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==== २. ज्ञानात्मक हल ढूंढने की प्रवृत्ति ====
 
==== २. ज्ञानात्मक हल ढूंढने की प्रवृत्ति ====
विश्व को संकटों से मुक्त करना है तो भारत को अग्रसर होना होगा, पथप्रदर्शक बनना होगा इसमें न तो विश्व को सन्देह है न भारत को । भारत को सन्देह होना भी नहीं चाहिये । परन्तु आज भारत जैसा है वैसा तो पथप्रदर्शक नहीं बन सकता । आज भारत स्वयं पश्चिम की छाया में जी रहा है, यूरोप बनने की आकांक्षा पाल रहा है, प्रयास कर रहा है। स्वयं के लिये और विश्व के लिये भारत को बदलना पडेगा। भारत को भारत बनना होगा । ऐसा करके ही वह अपनी भूमिका निभा सकेगा।
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विश्व को संकटों से मुक्त करना है तो भारत को अग्रसर होना होगा, पथप्रदर्शक बनना होगा इसमें न तो विश्व को सन्देह है न भारत को । भारत को सन्देह होना भी नहीं चाहिये । परन्तु आज भारत जैसा है वैसा तो पथप्रदर्शक नहीं बन सकता । आज भारत स्वयं पश्चिम की छाया में जी रहा है, यूरोप बनने की आकांक्षा पाल रहा है, प्रयास कर रहा है। स्वयं के लिये और विश्व के लिये भारत को बदलना पड़ेगा। भारत को भारत बनना होगा । ऐसा करके ही वह अपनी भूमिका निभा सकेगा।
    
भारत भारत बने इसका अर्थ क्या है ? वह कैसे होगा ? भारत को क्या करना होगा ?  
 
भारत भारत बने इसका अर्थ क्या है ? वह कैसे होगा ? भारत को क्या करना होगा ?  
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# ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है।  
 
# ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है।  
 
# बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं।  
 
# बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं।  
# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य आरम्भ करे और चल रहे कार्य में जुडे यह आवश्यक है।  
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# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य आरम्भ करे और चल रहे कार्य में जुड़े यह आवश्यक है।  
 
# ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा।  
 
# ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा।  
 
# सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं।
 
# सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं।
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# ज्ञान के व्यवहार में दो पक्ष होते हैं। एक सिद्धान्त का और दसरा व्यवहार का । सिद्धान्त का पक्ष समझ स्पष्ट करने के लिये और व्यवहार का पक्ष क्रियात्मक योजना बनाने के लिये होता है।
 
# ज्ञान के व्यवहार में दो पक्ष होते हैं। एक सिद्धान्त का और दसरा व्यवहार का । सिद्धान्त का पक्ष समझ स्पष्ट करने के लिये और व्यवहार का पक्ष क्रियात्मक योजना बनाने के लिये होता है।
 
# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये शास्त्रग्रन्थों को और लोकपरम्पराओं को आधार मानना चाहिये । साथ ही सद्यस्थिति का सम्यक् आकलन भी करना चाहिये । यह सब करते समय उदार, निष्पक्षपाती, करुणापूर्ण अन्तःकरण युक्त परन्तु निश्चयी भी होना चाहिये । करुणा ऐसी नहीं हो सकती कि असत्य के प्रति कठोर न हो सके और उदार ऐसे नहीं कि अपना है इसलिये दण्ड न दे अथवा मृदु दण्ड दे।  
 
# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये शास्त्रग्रन्थों को और लोकपरम्पराओं को आधार मानना चाहिये । साथ ही सद्यस्थिति का सम्यक् आकलन भी करना चाहिये । यह सब करते समय उदार, निष्पक्षपाती, करुणापूर्ण अन्तःकरण युक्त परन्तु निश्चयी भी होना चाहिये । करुणा ऐसी नहीं हो सकती कि असत्य के प्रति कठोर न हो सके और उदार ऐसे नहीं कि अपना है इसलिये दण्ड न दे अथवा मृदु दण्ड दे।  
# ज्ञानात्मक हल ढूँढ सके ऐसे लोगों को तैयार करना एक आवश्यकता है और समस्त प्रजा सत्य और धर्म का आग्रह रखनेवाली हो यह दसरा पक्ष है। इन दोनों पक्षों की शिक्षा की व्यवस्था करने से संकटों का ज्ञानात्मक निवारण सम्भव होता है।
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# ज्ञानात्मक हल ढूँढ सके ऐसे लोगोंं को तैयार करना एक आवश्यकता है और समस्त प्रजा सत्य और धर्म का आग्रह रखनेवाली हो यह दसरा पक्ष है। इन दोनों पक्षों की शिक्षा की व्यवस्था करने से संकटों का ज्ञानात्मक निवारण सम्भव होता है।
    
==== ३. पवित्रता की रक्षा ====
 
==== ३. पवित्रता की रक्षा ====
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# शुद्धता भौतिक है, पवित्रता मानसिक। उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । जीवन के व्यवहारों में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का प्रभाव और महत्त्व अधिक होते हैं। अन्तःकरण का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर भी होता है। इसलिये शुद्धता के साथ साथ, शुद्धता से भी अधिक पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये।  
 
# शुद्धता भौतिक है, पवित्रता मानसिक। उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । जीवन के व्यवहारों में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का प्रभाव और महत्त्व अधिक होते हैं। अन्तःकरण का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर भी होता है। इसलिये शुद्धता के साथ साथ, शुद्धता से भी अधिक पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये।  
 
# वर्तमान जगत में शुद्धता और पवित्रता का यह अन्तर विचार में ही नहीं लिया जाता है। इसका कारण सृष्टि को भी केवल भौतिक मानने में है। उदाहरण के लिये पर्यावरण की बात करते समय हम पंचमहाभूतों का ही विचार करते हैं । परन्तु सृष्टि पंचमहाभूतों के साथ साथ सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों की भी बनी है। इन तीन गुणों से मन, बुद्धि और अहंकार बने हैं। इनकी शुद्धि और पवित्रता भी पर्यावरण के विचार का हिस्सा है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । वायु की शुद्धि से भी विचारों की शुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिये।  
 
# वर्तमान जगत में शुद्धता और पवित्रता का यह अन्तर विचार में ही नहीं लिया जाता है। इसका कारण सृष्टि को भी केवल भौतिक मानने में है। उदाहरण के लिये पर्यावरण की बात करते समय हम पंचमहाभूतों का ही विचार करते हैं । परन्तु सृष्टि पंचमहाभूतों के साथ साथ सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों की भी बनी है। इन तीन गुणों से मन, बुद्धि और अहंकार बने हैं। इनकी शुद्धि और पवित्रता भी पर्यावरण के विचार का हिस्सा है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । वायु की शुद्धि से भी विचारों की शुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिये।  
# एक कुम्हार अपने चाक को, या एक रिक्षेवाला अपनी रिक्षा को केवल इसलिये पवित्र नहीं मानता कि उससे उसे रोजी मिलती है। वह इसे इसलिये पवित्र मानता है क्योंकि उससे वह लोगों की आवश्यकता की पूर्ति कर पायेगा। आज यदि कलियुग के या पश्चिम के प्रभाव से इस बात का विस्मरण हुआ है तो उसे पुनःस्मरण में लाना होगा।  
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# एक कुम्हार अपने चाक को, या एक रिक्षेवाला अपनी रिक्षा को केवल इसलिये पवित्र नहीं मानता कि उससे उसे रोजी मिलती है। वह इसे इसलिये पवित्र मानता है क्योंकि उससे वह लोगोंं की आवश्यकता की पूर्ति कर पायेगा। आज यदि कलियुग के या पश्चिम के प्रभाव से इस बात का विस्मरण हुआ है तो उसे पुनःस्मरण में लाना होगा।  
 
# भारत के सांसद और विधायक, भारत के प्रशासकीय अधिकारी, भारत के उद्योजक, भारत के अध्यापक अपने कार्य के साथ पवित्रता की भावना जोड लें तो कैसा परिवर्तन होगा इसकी हम कल्पना कर सकते हैं। ये सब समस्त प्रजा पर परिणाम करनेवाले क्षेत्र हैं। आज उनमें से पवित्रता की भावना निष्कासित हो गई है। इसके क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं यह भी हम देख रहे हैं । हम भुगत भी रहे हैं। अतः भारत के मानस में पवित्रता की भावना को, पवित्रता की दृष्टि को पुनः प्रतिष्ठित करना होगा।  
 
# भारत के सांसद और विधायक, भारत के प्रशासकीय अधिकारी, भारत के उद्योजक, भारत के अध्यापक अपने कार्य के साथ पवित्रता की भावना जोड लें तो कैसा परिवर्तन होगा इसकी हम कल्पना कर सकते हैं। ये सब समस्त प्रजा पर परिणाम करनेवाले क्षेत्र हैं। आज उनमें से पवित्रता की भावना निष्कासित हो गई है। इसके क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं यह भी हम देख रहे हैं । हम भुगत भी रहे हैं। अतः भारत के मानस में पवित्रता की भावना को, पवित्रता की दृष्टि को पुनः प्रतिष्ठित करना होगा।  
 
# पवित्र पदार्थ, पवित्र विचार, पवित्र व्यक्ति दूसरों को भी पवित्र बनाते हैं। पवित्रता का यह प्रभाव है। पवित्र अन्तःकरण से किया गया कार्य अधिक प्रभावी होता है क्योंकि उसका प्रभाव अन्तःकरण के स्तर पर होता है। इसलिये भारत में आज अन्तःकरण की पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये । उससे ही हम विश्वस्थिति को प्रभावित कर सकते हैं।  
 
# पवित्र पदार्थ, पवित्र विचार, पवित्र व्यक्ति दूसरों को भी पवित्र बनाते हैं। पवित्रता का यह प्रभाव है। पवित्र अन्तःकरण से किया गया कार्य अधिक प्रभावी होता है क्योंकि उसका प्रभाव अन्तःकरण के स्तर पर होता है। इसलिये भारत में आज अन्तःकरण की पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये । उससे ही हम विश्वस्थिति को प्रभावित कर सकते हैं।  
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# आत्मविश्वास के अभाव का एक बड़ा कारण हीनताबोध है। हीनताबोध एक मानसिक रोग है। वर्तमान में इस रोग से मुक्ति प्राप्त किये बिना भारत का विकास नहीं हो सकता है, उसका खोया हुआ आत्मविश्वास भी पुनः प्राप्त नहीं कर सकता है।  
 
# आत्मविश्वास के अभाव का एक बड़ा कारण हीनताबोध है। हीनताबोध एक मानसिक रोग है। वर्तमान में इस रोग से मुक्ति प्राप्त किये बिना भारत का विकास नहीं हो सकता है, उसका खोया हुआ आत्मविश्वास भी पुनः प्राप्त नहीं कर सकता है।  
 
