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=== अध्याय ४१ ===
 
=== अध्याय ४१ ===
हे विश्ववासियों, भारत विश्व को एक मानता है, सबको अपना मानता है। वह जगत का मित्र है। वह कभी किसी का अहित करता नहीं है, अहित चाहता भी नहीं है । जो अपने पास है वह सबको देना चाहता है । जो अपने पास है उसका स्वयं उपभोग करने से पहले सबको देना चाहता है। अपने सामर्थ्य से किसी को भयभीत करना भारत का धर्म नहीं है। अपने सामर्थ्य से सबकी सहायता करना, सबकी रक्षा करना, सबका पोषण करना भारत का धर्म है । ऐसा नहीं हैं कि भारत आज ही यह कह रहा है। भारत की यह सहस्राब्दियों की परम्परा रही है । पाँच हजार वर्ष पूर्व भारत में कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध हुआ था इसकी कथा तो आपने सुनी होगी। दुर्योधनने युधिष्ठिर आदि को राज्य देने से तो इन्कार कर दिया परन्तु बडों के परामर्श से बीहड जंगल उन्हें निवास के लिये दे दिया । उस बीहड जंगल का रूपान्तरण इन्द्रप्रस्थ नामक सुन्दर नगरी में कर देने वाला मय नामक राक्षस स्थपति मयदेश का था जिसे आज मैक्सिको कहते हैं। अमेरिका को हम भारतवासी पाताल देश के नाम से स्वयं अमेरिका जानता है उससे हजारों वर्ष पूर्व से जानते हैं। आफ्रिका हमारे लिये शाकद्वीप और शाल्मली द्वीप है। दुनिया के लगभग सभी देशों में आज भी धार्मिक संस्कृति के अवशेष शिल्प, स्थापत्य, वनविद्या, कृषिविद्या, वेदशाला, गणित जैसे शास्त्रों के रूप में हैं। वह दर्शाता है कि भारत ने सम्पूर्ण विश्व का प्रवास किया है, वहाँ निवास किया हैं, वहाँ संस्कृति का प्रसार भी किया है। हमने विश्व को जीता है शस्त्रों से नहीं, शास्त्रों से भी नहीं, युक्ति से भी नहीं। हमने दुनिया को मैत्री से, शुभचिन्तन से और प्रेम से जीता है। हमने दुनिया को अपना माना है, अपना बनाया है । अतः आज भी संकटग्रस्त विश्व की सहायता करना भारत के लिय स्वाभाविक है। ऐसा करने में भारत अपना ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य ही मानता है। हम दुनिया को ऐसा विश्वास दिलाना चाहते हैं।
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हे विश्ववासियों, भारत विश्व को एक मानता है, सबको अपना मानता है। वह जगत का मित्र है। वह कभी किसी का अहित करता नहीं है, अहित चाहता भी नहीं है । जो अपने पास है वह सबको देना चाहता है । जो अपने पास है उसका स्वयं उपभोग करने से पहले सबको देना चाहता है। अपने सामर्थ्य से किसी को भयभीत करना भारत का धर्म नहीं है। अपने सामर्थ्य से सबकी सहायता करना, सबकी रक्षा करना, सबका पोषण करना भारत का धर्म है । ऐसा नहीं हैं कि भारत आज ही यह कह रहा है। भारत की यह सहस्राब्दियों की परम्परा रही है । पाँच हजार वर्ष पूर्व भारत में कौरवों और पाण्डवों के मध्य युद्ध हुआ था इसकी कथा तो आपने सुनी होगी। दुर्योधनने युधिष्ठिर आदि को राज्य देने से तो इन्कार कर दिया परन्तु बडों के परामर्श से बीहड जंगल उन्हें निवास के लिये दे दिया । उस बीहड जंगल का रूपान्तरण इन्द्रप्रस्थ नामक सुन्दर नगरी में कर देने वाला मय नामक राक्षस स्थपति मयदेश का था जिसे आज मैक्सिको कहते हैं। अमेरिका को हम भारतवासी पाताल देश के नाम से स्वयं अमेरिका जानता है उससे हजारों वर्ष पूर्व से जानते हैं। आफ्रिका हमारे लिये शाकद्वीप और शाल्मली द्वीप है। दुनिया के लगभग सभी देशों में आज भी धार्मिक संस्कृति के अवशेष शिल्प, स्थापत्य, वनविद्या, कृषिविद्या, वेदशाला, गणित जैसे शास्त्रों के रूप में हैं। वह दर्शाता है कि भारत ने सम्पूर्ण विश्व का प्रवास किया है, वहाँ निवास किया हैं, वहाँ संस्कृति का प्रसार भी किया है। हमने विश्व को जीता है शस्त्रों से नहीं, शास्त्रों से भी नहीं, युक्ति से भी नहीं। हमने दुनिया को मैत्री से, शुभचिन्तन से और प्रेम से जीता है। हमने दुनिया को अपना माना है, अपना बनाया है । अतः आज भी संकटग्रस्त विश्व की सहायता करना भारत के लिय स्वाभाविक है। ऐसा करने में भारत अपना ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य ही मानता है। हम दुनिया को ऐसा विश्वास दिलाना चाहते हैं।
