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सत्रहवीं शताब्दी की जो जानकारी प्राप्त होती है उसके आधार पर सन् १४९२ से पूर्व अथवा प्राचीन काल से यूरोप के पश्चिम एशिया, पर्शिया, भारत के सीमावर्ती प्रान्त तथा उत्तर आफ्रिका के साथ सम्बन्ध थे ही। ऐसा माना जाता है कि ईसाई युग के प्रारम्भ के समय में रोम तथा दक्षिण भारत के तमिलनाडु में स्थित तटीय प्रदेशों के मध्य आपसी व्यापार का सम्बन्ध था। इस प्रकार यूरोप को सत्रहवीं शताब्दी से चीन के पश्चिमी प्रदेशों की जानकारी थी।
 
सत्रहवीं शताब्दी की जो जानकारी प्राप्त होती है उसके आधार पर सन् १४९२ से पूर्व अथवा प्राचीन काल से यूरोप के पश्चिम एशिया, पर्शिया, भारत के सीमावर्ती प्रान्त तथा उत्तर आफ्रिका के साथ सम्बन्ध थे ही। ऐसा माना जाता है कि ईसाई युग के प्रारम्भ के समय में रोम तथा दक्षिण भारत के तमिलनाडु में स्थित तटीय प्रदेशों के मध्य आपसी व्यापार का सम्बन्ध था। इस प्रकार यूरोप को सत्रहवीं शताब्दी से चीन के पश्चिमी प्रदेशों की जानकारी थी।
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नए प्रदेशों की खोज, उस पर आक्रमण, साम्राज्य विस्तार इत्यादि घटनाएँ सन् १४९२ से ही नहीं शुरू हुई हैं। वे तो मानव का पृथ्वी पर उद्भव होने जितनी ही प्राचीन हैं। कहा जाता है कि ईसा पूर्व ३२६ में साहसी युवक सिकन्दर ने उत्तर पश्चिमी भारत में प्रवेश किया था। यद्यपि वह भारत के किसी भी विशिष्ट भाग को ग्रीस में समाविष्ट नहीं कर सका था। उसके लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् अर्थात् सातवीं शताब्दी में इस्लाम के नेतृत्व में अरबों ने दक्षिण यूरोप तथा भारत के पश्चिम में स्थित सिंध पर आक्रमण किया। इसके बाद ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में धर्मयुद्ध के नाम पर यूरोप ने बाईजेन्टियम, पश्चिम एशिया तथा तुर्कीस्तान की प्राचीन भूमि पर आक्रमण करके उनके अधिकांश प्रदेशों पर राज्य भी किया। यह धर्मयुद्ध पश्चिम यूरोप के उमराव पुत्रों की सरदारी में हुए जिसमें उनके साथ रोमन ईसाई गिरजाघरों की पीछे रहकर सहयोग देनेवाली शक्ति भी थी।
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नए प्रदेशों की खोज, उस पर आक्रमण, साम्राज्य विस्तार इत्यादि घटनाएँ सन् १४९२ से ही नहीं आरम्भ हुई हैं। वे तो मानव का पृथ्वी पर उद्भव होने जितनी ही प्राचीन हैं। कहा जाता है कि ईसा पूर्व ३२६ में साहसी युवक सिकन्दर ने उत्तर पश्चिमी भारत में प्रवेश किया था। यद्यपि वह भारत के किसी भी विशिष्ट भाग को ग्रीस में समाविष्ट नहीं कर सका था। उसके लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् अर्थात् सातवीं शताब्दी में इस्लाम के नेतृत्व में अरबों ने दक्षिण यूरोप तथा भारत के पश्चिम में स्थित सिंध पर आक्रमण किया। इसके बाद ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में धर्मयुद्ध के नाम पर यूरोप ने बाईजेन्टियम, पश्चिम एशिया तथा तुर्कीस्तान की प्राचीन भूमि पर आक्रमण करके उनके अधिकांश प्रदेशों पर राज्य भी किया। यह धर्मयुद्ध पश्चिम यूरोप के उमराव पुत्रों की सरदारी में हुए जिसमें उनके साथ रोमन ईसाई गिरजाघरों की पीछे रहकर सहयोग देनेवाली शक्ति भी थी।
    
ऐसा लगता है कि भारत के पास अपने लिए आवश्यक ऐसी तमाम समृद्धि तथा विशाल उपजाऊ जमीन होने के कारण वह इस प्रकार के विश्वव्यापी विजय की प्राप्ति के लिए तैयार नहीं था। या ऐसा भी हो सकता है कि भारत को न तो ऐसी कोई महत्त्वाकांक्षा थी, न ही इस प्रकार का कोई झुकाव; या फिर ऐसी जिहाद के लिए आवश्यक साहसिक उत्साह उसमें नहीं था। इसके बावजूद २००० वर्ष पूर्व अर्थात् विक्रम संवत के प्रारम्भ में भारत के विद्वान, पण्डित, बौद्ध भिक्षु इत्यादि एशिया खण्ड के विभिन्न भागों में फैले एवं बसे थे।
 