# ब्रिटीश शासन के दौरान उनके द्वारा किय गये शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, तिरस्कार, अवमानना, अपमान के चलते और बात बात में अपनी श्रेष्ठता का बखान करने की प्रवृत्ति के चलते हीनता का बोध धार्मिक प्रजा के जेहन में उतरगया है । अब भारत को अपनी हर बात में हीनता दिखाई देती है। इसका इलाज करने की आवश्यकता है।  
 
# ब्रिटीश शासन के दौरान उनके द्वारा किय गये शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, तिरस्कार, अवमानना, अपमान के चलते और बात बात में अपनी श्रेष्ठता का बखान करने की प्रवृत्ति के चलते हीनता का बोध धार्मिक प्रजा के जेहन में उतरगया है । अब भारत को अपनी हर बात में हीनता दिखाई देती है। इसका इलाज करने की आवश्यकता है।  
# ब्रिटीशों द्वारा जब अपनी श्रेष्ठता का बखान किया जाता था तब उसमें कोई तर्क नहीं था, अज्ञान और अहंकार था। उदाहरण के लिये टॉमस बेबिंग्टन मेकाले कहता था कि इंग्लैण्ड के एक प्राथमिक विद्यालय के ग्रन्थालय की एक आलमारी के एक शेल्फ में जो पुस्तकें हैं, उनमें जो ज्ञान है वह भारत के ग्रन्थालयों में रखे सारे ग्रन्थों में समाये हए ज्ञान से श्रेष्ठ है । यह मिथ्या गर्वोक्ति है । मेकाले न तो भारत की ग्रन्थसम्पदा को जानता था न धार्मिकों के उन ग्रन्थों के प्रति आदर को । फिर भी वह एसी गर्वोक्ति कर सकता था क्योंकि वह भारत की अवमानना करना चाहता था। उसकी उक्ति कोई तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष नहीं था।  
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# ब्रिटीशों द्वारा जब अपनी श्रेष्ठता का बखान किया जाता था तब उसमें कोई तर्क नहीं था, अज्ञान और अहंकार था। उदाहरण के लिये टॉमस बेबिंग्टन मेकाले कहता था कि इंग्लैण्ड के एक प्राथमिक विद्यालय के ग्रन्थालय की एक आलमारी के एक शेल्फ में जो पुस्तकें हैं, उनमें जो ज्ञान है वह भारत के ग्रन्थालयों में रखे सारे ग्रन्थों में समाये हए ज्ञान से श्रेष्ठ है । यह मिथ्या गर्वोक्ति है । मेकाले न तो भारत की ग्रन्थसम्पदा को जानता था न धार्मिकों के उन ग्रन्थों के प्रति आदर को । तथापि वह एसी गर्वोक्ति कर सकता था क्योंकि वह भारत की अवमानना करना चाहता था। उसकी उक्ति कोई तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष नहीं था।  
 
# उसकी गर्वोक्ति का हम पर असर क्यों हुआ ? बौद्धिक प्रतीति के कारण नहीं। कीटभ्रमर न्याय से हम ब्रिटीशों से आतंकित हुए और उनका कहा मानने लगे। हमारे अन्दर का भय और आतंक अभी तक गया नहीं है। उससे प्रेरित होकर आज भी हम अंग्रेजी और यूरोपीय ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । इलाज इस भय का होना चाहिये ।  
 
# उसकी गर्वोक्ति का हम पर असर क्यों हुआ ? बौद्धिक प्रतीति के कारण नहीं। कीटभ्रमर न्याय से हम ब्रिटीशों से आतंकित हुए और उनका कहा मानने लगे। हमारे अन्दर का भय और आतंक अभी तक गया नहीं है। उससे प्रेरित होकर आज भी हम अंग्रेजी और यूरोपीय ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । इलाज इस भय का होना चाहिये ।  
 
# हीनता बोध से मुक्ति मनोवैज्ञानिक उपायों से ही प्राप्त हो सकती है। तार्किक चर्चाओं से नहीं । दसियों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद भी आतंक समाप्त नहीं होता यह सबका अनुभव है। मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाने का साहस बौद्धिक जगत में होता नहीं है।  
 
# हीनता बोध से मुक्ति मनोवैज्ञानिक उपायों से ही प्राप्त हो सकती है। तार्किक चर्चाओं से नहीं । दसियों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद भी आतंक समाप्त नहीं होता यह सबका अनुभव है। मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाने का साहस बौद्धिक जगत में होता नहीं है।  
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# परन्तु ऐसा बोलने की और करने की हिम्मत हम नहीं कर सकते हैं । तुरन्त ही प्रतितर्क आरम्भ हो जाते हैं । अंग्रेजी में क्या बुराई है ? यूरोपीय वेश पहनने से क्या हम धार्मिक नहीं रहते ? पित्झा खाने से क्या हम भ्रष्ट हो जायेंगे ? खानपान, वेशभूषा, शिष्टाचार तो बाह्य बातें हैं । अन्दर से तो हम धार्मिक ही हैं। हमें अंग्रेजी से भय कैसा ?  
 
# परन्तु ऐसा बोलने की और करने की हिम्मत हम नहीं कर सकते हैं । तुरन्त ही प्रतितर्क आरम्भ हो जाते हैं । अंग्रेजी में क्या बुराई है ? यूरोपीय वेश पहनने से क्या हम धार्मिक नहीं रहते ? पित्झा खाने से क्या हम भ्रष्ट हो जायेंगे ? खानपान, वेशभूषा, शिष्टाचार तो बाह्य बातें हैं । अन्दर से तो हम धार्मिक ही हैं। हमें अंग्रेजी से भय कैसा ?  
 
# परन्तु यह झूठा तर्क है। हमारे अन्दर बैठा हुआ अंग्रेजी हमें ऐसा बोलने के लिये बाध्य करता है। यह तो घोर हीनताबोध का ही लक्षण है। स्थिति ऐसी है कि हम तो नहीं समझेंगे परन्तु कोई हमें इस स्थिति से बलपूर्वक उबारे तभी हम बाहर आ सकते है।  
 
# परन्तु यह झूठा तर्क है। हमारे अन्दर बैठा हुआ अंग्रेजी हमें ऐसा बोलने के लिये बाध्य करता है। यह तो घोर हीनताबोध का ही लक्षण है। स्थिति ऐसी है कि हम तो नहीं समझेंगे परन्तु कोई हमें इस स्थिति से बलपूर्वक उबारे तभी हम बाहर आ सकते है।  
# कोई तानाशाह बेरहमी से घोषणा करे कि आज से, इसी क्षण से अंग्रेजी और अंग्रेजी के सभी चिह्न इस देश में प्रतिबन्धित हैं और उसे अपने पास रखने वाले को कठोर दण्ड मिलेगा तभी हम मानेंगे। रोयेंगे, चिल्लायेंगे, विरोध करेंगे, आन्दोलन करेंगे, चुनाव में मत नहीं देंगे परन्तु तानाशाही के आदेश को मानना पडेगा। हमारी नई पीढी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से 'वंचित' रहेगी । तब एक या दो पीढियों के बाद हम हीनताबोध के रोग से मुक्त होंगे । इझरायेलने हिब्रू को लेकर ऐसा किया ही था।  
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# कोई तानाशाह बेरहमी से घोषणा करे कि आज से, इसी क्षण से अंग्रेजी और अंग्रेजी के सभी चिह्न इस देश में प्रतिबन्धित हैं और उसे अपने पास रखने वाले को कठोर दण्ड मिलेगा तभी हम मानेंगे। रोयेंगे, चिल्लायेंगे, विरोध करेंगे, आन्दोलन करेंगे, चुनाव में मत नहीं देंगे परन्तु तानाशाही के आदेश को मानना पड़ेगा। हमारी नई पीढी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से 'वंचित' रहेगी । तब एक या दो पीढियों के बाद हम हीनताबोध के रोग से मुक्त होंगे । इझरायेलने हिब्रू को लेकर ऐसा किया ही था।  
 
# या विभिन्न पंथों के धर्माचार्य अपने अनुयायिओं को कठोर प्रतिज्ञा करवायें कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत् का अनुसरण करने वाला धर्मद्रोही माना जायेगा, उसे पाप लगेगा और वह घोर नर्क में जायेगा। तब धर्म के भय से लोग अंग्रेजी को छोडेंगे ।  
 
# या विभिन्न पंथों के धर्माचार्य अपने अनुयायिओं को कठोर प्रतिज्ञा करवायें कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत् का अनुसरण करने वाला धर्मद्रोही माना जायेगा, उसे पाप लगेगा और वह घोर नर्क में जायेगा। तब धर्म के भय से लोग अंग्रेजी को छोडेंगे ।  
 
# या कोई चमत्कार हो कि एक दिन सुबह होते ही लोग जागें तब वे अंग्रेजी और अंग्रेजीयत को सर्वथा भूल गये हों, जैसे मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है और पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। या भूतप्रेत की बाधाओं को झाडफूंक के उपायों से दूर भगानेवाला कोई हमें अंग्रेजी की बाधा से मुक्त करे।  
 
# या कोई चमत्कार हो कि एक दिन सुबह होते ही लोग जागें तब वे अंग्रेजी और अंग्रेजीयत को सर्वथा भूल गये हों, जैसे मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है और पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। या भूतप्रेत की बाधाओं को झाडफूंक के उपायों से दूर भगानेवाला कोई हमें अंग्रेजी की बाधा से मुक्त करे।  
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# हीनताबोध का रोग चित्तगत हैं । ये संस्कार आज की पीढी को जन्म से प्राप्त हुए है । चित्तशुद्धि होने पर ये संस्कार मिट सकते हैं। अतः चित्तशुद्धि के उपाय करने की आवश्यकता है। चित्तशुद्धि मनोबल और विवेक से भी परे हैं। सत्संग, स्वाध्याय, सदाचार और शुद्ध आहार का चित्त के साथ सम्बन्ध है। परन्तु इनके साथ ध्यान भी आवश्यक है। अंग्रेजीयत से मुक्ति का संकल्प लेकर यदि यह सब किया जाय तो हम इस रोग से मुक्त हो सकते हैं।  
 
# हीनताबोध का रोग चित्तगत हैं । ये संस्कार आज की पीढी को जन्म से प्राप्त हुए है । चित्तशुद्धि होने पर ये संस्कार मिट सकते हैं। अतः चित्तशुद्धि के उपाय करने की आवश्यकता है। चित्तशुद्धि मनोबल और विवेक से भी परे हैं। सत्संग, स्वाध्याय, सदाचार और शुद्ध आहार का चित्त के साथ सम्बन्ध है। परन्तु इनके साथ ध्यान भी आवश्यक है। अंग्रेजीयत से मुक्ति का संकल्प लेकर यदि यह सब किया जाय तो हम इस रोग से मुक्त हो सकते हैं।  
 