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ऐसा नहीं है कि हम सिखाने के सामर्थ्य का अहंकार पालते हैं। हम दुनिया से सीखे भी हैं । हमने आक्रमणों का प्रतिकार किया है परन्तु, आक्रान्ताओं को आत्मसात कर उनसे अनेक बातें ग्रहण की हैं। उन्हें अपना बनाया है। हम आक्रमक बनकर नहीं अपितु मित्र बनकर गये तो जहाँ गये वहाँ से बहुत कुछ सीखा। सीखते सीखते हम भावात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध भी हुए हैं । आप अभी अभी ग्लोबल संज्ञा का प्रयोग करने लगे हैं, हम हमेशा ही वैश्विकता का विचार करते आये हैं। हमारा संन्यासी 'स्वदेशो भुवनत्र' की घोषणा करता है। हमारा कवि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को उदारता का लक्षण मानता है। हमारी उपनिषद 'सर्वभूतहितेरताः' को भगवान के भक्त मानती है । हमारे इतिहासकार अपने सम्पूर्ण कथन का सार बताते हुए कहते हैं, 'परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्' आपका और हमारा अन्तर केवल इतना ही है कि आप मुख्य रूप से अर्थ के सन्दर्भ में और निहित रूप से सत्ता अथवा आधिपत्य के सन्दर्भ में ग्लोबलाइझेशन की बात करते हैं हम सांस्कृतिक सन्दर्भ में वैश्विकता का समर्थन करते हैं। और यही मुद्दा हम आपको समझाना चाहते हैं। आर्थिक सन्दर्भ से ग्लोबलाइझेश की कल्पना करना और उसे साकार करने का प्रवास करना अन्यों के और अपने विनाश की ओर जाना है जबकि सांस्कृतिक सन्दर्भ से वैश्विकता की बात करना सब मिलकर विकास की दिशा में अग्रसर होना है। हम मिलकर उन्नति की ओर बढें ऐसी ही कामना आप भी करें यही हमारा निवेदन है।
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ऐसा नहीं है कि हम सिखाने के सामर्थ्य का अहंकार पालते हैं। हम दुनिया से सीखे भी हैं । हमने आक्रमणों का प्रतिकार किया है परन्तु, आक्रान्ताओं को आत्मसात कर उनसे अनेक बातें ग्रहण की हैं। उन्हें अपना बनाया है। हम आक्रमक बनकर नहीं अपितु मित्र बनकर गये तो जहाँ गये वहाँ से बहुत कुछ सीखा। सीखते सीखते हम भावात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध भी हुए हैं । आप अभी अभी ग्लोबल संज्ञा का प्रयोग करने लगे हैं, हम सदा ही वैश्विकता का विचार करते आये हैं। हमारा संन्यासी 'स्वदेशो भुवनत्र' की घोषणा करता है। हमारा कवि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को उदारता का लक्षण मानता है। हमारी उपनिषद 'सर्वभूतहितेरताः' को भगवान के भक्त मानती है । हमारे इतिहासकार अपने सम्पूर्ण कथन का सार बताते हुए कहते हैं, 'परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्' आपका और हमारा अन्तर केवल इतना ही है कि आप मुख्य रूप से अर्थ के सन्दर्भ में और निहित रूप से सत्ता अथवा आधिपत्य के सन्दर्भ में ग्लोबलाइझेशन की बात करते हैं हम सांस्कृतिक सन्दर्भ में वैश्विकता का समर्थन करते हैं। और यही मुद्दा हम आपको समझाना चाहते हैं। आर्थिक सन्दर्भ से ग्लोबलाइझेश की कल्पना करना और उसे साकार करने का प्रवास करना अन्यों के और अपने विनाश की ओर जाना है जबकि सांस्कृतिक सन्दर्भ से वैश्विकता की बात करना सब मिलकर विकास की दिशा में अग्रसर होना है। हम मिलकर उन्नति की ओर बढें ऐसी ही कामना आप भी करें यही हमारा निवेदन है।
    