ऐसा लगता है कि भारत के पास अपने लिए आवश्यक ऐसी तमाम समृद्धि तथा विशाल उपजाऊ जमीन होने के कारण वह इस प्रकार के विश्वव्यापी विजय की प्राप्ति के लिए तैयार नहीं था। या ऐसा भी हो सकता है कि भारत को न तो ऐसी कोई महत्त्वाकांक्षा थी, न ही इस प्रकार का कोई झुकाव; या फिर ऐसी जिहाद के लिए आवश्यक साहसिक उत्साह उसमें नहीं था। इसके बावजूद २००० वर्ष पूर्व अर्थात् विक्रम संवत के प्रारम्भ में भारत के विद्वान, पण्डित, बौद्ध भिक्षु इत्यादि एशिया खण्ड के विभिन्न भागों में फैले एवं बसे थे।
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लगभग सन् १५०० से यूरोप का विस्तार केवल पश्चिम ही नहीं, पूर्व की ओर भी  हुआ। पश्चिम की ओर उसका ध्यान अमेरिका की विशाल जमीन, उसकी खनिज सम्पत्ति तथा वन्य सम्पत्ति पर था। जिसके कारण अमेरिका के समीप स्थित द्वीपों पर तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के पूर्वी खण्ड के प्रदेशों पर यूरोपवासियों की बस्तियाँ बढ़ने लगीं। कहा जाता है कि सन् १४९२ में जब यूरोप को अमेरिका खण्ड की जानकारी हुई तब वहाँ रहनेवालों की संख्या लगभग ९ से ११.२ करोड़ थी। जब कि यूरोप की जनसंख्या उस समय लगभग ६ से ७ करोड थी।<ref>एच. एफ. डोबिन्स, 'अमेरिका के मूल निवासियों की जनसंख्या का अनुमान : एस्टीमेटिंग अबोरिजिनल अमेरिकन पोप्युलेशन : Estimating Aboriginal American Population' करण्ट एंथ्रोपोलॉजी, खण्ड ७, क्र.  ४, अक्टूबर १९६६, पृ. ३९५-४४९</ref>
 
लगभग सन् १५०० से यूरोप का विस्तार केवल पश्चिम ही नहीं, पूर्व की ओर भी  हुआ। पश्चिम की ओर उसका ध्यान अमेरिका की विशाल जमीन, उसकी खनिज सम्पत्ति तथा वन्य सम्पत्ति पर था। जिसके कारण अमेरिका के समीप स्थित द्वीपों पर तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के पूर्वी खण्ड के प्रदेशों पर यूरोपवासियों की बस्तियाँ बढ़ने लगीं। कहा जाता है कि सन् १४९२ में जब यूरोप को अमेरिका खण्ड की जानकारी हुई तब वहाँ रहनेवालों की संख्या लगभग ९ से ११.२ करोड़ थी। जब कि यूरोप की जनसंख्या उस समय लगभग ६ से ७ करोड थी।<ref>एच. एफ. डोबिन्स, 'अमेरिका के मूल निवासियों की जनसंख्या का अनुमान : एस्टीमेटिंग अबोरिजिनल अमेरिकन पोप्युलेशन : Estimating Aboriginal American Population' करण्ट एंथ्रोपोलॉजी, खण्ड ७, क्र.  ४, अक्टूबर १९६६, पृ. ३९५-४४९</ref>
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उस समय अमेरिका के निवासी स्थानीय लोगों का जब तक लगभग सर्वनाश नहीं हुआ तब तक अर्थात् अनुमानतः ४०० वर्ष तक यूरोप ने उनसे असंख्य युद्ध किए। उन्हें गुलाम बनाने तथा उन्हें खदानों में तथा नए शुरू किए गए खेती इत्यादि काममें मजदूर के रूप में उपयोग में लेने के बहुत प्रयास किये। परन्तु उनकी यह योजना यशस्वी नहीं हुई; क्योंकि गुलाम बनने की अपेक्षा अपने विनाश को उन्होंने अधिक श्रेष्ठ माना।  
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उस समय अमेरिका के निवासी स्थानीय लोगों का जब तक लगभग सर्वनाश नहीं हुआ तब तक अर्थात् अनुमानतः ४०० वर्ष तक यूरोप ने उनसे असंख्य युद्ध किए। उन्हें गुलाम बनाने तथा उन्हें खदानों में तथा नए आरम्भ किए गए खेती इत्यादि काममें मजदूर के रूप में उपयोग में लेने के बहुत प्रयास किये। परन्तु उनकी यह योजना यशस्वी नहीं हुई; क्योंकि गुलाम बनने की अपेक्षा अपने विनाश को उन्होंने अधिक श्रेष्ठ माना।  
    
इन युद्धों से भी एक अन्य भीषण बात स्थानीय अमेरिका वासियों के लिए यह थी कि यूरोप से आनेवाले नवागन्तुक अपने साथ रोग भी लाए जो इन स्थानीय लोगों के लिए जानलेवा सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ यूरोप के देशों मे उस समय शीतला, चेचक, क्षय, मलेरिया, पीतज्वर, विषमज्वर के विभिन्न प्रकार तथा अनेक संसर्गजन्य गुप्त रोगों ने भीषण जानहानि की। इसके साथ ही सन् १६१८ के आसपास उत्तर अमेरिका के न्यू इंग्लैण्ड में प्लेग की महामारी फैली। यूरोपीयों के संसर्ग में आने से पहले अमेरिका के स्थानीय लोगों ने इस प्रकार के रोगों के जीवाणुओं का सामना नहीं किया था, इसलिए उनमें रोग प्रतिकारक शक्ति का अभाव था। परिणाम स्वरूप स्थानीय लोगों की बस्तियों का सफाया हो गया।<ref>बर्नार्ड डबल्यू शिहान, 'विनाश के बीज : जेफरसन की उदारता और अमेरिकन धार्मिक : सीड्स ऑव् एक्स्टींक्शन : जेफरसोनियन फिलान्थ्रोपी एण्ड द अमेरिकन इण्डियन : Seeds of Extinction : Jeffersonian Philanthropy and the American Indian १९७३, पृ. २२७-२२८</ref>  
 
