Difference between revisions of "मा विद्विषावहै"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
(लेख सम्पादित किया)
m (Text replacement - "फिर भी" to "तथापि")
 
(5 intermediate revisions by the same user not shown)
Line 1: Line 1:
 
{{One source|date=July 2020}}
 
{{One source|date=July 2020}}
  
आज की शिक्षा का दुर्दैव से कोई प्रमुख पक्ष है तो वह आधारभूत संकल्पनाओं का पाश्चात्य होना है<ref name=":0">धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>।
+
== मनोविज्ञान का मूल वेद है ==
 +
आज की शिक्षा का दुर्दैव से कोई प्रमुख पक्ष है तो वह आधारभूत संकल्पनाओं का पाश्चात्य होना है<ref name=":0">धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। शिक्षा के सिद्धान्तों में से एक है, मनोविज्ञान । आज हम पाश्चात्य विचारों में मनोविज्ञान का मूल खोजते हैं । उसे ही पढ़ाते भी हैं, परन्तु वास्तव में इसका मूल तो वेदों और उपनिषदों में है।
  
मनोविज्ञान का मूल वेद है व्यवधान उत्पन्न न हो। दूसरा यह कि गुरु शिष्य के
+
उपर्युक्त शीर्षक 'मा विद्विषावहै' कठोपनिषद के शान्ति पाठ अथवा शान्तिमंत्र का एक वाक्य है।
  
त्रिविधताप की शान्ति हो सबको यह जानकारी हो जाय
+
वैसे तो उपनिषदों में कुल छः शान्ति पाठ है प्रत्येक शान्तिपाठ का अपना अपना महत्त्व है, परन्तु हम यहाँ ॐ सहनाववतु शान्तिपाठ पर ही विचार करेंगे । क्योंकि यह सीधा सीधा भारतीय शिक्षा प्रक्रिया से जुड़ा हुआ मंत्र है । इस शान्तिमंत्र में गुरु एवं शिष्य दोनों मिलकर प्रार्थना करते हैं ।
  
इसलिए शान्तिपाठ के अन्त में शान्तिः शात्तिः
+
हमारे यहाँ समाजजीवन में जिस प्रकार प्रत्येक मांगलिक कार्य के प्रारम्भ और अन्त में इष्ट देवता को नमस्कार एवं प्रार्थना करके प्रारंभ में मंगलाचरण होता है, ठीक उसी प्रकार जिन गुरुकुलों में उपनिषदों का अध्ययनअध्यापन होता था, वहाँ अध्ययन के प्रारम्भ व अन्त में यह शांति पाठ किया जाता था । अध्ययन पूर्व शान्तिपाठ करने के दो उद्देश्य हो सकते हैं । पहला यह कि इस पाठ के करने से गुरु शिष्य के मन शान्त हों, एकाग्र हों एवं ईश कृपा से अध्ययन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो। दूसरा यह कि गुरु शिष्य के त्रिविधताप की शान्ति हो सबको यह जानकारी हो जाय अतः शान्तिपाठ के अन्त में 'ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः' ऐसे तीन बार शान्तिः शब्द का उच्चारण किया जाता है।
  
शिक्षा के सिद्धान्तों में से एक है, मनोविज्ञान आज शान्तिः' ऐसे तीन बार शान्ति: शब्द का उच्चारण किया
+
ॐ सहनाववतु इस शान्तिमंत्र का विशेष महत्त्व अतः भी है कि यह गुरु और शिष्य की जोड़ी से सम्बन्धित है। यह मंत्र गुरु शिष्य की जोड़ी एक साथ मिलकर बोलती है । गुरु और शिष्य का सम्बन्ध कैसा होना चाहिए यह इस मंत्र के अन्तिम चरण ‘मा विद्विषावहै' में बताया गया है जो हम सबके लिए अत्यन्त विचारणीय है।
  
हम पाश्चात्य विचारों में मनोविज्ञान का मूल खोजते हैं । उसे... पी है। _—
+
इस मंत्र की एक और विशेषता यह है कि कुछ शब्दों में तनिक परिवर्तन कर देने से यह मंत्र समूह अथवा समाज के कल्याण हेतु उपयोगी एक सामूहिक एवं सामाजिक प्रार्थना बन सकती है।
  
ही पढ़ाते भी हैं, परन्तु वास्तव में इसका मूल तो वेदों और 3 सहनाववतु इस शान्तिमंत्र का विशेष महत्त्व
+
ऐसे वैशिष्टयपूर्ण शान्तिमंत्र - 'ॐ सहनाववतु' का विस्तारपूर्वक विचार हम यहाँ कर रहे हैं।
  
उपनिषदों में है । इसलिए भी है कि यह गुरु और शिष्य की जोड़ी से
+
यह पूर्णमंत्र इस प्रकार है<ref>Krishna Yajurveda Taittiriya Upanishad (2.2.2)</ref>:<blockquote>'सहनाववतु ॥१॥ </blockquote><blockquote>सहनौ भुनक्तु ॥२॥</blockquote><blockquote>सह वीर्यं करवावहै ॥३॥ </blockquote><blockquote>तेजस्विना वधीतमस्तु ।।४ ॥ </blockquote><blockquote>मा विद्विषावहै ॥५॥</blockquote>मंत्र का शब्दशः अर्थ यह है - रूपी ब्रह्म या ईश्वर हम दोनों (गुरु और शिष्य) पर एक साथ कृपा करे, हमारा रक्षण अथवा पालन करे, हम दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें, हमारा अध्ययन तेजस्वी बनें, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें । अब, इस मंत्र का विस्तार से विचार करते हैं । ॐ यह अक्षर ब्रह्म का परिचायक है । ॐ एकाक्षर ब्रह्म है । ब्रह्म ही परमोच्च ईश्वर है यह कहना सर्वथा उचित है । ब्रह्म अथवा ईश्वर ही जगत‌ का अन्तिम एवं श्रेष्ठ तत्त्व है । उसने ही इस विश्व का सृजन किया है । ईश्वर ही इस जगत‌ का सृजक, पालक एवं संहारक है । हम सब यह कहते ही हैं कि “यह सब ईश्वर की लीला है।' सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है । मनुष्य की इच्छानुसार सब कुछ होता है ऐसा नहीं है । ईश्वर के मन में जो होता है वही बनता है । ईश्वर की इच्छा अनुकूल होने पर ही मनुष्य का भला होता है । अतः सर्वसमर्थ ईश्वर की कृपा हम दोनों को प्राप्त हो ऐसी अपेक्षा गुरु एवं शिष्य प्रथम वाक्य में व्यक्त करते हैं । ईश्वर की कृपा गुरु और शिष्य दोनों पर होनी आवश्यक है । अकेले गुरु अथवा अकेले शिष्य पर होगी तो नहीं चलेगा । ईश्वर की कृपा होने के पश्चात्‌ ही गुरु और शिष्य प्रसन्न मन से अध्ययन अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर सकते हैं ।
 
