामुदायिक जीवनयापन और समाज सेवा पर बल दिया जाता है । मारजरी साइबस के कथनानुसार - “विश्वभारती में तीन संकेंद्रीय वृत्त हैं - सबसे आंतरिक भारत का, दूसरा एशिया का और तीसरा सारे विश्व का । जाति, धर्म, वर्ण आदि के भेदों के परे यह संस्था परम सत्ता के नाम पर प्राच्य एवं पाश्चात्य विद्वानों तथा चिंतकों के विचार-विनिमय करने का संगम स्थल है ।'
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=== ७. गांधीजी के शैक्षिक प्रयोग ===
 
=== ७. गांधीजी के शैक्षिक प्रयोग ===
भारतीय शैक्षिक क्षितिज पर गांधीजी के अवतरण के पूर्व ही अनेक शिक्षा-चिंतकों ने आंग्ल शिक्षा-प्रणाली की व्यर्थता का अनुभव करते हुए तत्कालीन शिक्षा-प्रणाली की ae आलोचना की थी । भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान करने, युवकों में स्वदेश-प्रेम का स्फुरण करने एवं शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के लिए उस समय यह अनुभव किया जा रहा था कि सात समुद्र पार से लाई गई शिक्षा-प्रणाली के विकल्प के रूप में कोई राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली विकसित की जाए । कुछ प्रयोग इस दिशा में किए जा रहे थे । ऐसे ही समय में सन्‌ १९१५ में गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो कुछ समय गुरुदेव रवींट्रनाथ ठाकुर के शैक्षिक प्रयोग शांति निकेतन के सान्निध्य में रहे ।
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धार्मिक शैक्षिक क्षितिज पर गांधीजी के अवतरण के पूर्व ही अनेक शिक्षा-चिंतकों ने आंग्ल शिक्षा-प्रणाली की व्यर्थता का अनुभव करते हुए तत्कालीन शिक्षा-प्रणाली की ae आलोचना की थी । धार्मिक संस्कृति का पुनरुत्थान करने, युवकों में स्वदेश-प्रेम का स्फुरण करने एवं शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के लिए उस समय यह अनुभव किया जा रहा था कि सात समुद्र पार से लाई गई शिक्षा-प्रणाली के विकल्प के रूप में कोई राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली विकसित की जाए । कुछ प्रयोग इस दिशा में किए जा रहे थे । ऐसे ही समय में सन्‌ १९१५ में गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो कुछ समय गुरुदेव रवींट्रनाथ ठाकुर के शैक्षिक प्रयोग शांति निकेतन के सान्निध्य में रहे ।
    
प्रत्यक्ष अनुभव
 
प्रत्यक्ष अनुभव
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विद्यापीठों की श्रृंखला
 
विद्यापीठों की श्रृंखला
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सन्‌ १९२० में राष्ट्रीय आंदोलन के क्रम में गांधी ने यह अनुभव किया कि जो छात्र अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार करके राष्ट्र के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने चले आए हैं, उनकी शिक्षा का प्रबंध कहीं-न-कहीं होना चाहिए । इसी चिंतन की प्रक्रिया में उन्हें राष्ट्रीय विद्यापीठों की स्थापना की आवश्यकता की अनुभूति हुई । इसका परिणाम यह हुआ कि महाराष्ट्र में तिलक विद्यापीठ, बिहार में बिहार विद्यापीठ, उत्तर प्रदेश में काशी विद्यापीठ और गुजरात में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हो गई । अन्य विद्यापीठ भी स्थापित हुए । महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित गुजरात विद्यापीठ में राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति में समर्थ नागरिकों का निर्माण करने का संकल्प लिया गया । इस विद्यापीठ में शिक्षण की योजना इस प्रकार बताई गई कि इसके प्रत्येक कार्य से छात्रों को देशप्रेम तथा राष्ट्रीयता की प्रेरणा प्राप्त हों । पाठ्यक्रम में भारतीय साहित्य, भारतीय संस्कृति,
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सन्‌ १९२० में राष्ट्रीय आंदोलन के क्रम में गांधी ने यह अनुभव किया कि जो छात्र अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार करके राष्ट्र के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने चले आए हैं, उनकी शिक्षा का प्रबंध कहीं-न-कहीं होना चाहिए । इसी चिंतन की प्रक्रिया में उन्हें राष्ट्रीय विद्यापीठों की स्थापना की आवश्यकता की अनुभूति हुई । इसका परिणाम यह हुआ कि महाराष्ट्र में तिलक विद्यापीठ, बिहार में बिहार विद्यापीठ, उत्तर प्रदेश में काशी विद्यापीठ और गुजरात में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हो गई । अन्य विद्यापीठ भी स्थापित हुए । महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित गुजरात विद्यापीठ में राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति में समर्थ नागरिकों का निर्माण करने का संकल्प लिया गया । इस विद्यापीठ में शिक्षण की योजना इस प्रकार बताई गई कि इसके प्रत्येक कार्य से छात्रों को देशप्रेम तथा राष्ट्रीयता की प्रेरणा प्राप्त हों । पाठ्यक्रम में धार्मिक साहित्य, धार्मिक संस्कृति,
    