इन युद्धों से भी एक अन्य भीषण बात स्थानीय अमेरिका वासियों के लिए यह थी कि यूरोप से आनेवाले नवागन्तुक अपने साथ रोग भी लाए जो इन स्थानीय लोगों के लिए जानलेवा सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ यूरोप के देशों मे उस समय शीतला, चेचक, क्षय, मलेरिया, पीतज्वर, विषमज्वर के विभिन्न प्रकार तथा अनेक संसर्गजन्य गुप्त रोगों ने भीषण जानहानि की। इसके साथ ही सन् १६१८ के आसपास उत्तर अमेरिका के न्यू इंग्लैण्ड में प्लेग की महामारी फैली। यूरोपीयों के संसर्ग में आने से पहले अमेरिका के स्थानीय लोगों ने इस प्रकार के रोगों के जीवाणुओं का सामना नहीं किया था, इसलिए उनमें रोग प्रतिकारक शक्ति का अभाव था। परिणाम स्वरूप स्थानीय लोगों की बस्तियों का सफाया हो गया।<ref>बर्नार्ड डबल्यू शिहान, 'विनाश के बीज : जेफरसन की उदारता और अमेरिकन धार्मिक : सीड्स ऑव् एक्स्टींक्शन : जेफरसोनियन फिलान्थ्रोपी एण्ड द अमेरिकन इण्डियन : Seeds of Extinction : Jeffersonian Philanthropy and the American Indian १९७३, पृ. २२७-२२८</ref>  
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== लेख ६ ==
 
== लेख ६ ==
यूरोपीयों ने जब अमेरिका की खोज करने के बाद वहाँ बसना प्रारम्भ किया तब उन्हें मजदूरों की बहुत आवश्यकता पड़ने लगी। अमेरिका के जो थोडे बहुत निवासी बचे थे उनसे मजदूरी का काम नहीं करवाया जा सकता था। यूरोपीय स्वयं तो खदान में काम करने, जगंल काटने या खेतीबाड़ी का काम करने जैसे परिश्रमी काम करने के लिए सक्षम नहीं थे। इसलिए उन्होंने पश्चिम तथा मध्य आफ्रिका के काले युवकों और प्रौढों को पकडना शुरू किया। जो इस पकड़ने के हिंसक दौर से बचे उन्हें जोर जबरदस्ती से गुलाम बनाया गया। इन गुलामों को जहाजों द्वारा अमेरिका भेजा गया। सन् १५०० से सन् १८७० के दौरान अमेरिका या अटलान्टिक महासागर के द्वीपों पर वास्तविक पहुँचे हुए ऐसे गुलामों की संख्या उस समय की समुद्रयात्रा से सम्बन्धित टिप्पणियों के अनुसार १ करोड़ जितनी है।<ref>अन्यों के साथ आर. उबल्यू. फोगेल और एस. एल. एंगरमन, 'समय क्रूस पर : अमेरिका के नीग्रो की गुलामी का अर्थकारण : टाइम ऑन क्रॉस : द इकनॉमिक्स ऑव् अमेरिकन नीग्रो स्लेवरी : Time on Cross. The economics of American Negro Slavery', १९८९, पृ. २१-२२। फोगेल और एंगरमन द्वारा निर्दिष्ट ९.५ लाख की संख्या अमेरिका में गुलामों के आयात को सूचित करती है।
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यूरोपीयों ने जब अमेरिका की खोज करने के बाद वहाँ बसना प्रारम्भ किया तब उन्हें मजदूरों की बहुत आवश्यकता पड़ने लगी। अमेरिका के जो थोडे बहुत निवासी बचे थे उनसे मजदूरी का काम नहीं करवाया जा सकता था। यूरोपीय स्वयं तो खदान में काम करने, जगंल काटने या खेतीबाड़ी का काम करने जैसे परिश्रमी काम करने के लिए सक्षम नहीं थे। इसलिए उन्होंने पश्चिम तथा मध्य आफ्रिका के काले युवकों और प्रौढों को पकडना आरम्भ किया। जो इस पकड़ने के हिंसक दौर से बचे उन्हें जोर जबरदस्ती से गुलाम बनाया गया। इन गुलामों को जहाजों द्वारा अमेरिका भेजा गया। सन् १५०० से सन् १८७० के दौरान अमेरिका या अटलान्टिक महासागर के द्वीपों पर वास्तविक पहुँचे हुए ऐसे गुलामों की संख्या उस समय की समुद्रयात्रा से सम्बन्धित टिप्पणियों के अनुसार १ करोड़ जितनी है।<ref>अन्यों के साथ आर. उबल्यू. फोगेल और एस. एल. एंगरमन, 'समय क्रूस पर : अमेरिका के नीग्रो की गुलामी का अर्थकारण : टाइम ऑन क्रॉस : द इकनॉमिक्स ऑव् अमेरिकन नीग्रो स्लेवरी : Time on Cross. The economics of American Negro Slavery', १९८९, पृ. २१-२२। फोगेल और एंगरमन द्वारा निर्दिष्ट ९.५ लाख की संख्या अमेरिका में गुलामों के आयात को सूचित करती है।
 