 
उपर्युक्त शीर्षक मा विद्विषावहै' कठोपनिषद के सम्बन्धित है। यह मंत्र गुरु शिष्य की जोड़ी एक साथ
 
 
 
शान्ति पाठ अथवा शान्तिमंत्र का एक वाक्य है । मिलकर बोलती है । गुरु और शिष्य का सम्बन्ध कैसा होना
 
 
 
वैसे तो उपनिषदों में कुल छः शान्ति पाठ है । प्रत्येक... चाहिए यह इस मंत्र के अन्तिम चरण मा विद्विषावहै में
 
 
 
शान्तिपाठ का अपना अपना महत्त्व है, परन्तु हम यहाँ 3»... या गया है जो हम सबके लिए अत्यन्त विचारणीय है wai
 
 
 
सहनाववतु... शान्तिपाठ पर ही विचार करेंगे । क्योंकि यह न इस मंत्र की एक और विशेषता यह है कि कुछ शब
 
 
 
सीधा सीधा भारतीय शिक्षा प्रक्रिया से जुड़ा हुआ मंत्र है । में तनिक परिवर्तन कर देने से यह मंत्र समूह अथवा समाज
 
 
 
इस शान्तिमंत्र में गुरु एवं शिष्य दोनों मिलकर प्रार्थना करते के कल्याण हेतु उपयोगी एक सामूहिक एवं सामाजिक
 
 
 
हैं। प्रार्थथा बन सकती है ।
 
 
 
हमारे यहाँ समाजजीवन में जिस प्रकार प्रत्येक ऐसे वैशिष्टयपूर्ण शान्तिमंत्र - “3 सहनाववतु' का
 
 
 
मांगलिक कार्य के प्रारम्भ और अन्त में इष्ट देवता को विस्तारपूर्वक विचार हम यहाँ कर रहे हैं ।
 
 
 
नमस्कार एवं प्रार्थना करके प्रारंभ में मंगलाचरण होता है, यह पूर्णमंत्र इस प्रकार है :
 
 
 
ठीक उसी प्रकार जिन गुरुकुलों में उपनिषदों का अध्ययन- “35% सहनाववतु 11१ ।। सहनौ भुनक्कु ।।२ ।। सह
 
 
 
अध्यापन होता था, वहाँ अध्ययन के प्रारम्भ व अन्त में... वीर्य करवावहै ।।३ ।। तेजस्विना वधीतमस्तु ।।४ ।। मा
 
 
 
यह शांति पाठ किया जाता था । विदट्रिषिवहै vie i
 
 
 
अध्ययन पूर्व शान्तिपाठ करने के दो उद्देश्य हो सकते मंत्र का weer: अर्थ यह है - रूपी ब्रह्म या
 
 
 
हैं । पहला यह कि इस पाठ के करने से गुरु शिष्य के मन... ईश्वर हम दोनों (गुरु और शिष्य) पर एक साथ कृपा करे,
 
 
 
शान्त हों, एकाग्र हों एवं ईश कृपा से अध्ययन में कोई. हमारा रक्षण अथवा पालन करे, हम दोनों साथ मिलकर
 
 
 
sao
 
 
 
............. page-184 .............
 
 
 
प्रयत्न करें, हमारा अध्ययन तेजस्वी बनें, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें । अब, इस मंत्र का विस्तार से विचार करते हैं । ॐ यह अक्षर ब्रह्म का परिचायक है । ॐ एकाक्षर ब्रह्म है । ब्रह्म ही परमोच्च ईश्वर है यह कहना सर्वथा उचित है । ब्रह्म अथवा ईश्वर ही जगत्‌ का अन्तिम एवं श्रेष्ठ तत्त्व है । उसने ही इस विश्व का सृजन किया है । ईश्वर ही इस जगत्‌ का सृजक, पालक एवं संहारक है । हम सब यह कहते ही हैं कि “यह सब ईश्वर की लीला है।' सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है । मनुष्य की इच्छानुसार सब कुछ होता है ऐसा नहीं है । ईश्वर के मन में जो होता है वही बनता है । ईश्वर की इच्छा अनुकूल होने पर ही मनुष्य का भला होता है । इसलिए सर्वसमर्थ ईश्वर की कृपा हम दोनों को प्राप्त हो ऐसी अपेक्षा गुरु एवं शिष्य प्रथम वाक्य में व्यक्त करते हैं । ईश्वर की कृपा गुरु और शिष्य दोनों पर होनी आवश्यक है । अकेले गुरु अथवा अकेले शिष्य पर होगी तो नहीं चलेगा । ईश्वर की कृपा होने के पश्चात्‌ ही गुरु और शिष्य प्रसन्न मन से अध्ययन अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर सकते हैं ।
 
  
 
