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→‎व्यवहार के विभिन्न आयाम: लेख सम्पादित किया
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अध्याय २
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युगानुकूल और देशानुकूल
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{{One source}}
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तत्त्व एवं व्यवहार में अन्तर क्यों
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== व्यवहार के विभिन्न आयाम ==
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तत्व के अनुसार व्यवहार करते समय जो विभाग होते हैं, उनके प्रकार ऐसे हैं - रचना, व्यवस्था, प्रक्रिया और क्रिया <ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व १: अध्याय ३, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। स्चना का संबंध निर्माण से है ।
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SEM APT के आठ अंगों में पहला अंग है यम यम
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हम काव्य की रचना करते हैं, इसका अर्थ है शब्दों और पंक्तियों को साथ साथ रखकर कोई एक भाव या विचार की अभिव्यक्ति करते हैं । मैदान में छात्रों को विशिष्ट रचना में खड़े कर हम व्यायाम के लिए कोई एक आकृति बनाते हैं । उदाहरण के लिए स्वस्तिक या शंख या कमल । हम नगर रचना करते हैं अर्थात्‌ कौन से भवन कौन से रास्ते किस प्रकार होंगे, यह निश्चित्‌ करते हैं । बगीचा कहाँ होगा, जलाशय कहाँ होगा, मंदिर कहाँ होगा, गोचर कहाँ होगा, यह निश्चित करते हैं । निवास के भवन कहाँ होंगे ? विभिन्न प्रकार के कार्यालय कहाँ होंगे, कारखाने कहाँ होंगे ? इसकी योजना करते हैं । संगीत में हम स्वरों की रचना करते हैं, इनमें से ही विभिन्न राग-रागिनियाँ निर्मित होती हैं, विभिन्न बंदिशें निर्माण होती हैं
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पाँच हैं, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य इनके
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इस प्रकार रचना का संबंध निर्माण से है। व्यवस्था का संबंध सुविधा और आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ है । उदाहरण के लिए हम नगर में, विद्यालय में, कार्यालय में या घर में प्रकाश और पानी की व्यवस्था करते हैं । किसी कार्यक्रम में लोगोंं को बैठने की व्यवस्था करते हैं । सबको सुनाई दे इस प्रकार से ध्वनि की व्यवस्था करते हैं । सबके लिए भोजन की व्यवस्था करते हैं, सब में अर्थव्यवस्था होती है, राज्यव्यवस्था होती है, शिक्षा व्यवस्था होती है । धर्म व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, कानून व्यवस्था आदि भी बहुत बड़ी व्यवस्थाएँ हैं । व्यवस्थाएँ आवश्यकता की पूर्ति के लिए तो होती ही हैं साथ ही सब कुछ ठीक बना रहे, अतः भी होती हैं ।  
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विषय में कहा गया है कि वे सार्वभोम महाब्रत हैं । इसका अर्थ
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प्रक्रिया किसी भी पदार्थ की बनावट के साथ सम्बंधित होती है । उदाहरण के लिए रोटी बनाते समय विभिन्न प्रकार की क्रियाओं का एक निश्चित क्रम बना होता है । वस्त्र बनाने की एक निश्चित पद्धति होती है । भवन रचना में जो विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ हैं, उनका निश्चित क्रम और एक दूसरे के साथ सम्बंध होता है । प्रक्रिया का पदार्थ की बनावट पर परिणाम होता है । उदाहरण के लिए घड़ा बनाते समय मिट्टी को ठीक तरह से गूँधा नहीं गया या ठीक तरह से भट्टी में पकाया नहीं गया तो घड़ा कच्चा रह जाता है । वस्त्र बनाते समय यदि धागे को पक्का नहीं बनाया गया तो वस्त्र अच्छा नहीं बनता। कपड़ा रंगने के समय यदि प्रक्रिया ठीक से नहीं हुई तो कपड़े का रंग कच्चा रह जाता है और पानी में भिगोते समय उतर जाता है या दूसरे कपड़े पर बैठ जाता है । भवन बनाते समय ईंटों को और प्लास्टर को पानी से सींचा नहीं गया तो दीवारें कच्ची रह जाती हैं । अध्यापन करते समय छात्र को ठीक से समझ में आया कि नहीं, यह देखा नहीं गया तो ठीक से अध्यापन नहीं होता । एक वस्तु में जितने भी पदार्थ होते हैं उनकी मिलावट ठीक मात्रा में और ठीक पद्धति से नहीं हुई तो वस्तु अच्छी नहीं बनती । इसका अर्थ है कि प्रक्रिया का अत्यंत महत्व है ।
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है कि वह समय के प्रवाह में और स्थान के बदलने से परिवर्तित
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हम शारीरिक और मानसिक रूप से जो- जो भी करते हैं, वह सारी क्रियाएँ हैं । तत्व के व्यावहारिक स्वरूप का यह बहुत बड़ा आयाम है, शरीर से हम बहुत सारी क्रियाएँ करते हैं उदाहरण के लिए चलना, उठना, बैठना, पकड़ना, फेंकना, बोलना, गाना इत्यादि। मानसिक रूप से हम विचार करते हैं, इच्छाएँ करते हैं और विभिन्न प्रकार के भावों का अनुभव करते हैं । हमारी पसंद-नापसंद होती है । इन शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का बनावट, रचना, व्यवस्था आदि सभी पर बहुत बड़ा परिणाम होता है । सम्पूर्ण विश्व के समग्र व्यवहार में रचना, व्यवस्था, प्रक्रिया और क्रिया की बहुत बड़ी भूमिका है । अतः इन सभी बातों के लिए बहुत सजग और कुशल रहना चाहिए।
