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=== अध्याय ४१ ===
 
=== अध्याय ४१ ===
हे विश्ववासियों, भारत विश्व को एक मानता है, सबको अपना मानता है। वह जगत का मित्र है। वह कभी किसी का अहित करता नहीं है, अहित चाहता भी नहीं है । जो अपने पास है वह सबको देना चाहता है । जो अपने पास है उसका स्वयं उपभोग करने से पहले सबको देना चाहता है। अपने सामर्थ्य से किसी को भयभीत करना भारत का धर्म नहीं है। अपने सामर्थ्य से सबकी सहायता करना, सबकी रक्षा करना, सबका पोषण करना भारत का धर्म है । ऐसा नहीं हैं कि भारत आज ही यह कह रहा है। भारत की यह सहस्राब्दियों की परम्परा रही है । पाँच हजार वर्ष पूर्व भारत में कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध हुआ था इसकी कथा तो आपने सुनी होगी। दुर्योधनने युधिष्ठिर आदि को राज्य देने से तो इन्कार कर दिया परन्तु बडों के परामर्श से बीहड जंगल उन्हें निवास के लिये दे दिया । उस बीहड जंगल का रूपान्तरण इन्द्रप्रस्थ नामक सुन्दर नगरी में कर देने वाला मय नामक राक्षस स्थपति मयदेश का था जिसे आज मैक्सिको कहते हैं। अमेरिका को हम भारतवासी पाताल देश के नाम से स्वयं अमेरिका जानता है उससे हजारों वर्ष पूर्व से जानते हैं। आफ्रिका हमारे लिये शाकद्वीप और शाल्मली द्वीप है। दुनिया के लगभग सभी देशों में आज भी भारतीय संस्कृति के अवशेष शिल्प, स्थापत्य, वनविद्या, कृषिविद्या, वेदशाला, गणित जैसे शास्रों के रूप में हैं। वह दर्शाता है कि भारत ने सम्पूर्ण विश्व का प्रवास किया है, वहाँ निवास किया हैं, वहाँ संस्कृति का प्रसार भी किया है। हमने विश्व को जीता है शस्त्रों से नहीं, शास्त्रों से भी नहीं, युक्ति से भी नहीं। हमने दुनिया को मैत्री से, शुभचिन्तन से और प्रेम से जीता है। हमने दुनिया को अपना माना है, अपना बनाया है । अतः आज भी संकटग्रस्त विश्व की सहायता करना भारत के लिय स्वाभाविक है। ऐसा करने में भारत अपना ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य ही मानता है। हम दुनिया को ऐसा विश्वास दिलाना चाहते हैं।
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हे विश्ववासियों, भारत विश्व को एक मानता है, सबको अपना मानता है। वह जगत का मित्र है। वह कभी किसी का अहित करता नहीं है, अहित चाहता भी नहीं है । जो अपने पास है वह सबको देना चाहता है । जो अपने पास है उसका स्वयं उपभोग करने से पहले सबको देना चाहता है। अपने सामर्थ्य से किसी को भयभीत करना भारत का धर्म नहीं है। अपने सामर्थ्य से सबकी सहायता करना, सबकी रक्षा करना, सबका पोषण करना भारत का धर्म है । ऐसा नहीं हैं कि भारत आज ही यह कह रहा है। भारत की यह सहस्राब्दियों की परम्परा रही है । पाँच हजार वर्ष पूर्व भारत में कौरवों और पाण्डवों के मध्य युद्ध हुआ था इसकी कथा तो आपने सुनी होगी। दुर्योधनने युधिष्ठिर आदि को राज्य देने से तो इन्कार कर दिया परन्तु बडों के परामर्श से बीहड जंगल उन्हें निवास के लिये दे दिया । उस बीहड जंगल का रूपान्तरण इन्द्रप्रस्थ नामक सुन्दर नगरी में कर देने वाला मय नामक राक्षस स्थपति मयदेश का था जिसे आज मैक्सिको कहते हैं। अमेरिका को हम भारतवासी पाताल देश के नाम से स्वयं अमेरिका जानता है उससे हजारों वर्ष पूर्व से जानते हैं। आफ्रिका हमारे लिये शाकद्वीप और शाल्मली द्वीप है। दुनिया के लगभग सभी देशों में आज भी धार्मिक संस्कृति के अवशेष शिल्प, स्थापत्य, वनविद्या, कृषिविद्या, वेदशाला, गणित जैसे शास्त्रों के रूप में हैं। वह दर्शाता है कि भारत ने सम्पूर्ण विश्व का प्रवास किया है, वहाँ निवास किया हैं, वहाँ संस्कृति का प्रसार भी किया है। हमने विश्व को जीता है शस्त्रों से नहीं, शास्त्रों से भी नहीं, युक्ति से भी नहीं। हमने दुनिया को मैत्री से, शुभचिन्तन से और प्रेम से जीता है। हमने दुनिया को अपना माना है, अपना बनाया है । अतः आज भी संकटग्रस्त विश्व की सहायता करना भारत के लिय स्वाभाविक है। ऐसा करने में भारत अपना ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य ही मानता है। हम दुनिया को ऐसा विश्वास दिलाना चाहते हैं।
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ऐसा नहीं है कि हम सिखाने के सामर्थ्य का अहंकार पालते हैं। हम दुनिया से सीखे भी हैं । हमने आक्रमणों का प्रतिकार किया है परन्तु, आक्रान्ताओं को आत्मसात कर उनसे अनेक बातें ग्रहण की हैं। उन्हें अपना बनाया है। हम आक्रमक बनकर नहीं अपितु मित्र बनकर गये तो जहाँ गये वहाँ से बहुत कुछ सीखा। सीखते सीखते हम भावात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध भी हुए हैं । आप अभी अभी ग्लोबल संज्ञा का प्रयोग करने लगे हैं, हम हमेशा ही वैश्विकता का विचार करते आये हैं। हमारा संन्यासी 'स्वदेशो भुवनत्र' की घोषणा करता है। हमारा कवि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को उदारता का लक्षण मानता है। हमारी उपनिषद 'सर्वभूतहितेरताः' को भगवान के भक्त मानती है । हमारे इतिहासकार अपने सम्पूर्ण कथन का सार बताते हुए कहते हैं, 'परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्' आपका और हमारा अन्तर केवल इतना ही है कि आप मुख्य रूप से अर्थ के सन्दर्भ में और निहित रूप से सत्ता अथवा आधिपत्य के सन्दर्भ में ग्लोबलाइझेशन की बात करते हैं हम सांस्कृतिक सन्दर्भ में वैश्विकता का समर्थन करते हैं। और यही मुद्दा हम आपको समझाना चाहते हैं। आर्थिक सन्दर्भ से ग्लोबलाइझेश की कल्पना करना और उसे साकार करने का प्रवास करना अन्यों के और अपने विनाश की ओर जाना है जबकि सांस्कृतिक सन्दर्भ से वैश्विकता की बात करना सब मिलकर विकास की दिशा में अग्रसर होना है। हम मिलकर उन्नति की ओर बढें ऐसी ही कामना आप भी करें यही हमारा निवेदन है।
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ऐसा नहीं है कि हम सिखाने के सामर्थ्य का अहंकार पालते हैं। हम दुनिया से सीखे भी हैं । हमने आक्रमणों का प्रतिकार किया है परन्तु, आक्रान्ताओं को आत्मसात कर उनसे अनेक बातें ग्रहण की हैं। उन्हें अपना बनाया है। हम आक्रमक बनकर नहीं अपितु मित्र बनकर गये तो जहाँ गये वहाँ से बहुत कुछ सीखा। सीखते सीखते हम भावात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध भी हुए हैं । आप अभी अभी ग्लोबल संज्ञा का प्रयोग करने लगे हैं, हम सदा ही वैश्विकता का विचार करते आये हैं। हमारा संन्यासी 'स्वदेशो भुवनत्र' की घोषणा करता है। हमारा कवि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को उदारता का लक्षण मानता है। हमारी उपनिषद 'सर्वभूतहितेरताः' को भगवान के भक्त मानती है । हमारे इतिहासकार अपने सम्पूर्ण कथन का सार बताते हुए कहते हैं, 'परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्' आपका और हमारा अन्तर केवल इतना ही है कि आप मुख्य रूप से अर्थ के सन्दर्भ में और निहित रूप से सत्ता अथवा आधिपत्य के सन्दर्भ में ग्लोबलाइझेशन की बात करते हैं हम सांस्कृतिक सन्दर्भ में वैश्विकता का समर्थन करते हैं। और यही मुद्दा हम आपको समझाना चाहते हैं। आर्थिक सन्दर्भ से ग्लोबलाइझेश की कल्पना करना और उसे साकार करने का प्रवास करना अन्यों के और अपने विनाश की ओर जाना है जबकि सांस्कृतिक सन्दर्भ से वैश्विकता की बात करना सब मिलकर विकास की दिशा में अग्रसर होना है। हम मिलकर उन्नति की ओर बढें ऐसी ही कामना आप भी करें यही हमारा निवेदन है।
    