# इन सबके आधार पर धार्मिक और यूरोपीय ज्ञानधारा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो यूरोपीय ज्ञान, यूरोपीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली, जीवनव्यवस्था की कमियाँ समझ में आने लगेंगी। फिर हम उन पर तरस खायेंगे और अपने आप पर हँसेंगे। अर्थात् यह कार्य शिक्षकों का है, विश्वविद्यालयों का है।  
 
# इन सबके आधार पर धार्मिक और यूरोपीय ज्ञानधारा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो यूरोपीय ज्ञान, यूरोपीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली, जीवनव्यवस्था की कमियाँ समझ में आने लगेंगी। फिर हम उन पर तरस खायेंगे और अपने आप पर हँसेंगे। अर्थात् यह कार्य शिक्षकों का है, विश्वविद्यालयों का है।  
# समाज के जो श्रेष्ठ लोग हैं उन्हें पहल करनी होगी। उदाहरण के लिये उच्चशिक्षित लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में नहीं भेजेंगे तो सामान्य लोग भी नहीं भेजेंगे । अत्यन्त धनवान लोग अंग्रेजी वेशभूषा और खानपान का त्याग करेंगे तो मध्यम वर्गीय लोग भी करेंगे। फिल्मों के नट्नटियाँ यदि संस्कारयुक्त व्यवहार करने लगेंगे तो अशिक्षित लोग भी संस्कारवान बनेंगे। अधिकारी वर्ग मातृभाषा का आग्रह आरम्भ करेगा तो कर्मचारी भी उनका अनुसरण करेगा।  
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# समाज के जो श्रेष्ठ लोग हैं उन्हें पहल करनी होगी। उदाहरण के लिये उच्चशिक्षित लोग अपने बच्चोंं को अंग्रेजी माध्यम में नहीं भेजेंगे तो सामान्य लोग भी नहीं भेजेंगे । अत्यन्त धनवान लोग अंग्रेजी वेशभूषा और खानपान का त्याग करेंगे तो मध्यम वर्गीय लोग भी करेंगे। फिल्मों के नट्नटियाँ यदि संस्कारयुक्त व्यवहार करने लगेंगे तो अशिक्षित लोग भी संस्कारवान बनेंगे। अधिकारी वर्ग मातृभाषा का आग्रह आरम्भ करेगा तो कर्मचारी भी उनका अनुसरण करेगा।  
 
# भारत गरीब नहीं है तो भी अपने आपको गरीब मानता है, पिछडा हुआ नहीं है तो भी वैसा मानता है, अज्ञानी नहीं है तो भी अज्ञानी मानता है, दुर्जन नहीं है तो भी अपने आपको सज्जन नहीं मानता क्योंकि वह पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करता हैं। हमें चाहिये कि हम अपने मापदण्ड निश्चित करें, अपने आप पर लागू करें और यूरोप पर भी लागू करें तब बात हमारी समझ में आयेगी।  
 
# भारत गरीब नहीं है तो भी अपने आपको गरीब मानता है, पिछडा हुआ नहीं है तो भी वैसा मानता है, अज्ञानी नहीं है तो भी अज्ञानी मानता है, दुर्जन नहीं है तो भी अपने आपको सज्जन नहीं मानता क्योंकि वह पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करता हैं। हमें चाहिये कि हम अपने मापदण्ड निश्चित करें, अपने आप पर लागू करें और यूरोप पर भी लागू करें तब बात हमारी समझ में आयेगी।  
 
# भारत जब हीनताबोध से मुक्त होगा तभी उसका आत्मविश्वास जागृत होगा। आत्मविश्वास से प्रेरित अध्ययन और व्यवहार उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करेंगे । भारत भारत बनेगा तो अपने आप विश्व के लिये उदाहरण प्रस्तुत करेगा । फूल जिस प्रकार होने से ही सुगन्ध बिखेरता है, सूर्य जैसे होने से ही प्रकाश फैलाता है उस प्रकार भारत भारत होने से ही ज्ञान के प्रकाश को फैलाकर अज्ञानजनित, मोहजनित भ्रान्तियों को दूर करता है। उसे कोई अलग से अभियान छेडने की आवश्यकता नहीं रहती।
 
# भारत जब हीनताबोध से मुक्त होगा तभी उसका आत्मविश्वास जागृत होगा। आत्मविश्वास से प्रेरित अध्ययन और व्यवहार उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करेंगे । भारत भारत बनेगा तो अपने आप विश्व के लिये उदाहरण प्रस्तुत करेगा । फूल जिस प्रकार होने से ही सुगन्ध बिखेरता है, सूर्य जैसे होने से ही प्रकाश फैलाता है उस प्रकार भारत भारत होने से ही ज्ञान के प्रकाश को फैलाकर अज्ञानजनित, मोहजनित भ्रान्तियों को दूर करता है। उसे कोई अलग से अभियान छेडने की आवश्यकता नहीं रहती।
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# मनुष्य के अलावा अन्य सभी पदार्थ, प्राणी, वनस्पति की स्वतन्त्रता सीमित है। यह सीमा परमात्मा ने स्वयं निश्चित की है। उदाहरण के लिये पंचमहाभूतों में प्राणशक्ति, विचारशक्ति, विवेकशक्ति आदि नहीं होती। परन्तु अपनी सीमित स्वतन्त्रता के अनुसार उनका जो स्वभाव बनता है उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं । उनके स्वभाव के विपरीत वे स्वयं व्यवहार नहीं करते परन्तु उनके लिये विपरीत व्यवहार करने की बाध्यता निर्माण की जाती है तब उनकी स्वतन्त्रता नष्ट होती है और वे दुःखी होते हैं । उनके दुःख की तरंगे वातावरण में प्रसृत होती हैं तब वातावरण भी दुःख का अनुभव करवाने वाला बनता है।  
 
