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==== १. अंग्रेजी और अंग्रेजियत से मुक्ति ====
 
==== १. अंग्रेजी और अंग्रेजियत से मुक्ति ====
कल्पना करें कि एक ही रात्रि में ऐसा कोई चमत्कार घटित हो जाय कि किसी भी भारतीय को अंग्रेजी जैसा कुछ है इसका लेशमात्र स्मरण न हो । अंग्रेजी अखबार उसे समझ में न आये, अंग्रेजी चैनल उसे बडबड लगे, अंग्रेजी शब्द उसके शब्दकोष से गायब हो जाय, अंग्रेजी पुस्तकें उसे रद्दी में फैंकने लायक लगें।
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कल्पना करें कि एक ही रात्रि में ऐसा कोई चमत्कार घटित हो जाय कि किसी भी धार्मिक को अंग्रेजी जैसा कुछ है इसका लेशमात्र स्मरण न हो । अंग्रेजी अखबार उसे समझ में न आये, अंग्रेजी चैनल उसे बडबड लगे, अंग्रेजी शब्द उसके शब्दकोष से गायब हो जाय, अंग्रेजी पुस्तकें उसे रद्दी में फैंकने लायक लगें।
    
केवल अपने घर से ही नहीं तो घर के बाहर दकानों के फलक, रेल स्थानकों के नाम, रास्तों के नाम हिन्दी में ही लिखे मिलें । कार्यालय से अंग्रेजी गायब, ग्रन्थालयों से अंग्रेजी पुस्तकें गायब ।
 
केवल अपने घर से ही नहीं तो घर के बाहर दकानों के फलक, रेल स्थानकों के नाम, रास्तों के नाम हिन्दी में ही लिखे मिलें । कार्यालय से अंग्रेजी गायब, ग्रन्थालयों से अंग्रेजी पुस्तकें गायब ।
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हमें तुरन्त लगेगा कि हम पाँच सौ वर्ष पिछड जायेंगे। आगे बढ़ने की और पिछड जाने की पश्चिम की
 
हमें तुरन्त लगेगा कि हम पाँच सौ वर्ष पिछड जायेंगे। आगे बढ़ने की और पिछड जाने की पश्चिम की
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और हमारी संकल्पना में पूर्व पश्चिम जैसा ही अन्तर है। हमारा समय सत्ययुग से शुरू होता है और कलियुग की ओर बढता है। बढ़ते बढते सृष्टि के पदार्थों और मनुष्य के सत्त्व का क्षरण होता जाता है । इसलिये पाँच सौ वर्ष पूर्व जाना हमारे लिये तो आज की तुलना में अच्छे समय में जाना होगा । यूरोप के लिये समय के साथ विकास होता जाता है इसलिये पीछे जाने को वे पिछड जाना कहते हैं । हम उनके प्रभाव में पाँच सौ वर्ष पूर्व जाने को पिछड जाना कहते हैं।
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और हमारी संकल्पना में पूर्व पश्चिम जैसा ही अन्तर है। हमारा समय सत्ययुग से आरम्भ होता है और कलियुग की ओर बढता है। बढ़ते बढते सृष्टि के पदार्थों और मनुष्य के सत्त्व का क्षरण होता जाता है । इसलिये पाँच सौ वर्ष पूर्व जाना हमारे लिये तो आज की तुलना में अच्छे समय में जाना होगा । यूरोप के लिये समय के साथ विकास होता जाता है इसलिये पीछे जाने को वे पिछड जाना कहते हैं । हम उनके प्रभाव में पाँच सौ वर्ष पूर्व जाने को पिछड जाना कहते हैं।
    
हमारे लिये यह पाँचसो वर्ष का काल एक दुःस्वप्न जैसा है, हमारी सारी समृद्धि लुट जाने का है, सारी व्यवस्थाओं के नष्ट हो जाने का है, हीनताबोध से ग्रस्त हो जाने का है, हमारी ज्ञान परम्परा के खण्डित हो जाने का है। क्या इस काल को भूल जाना हम नहीं चाहेंगे ? क्या पाँच सौ वर्ष पूर्व जैसे थे वैसे बनना नहीं चाहेंगे ?
 
हमारे लिये यह पाँचसो वर्ष का काल एक दुःस्वप्न जैसा है, हमारी सारी समृद्धि लुट जाने का है, सारी व्यवस्थाओं के नष्ट हो जाने का है, हीनताबोध से ग्रस्त हो जाने का है, हमारी ज्ञान परम्परा के खण्डित हो जाने का है। क्या इस काल को भूल जाना हम नहीं चाहेंगे ? क्या पाँच सौ वर्ष पूर्व जैसे थे वैसे बनना नहीं चाहेंगे ?
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परन्तु जब तक हम इस मोह से मुक्त नहीं होते तब तक हम गुलामी से भी मुक्त नहीं हो सकते ।
 
परन्तु जब तक हम इस मोह से मुक्त नहीं होते तब तक हम गुलामी से भी मुक्त नहीं हो सकते ।
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क्या भारतीय ज्ञानधारा जिन ग्रन्थों में सुरक्षित है ऐसे वेद उपनिषद नहीं पढने से तो हमें कोई नुकसान नहीं होता परन्तु पश्चिम के विद्वानों को पढे बिना हमारा ज्ञान अधूरा है ऐसा ही, हमें लगता है ? क्या भगवद्गीता अंग्रेजी में पढना पर्याप्त हैं परन्तु काण्ट, हेगेल, न्यूटन या एरिस्टोटल मूल अंग्रेजी में पढना अनिवार्य है ऐसा ही हम मानते हैं ? क्या अंग्रेजी नहीं जानने वाले भारत के विद्वान विद्वान नहीं माने जाते क्योंकि पश्चिम उन्हें स्वीकार नहीं करता परन्तु संस्कृत नहीं जानने वाले का ज्ञान अधूरा है ऐसा हमें लगता है ?
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क्या धार्मिक ज्ञानधारा जिन ग्रन्थों में सुरक्षित है ऐसे वेद उपनिषद नहीं पढने से तो हमें कोई नुकसान नहीं होता परन्तु पश्चिम के विद्वानों को पढे बिना हमारा ज्ञान अधूरा है ऐसा ही, हमें लगता है ? क्या भगवद्गीता अंग्रेजी में पढना पर्याप्त हैं परन्तु काण्ट, हेगेल, न्यूटन या एरिस्टोटल मूल अंग्रेजी में पढना अनिवार्य है ऐसा ही हम मानते हैं ? क्या अंग्रेजी नहीं जानने वाले भारत के विद्वान विद्वान नहीं माने जाते क्योंकि पश्चिम उन्हें स्वीकार नहीं करता परन्तु संस्कृत नहीं जानने वाले का ज्ञान अधूरा है ऐसा हमें लगता है ?
    
आज के जमाने में अंग्रेजी के बिना नहीं चलता ऐसा कहने का क्या व्यावहारिक अर्थ है ? क्या काम नहीं चलता ऐसे प्रश्न का कोई बुद्धिगम्य उत्तर हमारे पास नहीं होता तो भी हम अंग्रेजी चाहते हैं ।
 
आज के जमाने में अंग्रेजी के बिना नहीं चलता ऐसा कहने का क्या व्यावहारिक अर्थ है ? क्या काम नहीं चलता ऐसे प्रश्न का कोई बुद्धिगम्य उत्तर हमारे पास नहीं होता तो भी हम अंग्रेजी चाहते हैं ।
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परन्तु इस दो चार प्रतिशत वाले समूह को तर्क से या भावना से समझाना कठिन ही नहीं, असम्भव है। इसलिये अब कोई दूसरा मार्ग ढूँढना चाहिये ।  
 
परन्तु इस दो चार प्रतिशत वाले समूह को तर्क से या भावना से समझाना कठिन ही नहीं, असम्भव है। इसलिये अब कोई दूसरा मार्ग ढूँढना चाहिये ।  
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क्या हो सकता है दुसरा मार्ग ? देश के नब्बे प्रतिशत लोग बिना अंग्रेजी के अपना काम चला लेते हैं। अनजाने में भी वे भारतीय हैं। वे पिछडे, अनपढ, गँवार, निर्धन, असंस्कारी माने जाते हैं परन्तु भारत की परम्परा, भारत की संस्कृति, भारत का स्वत्व उनका ही आश्रय करके रहता है। वनवासी, चाय के ठेले वाले. रेलवे स्थानक के कुली, रिक्षा चलाने वाले, किसान, मजदूर आदि सब भारतीय जीवनमूल्यों के साथ जी रहे हैं । परम्परा से प्राप्त ज्ञान और कौशल आज भी उनके पास है। आज भी वे भलाई के काम करते हैं। वे संस्कृत नहीं जानते, देश दनिया की स्थिति नहीं जानते, अंग्रेजी भी नहीं जानते, देशभक्ति जैसी संकल्पना नहीं जानते, वे विद्वान नहीं हैं परन्तु आत्मीयता, प्राणियों के प्रति दया, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता उनमें है ।
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क्या हो सकता है दुसरा मार्ग ? देश के नब्बे प्रतिशत लोग बिना अंग्रेजी के अपना काम चला लेते हैं। अनजाने में भी वे धार्मिक हैं। वे पिछडे, अनपढ, गँवार, निर्धन, असंस्कारी माने जाते हैं परन्तु भारत की परम्परा, भारत की संस्कृति, भारत का स्वत्व उनका ही आश्रय करके रहता है। वनवासी, चाय के ठेले वाले. रेलवे स्थानक के कुली, रिक्षा चलाने वाले, किसान, मजदूर आदि सब धार्मिक जीवनमूल्यों के साथ जी रहे हैं । परम्परा से प्राप्त ज्ञान और कौशल आज भी उनके पास है। आज भी वे भलाई के काम करते हैं। वे संस्कृत नहीं जानते, देश दनिया की स्थिति नहीं जानते, अंग्रेजी भी नहीं जानते, देशभक्ति जैसी संकल्पना नहीं जानते, वे विद्वान नहीं हैं परन्तु आत्मीयता, प्राणियों के प्रति दया, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता उनमें है ।
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इनके भरोसे भारतीयता की प्रतिष्ठा की जा सकती है । प्रश्न यह है कि हम कहाँ हैं ? कहाँ रहना चाहते हैं ? हम इन दो चार प्रतिशत के लिये हैं या नब्बे प्रतिशत के लिये ? हम इस छोटे वर्ग में रहकर नब्बे के साथ काम करना चाहते हैं कि उनके साथ हो जाना चाहते हैं ?
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इनके भरोसे धार्मिकता की प्रतिष्ठा की जा सकती है । प्रश्न यह है कि हम कहाँ हैं ? कहाँ रहना चाहते हैं ? हम इन दो चार प्रतिशत के लिये हैं या नब्बे प्रतिशत के लिये ? हम इस छोटे वर्ग में रहकर नब्बे के साथ काम करना चाहते हैं कि उनके साथ हो जाना चाहते हैं ?
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भारत की भारतीयता और उसकी प्रतिष्ठा चाहने वालों को स्वयं भी स्पष्ट होने की आवश्यकता है। अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के आभामण्डल से मुक्त होने पर ही हमारा मार्ग साफ होने वाला है।
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भारत की धार्मिकता और उसकी प्रतिष्ठा चाहने वालों को स्वयं भी स्पष्ट होने की आवश्यकता है। अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के आभामण्डल से मुक्त होने पर ही हमारा मार्ग साफ होने वाला है।
    
==== २. ज्ञानात्मक हल ढूंढने की प्रवृत्ति ====
 
==== २. ज्ञानात्मक हल ढूंढने की प्रवृत्ति ====
विश्व को संकटों से मुक्त करना है तो भारत को अग्रसर होना होगा, पथप्रदर्शक बनना होगा इसमें न तो विश्व को सन्देह है न भारत को । भारत को सन्देह होना भी नहीं चाहिये । परन्तु आज भारत जैसा है वैसा तो पथप्रदर्शक नहीं बन सकता । आज भारत स्वयं पश्चिम की छाया में जी रहा है, यूरोप बनने की आकांक्षा पाल रहा है, प्रयास कर रहा है। स्वयं के लिये और विश्व के लिये भारत को बदलना पडेगा। भारत को भारत बनना होगा । ऐसा करके ही वह अपनी भूमिका निभा सकेगा।
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विश्व को संकटों से मुक्त करना है तो भारत को अग्रसर होना होगा, पथप्रदर्शक बनना होगा इसमें न तो विश्व को सन्देह है न भारत को । भारत को सन्देह होना भी नहीं चाहिये । परन्तु आज भारत जैसा है वैसा तो पथप्रदर्शक नहीं बन सकता । आज भारत स्वयं पश्चिम की छाया में जी रहा है, यूरोप बनने की आकांक्षा पाल रहा है, प्रयास कर रहा है। स्वयं के लिये और विश्व के लिये भारत को बदलना पड़ेगा। भारत को भारत बनना होगा । ऐसा करके ही वह अपनी भूमिका निभा सकेगा।
    
भारत भारत बने इसका अर्थ क्या है ? वह कैसे होगा ? भारत को क्या करना होगा ?  
 
