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१२. कामनाओं की पूर्ति करना ही लक्ष्य रहता है और कामनायें अनन्त होने के कारण उनकी पूर्ति होना सम्भव नहीं इसलिये मन हमेश छटपटाहट का अनुभव करता है । उसे “चाहिये', “चाहिये' तो होता है परन्तु प्राप्त वस्तुओं का अतिरेक होते होते वह ऊबने लगता है, नित्य नई चीज माँगता है, नित्य नई वस्तु की खोज में तृष्णा से पागल हो जाता है । फिर चंचलता गति में, उत्तेजना उन्माद में और असन्तोष हिंसा में परिणत होता है । सर्व प्रकार के अनाचार इससे पनपते हैं ।
 
१२. कामनाओं की पूर्ति करना ही लक्ष्य रहता है और कामनायें अनन्त होने के कारण उनकी पूर्ति होना सम्भव नहीं इसलिये मन हमेश छटपटाहट का अनुभव करता है । उसे “चाहिये', “चाहिये' तो होता है परन्तु प्राप्त वस्तुओं का अतिरेक होते होते वह ऊबने लगता है, नित्य नई चीज माँगता है, नित्य नई वस्तु की खोज में तृष्णा से पागल हो जाता है । फिर चंचलता गति में, उत्तेजना उन्माद में और असन्तोष हिंसा में परिणत होता है । सर्व प्रकार के अनाचार इससे पनपते हैं ।
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१३. ये तो लगभग समझ में आने वाली बातें हैं । परन्तु भौतिकतावादी दृष्टि इससे भी गहराई में उतरकर अभौतिक बातों को भौतिक बना देती है । इसका एक अत्यन्त मुखर उदाहरण योग है । योग अध्यात्मविद्या है। योग का सार समाधि है। योग का परिणाम आत्मसाक्षात्कार है । परन्तु हम योग के अत्यन्त स्थूल अंगों को ही वजूद देते हैं । आसन और प्राणायाम, जिनका सम्बन्ध शरीर और प्राण के साथ है, अर्थात्‌ व्यक्तित्व के भौतिक आयाम के साथ है वही हमें योग लगता है । हम उनकी स्पर्धा आयोजित करते हैं । वास्तव में ये भौतिक आयाम होने पर भी स्पर्धा के विषय नहीं हैं। फिर भी हम स्पर्धा करते हैं । यह नियम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का कुछ नहीं हो सकता, ये आन्तरिक विषय हैं । अतः हमारे लिये योग अन्तःकरण के स्थान पर शारीरिक विषय हो गया है। शरीर से सम्बन्धित व्यायाम और चिकित्सा ही हमारे लिये योग के विषय हैं । अध्यात्म को भी भौतिक बना देने की अद्भुत क्षमता हमने दिखाई है । दूसरा विषय मनोविज्ञान है । मनोविज्ञान सीधा सीधा मन से सम्बन्धित विषय है, परन्तु मनोविज्ञान के सारे परीक्षण भौतिकता पर आधारित है । कला, संस्कृति, साहित्य, संगीत आदि अन्तःकरण के सारे विषय भौतिक बन जाते हैं । टीवी के सारे कार्यक्रम साजसज्जा, वेशभूषा, ध्वनिप्रकाश आदि के आधार पर प्रभाव डालते हैं, कला का तत्त्व कम ही होता है । उसका महत्त्व भी कम होता है ।   
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१३. ये तो लगभग समझ में आने वाली बातें हैं । परन्तु भौतिकतावादी दृष्टि इससे भी गहराई में उतरकर अभौतिक बातों को भौतिक बना देती है । इसका एक अत्यन्त मुखर उदाहरण योग है । योग अध्यात्मविद्या है। योग का सार समाधि है। योग का परिणाम आत्मसाक्षात्कार है । परन्तु हम योग के अत्यन्त स्थूल अंगों को ही वजूद देते हैं । आसन और प्राणायाम, जिनका सम्बन्ध शरीर और प्राण के साथ है, अर्थात्‌ व्यक्तित्व के भौतिक आयाम के साथ है वही हमें योग लगता है । हम उनकी स्पर्धा आयोजित करते हैं । वास्तव में ये भौतिक आयाम होने पर भी स्पर्धा के विषय नहीं हैं। तथापि हम स्पर्धा करते हैं । यह नियम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का कुछ नहीं हो सकता, ये आन्तरिक विषय हैं । अतः हमारे लिये योग अन्तःकरण के स्थान पर शारीरिक विषय हो गया है। शरीर से सम्बन्धित व्यायाम और चिकित्सा ही हमारे लिये योग के विषय हैं । अध्यात्म को भी भौतिक बना देने की अद्भुत क्षमता हमने दिखाई है । दूसरा विषय मनोविज्ञान है । मनोविज्ञान सीधा सीधा मन से सम्बन्धित विषय है, परन्तु मनोविज्ञान के सारे परीक्षण भौतिकता पर आधारित है । कला, संस्कृति, साहित्य, संगीत आदि अन्तःकरण के सारे विषय भौतिक बन जाते हैं । टीवी के सारे कार्यक्रम साजसज्जा, वेशभूषा, ध्वनिप्रकाश आदि के आधार पर प्रभाव डालते हैं, कला का तत्त्व कम ही होता है । उसका महत्त्व भी कम होता है ।   
    
१४. विकास के तो सारे के सारे मापदण्ड भौतिक हैं । सडकों की चौडाई अधिक से अधिकतर होती जाती है, वाहनों की संख्या में वृद्धि होती है, कम्प्यूटरों की, मोबाईल की संख्या बढती जाती है । और विकास का दर बढता जाता है । अब तो “सुख का सूचकांक' भी माना जायेगा जिसमें सुख को नापने के मापदण्ड भी भौतिक होंगे ।
 
१४. विकास के तो सारे के सारे मापदण्ड भौतिक हैं । सडकों की चौडाई अधिक से अधिकतर होती जाती है, वाहनों की संख्या में वृद्धि होती है, कम्प्यूटरों की, मोबाईल की संख्या बढती जाती है । और विकास का दर बढता जाता है । अब तो “सुख का सूचकांक' भी माना जायेगा जिसमें सुख को नापने के मापदण्ड भी भौतिक होंगे ।

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