Difference between revisions of "राजनीतिक प्रवाहों का वैश्विक परिदृश्य"

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'''राकेश मिश्रा'''
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राजनीतिक जीवन निरन्तर गतिमान है, यद्यपि यह गति मन्द और तीव्र होती रहती है। विश्व-राजनीति राष्ट्रीय राजनीति की अपेक्षा अधिक जटिल और अस्थिर है, क्योंकि यहाँ वैशिष्ट्य और वैभिन्न्य अधिक है। भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक भिन्नता ‘राष्ट्रीय हित' को सापेक्ष बना देती है, जिसकी प्राप्ति के लिए विभिन्न रूपों में शक्ति का अर्जन, संवर्धन एवं प्रदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। प्राचीन एवं मध्य युगों में जब सभ्यताओं में स्वपर्याप्तता एवं स्वायत्तता के भाव की प्रबलता थी और उनके बीच छुटपुट आदान-प्रदान और वे भी मुख्यत: व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में होते थे, ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति' या 'विश्व-राजनीति' जैसी अवधारणाएँ अप्रासंगिक थीं। परन्तु आधुनिक विश्व का स्वरूप भिन्न है । अन्तर्निर्भरता एवं अन्तक्रिया में असाधारण वृद्धि हुई है । जीवन-दृष्टि के विखण्डन ने, ऊर्ध्वगामिता के परित्याग ने राज्यों को अहंवादी, प्रतिस्पर्धात्मक, शक्तिलोलुप और विस्तारवादी बना दिया है। अहंकार व प्रतिस्पर्धा-जनित इस विखण्डन को हम कभी बहुलता, कभी विशिष्टता, तो कभी अस्मिता कहते हैं, और इस संकुचन से उपजे द्वन्द्व एवं संघर्ष को विश्व-राजनीति की स्वाभाविक स्थिति मान लेते हैं।
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वैश्विक राजनीति के प्रमुख प्रवाहों पर हमें इस संदर्भ में विचार करना चाहिए। चाहे वैश्विक राजनीति का संरचनात्मक पक्ष हो अथवा उसका वैचारिक पक्ष, उसमें प्रतिस्पर्धा, द्वन्द्व, आधिपत्य, प्रभुत्व के तत्त्वों की निरन्तरता एवं प्रधानता दृष्टिगोचर होती है । वस्तुतः, विद्वत् जगत में इसे सहज-स्वाभाविक मानकर सिद्धान्त-निरूपण किया जाता है । अब यदि वैश्विक राजनीति का संरचनात्मक पक्ष लिया जाए तो वह बहु-ध्रुवीय (Multi-polar) से द्विध्रुवीय (Biopolar) और फिर एक-ध्रुवीय (Unipolar) हुआ है, परन्तु उसका संचालन इन्हीं तत्त्वों के आधार पर होता रहा है। १८१५ की वियना कांग्रसे से १९४५ के द्वितीय विश्वयुद्ध तक का विश्व बहुध्रुवीय था, अर्थात् लगभग समान शक्ति व प्रभाव वाले कई राज्यों के बीच निरन्तर प्रतिस्पर्धाऔर तनाव था जिसके फलस्वरूप नित नए दावे और नित नए गठबन्धन जन्म लेते थे । १८१५ की वियना कांग्रस ने विश्व-व्यवस्था की संरचना ब्रिटेन, रूस, प्रशिया, फ्रांस और आस्ट्रिया-हंगरी को धुरी मान कर की। इन ५ राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा एवं शक्ति-लिप्सा की परिणति दो महायुद्धों में हुई । द्वितीय विश्वयुद्ध ने इस बहुध्रुवीय विश्व को तार-तार कर दिया और विश्व-राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसे हम 'द्विध्रुवीय विश्व' कहते हैं। इस द्विध्रुवीय विश्व का दौर १९८९ तक चला।
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इस द्वि-ध्रुवीय विश्व में विश्व-राजनीति सोवियत संघ व संयुक्त राज्य अमेरिका के ईद-गिर्द घूमती रही । ये दोनों महाशक्तियाँ अपनी वैचारिक, राजनीतिक एवं सैनिक श्रेष्ठता के दम्भ से ग्रस्त थीं, और विश्व के अधिकाधिक देशों को अपने खेमे में लाने के लिए साम, दाम, भेद, दण्ड- सभी साधनों का प्रयोग करती थीं। इन महाशक्तियों की प्रभुत्व एवं शक्ति की लिप्सा ने शीत-युद्ध (Cold war) के तनावपूर्ण दौर को जन्म दिया । यद्यपि भारत, यूगोस्लाविया और मिस्र के नेतृत्व में गुटनिरपेक्षता (Non alignment) के दर्शन को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया तथापि वह अरण्य रूदन ही सिद्ध हुआ ।
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अनेक आन्तरिक एवं बाह्य कारणों के परिणामस्वरूप १९८९ में सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था का विघटन हुआ, और द्विध्रुवीय विश्व-व्यवस्था व । शीत-बुद्ध के दौर का पटक्षेप हुआ । शीत-युद्धोत्तर काल में संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व-राजनीति की एकमात्र धुरी बनकर उभरा, और इस नए दौर को एकध्रुवीय (unipolar) विश्व कहा गया । सोवियत संघ के विघटन को अमेरिका ने उदारवादी-पूंजीवादी व्यवस्था की नैतिक-राजनीतिक श्रेष्ठता का प्रमाण कहा और राजशास्त्रियों ने इसे 'विचारधारा के अन्त' (End of ideology) और इतिहास के अन्त' (End of History) की संज्ञा दी। शीत-युद्धोत्तर काल को वैश्वीकरण (Globalization) का आविर्भाव माना गया, जिसका अन्तर्निहित अर्थ सम्पूर्ण विश्व को अमेरिकी वैचारिक एवं सांस्कृतिक साँचे में ढालना है । यद्यपि विश्वराजनीति आज अमेरिका केन्द्रित है, किन्तु यह भी एक तथ्य है कि अमेरिका के राजनीतिक, सांस्कृतिक व सैनिक प्रभुत्व को चीन, जापान, भारत, रूस आदि नवोदित शक्तियों से चुनौतियाँ मिलनी प्रारम्भ हो गयी हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या अमेरिका इस वैश्विक भूमिका को ओढ़कर आर्थिक, राजनीतिक एवं सैनिक दृष्टि से बोझिल, दुर्बल और विवादास्पद नहीं बन रहा है? सर्वाधिक शक्तिशाली भी कब तक शक्ति-सम्पन्न रह सकता है? अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी और नव-यथार्थवादी व्याख्याकार जिस प्रभुत्व-केन्द्रित विश्व की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को मूलतः और तत्त्वतः अराजक (Anarchical) मानते हैं, क्या ऐसा मानकर वे विश्व के राजनीतिक मानचित्र को रक्त-रंजित मानते हुए अमानवीयता का सिंहनाद नहीं कर रहे हैं? विश्व को शक्ति-राजनीति के साँचे में गढ़ने की इस विचार-दृष्टि की भारी कीमत चुकाकर भी क्या हम असंतुष्ट नहीं हैं? विश्व को महाशक्ति, मध्यम-शक्ति व लघु-शक्ति राज्यों में वर्गीकृत करने के पीछे कौन-सी दृष्टि, कौन-सा उद्देश्य
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वैश्विक राजनीति का वैचारिक मानचित्र एक दूसरे बियावान को दर्शाता है। विचारधाराओं (ideologies) के रूप में जो इहलोकवादी दृष्टिकोण (secular religions) उभरे, उन्होंने एक मानसिक लौह-पिंजर में हमारी बुद्धि एवं
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<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
 