</ref> यदि हम विभिन्न प्रक्रियाएँ जैसी कि गुलामों को पकडना, अन्दरूनी क्षेत्रों से आफ्रिका के समुद्रतट पर लाना, जहाजों पर चढाना और लम्बी समुद्री यात्रा करवाना इत्यादि के दौरान मरनेवाले लोगों की गिनती का एक सामान्य अनुमान लगाएँ तो गुलामी की इस प्रक्रिया से प्रभावित काली आफ्रिकन प्रजा की संख्या लगभग पाँच करोड़ तक पहुँचेगी। कदाचित् यह संख्या दस करोड़ जितनी भी होगी। यद्यपि इस अनुमान में आफ्रिका के प्रभावित क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था में पैदा हुए विघटन या उनके समाज में हुई पुरुषों की संख्या की बहुत बड़ी मात्रा में कमी को या यूरोपीयों की घूसखोरी से प्रसूत नए रोगों को तो गिनती में लिया ही नहीं गया है।
 
</ref> यदि हम विभिन्न प्रक्रियाएँ जैसी कि गुलामों को पकडना, अन्दरूनी क्षेत्रों से आफ्रिका के समुद्रतट पर लाना, जहाजों पर चढाना और लम्बी समुद्री यात्रा करवाना इत्यादि के दौरान मरनेवाले लोगों की गिनती का एक सामान्य अनुमान लगाएँ तो गुलामी की इस प्रक्रिया से प्रभावित काली आफ्रिकन प्रजा की संख्या लगभग पाँच करोड़ तक पहुँचेगी। कदाचित् यह संख्या दस करोड़ जितनी भी होगी। यद्यपि इस अनुमान में आफ्रिका के प्रभावित क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था में पैदा हुए विघटन या उनके समाज में हुई पुरुषों की संख्या की बहुत बड़ी मात्रा में कमी को या यूरोपीयों की घूसखोरी से प्रसूत नए रोगों को तो गिनती में लिया ही नहीं गया है।
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== लेख ७ : एशिया में यूरोप का बढ़ता हुआ वर्चस्व ==
 
== लेख ७ : एशिया में यूरोप का बढ़ता हुआ वर्चस्व ==
यूरोप ने अमेरिका में अपने आधिपत्य का विस्तार किया एवं आफ्रिका में भी घूसखोरी शुरू की इसके साथ ही उसने पूर्व की ओर स्थित एशिया में भी अपना विस्तार शुरू किया। भारत पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजा गया उसके दस बारह वर्षों में ही यूरोप ने गोवा तथा उसके आसपास के प्रदेशों पर अपना कब्जा जमा लिया। सोलहवीं शताब्दी के मध्य में विशाल विजयनगर के राजकर्मियों ने शस्ञों के लिए पुर्तगालियों का आधार लिया, तो सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल सम्राट जहांगीर, एक ओर पश्चिम भारत एवं पर्शिया की खाडी तो दूसरी ओर अरेबिया के समुद्री मार्ग में अवरोध रूप बने हुए समुद्री डाकुओं को दूर करने के लिए अंग्रेजों की सहायता ले रहा था। इससे भारत पर यूरोप का उस समय कैसा प्रभाव था इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सन् १५५० तक तो श्रीलंका, मलेशिया, थाईलैण्ड एवं इण्डोनेशिया के टापु तथा उसके आसपास के प्रदेशों में यूरोप की उपस्थिति दिखने लगी थी।
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यूरोप ने अमेरिका में अपने आधिपत्य का विस्तार किया एवं आफ्रिका में भी घूसखोरी आरम्भ की इसके साथ ही उसने पूर्व की ओर स्थित एशिया में भी अपना विस्तार आरम्भ किया। भारत पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजा गया उसके दस बारह वर्षों में ही यूरोप ने गोवा तथा उसके आसपास के प्रदेशों पर अपना कब्जा जमा लिया। सोलहवीं शताब्दी के मध्य में विशाल विजयनगर के राजकर्मियों ने शस्ञों के लिए पुर्तगालियों का आधार लिया, तो सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल सम्राट जहांगीर, एक ओर पश्चिम भारत एवं पर्शिया की खाडी तो दूसरी ओर अरेबिया के समुद्री मार्ग में अवरोध रूप बने हुए समुद्री डाकुओं को दूर करने के लिए अंग्रेजों की सहायता ले रहा था। इससे भारत पर यूरोप का उस समय कैसा प्रभाव था इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सन् १५५० तक तो श्रीलंका, मलेशिया, थाईलैण्ड एवं इण्डोनेशिया के टापु तथा उसके आसपास के प्रदेशों में यूरोप की उपस्थिति दिखने लगी थी।
    
ऐसा लगता है कि सत्रहवीं शताब्दी में तो यूरोपने आफ्रिका के दक्षिण तथा पूर्व समुद्री किनारों के प्रदेशों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था। यह सब भिन्न भिन्न इस्ट इंडिया कंपनियों के माध्यम से किया गया था। यूरोप के भिन्न भिन्न राज्यों के द्वारा प्रेरणा दी गयी या उन प्रदेशों में कम्पनी चलाने के लिए लिखित परवाने दिए गए। साथ ही इन कंपनियों को यूरोप की स्थलसेना तथा नौसेना द्वारा संरक्षण दिया गया।
 