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भारतीय सभ्यता और भारतीय इतिहास को प्रमुख स्थान दिया गया । पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के शिक्षण की भी उत्तम व्यवस्था की गई । शिक्षा का माध्यम गुजराती भाषा को बनाया गया; किंतु हिंदी व संस्कृत के अध्ययन पर बल दिया गया और अंग्रेजी को भी स्थान दिया गया । शिक्षक प्रायः स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे । इन शिक्षकों के आचरण में सच्चरित्रता, वाणी में तेजस्विता, व्यवहार व कर्म में देश-प्रेम व्याप्त था । शिक्षण व्यवसाय इन शिक्षकों के लिए जीविका का आधार न था । इन्होंने शिक्षण कार्य को स्वतंत्रता आंदोलन व राष्ट्र-विकास का महत्त्वपूर्ण अंग माना था । विद्यार्थी प्रायः वह थे जिन्होंने राष्ट्र की पुकार पर अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार किया और स्कूल-कोलेज छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे । अपने समय में गुजरात विद्यापीठ बहुत सफल रहा । आज यह विद्यापीठ सरकार द्वारा मान्य विश्वविद्यालय है । यद्यपि इसमें अभी भी अनेक विशेषताएँ विद्यमान हैं, किंतु यह भी अब अन्य विश्वविद्यालयों की भाँति अनेक सामाजिक बुराइयों का शिकार होता जा रहा है ।
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धार्मिक सभ्यता और धार्मिक इतिहास को प्रमुख स्थान दिया गया । पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के शिक्षण की भी उत्तम व्यवस्था की गई । शिक्षा का माध्यम गुजराती भाषा को बनाया गया; किंतु हिंदी व संस्कृत के अध्ययन पर बल दिया गया और अंग्रेजी को भी स्थान दिया गया । शिक्षक प्रायः स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे । इन शिक्षकों के आचरण में सच्चरित्रता, वाणी में तेजस्विता, व्यवहार व कर्म में देश-प्रेम व्याप्त था । शिक्षण व्यवसाय इन शिक्षकों के लिए जीविका का आधार न था । इन्होंने शिक्षण कार्य को स्वतंत्रता आंदोलन व राष्ट्र-विकास का महत्त्वपूर्ण अंग माना था । विद्यार्थी प्रायः वह थे जिन्होंने राष्ट्र की पुकार पर अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार किया और स्कूल-कोलेज छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे । अपने समय में गुजरात विद्यापीठ बहुत सफल रहा । आज यह विद्यापीठ सरकार द्वारा मान्य विश्वविद्यालय है । यद्यपि इसमें अभी भी अनेक विशेषताएँ विद्यमान हैं, किंतु यह भी अब अन्य विश्वविद्यालयों की भाँति अनेक सामाजिक बुराइयों का शिकार होता जा रहा है ।
    
