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# ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है।  
 
# ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है।  
 
# बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं।  
 
# बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं।  
# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य आरम्भ करे और चल रहे कार्य में जुडे यह आवश्यक है।  
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# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य आरम्भ करे और चल रहे कार्य में जुड़े यह आवश्यक है।  
 
# ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा।  
 
# ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा।  
 
# सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं।
 
# सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं।
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# आत्मविश्वास के अभाव का एक बड़ा कारण हीनताबोध है। हीनताबोध एक मानसिक रोग है। वर्तमान में इस रोग से मुक्ति प्राप्त किये बिना भारत का विकास नहीं हो सकता है, उसका खोया हुआ आत्मविश्वास भी पुनः प्राप्त नहीं कर सकता है।  
 
# आत्मविश्वास के अभाव का एक बड़ा कारण हीनताबोध है। हीनताबोध एक मानसिक रोग है। वर्तमान में इस रोग से मुक्ति प्राप्त किये बिना भारत का विकास नहीं हो सकता है, उसका खोया हुआ आत्मविश्वास भी पुनः प्राप्त नहीं कर सकता है।  
 
# ब्रिटीश शासन के दौरान उनके द्वारा किय गये शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, तिरस्कार, अवमानना, अपमान के चलते और बात बात में अपनी श्रेष्ठता का बखान करने की प्रवृत्ति के चलते हीनता का बोध धार्मिक प्रजा के जेहन में उतरगया है । अब भारत को अपनी हर बात में हीनता दिखाई देती है। इसका इलाज करने की आवश्यकता है।  
 
# ब्रिटीश शासन के दौरान उनके द्वारा किय गये शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, तिरस्कार, अवमानना, अपमान के चलते और बात बात में अपनी श्रेष्ठता का बखान करने की प्रवृत्ति के चलते हीनता का बोध धार्मिक प्रजा के जेहन में उतरगया है । अब भारत को अपनी हर बात में हीनता दिखाई देती है। इसका इलाज करने की आवश्यकता है।  
# ब्रिटीशों द्वारा जब अपनी श्रेष्ठता का बखान किया जाता था तब उसमें कोई तर्क नहीं था, अज्ञान और अहंकार था। उदाहरण के लिये टॉमस बेबिंग्टन मेकाले कहता था कि इंग्लैण्ड के एक प्राथमिक विद्यालय के ग्रन्थालय की एक आलमारी के एक शेल्फ में जो पुस्तकें हैं, उनमें जो ज्ञान है वह भारत के ग्रन्थालयों में रखे सारे ग्रन्थों में समाये हए ज्ञान से श्रेष्ठ है । यह मिथ्या गर्वोक्ति है । मेकाले न तो भारत की ग्रन्थसम्पदा को जानता था न धार्मिकों के उन ग्रन्थों के प्रति आदर को । फिर भी वह एसी गर्वोक्ति कर सकता था क्योंकि वह भारत की अवमानना करना चाहता था। उसकी उक्ति कोई तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष नहीं था।  
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# ब्रिटीशों द्वारा जब अपनी श्रेष्ठता का बखान किया जाता था तब उसमें कोई तर्क नहीं था, अज्ञान और अहंकार था। उदाहरण के लिये टॉमस बेबिंग्टन मेकाले कहता था कि इंग्लैण्ड के एक प्राथमिक विद्यालय के ग्रन्थालय की एक आलमारी के एक शेल्फ में जो पुस्तकें हैं, उनमें जो ज्ञान है वह भारत के ग्रन्थालयों में रखे सारे ग्रन्थों में समाये हए ज्ञान से श्रेष्ठ है । यह मिथ्या गर्वोक्ति है । मेकाले न तो भारत की ग्रन्थसम्पदा को जानता था न धार्मिकों के उन ग्रन्थों के प्रति आदर को । तथापि वह एसी गर्वोक्ति कर सकता था क्योंकि वह भारत की अवमानना करना चाहता था। उसकी उक्ति कोई तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष नहीं था।  
 
