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{{One source}}आज से चार वर्ष पश्चात्, १९९२ में यूरोप विश्व की खोज में निकला इस घटना को ५०० वर्ष पूर्ण हुए। सन् १४९२ में क्रिस्टोफर कोलम्बस अपने नौका काफिले के साथ अमेरिका के तट पर उतरा। वह पुर्तगाल, इटली या अन्य किसी देश का था यह कोई खास बात नहीं है। वह यूरोप का था इतना कहना पर्याप्त है। उसे यूरोपीय राज्यों की एवं धनिकों की सम्पूर्ण सहायता मिली थी। यूरोप का इससे पूर्व, या तो बहुत ही प्राचीन समय से उत्तर आफ्रिका, एशिया के कुछ प्रदेश, पूर्व एवं पश्चिम आफ्रिका के कुछ प्रदेश इत्यादि के साथ सीधा सम्बन्ध था। परन्तु यूरोप के साहसवीरों तथा यूरोप के राज्यों को नए नए प्रदेश खोजने की इच्छा जगी। ‘ब्लैक डेथ' जेसी घटना भी इस चाह के लिए प्रेरणास्रोत बनी होगी। परन्तु यह घटना १५ वीं शताब्दी के मध्य में घटी। प्रारम्भ में वे पश्चिम आफ्रिका गए। पचास वर्ष के अन्दर अन्दर वे अभी तक विश्व को अज्ञात ऐसे अमेरिका तक पहुँच गये। पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त से पूर्व उन्होंने भारत आने का समुद्री मार्ग खोज लिया एवं दक्षिण तथा दक्षिण पूर्व आफ्रिका, हिन्द महासागर के द्वीप समूह तथा तटीय प्रदेशों एवं दक्षिण, दक्षिण पूर्व एवं पूर्व एशिया के साथ सम्पर्क बढाया। सन् १५५० तक तो यूरोप ने केवल गोवा के आसपास के कुछ प्रदेश में ही नहीं अपितु श्रीलंका एवं दक्षिण पूर्व एशिया के प्रदेशों पर अपना प्रभुत्व जमा लिया। अमेरिका एवं पूर्व की ओर आनेवाले समुद्री मार्ग की खोज के सौ वर्षों में तो बहुत दूर के एवं संस्कृति की दृष्टि से यूरोप की अपेक्षा भिन्न व्यक्तित्ववाले जापान में भी इतना प्रभाव पड़ा कि सन् १६०० के समीप लगभग ४ लाख जापानियों ने धर्मपरिवर्तन कर लिया एवं वे ईसाई बन गए। परन्तु लगभग सन् १६४० में ही जापान ने निर्णय कर लिया कि डचों को जापान के बन्दरगाह पर कभी भी उतरने की जो अनुमति दी गई थी उस पर रोक लगा दी जाए। यूरोप के लिए जापान के दरवाजे भी बन्द करके केवल तन्त्रज्ञान एवं व्यापार के लिए ही सीमित सम्बन्ध रखना तय हआ। कोलम्बस अमेरिका पहँचा एवं अमेरिका के तटीय प्रदेशों तथा एटलान्टिक महासागर के द्वीपों में खेती प्रारम्भ हुई एवं बस्तियाँ बसीं इसके कुछ ही वर्षों में यूरोप ने आफ्रिका के काले लोगों को गुलाम बनाकर इन बस्तियों में लाने का सुनियोजित रूप से एक अभियान ही प्रारम्भ किया। एक सामान्य अंदाज के अनुसार भी गुलाम पकडने से लेकर अमेरिका में अटलान्टिक के द्वीपों तक पहुँचने के बीच लगभग ८० प्रतिशत लोगों की मृत्यु हो गई। इस अभियान के प्रारम्भ होने से लेकर बाद के ३०० वर्षों में तो इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त आफ्रिकन स्त्री पुरूषों की संख्या दस करोड़ तक पहुँच गई होगी। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब गुलामी नहीं परन्तु गुलामों का व्यापार बंद करने की हलचल प्रारम्भ हुई तब अमेरिका में यूरोपीय निवासियों की अपेक्षा आफ्रिका से पकड़कर लाए गए गुलामों की संख्या अधिक थी।
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== लेख १ ==
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आज से चार वर्ष पश्चात्, १९९२ में यूरोप विश्व की खोज में निकला इस घटना को ५०० वर्ष पूर्ण हुए। सन् १४९२ में क्रिस्टोफर कोलम्बस अपने नौका काफिले के साथ अमेरिका के तट पर उतरा। वह पुर्तगाल, इटली या अन्य किसी देश का था यह कोई खास बात नहीं है। वह यूरोप का था इतना कहना पर्याप्त है। उसे यूरोपीय राज्यों की एवं धनिकों की सम्पूर्ण सहायता मिली थी। यूरोप का इससे पूर्व, या तो बहुत ही प्राचीन समय से उत्तर आफ्रिका, एशिया के कुछ प्रदेश, पूर्व एवं पश्चिम आफ्रिका के कुछ प्रदेश इत्यादि के साथ सीधा सम्बन्ध था। परन्तु यूरोप के साहसवीरों तथा यूरोप के राज्यों को नए नए प्रदेश खोजने की इच्छा जगी। ‘ब्लैक डेथ' जेसी घटना भी इस चाह के लिए प्रेरणास्रोत बनी होगी। परन्तु यह घटना १५ वीं शताब्दी के मध्य में घटी। प्रारम्भ में वे पश्चिम आफ्रिका गए। पचास वर्ष के अन्दर अन्दर वे अभी तक विश्व को अज्ञात ऐसे अमेरिका तक पहुँच गये। पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त से पूर्व उन्होंने भारत आने का समुद्री मार्ग खोज लिया एवं दक्षिण तथा दक्षिण पूर्व आफ्रिका, हिन्द महासागर के द्वीप समूह तथा तटीय प्रदेशों एवं दक्षिण, दक्षिण पूर्व एवं पूर्व एशिया के साथ सम्पर्क बढाया। सन् १५५० तक तो यूरोप ने केवल गोवा के आसपास के कुछ प्रदेश में ही नहीं अपितु श्रीलंका एवं दक्षिण पूर्व एशिया के प्रदेशों पर अपना प्रभुत्व जमा लिया। अमेरिका एवं पूर्व की ओर आनेवाले समुद्री मार्ग की खोज के सौ वर्षों में तो बहुत दूर के एवं संस्कृति की दृष्टि से यूरोप की अपेक्षा भिन्न व्यक्तित्ववाले जापान में भी इतना प्रभाव पड़ा कि सन् १६०० के समीप लगभग ४ लाख जापानियों ने धर्मपरिवर्तन कर लिया एवं वे ईसाई बन गए। परन्तु लगभग सन् १६४० में ही जापान ने निर्णय कर लिया कि डचों को जापान के बन्दरगाह पर कभी भी उतरने की जो अनुमति दी गई थी उस पर रोक लगा दी जाए। यूरोप के लिए जापान के दरवाजे भी बन्द करके केवल तन्त्रज्ञान एवं व्यापार के लिए ही सीमित सम्बन्ध रखना तय हुआ। कोलम्बस अमेरिका पहुँचा एवं अमेरिका के तटीय प्रदेशों तथा एटलान्टिक महासागर के द्वीपों में खेती प्रारम्भ हुई एवं बस्तियाँ बसीं इसके कुछ ही वर्षों में यूरोप ने आफ्रिका के काले लोगों को गुलाम बनाकर इन बस्तियों में लाने का सुनियोजित रूप से एक अभियान ही प्रारम्भ किया। एक सामान्य अंदाज के अनुसार भी गुलाम पकडने से लेकर अमेरिका में अटलान्टिक के द्वीपों तक पहुँचने के बीच लगभग ८० प्रतिशत लोगों की मृत्यु हो गई। इस अभियान के प्रारम्भ होने से लेकर बाद के ३०० वर्षों में तो इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त आफ्रिकन स्त्री पुरूषों की संख्या दस करोड़ तक पहुँच गई होगी। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब गुलामी नहीं परन्तु गुलामों का व्यापार बंद करने की हलचल प्रारम्भ हुई तब अमेरिका में यूरोपीय निवासियों की अपेक्षा आफ्रिका से पकड़कर लाए गए गुलामों की संख्या अधिक थी।
    