== गुरुशिष्य दोनों की रक्षा हो ==
 
== गुरुशिष्य दोनों की रक्षा हो ==
अध्ययन अध्यापन सरलता से हो सके इसके लिए आवश्यक है कि गुरु और शिष्य दोनों सुखी होने चाहिए, सुखपूर्वक रहने चाहिए । दो में से किसी एक की भी अकाल मृत्यु नहीं होनी चाहिए । दुर्दैव से कोई संकट आ भी जाय तो उससे इनकी रक्षा होनी चाहिए । स्वयं की रक्षा करना, सदैव मनुष्य के अपने हाथ में नहीं होता । इस दृष्टि से देखने पर ध्यान में आता है कि मनुष्य तो अत्यन्त दुर्बल प्राणी है । ऐसी स्थिति में वह कर्ता अकर्ता ईश्वर ही उसकी रक्षा कर सकता है । इसलिए गुरु एवं शिष्य की रक्षा ईश्वर ही करे ऐसी अपेक्षा मंत्र के दूसरे वाक्य में व्यक्त की गई है । स्वाभाविक है कि अकेले गुरु की रक्षा अथवा अकेले शिष्य की रक्षा अपेक्षित नहीं है। क्योंकि अध्ययन अध्यापन की परम्परा अखण्डित रखनी है तो दोनों की रक्षा आवश्यक है । दोनों में से एक भी गया तो परम्परा खण्डित हो जायेगी । ऐसा तो नहीं होना चाहिए । इसलिए दोनों की रक्षा हो ऐसी ईश्वर की भूमिका है । ईश्वर की छत्रछाया में ही गुरु और शिष्य निश्चिंततापूर्वक पूर्वक ज्ञान का आदान प्रदान कर सकते हैं । मान लें कि ईश्वर गुरु और शिष्य दोनों में से किसी एक की ही रक्षा करता है तो वह पक्षपात है, भेदभाव है यह आक्षेप ईश्वर पर लगता है । ऐसा न हो इसलिए दोनों की रक्षा करना ऐसी ईश्वर की भूमिका है । दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें विद्या सहज में मिलने वाली वस्तु नहीं है । यह बिना प्रयत्न के यूँ ही हस्तगत या कंठगत नहीं होती । पैसा या सम्पत्ति की तरह यह विरासत में भी नहीं मिलती । जैसे किसी पात्र में पानी भर दिया जाता है वैसे ही शिष्य के मस्तिष्क में विद्या भरी नहीं जा सकती । शिष्य अथवा जिज्ञासु को इसे ग्रहण करके धारण करना पड़ता है । इसे प्राप्त करने के लिए शिष्य को मनसा, वाचा, कर्मणा परिश्रम करना पड़ता है । यह मान लें कि शिष्य सभी प्रकार का प्रयत्न करने हेतु तत्पर है परन्तु उसका गुरु आलसी है, वह सिखाने में मन चुराता है तो शिष्य अच्छी तरह सीख नहीं सकता । विद्या की प्राप्ति तो गुरु और शिष्य दोनों के प्रयत्नों से होती है । मात्र शिष्य के प्रयत्न से नहीं चलता । विद्यादान करने वाले गुरु को भी आवश्यक परिश्रम तो करना ही पड़ता है । उदाहरण के लिए शिष्य को पाठ सिखाना, उसे वह समझमें आया अथवा नहीं यह जानने के लिए प्रश्न पूछना, समझमें नहीं आया तो पुनः सिखाना, शिष्य की शंकाओं का निराकरण करना। उसे वह पाठ पूरी तरह समझ में आ जाय इसके लिए अध्यापननिष्ठ गुरु को जो जो करना चाहिए वह सब करना । इन सब बातों का सार यह है कि गुरु और शिष्य जब साथ में मिलकर प्रयत्न करते हैं तभी विद्यादान और विद्याप्राप्ति हो सकती है अन्यथा नहीं, इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही “हम दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें' यह तीसरे वाक्य में कहा गया है ।
+
अध्ययन अध्यापन सरलता से हो सके इसके लिए आवश्यक है कि गुरु और शिष्य दोनों सुखी होने चाहिए, सुखपूर्वक रहने चाहिए । दो में से किसी एक की भी अकाल मृत्यु नहीं होनी चाहिए । दुर्दैव से कोई संकट आ भी जाय तो उससे इनकी रक्षा होनी चाहिए । स्वयं की रक्षा करना, सदैव मनुष्य के अपने हाथ में नहीं होता । इस दृष्टि से देखने पर ध्यान में आता है कि मनुष्य तो अत्यन्त दुर्बल प्राणी है । ऐसी स्थिति में वह कर्ता अकर्ता ईश्वर ही उसकी रक्षा कर सकता है । अतः गुरु एवं शिष्य की रक्षा ईश्वर ही करे ऐसी अपेक्षा मंत्र के दूसरे वाक्य में व्यक्त की गई है । स्वाभाविक है कि अकेले गुरु की रक्षा अथवा अकेले शिष्य की रक्षा अपेक्षित नहीं है। क्योंकि अध्ययन अध्यापन की परम्परा अखण्डित रखनी है तो दोनों की रक्षा आवश्यक है । दोनों में से एक भी गया तो परम्परा खण्डित हो जायेगी । ऐसा तो नहीं होना चाहिए । अतः दोनों की रक्षा हो ऐसी ईश्वर की भूमिका है । ईश्वर की छत्रछाया में ही गुरु और शिष्य निश्चिंततापूर्वक पूर्वक ज्ञान का आदान प्रदान कर सकते हैं । मान लें कि ईश्वर गुरु और शिष्य दोनों में से किसी एक की ही रक्षा करता है तो वह पक्षपात है, भेदभाव है यह आक्षेप ईश्वर पर लगता है । ऐसा न हो अतः दोनों की रक्षा करना ऐसी ईश्वर की भूमिका है । दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें विद्या सहज में मिलने वाली वस्तु नहीं है । यह बिना प्रयत्न के यूँ ही हस्तगत या कंठगत नहीं होती । पैसा या सम्पत्ति की तरह यह विरासत में भी नहीं मिलती । जैसे किसी पात्र में पानी भर दिया जाता है वैसे ही शिष्य के मस्तिष्क में विद्या भरी नहीं जा सकती । शिष्य अथवा जिज्ञासु को इसे ग्रहण करके धारण करना पड़ता है । इसे प्राप्त करने के लिए शिष्य को मनसा, वाचा, कर्मणा परिश्रम करना पड़ता है । यह मान लें कि शिष्य सभी प्रकार का प्रयत्न करने हेतु तत्पर है परन्तु उसका गुरु आलसी है, वह सिखाने में मन चुराता है तो शिष्य अच्छी तरह सीख नहीं सकता । विद्या की प्राप्ति तो गुरु और शिष्य दोनों के प्रयत्नों से होती है । मात्र शिष्य के प्रयत्न से नहीं चलता । विद्यादान करने वाले गुरु को भी आवश्यक परिश्रम तो करना ही पड़ता है । उदाहरण के लिए शिष्य को पाठ सिखाना, उसे वह समझमें आया अथवा नहीं यह जानने के लिए प्रश्न पूछना, समझमें नहीं आया तो पुनः सिखाना, शिष्य की शंकाओं का निराकरण करना। उसे वह पाठ पूरी तरह समझ में आ जाय इसके लिए अध्यापननिष्ठ गुरु को जो जो करना चाहिए वह सब करना । इन सब बातों का सार यह है कि गुरु और शिष्य जब साथ में मिलकर प्रयत्न करते हैं तभी विद्यादान और विद्याप्राप्ति हो सकती है अन्यथा नहीं, इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही “हम दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें' यह तीसरे वाक्य में कहा गया है ।
  