==== शिक्षा विषयक संकल्पना बदलना ====
 
==== शिक्षा विषयक संकल्पना बदलना ====
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# आपके आठ नौ वर्ष की आयु के विद्यार्थी के बस्ते में पिस्तौल या पिस्तौल जैसा शस्र होता है। वह उसे चलाना जानता भी है और चाहता भी है। वह अपने स्वजनों पर ही उसे चलाता है।  
 
# आपके आठ नौ वर्ष की आयु के विद्यार्थी के बस्ते में पिस्तौल या पिस्तौल जैसा शस्र होता है। वह उसे चलाना जानता भी है और चाहता भी है। वह अपने स्वजनों पर ही उसे चलाता है।  
 
# आप की बारह तेरह वर्ष की आयु की लडकियाँ गर्भवती होती हैं। उनके लिये गर्भपात भी एक खेल है।  
 
# आप की बारह तेरह वर्ष की आयु की लडकियाँ गर्भवती होती हैं। उनके लिये गर्भपात भी एक खेल है।  
# आपके सत्तर प्रतिशत बच्चे सिंगल पेरैण्ट चिल्ड्रन हैं। क्या बच्चों का अधिकार नहीं है कि उनके माता और पिता का प्रेम और सुरक्षा उन्हें मिले ? क्या आप अपने देश के युवक-युवतियों को अच्छे माता और पिता बनने की शिक्षा नहीं दे सकते ?  
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# आपके सत्तर प्रतिशत बच्चे सिंगल पेरैण्ट चिल्ड्रन हैं। क्या बच्चोंं का अधिकार नहीं है कि उनके माता और पिता का प्रेम और सुरक्षा उन्हें मिले ? क्या आप अपने देश के युवक-युवतियों को अच्छे माता और पिता बनने की शिक्षा नहीं दे सकते ?  
 
# आपके लिये पदार्थ, प्राणी, मनुष्य, भगवान सब कुछ खरीदने और बेचने की वस्तुयें हैं। क्या यह अति विचित्र स्थिति नहीं है ?
 
# आपके लिये पदार्थ, प्राणी, मनुष्य, भगवान सब कुछ खरीदने और बेचने की वस्तुयें हैं। क्या यह अति विचित्र स्थिति नहीं है ?
 
ये तो कुछ उदाहरण हैं । ऐसे तो सैंकडों उदाहरण हम दे सकते हैं । परन्तु विचार करने लायक बात यह है कि ऐसी स्थिति और ऐसी मानसिकता कैसे निर्माण होती है ? निश्चित ही आपकी शिक्षा इसके लिये कारणभूत है। आप विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र ऐसा पढाते हैं कि सामाजिक समरसता, बन्धुता, आदर और श्रद्धा जैसे तत्त्व ही पैदा नहीं होते । इन तत्त्वों की आप कल्पना भी नहीं कर सकते । आप ऐसा अर्थशास्त्र पढाते हैं जिसके परिणामस्वरूप सबकुछ बिकाऊ बन जाता है और आर्थिक शोषण, लूट, हत्या, आधिपत्य, दूसरों को गुलाम बनाना आदि सब बिना हिचकिचाहट से मान्य हो जाता है।
 
ये तो कुछ उदाहरण हैं । ऐसे तो सैंकडों उदाहरण हम दे सकते हैं । परन्तु विचार करने लायक बात यह है कि ऐसी स्थिति और ऐसी मानसिकता कैसे निर्माण होती है ? निश्चित ही आपकी शिक्षा इसके लिये कारणभूत है। आप विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र ऐसा पढाते हैं कि सामाजिक समरसता, बन्धुता, आदर और श्रद्धा जैसे तत्त्व ही पैदा नहीं होते । इन तत्त्वों की आप कल्पना भी नहीं कर सकते । आप ऐसा अर्थशास्त्र पढाते हैं जिसके परिणामस्वरूप सबकुछ बिकाऊ बन जाता है और आर्थिक शोषण, लूट, हत्या, आधिपत्य, दूसरों को गुलाम बनाना आदि सब बिना हिचकिचाहट से मान्य हो जाता है।
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==== आर्थिक आधिपत्य के बारे में विचार ====
 
==== आर्थिक आधिपत्य के बारे में विचार ====
विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने की आकांक्षा से ग्रस्त होकर अमेरिका राष्ट्रों के साथ व्यवहार कर रहा है। पाँच सो वर्ष पूर्व से यूरोप ने अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास शुरू किया था उसका ही यह नवीन संस्करण है। उस समय यूरोप था, आज अमेरिका है। देशों के नाम भले ही बदलें हों, प्रजा वही है। विगत पाँच सौ वर्षों में यूरोप के अन्यान्य देशों ने पूर्व अपरिचित अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये, अठारहवीं शातब्दी के उत्तरार्ध में ये सारे उपनिवेश अपने मूल देशों से स्वतन्त्र होकर अमेरिकन देश बन गये और अपने आपको यूरोपीय नहीं अपितु अमेरिकन कहने लगे। अमेरिकन बनकर अब वे वही कर रहे हैं जो वे यूरोपीय थे तब कर रहे थे ।
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विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने की आकांक्षा से ग्रस्त होकर अमेरिका राष्ट्रों के साथ व्यवहार कर रहा है। पाँच सो वर्ष पूर्व से यूरोप ने अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास आरम्भ किया था उसका ही यह नवीन संस्करण है। उस समय यूरोप था, आज अमेरिका है। देशों के नाम भले ही बदलें हों, प्रजा वही है। विगत पाँच सौ वर्षों में यूरोप के अन्यान्य देशों ने पूर्व अपरिचित अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये, अठारहवीं शातब्दी के उत्तरार्ध में ये सारे उपनिवेश अपने मूल देशों से स्वतन्त्र होकर अमेरिकन देश बन गये और अपने आपको यूरोपीय नहीं अपितु अमेरिकन कहने लगे। अमेरिकन बनकर अब वे वही कर रहे हैं जो वे यूरोपीय थे तब कर रहे थे ।
    
साम्राज्य विस्तार भारत ने भी किया है। समुद्रपर्यन्त की पृथ्वी एक राष्ट्र बने । ऐसी आकांक्षा रखी है। परन्तु भारत का साम्राज्यवाद सांस्कृतिक रहा है, राजीनतिक नहीं । प्रजा के व्यावहारिक जीवन की सारी । इकाइयाँ छोटी और स्वायत्त हों यह धार्मिक समाजरचना का आधारभूत सूत्र रहा है । इस समाजरचना में राज्य भी एक अंग था जो शासक होकर भी व्यवस्था की रक्षा और नियमन करने का काम करता था। आज का अमेरिकन साम्राज्यवाद सांस्कृतिक नहीं राजनीतिक है। वह विश्व के लिये एक ही अमेरिकन सरकार चाहता है।
 
साम्राज्य विस्तार भारत ने भी किया है। समुद्रपर्यन्त की पृथ्वी एक राष्ट्र बने । ऐसी आकांक्षा रखी है। परन्तु भारत का साम्राज्यवाद सांस्कृतिक रहा है, राजीनतिक नहीं । प्रजा के व्यावहारिक जीवन की सारी । इकाइयाँ छोटी और स्वायत्त हों यह धार्मिक समाजरचना का आधारभूत सूत्र रहा है । इस समाजरचना में राज्य भी एक अंग था जो शासक होकर भी व्यवस्था की रक्षा और नियमन करने का काम करता था। आज का अमेरिकन साम्राज्यवाद सांस्कृतिक नहीं राजनीतिक है। वह विश्व के लिये एक ही अमेरिकन सरकार चाहता है।
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आज विश्व के समक्ष धर्मसंस्थापना का ही प्रश्न उपस्थित हुआ है। अर्थ-साम्राज्यवाद अधर्म का पक्ष है, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद धर्म का । आज विश्व में एक प्रकार का ध्रुवीकरण हो रहा है । वह है अधर्म के पक्ष का । धर्म के पक्ष का ध्रुवीकरण करने की महती आवश्यकता है। धर्म के पक्ष का ध्रुवीकरण करने की और उसका नेतृत्व लेने की जिम्मेदारी भारत की है।
 
आज विश्व के समक्ष धर्मसंस्थापना का ही प्रश्न उपस्थित हुआ है। अर्थ-साम्राज्यवाद अधर्म का पक्ष है, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद धर्म का । आज विश्व में एक प्रकार का ध्रुवीकरण हो रहा है । वह है अधर्म के पक्ष का । धर्म के पक्ष का ध्रुवीकरण करने की महती आवश्यकता है। धर्म के पक्ष का ध्रुवीकरण करने की और उसका नेतृत्व लेने की जिम्मेदारी भारत की है।
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इसलिये भारत को चाहिये कि वह विश्वपटल पर धर्म और अर्थ की चर्चा शुरू करे। धर्म और अर्थ का ही
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इसलिये भारत को चाहिये कि वह विश्वपटल पर धर्म और अर्थ की चर्चा आरम्भ करे। धर्म और अर्थ का ही
    
पर्यवसान निःश्रेयस और अभ्युदय की संकल्पना में होता है । धर्म की संस्थापना से तात्पर्य अर्थ को नकारना नहीं है, अर्थ की सर्वार्थ में सुलभता ही है। भारत के लिये तो यह समझना सरल है परन्तु विश्व को यह समझाने की आवश्यकता है। विश्व में आज अनेक मुद्दों पर युद्ध होने की सम्भावनायें निर्माण हो रही हैं। प्रत्यक्ष युद्ध चल भी रहे हैं। कहीं भूमि के लिये, कहीं सम्प्रदाय के लिये, कहीं जंगल के लिये, कहीं पानी के लिये, कहीं बाजार के लिये । ये सब मिलकर अधर्म के पक्ष को बलवान बना रहे हैं। इसे ही भगवद्गीता ने अधर्म का अभ्युत्थान कहा है। इस अधर्म के विनाश हेतु धर्म का पक्ष बलवान होने की आवश्यकता है । यह काम भारत को करना है।
 
पर्यवसान निःश्रेयस और अभ्युदय की संकल्पना में होता है । धर्म की संस्थापना से तात्पर्य अर्थ को नकारना नहीं है, अर्थ की सर्वार्थ में सुलभता ही है। भारत के लिये तो यह समझना सरल है परन्तु विश्व को यह समझाने की आवश्यकता है। विश्व में आज अनेक मुद्दों पर युद्ध होने की सम्भावनायें निर्माण हो रही हैं। प्रत्यक्ष युद्ध चल भी रहे हैं। कहीं भूमि के लिये, कहीं सम्प्रदाय के लिये, कहीं जंगल के लिये, कहीं पानी के लिये, कहीं बाजार के लिये । ये सब मिलकर अधर्म के पक्ष को बलवान बना रहे हैं। इसे ही भगवद्गीता ने अधर्म का अभ्युत्थान कहा है। इस अधर्म के विनाश हेतु धर्म का पक्ष बलवान होने की आवश्यकता है । यह काम भारत को करना है।

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