भारत भारत बने इसका अर्थ क्या है ? वह कैसे होगा ? भारत को क्या करना होगा ?  
 
# भारत ज्ञान का देश है। भारत संज्ञा का अर्थ है भा में रत अर्थात् प्रकाश में रत । ज्ञान के प्रकाश में रत रहना भारत का स्वभाव है। इसलिये भारत को सर्वप्रथम ज्ञान की उपासना करनी चाहिये, ज्ञान की साधना करनी चाहिये । ज्ञानयुक्त व्यवहार कर ज्ञान की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। तभी उसका भारत नाम सार्थक होगा।   
 
# भारत ज्ञान का देश है। भारत संज्ञा का अर्थ है भा में रत अर्थात् प्रकाश में रत । ज्ञान के प्रकाश में रत रहना भारत का स्वभाव है। इसलिये भारत को सर्वप्रथम ज्ञान की उपासना करनी चाहिये, ज्ञान की साधना करनी चाहिये । ज्ञानयुक्त व्यवहार कर ज्ञान की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। तभी उसका भारत नाम सार्थक होगा।   
 
# भारत को राष्ट्रजीवन की हो या विश्वजीवन की, समस्याओं को, संकटों को ज्ञान के प्रकाश में देखना और समझना चाहिये । ज्ञान ही सर्व उपायों में सर्वश्रेष्ठ है, पवित्र है इसलिये ज्ञानात्मक हल भी सर्वंकष और स्थायी होते हैं, अन्य तत्काल और अधूरे सिद्ध होते है।  
 
# भारत को राष्ट्रजीवन की हो या विश्वजीवन की, समस्याओं को, संकटों को ज्ञान के प्रकाश में देखना और समझना चाहिये । ज्ञान ही सर्व उपायों में सर्वश्रेष्ठ है, पवित्र है इसलिये ज्ञानात्मक हल भी सर्वंकष और स्थायी होते हैं, अन्य तत्काल और अधूरे सिद्ध होते है।  
# आज भारत के विभिन्न समूह और विश्व के विभिन्न देश किसी भी संकट का या समस्या का हल राजनीतिक या आर्थिक हल ढूँढते हैं। अनेक बार इसका स्वरूप प्रकट या प्रच्छन्न रूप से सामरिक होता है। प्रकट रूप से देशों के बीच युद्ध होते हैं, प्रच्छन्न रूप से घुसपैठ और आतंकवाद का सहारा लिया जाता है। इन सारे उपायों का त्याग कर ज्ञानात्मक हल ढूँढना भारत का काम है, भारत का वह स्वभाव
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# आज भारत के विभिन्न समूह और विश्व के विभिन्न देश किसी भी संकट का या समस्या का हल राजनीतिक या आर्थिक हल ढूँढते हैं। अनेक बार इसका स्वरूप प्रकट या प्रच्छन्न रूप से सामरिक होता है। प्रकट रूप से देशों के मध्य युद्ध होते हैं, प्रच्छन्न रूप से घुसपैठ और आतंकवाद का सहारा लिया जाता है। इन सारे उपायों का त्याग कर ज्ञानात्मक हल ढूँढना भारत का काम है, भारत का वह स्वभाव
 
# ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है।  
 
# ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है।  
 
# बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं।  
 
# बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं।  
# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य शुरू करे और चल रहे कार्य में जुडे यह आवश्यक है।  
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# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य आरम्भ करे और चल रहे कार्य में जुड़े यह आवश्यक है।  
 
# ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा।  
 
# ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा।  
 
# सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं।
 
# सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं।
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# साथ ही बुद्धि को उदार भी होना चाहिये । उदारता केवल बुद्धि का नहीं तो सम्पूर्ण चरित्र का गुण है। चरित्र की उदारता के बिना बुद्धि भी उदार नहीं बन सकती। बुद्धि उदार नहीं बनती तबतक सब का कल्याण किसमें है यह भी नहीं देख सकती । उदार बुद्धि उदार अन्तःकरण का ही एक हिस्सा है ।  
 
# साथ ही बुद्धि को उदार भी होना चाहिये । उदारता केवल बुद्धि का नहीं तो सम्पूर्ण चरित्र का गुण है। चरित्र की उदारता के बिना बुद्धि भी उदार नहीं बन सकती। बुद्धि उदार नहीं बनती तबतक सब का कल्याण किसमें है यह भी नहीं देख सकती । उदार बुद्धि उदार अन्तःकरण का ही एक हिस्सा है ।  
 
# भारत के लिये यह कार्य नया नहीं है। अपने दीर्घ इतिहास में अनेक बार ऐसा कार्य भारतने किया है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व का तक्षशिला विद्यापीठ और उसके एक सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ आचार्य विष्णुगुप्त ने अग्रसर होकर राष्ट्र पर आये संकट का निवारण ज्ञान को कृति में परिणत करके ही किया था।  
 
# भारत के लिये यह कार्य नया नहीं है। अपने दीर्घ इतिहास में अनेक बार ऐसा कार्य भारतने किया है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व का तक्षशिला विद्यापीठ और उसके एक सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ आचार्य विष्णुगुप्त ने अग्रसर होकर राष्ट्र पर आये संकट का निवारण ज्ञान को कृति में परिणत करके ही किया था।  
# विश्व के संकटों का ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये प्रथम ज्ञान पर छाये पश्चिमी मानसिकता के बादलों को दूर करना पड़ेगा। ऐसा करने हेतु पश्चिमी जीवनविचार समझकर भारतीय ज्ञानदृष्टि से उसे परखकर, भारत के मानस पर हुए उसके प्रभाव को तोल कर उपाय योजना करनी होगी। उपाययोजना करने हेतु बुद्धि को व्यावहारिक धरातल पर कार्यरत होना होगा।  
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# विश्व के संकटों का ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये प्रथम ज्ञान पर छाये पश्चिमी मानसिकता के बादलों को दूर करना पड़ेगा। ऐसा करने हेतु पश्चिमी जीवनविचार समझकर धार्मिक ज्ञानदृष्टि से उसे परखकर, भारत के मानस पर हुए उसके प्रभाव को तोल कर उपाय योजना करनी होगी। उपाययोजना करने हेतु बुद्धि को व्यावहारिक धरातल पर कार्यरत होना होगा।  
 
# ज्ञान के क्षेत्र में अध्यात्म, धर्म, संस्कृति आदि संकल्पनाओं को जोडना होगा। आज इन सब का नाम लेने में विद्वत्क्षेत्र को डर सा लगता है । डर नहीं तो संकोच तो लगता ही है। । कोई इसे मानेगा कि नहीं, इसका स्वीकार करेगा कि नहीं ऐसी आशंका बनी रहती है । समुचित चिन्तन से इन आशंकाओं को दूर कर इन संकल्पनाओं की प्रतिष्ठा करनी होगी।  
 
# ज्ञान के क्षेत्र में अध्यात्म, धर्म, संस्कृति आदि संकल्पनाओं को जोडना होगा। आज इन सब का नाम लेने में विद्वत्क्षेत्र को डर सा लगता है । डर नहीं तो संकोच तो लगता ही है। । कोई इसे मानेगा कि नहीं, इसका स्वीकार करेगा कि नहीं ऐसी आशंका बनी रहती है । समुचित चिन्तन से इन आशंकाओं को दूर कर इन संकल्पनाओं की प्रतिष्ठा करनी होगी।  
 
# ऐसा करने के लिये दैनन्दिन व्यवहार के साथ इन संकल्पनाओं को जोडना होगा । इस भ्रान्त धारणा का निरसन करना होगा कि अध्यात्म और दैनन्दिन व्यवहार, अध्यात्म और भौतिक विकास का कोई सम्बन्ध नहीं है या है तो विपरीत सम्बन्ध है।  
 
# ऐसा करने के लिये दैनन्दिन व्यवहार के साथ इन संकल्पनाओं को जोडना होगा । इस भ्रान्त धारणा का निरसन करना होगा कि अध्यात्म और दैनन्दिन व्यवहार, अध्यात्म और भौतिक विकास का कोई सम्बन्ध नहीं है या है तो विपरीत सम्बन्ध है।  
# भारत को यदि ज्ञानात्मक हल ढूँढने हैं तो वह ज्ञान भारतीय ही होगा इसमें तो कोई सन्देह नहीं । इसके चलते आध्यात्मिक समाजशास्त्र, आध्यात्मिक अर्थशास्त्र, आध्यात्मिक भौतिकशास्त्र जैसी संज्ञाओं का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं करना चाहिये । अर्थात् यह आवश्यक है कि इसकी सरल भाषा में स्पष्टता तो करनी ही चाहिये ।  
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# भारत को यदि ज्ञानात्मक हल ढूँढने हैं तो वह ज्ञान धार्मिक ही होगा इसमें तो कोई सन्देह नहीं । इसके चलते आध्यात्मिक समाजशास्त्र, आध्यात्मिक अर्थशास्त्र, आध्यात्मिक भौतिकशास्त्र जैसी संज्ञाओं का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं करना चाहिये । अर्थात् यह आवश्यक है कि इसकी सरल भाषा में स्पष्टता तो करनी ही चाहिये ।  
 
# भारत को ज्ञानात्मक हल ढूँढने है तो मनुष्य के व्यवहार और विचारों के स्रोत क्या होते हैं इसका भी विश्लेषण करना होगा । उदाहरण के लिये मनुष्य स्त्री पर बलात्कार क्यों करता है या शिक्षित, बुद्धिमान, सम्पन्न घर का मुसलमान युवक आतंकवादी क्यों बनता है या पर्यावरण का प्रदूषण करने के लिये मनुष्य क्यों संकोच नहीं करता है यह समझने के लिये, इसके मूल में जाकर कारगर उपाय योजना करने के लिये मनोविज्ञान, इतिहास, संस्कृति आदि का अध्ययन करना होगा, केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा।  
 
# भारत को ज्ञानात्मक हल ढूँढने है तो मनुष्य के व्यवहार और विचारों के स्रोत क्या होते हैं इसका भी विश्लेषण करना होगा । उदाहरण के लिये मनुष्य स्त्री पर बलात्कार क्यों करता है या शिक्षित, बुद्धिमान, सम्पन्न घर का मुसलमान युवक आतंकवादी क्यों बनता है या पर्यावरण का प्रदूषण करने के लिये मनुष्य क्यों संकोच नहीं करता है यह समझने के लिये, इसके मूल में जाकर कारगर उपाय योजना करने के लिये मनोविज्ञान, इतिहास, संस्कृति आदि का अध्ययन करना होगा, केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा।  
 
# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञान के स्वरूप को भी सम्यक् रूप में जानना होगा । जैसा कि पूर्व के ग्रन्थों में स्पष्ट किया गया है जानकारी, क्रिया, इन्द्रियानुभव, विचार, कल्पना, भावना, विवेक, संस्कार, अनुभूति आदि सब ज्ञान के ही स्वरूप हैं और विभिन्न सन्दर्भो में इनमें से किसी न किसी की प्रमुख भूमिका रहती है। इन सभी स्वरूपों का विनियोग कैसे करना इसका चिन्तन करना चाहिये ।  
 
# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञान के स्वरूप को भी सम्यक् रूप में जानना होगा । जैसा कि पूर्व के ग्रन्थों में स्पष्ट किया गया है जानकारी, क्रिया, इन्द्रियानुभव, विचार, कल्पना, भावना, विवेक, संस्कार, अनुभूति आदि सब ज्ञान के ही स्वरूप हैं और विभिन्न सन्दर्भो में इनमें से किसी न किसी की प्रमुख भूमिका रहती है। इन सभी स्वरूपों का विनियोग कैसे करना इसका चिन्तन करना चाहिये ।  
 
# ज्ञान के व्यवहार में दो पक्ष होते हैं। एक सिद्धान्त का और दसरा व्यवहार का । सिद्धान्त का पक्ष समझ स्पष्ट करने के लिये और व्यवहार का पक्ष क्रियात्मक योजना बनाने के लिये होता है।
 