ऐसा लगता है कि सत्रहवीं शताब्दी में तो यूरोपने आफ्रिका के दक्षिण तथा पूर्व समुद्री किनारों के प्रदेशों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था। यह सब भिन्न भिन्न इस्ट इंडिया कंपनियों के माध्यम से किया गया था। यूरोप के भिन्न भिन्न राज्यों के द्वारा प्रेरणा दी गयी या उन प्रदेशों में कम्पनी चलाने के लिए लिखित परवाने दिए गए। साथ ही इन कंपनियों को यूरोप की स्थलसेना तथा नौसेना द्वारा संरक्षण दिया गया।
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अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ओस्ट्रेलिया तथा उसके आसपास के टापुओं में भी उन्होंने प्रवेश किया; और जो स्थिति अमेरिका की हुई उसीका पुनरावर्तन वहाँ भी हुआ।
 
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ओस्ट्रेलिया तथा उसके आसपास के टापुओं में भी उन्होंने प्रवेश किया; और जो स्थिति अमेरिका की हुई उसीका पुनरावर्तन वहाँ भी हुआ।
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लगभग सन् १७०० तक तो भारत के प्रमुख क्षेत्रों में यूरोप द्वारा कोई बड़ा हस्तक्षेप नहीं किया गया था। कदाचित् भारत बहुत विशाल एवं विविधतापूर्ण देश था एवं चीन तो उससे भी अधिक, इसलिए प्रयास कदाचित यही हुए होंगे कि पहले भारत को बाहर की तरफ से घेरा जाए, उसके अन्य प्रदेशों के साथ सम्पर्क काट दिए जाएँ एवं मौका मिलने पर उस पर सीधा आक्रमण किया जाए। ऐसी हलचल भले ही अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हुई हो, परन्तु प्रमुख आक्रमक क्रियाकलाप तो सन् १७५० के आसपास ही शुरू हुए। प्रारम्भ में मद्रास एवं उसके दस वर्ष बाद बंगाल में इसका प्रारम्भ हुआ। इसके बाद इस विजय प्राप्ति का सिलसिला एक शतक तक अर्थात् १८५० तक अविरत चलता रहा। चीन भारत की अपेक्षा अधिक विशाल एवं दुर्गम होने के कारण यूरोप का चीन में हस्तक्षेप १८०० के बाद ही शुरू हुआ। १८५० तक तो यूरोप ने समग्र विश्व पर अपना प्रभुत्व प्राप्त कर लिया।
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लगभग सन् १७०० तक तो भारत के प्रमुख क्षेत्रों में यूरोप द्वारा कोई बड़ा हस्तक्षेप नहीं किया गया था। कदाचित् भारत बहुत विशाल एवं विविधतापूर्ण देश था एवं चीन तो उससे भी अधिक, इसलिए प्रयास कदाचित यही हुए होंगे कि पहले भारत को बाहर की तरफ से घेरा जाए, उसके अन्य प्रदेशों के साथ सम्पर्क काट दिए जाएँ एवं मौका मिलने पर उस पर सीधा आक्रमण किया जाए। ऐसी हलचल भले ही अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हुई हो, परन्तु प्रमुख आक्रमक क्रियाकलाप तो सन् १७५० के आसपास ही आरम्भ हुए। प्रारम्भ में मद्रास एवं उसके दस वर्ष बाद बंगाल में इसका प्रारम्भ हुआ। इसके बाद इस विजय प्राप्ति का सिलसिला एक शतक तक अर्थात् १८५० तक अविरत चलता रहा। चीन भारत की अपेक्षा अधिक विशाल एवं दुर्गम होने के कारण यूरोप का चीन में हस्तक्षेप १८०० के बाद ही आरम्भ हुआ। १८५० तक तो यूरोप ने समग्र विश्व पर अपना प्रभुत्व प्राप्त कर लिया।
    
== लेख ८ : धार्मिक समाज एवं राज्य व्यवस्था में प्रवेश ==
 
== लेख ८ : धार्मिक समाज एवं राज्य व्यवस्था में प्रवेश ==
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इस से लगता है कि धार्मिक समाज एक मंद गति से बहता हुआ अचल प्रवाह है जो घटनाओं रूपी अवरोधों से अपनी दिशा नहीं बदलता है। आपसी सहमति, समानता एवं सन्तुलन भारत के लिए नवीन भविष्य के अतिशय मोहक प्रतिबिम्ब से भी अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कोई बदलाव या परिवर्तन ही नहीं है, परन्तु वे धार्मिक समाज में तभी आवकार्य रहे जब उन्होंने उनकी आपसी सहमति या सन्तुलन को बनाए रखा। इसलिए धार्मिक राजकर्ता की भूमिका केवल एक मार्गदर्शक की या फिर प्लेटो द्वारा दर्शाए गए आदर्श पुरुष की या तो एक नियामक की है जो एक प्रबन्धकर्ता के रूप में रहकर स्थानीय या प्रान्तीय लोगों के रीति  रिवाज एवं पसन्द, नापसन्द के अनुसार कार्य करे। यह एक ऐसी सांस्कृतिक राज्य व्यवस्था है जो अपने विविध भागों के मध्य समान मूलभूत विचार तथा लक्ष्य से युक्त है। फिर भी उनके मध्य का जोड सूत के तन्तु के समान नरम एवं मजबूत है। 'चक्रवर्ती' का विचार भारत के एक होकर मिलजुल कर रहने का स्वभाव तथा उसके अभिजात समाज का प्रतीक है ऐसा भासित होता है। चक्रवर्ती के प्रतीक ने कदाचित यह एकचक्री राज्यव्यवस्था को शक्ति एवं अजेयता प्रदान की है।
 
