भौतिकता को आधार मानने के परिणाम

From Dharmawiki
Revision as of 15:15, 18 June 2020 by Pṛthvī (talk | contribs) (Text replacement - "भारतीय" to "धार्मिक")
Jump to navigation Jump to search
ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

१. पश्चिमी जीवनविचार आत्मतत्त्व को नहीं जानता है । इसी कारण से उसे आध्यात्मिक सोच का भी पता नहीं है । अंग्रेजी भाषा में “स्पीरीच्युअल' जैसा शब्द तो है और उसका भारत में “आध्यात्मिक' ऐसा अनुवाद भी किया जाता है परन्तु दोनों संकल्पनाओं की व्याप्ति भिन्न है । इस भिन्नता की ओर ध्यान नहीं देने से पश्चिमी जीवनविचार को भी ठीक से जाना नहीं जा सकता ।

२. धार्मिक जीवनविचार अध्यात्म का अधिष्टान लिये है जबकि पश्चिमी जीवनविचार भौतिकता का । इसका तात्पर्य क्या है ? इसका तात्पर्य यह है कि भारत में भौतिकता का विरोध नहीं है अपितु अध्यात्म के प्रकाश में भौतिकता को मान्यता है । जो अध्यात्म के अविरोध है ऐसी भौतिकता को मान्यता है ।

३. भौतिकता का अर्थ मनुष्य के व्यक्तित्व में होता है अन्नमय शरीर और उसे जीवित रखनेवाला शरीर । सृष्टि में उसका अर्थ होता है पंचमहाभूतात्मक पदार्थ । मनुष्य के व्यक्तित्व में शरीर और प्राण के अलावा अन्तःकरण होता है और सृष्टि में सत्व, रज और तम ऐसे तीन गुण होते हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व में अन्तःकरण का विचार तो होता है परन्तु उसे शरीर के अनुकूल बनाया जाता है । सृष्टि के तीन गुणों के अस्तित्व और उनकी भूमिका के विषय में कोई स्पष्टता नहीं है ।

४. मनुष्य के अन्तःकरण में मन बहुत प्रभावी होता है । मन को इच्छायें होती हैं। मन को रुचि अरुचि, wes, मानअपमान आदि होते हैं। मन में काम क्रोध, लोभमोह आदि होते हैं। आध्यात्मिक अधिष्ठान होता है तब मन को वश में करने का और बुद्धि के नियन्त्रण में रखने का विचार किया जाता है और इसके उपाय भी किये जाते हैं। बुद्धि भी मनोनिष्ठ नहीं अपितु आत्मनिष्ठ हो इसके लिये उपाय किये जाते हैं। परन्तु पश्चिमी विचार में बुद्धि भी मनोनिष्ठ होती है और शरीर के सन्दर्भ में ही सुख का विचार किया जाता है ।

५. मन कामनाओं का पुंज है, अतः सम्पूर्ण जीवनचर्या का प्रेरक तत्त्त कामनापूर्ति होता है और भौतिक पदार्थों की प्राप्ति कामनापूर्ति का स्वरूप होता है ।

६. कामनायें अनन्त होती हैं, उनकी पूर्ति असम्भव होती है इसलिये कामनापूर्ति का पुरुषार्थ भी कभी रुकता नहीं है । कामनाओं की पूर्ति जितनी अधिक मात्रा में होती है उतना ही अधिक सुख मिलता है और जितना अधिक सुख मिलता है उतनी ही अधिक सफलता मानी जाती है ।

७. अनेकविध रूपों में भौतिकता का विस्तार दिखाई देता है । वस्तुओं का मूल्यांकन बाह्य रूप के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिये विद्यालय का भवन कितना भव्य है और उसमें सुविधायें कैसी हैं, इसका शुल्क कितना ऊँचा है यह मूल्यांकन का बिन्दु होता है । सर्वागीण मूल्यांकन में यह बिन्दु भी प्रभावी होता है । सामान्य भवन में और कम सुविधाओं में भी शिक्षा अच्छी हो सकती है ऐसा लगता ही नहीं है तो मूल्यांकन में इसका क्रम उपर होने की तो कल्पना भी नहीं हो सकती ।

८. कोई कार्यक्रम या कोई प्रकल्प कितने रूपये के बजेट वाला है इसके आधार पर जाना जाता है। कम बजट वाला कार्यक्रम अपने आप में कम गुणवत्ता वाला बन जाता है । वास्तव में कम खर्च में अधिक भव्य कार्यक्रम करनेवालों को मूल्यांकन में अग्रताक्रम मिलना चाहिये । परन्तु भौतिक वादियों को यह नहीं समझता है ।

९. प्रतिव्यक्ति आय, देश की कुल मिलाकर आय, ऐसी आय बढाने वाला उत्पादन देश को विकास के ढाँचे में स्थान दिलाने के मापदण्ड होते हैं । कौनसी वस्तु का उत्पादन किया जाता है इससे कोई सम्बन्ध नहीं । उदाहरण शराब, शस्त्र, गोमाँस आदि से आय बढती है तो वे काम के हैं अन्यथा नहीं । भारत के घरों में घर में ही भोजन किया जाता है और होटेल में कम जाया जाता है इसलिये होटेल अधिक नहीं चलते हैं इसलिये देश की कुल आय कम होती है । भारत के घरों में गृहिणियों को भोजन बनाने का पैसा नहीं दिया जाता इसलिये देश की आय कम होती है । देश में यदि लोग बीमार कम होते हों तो अस्पताल और दवाई बाजार कम चलेंगे । परिणाम स्वरूप देश की आय कम होगी । इसका परिणाम यह होगा कि देश विकसित देशों की श्रेणी में न आकर विकासशील देश माना जायेगा क्योंकि विश्व का मानक आज भौतिकता बन गया है। आज भारत विकसित नहीं अपितु विकासशील देश माना जाता है इसका एक कारण तो यही है । देश में अभी भी संस्कृति बची है इसलिये वह विकसित देश नहीं है । भारत को आर्न्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार विकसित बनना है तो उसे अपनी संस्कृति छोडनी पडेगी ।

१०. भारत में इस भौतिकता का प्रभाव फैल रहा है । हम भी भौतिक विकास को ही विकास मानने लगे हैं और ऐसे विकसित होने के लिये प्रयास भी कर रहे हैं । अपनी संस्कृति छोड़ना हमारे लिये सर्वथा सम्भव नहीं होता है, हम इतने अधिक व्यावहारिक और “व्यावसायिक' नहीं होते हैं इसलिये भौतिक “विकास” नहीं कर पाते और विकासशील ही रह जाते हैं । वास्तव में इसे अपना सौभाग्य मानना चाहिये कि भौतिकता के बढ़ते प्रभाव में हम तो अपनी संस्कृति को छोड रहे हैं परन्तु संस्कृति हमें नहीं छोड रही है ।

११. घर का मापदण्ड है कितने अधिक शयनकक्ष है, विद्यालय का और एक मापदण्ड कितनी अधिक विद्यार्थी संख्या है, समारोहों का मापदण्ड कितने अधिक श्रोता और कितना अधिक खर्च, प्रभावी होने का मापदण्ड है कितने अधिक मत हैं, सफलता का मापदण्ड है परीक्षा में कितने अधिक अंक मिले हैं, नौकरी का मापदृण्ड कितना अच्छा काम नहीं अपितु कितना अधिक वेतन है, होस्पिटल का मापदण्ड कितने अधिक रोगी हैं - यह एक अत्यन्त ही उल्टी दृष्टि का विकास है ।

१२. कामनाओं की पूर्ति करना ही लक्ष्य रहता है और कामनायें अनन्त होने के कारण उनकी पूर्ति होना सम्भव नहीं इसलिये मन हमेश छटपटाहट का अनुभव करता है । उसे “चाहिये', “चाहिये' तो होता है परन्तु प्राप्त वस्तुओं का अतिरेक होते होते वह ऊबने लगता है, नित्य नई चीज माँगता है, नित्य नई वस्तु की खोज में तृष्णा से पागल हो जाता है । फिर चंचलता गति में, उत्तेजना उन्माद में और असन्तोष हिंसा में परिणत होता है । सर्व प्रकार के अनाचार इससे पनपते हैं ।

१३. ये तो लगभग समझ में आने वाली बातें हैं । परन्तु भौतिकतावादी दृष्टि इससे भी गहराई में उतरकर अभौतिक बातों को भौतिक बना देती है । इसका एक अत्यन्त मुखर उदाहरण योग है । योग अध्यात्मविद्या है। योग का सार समाधि है। योग का परिणाम आत्मसाक्षात्कार है । परन्तु हम योग के अत्यन्त स्थूल अंगों को ही वजूद देते हैं । आसन और प्राणायाम, जिनका सम्बन्ध शरीर और प्राण के साथ है, अर्थात्‌ व्यक्तित्व के भौतिक आयाम के साथ है वही हमें योग लगता है । हम उनकी स्पर्धा आयोजित करते हैं । वास्तव में ये भौतिक आयाम होने पर भी स्पर्धा के विषय नहीं हैं। फिर भी हम स्पर्धा करते हैं । यह नियम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का कुछ नहीं हो सकता, ये आन्तरिक विषय हैं । अतः हमारे लिये योग अन्तःकरण के स्थान पर शारीरिक विषय हो गया है। शरीर से सम्बन्धित व्यायाम और चिकित्सा ही हमारे लिये योग के विषय हैं । अध्यात्म को भी भौतिक बना देने की अद्भुत क्षमता हमने दिखाई है । दूसरा विषय मनोविज्ञान है । मनोविज्ञान सीधा सीधा मन से सम्बन्धित विषय है, परन्तु मनोविज्ञान के सारे परीक्षण भौतिकता पर आधारित है । कला, संस्कृति, साहित्य, संगीत आदि अन्तःकरण के सारे विषय भौतिक बन जाते हैं । टीवी के सारे कार्यक्रम साजसज्जा, वेशभूषा, ध्वनिप्रकाश आदि के आधार पर प्रभाव डालते हैं, कला का तत्त्व कम ही होता है । उसका महत्त्व भी कम होता है ।

१४. विकास के तो सारे के सारे मापदण्ड भौतिक हैं । सडकों की चौडाई अधिक से अधिकतर होती जाती है, वाहनों की संख्या में वृद्धि होती है, कम्प्यूटरों की, मोबाईल की संख्या बढती जाती है । और विकास का दर बढता जाता है । अब तो “सुख का सूचकांक' भी माना जायेगा जिसमें सुख को नापने के मापदण्ड भी भौतिक होंगे ।