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यूरोप ने अमेरिका में अपने आधिपत्य का विस्तार किया एवं आफ्रिका में भी घूसखोरी शुरू की इसके साथ ही उसने पूर्व की ओर स्थित एशिया में भी अपना विस्तार शुरू किया। भारत पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजा गया उसके दस बारह वर्षों में ही यूरोप ने गोवा तथा उसके आसपास के प्रदेशों पर अपना कब्जा जमा लिया। सोलहवीं शताब्दी के मध्य में विशाल विजयनगर के राजकर्मियों ने शत्रों के लिए पुर्तगालियों का आधार लिया, तो सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल सम्राट जहांगीर, एक ओर पश्चिम भारत एवं पर्शिया की खाडी तो दूसरी ओर अरेबिया के समुद्री मार्ग में अवरोध रूप बने हुए समुद्री डाकुओं को दूर करने के लिए अंग्रेजों की सहायता ले रहा था। इससे भारत पर यूरोप का उस समय कैसा प्रभाव था इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सन् १५५० तक तो श्रीलंका, मलेशिया, थाईलैण्ड एवं इण्डोनेशिया के टाप् तथा उसके आसपास के प्रदेशों में यूरोप की उपस्थिति दिखने लगी थी।
 
यूरोप ने अमेरिका में अपने आधिपत्य का विस्तार किया एवं आफ्रिका में भी घूसखोरी शुरू की इसके साथ ही उसने पूर्व की ओर स्थित एशिया में भी अपना विस्तार शुरू किया। भारत पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजा गया उसके दस बारह वर्षों में ही यूरोप ने गोवा तथा उसके आसपास के प्रदेशों पर अपना कब्जा जमा लिया। सोलहवीं शताब्दी के मध्य में विशाल विजयनगर के राजकर्मियों ने शत्रों के लिए पुर्तगालियों का आधार लिया, तो सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल सम्राट जहांगीर, एक ओर पश्चिम भारत एवं पर्शिया की खाडी तो दूसरी ओर अरेबिया के समुद्री मार्ग में अवरोध रूप बने हुए समुद्री डाकुओं को दूर करने के लिए अंग्रेजों की सहायता ले रहा था। इससे भारत पर यूरोप का उस समय कैसा प्रभाव था इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सन् १५५० तक तो श्रीलंका, मलेशिया, थाईलैण्ड एवं इण्डोनेशिया के टाप् तथा उसके आसपास के प्रदेशों में यूरोप की उपस्थिति दिखने लगी थी।
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ऐसा लगता है कि सत्रहवीं शताब्दी में तो यूरोपने आफ्रिका के दक्षिण तथा पूर्व समुद्री किनारों के प्रदेशों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था। यह सब भिन्न भिन्न इस्ट इंडिया कंपनियों के माध्यम से किया गया था। यूरोप के भिन्न भिन्न राज्यों के द्वारा प्रेरणा दी गयी या उन प्रदेशों में
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ऐसा लगता है कि सत्रहवीं शताब्दी में तो यूरोपने आफ्रिका के दक्षिण तथा पूर्व समुद्री किनारों के प्रदेशों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था। यह सब भिन्न भिन्न इस्ट इंडिया कंपनियों के माध्यम से किया गया था। यूरोप के भिन्न भिन्न राज्यों के द्वारा प्रेरणा दी गयी या उन प्रदेशों में कम्पनी चलाने के लिए लिखित परवाने दिए गए। साथ ही इन कंपनियों को यूरोप की स्थलसेना तथा नौसेना द्वारा संरक्षण दिया गया।
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उस काल के एक लेखक के मतानुसार सन् १६८७ से भी बहुत पहले से ही सियाम (थाइलैण्ड) सरकार की दीवानी तथा लश्करी शाखाओं में अंग्रेजों ने विश्वास सम्पादित किया था। एक अंग्रेज मिरजू तथा ताना करीम में 'शोबंदर या आयात विभाग का उपरी अधिकारी' था तो दूसरा अंग्रेज 'राजा के नौकादल के सेनापति' के समान ऊँची पदवी पर था।१३ सत्रहवीं शताब्दी में जब डच एवं पुर्तगालियों की प्रमुख सत्ता दक्षिण पूर्वी एशिया पर थी तब उन्होंने अपने वर्चस्वयुक्त क्षेत्रों में ऐसे अनगिनत पद प्राप्त किए थे।
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आफ्रिका का यूरोप के राष्ट्रों के बीच बड़े पैमाने पर किया गया विभाजन तो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ, परन्तु यूरोप की आफ्रिका में घूसखोरी एवं उसके वर्चस्व का बीज तो सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही पड़ गया था। भारत, दक्षिण पूर्व तथा दक्षिण एशिया पहुँचने का मार्ग खोजे जाने के तुरन्त बाद ही आफ्रिका के पश्चिम, दक्षिण एवं पूर्वी समुद्री किनारों पर थोडी थोडी दूरी पर उनकी छावनी स्थापित की गईं। लगभग १४५० से अस्तित्व में रही आफ्रिकनों को गुलाम बनाकर पहले भूमध्य सागर के टापुओं पर एवं वहाँ से अमेरिका ले जाने की प्रथा के कारण यूरोप की घूसखोरी आफ्रिका के हार्द तक पहँच गई। इसके बाद यूरोपीय वसाहतों के अनुकूल स्थान सर्व प्रथम दक्षिण आफ्रिका में खोजे गये। सन् १७०० तक बहुत स्थानों पर ऐसी बस्तियाँ बन गईं जिसके कारण वहाँ यूरोपीयों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हुआ।
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अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ओस्ट्रेलिया तथा उसके आसपास के टापुओं में भी उन्होंने प्रवेश किया; और जो स्थिति अमेरिका की हुई उसीका पुनरावर्तन वहाँ भी हुआ।
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लगभग सन् १७०० तक तो भारत के प्रमुख क्षेत्रों में यूरोप द्वारा कोई बड़ा हस्तक्षेप नहीं किया गया था।
    
==References==
 
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