इस से लगता है कि धार्मिक समाज एक मंद गति से बहता हुआ अचल प्रवाह है जो घटनाओं रूपी अवरोधों से अपनी दिशा नहीं बदलता है। आपसी सहमति, समानता एवं सन्तुलन भारत के लिए नवीन भविष्य के अतिशय मोहक प्रतिबिम्ब से भी अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कोई बदलाव या परिवर्तन ही नहीं है, परन्तु वे धार्मिक समाज में तभी आवकार्य रहे जब उन्होंने उनकी आपसी सहमति या सन्तुलन को बनाए रखा। इसलिए धार्मिक राजकर्ता की भूमिका केवल एक मार्गदर्शक की या फिर प्लेटो द्वारा दर्शाए गए आदर्श पुरुष की या तो एक नियामक की है जो एक प्रबन्धकर्ता के रूप में रहकर स्थानीय या प्रान्तीय लोगों के रीति  रिवाज एवं पसन्द, नापसन्द के अनुसार कार्य करे। यह एक ऐसी सांस्कृतिक राज्य व्यवस्था है जो अपने विविध भागों के मध्य समान मूलभूत विचार तथा लक्ष्य से युक्त है। फिर भी उनके मध्य का जोड सूत के तन्तु के समान नरम एवं मजबूत है। 'चक्रवर्ती' का विचार भारत के एक होकर मिलजुल कर रहने का स्वभाव तथा उसके अभिजात समाज का प्रतीक है ऐसा भासित होता है। चक्रवर्ती के प्रतीक ने कदाचित यह एकचक्री राज्यव्यवस्था को शक्ति एवं अजेयता प्रदान की है।
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यह राज्य व्यवस्था भारत में पुरातन काल से चली आ रही है। यूरोपीयों की कल्पना ऐसी है कि भारतवासी मूल भारत के नहीं है। (उनके मतानुसार कदाचित् भारत में भी अमेरिका के समान आक्रमण हुए होंगे।) परन्तु ऐसा कहना अधिक सही होगा कि प्राचीन भारतवर्ष का एक भाग भारत, एक ऐसा देश है जिस पर कदाचित् कम से कम आक्रमण हुए होंगे। जब कि ऐसा भी नहीं है कि यहाँ के सभी भारतवासी एक ही स्रोत से आए हों। कुछेक परदेशियों ने समयान्तर में भारत में प्रवेश भी किया था। जिनमें सबसे बाद के विदेशी भारत के पश्चिम में स्थित सीमावर्ती प्रदेश से आए थे। फिर भी लगभग बारहवीं शताब्दी के अन्त तक तो भारत का शासन प्रशासन अपने ही राज्य कर्ताओं तथा अपनी ही राज्य व्यवस्था के द्वारा चला। तेरहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के दौरान मुगलों द्वारा किए गए आक्रमण या उनका वर्चस्च भारत पर होने के बावजूद भी वे भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था को हानि नहीं पहुंचा पाए थे। परन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों मुगलों का हस्तक्षेप धार्मिक समाज पर बढता गया। कुछ हद तक समाज दुर्बल व भीरू बनता गया। जिसके कारण वह अपनी आन्तरिक शक्ति के विषय में संशयग्रस्त बनता गया। यद्यपि इस दुर्बलता या अनिश्चितता के मनोभाव का मूल कदाचित भारत की प्राचीन पद्धति में भी हो। १९ वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत की शूरवीरता कुछ हद तक टिकी रही। ब्रिटन के आधिपत्य के प्रारम्भ के उसके राज्यप्रबन्ध के विषय में भारतवासियों द्वारा अवश्य विरोध किया गया, क्यों कि उनका व्यवहार धार्मिक नियमों के अनुसार 'अन्यायपूर्ण' था। इस विरोध के द्वारा उन्हें समझाया गया कि वे जो कर रहे हैं उस 'अन्यायपूर्ण व्यवहार' को बदलकर धार्मिक नियमों के अनुसार चलें। इसके लिए महात्मा गांधी द्वारा सूचित 'सत्याग्रह' के विशिष्ट प्रयोग जैसे असहयोग, बहिष्कार, या सविनय कानूनभंग इत्यादि भी शुरू हुए। किसानों, मजदूरों नगरवासियों, द्वारा ऐसे अनेक प्रकार के विरोध का प्रदर्शन किया गया। एक विशिष्ट उदाहरण के रूप में १८१०-११ में प्राचीन वाराणसी तथा वर्तमान उत्तरप्रदेश तथा बिहार के कुछ नगरों के आवासों पर ब्रिटिश राज्य द्वारा 'कर' लगाया गया। उस समय का वृत्तान्त दर्शाता है कि उस 'कर' के विरोध में किसानों, एवं मजदूरों, विशेष करके सुनार, लुहार जैसे धातु से सम्बन्धित कारीगरों एवं कुछ तन्त्रज्ञों ने भी भाग लिया था। जिसमें लगभग २०,००० लोगों ने कई दिनों तक वाराणसी में धरना दिया था और कहा जाता है कि पडोस के शहरों से लगभग २,००,००० लोग वहाँ एकत्र हुए थे। मरघट के डोम ने भी अपना काम बन्द कर दिया था एवं मृतदेहों को भी बिना अन्तिम संस्कार किए ही गंगा में प्रवाहित कर दिया गया था।