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'नृवंशशास्त्र कोई ऐसा शास्त्र या विज्ञान नहीं है जो खगोलशास्त्र के समान दूर सुदूर के पदार्थों के सिद्धान्त समझाता हो। वह तो इतिहास के ऐसे तथ्यों से रंजित शास्त्र है जिसमें मानव समूह का अधिकांश भाग अन्य किसी के अधिकार में रहा हो, जिस काल के दौरान लाखों लोगों ने अपने जीवन आधार को खो दिया हो, उनके संस्थागत ढाँचे टूट चुके हों, उन्हें क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारा गया हो, गुलामी में जकड़ दिया गया हो, और ऐसे शेर का शिकार बनाया गया हो जिसके सामने वे टिक न पाए हों। नृवंशशास्त्र हिंसा के इस युग की पुत्री है। मानव का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करने की उसकी पद्धति तो ज्ञानमीमांसा को भी पार कर जाती है। इसमें (करुणता तो यह है कि) मानव समूह का एक हिस्सा अपने जैसे ही दूसरे हिस्सेको वस्तु समझ कर सिद्धान्त बनाता है।
 
'नृवंशशास्त्र कोई ऐसा शास्त्र या विज्ञान नहीं है जो खगोलशास्त्र के समान दूर सुदूर के पदार्थों के सिद्धान्त समझाता हो। वह तो इतिहास के ऐसे तथ्यों से रंजित शास्त्र है जिसमें मानव समूह का अधिकांश भाग अन्य किसी के अधिकार में रहा हो, जिस काल के दौरान लाखों लोगों ने अपने जीवन आधार को खो दिया हो, उनके संस्थागत ढाँचे टूट चुके हों, उन्हें क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारा गया हो, गुलामी में जकड़ दिया गया हो, और ऐसे शेर का शिकार बनाया गया हो जिसके सामने वे टिक न पाए हों। नृवंशशास्त्र हिंसा के इस युग की पुत्री है। मानव का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करने की उसकी पद्धति तो ज्ञानमीमांसा को भी पार कर जाती है। इसमें (करुणता तो यह है कि) मानव समूह का एक हिस्सा अपने जैसे ही दूसरे हिस्सेको वस्तु समझ कर सिद्धान्त बनाता है।
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'यह सरलता से भुलाई जा नहीं सकती। सब मिटाया भी नहीं जा सकता। यह केवल पश्चिम के विश्व द्वारा दिया गया मानवशास्त्र ही नहीं है अपितु विदेशी संस्कृति के प्रभाव में प्राप्त होनेवाली वस्तुनिष्ठ सोच का भी परिणाम है। उसी के अनुसार सभी बातों का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करना आवश्यक हो गया। हम यह भूल गए कि उनकी चिंताओं के प्रति हम क्या कर सकते थे। हमने वह नहीं किया। वे हमारे प्रति एवं उनके स्वयं के प्रति किए गए व्यवहार में कोई समानता नहीं रखते थे - न हो सकती थी।३० प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी ने जो कुछ भी कहा उसमें मानवशास्त्र के लिए कुछ भी नया नहीं है। - इससे अस्सी वर्ष पूर्व सर एडवर्ड बरनेट टेलर ने इस शास्त्र की भूमिका को पुरानी संस्कृति के संहारक के रूप में गिनाया था। याद रहे एडवर्ड बरनेट को कुछ लोग नृवंशशास्त्र का पितामह कहते थे। वे इस धर्माधिपत्य वाली संस्कृति के विषय में अन्त में बताते हैं कि वह खूब निर्दयी, कठोर एवं कुछ दुःखदायी भी थी। इसलिए इस शास्त्र में माननेवालों की संस्था पुरानी संस्कृति में बची हुई क्रूरता को बाहर लाने के लिए आगे आयी। 'ऐसी क्रूरता अत्यधिक दुःखदायी एवं अत्याचारी होने के कारण