सन् १६०० के आसपास यूरोप के अलग अलग राज्यों ने भारत के भी विभिन्न प्रदेशों में आना प्रारम्भ किया। पश्चिम, पूर्व एवं दक्षिण आफ्रिका की समुद्र तटीय पट्टी में तथा एशिया के मार्ग पर पडनेवाले द्वीपों में यूरोप से इन प्रदेशों में आनेवाले समुद्री जहाजों को इन्धन, पानी एवं विश्राम के लिये स्थान मिले इस उद्देश्य से वे सुदृढ किलेबन्दी करने लगे। यूरोप का भारत पर प्रभाव इस बात से जाना जा सकता है कि महान विजयनगर साम्राज्य के राजा शस्त्रों के लिए पुर्तगालियों पर निर्भर रहने लगे एवं जहांगीर ने अरबस्तान, पर्शियन खाडी एवं भारत के बीच उस काल में जहाजी डाकू के रूप में पहचाने जानेवाले समुद्री लुटेरों से समुद्र को मुक्त करने के लिए अंग्रेजों से सहायता मांगी। सन् १६०० से बहुत पूर्व बर्मा में बन्दरगाहों का अधिपति ब्रिटिश था।
 
सन् १६०० के आसपास यूरोप के अलग अलग राज्यों ने भारत के भी विभिन्न प्रदेशों में आना प्रारम्भ किया। पश्चिम, पूर्व एवं दक्षिण आफ्रिका की समुद्र तटीय पट्टी में तथा एशिया के मार्ग पर पडनेवाले द्वीपों में यूरोप से इन प्रदेशों में आनेवाले समुद्री जहाजों को इन्धन, पानी एवं विश्राम के लिये स्थान मिले इस उद्देश्य से वे सुदृढ किलेबन्दी करने लगे। यूरोप का भारत पर प्रभाव इस बात से जाना जा सकता है कि महान विजयनगर साम्राज्य के राजा शस्त्रों के लिए पुर्तगालियों पर निर्भर रहने लगे एवं जहांगीर ने अरबस्तान, पर्शियन खाडी एवं भारत के बीच उस काल में जहाजी डाकू के रूप में पहचाने जानेवाले समुद्री लुटेरों से समुद्र को मुक्त करने के लिए अंग्रेजों से सहायता मांगी। सन् १६०० से बहुत पूर्व बर्मा में बन्दरगाहों का अधिपति ब्रिटिश था।
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सन् १७०० तक या फिर सन् १७५० तक अमेरिका में यूरोपीय मूल के लोगों की संख्या कम होने पर भी उनका प्रभाव एवं शासन जम गए। कोलम्बस जब अमेरिका पहुँचा तब वहाँ के मूल निवासियों की संख्या लगभग नौ से ग्यारह करोड़ थी। सन् १७०० तक तो निःशस्त्रों की हत्या के कारण, यूरोपीय लोगों के आक्रमण के कारण एवं युद्ध के कारण यह संख्या आधी हो गई, यद्यपि उनका सम्पूर्ण उच्छेद उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में हुआ।
 