# ज्ञान के व्यवहार में दो पक्ष होते हैं। एक सिद्धान्त का और दसरा व्यवहार का । सिद्धान्त का पक्ष समझ स्पष्ट करने के लिये और व्यवहार का पक्ष क्रियात्मक योजना बनाने के लिये होता है।
 
# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये शास्त्रग्रन्थों को और लोकपरम्पराओं को आधार मानना चाहिये । साथ ही सद्यस्थिति का सम्यक् आकलन भी करना चाहिये । यह सब करते समय उदार, निष्पक्षपाती, करुणापूर्ण अन्तःकरण युक्त परन्तु निश्चयी भी होना चाहिये । करुणा ऐसी नहीं हो सकती कि असत्य के प्रति कठोर न हो सके और उदार ऐसे नहीं कि अपना है इसलिये दण्ड न दे अथवा मृदु दण्ड दे।  
 
# ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये शास्त्रग्रन्थों को और लोकपरम्पराओं को आधार मानना चाहिये । साथ ही सद्यस्थिति का सम्यक् आकलन भी करना चाहिये । यह सब करते समय उदार, निष्पक्षपाती, करुणापूर्ण अन्तःकरण युक्त परन्तु निश्चयी भी होना चाहिये । करुणा ऐसी नहीं हो सकती कि असत्य के प्रति कठोर न हो सके और उदार ऐसे नहीं कि अपना है इसलिये दण्ड न दे अथवा मृदु दण्ड दे।  
# ज्ञानात्मक हल ढूँढ सके ऐसे लोगों को तैयार करना एक आवश्यकता है और समस्त प्रजा सत्य और धर्म का आग्रह रखनेवाली हो यह दसरा पक्ष है। इन दोनों पक्षों की शिक्षा की व्यवस्था करने से संकटों का ज्ञानात्मक निवारण सम्भव होता है।
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# ज्ञानात्मक हल ढूँढ सके ऐसे लोगोंं को तैयार करना एक आवश्यकता है और समस्त प्रजा सत्य और धर्म का आग्रह रखनेवाली हो यह दसरा पक्ष है। इन दोनों पक्षों की शिक्षा की व्यवस्था करने से संकटों का ज्ञानात्मक निवारण सम्भव होता है।
    
==== ३. पवित्रता की रक्षा ====
 
==== ३. पवित्रता की रक्षा ====
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# एक खास बात यह है कि पवित्र वस्तुओं का व्यापार नहीं किया जाता। भारत की यह विशेष परम्परा रही है। अन्न, पानी, हवा, अग्नि आदि क्रियविक्रय के लिये नहीं हैं। ज्ञान, कला, सेवा भी पैसे के लेनदेन से मुक्त हैं । ग्रन्थ का पैसा उसके कागज और मुद्रण का होता है, उसमें संग्रहित ज्ञान का नहीं । कला की प्रस्तुति पैसे के कारण अच्छी या निकृष्ट नहीं होती। पढाना भी पैसे से नहीं होता।  
 
# एक खास बात यह है कि पवित्र वस्तुओं का व्यापार नहीं किया जाता। भारत की यह विशेष परम्परा रही है। अन्न, पानी, हवा, अग्नि आदि क्रियविक्रय के लिये नहीं हैं। ज्ञान, कला, सेवा भी पैसे के लेनदेन से मुक्त हैं । ग्रन्थ का पैसा उसके कागज और मुद्रण का होता है, उसमें संग्रहित ज्ञान का नहीं । कला की प्रस्तुति पैसे के कारण अच्छी या निकृष्ट नहीं होती। पढाना भी पैसे से नहीं होता।  
 
# पवित्र पदार्थों का क्षुद्र हेतुओं के लिये उपयोग नहीं किया जाता। उनके विषय में घटिया बातें नहीं की जातीं। उनके साथ घटिया व्यवहार नहीं किया जाता । उनकी अवमानना नहीं की जाती।  
 
# पवित्र पदार्थों का क्षुद्र हेतुओं के लिये उपयोग नहीं किया जाता। उनके विषय में घटिया बातें नहीं की जातीं। उनके साथ घटिया व्यवहार नहीं किया जाता । उनकी अवमानना नहीं की जाती।  
# ऐसे व्यवहार के व्यावहारिक परिणाम बहुत अच्छे होते हैं । पंचमहाभूतों को पवित्र मानने से उन्हें देवता माना जाता है। उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता है इसलिये पर्यावरण के प्रक्षण का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता । उल्टे हमेशा उनके रक्षण की ही बात सोची जाती है।  
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# ऐसे व्यवहार के व्यावहारिक परिणाम बहुत अच्छे होते हैं । पंचमहाभूतों को पवित्र मानने से उन्हें देवता माना जाता है। उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता है इसलिये पर्यावरण के प्रक्षण का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता । उल्टे सदा उनके रक्षण की ही बात सोची जाती है।  
# पवित्रता शुद्धता से अलग है और कहीं अधिक है। पवित्र पदार्थ शुद्ध होता ही है परन्तु शद्ध हमेशा पवित्र हो ऐसा नहीं होता। पवित्रता का सन्दर्भ शुद्धता से अलग है। उदाहरण के लिये जब भोजन करना है तब वह शुद्ध ही होना चाहिये ऐसा हमारा आग्रह रहता है परन्तु अन्न का आदर या अनादर करना या नहीं करना है ऐसा विचार नहीं आता। अर्थात् अपने लिये ही विचार करते हैं तब शुद्धता का आग्रह होता है, अन्न के विषय में सोचते हैं तब पवित्रता का भाव होता है। केवल अपना ही नहीं, अन्न का भी विचार करना चाहिये यह संकेत पवित्रता की संकल्पना में निहित हैं।  
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# पवित्रता शुद्धता से अलग है और कहीं अधिक है। पवित्र पदार्थ शुद्ध होता ही है परन्तु शद्ध सदा पवित्र हो ऐसा नहीं होता। पवित्रता का सन्दर्भ शुद्धता से अलग है। उदाहरण के लिये जब भोजन करना है तब वह शुद्ध ही होना चाहिये ऐसा हमारा आग्रह रहता है परन्तु अन्न का आदर या अनादर करना या नहीं करना है ऐसा विचार नहीं आता। अर्थात् अपने लिये ही विचार करते हैं तब शुद्धता का आग्रह होता है, अन्न के विषय में सोचते हैं तब पवित्रता का भाव होता है। केवल अपना ही नहीं, अन्न का भी विचार करना चाहिये यह संकेत पवित्रता की संकल्पना में निहित हैं।  
 
# भारत को भारत बनना है तो इस पवित्रता की दृष्टि को सार्वत्रिक बनाना होगा। भारत के अशिक्षित, अर्धशिक्षित, अंग्रेजी और अमेरिका को नहीं जानने वाले लोग इसे समझते हैं और आचरण में लाते हैं परन्तु अमेरिका का मानसिक और बौद्धिक चश्मा पहने हुए लोग इसे जानते या मानते नहीं हैं। पवित्रता की संकल्पना को लेकर भारत के इस शिक्षित वर्ग को अपने आपको बदलने की आवश्यकता है।  
 
# भारत को भारत बनना है तो इस पवित्रता की दृष्टि को सार्वत्रिक बनाना होगा। भारत के अशिक्षित, अर्धशिक्षित, अंग्रेजी और अमेरिका को नहीं जानने वाले लोग इसे समझते हैं और आचरण में लाते हैं परन्तु अमेरिका का मानसिक और बौद्धिक चश्मा पहने हुए लोग इसे जानते या मानते नहीं हैं। पवित्रता की संकल्पना को लेकर भारत के इस शिक्षित वर्ग को अपने आपको बदलने की आवश्यकता है।  
# एक चाय के ठेलेवाला प्रातःकाल व्यवसाय शुरू करता है तब पहला प्याला धरती को समर्पित करता है। एक रिक्षावाला प्रातःकाल रिक्षे को फूल चढाता है, पहली सवारी के पैसे इमानदारी से लेता है। या कभी कभी नहीं भी लेता। एक व्यापारी अपने हिसाब के पुस्तक की पूजा करता है। किसान हल की, सुथार कुल्हाडी की, कुम्हार चाक की पूजा करता है। यह निर्जीव साधनों । का कृतज्ञतापूर्वक सम्मान करने की भावना पवित्रता है। इस भावना से सुख, समृद्दि और शान्ति पनपती है। यह अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने का व्यावहारिक मार्ग है।  
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# एक चाय के ठेलेवाला प्रातःकाल व्यवसाय आरम्भ करता है तब पहला प्याला धरती को समर्पित करता है। एक रिक्षावाला प्रातःकाल रिक्षे को फूल चढाता है, पहली सवारी के पैसे इमानदारी से लेता है। या कभी कभी नहीं भी लेता। एक व्यापारी अपने हिसाब के पुस्तक की पूजा करता है। किसान हल की, सुथार कुल्हाडी की, कुम्हार चाक की पूजा करता है। यह निर्जीव साधनों । का कृतज्ञतापूर्वक सम्मान करने की भावना पवित्रता है। इस भावना से सुख, समृद्दि और शान्ति पनपती है। यह अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने का व्यावहारिक मार्ग है।  
 
# शुद्धता भौतिक है, पवित्रता मानसिक। उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । जीवन के व्यवहारों में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का प्रभाव और महत्त्व अधिक होते हैं। अन्तःकरण का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर भी होता है। इसलिये शुद्धता के साथ साथ, शुद्धता से भी अधिक पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये।  
 
# शुद्धता भौतिक है, पवित्रता मानसिक। उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । जीवन के व्यवहारों में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का प्रभाव और महत्त्व अधिक होते हैं। अन्तःकरण का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर भी होता है। इसलिये शुद्धता के साथ साथ, शुद्धता से भी अधिक पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये।  
 
# वर्तमान जगत में शुद्धता और पवित्रता का यह अन्तर विचार में ही नहीं लिया जाता है। इसका कारण सृष्टि को भी केवल भौतिक मानने में है। उदाहरण के लिये पर्यावरण की बात करते समय हम पंचमहाभूतों का ही विचार करते हैं । परन्तु सृष्टि पंचमहाभूतों के साथ साथ सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों की भी बनी है। इन तीन गुणों से मन, बुद्धि और अहंकार बने हैं। इनकी शुद्धि और पवित्रता भी पर्यावरण के विचार का हिस्सा है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । वायु की शुद्धि से भी विचारों की शुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिये।  
 
# वर्तमान जगत में शुद्धता और पवित्रता का यह अन्तर विचार में ही नहीं लिया जाता है। इसका कारण सृष्टि को भी केवल भौतिक मानने में है। उदाहरण के लिये पर्यावरण की बात करते समय हम पंचमहाभूतों का ही विचार करते हैं । परन्तु सृष्टि पंचमहाभूतों के साथ साथ सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों की भी बनी है। इन तीन गुणों से मन, बुद्धि और अहंकार बने हैं। इनकी शुद्धि और पवित्रता भी पर्यावरण के विचार का हिस्सा है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । वायु की शुद्धि से भी विचारों की शुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिये।  
# एक कुम्हार अपने चाक को, या एक रिक्षेवाला अपनी रिक्षा को केवल इसलिये पवित्र नहीं मानता कि उससे उसे रोजी मिलती है। वह इसे इसलिये पवित्र मानता है क्योंकि उससे वह लोगों की आवश्यकता की पूर्ति कर पायेगा। आज यदि कलियुग के या पश्चिम के प्रभाव से इस बात का विस्मरण हुआ है तो उसे पुनःस्मरण में लाना होगा।  
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# एक कुम्हार अपने चाक को, या एक रिक्षेवाला अपनी रिक्षा को केवल इसलिये पवित्र नहीं मानता कि उससे उसे रोजी मिलती है। वह इसे इसलिये पवित्र मानता है क्योंकि उससे वह लोगोंं की आवश्यकता की पूर्ति कर पायेगा। आज यदि कलियुग के या पश्चिम के प्रभाव से इस बात का विस्मरण हुआ है तो उसे पुनःस्मरण में लाना होगा।  
 
# भारत के सांसद और विधायक, भारत के प्रशासकीय अधिकारी, भारत के उद्योजक, भारत के अध्यापक अपने कार्य के साथ पवित्रता की भावना जोड लें तो कैसा परिवर्तन होगा इसकी हम कल्पना कर सकते हैं। ये सब समस्त प्रजा पर परिणाम करनेवाले क्षेत्र हैं। आज उनमें से पवित्रता की भावना निष्कासित हो गई है। इसके क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं यह भी हम देख रहे हैं । हम भुगत भी रहे हैं। अतः भारत के मानस में पवित्रता की भावना को, पवित्रता की दृष्टि को पुनः प्रतिष्ठित करना होगा।  
 