==== शिक्षा विषयक संकल्पना बदलना ====
 
==== शिक्षा विषयक संकल्पना बदलना ====
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(२) शिक्षा का सम्बन्ध अर्थ से तोड़ने का और एक कारण है। शिक्षा स्वेच्छा और स्वतन्त्रतापूर्वक होती है और जिज्ञासा उसकी मूल प्रेरणा है। देश के छोटी से बड़ी आयु के विद्यार्थियों में जीवन और जगत को जानने की इच्छा जागृत करना मातापिता और शिक्षक का काम है। जिज्ञासा जाग्रत करने के बाद उसका समाधान करने हेत विद्यार्थी को स्वयं प्रयास करना चाहिये । ऐसा प्रयास करने में उसकी सहायता करना, उसे प्रेरित करना शिक्षक का काम है। उसे ही भारत में हम सिखाना कहते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है, पैसे का नहीं । हम तो दोनों को एक ही व्यक्तित्व के दो हिस्से मानते हैं । ज्ञान को शिक्षक से विद्यार्थी तक पहुँचने का रास्ता अन्दर से अर्थात् अन्तःकरण से जाता है, बाहर से नहीं । शिक्षक दो प्रकार के होते हैं । एक होते हैं विषय के और दूसरे विद्यार्थी के । विषय के शिक्षक को प्रथम विद्यार्थी का शिक्षक बनना होता है। शिक्षक जब विद्यार्थी को जानता और समझता है, उसके कल्याण की कामना करता है और उसकी ग्रहण करने की क्षमता के अनुसार प्रयासरत होता है तब वह विद्यार्थी का शिक्षक बनता है। आप शिक्षकों को विद्यार्थियों के शिक्षक बनना सिखायें।
 