 
== दोनों का अध्ययन तेजस्वी बने ==
 
== दोनों का अध्ययन तेजस्वी बने ==
प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की हुई विद्या शिष्य के लिए 'तेजस्वी' होनी चाहिए । तेजस्वी शब्द से अनेक बातें ध्यान में आती हैं । शिष्य के मन की शंकाओं के जाले पूर्णतया साफ होकर, मलिनता दूर किये हुए शुद्ध स्वर्ण की भाँति शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । सीखे हुए विषय पर प्रभुत्व प्राप्त होने से शिष्य उस विषय का अधिकारी माना जाना चाहिए । जिस विषय की विद्या, जैसे शस्त्रविद्या, वास्तुविद्या आदि जो भी उसने प्राप्त की है उसका व्यवहार में प्रयोग करना आना चाहिए। अर्थात्‌ शिष्य मात्र पाठक ही बने यह अपेक्षित नहीं है । विद्या जब उसके व्यवहार में उतरेगी तभी उसका अध्ययन 'तेजस्वी' बनकर प्रकाश फैला रहा है ऐसा कहा जायेगा । इस तरह शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । इस सम्बन्ध में एक शंका उत्पन्न होती है कि गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए ऐसा क्यों कहा है ? इसका उत्तर यह है कि गुरु भले ही शिक्षा देने वाला है फिर भी उसका अध्ययन तो आजन्म चलता ही रहता है । गुरु जो विषय सिखाता है उसमें निरन्तर वृद्धि होनी चाहिए, जो भी नया साहित्य प्रकाशित हुआ है उन सबका ज्ञान गुरु को होना चाहिए । उसी प्रकार पढ़ाते समय भी उसका ज्ञान मर्मग्राही और गंभीर होना चाहिए । इस बात को ध्यान में रखकर विचार करते हैं तो गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए यह कथन सर्वथा उचित प्रतीत होता है । इसलिए शांतिमंत्र के चौथे वाक्य में हम दोनों का अध्ययन तेजस्वी बने' ऐसी प्रार्थना की गई है ।
+
प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की हुई विद्या शिष्य के लिए 'तेजस्वी' होनी चाहिए । तेजस्वी शब्द से अनेक बातें ध्यान में आती हैं । शिष्य के मन की शंकाओं के जाले पूर्णतया साफ होकर, मलिनता दूर किये हुए शुद्ध स्वर्ण की भाँति शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । सीखे हुए विषय पर प्रभुत्व प्राप्त होने से शिष्य उस विषय का अधिकारी माना जाना चाहिए । जिस विषय की विद्या, जैसे शस्त्रविद्या, वास्तुविद्या आदि जो भी उसने प्राप्त की है उसका व्यवहार में प्रयोग करना आना चाहिए। अर्थात्‌ शिष्य मात्र पाठक ही बने यह अपेक्षित नहीं है । विद्या जब उसके व्यवहार में उतरेगी तभी उसका अध्ययन 'तेजस्वी' बनकर प्रकाश फैला रहा है ऐसा कहा जायेगा । इस तरह शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । इस सम्बन्ध में एक शंका उत्पन्न होती है कि गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए ऐसा क्यों कहा है ? इसका उत्तर यह है कि गुरु भले ही शिक्षा देने वाला है तथापि उसका अध्ययन तो आजन्म चलता ही रहता है । गुरु जो विषय सिखाता है उसमें निरन्तर वृद्धि होनी चाहिए, जो भी नया साहित्य प्रकाशित हुआ है उन सबका ज्ञान गुरु को होना चाहिए । उसी प्रकार पढ़ाते समय भी उसका ज्ञान मर्मग्राही और गंभीर होना चाहिए । इस बात को ध्यान में रखकर विचार करते हैं तो गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए यह कथन सर्वथा उचित प्रतीत होता है । अतः शांतिमंत्र के चौथे वाक्य में हम दोनों का अध्ययन तेजस्वी बने' ऐसी प्रार्थना की गई है ।
  
 
== दोनों परस्पर द्वेष न करें ==
 
== दोनों परस्पर द्वेष न करें ==
Line 70: Line 31:
 
