भारत की दृष्टि से देखें

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search

अध्याय ३३

१. भारत की दॄष्टि से क्यों देखना

भारत विश्व को पश्चिम और पूर्व में बाँटता नहीं है। यूरोप के लोग भारत में आने के लिये निकले तब पूर्व दिशा में उन्होंने यात्रा शुरू की। इसलिये भारत उनके लिये पूर्वी देश है। आज विश्व में युरोपीय शब्दावली रूढ हुई है इसलिये यूरोप और विशेष रूप से इंग्लैण्ड के सन्दर्भ से पूर्वपश्चिम दिशायें तय होती हैं । इसलिये भारत के लिये भी यूरोप और अमेरिका पश्चिम के देश हैं।

सांस्कृतिक दृष्टि से भारत विश्व को एक मानता है। इसलिये भारत सभी बातों का वैश्विक सन्दर्भ में ही विचार करता है। विश्व के सन्दर्भ में भारत के मूल विचार कुछ इस प्रकार हैं..

अयं निज परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।

अर्थात्

यह अपना है और यह पराया ऐसी सोच छोटे मन वाले लोगों की होती है, जिनका अन्तःकरण उदार है उनके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक कुटुम्ब है।

कुटुम्ब कहते ही आत्मीयता का सम्बन्ध निहित है। अर्थात् भारत सम्पूर्ण विश्व के साथ आत्मीयता से युक्त व्यवहार करता है।

यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते ।

अर्थात् जो भूतमात्र का हित कहता है वही सत्य है। यहां भी केवल अपने ही हित की बात नहीं सोची गई है, केवल मनुष्य के हित की बात भी नहीं सोची गई है अपितु चराचर के हित का विचार करना ही सही माना गया

सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।

अर्थात्

सब सुखी हों, सब निरामय हों, सब का कल्याण हों, कोई भी दुःखी न हो।

यहाँ भी सबका अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का विचार किया गया है। भारत के लिये सृष्टि में केवल मनुष्य ही नहीं है, प्राणीसृष्टि, वनस्पतिसृष्टि और पंचमहाभूत भी हैं।

ऐसे तो और भी अनेक कथन मिलेंगे जो यह दर्शायेंगे कि भारत हमेशा ही सम्पूर्ण सृष्टि को एक मानकर ही अपना विचार, व्यवस्था और व्यवहार निश्चित करता रहा है। वर्तमान में विश्व को यूरोपीय दृष्टि से देखना स्वीकृत हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि विश्व अनेक प्रकार के संकटों में फंसकर विनाश की ओर बढ़ रहा है। इस विनाश से विश्व को उबारने के लिये अब विश्व को भारत की दृष्टि से देखना आवश्यक हो गया है। हमेशा ही विश्व के भले का विचार करने वाले भारत का वह स्वाभाविक कर्तव्य है । वर्तमान परिस्थिति में वह भारत का अधिकार भी है । विश्व की यह आवश्यकता बन गई है।

धीरे धीरे पश्चिमी देशों को भी इसकी प्रतीति हो रही है। जिस मार्ग पर विश्व चल रहा है वह विनाश की ओर ले जा रहा है इसकी शत-प्रतिशत निश्चिति न भी हुई हो तो भी कुछ भारी गडबड चल रही है ऐसा तो लगने लगा है। तथापि सही मार्ग कौन सा होगा यह भी ध्यान में नहीं आ रहा है। पश्चिम में भी अनेक समझदार और बुद्धिमान लोग मार्ग खोजने का प्रयास कर रहे हैं। भारत विश्व को मार्ग दिखा सकता है ऐसा भी पश्चिम को लगने लगा है। इस स्थिति में भारत को ओर ध्यान देना ही होगा। अपने शाश्वत चिन्तन के प्रकाश में विश्व के संकटों को समझकर उन्हें दूर करने के उपाय विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने होंगे।