# उसकी गर्वोक्ति का हम पर असर क्यों हुआ ? बौद्धिक प्रतीति के कारण नहीं। कीटभ्रमर न्याय से हम ब्रिटीशों से आतंकित हुए और उनका कहा मानने लगे। हमारे अन्दर का भय और आतंक अभी तक गया नहीं है। उससे प्रेरित होकर आज भी हम अंग्रेजी और यूरोपीय ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । इलाज इस भय का होना चाहिये ।  
 
# उसकी गर्वोक्ति का हम पर असर क्यों हुआ ? बौद्धिक प्रतीति के कारण नहीं। कीटभ्रमर न्याय से हम ब्रिटीशों से आतंकित हुए और उनका कहा मानने लगे। हमारे अन्दर का भय और आतंक अभी तक गया नहीं है। उससे प्रेरित होकर आज भी हम अंग्रेजी और यूरोपीय ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । इलाज इस भय का होना चाहिये ।  
 
# हीनता बोध से मुक्ति मनोवैज्ञानिक उपायों से ही प्राप्त हो सकती है। तार्किक चर्चाओं से नहीं । दसियों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद भी आतंक समाप्त नहीं होता यह सबका अनुभव है। मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाने का साहस बौद्धिक जगत में होता नहीं है।  
 
# हीनता बोध से मुक्ति मनोवैज्ञानिक उपायों से ही प्राप्त हो सकती है। तार्किक चर्चाओं से नहीं । दसियों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद भी आतंक समाप्त नहीं होता यह सबका अनुभव है। मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाने का साहस बौद्धिक जगत में होता नहीं है।  
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# हीनताबोध का रोग चित्तगत हैं । ये संस्कार आज की पीढी को जन्म से प्राप्त हुए है । चित्तशुद्धि होने पर ये संस्कार मिट सकते हैं। अतः चित्तशुद्धि के उपाय करने की आवश्यकता है। चित्तशुद्धि मनोबल और विवेक से भी परे हैं। सत्संग, स्वाध्याय, सदाचार और शुद्ध आहार का चित्त के साथ सम्बन्ध है। परन्तु इनके साथ ध्यान भी आवश्यक है। अंग्रेजीयत से मुक्ति का संकल्प लेकर यदि यह सब किया जाय तो हम इस रोग से मुक्त हो सकते हैं।  
 
# हीनताबोध का रोग चित्तगत हैं । ये संस्कार आज की पीढी को जन्म से प्राप्त हुए है । चित्तशुद्धि होने पर ये संस्कार मिट सकते हैं। अतः चित्तशुद्धि के उपाय करने की आवश्यकता है। चित्तशुद्धि मनोबल और विवेक से भी परे हैं। सत्संग, स्वाध्याय, सदाचार और शुद्ध आहार का चित्त के साथ सम्बन्ध है। परन्तु इनके साथ ध्यान भी आवश्यक है। अंग्रेजीयत से मुक्ति का संकल्प लेकर यदि यह सब किया जाय तो हम इस रोग से मुक्त हो सकते हैं।  
 
# इन सबके आधार पर धार्मिक और यूरोपीय ज्ञानधारा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो यूरोपीय ज्ञान, यूरोपीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली, जीवनव्यवस्था की कमियाँ समझ में आने लगेंगी। फिर हम उन पर तरस खायेंगे और अपने आप पर हँसेंगे। अर्थात् यह कार्य शिक्षकों का है, विश्वविद्यालयों का है।  
 
