महर्षि दयानन्द: - महापुरुषकीर्तन श्रंखला

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महर्षि दयानन्द:[1] (१८२४-१८८३ ई०)

निखिलनिगमवेत्ता, पापतापापनेता, रिपुनिचयविजेता, सर्वपाखण्डभेत्ता।

अतिमहिततपस्वी, सत्यवादी मनस्वी, जयति स समदर्शी, वन्दनीयो महर्षिः।।

सम्पूर्ण वेदों को जानने वाले, पाप, संताप को दूर करने वाले, विपक्षीदल पर विजय प्राप्त करने वाले, पाखण्ड का खण्डन करने वाले, अति पूजनीय तपस्वी, सत्यवादी, मनस्वी, समदर्शी वन्दनीय महर्षि दयानन्द की जय हो।

विमलचरितयुक्तः, पापमुक्तः, प्रशस्तः, सकलसुकूतकर्ता, कर्मराशावसक्तः।

दलितजनसुधारे, सर्वदा दत्तचित्तः, जयति स कमनीयो वन्दनीयो महर्षिः।।

शुद्ध चरित्र वाले, निष्पाप, प्रशंसनीय, परोपकारी, कर्मो में अनासक्त, दलितवर्ग के सुधार में दत्तचित्त सब से वन्दनीय महर्षि दयानन्द की जय हो।

प्रथितधवलकीर्तिः, शुद्धधर्मस्य मूर्तिः, प्रसृतनिगमरीतिः, शत्रुवर्गेऽप्यभीतिः।

अनुसृतशुभनीतिः, वेदशास्त्रेष्वधीती, विबुधगणवरेण्यो वन्दनीयो महर्षिः।।

सर्वत्र प्रसिद्ध, कीर्तिमान‌, शुद्ध धर्म की मूर्ति, वेद-मर्यादा-प्रसारक, शत्रुसमूह से न डरने वाले, शुभ नीति पर चलने वाले, वेदशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित, विद्वानों मे श्रेष्ठ महर्षि दयानन्द वन्दनीय हैं।

अधिकतम उदारो धर्मसम्बोधकेषु, श्रुतिविहितविचारो लोकसरक्षकेषु।

विदितनिगमसारो ब्रह्मचार्यग्रगण्यो, जयति स कमनीयो वन्दनीयो महर्षिः।।

धर्म का उपदेश करने वालों में जो सब से अधिक उदार थे, लोक संरक्षकों में जो वैदिक विचारों के प्रचारक थे, ब्रह्मचारियों में अग्रणी, वेद- सार को जानने वाले, उन वन्दनीय महर्षि दयानन्द की जय हो।

एकोऽपि सन्‌ निर्भयवीरवर्यः, समस्तपाखण्डमख्ण्डयद्‌ यः।

सत्यत्रतश्रेष्ठममुं महान्तम्‌, ऋषिं दयानन्दमहं नमामि ।।

जिन निर्भय वीरवर ने अकेले होते हुए भी समस्त पाखण्डों का खण्डन किया, उन सत्यत्रतधारियों में श्रेष्ठ महान्‌ ऋषि दयानन्द को मैं नमस्कार करता हूँ।

न यं कृतान्तोऽप्यशकद्‌ विजेतुं, यस्याग्रतो बद्धकरः स तस्थौ।

योगाग्निना दग्धसमस्तदोषम्‌, ऋषिं दयानन्दमहं नमामि।।

जिसको मृत्यु भी न जीत सकी परन्तु वह जिसके आगे हाथ बाँधे खड़ी रही, जिसने योगाग्नि से समस्त दोषों को दग्ध कर दिया था, ऐसे ऋषि दयानन्द को मैं प्रणाम करता हूँ।

विषं प्रदायाप्यपकारकर्त्रे, योऽदाद्‌ धनं तस्य हि रक्षणार्थम्‌।

प्रेम्णा स्वशत्रूनपि मोहयन्तम्‌, ऋषिं दयानन्दमहं नमामि।।

विष देने वाले अपकारी को भी जिसने उसकी रक्षार्थ धन दिया, प्रेम से अपने शत्रुओं को भी मोहित करने वाले ऐसे ऋषि दयानन्द को मैं नमस्कार करता हूँ।