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नहीं होते, वे हमेशा किसी भी परिस्थिति में और किसी भी
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== युगानुकूलता के मानक ==
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इन सभी के लिए कुछ सामान्य मानक बने हुए हैं । ये मानक इस प्रकार हैं:
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समय में लागू हैं । इनका आचरण करना ही है । फिर भी उनका
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'''एक''', हमारा सारा व्यवहार सत्य और धर्म के अविरोधी होना चाहिए । '''दूसरा''', चराचर के हित और सुख का अविरोधी होना चाहिए । '''तीसरा''', पर्यावरण के अविरोधी होना चाहिए । '''चौथा''' मनुष्य के स्वास्थ्य के अविरोधी होना चाहिए । '''पाँचवा''', अहिंसक होना चाहिए । वैसे तो सत्य और धर्म के अविरोधी होना चाहिए, ऐसा कहने में शेष सारे मानक समाविष्ट हो जाते हैं तथापि सरलता पूर्वक समझने के लिए इतने विभाग किए हैं । सत्य के अविरोधी ही क्यों होना चाहिए ? अतः कि सत्य ऋत की वाचिक अभिव्यक्ति है । ऋत विश्व नियम को कहते हैं । नियम से ही विश्व का सारा व्यवहार सुचारु रूप से चलता है । अतः उसका पालन करना अनिवार्य है । ऋत उन्हें नियमों में बताता है, सत्य वाणी में अभिव्यक्त करता है । अतः उसका पालन करना चाहिए ।
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स्वरूप परिवर्तित होते रहता है । तत्त्व की अहिंसा और व्यवहार
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ऋत ही धर्म है । धर्म से ही सारे ब्रह्मांड का धारण होता है, अतः उसका आधार लेना चाहिए । धर्म को कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए। सत्य और धर्म को छोड़ने से सर्व प्रकार के संकट आते हैं । चराचर के हित और सुख का ध्यान क्यों रखना चाहिए ? अतः क्योंकि चर और अचर एक दूसरे के साथ अभिन्न रूप से संलग्न हैं । एक के दुःख का सभी पर प्रभाव होता है । एक के भले से सभी का भला होता है, हम समझें या न समझें, मानें या न मानें, कोई चाहे या न चाहे ऐसा होता ही है क्योंकि छोटे-बड़े सभी का एक दूसरे के साथ सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध हमने नहीं बनाया । वह तो विश्व की रचना के समय से ही बना हुआ है । अतः उसके अविरोधी होना ही हमारे लिए बाध्यता है । पर्यावरण के अविरोधी क्यों होना चाहिए ? 
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की अहिंसा का स्वरूप अलग होता है । तत्त्व के रूप में वे
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पर्यावरण का अर्थ है, हमारे चारों ओर की प्रकृति । यह प्रकृति पंचमहाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार की बनी है । हमारे चारों ओर पृथ्वी, जल, अभि, वायु और आकाश विभिन्न रूप धारण कर फैले हुए हैं । हमारे चारों ओर वनस्पति जगत‌ है तो कहीं प्राणी जगत‌ फैला हुआ है। हमारे चारों ओर बसे हुए मनुष्यों के मन के भाव अहंकार के विविध रूप और बुद्धि की सारी क्रिया-प्रक्रियाएँ फैली हुई हैं। इन सब के प्रति अविरोधी रहना सत्य और धर्म का आचरण करने के बराबर है । इन सबका ध्यान रखना व्यवहार के लिए बहुत आवश्यक है । मनुष्य के स्वास्थ्य के अविरोधी क्यों होना चाहिए ? अतः कि मनुष्य का स्वास्थ्य यदि ठीक नहीं रहा तो हित और सुख की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं ।
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अमूर्त है परंतु व्यवहार के रूप में वे मूर्त हैं । हम सब जानते
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कहा ही है{{Citation needed}} ,  <blockquote>शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्‌ ।</blockquote>धर्म के आचरण का प्रमुख साधन शरीर है । इस कथन के तत्व को समझाने की आवश्यकता नहीं है अतः हम जो जो भी रचना, व्यवस्था, क्रिया, प्रक्रिया आदि सब करते हैं, वे शरीर स्वास्थ्य के अनुकूल होनी चाहिए ।
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हैं कि मन, कर्म, वचन से किसी को भी दुःख नहीं पहुँचाना,
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==References==
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<references />
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किसी का भी अहित नहीं करना अहिंसा है । किसी चींटी को
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[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 1: विषय प्रवेश]]
 