दूसरा भी एक सहज कारण है। भारत विश्व में सबसे प्राचीन देश है। अपने दीर्घ इतिहास में भारत ने अनेक चडाव उतार देखे हैं, अनेक आक्रमणों को झेला है और उन्हें परास्त भी किया है । विश्व के अनेक देशों के साथ भारत सम्पर्क में भी आया है। विश्व के अनेक देशों में ज्ञान, संस्कार, कलाकारीगरी को लेकर भारत गया है। विश्व की अनेक संस्कृतियों की अच्छी बातों का स्वीकार कर भारत ने अपने आपको समृद्ध बनाया है। भारत की विशेषता यह रही है कि इतनी दीर्घ आयु में भारतने भारतत्व गँवाया नहीं है। आज भी भारत का बहिरंग कुछ बदला सा दिखाई दे रहा है परन्तु अन्तरंग वही है। इस मामले में भारत विश्व का एक मात्र देश है । इस दीर्घ अनुभव के कारण और अपनापन बनाये रखने के कारण भी भारत अपनी दृष्टि से विश्व को समझने का अधिकार रखता है।

२. भारत को भारत बनने की आवश्यकता

भारत को विश्वगुरु बनना है। यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति । परन्तु अपना यह दायित्व निभाने के लिये भारत को भारत बनना होगा । आज जैसा है वैसा भारत विश्व का मार्गदर्शन नहीं कर सकता । आज भारत स्वयं यूरोअमरिकी तन्त्र से चल रहा है । यह तन्त्र यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि के आधार पर तो विकसित हुआ ही है, साथ ही भारत के तन्त्र को तोड़ने के लिये, भारत को लूटने के लिये, भारत को अपने नियन्त्रण में रखने के लिये और भारत का यूरोपीकरण करने के लिये थोपा गया है । इस तन्त्र को थोपने की प्रक्रिया कम से कम दो शतक तक चली है। दो प्रक्रियायें साथ साथ चली हैं। एक है भारतीय व्यवस्थायें तोडने की और दूसरी उसके स्थान पर यूरोअमेरिकी व्यवस्था स्थापित करने की। दैनन्दिन राष्ट्रजीवन को संचालित करने वाली ये व्यवस्थायें हैं।

एक सरकारी दृष्टि से देखें तो दो शतकों में भारत में क्या हुआ है। ब्रिटीश आये तब और अपना आधिपत्य जमा रहे थे तब भारत में लोकतन्त्र नहीं था । हिन्दू राजा और मुसलमान नवाब अपने अपने राज्यों पर राज्य करते थे। यह तो ज्ञात इतिहास है कि भारत स्वाधीन हआ तब देश में पाँच सौ सैंतालीस राज्य थे जिनके विलीनीकरण का श्रेय सरदार वल्लभभाई पटेल को दिया जाता है। भारत में युगों से राजाशाही थी, गणराज्यों के बारे में भी इतिहास में हमने पढ़ा है, परन्तु आज के जैसा लोकतन्त्र भारत में कभी नहीं रहा । भारत के लिये यह संकल्पना सर्वथा अपरिचित है। भारत में लोकतन्त्र संज्ञा तो सुपरिचित है । वास्तव में 'लोक' सभी क्षेत्रों में प्रतिष्टित रहा है, परन्तु भारत का 'लोकतन्त्र' और वर्तमान डेमोक्रसी' मे कोई साम्य नहीं है। फिर भी स्वाधीन भारत में एक बार भी प्रश्न नहीं पूछा गया कि यह 'लोकतन्त्र' अचानक से कैसे आ गया । हमने उसे इतनी सहजता से अपना लिया जैसे हमेशा से हम इसी व्यवस्था में जी रहे हैं।

ऐसी ही दूसरी व्यवस्था शिक्षा की है। वर्तमान में शिक्षा का जो तन्त्र चल रहा है वह भी भारत के लिये सर्वथा अपरिचित है। सरकार शिक्षा को नियन्त्रित और नियोजित करे ऐसा भारतीय जन ने स्वप्न में भी सोचा नहीं होगा । परन्तु आज वह प्रस्थापित तन्त्र हो गया है।

ऐसा ही अर्थतन्त्र है। राज्य का व्यापार के क्षेत्र में सक्रिय होना भारत में सर्वथा अनपेक्षित और अवांछनीय रहा है। परन्तु ब्रिटीशों का तो राज्य ही व्यापार के लिये था । स्वाधीनता के बाद वह व्यवस्था भी वैसी ही रह गई।

अर्थव्यवस्था, अर्थनीति, अर्थार्जन आदि सब धर्म के स्थान पर आ गये । इससे सारी व्यवस्था इतनी उलट पुलट हो गई कि हम आज तक न उसे ठीक से समझ पा रहे है न उससे उबर पा रहे हैं।

