Difference between revisions of "यन्त्रसंस्कृति की यात्रा"

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९. कृषि के लिये, वस्त्र निर्माण के लिये, छोटे से छोटे काम के लिये और पेट्रोल आदि ऊर्जा से चलने वाले यन्त्रों का प्रयोग होता है । ये यन्त्र विराटकाय होते हैं। ऐसी ऊर्जा के परिचालन के लिये भी अनेक यन्त्रों की आवश्यकता होती है । इस प्रकार यन्त्र के लिये यन्त्र, उसके लिये यन्त्र, उसके लिये यन्त्र ऐसी अनन्त शुखला निर्माण होती है जो पर्यावरण का नाश करती है, मनुष्य की शक्ति, बुद्धि और वृत्ति का नाश करती है, कौशल का नाश करती है और मनुष्य का भी नाश करती है ।
 
९. कृषि के लिये, वस्त्र निर्माण के लिये, छोटे से छोटे काम के लिये और पेट्रोल आदि ऊर्जा से चलने वाले यन्त्रों का प्रयोग होता है । ये यन्त्र विराटकाय होते हैं। ऐसी ऊर्जा के परिचालन के लिये भी अनेक यन्त्रों की आवश्यकता होती है । इस प्रकार यन्त्र के लिये यन्त्र, उसके लिये यन्त्र, उसके लिये यन्त्र ऐसी अनन्त शुखला निर्माण होती है जो पर्यावरण का नाश करती है, मनुष्य की शक्ति, बुद्धि और वृत्ति का नाश करती है, कौशल का नाश करती है और मनुष्य का भी नाश करती है ।
  
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१०. बचपन से ही हाथ से काम नहीं करने की वृत्ति बढती जाती है और वह सर्वत्र अपनी सत्ता प्रस्थापित करती है । हाथ से काम नहीं करना ही प्रगति का लक्षण बन गया है । 
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११. शिक्षा में भी विविध रूपों में यह दिखाई देता है । अब पहाड़े, नियम, सूत्र, श्लोक, मन्त्र आदि रटने की, याद करने की आवश्यकता नहीं, सब तैयार मिल जाता है। अब नकशे, विज्ञान के प्रयोग, विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ हाथ से बनाने की आवश्यकता नहीं, सब तैयार मिल जाता है । अब पुस्तकालय से पुस्तक लाकर आवश्यक सामग्री हाथ से लिखने की आवश्यकता नहीं, झेरोक्स हो जाता है, प्रकल्प हाथ से, बुद्धि का उपयोग कर तैयार करने की आवश्यकता नहीं, इण्टरनेट पर सब उपलब्ध हो जाता है। अब कार्यक्रमों के बैनर, प्रदर्शनी, साजसज्जा आदि में कल्पना और कुशलता की आवश्यकता नहीं, यन्त्र हाजिर है। मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि की कोई आवश्यकता ही नहीं है । शिक्षा से हम किस बात का विकास चाहते हैं इसकी ही स्पष्टता नहीं है । 
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१२. मनुष्य केवल यन्त्र होता तो बहुत परेशानी नहीं होती । वह अन्तःकरण से युक्त है इसलिये चिन्ता है । यंत्रों के प्रभाव से मनुष्य समाज संस्कृति से मुँह मोडकर विकृति की ओर धँस रहा है । यही चिन्ता का विषय है ।

Revision as of 16:56, 12 January 2020

१. इस लेख का शीर्षक ही अतार्किक है । यन्त्र निर्जीव होता है। उसके लिये संस्कृति आप्रस्तुत है। वह प्रकृति के अधीन होता है । संस्कृति मनुष्य के लिये होती है। परन्तु यन्त्र से जुड़कर जिसका प्रादुर्भाव होता है वह संस्कृति नहीं अपितु विकृति ही होती है ऐसा आजतक का विश्व का अनुभव कह रहा है। विकृति शीर्षक ही होना चाहिये यन्त्रविकृति से विनाश ।

२. यन्त्र निर्जीव है । उसका संस्कृति या विकृति से कोई सम्बन्ध नहीं होता है । यन्त्र को लेकर मनुष्य की जो वृत्ति प्रवृत्ति होती है उसका सम्बन्ध संस्कृति या विकृति से होता है । यन्त्र को लेकर अतीत में मनुष्य ने संस्कृति और सभ्यता का विकास किया है । इसके अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। आज का जो व्यवहार है वह विकृति को बढ़ा रहा है इसलिये विनाशक है ।

३. मनुष्य के हाथ की कुशलता और बुद्धि की निर्माणक्षमता ने प्रारम्भ काल से ही अनेक यन्त्रों का आविष्कार किया है । यन्त्रनिर्माण की प्रक्रिया तो अभी भी चल ही रही है । परन्तु यन्त्रों के दो प्रकार हैं। एक होते हैं मनुष्य को काम करने में सहायता करने वाले, मनुष्य का कष्ट और परिश्रम कम करनेवाले और बदलेमें किसी प्रकार का नुकसान न पहुँचाने वाले यन्त्र । दूसरे होते है मनुष्य के स्थान पर काम करनेवाले, मनुष्य को बेरोजगार और बेकार बनाने वाले और कष्ट कम करनेके बदले में दूसरे प्रकार से अपरिमित हानि पहुँचाने वाले यन्त्र । एक प्रकार के यन्त्र सभ्यता और संस्कृति का विकास करने में सहायता करते हैं । दूसरे प्रकार के विकृति निर्माण कर विनाश की ओर ले जाते हैं । अतः यन्त्रों के प्रयोग में विवेक की बहुत आवश्यकता है ।