# भारत के सांसद और विधायक, भारत के प्रशासकीय अधिकारी, भारत के उद्योजक, भारत के अध्यापक अपने कार्य के साथ पवित्रता की भावना जोड लें तो कैसा परिवर्तन होगा इसकी हम कल्पना कर सकते हैं। ये सब समस्त प्रजा पर परिणाम करनेवाले क्षेत्र हैं। आज उनमें से पवित्रता की भावना निष्कासित हो गई है। इसके क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं यह भी हम देख रहे हैं । हम भुगत भी रहे हैं। अतः भारत के मानस में पवित्रता की भावना को, पवित्रता की दृष्टि को पुनः प्रतिष्ठित करना होगा।  
 
# पवित्र पदार्थ, पवित्र विचार, पवित्र व्यक्ति दूसरों को भी पवित्र बनाते हैं। पवित्रता का यह प्रभाव है। पवित्र अन्तःकरण से किया गया कार्य अधिक प्रभावी होता है क्योंकि उसका प्रभाव अन्तःकरण के स्तर पर होता है। इसलिये भारत में आज अन्तःकरण की पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये । उससे ही हम विश्वस्थिति को प्रभावित कर सकते हैं।  
 
# पवित्र पदार्थ, पवित्र विचार, पवित्र व्यक्ति दूसरों को भी पवित्र बनाते हैं। पवित्रता का यह प्रभाव है। पवित्र अन्तःकरण से किया गया कार्य अधिक प्रभावी होता है क्योंकि उसका प्रभाव अन्तःकरण के स्तर पर होता है। इसलिये भारत में आज अन्तःकरण की पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये । उससे ही हम विश्वस्थिति को प्रभावित कर सकते हैं।  
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# जिस भारत को देवतात्मा हिमालय और सिन्धुसागर, रत्नाकर और पूर्वसमुद्र जैसे रक्षक प्राप्त हुए हैं, विश्व में केवल उसे ही छ: ऋतुओं की विविधता प्राप्त हुई है। अत्यन्त सन्तुलित और समृद्ध प्राकृतिक स्थिति प्राप्त हुई है। धर्म और संस्कृति की संकल्पना देने वाली बुद्धि प्राप्त हुई है। ऐसा भारत विश्वकल्याण की क्षमता रखता है इसमें भारत को सन्देह नहीं होना चाहिये।  
 
# जिस भारत को देवतात्मा हिमालय और सिन्धुसागर, रत्नाकर और पूर्वसमुद्र जैसे रक्षक प्राप्त हुए हैं, विश्व में केवल उसे ही छ: ऋतुओं की विविधता प्राप्त हुई है। अत्यन्त सन्तुलित और समृद्ध प्राकृतिक स्थिति प्राप्त हुई है। धर्म और संस्कृति की संकल्पना देने वाली बुद्धि प्राप्त हुई है। ऐसा भारत विश्वकल्याण की क्षमता रखता है इसमें भारत को सन्देह नहीं होना चाहिये।  
 
# भारत आदिकाल से विश्व में संचार करता रहा है। अपना ज्ञान, अपनी सुसंस्कृत जीवनशैली, अपनी कला कारीगरी, अपनी सभ्यता अन्य देशों को सिखाता रहा है। विश्व के सभी देश भारत से लाभान्वित होते रहे हैं और भारत के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते रहे हैं। कोई कारण नहीं कि आज भी भारत विश्व को सुख, समृद्धि और शान्ति का मार्ग न दिखा सके।  
 
# भारत आदिकाल से विश्व में संचार करता रहा है। अपना ज्ञान, अपनी सुसंस्कृत जीवनशैली, अपनी कला कारीगरी, अपनी सभ्यता अन्य देशों को सिखाता रहा है। विश्व के सभी देश भारत से लाभान्वित होते रहे हैं और भारत के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते रहे हैं। कोई कारण नहीं कि आज भी भारत विश्व को सुख, समृद्धि और शान्ति का मार्ग न दिखा सके।  
# आज भी विश्व के अनेक देशों में भारतीय हैं। विशेष रूप से अमेरिका में भारतीयों का जो योगदान है वह लक्षणीय है। डॉक्टर, इन्जिनीयर, मैनेजर, वैज्ञानिक, संगणक निष्णात आदि विविध रूपों में भारतीयों का योगदान है । एक गिनती के अनुसार अमेरिका की दो सौ कम्पनियों के मुख्य कार्यवाहक अधिकारी भारतीय हैं। नासा में अनेक भारतीय वैज्ञानिक काम कर रहे हैं। ऐसा भारत विश्व में अग्रणी हो सकता है इसमें किसे सन्देह हो सकता है।  
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# आज भी विश्व के अनेक देशों में धार्मिक हैं। विशेष रूप से अमेरिका में धार्मिकों का जो योगदान है वह लक्षणीय है। डॉक्टर, इन्जिनीयर, मैनेजर, वैज्ञानिक, संगणक निष्णात आदि विविध रूपों में धार्मिकों का योगदान है । एक गिनती के अनुसार अमेरिका की दो सौ कम्पनियों के मुख्य कार्यवाहक अधिकारी धार्मिक हैं। नासा में अनेक धार्मिक वैज्ञानिक काम कर रहे हैं। ऐसा भारत विश्व में अग्रणी हो सकता है इसमें किसे सन्देह हो सकता है।  
 
# भारत का ज्ञान विज्ञान, सांस्कृतिक परम्परायें, कला, कौशल और जीवनदृष्टि किसी भी राष्ट्र को अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति करवाने में सक्षम है। इन बातों के चलते जो देश अपना विकास कर सकता है वह विश्व को भी मार्ग दिखा सकता है।
 
# भारत का ज्ञान विज्ञान, सांस्कृतिक परम्परायें, कला, कौशल और जीवनदृष्टि किसी भी राष्ट्र को अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति करवाने में सक्षम है। इन बातों के चलते जो देश अपना विकास कर सकता है वह विश्व को भी मार्ग दिखा सकता है।
 
# जीवन की श्रेष्ठता किन बातों में है यह भारत जानता है। श्रेष्ठता कैसे प्राप्त की जाती है वह भी भारत जानता है। इस श्रेष्ठता के बल पर भारत विश्व की निकृष्ट बातों को जान सकता है। निकृष्ट बातों का विश्लेषण कर उसे दूर करने हेतु परामर्श देने की क्षमता भारत में है।  
 
# जीवन की श्रेष्ठता किन बातों में है यह भारत जानता है। श्रेष्ठता कैसे प्राप्त की जाती है वह भी भारत जानता है। इस श्रेष्ठता के बल पर भारत विश्व की निकृष्ट बातों को जान सकता है। निकृष्ट बातों का विश्लेषण कर उसे दूर करने हेतु परामर्श देने की क्षमता भारत में है।  
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# भारत की आत्मा, एकात्मता और आध्यात्मिकता, पुनर्जन्म, जन्मान्तर और मोक्ष, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति और सभ्यता, कुटुम्बभावना, संस्कार और विवेक की संकल्पना किसी के पास नहीं है । इन संकल्पनाओं के आधार पर भारत ने अपना सुसंस्कृत जीवन विकसित किया है । ऐसा देश विश्व का अग्रणी होने की पात्रता रखता है इसमें क्या आश्चर्य है ?  
 
# भारत की आत्मा, एकात्मता और आध्यात्मिकता, पुनर्जन्म, जन्मान्तर और मोक्ष, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति और सभ्यता, कुटुम्बभावना, संस्कार और विवेक की संकल्पना किसी के पास नहीं है । इन संकल्पनाओं के आधार पर भारत ने अपना सुसंस्कृत जीवन विकसित किया है । ऐसा देश विश्व का अग्रणी होने की पात्रता रखता है इसमें क्या आश्चर्य है ?  
 
# जो लेने से अधिक देने में विश्वास करता हो, अपने से पहले दूसरों का विचार करता हो, अपने से छोटों का रक्षण और पोषण करने को अपना कर्तव्य मानता हो, किसी की भी स्वतन्त्रता को छीनता न हो उस देश को विश्वास होना चाहिये कि वह अन्यों को भी अच्छा जीवन जीने की राह दिखा सकता है।  
 
# जो लेने से अधिक देने में विश्वास करता हो, अपने से पहले दूसरों का विचार करता हो, अपने से छोटों का रक्षण और पोषण करने को अपना कर्तव्य मानता हो, किसी की भी स्वतन्त्रता को छीनता न हो उस देश को विश्वास होना चाहिये कि वह अन्यों को भी अच्छा जीवन जीने की राह दिखा सकता है।  
# जो देश हमेशा चराचर के हित की ही कामना करता हो, सम्पूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब मानता हो, सबको अपना मानता हो वह देश विश्व को हितकारी मार्ग पर चलना सिखा सकता है। जो कभी किसी को पराजित करने की कामना न करता हो, किसी पर अत्याचार न करता हो उससे किसी को भय नहीं हो सकता । उस पर सब भरोसा कर सकते है।  
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# जो देश सदा चराचर के हित की ही कामना करता हो, सम्पूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब मानता हो, सबको अपना मानता हो वह देश विश्व को हितकारी मार्ग पर चलना सिखा सकता है। जो कभी किसी को पराजित करने की कामना न करता हो, किसी पर अत्याचार न करता हो उससे किसी को भय नहीं हो सकता । उस पर सब भरोसा कर सकते है।  
 
# जिस देश को आत्मज्ञानी पूर्वजोंसे ज्ञान का, तपस्वी ऋषियों से तप का, पराक्रमी राजाओं से शौर्य का, हरिश्चन्द्र जैसे राजओं से सत्यनिष्ठा का, वेदव्यास, याज्ञवल्क्य जैसे शास्त्रज्ञों का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ हो उस देश से विश्व के अन्य देश भी लाभान्वित हो सकते हैं, अपने लिये प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।  
 
# जिस देश को आत्मज्ञानी पूर्वजोंसे ज्ञान का, तपस्वी ऋषियों से तप का, पराक्रमी राजाओं से शौर्य का, हरिश्चन्द्र जैसे राजओं से सत्यनिष्ठा का, वेदव्यास, याज्ञवल्क्य जैसे शास्त्रज्ञों का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ हो उस देश से विश्व के अन्य देश भी लाभान्वित हो सकते हैं, अपने लिये प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।  
 
# जहाँ धन कमाने वाला अपने लिये बाद में और अपनों के लिये पहले खर्च करता हो, भोजन बनाने वाला सबको खिलाकर खाता हो, अन्न ऊगाने वाला सबके लिये अन्न की चिन्ता करता हो, जहाँ चींटियों से लेकर समस्त प्राणी और वनस्पति के आहार और सुरक्षा की व्यवस्था करना गृहस्थ धर्म का अंग हो वह कैसे पिछडा हो सकता है । कैसे दरिद्र हो सकता है ?  
 