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे

Revision as of 04:54, 8 January 2020

अध्याय १८

राकेश मिश्रा

राजनीतिक जीवन निरन्तर गतिमान है, यद्यपि यह गति मन्द और तीव्र होती रहती है। विश्व-राजनीति राष्ट्रीय राजनीति की अपेक्षा अधिक जटिल और अस्थिर है, क्योंकि यहाँ वैशिष्ट्य और वैभिन्न्य अधिक है। भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक भिन्नता ‘राष्ट्रीय हित' को सापेक्ष बना देती है, जिसकी प्राप्ति के लिए विभिन्न रूपों में शक्ति का अर्जन, संवर्धन एवं प्रदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। प्राचीन एवं मध्य युगों में जब सभ्यताओं में स्वपर्याप्तता एवं स्वायत्तता के भाव की प्रबलता थी और उनके बीच छुटपुट आदान-प्रदान और वे भी मुख्यत: व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में होते थे, ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति' या 'विश्व-राजनीति' जैसी अवधारणाएँ अप्रासंगिक थीं। परन्तु आधुनिक विश्व का स्वरूप भिन्न है । अन्तर्निर्भरता एवं अन्तक्रिया में असाधारण वृद्धि हुई है । जीवन-दृष्टि के विखण्डन ने, ऊर्ध्वगामिता के परित्याग ने राज्यों को अहंवादी, प्रतिस्पर्धात्मक, शक्तिलोलुप और विस्तारवादी बना दिया है। अहंकार व प्रतिस्पर्धा-जनित इस विखण्डन को हम कभी बहुलता, कभी विशिष्टता, तो कभी अस्मिता कहते हैं, और इस संकुचन से उपजे द्वन्द्व एवं संघर्ष को विश्व-राजनीति की स्वाभाविक स्थिति मान लेते हैं।