सन् १७०० तक या फिर सन् १७५० तक अमेरिका में यूरोपीय मूल के लोगों की संख्या कम होने पर भी उनका प्रभाव एवं शासन जम गए। कोलम्बस जब अमेरिका पहुँचा तब वहाँ के मूल निवासियों की संख्या लगभग नौ से ग्यारह करोड़ थी। सन् १७०० तक तो निःशस्त्रों की हत्या के कारण, यूरोपीय लोगों के आक्रमण के कारण एवं युद्ध के कारण यह संख्या आधी हो गई, यद्यपि उनका सम्पूर्ण उच्छेद उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में हुआ।
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सन् १७०० के बाद यूरोप ने पूर्व की ओर विशेष ध्यान दिया। उनमें एक केन्द्र भारत था। भारत में सन् १७५० से यूरोप की उपस्थिति विशेष रूप से दिखाई देने लगी। सन् १७५० से तो यूरोप भारत को पूर्णतया जीत लेने की सुनियोजित योजना बनाने लगा। इसी समय यूरोप ने आस्ट्रेलिया एवं उसके समीप के द्वीपों की खोज की। सन् १८०० के तुरन्त बाद यूरोप ने चीन जाने का प्रारम्भ किया। सन् १८५० तक यूरोप समग्र विश्व का अधिपति बन गया। यूरोप का ऐसा आधिपत्य विश्व के इतिहास में प्रथम ही है। कई शताब्दियों तक इस्लाम ने लगभग आधी दुनिया पर अपना शासन जमाया था। उसने भी यूरोप के समान ही तबाही मचाई थी। इस्लाम से पूर्व भगवान बुद्ध के उपदेशों का लगभग आधे विश्व पर प्रभाव था। परन्तु उसमें हिंसा का तनिक भी अंश नहीं था। एशिया के बहुत से हिस्सों में भगवान बुद्ध के उपदेश के फलस्वरूप निर्मित संस्थाएँ एवं मनोभाव आज भी अस्तित्व में हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से तो भारत का प्रभाव पूर्व एशिया एवं मध्य एशिया के बहुत से देशों पर पड़ा था। पूर्ण सम्भावना है कि भारत तथा अन्य संस्कृतियों को भी विश्वविजय की आकांक्षा जगी होगी। परन्तु उसके लिए आवश्यक बल, प्रेरणा या भौतिक सामग्री या संहारक वृत्ति के अभाव के कारण वे इस इच्छा को अमल में नहीं ला पाए हैं। इसी दृष्टि से देखने पर यूरोप के विश्व आधिपत्य के ५०० वर्षों को इतिहास में अद्वितीय स्थान प्राप्त करनेवाली घटना मानी जा सकती है।
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सन् १७०० के बाद यूरोप ने पूर्व की ओर विशेष ध्यान दिया। उनमें एक केन्द्र भारत था। भारत में सन् १७५० से यूरोप की उपस्थिति विशेष रूप से दिखाई देने लगी। सन् १७५० से तो यूरोप भारत को पूर्णतया जीत लेने की सुनियोजित योजना बनाने लगा। इसी समय यूरोप ने आस्ट्रेलिया एवं उसके समीप के द्वीपों की खोज की। सन् १८०० के तुरन्त बाद यूरोप ने चीन जाने का प्रारम्भ किया। सन् १८५० तक यूरोप समग्र विश्व का अधिपति बन गया।
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यूरोप का ऐसा आधिपत्य विश्व के इतिहास में प्रथम ही है। कई शताब्दियों तक इस्लाम ने लगभग आधी दुनिया पर अपना शासन जमाया था। उसने भी यूरोप के समान ही तबाही मचाई थी। इस्लाम से पूर्व भगवान बुद्ध के उपदेशों का लगभग आधे विश्व पर प्रभाव था। परन्तु उसमें हिंसा का तनिक भी अंश नहीं था। एशिया के बहुत से हिस्सों में भगवान बुद्ध के उपदेश के फलस्वरूप निर्मित संस्थाएँ एवं मनोभाव आज भी अस्तित्व में हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से तो भारत का प्रभाव पूर्व एशिया एवं मध्य एशिया के बहुत से देशों पर पड़ा था। पूर्ण सम्भावना है कि भारत तथा अन्य संस्कृतियों को भी विश्वविजय की आकांक्षा जगी होगी। परन्तु उसके लिए आवश्यक बल, प्रेरणा या भौतिक सामग्री या संहारक वृत्ति के अभाव के कारण वे इस इच्छा को अमल में नहीं ला पाए हैं। इसी दृष्टि से देखने पर यूरोप के विश्व आधिपत्य के ५०० वर्षों को इतिहास में अद्वितीय स्थान प्राप्त करनेवाली घटना मानी जा सकती है।
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इस आधिपत्य का मनुष्य, वनस्पति, समग्र सृष्टि पर कैसा प्रभाव हुआ है इसका अध्ययन एवं मूल्यांकन खासकर जीती गई प्रजा की दृष्टि से करने की आवश्यकता है। यूरोपीय आधिपत्य का प्रभाव केवल राजनैतिक, आर्थिक, एवं पर्यावरणीय विषयों पर ही हआ है ऐसा बिलकुल नहीं है। यह प्रभाव जीती गई प्रजा की स्वविषयक धारणा एवं चित्तव्यापार पर भी बहुत गहराई तक पड़ा है। इसी प्रकार विजेताओं की अपनी भूमिका, उन्होंने जो कुछ भी किया एवं जिस प्रकार से किया उसके जो परिणाम निकले उसका प्रभाव उन पर बहुत गहराई तक पड़ा। फिर भी यूरोप का मूल स्वभाव नहीं बदला है। उसकी विनाशक वृत्ति कोलम्बस के पूर्व कम अनुपात में व्यक्त हुई थी एवं कोलम्बस के बाद बहुत बड़े पैमाने पर दिखाई दी इतना ही अन्तर था। रोमन साम्राज्य के समय से, प्लेटो के समय से या उससे भी पूर्व के समय से यूरोप की दुनिया जीतने की जो आकांक्षा थी उसे कोलम्बस के द्वारा अमेरिका की खोज से खुला एवं व्यापक मैदान मिला। विश्व की अन्य सभ्यताओं को भी ऐसी इच्छा हुई होगी, परन्तु हम उसके विषय में अधिक कुछ जानते ही नहीं हैं। यूरोप के विषय में जानते हैं। यदि ऐसा है तो हमें इसके विषय में जानने के प्रयास करने चाहिए जिससे हमारी दृष्टि का क्षेत्र अधिक सन्तुलित बने। परन्तु अब तो हम प्रत्यक्ष रूप से यूरोपीय अधिकार के अन्तर्गत उसके द्वारा बनाए गए संस्थाकीय एवं वैचारिक ढाँचे में जी रहे हैं इसलिए यूरोप का तथा अन्य किसी विश्वविजय की आकांक्षा रखनेवाली सभ्यता का अध्ययन करना केवल ऐतिहासिक एवं तात्त्विक दृष्टिकोण की अपेक्षा बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है।
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इस आधिपत्य का मनुष्य, वनस्पति, समग्र सृष्टि पर कैसा प्रभाव हुआ है इसका अध्ययन एवं मूल्यांकन खासकर जीती गई प्रजा की दृष्टि से करने की आवश्यकता है। यूरोपीय आधिपत्य का प्रभाव केवल राजनैतिक, आर्थिक, एवं पर्यावरणीय विषयों पर ही हुआ है ऐसा बिलकुल नहीं है। यह प्रभाव जीती गई प्रजा की स्वविषयक धारणा एवं चित्तव्यापार पर भी बहुत गहराई तक पड़ा है। इसी प्रकार विजेताओं की अपनी भूमिका, उन्होंने जो कुछ भी किया एवं जिस प्रकार से किया उसके जो परिणाम निकले उसका प्रभाव उन पर बहुत गहराई तक पड़ा। फिर भी यूरोप का मूल स्वभाव नहीं बदला है। उसकी विनाशक वृत्ति कोलम्बस के पूर्व कम अनुपात में व्यक्त हुई थी एवं कोलम्बस के बाद बहुत बड़े पैमाने पर दिखाई दी इतना ही अन्तर था। रोमन साम्राज्य के समय से, प्लेटो के समय से या उससे भी पूर्व के समय से यूरोप की दुनिया जीतने की जो आकांक्षा थी उसे कोलम्बस के द्वारा अमेरिका की खोज से खुला एवं व्यापक मैदान मिला। विश्व की अन्य सभ्यताओं को भी ऐसी इच्छा हुई होगी, परन्तु हम उसके विषय में अधिक कुछ जानते ही नहीं हैं। यूरोप के विषय में जानते हैं। यदि ऐसा है तो हमें इसके विषय में जानने के प्रयास करने चाहिए जिससे हमारी दृष्टि का क्षेत्र अधिक सन्तुलित बने। परन्तु अब तो हम प्रत्यक्ष रूप से यूरोपीय अधिकार के अन्तर्गत उसके द्वारा बनाए गए संस्थाकीय एवं वैचारिक ढाँचे में जी रहे हैं इसलिए यूरोप का तथा अन्य किसी विश्वविजय की आकांक्षा रखनेवाली सभ्यता का अध्ययन करना केवल ऐतिहासिक एवं तात्त्विक दृष्टिकोण की अपेक्षा बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है।
    
गत ५०० वर्षों का अध्ययन जीती गई प्रजा के लिए आत्मबोध का साधन बनेगा एवं उसे अपनी सामाजिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगा।  
 