(२) शिक्षा का सम्बन्ध अर्थ से तोड़ने का और एक कारण है। शिक्षा स्वेच्छा और स्वतन्त्रतापूर्वक होती है और जिज्ञासा उसकी मूल प्रेरणा है। देश के छोटी से बड़ी आयु के विद्यार्थियों में जीवन और जगत को जानने की इच्छा जागृत करना मातापिता और शिक्षक का काम है। जिज्ञासा जाग्रत करने के बाद उसका समाधान करने हेत विद्यार्थी को स्वयं प्रयास करना चाहिये । ऐसा प्रयास करने में उसकी सहायता करना, उसे प्रेरित करना शिक्षक का काम है। उसे ही भारत में हम सिखाना कहते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है, पैसे का नहीं । हम तो दोनों को एक ही व्यक्तित्व के दो हिस्से मानते हैं । ज्ञान को शिक्षक से विद्यार्थी तक पहुँचने का रास्ता अन्दर से अर्थात् अन्तःकरण से जाता है, बाहर से नहीं । शिक्षक दो प्रकार के होते हैं । एक होते हैं विषय के और दूसरे विद्यार्थी के । विषय के शिक्षक को प्रथम विद्यार्थी का शिक्षक बनना होता है। शिक्षक जब विद्यार्थी को जानता और समझता है, उसके कल्याण की कामना करता है और उसकी ग्रहण करने की क्षमता के अनुसार प्रयासरत होता है तब वह विद्यार्थी का शिक्षक बनता है। आप शिक्षकों को विद्यार्थियों के शिक्षक बनना सिखायें।
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तीसरी बात है साधनसामग्री के आत्यन्तिक उपयोग की। हमारे देश में एक सूत्र बहुत पहले से प्रचलित है। वह है 'शिक्षा साधनों से नहीं अपितु, साधना से होती है।' साधना पैसे के लिये नहीं की जाती, पैसे से अधिक मूल्यवान बातों के लिये की जाती हैं । शिक्षा को हम श्रेष्ठ मानते हैं इसलिये साधना से प्राप्त करना चाहते हैं। अतः बिना साधन सामग्री से पढना सिखाना चाहिये । विद्यार्थी जब अपने हाथ पैर मन, बुद्धि, आदि से सीखता है तब अधिक अच्छी तरह से सीखता है । दूसरे दो लाभ होते हैं । साधन सामग्री का जंजाल कम होता है, उसके पीछे जो समय, शक्ति और पैसे का खर्च होता है वह टल जाता है। साथ ही विद्यार्थी की सक्रियता बनने के कारण कम समय में, कम परिश्रम से, अधिक आनन्द से पढा जाता है। पढने के इस शास्र को जानने का आप प्रयास करें।
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तीसरी बात है साधनसामग्री के आत्यन्तिक उपयोग की। हमारे देश में एक सूत्र बहुत पहले से प्रचलित है। वह है 'शिक्षा साधनों से नहीं अपितु, साधना से होती है।' साधना पैसे के लिये नहीं की जाती, पैसे से अधिक मूल्यवान बातों के लिये की जाती हैं । शिक्षा को हम श्रेष्ठ मानते हैं इसलिये साधना से प्राप्त करना चाहते हैं। अतः बिना साधन सामग्री से पढना सिखाना चाहिये । विद्यार्थी जब अपने हाथ पैर मन, बुद्धि, आदि से सीखता है तब अधिक अच्छी तरह से सीखता है । दूसरे दो लाभ होते हैं । साधन सामग्री का जंजाल कम होता है, उसके पीछे जो समय, शक्ति और पैसे का खर्च होता है वह टल जाता है। साथ ही विद्यार्थी की सक्रियता बनने के कारण कम समय में, कम परिश्रम से, अधिक आनन्द से पढा जाता है। पढने के इस शास्त्र को जानने का आप प्रयास करें।
    
आपकी इवेल्युएशन - मूल्यांकन की, अंक देने की, प्रमाणपत्र देने की पद्धति, आप की समयसारिणी और पाठ्यक्रम बनाने की पद्धति, यान्त्रिकता का बहुत बड़ा नमूना है। ऐसा लगता है कि आप यन्त्र को और मानव को एकसमान मानते हैं, लकडी की टेबल और पढे जाने वाले विषय को एक समान मानते हैं. विषय के अध्ययन की और वस्र बनाने की प्रक्रिया को एक समान मानते हैं । यह बहुत बडा अनर्थ है। प्रेम करनेवाले मनुष्य ने बनाई हुई और दुकान में बेचने के लिये रखी, पैसे से खरीदी जाने वाली रोटी में हम बडा अन्तर देखते हैं । प्रेम करने वाले व्यक्ति ने बनाई हुई और खिलाई हुई रोटी से मन को जो सुख मिलता है उससे जगत के अपराध कम होते हैं। उसी प्रकार से विद्यार्थी का भला चाहनेवाले शिक्षक द्वारा दी गई शिक्षा की गुणवत्ता कुछ अलग ही होती है। आप समझ सकते हैं कि जगत में होने वाले अपराधों में से अधिकतम भावनाओं की गडबडी के कारण से ही होते हैं । अतः शिक्षा की पद्धति उसकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझकर ही तय होनी चाहिये । संक्षेप में कह सकते हैं कि अध्ययन अध्यापन की प्रक्रिया को अधिक जीवमान बनाने की आवश्यकता है।  
 
आपकी इवेल्युएशन - मूल्यांकन की, अंक देने की, प्रमाणपत्र देने की पद्धति, आप की समयसारिणी और पाठ्यक्रम बनाने की पद्धति, यान्त्रिकता का बहुत बड़ा नमूना है। ऐसा लगता है कि आप यन्त्र को और मानव को एकसमान मानते हैं, लकडी की टेबल और पढे जाने वाले विषय को एक समान मानते हैं. विषय के अध्ययन की और वस्र बनाने की प्रक्रिया को एक समान मानते हैं । यह बहुत बडा अनर्थ है। प्रेम करनेवाले मनुष्य ने बनाई हुई और दुकान में बेचने के लिये रखी, पैसे से खरीदी जाने वाली रोटी में हम बडा अन्तर देखते हैं । प्रेम करने वाले व्यक्ति ने बनाई हुई और खिलाई हुई रोटी से मन को जो सुख मिलता है उससे जगत के अपराध कम होते हैं। उसी प्रकार से विद्यार्थी का भला चाहनेवाले शिक्षक द्वारा दी गई शिक्षा की गुणवत्ता कुछ अलग ही होती है। आप समझ सकते हैं कि जगत में होने वाले अपराधों में से अधिकतम भावनाओं की गडबडी के कारण से ही होते हैं । अतः शिक्षा की पद्धति उसकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझकर ही तय होनी चाहिये । संक्षेप में कह सकते हैं कि अध्ययन अध्यापन की प्रक्रिया को अधिक जीवमान बनाने की आवश्यकता है।  
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# आपके आठ नौ वर्ष की आयु के विद्यार्थी के बस्ते में पिस्तौल या पिस्तौल जैसा शस्र होता है। वह उसे चलाना जानता भी है और चाहता भी है। वह अपने स्वजनों पर ही उसे चलाता है।  
 