<ref>अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में जो भी टक्कर हुई उसके विषय में पुरातन लेख और अन्य सामग्री व्यापक रूप में उपलब्ध है। उसमें अधिकांश सामग्री धार्मिक पुरातन लेख के रूप में भी निरूपित है। सन् १८१०-११ में आवास कर के विरोध में उठे जनआंदोलन का ब्यौरा 'धार्मिक परम्परा में असहयोग', पुनरुत्थान, २००७ में उपलब्ध है।
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यह राज्य व्यवस्था भारत में पुरातन काल से चली आ रही है। यूरोपीयों की कल्पना ऐसी है कि भारतवासी मूल भारत के नहीं है। (उनके मतानुसार कदाचित् भारत में भी अमेरिका के समान आक्रमण हुए होंगे।) परन्तु ऐसा कहना अधिक सही होगा कि प्राचीन भारतवर्ष का एक भाग भारत, एक ऐसा देश है जिस पर कदाचित् कम से कम आक्रमण हुए होंगे। जब कि ऐसा भी नहीं है कि यहाँ के सभी भारतवासी एक ही स्रोत से आए हों। कुछेक परदेशियों ने समयान्तर में भारत में प्रवेश भी किया था। जिनमें सबसे बाद के विदेशी भारत के पश्चिम में स्थित सीमावर्ती प्रदेश से आए थे। फिर भी लगभग बारहवीं शताब्दी के अन्त तक तो भारत का शासन प्रशासन अपने ही राज्य कर्ताओं तथा अपनी ही राज्य व्यवस्था के द्वारा चला। तेरहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के दौरान मुगलों द्वारा किए गए आक्रमण या उनका वर्चस्च भारत पर होने के बावजूद भी वे भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था को हानि नहीं पहुंचा पाए थे। परन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों मुगलों का हस्तक्षेप धार्मिक समाज पर बढता गया। कुछ हद तक समाज दुर्बल व भीरू बनता गया। जिसके कारण वह अपनी आन्तरिक शक्ति के विषय में संशयग्रस्त बनता गया। यद्यपि इस दुर्बलता या अनिश्चितता के मनोभाव का मूल कदाचित भारत की प्राचीन पद्धति में भी हो। १९ वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत की शूरवीरता कुछ हद तक टिकी रही। ब्रिटन के आधिपत्य के प्रारम्भ के उसके राज्यप्रबन्ध के विषय में भारतवासियों द्वारा अवश्य विरोध किया गया, क्यों कि उनका व्यवहार धार्मिक नियमों के अनुसार 'अन्यायपूर्ण' था। इस विरोध के द्वारा उन्हें समझाया गया कि वे जो कर रहे हैं उस 'अन्यायपूर्ण व्यवहार' को बदलकर धार्मिक नियमों के अनुसार चलें। इसके लिए महात्मा गांधी द्वारा सूचित 'सत्याग्रह' के विशिष्ट प्रयोग जैसे असहयोग, बहिष्कार, या सविनय कानूनभंग इत्यादि भी आरम्भ हुए। किसानों, मजदूरों नगरवासियों, द्वारा ऐसे अनेक प्रकार के विरोध का प्रदर्शन किया गया। एक विशिष्ट उदाहरण के रूप में १८१०-११ में प्राचीन वाराणसी तथा वर्तमान उत्तरप्रदेश तथा बिहार के कुछ नगरों के आवासों पर ब्रिटिश राज्य द्वारा 'कर' लगाया गया। उस समय का वृत्तान्त दर्शाता है कि उस 'कर' के विरोध में किसानों, एवं मजदूरों, विशेष करके सुनार, लुहार जैसे धातु से सम्बन्धित कारीगरों एवं कुछ तन्त्रज्ञों ने भी भाग लिया था। जिसमें लगभग २०,००० लोगों ने कई दिनों तक वाराणसी में धरना दिया था और कहा जाता है कि पडोस के शहरों से लगभग २,००,००० लोग वहाँ एकत्र हुए थे। मरघट के डोम ने भी अपना काम बन्द कर दिया था एवं मृतदेहों को भी बिना अन्तिम संस्कार किए ही गंगा में प्रवाहित कर दिया गया था।<ref>अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में जो भी टक्कर हुई उसके विषय में पुरातन लेख और अन्य सामग्री व्यापक रूप में उपलब्ध है। उसमें अधिकांश सामग्री धार्मिक पुरातन लेख के रूप में भी निरूपित है। सन् १८१०-११ में आवास कर के विरोध में उठे जनआंदोलन का ब्यौरा 'धार्मिक परम्परा में असहयोग', पुनरुत्थान, २००७ में उपलब्ध है।
 