# जहाँ धन कमाने वाला अपने लिये बाद में और अपनों के लिये पहले खर्च करता हो, भोजन बनाने वाला सबको खिलाकर खाता हो, अन्न ऊगाने वाला सबके लिये अन्न की चिन्ता करता हो, जहाँ चींटियों से लेकर समस्त प्राणी और वनस्पति के आहार और सुरक्षा की व्यवस्था करना गृहस्थ धर्म का अंग हो वह कैसे पिछडा हो सकता है । कैसे दरिद्र हो सकता है ?  
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# जो स्वतन्त्रता को स्वैराचार नहीं मानता, समानता के लिये एकरूपता का आग्रह नहीं रखता, जिसका विश्वनागरिकत्व कानून से नहीं, एकात्मभाव से सिद्ध होता है, जिसकी न्यायदेवता अन्धी नहीं विवेक के चक्षु से युक्त है जिसकी बुद्धि आत्मनिष्ठ है, वह विश्व को शास्त्रों से नहीं अपितु प्रेम से जीतता है, उसके सामने जीता गया भी पराजित नहीं होता।  
 
# जो स्वतन्त्रता को स्वैराचार नहीं मानता, समानता के लिये एकरूपता का आग्रह नहीं रखता, जिसका विश्वनागरिकत्व कानून से नहीं, एकात्मभाव से सिद्ध होता है, जिसकी न्यायदेवता अन्धी नहीं विवेक के चक्षु से युक्त है जिसकी बुद्धि आत्मनिष्ठ है, वह विश्व को शास्त्रों से नहीं अपितु प्रेम से जीतता है, उसके सामने जीता गया भी पराजित नहीं होता।  
 
# जिस देश के धर्म और संस्कृति की विश्व के अनेक चिन्तकों ने प्रसंसा की, जिस देश की विज्ञान और तन्त्रज्ञान की उपलब्धियों पर यूरोप के अनेक तन्त्रज्ञान निष्णात विस्मित हुए, जिस देश की कलाकारीगरी की आजतक विश्व में कहीं बराबरी नहीं हो सकी उस देश को दरिद्रता का भय कैसे हो सकता है। ऐसा देश विश्व को चिरन्तर समृद्धि के उपाय बता सकता है।  
 
# जिस देश के धर्म और संस्कृति की विश्व के अनेक चिन्तकों ने प्रसंसा की, जिस देश की विज्ञान और तन्त्रज्ञान की उपलब्धियों पर यूरोप के अनेक तन्त्रज्ञान निष्णात विस्मित हुए, जिस देश की कलाकारीगरी की आजतक विश्व में कहीं बराबरी नहीं हो सकी उस देश को दरिद्रता का भय कैसे हो सकता है। ऐसा देश विश्व को चिरन्तर समृद्धि के उपाय बता सकता है।  
# भौतिक समृद्धि, कलाकारीगरी, विज्ञान और तत्त्वज्ञान, शौर्य और पराक्रम, नीति और सदाचार, सिद्धान्त और व्यवहार, राजनीति और व्यापार आदि सर्व क्षेत्रों में भारत हमेशा अग्रणी रहा है। आज भी है। विश्व को आज भी वह सर्व क्षेत्रों में पथप्रदर्शन कर सकता है। आवश्यकता है खोया हुआ आत्मविश्वास पुनः प्राप्त करने की।
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# भौतिक समृद्धि, कलाकारीगरी, विज्ञान और तत्त्वज्ञान, शौर्य और पराक्रम, नीति और सदाचार, सिद्धान्त और व्यवहार, राजनीति और व्यापार आदि सर्व क्षेत्रों में भारत सदा अग्रणी रहा है। आज भी है। विश्व को आज भी वह सर्व क्षेत्रों में पथप्रदर्शन कर सकता है। आवश्यकता है खोया हुआ आत्मविश्वास पुनः प्राप्त करने की।
    