उसी प्रकार से समाजव्यवस्था के मूल आधार छिन्नभिन्न हो गये हैं। जिस प्रकार खम्भे गिर जाने से सारा का सारा भवन ध्वस्त हो जाता है उसी प्रकार समाज व्यवस्था खण्डहर बन गई है। अन्य व्यवस्थाओं की तो पर्यायी व्यवस्था हुई भी है, भले ही वह यूरोअमेरिकी हो, पर समाज के लिये तो कोई व्यवस्था ही नहीं है।

ऐसी मुख्य व्यवस्थाओं के साथ साथ छोटी छोटी परन्तु महत्त्वपूर्ण व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है । ये व्यवस्थायें हैं भाषा, खानपान, दिनचर्या, वेशभूषा, मनोरंजन आदि।

अर्थात् बाहर से देखें तो भारत भारत नहीं रहा।

परन्तु भारत की एक विशेषता है। विश्व के कई देश यूरोप के आधिपत्य के परिणाम स्वरूप अन्दर बाहर पूर्ण बदल गये । अमेरिका स्वयं अब रेड इन्डियनों का देश नहीं रहा, यूरोपीय देश बन गया। ऑस्ट्रेलिया, आफ्रिका भी यूरोपीय बन गये । चीन, जापान आदि ने अमेरिका के साथ स्पर्धा शुरू कर दी है। परन्तु भारत अभी भी अन्दर से भारतीय रहा है।

भारत के अन्तरंग और बहिरंग में बिना जाने समझे संघर्ष चल रहा है। भारत का अन्तरंग इतना बलवान रहा है कि सारी बहिरंग व्यवस्थाओं के बदल जाने के बाद भी वह बदला नहीं है।

जब तक भारत का अन्तरंग नहीं बदला है तब तक भारत की भारत बनने की आशा है। यदि अन्य देशों के समान अन्तरंग भी बदल गया तो भारत बनना असम्भव हो जायेगा।

अतः भारत को भारत बनने का पुरुषार्थ करना होगा। इस दृष्टि से भारी परिवर्तन करने होंगे। वर्तमान की व्यवस्थाओं को समझना, उनके दुष्परिणामों से अवगत होना, उन व्यवस्थाओं को निरस्त करने के उपाय खोजना, अभारतीय व्यवस्थाओं को समझना, उन्हें वर्तमान सन्दर्भ में नियोजित करना और अपनाना - ऐसा एक महान प्रयास करना होगा। यह एक बडा चुनौती पूर्ण कार्य है परन्तु अनिवार्य रूप से करणीय है।

यह इतना कठिन है, साथ ही इतना अनिवार्य है कि येन केन प्रकारेण उसे करना ही होगा।

जब भारत में परिवर्तन की बात चलती है तब एक तबका कहता है कि भारत को हम वापस अन्धकारयुगमें ले जायेंगे क्या । घडी की सुई उल्टी नहीं घूम सकती ऐसा भी कहा जाता है । संकेत यह है कि भारत को भारत बनने का मार्ग सरल नहीं है। वह आन्तरिक विरोध से भरा हुआ है। इसे भी समझकर उसका उपाय करना होगा।

३. अपनी भूमिका निभाने की सिद्धता

वर्तमान विश्व के संकटों को दूर करने हेतु भारत को अपनी भूमिका निभाने हेतु सिद्ध होना होगा। इसके लिये भारत क्या करे ?

सर्वप्रथम तो भारत को निश्चयपूर्वक अपनी भूमिका का स्वीकार करना होगा। संकट इतने भयावह हैं कि अब उनके निवारण हेतु हमें कुछ करना ही चाहिये ऐसा विचार भारत के मन में आना ही चाहिये । विश्व में अनेक देश हैं, वे बड़े हैं, समर्थ हैं अनेक तो अपने आपको महासमर्थ मानते हैं, सामर्थ्य को लेकर एकदूसरे से स्पर्धा करते हैं, वे यदि संकटों के निवारण की बात नहीं करते तो फिर हम क्यों करें ऐसा विचार नहीं करना चाहिये । कोई नहीं करता तो मैं क्यों करूं यह भारतीय विचार ही नहीं है, कोई नहीं करता तब भी मुझे करना चाहिये, और कोई नहीं करता तब तो मुझे करना ही चाहिये यह भारतीय विचार है। इसलिये विश्व के देश संकटों के निवारण का विचार करे न करें भारत को तो सिद्ध होना ही चाहिये ।