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भी मारना हिंसा है । किसी को कठोर वचन कहना हिंसा है ।
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परंतु न्यायालय में न्यायाधीश अपराधी को कोड़े लगाने की सजा
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देते ही हैं । किसी अपराधी को फाँसी की सजा भी दी जाती
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है । इतना ही क्यों भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बार-बार युद्ध
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करने का उपदेश दिया । युद्ध में हिंसा होती है । श्री कृष्ण
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योगेश्वर थे, इसका अर्थ है कि वे योगसाधना करते ही थे । योग
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का उपदेश भी वे देते ही हैं । फिर उन्होंने हिंसा का उपदेश
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क्यों दिया ? क्या यह सार्वभौम महाव्रत का उल्लंघन नहीं है,
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ऐसा प्रश्न कोई भी पूछ सकता है । अनेक लोगों ने पूछा भी
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है । यही तो रहस्य है । किसी को भी दुःख पहुँचाना, किसी
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को भी हानि पहुँचाना हिंसा ही है । फिर भी भगवान कृष्ण
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की दिखने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है । क्यों कि धर्म की रक्षा
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के लिए की जाने वाली तथा दिखाई देने वाली हिंसा, हिंसा
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नहीं है । धर्म की रक्षा करना विश्व का कल्याण करना ही है ।
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विश्व का कल्याण करने के लिए एक व्यक्ति को या उस व्यक्ति
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के पक्ष में युद्ध करने वाले अनेक व्यक्तियों को मारना आवश्यक
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है । यदि उन्हें नहीं मारेंगे तो व्यापक हिंसा होगी इस अर्थ में
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वह कल्याण होगा । इसलिए उनको मार कर व्यापक रूप में
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विश्व की रक्षा करना अहिंसा है । अधर्म के पक्ष के लोगों को
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मारने पर या मरवाने पर भी भगवान कृष्ण के हृदय में सबके
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लिए प्रेम की ही भावना थी और सब के कल्याण की ही इच्छा
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थी । इसलिए उन्होंने करवाई हुई हिंसा, अहिंसा ही है । तत्त्व
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की और व्यवहार की अहिंसा का यही अंतर है । यही बात
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सत्य के विषय में भी सही है, सत्य सार्वभौमक वैश्विक नियमों
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की वाचिक अभिव्यक्ति है । वह भी सार्वभौम महाब्रत है परंतु
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विभिन्न परिस्थितियों में यह अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न होती है,
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यह तो हमारा सब का अनुभव है । एक महात्मा वृक्ष के नीचे
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ध्यान लगा कर बैठे थे । उस समय एक घबराई हुई महिला
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भागती-भागती आई और उसने महात्मा से छिपने का उपाय
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पूछा । महात्मा ने उसे कुछ दूरी पर स्थित अपने आश्रम में छिप
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जाने के लिए बताया । वह महिला वहाँ जाकर छिप गई कुछ
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देर पश्चात एक मनुष्य आया । उसने महात्मा को उस महिला
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के बारे में पूछा । महात्मा को पता चल गया की वह उस
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महिला को परेशान करना चाहता था । महात्मा ने उस महिला
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को बचाने की दृष्टि से झूठ बोला और कहा कि वह महिला
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यहाँ नहीं आई । उस मनुष्य ने महात्मा पर विश्वास कर लिया
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और वह दूसरी दिशा में चला गया । यह तो सरासर झूठ है ।
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महात्मा ने झूठ बोला ही है, फिर भी महिला को बचाने की
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दृष्टि से वह एकमात्र मार्ग था, इसलिए उन्होंने असत्य कहा ।
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व्यापक अर्थ में या व्यापक संदर्भ में यह असत्य नहीं कहा
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जाएगा । यही बात सभी महाब्रतों को लागू है । जो स्वार्थी
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के लिए सत्य है, जो केवल अपनी ही दृष्टि से या अनिष्ट हेतु
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पर्व १ : विषय प्रवेश
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सिद्ध करने के लिए बोला जाता है, वह दिखने में सत्य होने
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पर भी असत्य है, दिखने में अहिंसा होने पर भी हिंसा है ।
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अपराधी के पक्ष में लाभ हो और निरपराधी को हानि हो ऐसा
  −
 