# इसी प्रकार बहुत होशियार विद्यार्थी गुरु को स्वयं से कम आँकता है तब भी ऐसी स्थिति निर्माण होती है।
 
# इसी प्रकार बहुत होशियार विद्यार्थी गुरु को स्वयं से कम आँकता है तब भी ऐसी स्थिति निर्माण होती है।
 
# अगर शिष्य सहपाठियों में अधिक प्रिय होता है तब भी गुरु उसे पसन्द नहीं करते ।
 
# अगर शिष्य सहपाठियों में अधिक प्रिय होता है तब भी गुरु उसे पसन्द नहीं करते ।
# शिष्य की योग्यता अधिक न हो इसलिए गुरु उसे विशेष बातें न सिखाते हों तब भी शिष्य के मन में भ्रान्ति खड़ी हो जाती है और वह गुरु से नाराज हो जाता है  
+
# शिष्य की योग्यता अधिक न हो अतः गुरु उसे विशेष बातें न सिखाते हों तब भी शिष्य के मन में भ्रान्ति खड़ी हो जाती है और वह गुरु से नाराज हो जाता है  
 
# गुरु कोई विषय पढ़ाता है परन्तु शिष्य उसे अच्छी तरह समझ नहीं पाता है उस समय गुरु उसे बुद्धू, ठोट या मूर्ख आदि कहकर उसका अपमान करता है तब भी शिष्य के मनमें गुरु के प्रति रोष उत्पन्न होता है।
 
# गुरु कोई विषय पढ़ाता है परन्तु शिष्य उसे अच्छी तरह समझ नहीं पाता है उस समय गुरु उसे बुद्धू, ठोट या मूर्ख आदि कहकर उसका अपमान करता है तब भी शिष्य के मनमें गुरु के प्रति रोष उत्पन्न होता है।
# कोई कोई गुरु अन्य लोगों की उपस्थिति में ही शिष्य की मजाक उडाने की आदत वाले होते हैं । यह मजाक शिष्य को चुभने वाली होने से उनमें अनबन हो जाती है ।  
+
# कोई कोई गुरु अन्य लोगोंं की उपस्थिति में ही शिष्य की मजाक उडाने की आदत वाले होते हैं । यह मजाक शिष्य को चुभने वाली होने से उनमें अनबन हो जाती है ।  
# गुरु शिष्य को कोई काम करने के लिए कहते हैं । परन्तु शिष्य को वह काम नहीं आता है इसलिए भी गुरु शिष्य पर नाराज हो जाते हैं ।
+
# गुरु शिष्य को कोई काम करने के लिए कहते हैं । परन्तु शिष्य को वह काम नहीं आता है अतः भी गुरु शिष्य पर नाराज हो जाते हैं ।
 
# माता के समान गुरु का भी अपने सभी शिष्यों पर एक जैसा प्रेम होना चाहिए । परन्तु कभी कभी गुरु धनवान, प्रतिष्ठित, शूरवीर अथवा होशियार शिष्य को अधिक प्रेम करते हैं । ऐसी स्थिति में गुरु को पक्षपाती समझकर अन्य छात्र गुरु का अनादर करते हैं अथवा उनके मन में गुरु के प्रति कडवाहट पैदा हो जाती है।
 
# माता के समान गुरु का भी अपने सभी शिष्यों पर एक जैसा प्रेम होना चाहिए । परन्तु कभी कभी गुरु धनवान, प्रतिष्ठित, शूरवीर अथवा होशियार शिष्य को अधिक प्रेम करते हैं । ऐसी स्थिति में गुरु को पक्षपाती समझकर अन्य छात्र गुरु का अनादर करते हैं अथवा उनके मन में गुरु के प्रति कडवाहट पैदा हो जाती है।
 
# कोई विद्यार्थी ठोट होता है तब गुरु उसे डाँटते हैं । उसे यह अच्छा नहीं लगता और वह गुरु से नाराज हो जाता है ।
 
# कोई विद्यार्थी ठोट होता है तब गुरु उसे डाँटते हैं । उसे यह अच्छा नहीं लगता और वह गुरु से नाराज हो जाता है ।
Line 80: Line 41:
 
# जब शिष्य की सीखने की इच्छा हो परन्तु गुरु उसे नहीं सिखाये तब भी शिष्य गुरु पर नाराज होता है ।
 
# जब शिष्य की सीखने की इच्छा हो परन्तु गुरु उसे नहीं सिखाये तब भी शिष्य गुरु पर नाराज होता है ।
 
# गुरुशिष्य जब एक दूसरे के दोष ही ढूँढते रहते हैं तब भी उनके मध्य द्वेष पैदा होता है ।
 
# गुरुशिष्य जब एक दूसरे के दोष ही ढूँढते रहते हैं तब भी उनके मध्य द्वेष पैदा होता है ।
ये अथवा अन्य ऐसे ही कारणों से गुरु शिष्य के मध्य संघर्ष निर्माण हो सकता है । अगर संघर्ष निर्माण होता है और द्वेष पनपता है तो अध्ययन अध्यापन हो ही नहीं सकता । इसलिए परस्पर द्वेष उत्पन्न न हो यह अपेक्षा मंत्र के अन्तिम वाक्य में व्यक्त की गई है ।
+
ये अथवा अन्य ऐसे ही कारणों से गुरु शिष्य के मध्य संघर्ष निर्माण हो सकता है । अगर संघर्ष निर्माण होता है और द्वेष पनपता है तो अध्ययन अध्यापन हो ही नहीं सकता । अतः परस्पर द्वेष उत्पन्न न हो यह अपेक्षा मंत्र के अन्तिम वाक्य में व्यक्त की गई है ।
  
अब हम देखेंगे कि इस मंत्र में थोड़ा सा परिवर्तन कर इसे एक सामाजिक प्रार्थना कैसे बनाई जा सकती है । क्योंकि आज हमारा भारतीय समाज अज्ञानी, परस्पर द्वेषी, परस्पर असहयोगी, इत्यादि अवगुणों से भरा हुआ है । हमारा समाज ऐसा न रहे इसलिए यह प्रार्थथा आचरण में लाने की आवश्यकता है । अतः यह हमारा सामाजिक मंत्र हो सकता है :
+
अब हम देखेंगे कि इस मंत्र में थोड़ा सा परिवर्तन कर इसे एक सामाजिक प्रार्थना कैसे बनाई जा सकती है । क्योंकि आज हमारा भारतीय समाज अज्ञानी, परस्पर द्वेषी, परस्पर असहयोगी, इत्यादि अवगुणों से भरा हुआ है । हमारा समाज ऐसा न रहे अतः यह प्रार्थथा आचरण में लाने की आवश्यकता है । अतः यह हमारा सामाजिक मंत्र हो सकता है :
  