दूसरा कारण यह है कि विश्व भी आज संकटों का अनुभव तो कर ही रहा है और उनके निवारण हेतु प्रयास भी कर रहा है। उदाहरण के लिये पर्यावरण के प्रदूषण के संकट के निवारण हेतु विश्वस्तर के सम्मेलन हो रहे हैं, प्रस्ताव पारित हो रहे हैं, जनमानस प्रबोधन हेतु सूचनायें प्रसारित की जा रही हैं, संचार माध्यमों के द्वारा प्रचार हो रहा है परन्तु प्रदूषण कम नहीं हो रहा है (अर्थात् संकटों की भी वही स्थिति है। इससे सिद्ध होता है कि अनेक प्रयासों के बाद भी संकट दूर नहीं हो रहे हैं । भारत की सादी समझ तो यही कहती है कि संकटों के निवारण का प्रस्थान बिन्दु ही यदि ठीक नहीं है तो निवारण होना ही सम्भव नहीं । प्रदूषण करने वाला यदि अपने आपको बचाकर दूसरों को ही उपदेश देगा तो निवारण हो कैसे सकेगा ? अतः भारत को विश्व के अन्य देशों से अपेक्षा न करते हुए अपने आपको ही अग्रसर होकर संकट निवारण का विचार करना चाहिये ।

भारत को आत्मविश्वास से युक्त होना चाहिये । इतना भव्य अतीत, इतनी अध्यात्म और धर्म की सम्पदा, इतनी श्रेष्ठ विश्वकल्याण की भावना, इतनी अमाप समृद्धि, इतना दक्षतापूर्ण व्यवहारज्ञान, इतनी ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र की साधना होने के बाद भी भारत को अपने सामर्थ्य में विश्वास क्यों नहीं होना चाहिये ? विश्व भारत को गुरु मानता आया है। आज भी विश्व संस्कार, ज्ञान, समझदारी, परिवारभावना के क्षेत्र में भारत से सीखने के लिये प्रस्तुत है। दूर के अतीत में, आसन्न अतीत में और वर्तमान में विश्व के अनेक मनीषी भारत की प्रशंसा करते ही रहे हैं, भारत से अपेक्षा करते ही रहे हैं । फिर भारत अपने आपको समर्थ माने यही स्वाभाविक है । हम देने वाले ही हैं छीनने वाले नहीं, हम बचाने वाले ही हैं, मारने वाले नहीं; हम उद्धारक ही हैं, संहारक नहीं, हम विश्वसनीय ही रहे हैं, विश्वासघाती नहीं यह हमारे इतिहास ने सिद्ध किया है । इतिहास के इस तथ्य का हमें स्वीकार करना चाहिये और आत्मविश्वासपूर्वक अपना दायित्व निभाने के लिये सिद्ध होना चाहिये ।

आत्मविश्वास प्राप्त करने का उपाय है हीनताबोध से मुक्त होना । बिना किसी तर्कपूर्ण कारण से हम आज हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं। ब्रिटीशों के शासन के परिणामस्वरूप और दैवयोग से हम हीनताबोध से ग्रस्त हए हैं । हीनताबोध के कारण हमारे सामर्थ्य की विस्मृति हो रही है. हमारे सामर्थ्य का क्षरण भी होता है। यह एक मानसिक रोग है जिसका उपचार शारीरिक या बौद्धिक स्तर पर नहीं हो सकता। मानसिक स्तर पर उपचार करने की आवश्यकता है । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन होता है तथापि इसे किये बिना हमारा काम नहीं चलेगा। हीनताबोध दूर करना विद्वानों या वैद्यों का काम नहीं है, योगियों और धर्मचार्यों का है। दोनों भारत में हैं । हमें इन्हें निवेदन करना होगा कि वे हमारा हीनताबोध दूर करने के उपाय करें ।