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सत्य भी असत्य ही होता है या ऐसी अहिंसा भी हिंसा ही होती
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है । अन्याय का पक्ष लेना असत्य है, अपराधी का पक्ष लेना
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हिंसा है, फिर हम चाहे कितने ही सत्यवादी हैं या अहिंसावादी
  −
 
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हैं । अन्याय होते हुए देखकर मौन रहना भी असत्य भाषण
  −
 
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है । शक्तिमान के आगे निष्क्रिय रहना, दुर्बल को नहीं बचाना
  −
 
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और अपनी सुरक्षा कर लेना हिंसा है । इस प्रकार सभी बातों
  −
 
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के लिए तत्त्व और व्यवहार का स्वरूप अलग अलग होता
  −
 
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है । तत्त्व अमूर्त है इसलिए भिन्नता दिखती नहीं है परंतु व्यवहार
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दिखते हैं, इसलिए यह भिन्नता दिखाई देती है । कहाँ क्या
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  −
करना इसके विवेक से और मनोभाव प्रेमपूर्ण होने से विभिन्न
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परिस्थितियों में कौन सा अच्छा है, कौन सा व्यवहार सत्य
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और अहिंसा का होगा इसका निर्णय होता है । कहने का तात्पर्य
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यह है कि व्यवहार करते समय हमें अनेक बातों का विचार
  −
 