==== ५. हीनताबोध से मुक्ति ====
 
==== ५. हीनताबोध से मुक्ति ====
१. आत्मविश्वास के अभाव का एक बड़ा कारण हीनताबोध है। हीनताबोध एक मानसिक रोग है। वर्तमान में इस रोग से मुक्ति प्राप्त किये बिना भारत का विकास नहीं हो सकता है, उसका खोया हुआ आत्मविश्वास भी पुनः प्राप्त नहीं कर सकता है।  
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# आत्मविश्वास के अभाव का एक बड़ा कारण हीनताबोध है। हीनताबोध एक मानसिक रोग है। वर्तमान में इस रोग से मुक्ति प्राप्त किये बिना भारत का विकास नहीं हो सकता है, उसका खोया हुआ आत्मविश्वास भी पुनः प्राप्त नहीं कर सकता है।  
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# ब्रिटीश शासन के दौरान उनके द्वारा किय गये शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, तिरस्कार, अवमानना, अपमान के चलते और बात बात में अपनी श्रेष्ठता का बखान करने की प्रवृत्ति के चलते हीनता का बोध धार्मिक प्रजा के जेहन में उतरगया है । अब भारत को अपनी हर बात में हीनता दिखाई देती है। इसका इलाज करने की आवश्यकता है।
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# ब्रिटीशों द्वारा जब अपनी श्रेष्ठता का बखान किया जाता था तब उसमें कोई तर्क नहीं था, अज्ञान और अहंकार था। उदाहरण के लिये टॉमस बेबिंग्टन मेकाले कहता था कि इंग्लैण्ड के एक प्राथमिक विद्यालय के ग्रन्थालय की एक आलमारी के एक शेल्फ में जो पुस्तकें हैं, उनमें जो ज्ञान है वह भारत के ग्रन्थालयों में रखे सारे ग्रन्थों में समाये हए ज्ञान से श्रेष्ठ है । यह मिथ्या गर्वोक्ति है । मेकाले न तो भारत की ग्रन्थसम्पदा को जानता था न धार्मिकों के उन ग्रन्थों के प्रति आदर को । तथापि वह एसी गर्वोक्ति कर सकता था क्योंकि वह भारत की अवमानना करना चाहता था। उसकी उक्ति कोई तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष नहीं था।
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# उसकी गर्वोक्ति का हम पर असर क्यों हुआ ? बौद्धिक प्रतीति के कारण नहीं। कीटभ्रमर न्याय से हम ब्रिटीशों से आतंकित हुए और उनका कहा मानने लगे। हमारे अन्दर का भय और आतंक अभी तक गया नहीं है। उससे प्रेरित होकर आज भी हम अंग्रेजी और यूरोपीय ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । इलाज इस भय का होना चाहिये ।
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# हीनता बोध से मुक्ति मनोवैज्ञानिक उपायों से ही प्राप्त हो सकती है। तार्किक चर्चाओं से नहीं । दसियों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद भी आतंक समाप्त नहीं होता यह सबका अनुभव है। मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाने का साहस बौद्धिक जगत में होता नहीं है।
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# जिससे भय है उससे दूर भागना, दूरी बनाये रखना यह व्यावहारिक समझदारी है। जिसने प्रताडना दी है उसके पास नहीं जाना यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है। परन्तु भयभीत और प्रताडित करने वाले ने अपनी श्रेष्ठता यदि हमारे चित्त में अंकित कर दी है तो उससे बचना कठिन हो जाता है। आज उसी कठिनाई का सामना हम कर रहे हैं।
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# एक नीति और रणनीति के तहत हम तय करें कि हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे, अंग्रेजी में लिखी किसी पस्तक को नहीं पढेंगे, यूरोपीय पदार्थ नहीं खायेंगे, यूरोपीय वेश नहीं पहनेंगे, यूरोपीय व्यवस्थाओं को अपने घरों, विद्यालयों और कार्यालयों में स्थान नहीं देंगे। तो क्या होगा ? क्या ब्रिटीश भारत में नहीं आये थे तब तक देश नहीं चलता था ?  कदाचित अच्छे से चलता था।
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# परन्तु ऐसा बोलने की और करने की हिम्मत हम नहीं कर सकते हैं । तुरन्त ही प्रतितर्क आरम्भ हो जाते हैं । अंग्रेजी में क्या बुराई है ? यूरोपीय वेश पहनने से क्या हम धार्मिक नहीं रहते ? पित्झा खाने से क्या हम भ्रष्ट हो जायेंगे ? खानपान, वेशभूषा, शिष्टाचार तो बाह्य बातें हैं । अन्दर से तो हम धार्मिक ही हैं। हमें अंग्रेजी से भय कैसा ?
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# परन्तु यह झूठा तर्क है। हमारे अन्दर बैठा हुआ अंग्रेजी हमें ऐसा बोलने के लिये बाध्य करता है। यह तो घोर हीनताबोध का ही लक्षण है। स्थिति ऐसी है कि हम तो नहीं समझेंगे परन्तु कोई हमें इस स्थिति से बलपूर्वक उबारे तभी हम बाहर आ सकते है।
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# कोई तानाशाह बेरहमी से घोषणा करे कि आज से, इसी क्षण से अंग्रेजी और अंग्रेजी के सभी चिह्न इस देश में प्रतिबन्धित हैं और उसे अपने पास रखने वाले को कठोर दण्ड मिलेगा तभी हम मानेंगे। रोयेंगे, चिल्लायेंगे, विरोध करेंगे, आन्दोलन करेंगे, चुनाव में मत नहीं देंगे परन्तु तानाशाही के आदेश को मानना पड़ेगा। हमारी नई पीढी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से 'वंचित' रहेगी । तब एक या दो पीढियों के बाद हम हीनताबोध के रोग से मुक्त होंगे । इझरायेलने हिब्रू को लेकर ऐसा किया ही था।
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# या विभिन्न पंथों के धर्माचार्य अपने अनुयायिओं को कठोर प्रतिज्ञा करवायें कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत् का अनुसरण करने वाला धर्मद्रोही माना जायेगा, उसे पाप लगेगा और वह घोर नर्क में जायेगा। तब धर्म के भय से लोग अंग्रेजी को छोडेंगे ।
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# या कोई चमत्कार हो कि एक दिन सुबह होते ही लोग जागें तब वे अंग्रेजी और अंग्रेजीयत को सर्वथा भूल गये हों, जैसे मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है और पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। या भूतप्रेत की बाधाओं को झाडफूंक के उपायों से दूर भगानेवाला कोई हमें अंग्रेजी की बाधा से मुक्त करे।
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# परन्तु भारत में ऐसे कोई उपाय चलते नहीं । भारत जानता है कि तानाशाहों, झाडफूंकवालों या नर्क का भय दिखाने वालों द्वारा किये गये उपाय दीर्घकाल तक चलते नहीं हैं। कोई भी उपाय समझदारीपूर्वक करने होंगे।
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# हीनताबोध से मुक्त होने के लिये हमें ज्ञानसाधना करनी होगी। ज्ञान ही कारगर उपाय है। धार्मिक ज्ञान की हमारे द्वारा उपेक्षा हुई है । उसे पुनःप्रकाश में लाान होगा । उस ज्ञान को व्यवहार में लाना होगा।
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# हीनताबोध दुर्बल मन का लक्षण है। अतः हमें मनोबल बढाने के सभी व्यावहारिक उपाय करने होंगे । जैसे कि आहारविहार ठीक करने से शरीर के साथ साथ मन का स्वास्थ्य भी प्राप्त होता है। प्राणायाम और ध्यान करने से प्राणबल और मनोबल प्राप्त होता है। शास्त्रों के अध्ययन से बुद्धि का बल प्राप्त होता है । यमनियम युक्त आचरण से चरित्र की शुद्धि होती है। ये सब हमें हीनताबोध से मुक्त कर स्वास्थ्यलाभ करवाते हैं।
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# हीनताबोध का रोग चित्तगत हैं । ये संस्कार आज की पीढी को जन्म से प्राप्त हुए है । चित्तशुद्धि होने पर ये संस्कार मिट सकते हैं। अतः चित्तशुद्धि के उपाय करने की आवश्यकता है। चित्तशुद्धि मनोबल और विवेक से भी परे हैं। सत्संग, स्वाध्याय, सदाचार और शुद्ध आहार का चित्त के साथ सम्बन्ध है। परन्तु इनके साथ ध्यान भी आवश्यक है। अंग्रेजीयत से मुक्ति का संकल्प लेकर यदि यह सब किया जाय तो हम इस रोग से मुक्त हो सकते हैं।
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# इन सबके आधार पर धार्मिक और यूरोपीय ज्ञानधारा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो यूरोपीय ज्ञान, यूरोपीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली, जीवनव्यवस्था की कमियाँ समझ में आने लगेंगी। फिर हम उन पर तरस खायेंगे और अपने आप पर हँसेंगे। अर्थात् यह कार्य शिक्षकों का है, विश्वविद्यालयों का है।
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# समाज के जो श्रेष्ठ लोग हैं उन्हें पहल करनी होगी। उदाहरण के लिये उच्चशिक्षित लोग अपने बच्चोंं को अंग्रेजी माध्यम में नहीं भेजेंगे तो सामान्य लोग भी नहीं भेजेंगे । अत्यन्त धनवान लोग अंग्रेजी वेशभूषा और खानपान का त्याग करेंगे तो मध्यम वर्गीय लोग भी करेंगे। फिल्मों के नट्नटियाँ यदि संस्कारयुक्त व्यवहार करने लगेंगे तो अशिक्षित लोग भी संस्कारवान बनेंगे। अधिकारी वर्ग मातृभाषा का आग्रह आरम्भ करेगा तो कर्मचारी भी उनका अनुसरण करेगा।
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# भारत गरीब नहीं है तो भी अपने आपको गरीब मानता है, पिछडा हुआ नहीं है तो भी वैसा मानता है, अज्ञानी नहीं है तो भी अज्ञानी मानता है, दुर्जन नहीं है तो भी अपने आपको सज्जन नहीं मानता क्योंकि वह पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करता हैं। हमें चाहिये कि हम अपने मापदण्ड निश्चित करें, अपने आप पर लागू करें और यूरोप पर भी लागू करें तब बात हमारी समझ में आयेगी।
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# भारत जब हीनताबोध से मुक्त होगा तभी उसका आत्मविश्वास जागृत होगा। आत्मविश्वास से प्रेरित अध्ययन और व्यवहार उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करेंगे । भारत भारत बनेगा तो अपने आप विश्व के लिये उदाहरण प्रस्तुत करेगा । फूल जिस प्रकार होने से ही सुगन्ध बिखेरता है, सूर्य जैसे होने से ही प्रकाश फैलाता है उस प्रकार भारत भारत होने से ही ज्ञान के प्रकाश को फैलाकर अज्ञानजनित, मोहजनित भ्रान्तियों को दूर करता है। उसे कोई अलग से अभियान छेडने की आवश्यकता नहीं रहती।
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. ब्रिटीश शासन के दौरान उनके द्वारा किय गये शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, तिरस्कार, अवमानना, अपमान के चलते और बात बात में अपनी श्रेष्ठता का बखान करने की प्रवृत्ति के चलते हीनता का बोध भारतीय प्रजा के जेहन में उतरगया है । अब भारत को अपनी हर बात में हीनता दिखाई देती है। इसका इलाज करने की आवश्यकता है।  
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==== ६. स्वतंत्रता ====
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# स्वतन्त्रता विश्व का स्वाभाविक, सार्वत्रिक, सार्वकालिक सिद्धान्त है । किसी को भी स्वतन्त्र रहने का जन्मसिद्ध अधिकार है । परतन्त्र रहना, किसी को परतन्त्र बनाना, परतन्त्र रहने के लिये बाध्य करना अपराध है । यह एक मूलभूत मूल्य है ।
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# परमात्मा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है। स्वतन्त्र व्यक्ति का वर्णन कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थः अर्थात् करने, नहीं करने, भिन्नतापूर्वक करने के लिये समर्थ व्यक्ति को स्वतन्त्र कहते हैं। परमात्मा इस सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है। उसने अपना अंश उनमें स्थापित किया है परन्तु मनुष्य को तो उसने अपने प्रतिरूप में बनाया है और अपनी सर्वशक्ति प्रदान की है।
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# अतः सृष्टि में छोटी बडी सभी हस्तियों को अपनी स्वतन्त्र सत्ता है । इस स्वतन्त्रता का स्वीकार करना, सम्मान करना और आवश्यकता पड़ने पर रक्षण करना मनुष्य का कर्तव्य है। किसी की स्वतन्त्रता नष्ट कर उसका शोषण करने का किसी को अधिकार नहीं है । पश्चिम आज वही कर रहा है और भारत ने सदा ऐसा नहीं करने का ही व्यवहार अपनाया है।
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# मनुष्य के अलावा अन्य सभी पदार्थ, प्राणी, वनस्पति की स्वतन्त्रता सीमित है। यह सीमा परमात्मा ने स्वयं निश्चित की है। उदाहरण के लिये पंचमहाभूतों में प्राणशक्ति, विचारशक्ति, विवेकशक्ति आदि नहीं होती। परन्तु अपनी सीमित स्वतन्त्रता के अनुसार उनका जो स्वभाव बनता है उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं । उनके स्वभाव के विपरीत वे स्वयं व्यवहार नहीं करते परन्तु उनके लिये विपरीत व्यवहार करने की बाध्यता निर्माण की जाती है तब उनकी स्वतन्त्रता नष्ट होती है और वे दुःखी होते हैं । उनके दुःख की तरंगे वातावरण में प्रसृत होती हैं तब वातावरण भी दुःख का अनुभव करवाने वाला बनता है।
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# मनुष्य को विचार, वाणी, भावना, बुद्धि, संस्कार क्षमता अनुभूति आदि की असीम स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है। इसके चलते उसका सामर्थ्य भी बहुत है। इस सामर्थ्य से उसे सबकी स्वतन्त्रता की हानि नहीं करनी चाहिये, उल्टे रक्षा करनी चाहिये ऐसा उसके लिये विधान है।
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# मनुष्य कितने प्रकार से सृष्टि की स्वतन्त्रता का नाश करता है ? सिंह, बाघ आदि प्राणियों को मुक्त विहार अच्छा लगता है। उन्हें पिंजड़़े में बन्द करना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है। इनका तथा खरगोश, हिरन, हाथी जैसे प्राणियों का शौक के लिये, आहार के लिये शिकार करना उनकी स्वतन्त्रता का तो क्या जीवन का ही नाश है इसलिये हिंसा भी है। प्रदर्शन के लिये, शृंगार के लिये, शौक के लिये तितली, मोर, तोता आदि पशुपक्षियों को पालतू बनाकर पिंजड़़े में बन्द करना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है।
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# कुक्कुटयुद्ध, साँढयुद्ध, महिषयुद्ध आदि मनोरंजन के लिये उन्हें लडाना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है इसलिये हिंसा है। मक्खी, मच्छर, कीडों, मकोडों को बेतहाशा मारना उनके जीवन के अधिकार को नष्ट करना है। फूलों को कली हो तब तोडना, कच्चे फलों को तोडना, रास्ते चौडे करने हेतु वृक्षों को काटना, शोभा के लिये वृक्षों को बोनसाई करना उनकी स्वतन्त्र सत्ता का अपमान है।
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# इसी प्रकार से मनुष्य सृष्टि की स्वतन्त्रता को बाधित करता है। परन्तु क्या वह मनुष्य को छोडता है ? नहीं, वह दूसरे मनुष्य को अपना दास बनाना चाहता है, अपने अधीन बनाना चाहता है, उससे अपना काम करवाना चाहता है। परन्तु जब हर मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपने अधीन बनाना चाहता है तब संघर्ष निर्माण होता है । एक वर्ग दूसरे वर्ग को, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को अपने अधीन बनाना चाहता है तब युद्ध होते हैं। विश्व का इतिहास ऐसे युद्धों के कथानकों से भरा हुआ है। अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा और दूसरों की स्वतन्त्रता का नाश यही दुनिया का दस्तूर बना हुआ है।
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# परन्तु भारत इसमें अपवाद है। अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा तो वह चाहता है और प्राणार्पण से करता भी है। साथ ही दूसरों की स्वतन्त्रता को हानि नहीं पहुँचाना यह भी भारत की रीत है । इसलिये इतिहास में भारत ने अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा हेतु तो युद्ध किये परन्तु किसी पर आक्रमण नहीं किया। वह जीतना चाहता है, परन्तु किसी को पराजित करना नहीं चाहता। इसलिये विश्व में किसी को भारत से भय नहीं है।
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# स्वतन्त्रता का अर्थ है अपने तन्त्र से अर्थात् अपनी व्यवस्था से रहना, अपनी जिम्मेदारी से अपनी सारी वयवस्थायें करना । परन्तु व्यवहार में तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य स्वतन्त्र रह नहीं सकता। उसे अपना जीवन चलाने के लिये सृष्टि के अनेक पदार्थों पर निर्भर रहना पडता है, इतना ही नहीं तो अन्य मनुष्यों से भी अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता पडती है । ऐसी स्थिति में हर मनुष्य की स्वतन्त्रता की रक्षा कैसे होगी ?
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# भारत ने इसे व्यवहार्य बनाने के लिये अनेक नीति निर्देश निश्चित किये हैं। उदाहरण के लिये सृष्टि के साथ का व्यवहार प्रेम, कृतज्ञता, शोषण नहीं अपितु दोहन और रक्षण के आधार पर व्यवस्थित किया जाता है। एक मनुष्य दूसरे का सहयोग स्नेह, वात्सल्य, सख्य, दया, आदर, श्रद्धा आदि के आधार पर करता है तभी स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। अन्यथा वह विवशता बन जाती है। विवशता से, भय से, लोभ लालच से किसी का काम करना गुलामी है।
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# एक राष्ट्र अपने स्वभाव के अनुसार अपनी व्यवस्थायें बनाता है और स्वतन्त्रता पूर्वक रहता है। परन्तु विश्व में ऐसे कई राष्ट्र हैं जो दूसरे राष्ट्रों की स्वतन्त्रता का नाश करने पर तुले रहते हैं । इस कारण से होने वाले आक्रमणों और युद्धों के वर्णनों से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े है।
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# स्वतन्त्रता के अनेक आयाम हैं। एक है राजकीय स्वतन्त्रता। व्यक्तियों, समाजों, राष्ट्रों के लिये आर्थिक, साम्प्रदायिक, सामाजिक, शासनिक ऐसे अनेक प्रकार हैं। आज भारत में व्यक्तियों की भी आर्थिक स्वतन्त्रता छिन गई है और विश्व में भारत की स्वतन्त्रता दाँव पर लगी हुई है। कहने को तो भारत सार्वभौम प्रजासत्ताक स्वतन्त्र राष्ट्र है परन्तु सम्पूर्ण राष्ट्र यूरोअमेरिकी तन्त्र से चलता है, उसके प्रभाव से ग्रस्त है।  
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# शासन, प्रशासन, संविधान, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था, न्यायव्यवस्था, कानून, उद्योगतन्त्र सबके सब यूरोअमेरिकी तन्त्र से ही चल रहे हैं । यह हमारे स्वभाव से, सिद्धान्त से और परम्परा से विरुद्ध है तो भी चल रहा है।
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# जब से इस देश पर ब्रिटीशों का आधिपत्य हो गया तब से भारत के सारे तन्त्र बदलने लगे और बदलते बदलते पूर्ण बदल गये । ब्रिटीश भारत से गये तो भी उनके सारे तन्त्र यहाँ रह गये हैं । शरीर और आत्मा भारत के और मन और बुद्धि यूरोप के ऐसी स्थिति है।
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# भारत को भारत बनने के लिये इस मानसिक और बौद्धिक गुलामी से मुक्त होने की आवश्यकता है। इस मुक्ति के लिये उसे भारी परिश्रम करना होगा। परन्तु जब तक भारत मुक्त नहीं होता तब तक विश्व को मार्ग कैसे दिखायेगा ? विश्व के कल्याण हेतु भी भारत की मुक्ति आवश्यक है।
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# १७. भारत को अपनी स्वतन्त्रता के लिये शिक्षा और धर्म से प्रारम्भ करना होगा। भारत स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं, धर्मनिष्ठ देश है। इस तथ्य को भुलाकर वह आज अर्थनिष्ठ बन गया है। धर्म सब का आधार होने के कारण ही उसे धर्मनिष्ठा की चिन्ता प्रथम करनी होगी। धर्मनिष्ठा को पक्का करते ही शेष बातें ठीक होने लगेंगी।
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# १८. भारत की स्वतन्त्रता के लिये दसरा साधन है शिक्षा । शिक्षा धर्म सिखाती है। धर्म को प्रतिष्ठित करने का वह प्रभावी साधन है। आज भारत की शिक्षा धर्म पर नहीं अपितु राजनीति और अर्थ पर आधारित बन गई है । राष्ट्र को स्वतन्त्र बनाने वाले इन दोनों घटकों की दुःस्थिति होने के कारण ही सारे संकट निर्माण
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# १९. पश्चिम स्वतन्त्रता का सही अर्थ नहीं जानता। वह जैसा भी जानता है उसमें भी उसकी नीयत अच्छी नहीं है। वह अपने लिये तो स्वतन्त्रता चाहता है। परन्तु दूसरों की स्वतन्त्रता : छीनकर उन्हें अपना दास बनाना चाहता है। ऐसा अन्याय वह सदा करता है, किंबहुना उसे वह गलत मानता भी नहीं है। उसे सही बात समझाना भारत स्वतन्त्र होगा तभी हो पायेगा।
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# २०. भारत को स्वतन्त्र बनाना अब शासन के बस की बात नहीं रही। यह कार्य धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के नेतृत्व में धार्मिक प्रजा ही कर सकती है। धर्माचार्य और शिक्षक इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
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. ब्रिटीशों द्वारा जब अपनी श्रेष्ठता का बखान किया जाता था तब उसमें कोई तर्क नहीं था, अज्ञान और अहंकार था। उदाहरण के लिये टॉमस बेबिंग्टन मेकाले कहता था कि इंग्लैण्ड के एक प्राथमिक विद्यालय के ग्रन्थालय की एक आलमारी के एक शेल्फ में जो पुस्तकें हैं, उनमें जो ज्ञान है वह भारत के ग्रन्थालयों में रखे सारे ग्रन्थों में समाये हए ज्ञान से श्रेष्ठ है । यह मिथ्या गर्वोक्ति है । मेकाले न तो भारत की ग्रन्थसम्पदा को जानता था न भारतीयों के उन ग्रन्थों के प्रति आदर को । फिर भी वह एसी गर्वोक्ति कर सकता था क्योंकि वह भारत की अवमानना करना चाहता था। उसकी उक्ति कोई तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष नहीं था।
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==== ७. श्रद्धा और विश्वास ====
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१. श्रद्धा, विश्वास और पश्चिम का विचार करते हैं तब लगता है कि उन्होंने अपनी ज्ञानयात्रा हेतु आवश्यक अन्न पानी का ही त्याग कर दिया है और भूख और प्यास से पीडित होने की नौबत उन पर आ पडी है । अथवा अपने ज्ञानभवन को बिना आधार के खडा किया है जिससे उसके कभी भी धराशायी होने की सम्भावना सदैव बनी रहती है।
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४. उसकी गर्वोक्ति का हम पर असर क्यों हुआ ? बौद्धिक प्रतीति के कारण नहीं। कीटभ्रमर न्याय से हम ब्रिटीशों से आतंकित हुए और उनका कहा मानने लगे। हमारे अन्दर का भय और आतंक अभी तक गया नहीं है। उससे प्रेरित होकर आज भी हम अंग्रेजी और यूरोपीय ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । इलाज इस भय का होना चाहिये ।
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इसका एक सीधा सादा कारण यह है कि पश्चिम का सारा व्यवहार दूसरों पर अविश्वास के आधार पर ही आरम्भ होता है । उसके सारे कानून मनुष्य अच्छा नहीं है, वह दूसरों को धोखा ही देगा ऐसा मानकर वह धोखा न दे सके इसके प्रावधान हेतु बने हैं।
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. हीनता बोध से मुक्ति मनोवैज्ञानिक उपायों से ही प्राप्त हो सकती है। तार्किक चर्चाओं से नहीं । दसियों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद भी आतंक समाप्त नहीं होता यह सबका अनुभव है। मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाने का साहस बौद्धिक जगत में होता नहीं है।  
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. कदाचित ऐसी दृष्टि उसे अपनी उत्पत्ति के साथ ही प्राप्त हुई होगी। आदम और हवा स्वर्ग के बगीचे में रहते थे। प्रभुने उन्हें ज्ञान के वृक्ष का फल खाने हेतु मना किया था। आदम तो खाने के लिये इच्छुक नहीं था परन्तु हवा ने उसे ललचाया, भरमाया, उकसाया और फल खाने के लिये विवश किया । यह पाप हुआ जिसके परिणाम स्वरूप दोनो को स्वर्ग से निष्कासित होकर पृथ्वी पर आना पडा। यहीं से अर्थात् पृथ्वी पर आगमन के क्षण से ही विश्वासघात का अनुभव जुडा हुआ है। इसलिये नित्य सावधानी उनके व्यवहार का अंग बन गई है।  
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. जिससे भय है उससे दूर भागना, दूरी बनाये रखना यह व्यावहारिक समझदारी है। जिसने प्रताडना दी है उसके पास नहीं जाना यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है। परन्तु भयभीत और प्रताडित करने वाले ने अपनी श्रेष्ठता यदि हमारे चित्त में अंकित कर दी है तो उससे बचना कठिन हो जाता है। आज उसी कठिनाई का सामना हम कर रहे हैं।
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. यही बात श्रद्दा की है। पश्चिम को किसी में श्रद्धा नहीं है, न तत्त्व में, न व्यक्ति में, न विचार में । उसे बस लालसा है, अहंकार है, मद है । ऐसा होने के कारण उसने अपने आपके लिये अनेक संकट निर्माण किये हैं जिससे वह परेशान होता है परन्तु परेशानी का कारण जानता नहीं।
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७. एक नीति और रणनीति के तहत हम तय करें कि हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे, अंग्रेजी में लिखी किसी पस्तक को नहीं पढेंगे, यूरोपीय पदार्थ नहीं खायेंगे, यूरोपीय वेश नहीं पहनेंगे, यूरोपीय व्यवस्थाओं को अपने घरों, विद्यालयों और कार्यालयों में स्थान नहीं देंगे। तो क्या होगा ? क्या ब्रिटीश भारत में नहीं आये थे तब तक देश नहीं चलता था ?  कदाचित अच्छे से चलता था।
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श्रद्दा और विश्वास नहीं होने के कारण वह सदा आशंका से ग्रस्त रहता है । आश्वस्ति और सुरक्षा का अनुभव नहीं करता । परिणामस्वरूप उसका मन सदा उचका सा रहता है। चैन की नींद उसके नसीब नहीं होती। ऐसे उचके मन से विचारों की स्थिरता भी प्राप्त नहीं होती।
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८. परन्तु ऐसा बोलने की और करने की हिम्मत हम नहीं कर सकते हैं । तुरन्त ही प्रतितर्क शुरू हो जाते हैं । अंग्रेजी में क्या बुराई है ? यूरोपीय वेश पहनने से क्या हम भारतीय नहीं रहते ? पित्झा खाने से क्या हम भ्रष्ट हो जायेंगे ? खानपान, वेशभूषा, शिष्टाचार तो बाह्य बातें हैं अन्दर से तो हम भारतीय ही हैं। हमें अंग्रेजी से भय कैसा ?
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अपने निकटतम व्यक्ति से भी उसे सुरक्षा की आवश्यकता रहती है। अपने स्वार्थ की सुरक्षा हेतु वह सभी बातों पर एकाधिकार चाहता है। ज्ञान के क्षेत्र में भी वह ऐसा ही अधिकार चाहता है। इसीमें से पेटण्ट का कानून आया है ।  
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९. परन्तु यह झूठा तर्क है। हमारे अन्दर बैठा हुआ अंग्रेजी हमें ऐसा बोलने के लिये बाध्य करता है। यह तो घोर हीनताबोध का ही लक्षण है। स्थिति ऐसी है कि हम तो नहीं समझेंगे परन्तु कोई हमें इस स्थिति से बलपूर्वक उबारे तभी हम बाहर आ सकते है।
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अविश्वास से पैदा हुई सुरक्षा की भावना, सुरक्षा हेतु कानून, लाभ हेतु करार के साथ साथ एकाधिकार के लिये शोषण और हिंसा । यही पश्चिम का जीवनव्यवहार है। वह प्रकृति का शोषण करता है, प्राणियों का शोषण करता है और मनुष्यों का भी शोषण करता है । स्वयं असुरक्षित है इसलिये दूसरों को भी असुरक्षित कर देता है, दूसरों की रक्षा तो वह क्या करेगा।
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१०. कोई तानाशाह बेरहमी से घोषणा करे कि आज से, इसी क्षण से अंग्रेजी और अंग्रेजी के सभी चिह्न इस देश में प्रतिबन्धित हैं और उसे अपने पास रखने वाले को कठोर दण्ड मिलेगा तभी हम मानेंगे। रोयेंगे, चिल्लायेंगे, विरोध करेंगे, आन्दोलन करेंगे, चुनाव में मत नहीं देंगे परन्तु तानाशाही के आदेश को मानना पडेगा। हमारी नई पीढी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से 'वंचित' रहेगी । तब एक या दो पीढियों के बाद हम हीनताबोध के रोग से मुक्त होंगे । इझरायेलने हिब्रू को लेकर ऐसा किया ही था।
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पश्चिम का मनुष्य भयभीत है और भयावह भी है। भयभीत है इसलिये भयावह है। उससे सबको भय है क्योंकि अपने क्षणिक सुख के लिये भी वह किसी का भी किसी भी हद तक नाश कर सकता है।
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११. या विभिन्न पंथों के धर्माचार्य अपने अनुयायिओं को कठोर प्रतिज्ञा करवायें कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत् का अनुसरण करने वाला धर्मद्रोही माना जायेगा, उसे पाप लगेगा और वह घोर नर्क में जायेगा। तब धर्म के भय से लोग अंग्रेजी को छोडेंगे ।
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इसके चलते वह सदा तनावग्रस्त रहता है । तनाव से निराशा, हताशा, उत्तेजना, पागलपन और आत्महत्या तक वह जाता है। वह आत्मघाती वृत्ति पश्चिमी मानस का हिस्सा है। आत्मघाती वृत्ति का दूसरा आयाम अन्यों का भी घात है। इस कारण से मनोचिकित्सक, पागलखाने, जेल और आत्महत्या का अनुपात पश्चिम में अन्य देशों की तुलना में अधिक है।
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१२. या कोई चमत्कार हो कि एक दिन सुबह होते ही लोग जागें तब वे अंग्रेजी और अंग्रेजीयत को सर्वथा भूल गये हों, जैसे मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है और पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। या भूतप्रेत की बाधाओं को झाडफूंक के उपायों से दूर भगानेवाला
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१०. अपने अहंकार और षड्रिपुओं पर विजय प्राप्त करने का उसे विचार तक नहीं आता, और अपने आपको छोडकर कोई उसे अपना नहीं लगता। ऐसी स्थिति में उसकी बुद्धि, शुद्ध निश्चयात्मिका और विशाल नहीं हो सकती। ऐसी बुद्धि को लेकर वह विमर्श करता है। अध्ययन करता है, अनुसन्धान करता है। उसका अध्ययन खण्डखण्ड में होगा। इसमें क्या आश्चर्य है ? वह समग्रता में चीजों को देख ही नहीं सकता।