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'यह सरलता से भुलाई जा नहीं सकती। सब मिटाया भी नहीं जा सकता। यह केवल पश्चिम के विश्व द्वारा दिया गया मानवशास्त्र ही नहीं है अपितु विदेशी संस्कृति के प्रभाव में प्राप्त होनेवाली वस्तुनिष्ठ सोच का भी परिणाम है। उसी के अनुसार सभी बातों का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करना आवश्यक हो गया। हम यह भूल गए कि उनकी चिंताओं के प्रति हम क्या कर सकते थे। हमने वह नहीं किया। वे हमारे प्रति एवं उनके स्वयं के प्रति किए गए व्यवहार में कोई समानता नहीं रखते थे - न हो सकती थी।३० प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी ने जो कुछ भी कहा उसमें मानवशास्त्र के लिए कुछ भी नया नहीं है। - इससे अस्सी वर्ष पूर्व सर एडवर्ड बरनेट टेलर ने इस शास्त्र की भूमिका को पुरानी संस्कृति के संहारक के रूप में गिनाया था। याद रहे एडवर्ड बरनेट को कुछ लोग नृवंशशास्त्र का पितामह कहते थे। वे इस धर्माधिपत्य वाली संस्कृति के विषय में अन्त में बताते हैं कि वह खूब निर्दयी, कठोर एवं कुछ दुःखदायी भी थी। इसलिए इस शास्त्र में माननेवालों की संस्था पुरानी संस्कृति में बची हुई क्रूरता को बाहर लाने के लिए आगे आयी। 'ऐसी क्रूरता अत्यधिक दुःखदायी एवं अत्याचारी होने के कारण उसका संहार करना ही उचित था। यह कार्य शुभ या उचित लगे या न लगे तो भी मानवजाति के हित के लिए तत्काल करना आवश्यक है।"३१
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नृवंशशास्त्र की यह परिभाषा तथा यूरोपीयों का उसके प्रति झुकाव, यूरोप से अतिरिक्त शेष विश्व को निगल गया।
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यूरोप के प्रभाव में आए गैरयूरोपीय समाज में भी कुछ लक्षण समान दिखाई देते हैं। इस समाज ने अपने आराध्य देवताओं या भावनाओं एवं तत्कालीन प्राणी जगत एवं वनस्पति सृष्टि के साथ सन्तुलन बनाए रखा। इन सभी को वे अपनी सभ्यता का भाग ही मानते थे। इस प्रकार का भाव सन् १४९२ के पूर्व आए हुए अमेरिकन, आफ्रिकन, दक्षिणपूर्व एशिया या भारतीय समाज में अधिक दिखाई देता था। भारत में तो यह बात अधिक दृढ़तापूर्वक प्रस्थापित दिखाई देती थी जिसके कारण भारतीय समाज की व्यापकता, विविधता एवं संकुलता का एक विशिष्ट चित्र उभर कर सामने आया है। इस समाज में ऐसा सन्तुलन स्थिर गुणधर्म या स्थाई स्वरूप का हो यह आवश्यक नहीं है। कदाचित् भारत के लिए यह सच हो, जहाँ प्रवाह विशिष्ट रूप से हमेशा बदलते रहते हैं। यह केवल भारतीय समाज का भिन्न भिन्न समयावधि का हूबहू वर्णन नहीं है। परन्तु भारतीय साहित्य की व्यापकता एवं उसके काल एवं चित्त की संकल्पना का परिचय भी है। एक लम्बे अन्तराल के बाद भारत जैसे समाज ने अपना सन्तुलन एक ओर से दूसरी ओर बदला है। परन्तु ऐसा बदलाव बहुत ही धीमा था। इसके विपरीत यूरोपीय समाज प्राचीन काल से आज तक ऐसे सन्तुलन से वंचित दिखाई देता है। इसलिए वहाँ हमेशा आन्तरिक तनाव रहा एवं इसीलिए उसके धर्मतन्त्र का ढाँचा सुदृढ बना। इससे विपरीत यूरोपीय सभ्यता का उद्देश्य समग्रता के मूल्य पर आंशिक उपलब्धि को महत्त्व देता दिखाइ रहा है। इसीलिए यूरोपीय समाज किसी निश्चित समय बिन्दु पर
    
==References==
 
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