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करना होता है । व्यवहार का मूल्यांकन करते समय भी हमें
  −
 
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अनेक बातों का विचार करना होता है । सत्य और असत्य
  −
 
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का, हिंसा और अहिंसा का, इसी प्रकार अच्छे और बुरे का
  −
 
  −
विवेक करना आवश्यक होता है । इसका अर्थ यह है कि
  −
 
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शास्त्रों में और स्मृतियों में भिन्न-भिन्न बातें कही हुई होती हैं
  −
 
  −
परंतु वह निरपेक्ष रूप से हमारे लिए प्रमाण नहीं हो सकती,
  −
 
  −
हमें या तो विवेक सीखना है या फिर महाजनों के उदाहरण
  −
 
  −
देखकर अपना आचरण निश्चित करना है ।
  −
 
  −
युग क्या है
  −
 
  −
आजकल हम युग के अनुकूल ऐसी संज्ञा बार-बार सुनते
  −
 
  −
हैं । लोग कहते हैं कि हमें आज के जमाने के अनुसार चलना
  −
 
  −
चाहिए । प्राचीन काल का सिद्धांत आज लागू नहीं हो
  −
 
  −
सकता । हमें समय के अनुसार परिवर्तन करना ही चाहिए, यही
  −
 
  −
व्यावहारिक है । इस बात में कितना तथ्य है ? इस कथन में
  −
 
  −
तो सत्यता है, परंतु इसे ठीक से समझा नहीं जाता है । युग के
  −
 
  −
अनुकूल होना, इसका अर्थ है, समय के साथ परिवर्तन करना ।
  −
 
  −
यह तो बिल्कुल सत्य है । यह तो सर्वथा व्यावहारिक है । जरा
  −
 
  −
ठीक से इसे समझें । सत्य युग में समाज व्यवस्था में धर्म
  −
 
  −
स्वाभाविक रूप से प्रतिष्ठित था । इसलिए
  −
 
  −
वहाँ राज्य की, राजा की या दंड की आवश्यकता नहीं थी ।
  −
 
  −
धर्म से ही प्रजा अपने आप नियंत्रित होती थी । परंतु त्रेता युग
  −
 
  −
में धर्म के ट्वारा नियंत्रित होना इतना संभव नहीं रहा । यह काल
  −
 
  −
का प्रभाव था । इसलिए राज्य की और राजा की व्यवस्था
  −
 
  −
निर्माण हुई । इसी प्रकार त्रेता से द्वापर में और ट्रापर से कलियुग
  −
 
  −
में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमता कम हुई ।
  −
 
  −
प्रकृति में भी क्षरण हुआ । इसलिए नियंत्रण की अधिक
  −
 
  −
आवश्यकता पड़ने लगी । इस प्रकार कलियुग की व्यवस्थाएँ
  −
 
  −
सत्ययुग की अपेक्षा अथवा अन्य तीनों युगों की अपेक्षा भिन्न
  −
 
  −
प्रकार की होना स्वाभाविक है । जीवन के मूल तत्त्वों के
  −
 
  −
सिद्धांत सत्ययुग में और कलियुग में तो एक ही रहेंगे परंतु उनके
  −
 
  −
आविष्कार में और उनकी व्यवस्था में उनका स्वरूप भिन्न
  −
 
  −
होगा । इसे ही युगों की व्यवस्थाएँ कहते हैं । यह बात केवल
  −
 
  −
कलियुग, दट्वापरयुग आदि युगों को ही लागू नहीं होती अपितु
  −
 
  −
दो-तीन पीढ़ियों में भी लागू होती है । ५००० वर्ष पहले जो
  −
 
  −
स्थिति थी, वह आज नहीं है । तीन पीढ़ियों पहले जो स्थिति
  −
 
  −
थी वह भी आज नहीं है, इस बात को ध्यान में रखकर हमें
  −
 
  −
अपनी अपेक्षाओं में और अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन
  −
 