जामिया मिछ्लिया
 
जामिया मिछ्लिया
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१, सार्वभौम अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा - वर्धा सम्मेलन में पारित पहला प्रस्ताव था । “इस परिषदू की सम्मति में देश के सब बच्चों के लिए सात वर्षों की निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध होना चाहिए ।' वैसे वर्धा सम्मेलन के सत्ताईस वर्ष पूर्व गोपाल कृष्ण गोखले ने एक प्रस्ताव द्वारा प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने की माँग की थी और सन्‌ १९११ में उन्होंने इस आशय का एक बिल भी पेश किया था, जो पास नहीं हो सका था । सन्‌ १९१८-२० में विभिन्न प्रांतीय सरकारों ने प्राइमरी एजुकेशन एक्ट पास कर प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का अधिकार जिला परिषदों एवं नगर पालिकाओं को दे दिया; किंतु इससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ |
 
१, सार्वभौम अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा - वर्धा सम्मेलन में पारित पहला प्रस्ताव था । “इस परिषदू की सम्मति में देश के सब बच्चों के लिए सात वर्षों की निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध होना चाहिए ।' वैसे वर्धा सम्मेलन के सत्ताईस वर्ष पूर्व गोपाल कृष्ण गोखले ने एक प्रस्ताव द्वारा प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने की माँग की थी और सन्‌ १९११ में उन्होंने इस आशय का एक बिल भी पेश किया था, जो पास नहीं हो सका था । सन्‌ १९१८-२० में विभिन्न प्रांतीय सरकारों ने प्राइमरी एजुकेशन एक्ट पास कर प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का अधिकार जिला परिषदों एवं नगर पालिकाओं को दे दिया; किंतु इससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ |
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जिस समय बेसिक शिक्षा की कल्पना की गई उस समय देश परतंत्र था, अनेक अभिशापों से ग्रस्त था । भारतीय गरीब, दुःखी व निरक्षर थे । प्राकृतिक साधनों से संपन्न यह देश विदेशियों की विलास-स्थली बना हुआ था । अपने ही देश में भारतीय बच्चे पराए थे, परित्यक्त थे और उपेक्षित व दीन-हीन थे । इसका मूल कारण था व्यापक निरक्षरता व अशिक्षा । कुछ गिने-चुने लोग साक्षर एवं सचेत हो रहे थे; किंतु जब तक व्यापक रूप में जनता शिक्षित न हो तब तक विकास अवरुद्ध ही रहेगा । यह सब तभी संभव है जब कुछ समय तक की शिक्षा को अनिवार्य किया जाए। अंग्रेजी शिक्षा की तत्कालीन प्रणाली में अनिवार्यता नहीं थी । कुछ साधन-संपन्न लोग पढ़ाई का खर्च उठा सकने में समर्थ थे और वे ही शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। शेष अज्ञान तथा अंधकार में डूबे हुए थे । अतः अनिवार्यता के लिए यह आवश्यक था कि शिक्षा को निःशुल्क बनाया जाए । इसीलिए मूल प्रस्ताव के अनुसार सात वर्षों की शिक्षा को निःशुल्क एवं अनिवार्य बनाने का आग्रह किया गया । बाद में स्वतंत्र भारत में संविधान ने चौदह वर्ष की आयु तक के बालकों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा देने की घोषणा की ।
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जिस समय बेसिक शिक्षा की कल्पना की गई उस समय देश परतंत्र था, अनेक अभिशापों से ग्रस्त था । धार्मिक गरीब, दुःखी व निरक्षर थे । प्राकृतिक साधनों से संपन्न यह देश विदेशियों की विलास-स्थली बना हुआ था । अपने ही देश में धार्मिक बच्चे पराए थे, परित्यक्त थे और उपेक्षित व दीन-हीन थे । इसका मूल कारण था व्यापक निरक्षरता व अशिक्षा । कुछ गिने-चुने लोग साक्षर एवं सचेत हो रहे थे; किंतु जब तक व्यापक रूप में जनता शिक्षित न हो तब तक विकास अवरुद्ध ही रहेगा । यह सब तभी संभव है जब कुछ समय तक की शिक्षा को अनिवार्य किया जाए। अंग्रेजी शिक्षा की तत्कालीन प्रणाली में अनिवार्यता नहीं थी । कुछ साधन-संपन्न लोग पढ़ाई का खर्च उठा सकने में समर्थ थे और वे ही शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। शेष अज्ञान तथा अंधकार में डूबे हुए थे । अतः अनिवार्यता के लिए यह आवश्यक था कि शिक्षा को निःशुल्क बनाया जाए । इसीलिए मूल प्रस्ताव के अनुसार सात वर्षों की शिक्षा को निःशुल्क एवं अनिवार्य बनाने का आग्रह किया गया । बाद में स्वतंत्र भारत में संविधान ने चौदह वर्ष की आयु तक के बालकों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा देने की घोषणा की ।
    
२. मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा - बेसिक शिक्षा का दूसरा मूल सिद्धांत था मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा
 
२. मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा - बेसिक शिक्षा का दूसरा मूल सिद्धांत था मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा
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अनिवार्यता एवं माध्यम का प्रश्न
 
अनिवार्यता एवं माध्यम का प्रश्न
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बेसिक शिक्षा के पहले सिद्धांत को संसार भर में मान्यता प्राप्त है । संयुक्त राज्य अमेरिका में हाई स्कूल तक की शिक्षा अनिवार्य है । संसार के सभी देशों में किसी-न- किसी स्तर तक शिक्षा सार्वभौम, निःशुल्क एवं अनिवार्य है । उसका द्वितीय सिद्धांत भी शिक्षा-शाख्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । कोई भी सभ्य देश अपने देश में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं बनाता । भारत में माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में अस्वाभाविक प्रक्रिया बहुत दिनों तक चलती रही । शिक्षा के क्षेत्र में आज तक जितने आयोग और समितियाँ नियुक्त हुई हैं, उन सबने मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का समर्थन किया है । तब कौन कहेगा कि गांधीजी इस बात पर गलत थे ? किंतु आश्चर्य है कि स्वतंत्र भारत में हमारा अंग्रेजी-मोह बढ़ा है, घटा नहीं । आज की अंग्रेजी को शासन में, समाज में और शिक्षालयों में वह स्थान मिला हुआ है जो उसे नहीं मिलना चाहिए । भारतीय समाज की शिक्षा गांधीवाद के विपरीत चल रही है । आज हमारे देश के विद्वान्‌ अंग्रेजी में लेख लिखने या
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बेसिक शिक्षा के पहले सिद्धांत को संसार भर में मान्यता प्राप्त है । संयुक्त राज्य अमेरिका में हाई स्कूल तक की शिक्षा अनिवार्य है । संसार के सभी देशों में किसी-न- किसी स्तर तक शिक्षा सार्वभौम, निःशुल्क एवं अनिवार्य है । उसका द्वितीय सिद्धांत भी शिक्षा-शाख्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । कोई भी सभ्य देश अपने देश में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं बनाता । भारत में माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में अस्वाभाविक प्रक्रिया बहुत दिनों तक चलती रही । शिक्षा के क्षेत्र में आज तक जितने आयोग और समितियाँ नियुक्त हुई हैं, उन सबने मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का समर्थन किया है । तब कौन कहेगा कि गांधीजी इस बात पर गलत थे ? किंतु आश्चर्य है कि स्वतंत्र भारत में हमारा अंग्रेजी-मोह बढ़ा है, घटा नहीं । आज की अंग्रेजी को शासन में, समाज में और शिक्षालयों में वह स्थान मिला हुआ है जो उसे नहीं मिलना चाहिए । धार्मिक समाज की शिक्षा गांधीवाद के विपरीत चल रही है । आज हमारे देश के विद्वान्‌ अंग्रेजी में लेख लिखने या
    