गत ५०० वर्षों का अध्ययन जीती गई प्रजा के लिए आत्मबोध का साधन बनेगा एवं उसे अपनी सामाजिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगा।  
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१९ जून १९८८ को बेंगलोर में लिखा गया लेख
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'''??''' १९ जून १९८८ को बेंगलोर में लिखा गया लेख
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==== सन् १४९२ से यूरोप तथा विश्व के अन्य देशों की स्थिति ====
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=== सन् १४९२ से यूरोप तथा विश्व के अन्य देशों की स्थिति ===
हमारे आसपास की स्थिति एवं विकास को, उसके विभिन्न दृष्टिकोण तथा अविरत चलनेवाले मतभेदों को यदि समझना है, तो हमें कुछ शताब्दियाँ पीछे जा कर देखना होगा। प्रस्तुत पत्र में, गत पाँच शताब्दियों में घटी हुई प्रमुख घटनाओं को तथा भारत के द्वारा बीताए गए समय के आधार पर, आज की उलझन भरी स्थिति के मूल तक पहँचने का प्रयास किया गया है। हमें यह भी जानना आवश्यक है कि लगभग सन् १४९२ के काल से लेकर अनेकों विचारधाराओं तथा विभिन्न घटनाओं का विश्व पर क्या प्रभाव पड़ा है। इस उलझनभरी स्थिति को समझकर उसका कोई हल निकालने में यह प्रयास कदाचित सहायक बनेगा।
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हमारे आसपास की स्थिति एवं विकास को, उसके विभिन्न दृष्टिकोण तथा अविरत चलनेवाले मतभेदों को यदि समझना है, तो हमें कुछ शताब्दियाँ पीछे जा कर देखना होगा। प्रस्तुत पत्र में, गत पाँच शताब्दियों में घटी हुई प्रमुख घटनाओं को तथा भारत के द्वारा बीताए गए समय के आधार पर, आज की उलझन भरी स्थिति के मूल तक पहुँचने का प्रयास किया गया है। हमें यह भी जानना आवश्यक है कि लगभग सन् १४९२ के काल से लेकर अनेकों विचारधाराओं तथा विभिन्न घटनाओं का विश्व पर क्या प्रभाव पड़ा है। इस उलझनभरी स्थिति को समझकर उसका कोई हल निकालने में यह प्रयास कदाचित सहायक बनेगा।
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==== यूरोप के द्वारा विश्व के अन्य देशों की खोज ====
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== यूरोप के द्वारा विश्व के अन्य देशों की खोज ==
 
आज से लगभग पाँच शताब्दी पूर्व, अर्थात् १४९२ में जब क्रिस्टोफर कोलम्बस तथा उसके साथी जहाज द्वारा अमेरिका के समुद्र तट पर पहुँचे, तभी से यूरोप द्वारा विश्व के अन्य देशों की खोज का श्रीगणेश हुआ। कोलम्बस एवं उसके समकालीन जहाजरानों का मुख्य उद्देश्य तो भारत तथा दक्षिणपूर्व एशिया के प्रदेश तक पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजना ही था। उस समय किसी यूरोपीय वैज्ञानिक ने बताया कि पृथ्वी का आकार गोल है। बस इसी बातने कोलम्बस को अपनी समुद्र यात्रा पश्चिम की ओर से प्रारम्भ करके अन्त में भारत तथा भारत के पूर्वीय प्रदेशों तक पहुँचने की आशा जगाई। लगभग १५५० तक तो पश्चिम यूरोप को इसकी कल्पना तक नहीं थी कि एक ओर यूरोप एवं आफ्रिका तथा दूसरी ओर चीन एवं भारत के बीचोंबीच उत्तर ध्रुव से दक्षिण ध्रुव तक फैला हुआ अमेरिका नाम के एक विशाल भूखण्ड का अस्तित्व भी है।
 
आज से लगभग पाँच शताब्दी पूर्व, अर्थात् १४९२ में जब क्रिस्टोफर कोलम्बस तथा उसके साथी जहाज द्वारा अमेरिका के समुद्र तट पर पहुँचे, तभी से यूरोप द्वारा विश्व के अन्य देशों की खोज का श्रीगणेश हुआ। कोलम्बस एवं उसके समकालीन जहाजरानों का मुख्य उद्देश्य तो भारत तथा दक्षिणपूर्व एशिया के प्रदेश तक पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजना ही था। उस समय किसी यूरोपीय वैज्ञानिक ने बताया कि पृथ्वी का आकार गोल है। बस इसी बातने कोलम्बस को अपनी समुद्र यात्रा पश्चिम की ओर से प्रारम्भ करके अन्त में भारत तथा भारत के पूर्वीय प्रदेशों तक पहुँचने की आशा जगाई। लगभग १५५० तक तो पश्चिम यूरोप को इसकी कल्पना तक नहीं थी कि एक ओर यूरोप एवं आफ्रिका तथा दूसरी ओर चीन एवं भारत के बीचोंबीच उत्तर ध्रुव से दक्षिण ध्रुव तक फैला हुआ अमेरिका नाम के एक विशाल भूखण्ड का अस्तित्व भी है।
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इस प्रकार, यूरोप की पंद्रहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की यात्रा में कदाचित किसी प्रकार से घटी हई लगभग एक सौ वर्ष अर्थात् १४५० तक चलनेवाली 'काले मृत्यु की घटना, जिसने यूरोप को समाप्त कर दिया; उसकी प्रेरणा इतनी अधिक थी कि १४९२ के बाद केवल छः वर्षों में अर्थात् १४९८ में आफ्रिका के पूर्वी किनारे पर जाकर भारत तक पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजा गया। वास्को-डी-गामा को सन् १४९८ में भारत के केरल प्रान्त के समुद्रतट पर स्थित कालिकट बन्दरगाह तक पहुँचाने में सहायक बननेवाले एशिया के जहाजरानों का यह मार्ग खोजने में योगदान था। इसके बाद के चालीस से पचास वर्षों में तो यरोपने अधिकांश पृथ्वी पर भ्रमण कर लिया। इसका एक श्रेष्ठ उदाहरण यह है कि लगभग सन् १५४० तक दूरदराज के तथा यूरोप से भिन्न संस्कृतिवाले जापान में प्रभु ईसु का अनुसरण करनेवाला ईसाई समाज अस्तित्व में आया। यूरोप की यात्रा एवं उसके शासन का अन्य एक ज्वलन्त उदाहरण यह है कि उसके पश्चात् साठ वर्ष के बाद अर्थात् लगभग सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ईसाई कार्यकरों के प्रयासों से अनुमानतः ४,००,००० जापानियों का ईसाई मत में मतान्तरण किया गया।
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इस प्रकार, यूरोप की पंद्रहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की यात्रा में कदाचित किसी प्रकार से घटी हुई लगभग एक सौ वर्ष अर्थात् १४५० तक चलनेवाली 'काले मृत्यु' की घटना, जिसने यूरोप को समाप्त कर दिया; उसकी प्रेरणा इतनी अधिक थी कि १४९२ के बाद केवल छः वर्षों में अर्थात् १४९८ में आफ्रिका के पूर्वी किनारे पर जाकर भारत तक पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजा गया। वास्को-डी-गामा को सन् १४९८ में भारत के केरल प्रान्त के समुद्रतट पर स्थित कालिकट बन्दरगाह तक पहुँचाने में सहायक बननेवाले एशिया के जहाजरानों का यह मार्ग खोजने में योगदान था। इसके बाद के चालीस से पचास वर्षों में तो यूरोपने अधिकांश पृथ्वी पर भ्रमण कर लिया। इसका एक श्रेष्ठ उदाहरण यह है कि लगभग सन् १५४० तक दूरदराज के तथा यूरोप से भिन्न संस्कृतिवाले जापान में प्रभु ईसु का अनुसरण करनेवाला ईसाई समाज अस्तित्व में आया। यूरोप की यात्रा एवं उसके शासन का अन्य एक ज्वलन्त उदाहरण यह है कि उसके पश्चात् साठ वर्ष के बाद अर्थात् लगभग सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ईसाई कार्यकरों के प्रयासों से अनुमानतः ४,००,००० जापानियों का ईसाई मत में मतान्तरण किया गया।
    