  −
करना होता है, इसे युग के अनुकूल परिवर्तन कहते हैं । इतना
  −
 
  −
ही क्यों समय के परिवर्तन के साथ हम छोटी मोटी बातों में
  −
 
  −
परिवर्तन करते ही हैं । ठंड के दिनों में जो कपड़े पहनते हैं,
  −
 
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वह गर्मी के दिनों में नहीं पहनते । वर्षा की तु में जो आहार
  −
 
  −
लेते हैं, वह गर्मी की क्रतु में नहीं लेते । दो पीढ़ियों पहले
  −
 
  −
मनुष्य की आकलन शक्ति और स्मरण शक्ति अधिक थी ।
  −
 
  −
उसकी श्रवण शक्ति और दर्शन शक्ति भी अधिक थी । इसलिए
  −
 
  −
उनकी शिक्षा योजना में अधिक उपकरणों की और अधिक
  −
 
  −
परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । आज उस पीढ़ी की
  −
 
  −
अपेक्षा यह सारी शक्तियाँ और साथ साथ संयम शक्ति, एकाग्रता
  −
 
  −
की शक्ति आदि भी कम हुई हैं । मनुष्य की भावना शक्ति और
  −
 
  −
संवेदना शक्ति भी कम हुई है । इस बात को ध्यान में रखकर
  −
 
  −
ही आज शिक्षा व्यवस्था और कानून व्यवस्था करनी होगी ।
  −
 
  −
इसे ही युग के अनुकूल परिवर्तन कहते हैं ।
  −
 
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तत्त्व के अनुकूल युग, युग के अनुकूल व्यवहार
  −
 
  −
फिर भी एक बात का स्मरण रखना आवश्यक है ।
  −
 
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कुछ बातों में जमाने के अनुसार परिवर्तन
  −
 