हीनताबोध दूर कर आत्मविश्वास प्राप्त करने हेतु भारत को अपने आपको जानने की आवश्यकता है। इस विषय में हमारी अपरिमित हानि हुई है। शास्त्रीय ज्ञान और लोकज्ञान की हमारी व्यवस्था इतनी सर्वव्यापी थी कि सामान्य तथा अशिक्षित व्यक्ति भी आध्यात्मिक सत्यों को जानता था । ज्ञान क्रिया के बिना निरर्थक है, कभी कभी तो अनर्थक है यह जानकर वह बिना शास्त्र जाने, बिना कानून के भय से ज्ञानयुक्त व्यवहार करता था और उसे धर्माचरण कहता था। आज भारत में न तो शास्त्रीय ज्ञान देने की व्यवस्था है न लोकज्ञान देने की। ज्ञान से वंचित हो जाने से और विपरीत ज्ञान के आक्रमण से बुद्धिविभ्रम पैदा हुआ है जिससे असत्य को सत्य, अधर्म को धर्म, अनुचित को उचित मानने की स्थिति में हम पहुँच गये हैं । अतः सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य तो हमारी अपनी शिक्षाव्यवस्था को स्थापित करने का होगा। शिक्षा के माध्यम से अपने स्वभाव को, अपने चरित्र को, अपने इतिहास को, अपनी व्यवस्थाओं को, अपनी परम्पराओं को जानना और समझना होगा। विश्व के अनेक मनीषियों ने भारत की प्रशंसा की है, उसी प्रकार यूरोप के अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने भारत की निन्दा भी की है। दोनों प्रकार के कथनों को समझना होगा । निन्दा के प्रेरक तत्त्व क्या हैं, उनमें तथ्य कितना है यह भी समझना होगा । आज विश्व में भारत की स्थिति क्या है, विश्व भारत को कैसे देखता है, विश्व के अनेक देशों का भारत के साथ कैसा व्यवहार है इसे भी समझना होगा। अपने बारे में सम्यक ज्ञान प्राप्त कर अपने आपको ठीक करना होगा और विश्व में उचित स्थान प्राप्त करना होगा । धर्म की ग्लानि के कारण, बुद्धिविभ्रम से पैदा हुई धर्म की उपेक्षा के कारण, अपने ही व्यवहार की विशृंखलता के कारण हमने अपनी बहुत हानि की है। हमें अपने आपको जानकर अपना खोया हुआ सामर्थ्य प्राप्त करना होगा। अपने आपको जाने बिना न हम अपना भला कर सकते हैं न विश्व के कल्याण का स्वप्न देख सकते हैं।

अपने आपको जानने के साथ साथ विश्व को भी ठीक से जानना चाहिये । यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम प्रथम तीन बातें सिद्ध करें, अर्थात् अपने आपको जानें, अपना हीनताबोध दूर करें और आत्मविश्वास प्राप्त करें। तब हमें समझ में आयेगा कि भारत की दृष्टि से विश्व को जानना और उसका मूल्यांकन करना कितना आवश्यक है।

सर्वंकष विनाश की ओर कितना शीघ्र गति से विश्व धंस रहा है, विकास की कितनी अनुचित संकल्पना को साकार करने का प्रयास हो रहा है उसे कितना जल्दी त्याग कर देना चाहिये यह समझना आवश्यक है। विश्वस्थिति का केवल अध्ययन करने से काम नहीं चलेगा, भारत की दृष्टि से अध्ययन करना होगा। आज हम यूरोअमेरिकी दृष्टि से अध्ययन कर रहे हैं। इसके स्थान पर अपनी दृष्टि से अध्ययन करना होगा।

इसके लिये हमें यूरोअमेरिकी और भारतीय जीवनदृष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना होगा।

भारत को सिद्ध होने के लिये संगठित होना होगा। आज की भाषा में जिसे युनियन कहते हैं ऐसा इस संगठित का अर्थ नहीं है। समाज संचालन करने वाले जितने भी वर्ग हैं उन सबको आन्तरिक सहमति और समरसता निर्माण करनी होगी। भारत एक राष्ट्र है, वह सार्वभौम प्रजासत्ताक राष्ट्र है इस सूत्र का स्वीकार कर एक सार्वभौम, स्वतन्त्र, समर्थ, सम्पन्न राष्ट्र बनाने हेतु सभी वर्गों का स्वेच्छापूर्वक सक्रिय योगदान होना आवश्यक है। ये वर्ग हैं सरकार, प्रशासन, विश्वविद्यालय, उद्योग, परिवार, धर्माचार्य एवं सैन्य । न्यायालय और पुलीस सरकार का ही हिस्सा है। इन सब की समरसता से ही सामर्थ्य निर्माण होगा। संगठन के मूल सूत्र निर्माण करना धर्मसंस्था और ज्ञानसंस्था का कार्य है। इन दोनों ने पहल करनी होगी। सरकार और सभी समाजसेवी संगठनों ने इन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करना होगा कि वे अपने राष्ट्र को समर्थ बनाने हेतु दायित्व का स्वीकार करें।