 
ॐ सहनोह्मवतु । सह नो भुनक्तु । सह वीर्यं करवामहे ।
 
ॐ सहनोह्मवतु । सह नो भुनक्तु । सह वीर्यं करवामहे ।

Latest revision as of 21:54, 23 June 2021

मनोविज्ञान का मूल वेद है

आज की शिक्षा का दुर्दैव से कोई प्रमुख पक्ष है तो वह आधारभूत संकल्पनाओं का पाश्चात्य होना है[1]। शिक्षा के सिद्धान्तों में से एक है, मनोविज्ञान । आज हम पाश्चात्य विचारों में मनोविज्ञान का मूल खोजते हैं । उसे ही पढ़ाते भी हैं, परन्तु वास्तव में इसका मूल तो वेदों और उपनिषदों में है।

उपर्युक्त शीर्षक 'मा विद्विषावहै' कठोपनिषद के शान्ति पाठ अथवा शान्तिमंत्र का एक वाक्य है।

वैसे तो उपनिषदों में कुल छः शान्ति पाठ है । प्रत्येक शान्तिपाठ का अपना अपना महत्त्व है, परन्तु हम यहाँ ॐ सहनाववतु शान्तिपाठ पर ही विचार करेंगे । क्योंकि यह सीधा सीधा भारतीय शिक्षा प्रक्रिया से जुड़ा हुआ मंत्र है । इस शान्तिमंत्र में गुरु एवं शिष्य दोनों मिलकर प्रार्थना करते हैं ।

हमारे यहाँ समाजजीवन में जिस प्रकार प्रत्येक मांगलिक कार्य के प्रारम्भ और अन्त में इष्ट देवता को नमस्कार एवं प्रार्थना करके प्रारंभ में मंगलाचरण होता है, ठीक उसी प्रकार जिन गुरुकुलों में उपनिषदों का अध्ययनअध्यापन होता था, वहाँ अध्ययन के प्रारम्भ व अन्त में यह शांति पाठ किया जाता था । अध्ययन पूर्व शान्तिपाठ करने के दो उद्देश्य हो सकते हैं । पहला यह कि इस पाठ के करने से गुरु शिष्य के मन शान्त हों, एकाग्र हों एवं ईश कृपा से अध्ययन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो। दूसरा यह कि गुरु शिष्य के त्रिविधताप की शान्ति हो । सबको यह जानकारी हो जाय अतः शान्तिपाठ के अन्त में 'ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः' ऐसे तीन बार शान्तिः शब्द का उच्चारण किया जाता है।

ॐ सहनाववतु इस शान्तिमंत्र का विशेष महत्त्व अतः भी है कि यह गुरु और शिष्य की जोड़ी से सम्बन्धित है। यह मंत्र गुरु शिष्य की जोड़ी एक साथ मिलकर बोलती है । गुरु और शिष्य का सम्बन्ध कैसा होना चाहिए यह इस मंत्र के अन्तिम चरण ‘मा विद्विषावहै' में बताया गया है जो हम सबके लिए अत्यन्त विचारणीय है।

इस मंत्र की एक और विशेषता यह है कि कुछ शब्दों में तनिक परिवर्तन कर देने से यह मंत्र समूह अथवा समाज के कल्याण हेतु उपयोगी एक सामूहिक एवं सामाजिक प्रार्थना बन सकती है।

ऐसे वैशिष्टयपूर्ण शान्तिमंत्र - 'ॐ सहनाववतु' का विस्तारपूर्वक विचार हम यहाँ कर रहे हैं।

यह पूर्णमंत्र इस प्रकार है[2]:

'ॐ सहनाववतु ॥१॥

सहनौ भुनक्तु ॥२॥

सह वीर्यं करवावहै ॥३॥

तेजस्विना वधीतमस्तु ।।४ ॥

मा विद्विषावहै ॥५॥

मंत्र का शब्दशः अर्थ यह है - ॐ रूपी ब्रह्म या ईश्वर हम दोनों (गुरु और शिष्य) पर एक साथ कृपा करे, हमारा रक्षण अथवा पालन करे, हम दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें, हमारा अध्ययन तेजस्वी बनें, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें । अब, इस मंत्र का विस्तार से विचार करते हैं । ॐ यह अक्षर ब्रह्म का परिचायक है । ॐ एकाक्षर ब्रह्म है । ब्रह्म ही परमोच्च ईश्वर है यह कहना सर्वथा उचित है । ब्रह्म अथवा ईश्वर ही जगत‌ का अन्तिम एवं श्रेष्ठ तत्त्व है । उसने ही इस विश्व का सृजन किया है । ईश्वर ही इस जगत‌ का सृजक, पालक एवं संहारक है । हम सब यह कहते ही हैं कि “यह सब ईश्वर की लीला है।' सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है । मनुष्य की इच्छानुसार सब कुछ होता है ऐसा नहीं है । ईश्वर के मन में जो होता है वही बनता है । ईश्वर की इच्छा अनुकूल होने पर ही मनुष्य का भला होता है । अतः सर्वसमर्थ ईश्वर की कृपा हम दोनों को प्राप्त हो ऐसी अपेक्षा गुरु एवं शिष्य प्रथम वाक्य में व्यक्त करते हैं । ईश्वर की कृपा गुरु और शिष्य दोनों पर होनी आवश्यक है । अकेले गुरु अथवा अकेले शिष्य पर होगी तो नहीं चलेगा । ईश्वर की कृपा होने के पश्चात्‌ ही गुरु और शिष्य प्रसन्न मन से अध्ययन अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर सकते हैं ।