सत्रहवीं शताब्दी की जो जानकारी प्राप्त होती है उसके आधार पर सन् १४९२ से पूर्व अथवा प्राचीन काल से यूरोप के पश्चिम एशिया, पर्शिया, भारत के सीमावर्ती प्रान्त तथा उत्तर आफ्रिका के साथ सम्बन्ध थे ही। ऐसा माना जाता है कि ईसाई युग के प्रारम्भ के समय में रोम तथा दक्षिण भारत के तमिलनाडु में स्थित तटीय प्रदेशों के बीच आपसी व्यापार का सम्बन्ध था। इस प्रकार यूरोप को सत्रहवीं शताब्दी से चीन के पश्चिमी प्रदेशों की जानकारी थी।
 
सत्रहवीं शताब्दी की जो जानकारी प्राप्त होती है उसके आधार पर सन् १४९२ से पूर्व अथवा प्राचीन काल से यूरोप के पश्चिम एशिया, पर्शिया, भारत के सीमावर्ती प्रान्त तथा उत्तर आफ्रिका के साथ सम्बन्ध थे ही। ऐसा माना जाता है कि ईसाई युग के प्रारम्भ के समय में रोम तथा दक्षिण भारत के तमिलनाडु में स्थित तटीय प्रदेशों के बीच आपसी व्यापार का सम्बन्ध था। इस प्रकार यूरोप को सत्रहवीं शताब्दी से चीन के पश्चिमी प्रदेशों की जानकारी थी।
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ऐसा लगता है कि भारत के पास अपने लिए आवश्यक ऐसी तमाम समृद्धि तथा विशाल उपजाऊ जमीन होने के कारण वह इस प्रकार के विश्वव्यापी विजय की प्राप्ति के लिए तैयार नहीं था। या ऐसा भी हो सकता है कि भारत को न तो ऐसी कोई महत्त्वाकांक्षा थी, न ही इस प्रकार का कोई झुकाव; या फिर ऐसी जिहाद के लिए आवश्यक साहसिक उत्साह उसमें नहीं था। इसके बावजूद २००० वर्ष पूर्व अर्थात् विक्रम संवत के प्रारम्भ में भारत के विद्वान, पण्डित, बौद्ध भिक्षु इत्यादि एशिया खण्ड के विभिन्न भागों में फैले एवं बसे थे।
 
ऐसा लगता है कि भारत के पास अपने लिए आवश्यक ऐसी तमाम समृद्धि तथा विशाल उपजाऊ जमीन होने के कारण वह इस प्रकार के विश्वव्यापी विजय की प्राप्ति के लिए तैयार नहीं था। या ऐसा भी हो सकता है कि भारत को न तो ऐसी कोई महत्त्वाकांक्षा थी, न ही इस प्रकार का कोई झुकाव; या फिर ऐसी जिहाद के लिए आवश्यक साहसिक उत्साह उसमें नहीं था। इसके बावजूद २००० वर्ष पूर्व अर्थात् विक्रम संवत के प्रारम्भ में भारत के विद्वान, पण्डित, बौद्ध भिक्षु इत्यादि एशिया खण्ड के विभिन्न भागों में फैले एवं बसे थे।
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==== यूरोप खण्ड का साम्राज्य विस्तार ====
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== यूरोप खण्ड का साम्राज्य विस्तार ==
 
सन् १४९२ से यूरोप की खोजें एवं उसका साम्राज्य विस्तार दिखने में भी एक अलग प्रकार का रहा। यद्यपि ये विजय प्राप्त करने की उसकी पद्धति प्राचीन ग्रीस या रोम के राज्यों के द्वारा अनुसरित रीति से बहुत भिन्न नहीं थी। तो भी विजय प्राप्ति की जो पद्धति ब्रिटिशरों ने अपनाई वह ११ वीं शताब्दी में सम्राट विलियम एवं उसके वंशजों द्वारा इंग्लैण्ड पर कब्जा जमाने के लिए उपयोग में लाई गई रीति नीति से बहुत मिलती जुलती है। १५ वीं शताब्दी से लेकर यूरोप के दुनियाभर के साम्राज्य विस्तार में उपयोग में लाए गए साधनों में व्यापार एवं वाणिज्य प्रमुख थे। जब कि ११ वीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी के मध्यमें किए गये युद्धों में मध्यकालीन यूरोपीय ईसाई धार्मिकता की धार्मिक एवं लश्करी शक्ति साम्राज्य विस्तार एवं स्थायीकरण के मुख्य कारक थे।
 