४. विश्व के सन्दर्भ में विचार

विश्व के सन्दर्भ में भारतीय शिक्षा की स्थिति को देखते हैं तब हमें बहुत ही दारुण चित्र दिखाई देता है। आन्तर्राष्ट्रीय सूचकांक दर्शाते हैं कि विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम शिक्षा के मामले में बहुत पिछडे हुए हैं।

फिर हम स्वप्न देखना शुरू करते हैं कि भारत में भी हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय शुरू करेंगे। परन्तु बहुत जल्दी हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। हमें प्रतीति होती है कि हमारे पास न पैसा है न नीयत, न बुद्धि प्रतिभा जिनके बल पर हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय बना सकें।

फिर हम कुछ अराष्ट्रीय बातों पर खेद का अनुभव करते हैं। हमें दुःख होता है कि हमारी बुद्धिप्रतिभा देश में रहना नहीं चाहती। वह अन्य देशों के विश्वविद्यालयों में प्रगत अध्ययन के लिये जाती है। अपने तेजस्वी विद्यार्थी पढाई भी वहाँ करते हैं और व्यवसाय भी क्योंकि उन्हें भारत में अनुसन्धान के लिये कोई अवसर नहीं है। भारत में उनकी प्रतिभा की कोई कदर नहीं है। यह स्थिति हमारे हीनताबोध में वृद्धि करती है।

हमारे हीनताबोध को दूर करने के मनोवैज्ञानिक उपाय तो हमें करने ही होंगे। अन्यत्र (ग्रन्थ - ४ में) इस विषय की चर्चा भी की गई है। हीनताबोध से मुक्त होने के बाद कुछ प्रश्नों पर स्थिर बुद्धि से विचार करना चाहिये ।

१. विश्व के श्रेष्ठ दस विश्वविद्यालयों में कदाचित सात या आठ तो केवल अमेरिका में हैं। इसका अर्थ हैं वहाँ अध्ययन और अनुसन्धान का श्रेष्ठ कार्य हो रहा है। वहीं अत्यन्त मेधावी विद्यार्थी निर्माण हो रहे हैं। अमेरिका तो आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त विकसित देश है । भारत उसकी तुलना में कहीं नहीं आता । फिर ऐसा क्यों है कि अमेरिका की लगभग दो सौ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में सीईओ अमेरिका के नहीं हैं। वे एशिया के, विशेषकर भारत के, हैं। ये कम्पनियाँ खूब कमाई करनेवाली कम्पनियाँ हैं। अमेरिका के प्रतिभावान विद्यार्थियों का क्या हो रहा है?

यह आज की बात नहीं है। दो पीटी पूर्व से स्थिति तो यही है। कुछ वर्ष पूर्व एक वृत्त आया था कि केवल एक न्यूयोर्क में सातसौ डॉक्टर भारतीय हैं। यही बात इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों, व्यापारियों आदि की है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढे विद्यार्थी क्या देश नहीं चला सकते ? भारत में तो इतनी बड़ी संख्या में यूरोअमेरिकी विश्वविद्यालयों मे पढे लोग डॉक्टर का या अन्य व्यवसाय करते नहीं दिखाई देते ।

लोग कहते हैं कि भारत तो गरीब देश है। यहां आकर वे क्या कमाई करेंगे ? तो विचार यह करना है कि क्या डॉक्टर या अध्यापक समाज की सेवा करने के लिये बनना है या केवल कमाई करने के लिये ? अमेरिका तो सब कुछ केवल कमाई करने के लिये कर रहा है। तो वह अपने ही लोगों के स्थान पर विदेशियों को कमाई के अवसर क्यों दे रहा है ? केवल इसलिये कि उसके विश्वविद्यालय जनसंख्या और आवश्यकता के अनुपात में पर्याप्त कुशल डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि निर्माण नहीं कर सकते । ऐसे देश के विश्वविद्यालय यदि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो बात विचार करने योग्य बन जाती है। क्या अमेरिका स्वयं के लिये नहीं अपितु अन्य देशों के लिये ही विश्वविद्यालय चलाता है ? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी ज्ञानविज्ञान के प्रसार से विश्व का अमेरिकीकरण करना चाहता है।