</ref> भारत के लगभग सभी प्रान्तों में ऐसे अनेकों विरोध ब्रिटिश राज्य के प्रारम्भ में किए गए। सन् १८४३ में सूरत शहर में ब्रिटिश सरकार द्वारा 'नमक पर कर' लगाया गया तब वहाँ भी उसका अप्रत्याशित विरोध किया गया था।<ref>सन् १८४३ में नमक पर डाले गये कर के विरोध में सुरत में हुए आन्दोलन का विवरण उसी वर्ष के मुम्बई प्रेसीडेन्सी रिकार्ड में उपलब्ध है।
 
</ref> भारत के लगभग सभी प्रान्तों में ऐसे अनेकों विरोध ब्रिटिश राज्य के प्रारम्भ में किए गए। सन् १८४३ में सूरत शहर में ब्रिटिश सरकार द्वारा 'नमक पर कर' लगाया गया तब वहाँ भी उसका अप्रत्याशित विरोध किया गया था।<ref>सन् १८४३ में नमक पर डाले गये कर के विरोध में सुरत में हुए आन्दोलन का विवरण उसी वर्ष के मुम्बई प्रेसीडेन्सी रिकार्ड में उपलब्ध है।
 
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यह सम्भव है कि विश्व अब कदाचित धीरे धीरे, परन्तु एक होने की दिशा में, वसुधैव कुटुम्बकम की नयी (?) सोच साथ लेकर, सृष्टिसर्जन की स्वचालित प्रक्रिया को स्वीकार करके विशुद्ध समझ के साथ आगे बढ़ रहा है। यह यदि सच है तो यह नूतन दृष्टि सबका नारा बन जाएगी। सभी को उसे अपनाना ही पडेगा। इसके लिए प्रत्येक को आत्मखोज करनी पड़ेगी। ऐसी खोज समग्र समाज, राज्य, राष्ट्र, यूरोप या अन्य सभी को करनी ही पडेगी। ऐसा आत्मदर्शन, आत्मनिवेदन, गत पाँच शाताब्दियों के हमारे भयानक कृत्यों के लिए पश्चाताप की भूमिका निभायेगा एवं अब तक जो भी हानि हुई है उसकी पूर्ति के या सुधार के उपाय का अवसर भी देगा।
 
यह सम्भव है कि विश्व अब कदाचित धीरे धीरे, परन्तु एक होने की दिशा में, वसुधैव कुटुम्बकम की नयी (?) सोच साथ लेकर, सृष्टिसर्जन की स्वचालित प्रक्रिया को स्वीकार करके विशुद्ध समझ के साथ आगे बढ़ रहा है। यह यदि सच है तो यह नूतन दृष्टि सबका नारा बन जाएगी। सभी को उसे अपनाना ही पडेगा। इसके लिए प्रत्येक को आत्मखोज करनी पड़ेगी। ऐसी खोज समग्र समाज, राज्य, राष्ट्र, यूरोप या अन्य सभी को करनी ही पडेगी। ऐसा आत्मदर्शन, आत्मनिवेदन, गत पाँच शाताब्दियों के हमारे भयानक कृत्यों के लिए पश्चाताप की भूमिका निभायेगा एवं अब तक जो भी हानि हुई है उसकी पूर्ति के या सुधार के उपाय का अवसर भी देगा।
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अन्त में इतना ही है कि जब ऐसे भयानक कृत्य शुरू हुए एवं यूरोप की चालाकी ने अग्नि में घी डालने का काम किया तब गैरयूरोपीय विश्व ने यूरोप को दोष दे देकर अपनी स्थिति को अधिक बिगड़ने दिया। यूरोप के प्रभाव से पूर्व गैरयूरोपीय लोग तो सृष्टिसर्जन को नैसर्गिक मानकर स्वयं को अन्यों का स्वामी नहीं मानते थे। वे तो सृष्टि के अन्य सभी के साथ सहअस्तित्व के सम्बन्ध बनाने में लगे थे। उनका ऐसा व्यवहार समयान्तर में भी तटस्थ नहीं बना। यूरोप को दोषित मानने में स्वंय ही पामर, दुःखदायी एवं लुटेरों के समान बन गया। अब विवेकपूर्ण सन्तुलन मात्र यूरोप के द्वारा आत्मखोज या पश्चाताप करने से प्राप्त नहीं होगा अपितु गैरयूरोपीय विश्व को भी इस प्रक्रिया में सहभागी बनना पडेगा।<ref>धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), अध्याय ३१; प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>
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अन्त में इतना ही है कि जब ऐसे भयानक कृत्य आरम्भ हुए एवं यूरोप की चालाकी ने अग्नि में घी डालने का काम किया तब गैरयूरोपीय विश्व ने यूरोप को दोष दे देकर अपनी स्थिति को अधिक बिगड़ने दिया। यूरोप के प्रभाव से पूर्व गैरयूरोपीय लोग तो सृष्टिसर्जन को नैसर्गिक मानकर स्वयं को अन्यों का स्वामी नहीं मानते थे। वे तो सृष्टि के अन्य सभी के साथ सहअस्तित्व के सम्बन्ध बनाने में लगे थे। उनका ऐसा व्यवहार समयान्तर में भी तटस्थ नहीं बना। यूरोप को दोषित मानने में स्वंय ही पामर, दुःखदायी एवं लुटेरों के समान बन गया। अब विवेकपूर्ण सन्तुलन मात्र यूरोप के द्वारा आत्मखोज या पश्चाताप करने से प्राप्त नहीं होगा अपितु गैरयूरोपीय विश्व को भी इस प्रक्रिया में सहभागी बनना पडेगा।<ref>धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), अध्याय ३१; प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>
 
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