गुरुशिष्य दोनों की रक्षा हो

अध्ययन अध्यापन सरलता से हो सके इसके लिए आवश्यक है कि गुरु और शिष्य दोनों सुखी होने चाहिए, सुखपूर्वक रहने चाहिए । दो में से किसी एक की भी अकाल मृत्यु नहीं होनी चाहिए । दुर्दैव से कोई संकट आ भी जाय तो उससे इनकी रक्षा होनी चाहिए । स्वयं की रक्षा करना, सदैव मनुष्य के अपने हाथ में नहीं होता । इस दृष्टि से देखने पर ध्यान में आता है कि मनुष्य तो अत्यन्त दुर्बल प्राणी है । ऐसी स्थिति में वह कर्ता अकर्ता ईश्वर ही उसकी रक्षा कर सकता है । अतः गुरु एवं शिष्य की रक्षा ईश्वर ही करे ऐसी अपेक्षा मंत्र के दूसरे वाक्य में व्यक्त की गई है । स्वाभाविक है कि अकेले गुरु की रक्षा अथवा अकेले शिष्य की रक्षा अपेक्षित नहीं है। क्योंकि अध्ययन अध्यापन की परम्परा अखण्डित रखनी है तो दोनों की रक्षा आवश्यक है । दोनों में से एक भी गया तो परम्परा खण्डित हो जायेगी । ऐसा तो नहीं होना चाहिए । अतः दोनों की रक्षा हो ऐसी ईश्वर की भूमिका है । ईश्वर की छत्रछाया में ही गुरु और शिष्य निश्चिंततापूर्वक पूर्वक ज्ञान का आदान प्रदान कर सकते हैं । मान लें कि ईश्वर गुरु और शिष्य दोनों में से किसी एक की ही रक्षा करता है तो वह पक्षपात है, भेदभाव है यह आक्षेप ईश्वर पर लगता है । ऐसा न हो अतः दोनों की रक्षा करना ऐसी ईश्वर की भूमिका है । दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें विद्या सहज में मिलने वाली वस्तु नहीं है । यह बिना प्रयत्न के यूँ ही हस्तगत या कंठगत नहीं होती । पैसा या सम्पत्ति की तरह यह विरासत में भी नहीं मिलती । जैसे किसी पात्र में पानी भर दिया जाता है वैसे ही शिष्य के मस्तिष्क में विद्या भरी नहीं जा सकती । शिष्य अथवा जिज्ञासु को इसे ग्रहण करके धारण करना पड़ता है । इसे प्राप्त करने के लिए शिष्य को मनसा, वाचा, कर्मणा परिश्रम करना पड़ता है । यह मान लें कि शिष्य सभी प्रकार का प्रयत्न करने हेतु तत्पर है परन्तु उसका गुरु आलसी है, वह सिखाने में मन चुराता है तो शिष्य अच्छी तरह सीख नहीं सकता । विद्या की प्राप्ति तो गुरु और शिष्य दोनों के प्रयत्नों से होती है । मात्र शिष्य के प्रयत्न से नहीं चलता । विद्यादान करने वाले गुरु को भी आवश्यक परिश्रम तो करना ही पड़ता है । उदाहरण के लिए शिष्य को पाठ सिखाना, उसे वह समझमें आया अथवा नहीं यह जानने के लिए प्रश्न पूछना, समझमें नहीं आया तो पुनः सिखाना, शिष्य की शंकाओं का निराकरण करना। उसे वह पाठ पूरी तरह समझ में आ जाय इसके लिए अध्यापननिष्ठ गुरु को जो जो करना चाहिए वह सब करना । इन सब बातों का सार यह है कि गुरु और शिष्य जब साथ में मिलकर प्रयत्न करते हैं तभी विद्यादान और विद्याप्राप्ति हो सकती है अन्यथा नहीं, इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही “हम दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें' यह तीसरे वाक्य में कहा गया है ।

दोनों का अध्ययन तेजस्वी बने

प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की हुई विद्या शिष्य के लिए 'तेजस्वी' होनी चाहिए । तेजस्वी शब्द से अनेक बातें ध्यान में आती हैं । शिष्य के मन की शंकाओं के जाले पूर्णतया साफ होकर, मलिनता दूर किये हुए शुद्ध स्वर्ण की भाँति शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । सीखे हुए विषय पर प्रभुत्व प्राप्त होने से शिष्य उस विषय का अधिकारी माना जाना चाहिए । जिस विषय की विद्या, जैसे शस्त्रविद्या, वास्तुविद्या आदि जो भी उसने प्राप्त की है उसका व्यवहार में प्रयोग करना आना चाहिए। अर्थात्‌ शिष्य मात्र पाठक ही बने यह अपेक्षित नहीं है । विद्या जब उसके व्यवहार में उतरेगी तभी उसका अध्ययन 'तेजस्वी' बनकर प्रकाश फैला रहा है ऐसा कहा जायेगा । इस तरह शिष्य का अध्ययन तेजस्वी बनना चाहिए । इस सम्बन्ध में एक शंका उत्पन्न होती है कि गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए ऐसा क्यों कहा है ? इसका उत्तर यह है कि गुरु भले ही शिक्षा देने वाला है तथापि उसका अध्ययन तो आजन्म चलता ही रहता है । गुरु जो विषय सिखाता है उसमें निरन्तर वृद्धि होनी चाहिए, जो भी नया साहित्य प्रकाशित हुआ है उन सबका ज्ञान गुरु को होना चाहिए । उसी प्रकार पढ़ाते समय भी उसका ज्ञान मर्मग्राही और गंभीर होना चाहिए । इस बात को ध्यान में रखकर विचार करते हैं तो गुरु का अध्ययन भी तेजस्वी बनना चाहिए यह कथन सर्वथा उचित प्रतीत होता है । अतः शांतिमंत्र के चौथे वाक्य में हम दोनों का अध्ययन तेजस्वी बने' ऐसी प्रार्थना की गई है ।

दोनों परस्पर द्वेष न करें

'मा विद्विषावहै' हम दोनों परस्पर द्वेष न करें ऐसी अपेक्षा अन्तिम पाँचवें वाक्य में व्यक्त की गई है। इसे पढ़कर हमें निश्चय ही आश्चर्य हुआ होगा। गुरु शिष्य में भी परस्पर द्वेष होना कभी सम्भव है? सामान्य मान्यता तो यही है कि गुरु और शिष्य का परस्पर सम्बन्ध तो प्रेम, आत्मीयता एवं मित्रता का होता है । इसमें द्वेष कहाँ से आ गया? परन्तु अनेक बार गुरु शिष्य के सम्बन्ध सरल, समझदारीपूर्ण होने के बदले बिगड़ जाते हैं। उनके मध्य अनबन हो जाती है, शत्रुता आ जाती है। ऐसा क्यों हो जाता है यह समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ऐसा कहा जा सकता है कि गुरु शिष्य के मध्य अनबन होने के लिये विशिष्ट कारण, परिस्थिति अथवा घटना विशेष उत्तरदायी होते हैं।

गुरु शिष्य के मध्य द्वेष के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:

  1. अगर शिष्य अधिक बुद्धिमान अथवा होशियार है तो वह अपने लिए भारी पड़ सकता है ऐसा विचार कर गुरु उसे नीचे गिराने का प्रयत्न करता है |
  2. इसी प्रकार बहुत होशियार विद्यार्थी गुरु को स्वयं से कम आँकता है तब भी ऐसी स्थिति निर्माण होती है।
  3. अगर शिष्य सहपाठियों में अधिक प्रिय होता है तब भी गुरु उसे पसन्द नहीं करते ।
  4. शिष्य की योग्यता अधिक न हो अतः गुरु उसे विशेष बातें न सिखाते हों तब भी शिष्य के मन में भ्रान्ति खड़ी हो जाती है और वह गुरु से नाराज हो जाता है
  5. गुरु कोई विषय पढ़ाता है परन्तु शिष्य उसे अच्छी तरह समझ नहीं पाता है उस समय गुरु उसे बुद्धू, ठोट या मूर्ख आदि कहकर उसका अपमान करता है तब भी शिष्य के मनमें गुरु के प्रति रोष उत्पन्न होता है।
  6. कोई कोई गुरु अन्य लोगोंं की उपस्थिति में ही शिष्य की मजाक उडाने की आदत वाले होते हैं । यह मजाक शिष्य को चुभने वाली होने से उनमें अनबन हो जाती है ।
  7. गुरु शिष्य को कोई काम करने के लिए कहते हैं । परन्तु शिष्य को वह काम नहीं आता है अतः भी गुरु शिष्य पर नाराज हो जाते हैं ।
  8. माता के समान गुरु का भी अपने सभी शिष्यों पर एक जैसा प्रेम होना चाहिए । परन्तु कभी कभी गुरु धनवान, प्रतिष्ठित, शूरवीर अथवा होशियार शिष्य को अधिक प्रेम करते हैं । ऐसी स्थिति में गुरु को पक्षपाती समझकर अन्य छात्र गुरु का अनादर करते हैं अथवा उनके मन में गुरु के प्रति कडवाहट पैदा हो जाती है।
  9. कोई विद्यार्थी ठोट होता है तब गुरु उसे डाँटते हैं । उसे यह अच्छा नहीं लगता और वह गुरु से नाराज हो जाता है ।
  10. कोई विद्यार्थी पढ़ने में लापरवाही करता है तब गुरु उसे डांटते है जो उसे अच्छा नहीं लगता और वह गुरु की अवहेलना करता है ।
  11. गुरु प्रकृति से ही दुर्वासा की भाँति क्रोधी स्वभाव के हों तब भी शिष्य उनसे नाराज रहते हैं ।
  12. जब शिष्य की सीखने की इच्छा हो परन्तु गुरु उसे नहीं सिखाये तब भी शिष्य गुरु पर नाराज होता है ।
  13. गुरुशिष्य जब एक दूसरे के दोष ही ढूँढते रहते हैं तब भी उनके मध्य द्वेष पैदा होता है ।

ये अथवा अन्य ऐसे ही कारणों से गुरु शिष्य के मध्य संघर्ष निर्माण हो सकता है । अगर संघर्ष निर्माण होता है और द्वेष पनपता है तो अध्ययन अध्यापन हो ही नहीं सकता । अतः परस्पर द्वेष उत्पन्न न हो यह अपेक्षा मंत्र के अन्तिम वाक्य में व्यक्त की गई है ।

अब हम देखेंगे कि इस मंत्र में थोड़ा सा परिवर्तन कर इसे एक सामाजिक प्रार्थना कैसे बनाई जा सकती है । क्योंकि आज हमारा भारतीय समाज अज्ञानी, परस्पर द्वेषी, परस्पर असहयोगी, इत्यादि अवगुणों से भरा हुआ है । हमारा समाज ऐसा न रहे अतः यह प्रार्थथा आचरण में लाने की आवश्यकता है । अतः यह हमारा सामाजिक मंत्र हो सकता है :

ॐ सहनोह्मवतु । सह नो भुनक्तु । सह वीर्यं करवामहे ।

तेजस्वि नो ह्मधीतमस्तु । मा विद्विषामहे |

इस मंत्र में थोड़ा सा बदल करने से इसका अर्थ भी बदल जाता है, जो यह है ।

ब्रह्म अथवा ईश्वर हम सब पर एक साथ कृपा करे, हम सबका एक साथ रक्षण अथवा पालन करे, हम सब एक साथ मिलकर प्रयत्न करें, हम सबका अध्ययन तेजस्वी बने और हम सब परस्पर द्वेष न करें। इस प्रकार की प्रार्थना जो सामाजिक / सामूहिक प्रार्थना है ये यथार्थ में वास्तविक बनती है तो सर्वसमाज के लिए व राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. Krishna Yajurveda Taittiriya Upanishad (2.2.2)