# आपके आठ नौ वर्ष की आयु के विद्यार्थी के बस्ते में पिस्तौल या पिस्तौल जैसा शस्र होता है। वह उसे चलाना जानता भी है और चाहता भी है। वह अपने स्वजनों पर ही उसे चलाता है।  
 
# आप की बारह तेरह वर्ष की आयु की लडकियाँ गर्भवती होती हैं। उनके लिये गर्भपात भी एक खेल है।  
 
# आप की बारह तेरह वर्ष की आयु की लडकियाँ गर्भवती होती हैं। उनके लिये गर्भपात भी एक खेल है।  
# आपके सत्तर प्रतिशत बच्चे सिंगल पेरैण्ट चिल्ड्रन हैं। क्या बच्चों का अधिकार नहीं है कि उनके माता और पिता का प्रेम और सुरक्षा उन्हें मिले ? क्या आप अपने देश के युवक-युवतियों को अच्छे माता और पिता बनने की शिक्षा नहीं दे सकते ?  
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# आपके सत्तर प्रतिशत बच्चे सिंगल पेरैण्ट चिल्ड्रन हैं। क्या बच्चोंं का अधिकार नहीं है कि उनके माता और पिता का प्रेम और सुरक्षा उन्हें मिले ? क्या आप अपने देश के युवक-युवतियों को अच्छे माता और पिता बनने की शिक्षा नहीं दे सकते ?  
 
# आपके लिये पदार्थ, प्राणी, मनुष्य, भगवान सब कुछ खरीदने और बेचने की वस्तुयें हैं। क्या यह अति विचित्र स्थिति नहीं है ?
 
# आपके लिये पदार्थ, प्राणी, मनुष्य, भगवान सब कुछ खरीदने और बेचने की वस्तुयें हैं। क्या यह अति विचित्र स्थिति नहीं है ?
 
ये तो कुछ उदाहरण हैं । ऐसे तो सैंकडों उदाहरण हम दे सकते हैं । परन्तु विचार करने लायक बात यह है कि ऐसी स्थिति और ऐसी मानसिकता कैसे निर्माण होती है ? निश्चित ही आपकी शिक्षा इसके लिये कारणभूत है। आप विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र ऐसा पढाते हैं कि सामाजिक समरसता, बन्धुता, आदर और श्रद्धा जैसे तत्त्व ही पैदा नहीं होते । इन तत्त्वों की आप कल्पना भी नहीं कर सकते । आप ऐसा अर्थशास्त्र पढाते हैं जिसके परिणामस्वरूप सबकुछ बिकाऊ बन जाता है और आर्थिक शोषण, लूट, हत्या, आधिपत्य, दूसरों को गुलाम बनाना आदि सब बिना हिचकिचाहट से मान्य हो जाता है।
 
ये तो कुछ उदाहरण हैं । ऐसे तो सैंकडों उदाहरण हम दे सकते हैं । परन्तु विचार करने लायक बात यह है कि ऐसी स्थिति और ऐसी मानसिकता कैसे निर्माण होती है ? निश्चित ही आपकी शिक्षा इसके लिये कारणभूत है। आप विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र ऐसा पढाते हैं कि सामाजिक समरसता, बन्धुता, आदर और श्रद्धा जैसे तत्त्व ही पैदा नहीं होते । इन तत्त्वों की आप कल्पना भी नहीं कर सकते । आप ऐसा अर्थशास्त्र पढाते हैं जिसके परिणामस्वरूप सबकुछ बिकाऊ बन जाता है और आर्थिक शोषण, लूट, हत्या, आधिपत्य, दूसरों को गुलाम बनाना आदि सब बिना हिचकिचाहट से मान्य हो जाता है।
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आप ऐसा मनोविज्ञान पढाते है कि कामप्रवृत्ति को ही मान्यता दे देते हैं । आप ऐसा भौतिक विज्ञान पढाते हैं जो जीवन की हर भावना, तत्त्व, प्रक्रिया, अनुभूति, संवेदना - स्वयं जीवन - को निर्जीव पदार्थ बना देता है और 'सर्वशास्रप्रधानम्' का दर्जा प्राप्त कर लेता है । इस कारण से आपको लगता है कि आपने असीम वैभव प्राप्त कर लिया है और प्रकृति को अपना दास बना लिया है । परन्तु आपने बहुत बडी मूल्यवान बातों को खो दिया है । जीवन का और जीवन के आनन्द का तो आपको स्पर्श भी नहीं हुआ है । प्रकृति को अपना दास बना लेना सिद्धि नहीं है, विजय नहीं है, प्रकृति के प्रेम और आशीर्वाद से आप वंचित हो जाते हैं और आपको अहेसास भी नहीं होता कि आपने कितनी मूल्यवान चीज को खो दिया है।
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आप ऐसा मनोविज्ञान पढाते है कि कामप्रवृत्ति को ही मान्यता दे देते हैं । आप ऐसा भौतिक विज्ञान पढाते हैं जो जीवन की हर भावना, तत्त्व, प्रक्रिया, अनुभूति, संवेदना - स्वयं जीवन - को निर्जीव पदार्थ बना देता है और 'सर्वशास्त्रप्रधानम्' का दर्जा प्राप्त कर लेता है । इस कारण से आपको लगता है कि आपने असीम वैभव प्राप्त कर लिया है और प्रकृति को अपना दास बना लिया है । परन्तु आपने बहुत बडी मूल्यवान बातों को खो दिया है । जीवन का और जीवन के आनन्द का तो आपको स्पर्श भी नहीं हुआ है । प्रकृति को अपना दास बना लेना सिद्धि नहीं है, विजय नहीं है, प्रकृति के प्रेम और आशीर्वाद से आप वंचित हो जाते हैं और आपको अहेसास भी नहीं होता कि आपने कितनी मूल्यवान चीज को खो दिया है।
    