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भाषण देने को विद्धता की कसौटी मानते हैं । इसके विपरीत गांधीजी का साहस देखिए, उन्होंने सन्‌ १९१८ में अंग्रेज वायसराय के सामने हिंदी में भाषण दिया था । अंग्रेजी आतंक के उस वातावरण में उनका भाषण जिस साहस का प्रतीक था, उसका लेशमात्र भी आज के किसी राजनेता या शिक्षा-चिंतक में क्या दिखाई पड़ता है ? सन्‌ १९३१ में संयुक्त भारत के चैंबर ऑफ कोमर्स के कराची अधिवेशन में अंग्रेजीदाँ लोगों के सामने गांधीजी ने हिंदी में भाषण दिया था । दिसंबर १९१६ में कांग्रेस के इक्कीसवें अधिवेशन में लखनऊ में गांधीजी ने हिंदी में भाषण प्रारंभ किया कि इतने में मद्रासी प्रतिनिधियों ने “इंग्लिश प्लीज' की आवाज लगाई । उत्तर में गांधीजी ने कहा, “आपकी आज्ञा मुझे स्वीकार है, पर एक शर्त है - अगले साल की कांग्रेस तक आपको यह “लिंगुआ फ्रांका' (अर्थात्‌ हिंदी) अवश्य सीख लेनी चाहिए । देखिए, इसमें गलती या लापरवाही न हो ।' है ऐसा साहस आज के भारतीय कर्णधारो में ? तब यदि बेसिक शिक्षा को आज तिलांजलि दे दी गई है तो क्या आश्चर्य ! आज गली-गली में, कस्बे में और प्रत्येक मुहट्ले में अंग्रेजी माध्यम के कॉन्‍न्वेंट स्कूल खोलने एवं उनमें अपने बच्चों को पढ़ाने की भारतीय समाज में होड़ लगी हुई है । इतना अंग्रेजी-मोह तो परतंत्र भारत में भी नहीं था । राष्ट्रीयता की दृष्टि से हम आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे हटे हैं ।
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भाषण देने को विद्धता की कसौटी मानते हैं । इसके विपरीत गांधीजी का साहस देखिए, उन्होंने सन्‌ १९१८ में अंग्रेज वायसराय के सामने हिंदी में भाषण दिया था । अंग्रेजी आतंक के उस वातावरण में उनका भाषण जिस साहस का प्रतीक था, उसका लेशमात्र भी आज के किसी राजनेता या शिक्षा-चिंतक में क्या दिखाई पड़ता है ? सन्‌ १९३१ में संयुक्त भारत के चैंबर ऑफ कोमर्स के कराची अधिवेशन में अंग्रेजीदाँ लोगों के सामने गांधीजी ने हिंदी में भाषण दिया था । दिसंबर १९१६ में कांग्रेस के इक्कीसवें अधिवेशन में लखनऊ में गांधीजी ने हिंदी में भाषण प्रारंभ किया कि इतने में मद्रासी प्रतिनिधियों ने “इंग्लिश प्लीज' की आवाज लगाई । उत्तर में गांधीजी ने कहा, “आपकी आज्ञा मुझे स्वीकार है, पर एक शर्त है - अगले साल की कांग्रेस तक आपको यह “लिंगुआ फ्रांका' (अर्थात्‌ हिंदी) अवश्य सीख लेनी चाहिए । देखिए, इसमें गलती या लापरवाही न हो ।' है ऐसा साहस आज के धार्मिक कर्णधारो में ? तब यदि बेसिक शिक्षा को आज तिलांजलि दे दी गई है तो क्या आश्चर्य ! आज गली-गली में, कस्बे में और प्रत्येक मुहट्ले में अंग्रेजी माध्यम के कॉन्‍न्वेंट स्कूल खोलने एवं उनमें अपने बच्चों को पढ़ाने की धार्मिक समाज में होड़ लगी हुई है । इतना अंग्रेजी-मोह तो परतंत्र भारत में भी नहीं था । राष्ट्रीयता की दृष्टि से हम आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे हटे हैं ।
    
क्रिया-केंद्रित शिक्षा की विदेशों में भी मान्यता
 
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