  −
करना होता है और कुछ बातों में जमाने का परिवर्तन करना
  −
 
  −
होता है। इसका विवेक करना अत्यंत आवश्यक है।
  −
 
  −
उदाहरण के लिए छात्रों के अध्ययन की क्षमताएँ कम हुई हैं,
  −
 
  −
इस बात को स्वीकार कर अध्यापन पद्धति का निरूपण करना
  −
 
  −
चाहिए । यह नहीं किया तो छात्रों के लिए अध्ययन असंभव
  −
 
  −
हो जाएगा । उस समय में क्या या आज के समय में क्या ज्ञान
  −
 
  −
कभी बेचा नहीं जा सकता । अर्थ और काम धर्मानुसार होने
  −
 
  −
ही चाहिए । इस बात में समझौता नहीं हो सकता । इसलिए
  −
 
  −
ज्ञान की सर्वोपरिता के विषय में आज के जमाने को परिवर्तित
  −
 
  −
करना चाहिए । यह बात सभी व्यवस्थाओं को और सभी
  −
 
  −
विषयों को लागू होती है । यही व्यवहार का नियम है ।
  −
 
  −
तत्त्वानुसारी व्यवहार की यही विशेषता है ।
  −
 
  −
आज के समय में शब्दों के अर्थ बहुत बदल गए हैं
  −
 
  −
इसलिए उनके स्वाभाविक अर्थों को हम जल्दी से और
  −
 
  −
सरलता से समझ नहीं सकते हैं । इसलिए युग के अनुकूल
  −
 
  −
परिवर्तन के मामले में हम उलझ जाते हैं । युग के अनुकूल
  −
 
  −
परिवर्तन केवल हमारे करने से ही नहीं होता । हमारी इच्छा
  −
 
  −
से भी नहीं होता । वह प्रकृति के नियमों के अनुसार होता
  −
 
  −
है । प्रकृति स्वभाव से नित्य परिवर्तनशील है । हमें प्रकृति के
  −
 
  −
परिवर्तन को समझ कर उसके अनुसार हमारी व्यवस्था और
  −
 
  −
व्यवहार में भी परिवर्तन करना होता है । इसे ही युगानुकूल
  −
 
  −
परिवर्तन कहते हैं । आज हम जिसे युगानुकूल परिवर्तन कहते
  −
 
  −
हैं उसके लिए प्रचलित शब्द है, आधुनिक काल के अनुसार
  −
 
  −
परिवर्तन । आधुनिक काल का अर्थ है आज का समय । वह
  −
 
  −
भी स्वाभाविक है परंतु हम उसे अपने आसपास के लोगों के
  −
 
  −
विचार और व्यवहार के साथ जोड़ते हैं । इसलिए वह कृत्रिम
  −
 
  −
अर्थात्‌ अप्राकृतिक हो जाता है । जो भी कृत्रिम है वह
  −
 
  −
हानिकारक होता है, वह या तो अपने स्वास्थ्य के लिए या
  −
 
  −
तो प्रकृति के पर्यावरण के लिए हानिकारक होता है।
  −
 
  −
इसलिए लोगों की मानसिकता के अनुसार या लोगों के
  −
 
  −
व्यवहार के अनुसार परिवर्तन करना अनुकूल परिवर्तन नहीं
  −
 
  −
है । प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार किया जाने
  −
 
  −
वाला परिवर्तन युगानुकूल परिवर्तन है । और तभी हमारी
  −
 
  −
सारी व्यवस्थाएँ स्वाभाविक बनेंगी ।
  −
 
  −
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
  −
 
  −
देशानुकूल संकल्पना क्या है
  −
 
  −
देशानुकूल का अर्थ है, देश के अनुकूल । इसे समझना
  −
 
  −
तो सरल है । विश्व में अनेक देश हैं, अनेक प्रजाएँ हैं । इन
  −
 
  −
सब का खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या आदि सब अलग
  −
 
  −
अलग ही होते हैं । यह सारी तो बाहरी बातें हैं । एक दूसरे के
  −
 
  −
साथ के संबंध, उनकी घटनाओं के प्रति देखने की दृष्टि,
  −
 
  −
जीवन को समझने की पद्धति, सुविधाओं की आवश्यकता
  −
 
  −
आदि सभी भिन्न-भिन्न होते हैं । जब यह प्रजा एक दूसरे के
  −
 
  −
साथ संपर्क में आती है तब वह एक दूसरे को प्रभावित करती
  −
 
  −
है और एक दूसरे से प्रभावित होती है । इससे अनेक बातों
  −
 
  −
का. आदान-प्रदान होता है। यह आदान-प्रदान भी
  −
 
  −
स्वाभाविक है । जब तक यह स्वाभाविक है, वह उचित है
  −
 
  −
परंतु जब वह अस्वाभाविक होता है, तब विचित्रता निर्माण
  −
 
  −
करता है । उदाहरण के लिए विश्व के सभी देशों में लोग वस्त्र
  −
 
  −
पहनते हैं । अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले लोग वृक्षों के
  −
 