वैश्विक राजनीति के प्रमुख प्रवाहों पर हमें इस संदर्भ में विचार करना चाहिए। चाहे वैश्विक राजनीति का संरचनात्मक पक्ष हो अथवा उसका वैचारिक पक्ष, उसमें प्रतिस्पर्धा, द्वन्द्व, आधिपत्य, प्रभुत्व के तत्त्वों की निरन्तरता एवं प्रधानता दृष्टिगोचर होती है । वस्तुतः, विद्वत् जगत में इसे सहज-स्वाभाविक मानकर सिद्धान्त-निरूपण किया जाता है । अब यदि वैश्विक राजनीति का संरचनात्मक पक्ष लिया जाए तो वह बहु-ध्रुवीय (Multi-polar) से द्विध्रुवीय (Biopolar) और फिर एक-ध्रुवीय (Unipolar) हुआ है, परन्तु उसका संचालन इन्हीं तत्त्वों के आधार पर होता रहा है। १८१५ की वियना कांग्रसे से १९४५ के द्वितीय विश्वयुद्ध तक का विश्व बहुध्रुवीय था, अर्थात् लगभग समान शक्ति व प्रभाव वाले कई राज्यों के बीच निरन्तर प्रतिस्पर्धाऔर तनाव था जिसके फलस्वरूप नित नए दावे और नित नए गठबन्धन जन्म लेते थे । १८१५ की वियना कांग्रस ने विश्व-व्यवस्था की संरचना ब्रिटेन, रूस, प्रशिया, फ्रांस और आस्ट्रिया-हंगरी को धुरी मान कर की। इन ५ राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा एवं शक्ति-लिप्सा की परिणति दो महायुद्धों में हुई । द्वितीय विश्वयुद्ध ने इस बहुध्रुवीय विश्व को तार-तार कर दिया और विश्व-राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसे हम 'द्विध्रुवीय विश्व' कहते हैं। इस द्विध्रुवीय विश्व का दौर १९८९ तक चला।

इस द्वि-ध्रुवीय विश्व में विश्व-राजनीति सोवियत संघ व संयुक्त राज्य अमेरिका के ईद-गिर्द घूमती रही । ये दोनों महाशक्तियाँ अपनी वैचारिक, राजनीतिक एवं सैनिक श्रेष्ठता के दम्भ से ग्रस्त थीं, और विश्व के अधिकाधिक देशों को अपने खेमे में लाने के लिए साम, दाम, भेद, दण्ड- सभी साधनों का प्रयोग करती थीं। इन महाशक्तियों की प्रभुत्व एवं शक्ति की लिप्सा ने शीत-युद्ध (Cold war) के तनावपूर्ण दौर को जन्म दिया । यद्यपि भारत, यूगोस्लाविया और मिस्र के नेतृत्व में गुटनिरपेक्षता (Non alignment) के दर्शन को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया तथापि वह अरण्य रूदन ही सिद्ध हुआ ।

अनेक आन्तरिक एवं बाह्य कारणों के परिणामस्वरूप १९८९ में सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था का विघटन हुआ, और द्विध्रुवीय विश्व-व्यवस्था व । शीत-बुद्ध के दौर का पटक्षेप हुआ । शीत-युद्धोत्तर काल में संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व-राजनीति की एकमात्र धुरी बनकर उभरा, और इस नए दौर को एकध्रुवीय (unipolar) विश्व कहा गया । सोवियत संघ के विघटन को अमेरिका ने उदारवादी-पूंजीवादी व्यवस्था की नैतिक-राजनीतिक श्रेष्ठता का प्रमाण कहा और राजशास्त्रियों ने इसे 'विचारधारा के अन्त' (End of ideology) और इतिहास के अन्त' (End of History) की संज्ञा दी। शीत-युद्धोत्तर काल को वैश्वीकरण (Globalization) का आविर्भाव माना गया, जिसका अन्तर्निहित अर्थ सम्पूर्ण विश्व को अमेरिकी वैचारिक एवं सांस्कृतिक साँचे में ढालना है । यद्यपि विश्वराजनीति आज अमेरिका केन्द्रित है, किन्तु यह भी एक तथ्य है कि अमेरिका के राजनीतिक, सांस्कृतिक व सैनिक प्रभुत्व को चीन, जापान, भारत, रूस आदि नवोदित शक्तियों से चुनौतियाँ मिलनी प्रारम्भ हो गयी हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या अमेरिका इस वैश्विक भूमिका को ओढ़कर आर्थिक, राजनीतिक एवं सैनिक दृष्टि से बोझिल, दुर्बल और विवादास्पद नहीं बन रहा है? सर्वाधिक शक्तिशाली भी कब तक शक्ति-सम्पन्न रह सकता है? अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी और नव-यथार्थवादी व्याख्याकार जिस प्रभुत्व-केन्द्रित विश्व की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को मूलतः और तत्त्वतः अराजक (Anarchical) मानते हैं, क्या ऐसा मानकर वे विश्व के राजनीतिक मानचित्र को रक्त-रंजित मानते हुए अमानवीयता का सिंहनाद नहीं कर रहे हैं? विश्व को शक्ति-राजनीति के साँचे में गढ़ने की इस विचार-दृष्टि की भारी कीमत चुकाकर भी क्या हम असंतुष्ट नहीं हैं? विश्व को महाशक्ति, मध्यम-शक्ति व लघु-शक्ति राज्यों में वर्गीकृत करने के पीछे कौन-सी दृष्टि, कौन-सा उद्देश्य

वैश्विक राजनीति का वैचारिक मानचित्र एक दूसरे बियावान को दर्शाता है। विचारधाराओं (ideologies) के रूप में जो इहलोकवादी दृष्टिकोण (secular religions) उभरे, उन्होंने एक मानसिक लौह-पिंजर में हमारी बुद्धि एवं

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे