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=== मनोस्वास्थ्य प्राप्त करें ===
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==== १. अंग्रेजी और अंग्रेजियत से मुक्ति ====
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कल्पना करें कि एक ही रात्रि में ऐसा कोई चमत्कार घटित हो जाय कि किसी भी भारतीय को अंग्रेजी जैसा कुछ है इसका लेशमात्र स्मरण न हो । अंग्रेजी अखबार उसे समझ में न आये, अंग्रेजी चैनल उसे बडबड लगे, अंग्रेजी शब्द उसके शब्दकोष से गायब हो जाय, अंग्रेजी पुस्तकें उसे रद्दी में फैंकने लायक लगें।
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केवल अपने घर से ही नहीं तो घर के बाहर दकानों के फलक, रेल स्थानकों के नाम, रास्तों के नाम हिन्दी में ही लिखे मिलें । कार्यालय से अंग्रेजी गायब, ग्रन्थालयों से अंग्रेजी पुस्तकें गायब ।
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पूरा देश सोलहवीं शताब्दीमें पहुँच जाय जब किसी भारतवासी ने गोरी चमडी वाले व्यक्ति को देखा भी नहीं था और यूरोप का उसके लिये अस्तित्व ही नहीं था। यदि ऐसा हुआ तो क्या होगा?
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कौन कौन से क्षेत्र में हमें क्या क्या हानि या लाभ होगा ?
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हमें तुरन्त लगेगा कि हम पाँच सौ वर्ष पिछड जायेंगे। आगे बढ़ने की और पिछड जाने की पश्चिम की
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और हमारी संकल्पना में पूर्व पश्चिम जैसा ही अन्तर है। हमारा समय सत्ययुग से शुरू होता है और कलियुग की ओर बढता है। बढ़ते बढते सृष्टि के पदार्थों और मनुष्य के सत्त्व का क्षरण होता जाता है । इसलिये पाँच सौ वर्ष पूर्व जाना हमारे लिये तो आज की तुलना में अच्छे समय में जाना होगा । यूरोप के लिये समय के साथ विकास होता जाता है इसलिये पीछे जाने को वे पिछड जाना कहते हैं । हम उनके प्रभाव में पाँच सौ वर्ष पूर्व जाने को पिछड जाना कहते हैं।
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हमारे लिये यह पाँचसो वर्ष का काल एक दुःस्वप्न जैसा है, हमारी सारी समृद्धि लुट जाने का है, सारी व्यवस्थाओं के नष्ट हो जाने का है, हीनताबोध से ग्रस्त हो जाने का है, हमारी ज्ञान परम्परा के खण्डित हो जाने का है। क्या इस काल को भूल जाना हम नहीं चाहेंगे ? क्या पाँच सौ वर्ष पूर्व जैसे थे वैसे बनना नहीं चाहेंगे ?
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नहीं चाहेंगे, क्योंकि इन पाँच सौ वर्षों में हमें मधुर जहर का चटका लगा है। यह युग जेट विमान का है, मोबाइल और संगणक का है, टीवी और सिनेमा का है, बिजली और वातानुकूलित व्यवस्थाओं का है। हम इन सुविधाओं को छोडकर 'बैलगाडी के युग' में जाना पसन्द नहीं करेंगे । हमें आधुनिक बनना है ।
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यही अंग्रेजी और अंग्रेजीयत है जिसके मोह से हम मुक्त नहीं हो सकते हैं।
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परन्तु जब तक हम इस मोह से मुक्त नहीं होते तब तक हम गुलामी से भी मुक्त नहीं हो सकते ।
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क्या भारतीय ज्ञानधारा जिन ग्रन्थों में सुरक्षित है ऐसे वेद उपनिषद नहीं पढने से तो हमें कोई नुकसान नहीं होता परन्तु पश्चिम के विद्वानों को पढे बिना हमारा ज्ञान अधूरा है ऐसा ही, हमें लगता है ? क्या भगवद्गीता अंग्रेजी में पढना पर्याप्त हैं परन्तु काण्ट, हेगेल, न्यूटन या एरिस्टोटल मूल अंग्रेजी में पढना अनिवार्य है ऐसा ही हम मानते हैं ? क्या अंग्रेजी नहीं जानने वाले भारत के विद्वान विद्वान नहीं माने जाते क्योंकि पश्चिम उन्हें स्वीकार नहीं करता परन्तु संस्कृत नहीं जानने वाले का ज्ञान अधूरा है ऐसा हमें लगता है ?
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आज के जमाने में अंग्रेजी के बिना नहीं चलता ऐसा कहने का क्या व्यावहारिक अर्थ है ? क्या काम नहीं चलता ऐसे प्रश्न का कोई बुद्धिगम्य उत्तर हमारे पास नहीं होता तो भी हम अंग्रेजी चाहते हैं ।
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विश्वभर के शिक्षाविद एक स्वर में कहते हैं कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिये तो भी सरकार और प्रजा अंग्रजी माध्यम चाहती है। सरकार का पत्रव्यवहार भी अंग्रेजी में चलता है । आज तो स्थिति ऐसी है कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के सामने सब हार गये हैं।
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सवाल मात्र भाषा का नहीं है। हमें अंग्रेजी माध्यम के साथ साथ इण्टनेशनल बोर्ड भी चाहिये । इण्टरनेशनल का अर्थ है विदेशी केन्द्र और अंग्रेजी भाषा। हमारी वेशभूषा, शिष्टाचार, खानपान, घरों की बनावट और सजावट, विचार प्रणाली आदि सभी बातों में अंग्रेजी घुस गया है। इससे छुटकारा पाने की बात करते करते भी हम उसमें अधिकाधिक फंसते हैं. अंग्रेजीयत से मुक्त होने की चर्चा भी हम अंग्रेजी पद्धति से करते हैं।
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हमारे देश में दो चार प्रतिशत अंग्रेजी जानने वाले हैं। वे अपने आपको श्रेष्ठ मानते हैं। सरकार अंग्रेजी के मोह में फँसी हुई है। विश्वविद्यालय अंग्रेजी का प्रभूत्व मानते हैं। प्रशासन अंग्रेजी परस्त है। ये सब मिलकर देश की जनसंख्या के दो चार प्रतिशत ही होते हैं। परन्तु यह अंग्रेजी परस्त वर्ग अंग्रेजी नहीं जानने वालों पर राज करता है। यह तो स्वाधीनता पूर्व की ही स्थिति हुई।
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परन्तु इस दो चार प्रतिशत वाले समूह को तर्क से या भावना से समझाना कठिन ही नहीं, असम्भव है। इसलिये अब कोई दूसरा मार्ग ढूँढना चाहिये ।
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क्या हो सकता है दुसरा मार्ग ? देश के नब्बे प्रतिशत लोग बिना अंग्रेजी के अपना काम चला लेते हैं। अनजाने में भी वे भारतीय हैं। वे पिछडे, अनपढ, गँवार, निर्धन, असंस्कारी माने जाते हैं परन्तु भारत की परम्परा, भारत की संस्कृति, भारत का स्वत्व उनका ही आश्रय करके रहता है। वनवासी, चाय के ठेले वाले. रेलवे स्थानक के कुली, रिक्षा चलाने वाले, किसान, मजदूर आदि सब भारतीय जीवनमूल्यों के साथ जी रहे हैं । परम्परा से प्राप्त ज्ञान और कौशल आज भी उनके पास है। आज भी वे भलाई के काम करते हैं। वे संस्कृत नहीं जानते, देश दनिया की स्थिति नहीं जानते, अंग्रेजी भी नहीं जानते, देशभक्ति जैसी संकल्पना नहीं जानते, वे विद्वान नहीं हैं परन्तु आत्मीयता, प्राणियों के प्रति दया, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता उनमें है ।
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इनके भरोसे भारतीयता की प्रतिष्ठा की जा सकती है । प्रश्न यह है कि हम कहाँ हैं ? कहाँ रहना चाहते हैं ? हम इन दो चार प्रतिशत के लिये हैं या नब्बे प्रतिशत के लिये ? हम इस छोटे वर्ग में रहकर नब्बे के साथ काम करना चाहते हैं कि उनके साथ हो जाना चाहते हैं ?
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भारत की भारतीयता और उसकी प्रतिष्ठा चाहने वालों को स्वयं भी स्पष्ट होने की आवश्यकता है। अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के आभामण्डल से मुक्त होने पर ही हमारा मार्ग साफ होने वाला है।
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<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
 
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे

Revision as of 19:57, 11 January 2020

अध्याय ३४

मनोस्वास्थ्य प्राप्त करें

१. अंग्रेजी और अंग्रेजियत से मुक्ति

कल्पना करें कि एक ही रात्रि में ऐसा कोई चमत्कार घटित हो जाय कि किसी भी भारतीय को अंग्रेजी जैसा कुछ है इसका लेशमात्र स्मरण न हो । अंग्रेजी अखबार उसे समझ में न आये, अंग्रेजी चैनल उसे बडबड लगे, अंग्रेजी शब्द उसके शब्दकोष से गायब हो जाय, अंग्रेजी पुस्तकें उसे रद्दी में फैंकने लायक लगें।

केवल अपने घर से ही नहीं तो घर के बाहर दकानों के फलक, रेल स्थानकों के नाम, रास्तों के नाम हिन्दी में ही लिखे मिलें । कार्यालय से अंग्रेजी गायब, ग्रन्थालयों से अंग्रेजी पुस्तकें गायब ।

पूरा देश सोलहवीं शताब्दीमें पहुँच जाय जब किसी भारतवासी ने गोरी चमडी वाले व्यक्ति को देखा भी नहीं था और यूरोप का उसके लिये अस्तित्व ही नहीं था। यदि ऐसा हुआ तो क्या होगा?

कौन कौन से क्षेत्र में हमें क्या क्या हानि या लाभ होगा ?

हमें तुरन्त लगेगा कि हम पाँच सौ वर्ष पिछड जायेंगे। आगे बढ़ने की और पिछड जाने की पश्चिम की

और हमारी संकल्पना में पूर्व पश्चिम जैसा ही अन्तर है। हमारा समय सत्ययुग से शुरू होता है और कलियुग की ओर बढता है। बढ़ते बढते सृष्टि के पदार्थों और मनुष्य के सत्त्व का क्षरण होता जाता है । इसलिये पाँच सौ वर्ष पूर्व जाना हमारे लिये तो आज की तुलना में अच्छे समय में जाना होगा । यूरोप के लिये समय के साथ विकास होता जाता है इसलिये पीछे जाने को वे पिछड जाना कहते हैं । हम उनके प्रभाव में पाँच सौ वर्ष पूर्व जाने को पिछड जाना कहते हैं।

हमारे लिये यह पाँचसो वर्ष का काल एक दुःस्वप्न जैसा है, हमारी सारी समृद्धि लुट जाने का है, सारी व्यवस्थाओं के नष्ट हो जाने का है, हीनताबोध से ग्रस्त हो जाने का है, हमारी ज्ञान परम्परा के खण्डित हो जाने का है। क्या इस काल को भूल जाना हम नहीं चाहेंगे ? क्या पाँच सौ वर्ष पूर्व जैसे थे वैसे बनना नहीं चाहेंगे ?

नहीं चाहेंगे, क्योंकि इन पाँच सौ वर्षों में हमें मधुर जहर का चटका लगा है। यह युग जेट विमान का है, मोबाइल और संगणक का है, टीवी और सिनेमा का है, बिजली और वातानुकूलित व्यवस्थाओं का है। हम इन सुविधाओं को छोडकर 'बैलगाडी के युग' में जाना पसन्द नहीं करेंगे । हमें आधुनिक बनना है ।

यही अंग्रेजी और अंग्रेजीयत है जिसके मोह से हम मुक्त नहीं हो सकते हैं।

परन्तु जब तक हम इस मोह से मुक्त नहीं होते तब तक हम गुलामी से भी मुक्त नहीं हो सकते ।

क्या भारतीय ज्ञानधारा जिन ग्रन्थों में सुरक्षित है ऐसे वेद उपनिषद नहीं पढने से तो हमें कोई नुकसान नहीं होता परन्तु पश्चिम के विद्वानों को पढे बिना हमारा ज्ञान अधूरा है ऐसा ही, हमें लगता है ? क्या भगवद्गीता अंग्रेजी में पढना पर्याप्त हैं परन्तु काण्ट, हेगेल, न्यूटन या एरिस्टोटल मूल अंग्रेजी में पढना अनिवार्य है ऐसा ही हम मानते हैं ? क्या अंग्रेजी नहीं जानने वाले भारत के विद्वान विद्वान नहीं माने जाते क्योंकि पश्चिम उन्हें स्वीकार नहीं करता परन्तु संस्कृत नहीं जानने वाले का ज्ञान अधूरा है ऐसा हमें लगता है ?