# मनुष्य के अलावा अन्य सभी पदार्थ, प्राणी, वनस्पति की स्वतन्त्रता सीमित है। यह सीमा परमात्मा ने स्वयं निश्चित की है। उदाहरण के लिये पंचमहाभूतों में प्राणशक्ति, विचारशक्ति, विवेकशक्ति आदि नहीं होती। परन्तु अपनी सीमित स्वतन्त्रता के अनुसार उनका जो स्वभाव बनता है उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं । उनके स्वभाव के विपरीत वे स्वयं व्यवहार नहीं करते परन्तु उनके लिये विपरीत व्यवहार करने की बाध्यता निर्माण की जाती है तब उनकी स्वतन्त्रता नष्ट होती है और वे दुःखी होते हैं । उनके दुःख की तरंगे वातावरण में प्रसृत होती हैं तब वातावरण भी दुःख का अनुभव करवाने वाला बनता है।  
 
# मनुष्य को विचार, वाणी, भावना, बुद्धि, संस्कार क्षमता अनुभूति आदि की असीम स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है। इसके चलते उसका सामर्थ्य भी बहुत है। इस सामर्थ्य से उसे सबकी स्वतन्त्रता की हानि नहीं करनी चाहिये, उल्टे रक्षा करनी चाहिये ऐसा उसके लिये विधान है।
 
# मनुष्य को विचार, वाणी, भावना, बुद्धि, संस्कार क्षमता अनुभूति आदि की असीम स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है। इसके चलते उसका सामर्थ्य भी बहुत है। इस सामर्थ्य से उसे सबकी स्वतन्त्रता की हानि नहीं करनी चाहिये, उल्टे रक्षा करनी चाहिये ऐसा उसके लिये विधान है।
# मनुष्य कितने प्रकार से सृष्टि की स्वतन्त्रता का नाश करता है ? सिंह, बाघ आदि प्राणियों को मुक्त विहार अच्छा लगता है। उन्हें पिंजड़े में बन्द करना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है। इनका तथा खरगोश, हिरन, हाथी जैसे प्राणियों का शौक के लिये, आहार के लिये शिकार करना उनकी स्वतन्त्रता का तो क्या जीवन का ही नाश है इसलिये हिंसा भी है। प्रदर्शन के लिये, शृंगार के लिये, शौक के लिये तितली, मोर, तोता आदि पशुपक्षियों को पालतू बनाकर पिंजड़े में बन्द करना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है।  
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# मनुष्य कितने प्रकार से सृष्टि की स्वतन्त्रता का नाश करता है ? सिंह, बाघ आदि प्राणियों को मुक्त विहार अच्छा लगता है। उन्हें पिंजड़़े में बन्द करना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है। इनका तथा खरगोश, हिरन, हाथी जैसे प्राणियों का शौक के लिये, आहार के लिये शिकार करना उनकी स्वतन्त्रता का तो क्या जीवन का ही नाश है इसलिये हिंसा भी है। प्रदर्शन के लिये, शृंगार के लिये, शौक के लिये तितली, मोर, तोता आदि पशुपक्षियों को पालतू बनाकर पिंजड़़े में बन्द करना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है।  
 
# कुक्कुटयुद्ध, साँढयुद्ध, महिषयुद्ध आदि मनोरंजन के लिये उन्हें लडाना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है इसलिये हिंसा है। मक्खी, मच्छर, कीडों, मकोडों को बेतहाशा मारना उनके जीवन के अधिकार को नष्ट करना है। फूलों को कली हो तब तोडना, कच्चे फलों को तोडना, रास्ते चौडे करने हेतु वृक्षों को काटना, शोभा के लिये वृक्षों को बोनसाई करना उनकी स्वतन्त्र सत्ता का अपमान है।  
 
# कुक्कुटयुद्ध, साँढयुद्ध, महिषयुद्ध आदि मनोरंजन के लिये उन्हें लडाना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है इसलिये हिंसा है। मक्खी, मच्छर, कीडों, मकोडों को बेतहाशा मारना उनके जीवन के अधिकार को नष्ट करना है। फूलों को कली हो तब तोडना, कच्चे फलों को तोडना, रास्ते चौडे करने हेतु वृक्षों को काटना, शोभा के लिये वृक्षों को बोनसाई करना उनकी स्वतन्त्र सत्ता का अपमान है।  
 
# इसी प्रकार से मनुष्य सृष्टि की स्वतन्त्रता को बाधित करता है। परन्तु क्या वह मनुष्य को छोडता है ? नहीं, वह दूसरे मनुष्य को अपना दास बनाना चाहता है, अपने अधीन बनाना चाहता है, उससे अपना काम करवाना चाहता है। परन्तु जब हर मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपने अधीन बनाना चाहता है तब संघर्ष निर्माण होता है । एक वर्ग दूसरे वर्ग को, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को अपने अधीन बनाना चाहता है तब युद्ध होते हैं। विश्व का इतिहास ऐसे युद्धों के कथानकों से भरा हुआ है। अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा और दूसरों की स्वतन्त्रता का नाश यही दुनिया का दस्तूर बना हुआ है।  
 