२. ज्ञानविज्ञान के प्रसार के माध्यम से विश्व का अमेरिकीकरण करने में भी कोई बुराई नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान का प्रसार होना ही चाहिये । विश्व उससे लाभान्वित होना ही चाहिये । परन्तु कैसा है यह ज्ञानविज्ञान ?

विश्व के जितने भी प्राकृतिक और सांस्कृतिक संकट हैं वे सर्वाधिक मात्रा में अमेरिका में हैं। विश्व के लगभग सभी संकटों का उद्गमस्थान अमेरिका है। उसकी जीवनदृष्टि ही इन संकटों को जन्म देती है, उसके अपने लिये भी और विश्व के लिये भी।

जिस देश में ज्ञानविज्ञान की इतनी श्रेष्ठता हो उस देश की स्थिति इतनी संकटग्रस्त कैसे हो सकती है ? विज्ञान के अध्ययन और अनुसन्धान से प्राकृतिक संकट दर होने चाहिये और सामाजिक विषयों के अध्ययन से सांस्कृतिक । ज्ञान ही तो सुख, शान्ति, समृद्धि, स्वास्थ्य आदि का मूल कारण है। यदि अमेरिका के विश्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय अमेरिका को ही संकटमुक्त नहीं कर सकते तो विश्व की सहायता कैसे करेंगे ? विश्व क्यों उन्हें श्रेष्ठ माने ?

३. अमेरिका का भौगोलिक विस्तार भारत से तीन गुना अधिक है और जनसंख्या भारत से तीन गुना कम । अमेरिका विश्वसंसाधनों का सबसे अधिक उपभोग इतनी कम जनसंख्या के लिये कर रहा है। प्रकृति का और विश्व के देशों का शोषण कर रहा है। विश्व के देशों पर आर्थिक और सामरिक दबाव बढ़ा रहा है। ऐसे देश के विश्वविद्यालयों की ज्ञानसाधना शोषण और दबाव में ही सहायक बन रही है तो इन विश्वविद्यालयों को हम श्रेष्ठ कैसे मान सकते हैं । अमेरिका - या पश्चिम - विश्व का अपराधी है। उसे अपराधों के लिये ही तो श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता । मान लें कि वर्तमान में अमेरिका सबसे धनवान देश हैं। परन्तु किस कीमत पर वह धनवान बनता है इसका तो विचार करना चाहिये । केवल धनवान होना श्रेष्ठता नहीं है। विश्व को लूटकर धनवान बनना हिंसा है। विश्व के लिये अमेरिका उद्धारक नहीं अपितु संहारक है। ऐसे संहारक देश के विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठ नहीं मानना चाहिये । अतः भारत को चाहिये कि वह श्रेष्ठता के अपने मानक तैयार करे और उसके आधार पर विश्व के विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन करे।

पश्चिमी प्रभाव के चलते हम भी एकांगी विचार करने लगे हैं । एक सामान्य सा उदाहरण प्रस्तुत है।

अंग्रेजी व्याकरण पढाते समय भूतकाल का उदाहरण देने हेतु एक विद्यार्थीने लिखा -

रावण किल्ड राम - रावण ने राम को मारा । अध्यापक कहते हैं कि यह वाक्य तथ्य की दृष्टि से गलत है परन्तु व्याकरण की दृष्टि से सही है । व्याकरण की दृष्टि और इतिहास की दृष्टि यदि परस्पर विरोधी है और जिस उत्तर को इतिहास की परीक्षा में शून्य अंक मिलेंगे उस उत्तर को व्याकरण की परीक्षा में पूर्ण अंक मिलेंगे तो हमारी अध्ययन की दृष्टि को एकांगी ही कहा जायेगा। यह तो बहुत ही सामान्य उदाहरण है परन्तु बुद्दिमान अध्यापकों में यह बडे विवाद का विषय बन सकता है। इसी एकांगी दृष्टि से