आप जानते ही नहीं है कि धर्म और संस्कृति जैसे विषयों का आपके जीवनविचार में स्थान ही नहीं है । इनके समानार्थी लगने वाले शब्द - रिलीजन और कल्चर - तो आपके पास हैं परन्तु उनका अर्थ तो आपने सर्वथा बदल दिया है। एक बार भारत इन संज्ञाओं का तात्त्विक और व्यावहारिक अर्थ क्या समझता है वह जानने का प्रयास कीजिये तो आपको पता चलेगा कि इतनी अद्भुत संज्ञायें दूसरी कम ही होंगी। मनुष्य की बुद्धि कितनी गहराई में जा सकती है इसके ये उदाहरण हैं।
 
आप जानते ही नहीं है कि धर्म और संस्कृति जैसे विषयों का आपके जीवनविचार में स्थान ही नहीं है । इनके समानार्थी लगने वाले शब्द - रिलीजन और कल्चर - तो आपके पास हैं परन्तु उनका अर्थ तो आपने सर्वथा बदल दिया है। एक बार भारत इन संज्ञाओं का तात्त्विक और व्यावहारिक अर्थ क्या समझता है वह जानने का प्रयास कीजिये तो आपको पता चलेगा कि इतनी अद्भुत संज्ञायें दूसरी कम ही होंगी। मनुष्य की बुद्धि कितनी गहराई में जा सकती है इसके ये उदाहरण हैं।
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आपको सुखी होना है तो शिक्षाक्षेत्र से स्पर्धा के तत्त्व को निष्कासित कर देना होगा। बात एकदम से आपकी समझ में नहीं आयेगी क्योंकि स्पर्धा की प्रतिष्ठा के मूल आपकी सर्वश्रेष्ठ बनने की लालसा में हैं। क्या आपने अपने ही बारे में कभी सोचा है कि आप श्रेष्ठ नहीं सर्वश्रेष्ठ बनना चाहते हैं । श्रेष्ठ बनना तो अच्छा है परन्तु सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह रखना अमानवीय है और हिंसा है । दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना अच्छी चाह नहीं है। मानवीय सम्बन्धों के क्षेत्र में यह अनेक दूषणों को जन्म देती है। स्पर्धा, संघर्ष, हिंसा और नाश इसके अनिवार्य चरण हैं। दुःख दौर्मनस्य, मारकाट और बुद्धि इसके अनिवार्य परिणाम हैं । विश्व के सुख और शान्ति का नाश करने वाले इस स्पर्धा के तत्त्व को तो जीवन से निष्कासित करना शिक्षा ही सिखाती है परन्तु आपने शिक्षा को ही स्पर्धा से दूषित कर दिया है। वह इतनी प्रभावी बन गई है कि कक्षाकक्षों से निकलकर सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त हो गई है। इससे मुक्त होना आपके लिये भारी चुनौती है परन्तु उस चुनौती का स्वीकार किये बिना आपकी सद्गति नहीं होगी।
 