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११. इस स्थिति में श्रद्दा को वह बुद्धि से कम आँकता है और निम्न दर्जा देता है । इसके अनुकरण में भारत के बौद्धिक भी कम बुद्धि वाले श्रद्धावान होते हैं । जिनमें बुद्धि है वे श्रद्धा से कुछ भी कैसे स्वीकार कर सकते हैं ऐसा कहते हैं। परन्तु वे भूल जाते हैं कि व्यक्तित्व की पंचकोशात्मक व्याख्या में श्रद्धा को विज्ञानमय कोश का अर्थात् बुद्धि का शिर कहा है। श्रद्धा बुद्धि का आधार है उससे कम नहीं है । उनका विरोध तो है ही नहीं। श्रद्धा के अभाव में बुद्धि भटक जाती है । भटकी हुई बुद्धि से किस प्रकार का अध्ययन और अनुसन्धान सम्भव है ?
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१२. भारतने अपने चिन्तन को पहले से ही ठीक किया है। केवल चिन्तन को ही नहीं तो व्यवहार को भी सही आधार दिया है। श्रद्धा और विश्वास का महत्त्व दर्शाते हुए भारत की मनीषा कहती है कि श्रद्धा और विश्वास शंकर और पार्वती के समान एक-दूसरे से अभिन्न हैं। श्रद्धा और विश्वास के बिना सिद्ध लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। ऐसे श्रद्धा और विश्वास के बिना भारत का बौद्धिक विमर्श आरम्भ ही नहीं होता है।
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१३. उसी प्रकार से परस्पर व्यवहार का आधारभूत सूत्र आत्मीयता को बनाया । आत्मीयता के चलते व्यक्ति दूसरे को धोखा नहीं देता। उसके लाभ की, भले की, हित की चिन्ता करता है। दूसरे पर विश्वास या अविश्वास दिखाने से पहले स्वंय विश्वसनीय होने का प्रयास करता है जिसके बदले में उसे विश्वास और विश्वसनीयता प्राप्त होती है। परस्पर विश्वास से सुख, सौमनस्य, आश्वस्ति, शान्ति प्राप्त होना स्वाभाविक है। मन अच्छा बनने से विकास की सम्भावनायें बनती हैं।
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१४. अपने पूर्वजों के प्रति, गुरु के प्रति, मातापिता के प्रति, ज्ञानियों और तपस्वियों के प्रति, सज्जनों के प्रति, श्रद्धा का भाव रखना सहज है। श्रद्धायुक्त अन्तःकरण उस अन्तःकरण के स्वामी की सम्पत्ति है, जिनके प्रति श्रद्धा है उसके लिये श्रद्धेयता सम्पत्ति है और श्रद्धा के लायक होना उसके लिये साधना है। इस प्रकार श्रद्धा दोनों को उन्नत बनाती है।
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१५. आत्मीयता से जो तादात्म्य बनता है उससे प्रकृति में स्थित पदार्थ अपना अन्तरंग रहस्य प्रकट करते हैं। प्रयोगशाला में प्रयोग करने पर जो ज्ञान प्राप्त होता है उससे कहीं अधिक यह ज्ञान अधिकृत माना जाना चाहिये । परन्तु पश्चिम को अनुभूति का कुछ पता नहीं होने के कारण और श्रद्धा और विश्वास नहीं होने के कारण अनुभूति को अधिकृत मानना कठिन हो जाता है, और अपने अहंकार के कारण वह इसे ठुकरा देता है। भारत भी आज तो पश्चिम के प्रभाव के चलते वैसा ही व्यवहार करता है परन्तु भारत को अपनापन प्राप्त कर, स्व में स्थित होकर श्रद्धा और विश्वास को पुनःप्रतिष्ठित करना चाहिये।
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१६. भारत ने आज श्रद्धा और विश्वास को उपेक्षित कर दिया है। उसे पश्चिम की तरह वस्तुनिष्ठता (ऑब्जेक्टिविटी) में प्रतिष्ठा लगती है । सब्जेक्टिविटी (आत्मनिष्ठता) उसे प्रमाणभूत नहीं लगती है। परन्तु अपने अतीत में जो था उसका उसे अनुभव है। उस अतीत का स्मरण कर उसने पुनः अपने व्यवहार और अध्ययन के आधार को बदलना चाहिये।
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१७. बौद्धिक क्षेत्र में बाद में आयेगा तो भी चलेगा प्रथम परस्पर व्यवहार में उसे प्रतिष्ठित करना चाहिये । घरों में और विद्यालयों में विश्वसनीय और श्रद्धेय बनने के साथ ही विश्वास करने की शिक्षा देनी चाहिये । विश्वासघात करना कितना बुरा है यह भी सिखाना चाहिये।
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१८. विश्वास के आधार पर कुछ व्यवस्थायें भी बनाना चाहिये । बात बात में लिखित प्रमाण माँगना बन्द करना चाहिये । बोला हुआ मिथ्या न सिद्ध हो इसकी चिन्ता करनी चाहिये। जूठ नहीं बोलना चाहिये । हमने दिये हुए वचन का पालन हम न करें यह हो ही नहीं सकता ऐसी समझ धीरे धीरे सब की बननी चाहिये । इसका परिणाम बहुत अच्छा होगा।
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१९. श्रद्धा और विश्वास से युक्त व्यवहार करने का अर्थ यह नहीं है कि कौन विश्वसनीय है और कौन नहीं है इसकी हमें परवा ही न हो, कौन झूठ बोल रहा है और कौन नहीं इसकी समझ ही नहीं और कौन श्रद्धेय है और कौन नहीं यह हम पहचान ही न सकें। ऐसी समझ नहीं होना बुद्धपन है। इससे बचना चाहिये और वास्तव में बुद्धिमान बनना चाहिये।
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२०. पश्चिम को हमसे यदि सीखना है तो यह सीखना है। पश्चिम को प्रतीति करवानी चाहिये कि इनके बिना वह कितना अधूरा है, कैसी मूल्यवान बातों से वह वंचित है। इस योग्यता को प्राप्त करने से पूर्व भारत को स्वयं इन्हें अपनाने का पुरुषार्थ करना है। तभी भारत भारत बन सकता है। <blockquote>भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ । </blockquote><blockquote>याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थ मीश्वरम् ।।</blockquote>जिनके अभाव में सिद्ध अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख नहीं सकते ऐसे श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी और शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ।<blockquote>सद्धिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखितमक्षरम् ।</blockquote><blockquote>असद्भिः शपथेनापि जले लिखितमक्षरम् ।।</blockquote>सज्जनों ने हँसी मजाक में कहा हुआ भी शिलालेख समान होता है, दुर्जनों ने शपथ लेकर कहा हुआ भी जल पर लिखे अक्षरों के समान होता है।<blockquote>मनस्येकं वचस्येकं कर्मस्येकं महात्मनाम् । </blockquote><blockquote>मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मस्यन्यद् दुरात्मनाम् ।।</blockquote>मन में एक, वाणी में वही और कृति में वही होने वाले महात्मा होते हैं, मन में एक, वाणी में दूसरा और कृति में तीसरा है ऐसे लोग दरात्मा होते हैं।
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==== ८. प्राणशक्ति का अभाव ====
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# भारत का एक बौद्धिक व्यक्ति अपने भाषण अथवा लेख का प्रारम्भ करता है, 'भारत जैसे गरीब देश में...' अथवा 'भारत एक विकासशील देश है...' अथवा 'भारत में जनसंख्या जब एक विकट समस्या बनी है... ।' अर्थात् बौद्धिकों के लिये भारत की यह पहचान बनी है। बौद्धिकों से उतरते उतरते यह सामान्य जन तक पहुँचती है और वह भी यही बोलने लगता है।
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# हम ऐसे छोटे हैं, पिछडे हैं, गये बीते हैं तो फिर हम क्या कर सकते हैं ? हम विकसित नहीं हो सकते,  , हम नम्बर वन नहीं हो सकते । हम विज्ञान के क्षेत्र में सिद्धि हासिल नहीं कर सकते ।
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# ऐसा भाव दो कारणों से होता है। एक होता है हीनता बोध और दूसरा होता है प्राणशक्ति का अभाव । भारत में दोनों कारण उपस्थित हैं। हम धार्मिक हीनताबोध से भी ग्रस्त हैं और प्राणशक्ति के अभाव से भी पीडित हैं। हीनताबोध से उबरने की चर्चा हमने पूर्व में की है। प्राणशक्ति की क्षीणता कैसे दूर करें इसका विचार हमें करना है ।
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# प्राणशक्ति का प्रथम भौतिक आधार शुद्ध वायु और पौष्टिक आहार है । हमें देश में शुद्ध वायु और पौष्टिक आहार की योजना करनी होगी। विडम्बना यह है कि पौष्टिक आहार की बात आते ही हमें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में दिये जानेवाले मध्याह्न भोजन की, कैदखानों में कैदियों को दिये जाने वाले आहार की, अनाथालयों में दिये जानेवाले आहार की याद आती है परन्तु आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न घरों में मध्यम वर्गीय परिवारों में, होटलों में, ठेलों पर जो कचरे जैसा आहार पैसे खर्च करके खाया और खिलाया जाता है उसका स्मरण हमें नहीं आता।
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# वास्तव में इसमें सुधार की बहुत आवश्यकता है । इस सम्बन्ध में शिक्षा और प्रबोधन, विधि और निषेध, नियमन और नियन्त्रण की आवश्यकता है। परन्तु सर्वाधिक आवश्यकता धार्मिक आहारशास्त्र के स्वीकार की है। आज पश्चिमी आहारशास्त्र का अवलम्बन लेकर हमने अपना स्वास्थ्य खराब कर लिया है।
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# आहार से प्राणों का पोषण होता है। जिस पश्चिम के पास प्राणिक ऊर्जा की संकल्पना तक नहीं है, वाइटेलिटी को जो भौतिक ही मानता है उसमें प्राणशक्ति विकास की संकल्पना भी कैसे होगी ? भारत ने प्राणशक्ति का विकास कर ऐसी आहारपद्धति का विकास करना होगा।
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# ७. प्राणशक्ति के विकास के लिये शुद्ध वायु की आवश्यकता है। रसायणों से अशुद्ध हुई वायु हमारे लिये बहुत नुकसानकारक है। वाहन, कारखाने, प्लास्टिक और रसायण हमें जैविक स्तर पर बर्बाद कर रहे हैं यह समझने के लिये बहुत कुशाग्र बुद्धि की आवश्यकता नहीं है।
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# प्राणशक्ति के विकास के लिये प्राणायाम उतना ही आवश्यक है। श्वसन की पद्धति भी ठीक करने की आवश्यकता है । भरपूर खेलना, व्यायाम करना, श्रम करना, पसीना नितारना, खले दिल से हँसना आवश्यक है। यह व्यक्तियों के लिये तो है ही देश के लिये भी आवश्यक है।
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# रात्रि में उचित समय पर उचित पद्धति से पर्याप्त नींद लेना और प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में जगना भी प्राणशक्ति के विकास के लिये आवश्यक है । कितनी छोटी छोटी बातों का हमने त्याग किया है और उसका कितना खामियाजा भुगत रहे हैं इसका हमें लेश मात्र ज्ञान नहीं है।
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# ये तो शारीरिक स्तर की भौतिक बातें हई। परन्तु इनके साथ हमें अपने इतिहास को जानना चाहिये, अपने पूर्वजों को जानना चाहिये, अपने महापुरुषों को जानना चाहिये और अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करना चाहिये।
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# हमारे पूर्वज विश्व के सभी देशों में गये हैं और जहाँ गये वहाँ के लोगोंं का भला किया है। हम उनके सीधे वारिस हैं। हम क्यों ऐसा नहीं कर सकते ? हममें क्या कमी है ? हम जहाँ जायेंगे वहाँ अपने साथ शुभभावना लेकर जायेंगे और जीतेंगे। ऐसी भावना का विकास करना चाहिये ।
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# हमारा इतिहास यदि इतना समृद्ध है, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में हमने यदि इतनी सिद्धि प्राप्त की है तो हम विजयी ही होंगे ऐसा विश्वास हमें जाग्रत करना है। हम प्रयास करें और यशस्वी न हों ऐसा हो ही नहीं सकता।
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# ऐसा मनोभाव स्थिर करने के लिये हमें अपने आपको कसना होगा । हमारी बुद्धि, हमारा साहस, हमारा बल कसा जाने की आवश्यकता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों की परीक्षाओं में हम आसान प्रश्नों के उत्तर लिखकर उत्तीर्ण न हों । गणित जैसे विषयों में सौ प्रतिशत से कम अंकों से हम सन्तुष्ट न हों । जीवन की परीक्षा में भी हम मुसीबतों से बचकर चलने का प्रयास न करें। तभी हम विजीगीषु मनोवृत्ति का विकास कर सकते हैं।
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# अपना लक्ष्य नीचा न रखें, लक्ष्य निर्धारित कर उसे प्राप्त करने हेतु कठोर परिश्रम करने से न बचा यह आरम्भ किया है तो पूर्ण करना ही है ऐसा निर्धार बनायें । यही हमारी शिक्षा है जो हमें विजय के योग्य बनाती है।
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# हमारे लिये कोई भी बात कठिन कैसे हो सकती है ? कैसी भी कठिन बातों को हम आसान बनायेंगे । किसी भी लालच में नहीं फँसने का मनोबल हम प्राप्त करेंगे और कैसी भी कठिन समस्या को सुलझाने की तात्त्विक और व्यावहारिक बुद्धि को भी हम विकसित करेंगे।
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# जिन देशों का कोई प्राचीन इतिहास नहीं जिनकी समृद्धि लूट पर आधारित है, जिनके पास बुद्धि सामर्थ्य नहीं ऐसे देशों से प्रभावित होने की क्या आवश्यकता है ? उल्टे उन्हें चार बातें सिखाने की हमारी क्षमता है। भारत का एक सामान्य व्यक्ति भी सज्जनता के मामलो में विश्व के मान्धाताओं से बढकर है। फिर हमें अपने आपको नीचा मानने की क्या आवश्यकता है?
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# जो सम्पत्ति और बुद्धि आसुरी है * उसे तो पराभूत होना ही है नष्ट होना ही है। जो सज्जन सम्पत्ति है उसकी जय होने वाली ही है। इतिहास में कभी भी दुर्जनशक्ति की विजय नहीं हुई। आज की स्थिति में हमें सज्जनशक्ति बनना है और विश्व को दुर्जनता से मुक्त करना है। यह कार्य हम नहीं तो और कौन कर सकता है ?
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# इस प्रकार की मनोवृत्ति का विकास भारत को करना होगा। इसके लिये अपने आप को और पश्चिम को भी सम्यक रूप से जानने की आवश्यकता है। दोनों को जाने बिना न हमारे में विश्वास जगेगा, न रास्ता दिखेगा, यदि निश्चित किया तो यह सब कर पाना कठिन नहीं है । हाँ, निश्चय करना अवश्य कठिन है ।
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# यह कार्य सामाजिक संगठन बनाकर हो सकता है। सरकार, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संगठन, धार्मिक संगठन और सम्प्रदाय और विश्वविद्यालय मिलकर ऐसा संगठन बन सकता है। ऐसे संगठन ने यदि देशव्यापी योजना बनाई तो निश्चित ही यह कार्य हो सकता है।
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# यह भी स्मरण में रखना चाहिये कि विश्व में यदि कोई कर सकता है तो भारत ही यह कार्य कर सकता है। इतना भी यदि विश्वास हो जाता है तो आगे का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
    
==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा]]
   
[[Category:Education Series]]
 
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[[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 4: भारत की भूमिका]]

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