सन् १४९२ से यूरोप की खोजें एवं उसका साम्राज्य विस्तार दिखने में भी एक अलग प्रकार का रहा। यद्यपि ये विजय प्राप्त करने की उसकी पद्धति प्राचीन ग्रीस या रोम के राज्यों के द्वारा अनुसरित रीति से बहुत भिन्न नहीं थी। तो भी विजय प्राप्ति की जो पद्धति ब्रिटिशरों ने अपनाई वह ११ वीं शताब्दी में सम्राट विलियम एवं उसके वंशजों द्वारा इंग्लैण्ड पर कब्जा जमाने के लिए उपयोग में लाई गई रीति नीति से बहुत मिलती जुलती है। १५ वीं शताब्दी से लेकर यूरोप के दुनियाभर के साम्राज्य विस्तार में उपयोग में लाए गए साधनों में व्यापार एवं वाणिज्य प्रमुख थे। जब कि ११ वीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी के मध्यमें किए गये युद्धों में मध्यकालीन यूरोपीय ईसाई धार्मिकता की धार्मिक एवं लश्करी शक्ति साम्राज्य विस्तार एवं स्थायीकरण के मुख्य कारक थे।
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साम्राज्य विस्तार की नई पद्धति का सन् १४९२ से पूर्व के समय का दृष्टान्त इंग्लैण्ड के हेन्री सप्तम के एक दस्तावेज से मिलता है, जो सन् १४८२ में जारी हुआ था। यह दस्तावेज ज्होन केबोट एवं उसकी सन्तानों को ऐसी जगहों को कब्जे में लेने एवं उन जगहों पर राजा का झण्डा  एवं चिह्न स्थापित करने की अनुमति देता था जो “कोई भी गाँव, शहर, किला या टापू या प्रमुख भूमि जो उनके द्वारा नई खोजी गई हो", जो 'पूर्वी, पश्चिमी या उत्तरी समुद्रमें हो और जिस पर परधर्मियों या पापियों का स्वामित्व रहा हो, जो विश्व के किसी भी भाग में स्थित हो और जिसकी जानकारी आज तक किसी भी ईसाई को न हो”। राजा ने उन्हें उनके प्रत्येक समुद्री साहस के दौरान ऐसी जगहों पर आक्रमण करके उन्हें हस्तगत करने की एवं उस पर कब्जा जमाने की सत्ता दी, इस शर्त पर कि उन जगहों की आय का पाँचवा भाग वे राजा को दे दें। लगभग १४५० से ऐसे अनेकों अभिलेख यूरोप के राजाओं के द्वारा जारी किए गए, एवं उसकी परम्परा अंशतः हमारे समय तक चली।
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साम्राज्य विस्तार की नई पद्धति का सन् १४९२ से पूर्व के समय का दृष्टान्त इंग्लैण्ड के हेन्री सप्तम के एक दस्तावेज से मिलता है, जो सन् १४८२ में जारी हुआ था। यह दस्तावेज ज्होन केबोट एवं उसकी सन्तानों को ऐसी जगहों को कब्जे में लेने एवं उन जगहों पर राजा का झण्डा  एवं चिह्न स्थापित करने की अनुमति देता था जो “कोई भी गाँव, शहर, किला या टापू या प्रमुख भूमि जो उनके द्वारा नई खोजी गई हो", जो 'पूर्वी, पश्चिमी या उत्तरी समुद्रमें हो और जिस पर परधर्मियों या पापियों का स्वामित्व रहा हो, जो विश्व के किसी भी भाग में स्थित हो और जिसकी जानकारी आज तक किसी भी ईसाई को न हो”। राजा ने उन्हें उनके प्रत्येक समुद्री साहस के दौरान ऐसी जगहों पर आक्रमण करके उन्हें हस्तगत करने की एवं उस पर कब्जा जमाने की सत्ता दी, इस शर्त पर कि उन जगहों की आय का पाँचवा भाग वे राजा को दे दें।<ref>डेविड बी. क्विन, 'नूतन अमेरिकी विश्व : १६१२ तक का उत्तरी अमेरिका का दस्तावेजी इतिहास : न्यू अमेरिकन वर्ल्ड : अ डोक्यूमेण्टरी हिस्ट्री ऑव् नॉर्थ अमेरिका टू १६१२ New American world : A Documentary History of North America to 1612 : पांच खण्डों में, १९७९</ref> लगभग १४५० से ऐसे अनेकों अभिलेख यूरोप के राजाओं के द्वारा जारी किए गए, एवं उसकी परम्परा अंशतः हमारे समय तक चली।
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इंग्लैण्ड के द्वारा अपनाई गई विजयप्राप्ति की अजीबोगरीब रीतियों का रोचक दृष्टान्त उसके पडोसी देश आयलैंण्ड के साथ के उसके सम्बन्धों से मिलता है। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आयलैंण्ड के एटर्नी जनरल सर होन डेविस ने अपने लेखों द्वारा आयलैंण्ड के लिए अधिक प्रभावशाली राजनीति के सम्बन्ध में यह सूचित किया है कि आयलैन्ड के विजय में अवरोधक दो प्रमुख कारकों में एक, युद्ध के लिए की गई ढीली कार्यवाही एवं दूसरा राजनीति में शिथिलता है। क्योंकि जमीन को बुआई के लिए तैयार करने के लिए प्रथम तो किसान को उसे अच्छी तरह से जोतना पड़ता है। और जब पूर्ण रूप से जुताई हो जाए एवं उसमें खाद एवं पानी अच्छी तरह से डाल दिए जाएँ तब यदि वह उसमें अच्छे बीज न बोए तो जमीन ऊसर बन जाती है एवं उसमें खरपतवार के सिवा कुछ पैदा नहीं होता। इसलिए असंस्कृत प्रजा को अच्छी सरकार की रचना के लिए सक्षम बनाने के लिये पहले ही उसका सामना करके उसे तोड़ना आवश्यक है। जब वह पूर्णतः नियन्त्रण में आ जाए तब यदि उसे नियमन के द्वारा व्यवस्थित न किया जाए तो वह प्रजा बहुत जल्दी ही अपनी असंस्कारिता पर उतर आती है।
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इंग्लैण्ड के द्वारा अपनाई गई विजयप्राप्ति की अजीबोगरीब रीतियों का रोचक दृष्टान्त उसके पडोसी देश आयलैंण्ड के साथ के उसके सम्बन्धों से मिलता है। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आयलैंण्ड के एटर्नी जनरल सर होन डेविस ने अपने लेखों द्वारा आयलैंण्ड के लिए अधिक प्रभावशाली राजनीति के सम्बन्ध में यह सूचित किया है कि आयलैन्ड के विजय में अवरोधक दो प्रमुख कारकों में एक, युद्ध के लिए की गई ढीली कार्यवाही एवं दूसरा राजनीति में शिथिलता है। क्योंकि जमीन को बुआई के लिए तैयार करने के लिए प्रथम तो किसान को उसे अच्छी तरह से जोतना पड़ता है। और जब पूर्ण रूप से जुताई हो जाए एवं उसमें खाद एवं पानी अच्छी तरह से डाल दिए जाएँ तब यदि वह उसमें अच्छे बीज न बोए तो जमीन ऊसर बन जाती है एवं उसमें खरपतवार के सिवा कुछ पैदा नहीं होता। इसलिए असंस्कृत प्रजा को अच्छी सरकार की रचना के लिए सक्षम बनाने के लिये पहले ही उसका सामना करके उसे तोड़ना आवश्यक है। जब वह पूर्णतः नियन्त्रण में आ जाए तब यदि उसे नियमन के द्वारा व्यवस्थित न किया जाए तो वह प्रजा बहुत जल्दी ही अपनी असंस्कारिता पर उतर आती है।<ref>सर ज्हॉन डेविस, 'नामदार सम्राट के सुशासन के प्रारम्भ होने तक आयलैंण्ड को पूर्ण रूप से परास्त कर अंग्रेज सत्ता के आधिपत्य में नहीं लाया जा सका उसके सही कारणों की खोज : अ डिस्कवरी ऑव् द टु कोदोदा व्हाय आयलैंण्ट बाँदा नेबर एण्टायरली सबट्यूट एण्ड ब्रॉट अण्डर ओबेडिअन्स ऑव् द क्राउन ऑव् इंग्लैण्ड अण्टील द बिगिनिंग ऑव् हिझ मैजेस्टीझ हैपी रेइन : A Discovery of True Causes, Why Ireland was never entirely subdued and brought under obedience of the Crown of England until the beginning of His Majesty's happy reign, 1630 (पुनर्मुद्रण १८६०)</ref>
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लगभग सन् १५०० से यूरोप का विस्तार केवल पश्चिम ही नहीं, पूर्व की ओर भी । हुआ। पश्चिम की ओर उसका ध्यान अमेरिका की विशाल जमीन, उसकी खनिज सम्पत्ति तथा वन्य सम्पत्ति पर था। जिसके कारण अमेरिका के समीप स्थित द्वीपों पर तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के पूर्वी खण्ड के प्रदेशों पर यूरोपवासियों की बस्तियाँ बढ़ने लगीं। कहा जाता है कि सन् १४९२ में जब यूरोप को अमेरिका खण्ड की जानकारी हुई तब वहाँ रहनेवालों की संख्या लगभग ९ से ११.२ करोड़ थी। जब कि यूरोप की जनसंख्या उस समय लगभग ६से ७ करोड थी।
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लगभग सन् १५०० से यूरोप का विस्तार केवल पश्चिम ही नहीं, पूर्व की ओर भी । हुआ। पश्चिम की ओर उसका ध्यान अमेरिका की विशाल जमीन, उसकी खनिज सम्पत्ति तथा वन्य सम्पत्ति पर था। जिसके कारण अमेरिका के समीप स्थित द्वीपों पर तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के पूर्वी खण्ड के प्रदेशों पर यूरोपवासियों की बस्तियाँ बढ़ने लगीं। कहा जाता है कि सन् १४९२ में जब यूरोप को अमेरिका खण्ड की जानकारी हुई तब वहाँ रहनेवालों की संख्या लगभग ९ से ११.२ करोड़ थी। जब कि यूरोप की जनसंख्या उस समय लगभग ६से ७ करोड थी।<ref>एच. एफ. डोबिन्स, 'अमेरिका के मूल निवासियों की जनसंख्या का अनुमान : एस्टीमेटिंग अबोरिजिनल अमेरिकन पोप्युलेशन : Estimating Aboriginal American Population' करण्ट एंथ्रोपोलॉजी, खण्ड ७, क्र.  ४, अक्टूबर १९६६, पृ. ३९५-४४९</ref>
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उस समय अमेरिका के निवासी स्थानीय लोगों का जब तक लगभग सर्वनाश नहीं हुआ तब तक अर्थात् अनुमानतः ४०० वर्ष तक यूरोप ने उनसे असंख्य युद्ध किए। उन्हें गुलाम बनाने तथा उन्हें खदानों में तथा नए शुरू किए गए खेती इत्यादि काममें मजदूर के रूप में उपयोग में लेने के बहुत प्रयास किये। परन्तु उनकी यह योजना यशस्वी नहीं हुई; क्योंकि गुलाम बनने की अपेक्षा अपने विनाश को उन्होंने अधिक श्रेष्ठ माना।।
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उस समय अमेरिका के निवासी स्थानीय लोगों का जब तक लगभग सर्वनाश नहीं हुआ तब तक अर्थात् अनुमानतः ४०० वर्ष तक यूरोप ने उनसे असंख्य युद्ध किए। उन्हें गुलाम बनाने तथा उन्हें खदानों में तथा नए शुरू किए गए खेती इत्यादि काममें मजदूर के रूप में उपयोग में लेने के बहुत प्रयास किये। परन्तु उनकी यह योजना यशस्वी नहीं हुई; क्योंकि गुलाम बनने की अपेक्षा अपने विनाश को उन्होंने अधिक श्रेष्ठ माना।
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इन युद्धों से भी एक अन्य भीषण बात स्थानीय अमेरिका वासियों के लिए यह थी कि यूरोप से आनेवाले नवागन्तुक अपने साथ रोग भी लाए जो इन स्थानीय लोगों के लिए जानलेवा सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ यूरोप के देशों मे उस समय शीतला, चेचक, क्षय, मलेरिया, पीतज्वर, विषमज्वर के विभिन्न प्रकार तथा अनेक संसर्गजन्य गुप्त रोगों ने भीषण जानहानि की। इसके साथ ही सन् १६१८ के आसपास उत्तर अमेरिका के न्यू इंग्लैण्ड में प्लेग की महामारी फैली। यूरोपीयों के संसर्ग में आने से पहले अमेरिका के स्थानीय लोगों ने इस प्रकार के रोगों के जीवाणुओं का सामना नहीं किया था, इसलिए उनमें रोग प्रतिकारक शक्ति का अभाव था। परिणाम स्वरूप स्थानीय लोगों की बस्तियों का सफाया हो गया।  
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इन युद्धों से भी एक अन्य भीषण बात स्थानीय अमेरिका वासियों के लिए यह थी कि यूरोप से आनेवाले नवागन्तुक अपने साथ रोग भी लाए जो इन स्थानीय लोगों के लिए जानलेवा सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ यूरोप के देशों मे उस समय शीतला, चेचक, क्षय, मलेरिया, पीतज्वर, विषमज्वर के विभिन्न प्रकार तथा अनेक संसर्गजन्य गुप्त रोगों ने भीषण जानहानि की। इसके साथ ही सन् १६१८ के आसपास उत्तर अमेरिका के न्यू इंग्लैण्ड में प्लेग की महामारी फैली। यूरोपीयों के संसर्ग में आने से पहले अमेरिका के स्थानीय लोगों ने इस प्रकार के रोगों के जीवाणुओं का सामना नहीं किया था, इसलिए उनमें रोग प्रतिकारक शक्ति का अभाव था। परिणाम स्वरूप स्थानीय लोगों की बस्तियों का सफाया हो गया।<ref>बर्नार्ड डबल्यू शिहान, 'विनाश के बीज : जेफरसन की उदारता और अमेरिकन भारतीय : सीड्स ऑव् एक्स्टींक्शन : जेफरसोनियन फिलान्थ्रोपी एण्ड द अमेरिकन इण्डियन : Seeds of Extinction : Jeffersonian Philanthropy and the American Indian १९७३, पृ. २२७-२२८</ref>
    
अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों का बड़े पैमाने पर होने वाला सफाया सन् १६२५ में न्यू इंग्लैण्ड में आनेवाले अंग्रेज के लिए तो जैसे 'ईश्वर की लीला' थी। उसने सोचा कि इस पतन के कारण 'यह पूरा प्रदेश अंग्रेजों को बसने के लिए एवं प्रभु की कीर्ति बढ़ानेवाले मंदिर बनवाने के लिए अधिक उत्तम हो गया है। उसी समय एक अंग्रेज ने कहा कि 'प्रभु ने यह प्रदेश हमारे लिए ही खोज दिया है एवं अधिकांश स्थानीय लोगों को घातकी युद्धों द्वारा तथा जानलेवा बीमारियों के द्वारा मार डाला है। पचास वर्ष बाद न्यूयोर्क के एक वर्णन में कहा गया 'सामान्य रूप से ऐसा देखा गया है कि जहाँ अंग्रेज स्थायी होना चाहते हैं वहाँ दैवी हाथ उनके लिए रास्ता बना देता है। या तो वे भारतीयों (अमेरिका के मूलनिवासी) कों आन्तरिक युद्धों के द्वारा या जानलेवा बीमारियों के द्वारा नष्ट कर देता है।' और लेखक ने जोड़ा, “यह सचमुच प्रशंसनीय है कि जब से अंग्रजों ने वहाँ निवास करना प्रारम्भ किया तब से ही वहाँ के निवासियों का आश्चर्यजनक रूप से ईश्वर के हाथों नाश हुआ एवं उनकी संख्या कम होती गई। क्यों कि हमारे समय में जहाँ छ: नगर थे उसकी जनसंख्या घटकर अब दो छोटे छोटे गाँवों में सिमटकर रह गई है।"६ ।
 
अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों का बड़े पैमाने पर होने वाला सफाया सन् १६२५ में न्यू इंग्लैण्ड में आनेवाले अंग्रेज के लिए तो जैसे 'ईश्वर की लीला' थी। उसने सोचा कि इस पतन के कारण 'यह पूरा प्रदेश अंग्रेजों को बसने के लिए एवं प्रभु की कीर्ति बढ़ानेवाले मंदिर बनवाने के लिए अधिक उत्तम हो गया है। उसी समय एक अंग्रेज ने कहा कि 'प्रभु ने यह प्रदेश हमारे लिए ही खोज दिया है एवं अधिकांश स्थानीय लोगों को घातकी युद्धों द्वारा तथा जानलेवा बीमारियों के द्वारा मार डाला है। पचास वर्ष बाद न्यूयोर्क के एक वर्णन में कहा गया 'सामान्य रूप से ऐसा देखा गया है कि जहाँ अंग्रेज स्थायी होना चाहते हैं वहाँ दैवी हाथ उनके लिए रास्ता बना देता है। या तो वे भारतीयों (अमेरिका के मूलनिवासी) कों आन्तरिक युद्धों के द्वारा या जानलेवा बीमारियों के द्वारा नष्ट कर देता है।' और लेखक ने जोड़ा, “यह सचमुच प्रशंसनीय है कि जब से अंग्रजों ने वहाँ निवास करना प्रारम्भ किया तब से ही वहाँ के निवासियों का आश्चर्यजनक रूप से ईश्वर के हाथों नाश हुआ एवं उनकी संख्या कम होती गई। क्यों कि हमारे समय में जहाँ छ: नगर थे उसकी जनसंख्या घटकर अब दो छोटे छोटे गाँवों में सिमटकर रह गई है।"६ ।
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==== संदर्भ ====
 
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# डेविड बी. क्विन, 'नूतन अमेरिकी विश्व : १६१२ तक का उत्तरी अमेरिका का दस्तावेजी इतिहास : न्यू अमेरिकन वर्ल्ड : अ डोक्यूमेण्टरी हिस्ट्री ऑव् नॉर्थ अमेरिका टू १६१२ New American world : A Documentary History of North America to 1612 : पांच खण्डों में, १९७९
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# सर ज्हॉन डेविस, 'नामदार सम्राट के सुशासन के प्रारम्भ होने तक आयलैंण्ड को पूर्ण रूप से परास्त कर अंग्रेज सत्ता के आधिपत्य में नहीं लाया जा सका उसके सही कारणों की खोज : अ डिस्कवरी ऑव् द टु कोदोदा व्हाय आयलैंण्ट बाँदा नेबर एण्टायरली सबट्यूट एण्ड ब्रॉट अण्डर ओबेडिअन्स ऑव् द क्राउन ऑव् इंग्लैण्ड अण्टील द बिगिनिंग ऑव् हिझ मैजेस्टीझ हैपी रेइन : A Discovery of True Causes, Why Ireland was never entirely subdued and brought under obedience of the Crown of England until the beginning of His Majesty's happy reign, 1630 (पुनर्मुद्रण १८६०)
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# एच. एफ. डोबिन्स, 'अमेरिका के मूल निवासियों की जनसंख्या का अनुमान : एस्टीमेटिंग अबोरिजिनल अमेरिकन पोप्युलेशन : Estimating Aboriginal American Population' करण्ट एंथ्रोपोलॉजी, खण्ड ७, क्र. ४, अक्टूबर १९६६, पृ. ३९५-४४९
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# बर्नार्ड डबल्यू शिहान, 'विनाश के बीज : जेफरसन की उदारता और अमेरिकन भारतीय : सीड्स ऑव् एक्स्टींक्शन : जेफरसोनियन फिलान्थ्रोपी एण्ड द अमेरिकन इण्डियन : Seeds of Extinction : Jeffersonian Philanthropy and the American Indian १९७३, पृ. २२७-२२८
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# एच. सी. पोर्टर, 'अस्थिर जंगली : इंग्लैण्ड और उत्तरी अमेरिकी भारतीय, १५०० से १६०० : द इन्कॉन्स्टण्ट सेवेज : इंग्लैण्ड एण्ड द नॉर्थ अमेरिकन इण्डियन १५०० - १६०० : The Inconstant Savage : England and the North American Indian 1500 - 1600' १९७९, पृ. ४२८  
 
# एच. सी. पोर्टर, 'अस्थिर जंगली : इंग्लैण्ड और उत्तरी अमेरिकी भारतीय, १५०० से १६०० : द इन्कॉन्स्टण्ट सेवेज : इंग्लैण्ड एण्ड द नॉर्थ अमेरिकन इण्डियन १५०० - १६०० : The Inconstant Savage : England and the North American Indian 1500 - 1600' १९७९, पृ. ४२८  
 
# डैण्टन्स न्यूयॉर्क : 'पूर्व में नया नेदरलेण्ड के नाम से पहचाने जाने वाले न्यू यॉर्क का संक्षिप्त विवरण : अ ब्रीफ डिस्क्रीप्शन ऑव् न्यू यॉर्क फॉर्मी कॉल्ड न्यू नेदरलैण्डस : A Brief Description of New York formerly called New Netherlands', १६७० (पुनर्मुद्रण १९०२), पृ. ४५  
 
# डैण्टन्स न्यूयॉर्क : 'पूर्व में नया नेदरलेण्ड के नाम से पहचाने जाने वाले न्यू यॉर्क का संक्षिप्त विवरण : अ ब्रीफ डिस्क्रीप्शन ऑव् न्यू यॉर्क फॉर्मी कॉल्ड न्यू नेदरलैण्डस : A Brief Description of New York formerly called New Netherlands', १६७० (पुनर्मुद्रण १९०२), पृ. ४५  

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