# इसी प्रकार से मनुष्य सृष्टि की स्वतन्त्रता को बाधित करता है। परन्तु क्या वह मनुष्य को छोडता है ? नहीं, वह दूसरे मनुष्य को अपना दास बनाना चाहता है, अपने अधीन बनाना चाहता है, उससे अपना काम करवाना चाहता है। परन्तु जब हर मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपने अधीन बनाना चाहता है तब संघर्ष निर्माण होता है । एक वर्ग दूसरे वर्ग को, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को अपने अधीन बनाना चाहता है तब युद्ध होते हैं। विश्व का इतिहास ऐसे युद्धों के कथानकों से भरा हुआ है। अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा और दूसरों की स्वतन्त्रता का नाश यही दुनिया का दस्तूर बना हुआ है।  
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# स्वतन्त्रता का अर्थ है अपने तन्त्र से अर्थात् अपनी व्यवस्था से रहना, अपनी जिम्मेदारी से अपनी सारी वयवस्थायें करना । परन्तु व्यवहार में तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य स्वतन्त्र रह नहीं सकता। उसे अपना जीवन चलाने के लिये सृष्टि के अनेक पदार्थों पर निर्भर रहना पडता है, इतना ही नहीं तो अन्य मनुष्यों से भी अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता पडती है । ऐसी स्थिति में हर मनुष्य की स्वतन्त्रता की रक्षा कैसे होगी ?  
 
# स्वतन्त्रता का अर्थ है अपने तन्त्र से अर्थात् अपनी व्यवस्था से रहना, अपनी जिम्मेदारी से अपनी सारी वयवस्थायें करना । परन्तु व्यवहार में तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य स्वतन्त्र रह नहीं सकता। उसे अपना जीवन चलाने के लिये सृष्टि के अनेक पदार्थों पर निर्भर रहना पडता है, इतना ही नहीं तो अन्य मनुष्यों से भी अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता पडती है । ऐसी स्थिति में हर मनुष्य की स्वतन्त्रता की रक्षा कैसे होगी ?  
 
# भारत ने इसे व्यवहार्य बनाने के लिये अनेक नीति निर्देश निश्चित किये हैं। उदाहरण के लिये सृष्टि के साथ का व्यवहार प्रेम, कृतज्ञता, शोषण नहीं अपितु दोहन और रक्षण के आधार पर व्यवस्थित किया जाता है। एक मनुष्य दूसरे का सहयोग स्नेह, वात्सल्य, सख्य, दया, आदर, श्रद्धा आदि के आधार पर करता है तभी स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। अन्यथा वह विवशता बन जाती है। विवशता से, भय से, लोभ लालच से किसी का काम करना गुलामी है।  
 
# भारत ने इसे व्यवहार्य बनाने के लिये अनेक नीति निर्देश निश्चित किये हैं। उदाहरण के लिये सृष्टि के साथ का व्यवहार प्रेम, कृतज्ञता, शोषण नहीं अपितु दोहन और रक्षण के आधार पर व्यवस्थित किया जाता है। एक मनुष्य दूसरे का सहयोग स्नेह, वात्सल्य, सख्य, दया, आदर, श्रद्धा आदि के आधार पर करता है तभी स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। अन्यथा वह विवशता बन जाती है। विवशता से, भय से, लोभ लालच से किसी का काम करना गुलामी है।  
# एक राष्ट्र अपने स्वभाव के अनुसार अपनी व्यवस्थायें बनाता है और स्वतन्त्रता पूर्वक रहता है। परन्तु विश्व में ऐसे कई राष्ट्र हैं जो दूसरे राष्ट्रों की स्वतन्त्रता का नाश करने पर तुले रहते हैं । इस कारण से होने वाले आक्रमणों और युद्धों के वर्णनों से इतिहास के पृष्ठ भरे पडे है।  
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# एक राष्ट्र अपने स्वभाव के अनुसार अपनी व्यवस्थायें बनाता है और स्वतन्त्रता पूर्वक रहता है। परन्तु विश्व में ऐसे कई राष्ट्र हैं जो दूसरे राष्ट्रों की स्वतन्त्रता का नाश करने पर तुले रहते हैं । इस कारण से होने वाले आक्रमणों और युद्धों के वर्णनों से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े है।  
 
# स्वतन्त्रता के अनेक आयाम हैं। एक है राजकीय स्वतन्त्रता। व्यक्तियों, समाजों, राष्ट्रों के लिये आर्थिक, साम्प्रदायिक, सामाजिक, शासनिक ऐसे अनेक प्रकार हैं। आज भारत में व्यक्तियों की भी आर्थिक स्वतन्त्रता छिन गई है और विश्व में भारत की स्वतन्त्रता दाँव पर लगी हुई है। कहने को तो भारत सार्वभौम प्रजासत्ताक स्वतन्त्र राष्ट्र है परन्तु सम्पूर्ण राष्ट्र यूरोअमेरिकी तन्त्र से चलता है, उसके प्रभाव से ग्रस्त है।  
 