४. पदार्थ विज्ञान के नियमों के ज्ञान, मानवीय और प्राकृतिक ऊर्जा और ऊर्जा और पदार्थों का विनियोग कर कृषि के, वस्त्र बनाने के, परिवहन के, मकान बनाने के काम में आ सकें ऐसे अगणित यन्त्र मनुष्य ने बनाये । ये सब उसके मददगार थे । मनुष्य मुख्य था । आज विद्युत, भाँप, पेट्रोल, अणु आदि ऊर्जा का प्रयोग कर उनसे संचालित होने वाले राक्षसी आकार प्रकार के यन्त्रों से जो केन्द्रीकृत उत्पादन हो रहा है उसमें मनुष्य बेचारा बन गया है, स्वयं संसाधन बन गया है और यन्त्रों द्वारा संचालित हो रहा है ।

५. मनुष्य की काम करने की कुशलता और स्वतन्त्रता का, मनुष्य के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का और पर्यावरण का ऐसे तीन प्रकार से यन्त्रों का इस प्रकार का प्रयोग विनाशक है । ये तीनों अधिक से अधिक विनाशक गति को चालना देने वाले, गति को बढाने वाले ही हैं ।

६. श्रम से बचने के हम हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं । हमारी रसोई में पीसने के पत्थर के स्थान पर मिक्सर और ग्राइण्डर है, खाना पकाने के लिये विद्युत से चलने वाला ओवन और माइक्रोवेव है, अनाज पीसने के लिये विद्युत से चलने वाली चक्की है, छाछ बिलोने के लिये चर्नर है, पानी छानने के लिये विद्युत से चलनेवाला यन्त्र है । स्नानघर में पानी गरम करने के लिये गीझर है, टंकी में पानी चढाने के लिये विद्युत पम्प है । यह सूची और भी लम्बी हो सकती है ।

७. हम पैद्ल चलना ही नहीं चाहते । साइकिल में पैडल मारने पड़ते हैं, इससे बचने के लिये मोटर साइकिल है । कार है, रेल है, हवाई जहाज है । अब पशु की ऊर्जा से चलने वाले वाहन प्रगतिहीनता की निशानी है । “बैलगाड़ी का युग' कहकर उसका उपहास किया जाता है, परन्तु सर्व प्रकार से विनाश करने वाले यन्त्रों को विकास के अग्रदूत माना जाता है । यही बुद्धि की विपरीरता है जो विनाश की ओर की गति को ही विकास कहती है ।

८. यन्त्रों के कारण से जो गति और वृत्ति निर्माण हुई है उसे सन्तुष्ट करने के लिये अधिक विपरीत व्यवस्थायें करनी पडती हैं, अधिक संसाधनों का प्रयोग होता है और अधिक विनाश होता है। यह एक दुष्ट चक्र है ।

९. कृषि के लिये, वस्त्र निर्माण के लिये, छोटे से छोटे काम के लिये और पेट्रोल आदि ऊर्जा से चलने वाले यन्त्रों का प्रयोग होता है । ये यन्त्र विराटकाय होते हैं। ऐसी ऊर्जा के परिचालन के लिये भी अनेक यन्त्रों की आवश्यकता होती है । इस प्रकार यन्त्र के लिये यन्त्र, उसके लिये यन्त्र, उसके लिये यन्त्र ऐसी अनन्त शुखला निर्माण होती है जो पर्यावरण का नाश करती है, मनुष्य की शक्ति, बुद्धि और वृत्ति का नाश करती है, कौशल का नाश करती है और मनुष्य का भी नाश करती है ।

१०. बचपन से ही हाथ से काम नहीं करने की वृत्ति बढती जाती है और वह सर्वत्र अपनी सत्ता प्रस्थापित करती है । हाथ से काम नहीं करना ही प्रगति का लक्षण बन गया है ।

११. शिक्षा में भी विविध रूपों में यह दिखाई देता है । अब पहाड़े, नियम, सूत्र, श्लोक, मन्त्र आदि रटने की, याद करने की आवश्यकता नहीं, सब तैयार मिल जाता है। अब नकशे, विज्ञान के प्रयोग, विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ हाथ से बनाने की आवश्यकता नहीं, सब तैयार मिल जाता है । अब पुस्तकालय से पुस्तक लाकर आवश्यक सामग्री हाथ से लिखने की आवश्यकता नहीं, झेरोक्स हो जाता है, प्रकल्प हाथ से, बुद्धि का उपयोग कर तैयार करने की आवश्यकता नहीं, इण्टरनेट पर सब उपलब्ध हो जाता है। अब कार्यक्रमों के बैनर, प्रदर्शनी, साजसज्जा आदि में कल्पना और कुशलता की आवश्यकता नहीं, यन्त्र हाजिर है। मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि की कोई आवश्यकता ही नहीं है । शिक्षा से हम किस बात का विकास चाहते हैं इसकी ही स्पष्टता नहीं है ।

१२. मनुष्य केवल यन्त्र होता तो बहुत परेशानी नहीं होती । वह अन्तःकरण से युक्त है इसलिये चिन्ता है । यंत्रों के प्रभाव से मनुष्य समाज संस्कृति से मुँह मोडकर विकृति की ओर धँस रहा है । यही चिन्ता का विषय है ।