यद्यङ्गुलीरप्यरयो दहेयुस्तथापि यास्यामि न तत्र चिन्ता।

इत्यादिवाक्यं समुदाहरन्तं, तं श्रीदयानन्दमहं नमामि।।

चाहे विरोधी मेरी अंगुलियों की पोरियों को भी जला दें तथापि मैं वहाँ (जोधपुर) अवश्य जाऊँगा, कहते हुए दयानन्द ऋषि को मैं नमस्कार करता हूँ।

दयाया यः सिन्धुर्निगमविहिताचारनिरतो, विलुप्तं सद्धर्म, पुनरपि समुद्धर्तुमनिशम्‌।

दिवारात्रं येते, यतिवरगुणग्रामसहितो, दयानन्दो योगी, विमलचरितोऽसौ विजयते।।

जो दयासागर थे, वेद-प्रतिपादित आचरण में तत्पर थे, विलुप्त सद्धर्म की रक्षा के लिए रात-दिन जिन्होंने यत्न किया, ऐसे शुद्ध चरित्र यतिवर दयानन्द योगी की जय हो।

यदीयं वैदुष्यं, श्रुतिविषयक' लोकविदितं, यदीयं योगित्वं, कलियुगजनेष्वस्त्यनुपमम्‌।

हितार्थं सर्वेषाम्‌, इह निजसुखं यस्तु विजहौ, दयानन्दो योगी, विमलचरितोऽसौ विजयते।।

जिन की वेद विषयक विद्वत्ता लोक प्रसिद्ध है, जिन का योगित्व कलियुग में अनुपम था, सब के हित के लिए जिन्होंने अपना सुख त्याग दिया, ऐसे विमल चरित्र वाले योगी दयानन्द की जय हो।

स्वराज्यं सवेभ्यः, परमसुखदं शान्तिजनकं, स्वदेशीयो धार्यः, सकलमनुजैर्वस्त्रनिवहः[2]

स्वराष्ट्रं चाराध्यं, दिशिदिशि दिशन्‌ भीतिरहितो, दयानन्द योगी, विमलचरितोऽसौ विजयते।।

स्वराज्य परम सुख और शान्ति देने वाला होता है, सब लोगोंं को स्वदेशी वस्त्र ही धारण करना चाहिए। इस प्रकार अपने राष्ट्र की आराधना या सेवा सदा करनी चाहिए। निर्भय हो कर जिन्होंने सब दिशाओं में उत्तम भावों का प्रचार किया ऐसे विमल चरित्र वाले योगी दयानन्द की जय हो।

जनाः सर्वे नूनं, भुवनजनितुः पुत्रसदृशाः, अतोऽन्योन्यं स्नेहः, सकलमनुजानां समुचितः।

न कोऽप्यस्पृश्यो ना, इति विलमभावं प्रचुरयन्‌, दयानन्दो योगी, सरलहृदयोऽसौ विजयते ।।

संसार के सब मनुष्य जगदुत्पादक एक इश्वर के पुत्र हैं, अतः सब को परस्पर स्नेह उचित है, कोई भी अस्पृश्य नहीं। इस प्रकार के विमल भाव के प्रचारक सरल-हृदय दयानन्द योगी की जय हो।

References

  1. महापुरुषकीर्तनम्, लेखक- विद्यावाचस्पति विद्यामार्तण्ड धर्मदेव; सम्पादक: आचार्य आनन्दप्रकाश; प्रकाशक: आर्ष-विद्या-प्रचार-न्यास, आर्ष-शोध-संस्थान, अलियाबाद, मं. शामीरेपट, जिला.- रंगारेड्डी, (आ.प्र.) -500078
  2. कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीराज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। - सत्यार्थप्रकाश, समु. ८।