महामना मदनमोहनमालवीयः - महापुरुषकीर्तन श्रंखला

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भारतभूषण मदनमोहनमालवीयः[1] (1861-1946 ई.)

सुशीलः सुवाग्मी विपश्चिन्मनस्वी, स्वदेशस्य सेवारतोऽसौ यशस्वी।

सुशिक्षाप्रसारे सदा दत्तचित्तो, मनोमोहनो मालवीयः प्रशस्तः॥

सुशील, उत्तम प्रभावशाली वक्ता, विद्वान्‌, विचारशील, स्वदेश सेवा में तत्पर, कीर्तिशाली, अच्छी शिक्षा के प्रसार में सदा दत्तचित्त पं. मदनमोहन जी मालवीय प्रशंसनीय हैं।

शुभं विश्वविद्यालयं यो हि काश्यां, मुदा स्थापयामास यत्नेन धीरः।

विरोधं सदाऽन्यायचक्रस्य चक्रे, मनोमोहनो मालवीयः प्रशस्यः॥

जिस धीर ने बड़े यत्न से प्रसन्नता पूर्वक काशी में शुभ हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना को, जिन्होंने अन्याय चक्र का सदा विरोध किया, ऐसे पं. मदनमोहन जी मालवीय प्रशंसनीय हैं।

त्रिवारं हि निर्वाचितो यः प्रधानः, समेषां स्वराष्ट्रस्थितानां सभायाः।

यदीया गिरो मोहयन्ति स्म सर्वान्‌, मनोमोहनो मालवीयः स वन्द्यः॥

जो तीन वार राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) के प्रधान चुने गये, जिन की वाणी सब को मोहित कर देती थी, ऐसे पं. मदनमोहन जी मालवीय प्रशंसनीय हैं।

भवेद्‌ राष्ट्रभाषा-पदस्था तु हिन्दी, समे मानवाः प्रेमबद्धा भवेयुः।

इदं लक्ष्यमुद्दिश्य कुर्वन्‌ प्रयत्नं, मनोमोहनो मालवीयः प्रशस्यः॥

हिन्दी राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन्‌ हो (राष्ट्रभाषा रूप में स्वीकृत की जाये), सब मनुष्य परस्पर प्रेम बद्ध हों इस उद्देश्य से प्रयत्न करते हुये पं. मदनमोहन जी मालवीय प्रशंसनीय हैं।

भृशं रूढिवादी पुराणादिभक्तः, मुदाऽस्पृश्यतोन्मूलने किन्तु सक्तः।

स्वजातेः स्वदेशस्य चिन्तानिमग्नो, मनोमोहनो मालवीय नमस्यः॥

पुराणादि भक्त और बहुत रूढिवादी होते हुए भी जो प्रसन्नता से अस्पृश्यता के निवारण में तत्पर थे, जिनको अपनी आर्य-जाति और देश की चिन्ता सदा रहती थी, ऐसे पं. मदनमोहन जी मालवीय प्रशंसनीय है।

न वेषं स्वकीयं जहौ यः कदाचित्‌,न वा संस्कृतिं धार्मिकां कदाचित्‌।

सुशिक्षादिकार्यार्थभिक्षाप्रवीणो, मनोमोहनो मालवीयो नमस्यः॥

जिन्होंने अपने स्वदेशी वेष और अपनी धार्मिक संस्कृति का भी कभी परित्याग नहीं किया, जो उत्तम शिक्षा-प्रसारादि कमों के लिये भिक्षा मांगने में अत्यन्त निपुण थे, ऐसे पं. मदनमोहन जी मालवीय नमस्कार करने योग्य हैं।

यस्मिन्न मोहो न मदो न लोभः, कामादिदुष्टैर्व्यसनैर्विहीनः।

माधुर्यमूर्ति तमजातशत्रुं, श्रीमालवीयं विनयेन नौमि॥

जिनमें न मद था, न मोह था, न लोभ था, जो कामादि दुष्ट व्यसनों से रहित थे। ऐसे माधुर्यमूर्ति अजात शत्रु पं. मदनमोहन जी मालवीय को मैं विनय पूर्वक नमस्कार करता हूँ।

विद्याप्रसारे सततं प्रसक्तं, देवेशभक्तं विषयेष्वसक्तम्‌।

परोपकारेऽतिशयानुरक्तं, त॑ मालवीयं विनयेन नौमि॥

विद्या प्रसार में निरन्तर तत्पर, परमेश्वर के भक्त, विषयों में अनासक्त, प. मदनमोहन जी मालवीय को विनयपूर्वक नमस्कार करता हूँ।

References

  1. महापुरुषकीर्तनम्, लेखक- विद्यावाचस्पति विद्यामार्तण्ड धर्मदेव; सम्पादक: आचार्य आनन्दप्रकाश; प्रकाशक: आर्ष-विद्या-प्रचार-न्यास, आर्ष-शोध-संस्थान, अलियाबाद, मं. शामीरेपट, जिला.- रंगारेड्डी, (आ.प्र.) -500078