# स्वतन्त्रता के अनेक आयाम हैं। एक है राजकीय स्वतन्त्रता। व्यक्तियों, समाजों, राष्ट्रों के लिये आर्थिक, साम्प्रदायिक, सामाजिक, शासनिक ऐसे अनेक प्रकार हैं। आज भारत में व्यक्तियों की भी आर्थिक स्वतन्त्रता छिन गई है और विश्व में भारत की स्वतन्त्रता दाँव पर लगी हुई है। कहने को तो भारत सार्वभौम प्रजासत्ताक स्वतन्त्र राष्ट्र है परन्तु सम्पूर्ण राष्ट्र यूरोअमेरिकी तन्त्र से चलता है, उसके प्रभाव से ग्रस्त है।  
 
# शासन, प्रशासन, संविधान, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था, न्यायव्यवस्था, कानून, उद्योगतन्त्र सबके सब यूरोअमेरिकी तन्त्र से ही चल रहे हैं । यह हमारे स्वभाव से, सिद्धान्त से और परम्परा से विरुद्ध है तो भी चल रहा है।  
 
# शासन, प्रशासन, संविधान, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था, न्यायव्यवस्था, कानून, उद्योगतन्त्र सबके सब यूरोअमेरिकी तन्त्र से ही चल रहे हैं । यह हमारे स्वभाव से, सिद्धान्त से और परम्परा से विरुद्ध है तो भी चल रहा है।  
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# रात्रि में उचित समय पर उचित पद्धति से पर्याप्त नींद लेना और प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में जगना भी प्राणशक्ति के विकास के लिये आवश्यक है । कितनी छोटी छोटी बातों का हमने त्याग किया है और उसका कितना खामियाजा भुगत रहे हैं इसका हमें लेश मात्र ज्ञान नहीं है।  
 
# रात्रि में उचित समय पर उचित पद्धति से पर्याप्त नींद लेना और प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में जगना भी प्राणशक्ति के विकास के लिये आवश्यक है । कितनी छोटी छोटी बातों का हमने त्याग किया है और उसका कितना खामियाजा भुगत रहे हैं इसका हमें लेश मात्र ज्ञान नहीं है।  
 
# ये तो शारीरिक स्तर की भौतिक बातें हई। परन्तु इनके साथ हमें अपने इतिहास को जानना चाहिये, अपने पूर्वजों को जानना चाहिये, अपने महापुरुषों को जानना चाहिये और अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करना चाहिये।  
 
# ये तो शारीरिक स्तर की भौतिक बातें हई। परन्तु इनके साथ हमें अपने इतिहास को जानना चाहिये, अपने पूर्वजों को जानना चाहिये, अपने महापुरुषों को जानना चाहिये और अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करना चाहिये।  
# हमारे पूर्वज विश्व के सभी देशों में गये हैं और जहाँ गये वहाँ के लोगों का भला किया है। हम उनके सीधे वारिस हैं। हम क्यों ऐसा नहीं कर सकते ? हममें क्या कमी है ? हम जहाँ जायेंगे वहाँ अपने साथ शुभभावना लेकर जायेंगे और जीतेंगे। ऐसी भावना का विकास करना चाहिये ।  
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# हमारे पूर्वज विश्व के सभी देशों में गये हैं और जहाँ गये वहाँ के लोगोंं का भला किया है। हम उनके सीधे वारिस हैं। हम क्यों ऐसा नहीं कर सकते ? हममें क्या कमी है ? हम जहाँ जायेंगे वहाँ अपने साथ शुभभावना लेकर जायेंगे और जीतेंगे। ऐसी भावना का विकास करना चाहिये ।  
 
# हमारा इतिहास यदि इतना समृद्ध है, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में हमने यदि इतनी सिद्धि प्राप्त की है तो हम विजयी ही होंगे ऐसा विश्वास हमें जाग्रत करना है। हम प्रयास करें और यशस्वी न हों ऐसा हो ही नहीं सकता।  
 
# हमारा इतिहास यदि इतना समृद्ध है, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में हमने यदि इतनी सिद्धि प्राप्त की है तो हम विजयी ही होंगे ऐसा विश्वास हमें जाग्रत करना है। हम प्रयास करें और यशस्वी न हों ऐसा हो ही नहीं सकता।  
 
# ऐसा मनोभाव स्थिर करने के लिये हमें अपने आपको कसना होगा । हमारी बुद्धि, हमारा साहस, हमारा बल कसा जाने की आवश्यकता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों की परीक्षाओं में हम आसान प्रश्नों के उत्तर लिखकर उत्तीर्ण न हों । गणित जैसे विषयों में सौ प्रतिशत से कम अंकों से हम सन्तुष्ट न हों । जीवन की परीक्षा में भी हम मुसीबतों से बचकर चलने का प्रयास न करें। तभी हम विजीगीषु मनोवृत्ति का विकास कर सकते हैं।  
 
# ऐसा मनोभाव स्थिर करने के लिये हमें अपने आपको कसना होगा । हमारी बुद्धि, हमारा साहस, हमारा बल कसा जाने की आवश्यकता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों की परीक्षाओं में हम आसान प्रश्नों के उत्तर लिखकर उत्तीर्ण न हों । गणित जैसे विषयों में सौ प्रतिशत से कम अंकों से हम सन्तुष्ट न हों । जीवन की परीक्षा में भी हम मुसीबतों से बचकर चलने का प्रयास न करें। तभी हम विजीगीषु मनोवृत्ति का विकास कर सकते हैं।  

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