  −
छाल के वख््र पहनते हैं । पशुओं की हड्डियों के अलंकार
  −
 
  −
बनाकर पहनते हैं । यूरोप-अमेरिका के लोग सूट-बूट का
  −
 
  −
वेश पहनते हैं । भारत में धोती कुर्ता, साड़ी व पगड़ी आदि
  −
 
  −
पहनते हैं । जापान के लोग किमोनो पहनते हैं । यह सब
  −
 
  −
अपने-अपने देश की जलवायु के अनुकूल और प्राप्त सामग्री
  −
 
  −
के अनुकूल होते हैं, इसलिए वह उन-उन देशों में
  −
 
  −
स्वाभाविक है । यूरोप के या भारत के नगरवासी लोग वृक्षों
  −
 
  −
के छाल के वस्त्र पहनने लगे तो अस्वाभाविक लगेगा । भारत
  −
 
  −
की गृहिणियाँ किमोनो पहनने लगेंगी तो वह अस्वाभाविक
  −
 
  −
लगेगा । इसी प्रकार बड़ी आयु के लोग बच्चों जैसे कपड़े
  −
 
  −
पहनेंगे तो अस्वाभाविक लगेगा । आज हम देखते हैं कि
  −
 
  −
भारत में लोग यूरोपीय वेशभूषा पहनते हैं । ख्ियों ने पुरुषों
  −
 
  −
जैसे कपड़े पहनना शुरु किया है । भारत के लोगों का यह
  −
 
  −
अनुकरण स्वाभाविक नहीं है, क्योंकि वह देशानुकूल नहीं
  −
 
  −
है । इसी प्रकार भारत के लोग जब यूरोपीय जीवन दृष्टि
  −
 
  −
अपनाते हैं तो वह भी देशानुकूल नहीं है क्योंकि वह भारत
  −
 
  −
की संस्कृति और परंपरा से मेल नहीं खाता । इसलिए
  −
 
  −
विवेकशील लोग कहते हैं कि विश्वभर में जहाँ कहीं जो कुछ
  −
 
  −
भी अच्छा है, लाभकारी है, शुभ है उसे खुले मन से अपनाना
  −
 
  −
चाहिए, जो इससे विपरीत है उसे नहीं अपनाना चाहिए ।
  −
 
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  −
पर्व : विषय प्रवेश
  −
 
  −
देशानुकूल परिवर्तन क्या है
  −
 
  −
दूसरों से कुछ भी अपनाने पर जो परिवर्तन होता है,
  −
 
  −
वह देशानुकूल होना चाहिए । उदाहरण के लिए हम
  −
 
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अमेरिकन या ऑस्ट्रेलियन प्रजा से कानून का पालन करने का
  −
 
  −
नागरिक धर्म अपना सकते हैं परंतु समाज व्यवस्था को करार
  −
 
  −
मानना स्वीकार नहीं कर सकते । आज के समय में हम देखते
  −
 
  −
हैं कि हमने जो अपनाना चाहिए, वह नहीं अपनाया है और
  −
 
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जो नहीं अपनाना चाहिए, उसे अपना लिया है और हमारे
  −
 
  −
स्वयं के लिए बहुत बड़े संकट मोल ले लिए हैं ।
  −
 
  −
हम ऐसा करते हैं इसका कारण हमारा हीनताबोध है ।
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ब्रिटिशों के आक्रमण का प्रभाव हमारे मानस पर कुछ ऐसा हुआ
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है कि हमें यूरोप अमेरिका का सब कुछ अच्छा और श्रेष्ठ लगने
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लगा है । जब कोई भी व्यक्ति हीनताबोध से ग्रस्त हो जाता है
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तब उसका विवेक नष्ट हो जाता है । हमारी संपूर्ण प्रजा की
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आज यही स्थिति हो गई है । अन्यथा हम
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तो ऋग्वेद काल से कहते ही आए हैं कि विश्वभर में जहाँ कहीं
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भी कुछ भी कल्याणकारी हो, हम उसे अपनाएँगे । इस
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हीनताबोध को समाप्त करने का उपाय शिक्षा और धर्म में है ।
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धर्माचार्य ने प्रजा को धर्मनिष्ठ बनाने के और शिक्षाविदों ने प्रजा
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को ज्ञाननिष्ठ बनाने के प्रयास करने चाहिए । धर्म और ज्ञान
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ही आत्मबोध और स्वाभिमान निर्माण करते हैं । इन दोनों से
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ही विवेक जाग्रत होता है । जब तत्त्व का विवेक आता है,
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तब व्यवहार में भी विवेक आता है । उसके बाद हम दूसरों से
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अनेक बातें ग्रहण करते हैं और अपनी जीवन पद्धति के अनुसार
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उनको ढालकर लाभान्वित होते हैं । यही देशानुकूल परिवर्तन
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है । किसी भी विषय की चर्चा करते समय हम देश-काल-
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परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करें, ऐसा ही कहते हैं । यह
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सर्व स्वीकृत प्रचलन है ।
 

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