आपको सुखी होना है तो शिक्षाक्षेत्र से स्पर्धा के तत्त्व को निष्कासित कर देना होगा। बात एकदम से आपकी समझ में नहीं आयेगी क्योंकि स्पर्धा की प्रतिष्ठा के मूल आपकी सर्वश्रेष्ठ बनने की लालसा में हैं। क्या आपने अपने ही बारे में कभी सोचा है कि आप श्रेष्ठ नहीं सर्वश्रेष्ठ बनना चाहते हैं । श्रेष्ठ बनना तो अच्छा है परन्तु सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह रखना अमानवीय है और हिंसा है । दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना अच्छी चाह नहीं है। मानवीय सम्बन्धों के क्षेत्र में यह अनेक दूषणों को जन्म देती है। स्पर्धा, संघर्ष, हिंसा और नाश इसके अनिवार्य चरण हैं। दुःख दौर्मनस्य, मारकाट और बुद्धि इसके अनिवार्य परिणाम हैं । विश्व के सुख और शान्ति का नाश करने वाले इस स्पर्धा के तत्त्व को तो जीवन से निष्कासित करना शिक्षा ही सिखाती है परन्तु आपने शिक्षा को ही स्पर्धा से दूषित कर दिया है। वह इतनी प्रभावी बन गई है कि कक्षाकक्षों से निकलकर सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त हो गई है। इससे मुक्त होना आपके लिये भारी चुनौती है परन्तु उस चुनौती का स्वीकार किये बिना आपकी सद्गति नहीं होगी।
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आपके सुखी और समृद्ध जीवन के लिये आपको और एक बात करनी होगी। आपके पदार्थों, प्राणियों, बनस्पति और मनुष्यों के साथ के सम्बन्धों में भी परिवर्तन
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आपके सुखी और समृद्ध जीवन के लिये आपको और एक बात करनी होगी। आपके पदार्थों, प्राणियों, बनस्पति और मनुष्यों के साथ के सम्बन्धों में भी परिवर्तन करना होगा। ये सम्बन्ध सर्वप्रथम तो आत्मीयता के बनाने होंगे। यदि आप सृष्टि की हर सत्ता के साथ प्रेम से नहीं जुड़ेंगे तो सुखी कैसे हो सकेंगे ? यह विश्व प्रेम, ज्ञान, धर्म और सत्य के आधार पर ही चलती है । यह केवल धार्मिक सिद्धान्त नहीं है, यह सार्वभौम सिद्दान्त है । आपको भी इस का स्वीकार करना होगा। यह सत्य आपको कौन सिखायेगा ? आपके विश्वविद्यालयों को ही इस विषय में पहल करनी होगी। विद्वजन वैश्विक स्तर पर अध्ययन करेंगे तो कुछ कर पायेंगे। विश्व के अन्यान्य देशों के साथ विमर्श करना और सही निष्कर्ष पर पहुँचना उनका ही काम है। परन्तु उन्हें ऐसा करने हेतु निवेदन करना आपका काम है। हर समस्या का ज्ञानात्मक हल ही श्रेष्ठ हल होता है । इस दृष्टि से विश्वविद्यालयों को सक्रिया होना ही होगा।
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भारत मानता है कि शिक्षा धर्म सिखाती है। हमने पहले ही कहा है कि आपके विचारविश्व में धर्म की संकल्पना बताने वाली एक भी संज्ञा नहीं है। धर्म कहते ही हम जो समझते हैं वह आपकी कल्पना में नहीं आता। आपने हमारे धर्म को रिलीजन कहकर बडा घालमेल कर दिया है । आप जिसे एथिक्स, युनिवर्सल लॉ, नेचर, ड्यूटी, रिलीजन कहते है उन सबका समावेश हमारे धर्म शब्द में होता है । आप यदि धर्म संकल्पना को समझ लेंगे तो धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध कैसा है वह भी समझ में आ जायेगा । आपकी बुद्धि यह देखकर स्तिमित हो जायेगी कि इस धर्म संकल्पना ने ही भारत को चिरंजीव बनाया है। आपको भी यदि सुख, समृद्धि, वैभव, दीर्घ आयु शान्ति और सर्वतोमुखी विकास की आकांक्षा है तो धर्मानुसारी शिक्षा को अपनाना होगा। धर्म : संकल्पना का स्वीकार करते ही आप ईसाई, मुसलमान, यहूदी या पारसी हैं तो ईसाई, मुसलमान यहूदी या पारसी मिट नहीं जायेंगे, उल्टे अधिक अच्छे ईसाई बनेंगे। हम भारतवासी हिन्दू है परन्तु हम साम्प्रदायिक हिन्दू नहीं, धार्मिक हिन्दू हैं। हम आपका और सम्पूर्ण विश्व का स्वीकार करते हैं। जाति, भाषा, वेश, खानपान, सम्प्रदाय, रीतिरिवाज आदि कितने ही भिन्न हों हम सबका आदर करते हैं सबका कल्याण चाहते हैं, सबका स्वीकार करते हैं। हमने शिक्षा के माध्यम से हमारी हर पीढी को यही, सबके लिये समादर की बात सिखाई है।
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सारांश के रूप में कहें तो आपको
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# आपको अपनी शिक्षा विषयक संकल्पना बदलने की,
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# अध्ययन अध्यापन की सही प्रक्रियाओं को अपनाने की और
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# शिक्षा की विषयवस्तु मूल रूप से बदलने की आवश्यकता है।
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आपने अपनी जीवन पद्धति और शिक्षा व्यवस्था से चलकर अनुभव कर ही लिया है कि इनके परिणामस्वरूप न केवल आप अपितु सारा विश्व विनाश की ओर धंस रहा है। अब उस विनाश से बचना है तो जरा भारत की कालसिद्ध जीवनपद्धति और शिक्षा पद्धति अपना कर अनुभव कर लिजीये । आपको तुरन्त आश्वस्ति का अनुभव प्राप्त हो जायेगा।
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=== विश्वस्तर पर चलाने लायक चर्चा ===
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==== सेमेटिक रेलिजन ====
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सेमिटक रिलीजन का मुक्य लक्षण है सह-अस्तित्व को नकारना । सहअस्तित्व को नकारने के क्या दुष्परिणाम होते हैं इसकी चर्चा अन्यत्र हुई है। परन्तु इसका उपाय क्या हो सकता है इसका विचार करना ही अधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से चर्चा के प्रकार कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...
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==== विश्वविद्यालयों में अध्ययन और चर्चा ====
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अनेक समस्याओं के ज्ञानात्मक हल श्रेष्ठ हल होते हैं। अतः विश्वविद्यालयों में इस विषय को महत्त्व देना चाहिये । इसके मुद्दे विभिन्न स्तरों पर होने चाहिये । पहला मुद्दा है विभिन्न रिलीजन का शास्त्रीय अध्ययन । मूल तत्त्वज्ञान क्या है और उसके अनुसार व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार के सिद्धान्त क्या हैं इसे जानने का प्रयास करना चाहिये । सभी रिलीजनों की विश्वदृष्टि और जीवनदृष्टि क्या है इसे जानने का प्रयास किया जाना चाहिये । इसके आधार पर विश्व के पदार्थों, प्राणियों और मनुष्यों के साथ के व्यवहार के क्या निर्देश दिये गये हैं यह जानना चाहिये ।
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दूसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा है सत्य और न्याय पर आधारित मूल्यांकन । अपने अलावा और किसी को भी स्वतन्त्रता का अधिकार है कि नहीं, जीवित रहने का अधिकार है कि नहीं इस प्रश्न का हर रिलीजन क्या उत्तर देता है इसके आधार पर मूल्यांकन होना चाहिये । सत्य, अहिंसा, स्वतन्त्रता, प्रेम आदि संकल्पनाओं की व्याख्या कौन कैसी करता है यह भी मूल्यांकन का आधार बनना चाहिये ।
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तीसरा मुद्दा है रिलीजनों का तुलनात्मक अध्ययन । वैसे धार्मिक दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन का बहुत महत्त्व नहीं है क्योंकि भारत सभी रिलीजनों का समान रूप से आदर करता है।
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परन्तु भारत ने सम्प्रदायों के संकट को अपनी विशिष्ट शैली से हल करने का यशस्वी प्रयास किया है। भारत की धर्म संकल्पना रिलीजन संकल्पना से भिन्न है , उससे कहीं अधिक व्यापक है। भारत मानता है कि विश्व में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। सम्प्रदाय समुदायों की देश काल परिस्थिति के अनुसार पैदा होते हैं, विस्तारित होते हैं, कभी मिटते भी हैं। उनमें व्यवस्थागत और व्यवहारगत बदल भी हो सकते हैं। परन्तु सम्प्रदायों का मूल्यांकन धर्म के निकष पर होता है। धर्म सनातन तत्त्व है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उसकी भी उत्पत्ति हुई है। वह सम्पूर्ण सृष्टि के जीवन का आधार है। प्रतिमा, पुस्तक, पयगम्बर, पूजापद्धति, विधिनिषेध आदि में वह सीमित नहीं है। ये सारे सम्प्रदाय के लक्षण हैं। धर्म जगत के सभी सम्प्रदायों से परे है। इसलिये वह सभी सम्प्रदायों का निकष है।
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भारत की इस धर्म संकल्पना की चर्चा विश्वपटल पर चलाने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से धर्म संकल्पना को सम्प्रदाय के स्तर पर ही समझने का प्रयास होता है। उसे हिन्दुत्व के साथ जोडकर ईसाई-हिन्दू, मुसलमान-हिन्दू, पारसी-हिन्दू, सिक्ख-हिन्दू, बौद्ध-हिन्दू, जैन-हिन्दू इस प्रकार पक्ष बनाये जाते हैं । फिर हिन्दुत्व को भारत के साथ जोड जिया जाता है और भारत में केवल हिन्दू धर्म नहीं रहेगा, और धर्म भी रहेंगे कोंकि भारत के संविधान ने धर्म निरपेक्षता को आधारभूत सिद्धान्त माना है। वास्तव में यह सारा तर्क कुतर्क है इसे बुद्धि का आधार नहीं है, यह राजनीतिक कुटिलता है। इसमें अज्ञान और विद्वेष समान रूप से समाये हुए हैं।
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परन्तु स्वस्थ चर्चा चलाकर यह समझने और समझाने का प्रयास करना चाहिये कि 'धर्म' संकल्पना शद्ध रूप से वैश्विक है और इस वैश्विकता में पंचमहाभूत प्राणी, वनस्पति, मनुष्य आदि सबका समावेश होता है। इस विश्वधर्म के निकष पर विश्व के सभी सम्प्रदायों का मूल्यांकन करना चाहिये।
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यह धार्मिक है इसलिये वैश्विक है या धार्मिक है इसलिये हिन्दू है इसलिये वैश्विक है यह सही नहीं है, यह वैश्विक है इसलिये हिन्दू है इसलिये धार्मिक है वह सही तर्क है।
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संक्षेप में धर्म-सम्प्रदाय तथा धार्मिकता और साम्प्रदायिकता को लेकर विश्वविद्यालयों में अध्ययन होना अति आवश्यक है। यह अध्ययन राजनीतिक दबावों से मुक्त रहकर होना चाहिये यह भी विशेष उल्लेखनीय है। अनुभूति और उदार बुद्धि की इसमें अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। आज अनुभूति की स्वीकृति नहीं है इसलिये केवल उदार बुद्धि और विशाल बुद्धि की आवश्यकता मानना चाहिये । यह चर्चा पर्याप्त रूप से व्यापक और परिणामकारी होनी चाहिये।
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==== विज्ञान, राजनीति, बाजार और धर्म का समन्वय ====
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यह एक जटिल व्यावहारिक मुद्दा है। एक सर्वसाधारण मान्यता ऐसी होती है कि तत्त्व समझना कठिन होता है, व्यवहार सरल है । परन्तु सत्य यह है कि तत्त्व तो बुद्धिमान व्यक्ति अल्प प्रयास से समझता है परन्तु तत्त्वानुसारी व्यवहार तो बुद्धिमानों के लिये भी बहुत कठिन होता है।
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परन्तु इस कठिन से कठिन समस्या को समझे बिना चराचर सृष्टि का भला नहीं हो सकता । इसलिये कुछ इन मुद्दों पर क्रमशः चर्चा चलाने की आवश्यकता है।
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# इन शब्दों के तत्त्वतः अर्थ क्या हैं और आज इन्हें लेकर कितनी भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं इनका कितना दुरुपयोग हो रहा है।
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# इन सबका एकदूसरे के साथ क्या सम्बन्ध है ? कौन किसका साधन के रूप में उपयोग करता है ?
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# इनके प्रयोग में कितना स्वार्थ, शोषण और कटप चल रहा है और इसके क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं।
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इस चर्चा में मुख्य भूमिका धर्माचार्यों की ही रहनी चाहिये । धर्माचार्य का अर्थ सम्प्रदायाचार्य नहीं है।
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भारत का समीकरण स्पष्ट है। वह धर्म, ज्ञान, राजनीति और बाजार इस क्रम में ही चारों संकल्पनाओं को रखता है। शेष तीनों धर्म के अविरोधी होने चाहिये यह भारत की विचारधारा में निर्विवाद रूप से प्रस्थापित है। अतः भारत को ही यह समीकरण विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिये।
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==== आर्थिक आधिपत्य के बारे में विचार ====
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विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने की आकांक्षा से ग्रस्त होकर अमेरिका राष्ट्रों के साथ व्यवहार कर रहा है। पाँच सो वर्ष पूर्व से यूरोप ने अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास आरम्भ किया था उसका ही यह नवीन संस्करण है। उस समय यूरोप था, आज अमेरिका है। देशों के नाम भले ही बदलें हों, प्रजा वही है। विगत पाँच सौ वर्षों में यूरोप के अन्यान्य देशों ने पूर्व अपरिचित अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये, अठारहवीं शातब्दी के उत्तरार्ध में ये सारे उपनिवेश अपने मूल देशों से स्वतन्त्र होकर अमेरिकन देश बन गये और अपने आपको यूरोपीय नहीं अपितु अमेरिकन कहने लगे। अमेरिकन बनकर अब वे वही कर रहे हैं जो वे यूरोपीय थे तब कर रहे थे ।
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साम्राज्य विस्तार भारत ने भी किया है। समुद्रपर्यन्त की पृथ्वी एक राष्ट्र बने । ऐसी आकांक्षा रखी है। परन्तु भारत का साम्राज्यवाद सांस्कृतिक रहा है, राजीनतिक नहीं । प्रजा के व्यावहारिक जीवन की सारी । इकाइयाँ छोटी और स्वायत्त हों यह धार्मिक समाजरचना का आधारभूत सूत्र रहा है । इस समाजरचना में राज्य भी एक अंग था जो शासक होकर भी व्यवस्था की रक्षा और नियमन करने का काम करता था। आज का अमेरिकन साम्राज्यवाद सांस्कृतिक नहीं राजनीतिक है। वह विश्व के लिये एक ही अमेरिकन सरकार चाहता है।
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परन्तु अमेरिकन साम्राज्यवाद भी शुद्ध राजकीय नहीं है । वह आर्थिक साम्राज्यवाद है। समाज की अर्थव्यवस्था को राज्य ने नियन्त्रित करना चाहिये यह राज्य और अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध का आधारभूत सूत्र है। परन्तु अमेरिका ने राज्य और अर्थ को एक कर दिया है। अर्थव्यवस्था ने ही राज्य अपने हस्तक कर लिया है। शासक और व्यापारी एक ही हैं । अब अर्थ को नियन्त्रण में रखने की आवश्यकता नहीं, अर्थ स्वयं नियन्त्रक है। यह बाजार-साम्राज्यवाद है।
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भौतिकवादी जीवनदृष्टि का ही यह विकसित रूप है। 'कामप्रेरित अर्थप्रधान समाजरचना' ऐसा उसका व्यावहारिक स्वरूप है।
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अतः भारत ने विश्वपटल पर जिस मूल्य प्रश्न को उठाना चाहिये वह है कि विश्व पर अर्थ का साम्राज्य स्थापित होना चाहिये या किसी और तत्त्व का। भारत ने तो इसका उत्तर सहस्राब्दियों पूर्व ही निश्चित कर लिया है। भारत निश्चयपूर्वक मानता है कि साम्राज्य धर्म का ही होना चाहिये, शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी, धर्म के अनुकूल होनी चाहिये । धर्म के साम्राज्य को आँच नहीं आनी चाहिये । प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है और धर्म की रक्षा करना राजा और प्रजा दोनों का कर्तव्य है। धर्म की रक्षा का प्रथम चरण है धर्म का पालन करना अर्थात् आचरण करना।
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इस धर्म की जब ग्लानि होती है अर्थात् सर्वत्र अन्याय, शोषण, असुरक्षा, स्वैराचार पैल जाते हैं तब इन्हें पुनः सुरक्षित करने के लिये अर्थात् धर्म की संस्थापना के लिये युद्ध होता है । भारत में इसे धर्मयुद्ध कहते हैं । धर्म के लिये युद्ध ही धर्मयुद्ध है । इतिहास में एक से अधिक बार ऐसे युद्ध हुए हैं। धर्मयुद्ध राज्य के लिये नहीं होता, सम्प्रदाय के लिये नहीं होता। धर्म जिहाद या क्रूसेड नहीं है। धर्मयुद्ध दुर्जनों का नाश कर सज्जनों की रक्षा करने के लिये होता है।
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आज विश्व के समक्ष धर्मसंस्थापना का ही प्रश्न उपस्थित हुआ है। अर्थ-साम्राज्यवाद अधर्म का पक्ष है, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद धर्म का । आज विश्व में एक प्रकार का ध्रुवीकरण हो रहा है । वह है अधर्म के पक्ष का । धर्म के पक्ष का ध्रुवीकरण करने की महती आवश्यकता है। धर्म के पक्ष का ध्रुवीकरण करने की और उसका नेतृत्व लेने की जिम्मेदारी भारत की है।
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इसलिये भारत को चाहिये कि वह विश्वपटल पर धर्म और अर्थ की चर्चा आरम्भ करे। धर्म और अर्थ का ही
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पर्यवसान निःश्रेयस और अभ्युदय की संकल्पना में होता है । धर्म की संस्थापना से तात्पर्य अर्थ को नकारना नहीं है, अर्थ की सर्वार्थ में सुलभता ही है। भारत के लिये तो यह समझना सरल है परन्तु विश्व को यह समझाने की आवश्यकता है। विश्व में आज अनेक मुद्दों पर युद्ध होने की सम्भावनायें निर्माण हो रही हैं। प्रत्यक्ष युद्ध चल भी रहे हैं। कहीं भूमि के लिये, कहीं सम्प्रदाय के लिये, कहीं जंगल के लिये, कहीं पानी के लिये, कहीं बाजार के लिये । ये सब मिलकर अधर्म के पक्ष को बलवान बना रहे हैं। इसे ही भगवद्गीता ने अधर्म का अभ्युत्थान कहा है। इस अधर्म के विनाश हेतु धर्म का पक्ष बलवान होने की आवश्यकता है । यह काम भारत को करना है।
    
==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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