# इन सबके आधार पर धार्मिक और यूरोपीय ज्ञानधारा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो यूरोपीय ज्ञान, यूरोपीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली, जीवनव्यवस्था की कमियाँ समझ में आने लगेंगी। फिर हम उन पर तरस खायेंगे और अपने आप पर हँसेंगे। अर्थात् यह कार्य शिक्षकों का है, विश्वविद्यालयों का है।  
# समाज के जो श्रेष्ठ लोग हैं उन्हें पहल करनी होगी। उदाहरण के लिये उच्चशिक्षित लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में नहीं भेजेंगे तो सामान्य लोग भी नहीं भेजेंगे । अत्यन्त धनवान लोग अंग्रेजी वेशभूषा और खानपान का त्याग करेंगे तो मध्यम वर्गीय लोग भी करेंगे। फिल्मों के नट्नटियाँ यदि संस्कारयुक्त व्यवहार करने लगेंगे तो अशिक्षित लोग भी संस्कारवान बनेंगे। अधिकारी वर्ग मातृभाषा का आग्रह आरम्भ करेगा तो कर्मचारी भी उनका अनुसरण करेगा।  
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# समाज के जो श्रेष्ठ लोग हैं उन्हें पहल करनी होगी। उदाहरण के लिये उच्चशिक्षित लोग अपने बच्चोंं को अंग्रेजी माध्यम में नहीं भेजेंगे तो सामान्य लोग भी नहीं भेजेंगे । अत्यन्त धनवान लोग अंग्रेजी वेशभूषा और खानपान का त्याग करेंगे तो मध्यम वर्गीय लोग भी करेंगे। फिल्मों के नट्नटियाँ यदि संस्कारयुक्त व्यवहार करने लगेंगे तो अशिक्षित लोग भी संस्कारवान बनेंगे। अधिकारी वर्ग मातृभाषा का आग्रह आरम्भ करेगा तो कर्मचारी भी उनका अनुसरण करेगा।  
 
# भारत गरीब नहीं है तो भी अपने आपको गरीब मानता है, पिछडा हुआ नहीं है तो भी वैसा मानता है, अज्ञानी नहीं है तो भी अज्ञानी मानता है, दुर्जन नहीं है तो भी अपने आपको सज्जन नहीं मानता क्योंकि वह पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करता हैं। हमें चाहिये कि हम अपने मापदण्ड निश्चित करें, अपने आप पर लागू करें और यूरोप पर भी लागू करें तब बात हमारी समझ में आयेगी।  
 
# भारत गरीब नहीं है तो भी अपने आपको गरीब मानता है, पिछडा हुआ नहीं है तो भी वैसा मानता है, अज्ञानी नहीं है तो भी अज्ञानी मानता है, दुर्जन नहीं है तो भी अपने आपको सज्जन नहीं मानता क्योंकि वह पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करता हैं। हमें चाहिये कि हम अपने मापदण्ड निश्चित करें, अपने आप पर लागू करें और यूरोप पर भी लागू करें तब बात हमारी समझ में आयेगी।  
 
# भारत जब हीनताबोध से मुक्त होगा तभी उसका आत्मविश्वास जागृत होगा। आत्मविश्वास से प्रेरित अध्ययन और व्यवहार उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करेंगे । भारत भारत बनेगा तो अपने आप विश्व के लिये उदाहरण प्रस्तुत करेगा । फूल जिस प्रकार होने से ही सुगन्ध बिखेरता है, सूर्य जैसे होने से ही प्रकाश फैलाता है उस प्रकार भारत भारत होने से ही ज्ञान के प्रकाश को फैलाकर अज्ञानजनित, मोहजनित भ्रान्तियों को दूर करता है। उसे कोई अलग से अभियान छेडने की आवश्यकता नहीं रहती।
 
# भारत जब हीनताबोध से मुक्त होगा तभी उसका आत्मविश्वास जागृत होगा। आत्मविश्वास से प्रेरित अध्ययन और व्यवहार उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करेंगे । भारत भारत बनेगा तो अपने आप विश्व के लिये उदाहरण प्रस्तुत करेगा । फूल जिस प्रकार होने से ही सुगन्ध बिखेरता है, सूर्य जैसे होने से ही प्रकाश फैलाता है उस प्रकार भारत भारत होने से ही ज्ञान के प्रकाश को फैलाकर अज्ञानजनित, मोहजनित भ्रान्तियों को दूर करता है। उसे कोई अलग से अभियान छेडने की आवश्यकता नहीं रहती।

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