आज के जमाने में अंग्रेजी के बिना नहीं चलता ऐसा कहने का क्या व्यावहारिक अर्थ है ? क्या काम नहीं चलता ऐसे प्रश्न का कोई बुद्धिगम्य उत्तर हमारे पास नहीं होता तो भी हम अंग्रेजी चाहते हैं ।

विश्वभर के शिक्षाविद एक स्वर में कहते हैं कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिये तो भी सरकार और प्रजा अंग्रजी माध्यम चाहती है। सरकार का पत्रव्यवहार भी अंग्रेजी में चलता है । आज तो स्थिति ऐसी है कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के सामने सब हार गये हैं।

सवाल मात्र भाषा का नहीं है। हमें अंग्रेजी माध्यम के साथ साथ इण्टनेशनल बोर्ड भी चाहिये । इण्टरनेशनल का अर्थ है विदेशी केन्द्र और अंग्रेजी भाषा। हमारी वेशभूषा, शिष्टाचार, खानपान, घरों की बनावट और सजावट, विचार प्रणाली आदि सभी बातों में अंग्रेजी घुस गया है। इससे छुटकारा पाने की बात करते करते भी हम उसमें अधिकाधिक फंसते हैं. अंग्रेजीयत से मुक्त होने की चर्चा भी हम अंग्रेजी पद्धति से करते हैं।

हमारे देश में दो चार प्रतिशत अंग्रेजी जानने वाले हैं। वे अपने आपको श्रेष्ठ मानते हैं। सरकार अंग्रेजी के मोह में फँसी हुई है। विश्वविद्यालय अंग्रेजी का प्रभूत्व मानते हैं। प्रशासन अंग्रेजी परस्त है। ये सब मिलकर देश की जनसंख्या के दो चार प्रतिशत ही होते हैं। परन्तु यह अंग्रेजी परस्त वर्ग अंग्रेजी नहीं जानने वालों पर राज करता है। यह तो स्वाधीनता पूर्व की ही स्थिति हुई।

परन्तु इस दो चार प्रतिशत वाले समूह को तर्क से या भावना से समझाना कठिन ही नहीं, असम्भव है। इसलिये अब कोई दूसरा मार्ग ढूँढना चाहिये ।

क्या हो सकता है दुसरा मार्ग ? देश के नब्बे प्रतिशत लोग बिना अंग्रेजी के अपना काम चला लेते हैं। अनजाने में भी वे भारतीय हैं। वे पिछडे, अनपढ, गँवार, निर्धन, असंस्कारी माने जाते हैं परन्तु भारत की परम्परा, भारत की संस्कृति, भारत का स्वत्व उनका ही आश्रय करके रहता है। वनवासी, चाय के ठेले वाले. रेलवे स्थानक के कुली, रिक्षा चलाने वाले, किसान, मजदूर आदि सब भारतीय जीवनमूल्यों के साथ जी रहे हैं । परम्परा से प्राप्त ज्ञान और कौशल आज भी उनके पास है। आज भी वे भलाई के काम करते हैं। वे संस्कृत नहीं जानते, देश दनिया की स्थिति नहीं जानते, अंग्रेजी भी नहीं जानते, देशभक्ति जैसी संकल्पना नहीं जानते, वे विद्वान नहीं हैं परन्तु आत्मीयता, प्राणियों के प्रति दया, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता उनमें है ।

इनके भरोसे भारतीयता की प्रतिष्ठा की जा सकती है । प्रश्न यह है कि हम कहाँ हैं ? कहाँ रहना चाहते हैं ? हम इन दो चार प्रतिशत के लिये हैं या नब्बे प्रतिशत के लिये ? हम इस छोटे वर्ग में रहकर नब्बे के साथ काम करना चाहते हैं कि उनके साथ हो जाना चाहते हैं ?

भारत की भारतीयता और उसकी प्रतिष्ठा चाहने वालों को स्वयं भी स्पष्ट होने की आवश्यकता है। अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के आभामण्डल से मुक्त होने पर ही हमारा मार्ग साफ होने वाला है।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे