बाल संस्कार - भारत परिचय श्लोक द्वारा

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बच्चो में संस्कारो का वर्धन ५ वर्ष की आयु से पाठांतर पठन माध्यम से प्रारंभ कर देना चाहिए । बच्चो में अपने धर्म के प्रति ,अपने राष्ट्र के प्रति और अपने देशवाशियो एवं माता-पिता गुरुजनों का आदर सम्मान करने की शिक्षा सर्वप्रथम देनी चाहिये । इसलिए हमें सर्वदा यह प्रयास करना चाहिए की विद्या का का प्रारंभ अपनी प्राचीन भाषा संस्कृत में किया जाये । इसी विषय को अग्रेसर करते हुए सम्पूर्ण भारत का परिचय सभी अभिभावक सरल रूप में और सहजता से प्राप्त कर सके।

इसलिए " एकात्मता स्तोत्र " नामक यह पाठांतर आपके लिए प्रस्तुत है । एकात्मता-स्तोत्र के पूर्वरूप – भारत-भक्ति-स्तोत्र – से हम लोग भली भाँति परिचित हैं, जो बोलचाल में 'प्रात: स्मरण' नाम से जाना जाता है, क्योंकि वह प्रात: स्मरण की हमारी प्राचीन परम्परा से ही प्रेरित था। राष्ट्रीय एकात्मता की दृष्टि से इसमें कुछ और नाम जोड़कर इसे अधिक व्यापकता प्रदान करने तथा दिन या रात में भी पाठयोग्य बनाने के उद्देश्य से विक्रमी संवत् २०४२ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने वर्तमान एकात्मता-स्तोत्र का अनुमोदन किया।

यह'भारत-एकात्मता-स्तोत्र' भारत की सनातन और सर्वकष एकात्मता के प्रतीकभूत नामों का श्लोकबद्ध संग्रह है। सम्पूर्ण भारतवर्ष की एकात्मता के संस्कार दृढ़मूल करने के लिए इस नाममाला का ग्रथन किया गया है।

राष्ट्र के प्रति अनन्य भक्ति , पूर्वजो के प्रति असीम श्रद्धा तथा सम्पूर्ण देश में निवास करने वालो के प्रति एकात्मता का भाव जागृत करने वाले इस मंत्र का नियमित रूप से पठान करना चाहिए ।

एकात्मतास्तोत्रम्

ॐ सच्चिदानन्दरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने।

ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमाङ्गल्यमूर्तये ।।१।।

विश्वकल्याण के प्रतिमूर्ति, ज्योतिर्मय, सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा को नमस्कार ।।१।।

प्रकृतिः पञ्च भूतानि ग्रहा लोका स्वरास्तथा।

दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुवन्तु मङ्गलम् ।।२।।

सत्व, रज और तमोगुण से युक्त प्रकृति; पंचभूत (अग्नि, जल,वायु, पृथ्वी, आकाश); नवग्रह; तीनों लोक; सात स्वर; दसों दिशाएं तथा सभी काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) सर्वदा कल्याणकारी हों । ।२।।

रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम् ।

ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्यां वन्दे भारतमातरम् ।। ३।।

सागर जिसके चरण धो रहा है, हिमालय जिसका मुकुट है।और जो ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि रूपी रत्नों से समृद्ध है, ऐसी भारतमाता की मैं वन्दना करता हूँ ।। ३ ।।

महेन्द्रो मलयः सह्यो, देवतात्मा हिमालयः ।

ध्येयो रैवतको विन्ध्यो, गिरिश्चारावलिस्तथा ।। ४।।

महेन्द्र (उड़ीसा में), मलयगिरि (मैसूर में), सह्याद्रि (पश्चिमी घाट), देवतात्मा हिमालय, रैवतक (काठियावाड़ में गिरनार), विन्ध्याचल, तथा अरावली (राजस्थान) पर्वत ध्यान करने योग्य .हैं।। ४।।

गड्.गा सरस्वती सिन्धुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी ।

कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥ ५ ॥

गंगा, सरस्वती, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, गण्डकी, कावेरी, यमुना, रेवा (नर्मदा). कृष्णा, गोदावरी तथा महानदी आदि प्रमुख नदियाँ।। ५।।

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्चि अवन्तिका ।

वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया।। ६।।

अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी. कांचि.अवन्तिका (उज्जैन),. द्वारिका, वैशाली, तक्षशिला, जगन्नाथपुरी गया तथा ।। ६।।

प्रयागः पाटलीपुत्रं विजयानगरं महत् ।

इन्द्रप्रस्थं सोमनाथः तथाऽमृतसरः प्रियम् ।। ७।।

प्रयाग, पाटलीपुत्र, विजय नगर, इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) विख्यात सोमनाथ, अमृतसर ध्यान करने योग्य हैं । । ७ ।।

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा।

रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ।। ८ ।।

चारों वेद, १८ पुराण, सभी उपनिषद्. रामायण, महाभारत. गीता तथा अन्य श्रेष्ठ दर्शन और ।। ८।।

जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः ।

एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥ ९॥

जैनों के आगम ग्रन्थ, बौद्धों के त्रिपिटक (विनय पिटक. सुत्त पिटक, और अभिधम्म पिटक) तथा श्री गुरुग्रंथ की सत्य वाणी हिन्दू समाज के श्रेष्ठ ज्ञानकोष हैं। इनके प्रति हृदय में सदा श्रद्धा बनी रहे ।। ९।।

अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती।

द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ।। १० ।।

अरुन्धती, अनुसूया, सावित्री, सीता सती. द्रौपदी, कण्णगी. गार्गी, मीरा दुर्गावती तथा ।। १० ।।

लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा ।

निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥

लक्ष्मीबाई, अहल्याबाई होलकर, चन्नम्मा आदि पराक्रमी नारियाँ, भगिनी निवेदिता तथा सारदा (स्वामी रामकृष्ण परमहंस

की पत्नी) मातृस्वरूपा हैं, वन्दनीय हैं ।। ११ ।।

श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः ।

मार्कण्डेयो हरिशचन्द्रः प्रह्लादो नारदो धुवः ।। १२ ।।

भगवान श्रीराम, भरत, कृष्ण, भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन. ऋषि मार्कण्डेय. हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, नारद, ध्रुव संत तथा ।।१२ ।।

हनुमान जनको व्यासो वशिष्ठश्च शुको बलिः।

दधीचि विश्वकर्माणौ पृथुवाल्मीकिभागर्गवाः ।। 13 ।।

हनुमान, जनक, व्यास, वशिष्ठ, शुक देव, राजा बलि, दधीचि, विश्वकर्मा, पृथ, वाल्मीकि, भाग्गव (परशुराम) ॥ 13।।

भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा ।

शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥ १४ ॥

भगीरथ, एकलव्य मनु, धन्वन्तरि.. शिबि तथा रन्तिदेव की कीर्ति पुराणों में गाई गई है । । १५।।

बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पत०जलि ।

शंकरो मध्वनिम्बाकौं श्रीरामानुजवल्लभौ । । १५।।

बुद्ध के सभी अवतार, सभी तीर्थकर, गुरु गोरखनाथ, पाणिनि, पंतजलि, शंकाराचार्य, मध्वार्चा, निम्बाक्काचार्य. रामनुजाचार्य तथा बल्लभाचार्य, ।। १५।।

झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा।

नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ।। १६।।

झूलेलाल, महाप्रभु चैतन्य, तिरुवल्लु वर, नायन्मार तथा आलवार सन्तपरम्मरा, कंब, बसवेश्वर तथा ।। १६।।

देवलो रविवासश्च कबीरो गुरुनानकः ।

नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दुढव्रतः ॥ १७ ॥

महर्षि देवल, सन्त रविदास, कबीर, गुरुनानक, नरसी मेहता, तुलसीदास, दृढव्रती गुरुगोविन्दसिंह, ।। १७।।

श्रीमत् शंकरदेवश्च बन्धू सायण-माधवौ ।

ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासा: पुरन्दरः ।। १८ ।।

आसाम के वैष्णव सन्त श्रीमत् शंकरदेव, सायणाचार्य, माधवाचार्य संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, समर्थगुरु रामदास, पुरन्दरदास ।। १८ ।।

बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान् ।

वितरन्तु सदैवेते दैवीं सद्गुणसम्पदम् ।। १९।।

बिरसामुण्डा, स्वामी सहजानन्द, रामानन्द आदि महान पुरुष सदैव समाज को श्रेष्ठ गुण प्रदान करें । १९।।

भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जकणस्तथा।

सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः । । २० ।।

नाट्यशास्त्र के आदि गुरु भरत ऋषि, संस्कृत के विद्वान कालिदास, महाराजा भोज, जकण, महात्मा सूरदास, त्यागराज,रसखान जैसे श्रेष्ठ कवि तथा।। २० ।।

रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः।

कलावन्तश्च विख्याता स्मरणीया निरन्तरम् ।। २१ ।।

महान चित्रकार रविवर्मा, वर्तमान संगीत कला के विख्यात उद्धारक भातखण्डे, मणिपुर के राजा भाग्यचन्द्र आदि विख्यात कलाकार सर्वदा स्मरणीय हैं। ।।२१ ।।

अगस्त्यः कम्बुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवं शजः ।

अशोकः पुष्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् । २२ ।।

अगस्त्य, कम्बु, कौण्डिन्य, चोलवंशज राजेन्द्र, अशोक, पुष्यमित्र तथा खारवेल नीतिज्ञ हैं ।। २२ । ।

चाणक्य-चन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहन: ।

समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेन्द्रो बप्परावलः ।। २३।।

चाणक्य, चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, शालिवाहन. समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, शैलेन्द्र, बेप्पारावल तथा।। २३।।

लाचिद् भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हुणजित् ।

श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बल: ॥ २४ ॥

लाचिद् बड़फुंकन, भास्करवर्मा, हूणविजयी यशोध्मा श्रीकृष्णदेवराय तथा ललितादित्य जैसे वलशाली।। २४ ।।

मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिवभूपतिः ।

रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमाः । । २५ ।।

प्रोलय नायक, कप्पयनायक, महाराणाप्रताप, महाराज शिवाजी तथा रणजीत सिंह, इस देश में ऐसे विख्यात पराक्रमी वीर हुए हैं।। २५।।

वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा।

चरको भास्कराचा्यों वराहमिहिरः सुधी:।। २६ ।।

हमारे बुद्धिमान वैज्ञानिक कपिलमुनि, कणाद् ऋषि सुश्रुत चरक, भास्काराचार्य तथा वराहमिहिर। । २६ ।।

नागार्जुनो भरद्वाज आर्यभट्टो बसुर्बुधः ।

ध्येयो वेड्टरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥ २७ ॥

नागार्जुन, भरद्वाज, आर्यभट्ट, जगदीशचन्द्र बसु चन्द्रशेखर वेंकट रमन तथा राजमानुजम् जैसे प्रतिभावान वैज्ञानिक स्मरणीय हैं।। २७ ।।

रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहनः ।

रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानन्द उद्यशाः।। २८ ।।

रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द. रवीन्द्रनाथ टैगोर राज राममोहनराय, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द स्वामी विवेकानन्द तथा।। २८ ।।

दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गान्धिरादृता।

रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।। २९ ।। ।

दादाभाई नौरोजी. गोपबंध दवास महात्मा गॉँधी, बालगंगाधर तिलक. महर्षि रमण, महामना मालवीय तथा सुब्रह्मण्य भारती आदरणीय हैं॥२९ ॥

सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक:।

ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरु: तथा ॥ ३० ॥

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, प्रणवानन्द, क्रान्तिवीर विनायक दामोदर सावरकर, ठक्कर बाप्पा, भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिराव फुले , नारायण गुरु तथा ॥ ३०॥

संघशक्तिप्रणेतारौ केशवो माधवस्तथा ।

स्मरणीयाः सदैवैते नवचैतन्यदायकाः ॥ ३१ ॥

संघ-शक्ति के प्रणेता प.पू केशवराव बलिराम हेडगेवार तथा माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, हिन्दू समाज में नवीन चेतना प्रदान करने वाले महापुरुष सदैव स्मरणीय हैं ॥३१ ॥

अनुक्ता ये भक्ताः प्रभुचरणसंसक्तहृदयाः

अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुद्ध्वस्तरिपवः ।

समाजोद्धर्तारः सुहितकरविज्ञाननिपुणाः

नमस्तेभ्यो भूयात् सकलसुजनेभ्यः प्रतिदिनम् ।॥ ३२ ॥

प्रभुचरण में अनुरक्त रहने वाले अनेक भक्त जो शेष रह गए, देश की अस्मिता और अखण्डता पर प्रहार करने वाले शत्रुओं युद्ध में परास्त करने वाले बहुत से वीर जिनके नामों का उल्लेख नहीं हो पाया, तथा अन्य समाजोद्धारक, समाज के हितचिन्तक तथा निपुण वैज्ञानिक एवं सभी श्रेष्ठजनों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों॥३२॥

इदमेकात्मतास्तोत्रं श्रद्धया यः सदा पठेत् !

स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्डं भारतं स्मरेत् ॥ ३३ ॥

इस एकात्मता स्तोत्र का जो सदा श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, राष्ट्रधर्म में निष्ठावान वह (व्यक्ति) अखण्ड भारत का स्मरण करे गा॥ ३३ ॥

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एकात्मतास्तोत्र-व्याख्या

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ऊँ सच्चिदानन्दरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने। ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमाडगिल्यमूर्तये।१ ॥

अर्थ :- ऊँ ज्योतिर्मय स्वरूप वाले, विश्व का कल्याण करने वाले, सच्चिदानन्द-स्वरूप परमात्मा को नमस्कार है ॥ १ ॥

व्याख्या : - ॐ परब्रह्मवाचक शब्द है जो प्रणव मंत्र भी कहलाता है। इसे सृष्टि का आदि नाद माना जाता है। यही शब्दब्रह्म है जो सम्पूर्ण आकाश में अव्यक्त रूप में व्याप्त है। पुराणों और स्मृतियों के अनुसार यह ब्रह्मा के मुँहसेनिकला हुआ। प्रथम शब्द है जो बड़ा मांगलिक माना जाता है और वेदपाठ या किसी भी शुभ कार्य के आरम्भ में तथा समापन के समय प्रयुक्त होता है। मन्त्र का आरम्भ भी ॐ से किया जाता है। ॐ त्रिदेव – ब्रह्मा,विष्णु और महेश का द्योतक है ,जिसमें अ = ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता),उ = विष्णु (पालनकर्ता), और म् = महेश (संहारकर्ता) का संकेतक माना जाता है। शुभ का द्योतक होने से भारत में स्वीकृति-वाचक "हाँ" या "बहुत अच्छा" अथवा “ठीक है" के अर्थ में भी 'अं%' कहने की प्रथा रही है। सच्चिदानन्द – सत् चित्(ज्ञानस्वरूप) आनन्दस्वरूप ब्रह्य।

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प्रकृतिः पञ्च भूतानि ग्रहा लोका स्वरास्तथा।दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुवन्तु मङ्गलम् ।।२।।

अर्थ : - (तीन गुणों से युक्त) प्रकृति,पाँच भूत, (नौ) ग्रह, (तीन) लोक अथवा (सात) ऊध्र्वलोक और (सात) अधोलोक, (सात) स्वर, (दसों) दिशाएं और (तीनों) काल सदा सबका मंगल करें ॥2 ॥

प्रकृति सृष्टी का मुल उपादान कारण , जो संख्या दर्शन के अनुसार जड़ (अचेतन), अमूर्त (निराकार) और त्रिगुणात्मक है, प्रकृति के नाम से ज्ञात है। उसके तीन गुण हैं – सत्व,रज और तम,जिनकी साम्यावस्था में सब कुछ अमूर्त रहता है। किन्तु चेतन तत्व (ईश्वर या आत्मा) के सान्निध्य में जड़ प्रकृति में चेतनाभास उत्पन्न हो जाने से वह साम्य भंग हो जाता है और तीनों गुण एक दूसरे को दबाकर स्वयं प्रभावी होने का प्रयत्न करने लगते हैं। इसके साथ ही सृष्टि का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। अद्वैत दर्शन में सृष्टि को मायाजनित विवर्त (मिथ्या आभास) माना जाता है। वस्तुत: भारतीय विचारधारा में प्रकृति और माया एक ही शक्ति के दो नाम हैं।

पंचभूत भारत का सामान्य जन भी इस दार्शनिक अवधारणा से सुपरिचित है कि सारे संसार और हमारे शरीर का भी निर्माण“क्षिति जल पावक गगन समीरा" अर्थात पृथ्वी ,जल,अग्नि, वायु और आकाश – इन पाँच भूतों से हुआ है। सांख्य दर्शन के अनुसार भौतिक सृष्टि के क्रम में तीन गुणों की साम्यावस्था भंग होने पर प्रधान प्रकृति के प्रथम विकार महत् से शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध – ये पाँच तन्मात्र (गुण) और इन तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी नामक पंचभूतों की सृष्टि होती है जिनसे यह विश्व बना है। ये पाँचों भूत सूक्ष्म मूल पदार्थ हैं,स्थूल मिट्टी, पानी, आग इत्यादि नहीं।

ग्रह

सामान्यत: सौरमण्डलमें सूर्य की परिक्रमा करने वाले पदार्थ-पिण्डों को ग्रह कहते हैं,किन्तु ज्योतिष शास्त्र में हमारे सौरमण्डल के मंगल,बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि नामक पाँच ग्रहों के अतिरिक्त सूर्य और चन्द्रमा की तथा राहु और केतु नामक दो खगोलीय चर बिन्दुओं (छायाग्रह) की गणना भी ग्रहों के रूप में की गयी है। इस प्रकार ये नौ ग्रह हैं। इन सभी की गतियों और उदय तथा अस्त होने के समय की गणना गणित ज्योतिष में की गयी है। फलित ज्योतिष की मान्यता है कि पृथ्वीवासी प्राणियों पर इन ग्रहों की गतियों और विभिन्न समयों में उनकी स्थिति का शुभाशुभ प्रभाव पड़ता है। गुरुत्वाकर्षण के कारण समुद्री ज्वार-भाटा जैसे स्थूल प्रभाव तथा दृश्य प्रकाश और अवरक्त एवं पराबैंगनी किरणों जैसे विद्युच्चुम्बकीय विकिरण के प्रभाव को आधुनिक विज्ञान भी मान्यता देता है।

पुराणों में राहु और केतु का उल्लेख एक राक्षस के कटे हुए शिर और धड़ के रूप में किया गया है, जिसने समुद्र-मन्थन के पश्चात् चुपके से देवों के मध्य जाकर अमृत पी लिया था। सूर्य-चन्द्र द्वारा यह सूचना मिलने पर भगवान् विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका शिर काट दिया। मांगलिक कार्यों के पूजा-विधान में नवग्रह-पूजन भी सम्मिलित है।

भारत एकात्मता-स्तोत्र—व्याख्या सचित्र 13

लोक

वेदों में अनेक लोकों का उल्लेख हैजिन में प्रकाश पूर्ण दैवी लोक भी हैं और अन्धकार में डूबे आसुरी लोक भी। पुराणों में चौदह लोकों का वर्णन किया गया है जिनमें भूर्लोक , भुवर्लोक , स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक नामक सात ऊध्र्वलोक हैं तथा अतल, वितल,सुतल,रसातल,तलातल, महातल और पाताल नामक सात अधोलोक हैं। इन्हें चौदह भुवन भी कहा जाता है। भूलोंक कर्मलोक है और मनुष्य जन्म कर्म का आधार है। इस लोक से ऊध्र्व लोकों में शुभ कर्मों और पावन प्रवृत्तियों के प्राणियों का वास है और निम्न लोकों में अशुभ कर्मों एवं अधम प्रवृत्ति के प्राणियों का वास।

स्वर

भारतीय दर्शन के अनुसार आकाश में शब्द गुण है। परन्तु वहाँ शब्द अभिप्राय ध्वनि न होकर'कम्पन' अर्थात्तरंग- प्रचरण है। शब्द की ध्वनिमयी अभिव्यक्ति स्वर है। स्वर को नादब्रह्म भी कहा गया है। संगीत शास्त्र में ध्वनि की मूल इकाइयों को श्रुति नाम दिया गया है जिनकी संख्या 22 है। एक से अधिक श्रुतियों के नादमय संयुक्त रूप को स्वर कहते हैं। संगीत के एक सप्तक में सात स्वर होते हैं,जिनके नाम है : षड्ज,ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद (सारे ग म प ध नि) । सात स्वरों का यह क्रम पूरा होने पर फिर से उसी क्रम में पूर्वापेक्षा दुगुनी आवृत्ति (तारत्व) का सप्तक आरम्भ हो जाता है। इस सप्तक का क्रम भी सातवें स्वर तक चलने के पश्चात् उससे दुगुनी आवृत्ति का सप्तक चल पड़ता है। उपर्युक्त शुद्ध स्वरों के अतिरिक्त जिनविक्कृत स्वरों को संगीत में मान्यता दे दी गयी है, वे हैं – कोमल ऋषभ, कोमल गान्धार, तीव्र मध्यम, कोमल धैवत और कोमल निषाद। भारतीय संगीत में प्रयुक्त तीन सप्तकों को क्रमश:मन्द्र,मध्य और तार सप्तक कहा जाता है।

व्याकरण में, भारतीय भाषाओं की वर्णमाला के अ आ इ ई उ ऊ आदि जिन 14 वर्णाक्षरों *९ -९ -९ -९ -९ वणाक्षरों से मिलने पर उनकी ध्वनियों को अभिव्यक्त करने में भी सहायक होती हैं , वे स्वर कहलाते हैं। उच्चारण में नाद के विस्तार की दृष्टि से ये हृस्व, दीर्घ और प्लुत भेद से तीन प्रकार के होतेहैं।उच्चारण की तीव्रता की दृष्टि से भी स्वर उदात्त,अनुदात्त और स्वरित भेद से तीन प्रकार के होते हैं।

दिशा

पूर्व,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण,आग्नेययाअग्निकोण(दक्षिण-पूर्व),नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम), वायव्य (उत्तर-पश्चिम),ईशान (पूर्वोत्तर),ऊध्र्व (ऊपर) और अध: (नीचे) – ये दश दिशाएँ या दिक हैं।

काल

घटनाओं के पूर्व और पश्चात् के अनुक्रम का बोध कराने वाला प्रत्यय, जिसका गति या परिवर्तन से अविच्छेद्य सम्बन्ध है। भारतीय तत्व दर्शियों ने काल को चक्रीय (पुनरावर्ती) बताया है, जिसके अनुसार सत्ययुग, त्रेतायुग,द्वापरयुग, और कलियुग का बारम्बार पुनरावर्तन होता रहता है। इस प्रकार भूत,वर्तमान और भविष्य का कालचक्र पुन: पुन: अपने को दुहराता रहता है। भारत में काल-गणना निमेष (पलक-झपकने) के भी अत्यंत सूक्ष्म अंश से लेकर कल्प (सृष्टि की अवधि) पर्यन्त बृहत् स्तर तक की गयी है। उपर्युक्त चार युगोंका एक महायुग (43,20,000 वर्ष) और 1000 महायुगों का एक कल्प होता है जो पुराणों के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन और एक बार की सृष्टि की अवधि है। सृष्टि कल्प के ही बराबर प्रलयकाल होता है और तत्पश्चात् पुन: सृष्टि।

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रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्। ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ़यां वन्दे भारतमातरम् ॥3 ॥

राजर्षियों रूपी रत्नों से समृद्ध ऐसी भारतमाता की मैं वन्दना करता हूँ ॥3 ॥

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महेन्द्रो मलय: सह्यो देवतात्मा हिमालय: । ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिशचारावलिस्तथा ।4 ।

महेन्द्र पर्वत : -

उत्कल प्रदेश (उड़ीसा) के गंजाम जिले में पूर्वी घाट काउत्तुंग शिखर। इस पर्वत पर चार विशाल ऐतिहासिक मन्दिर विद्यमानहैं। चोल राजा राजेन्द्र ने 11 वीं शताब्दी में यहाँएक जयस्तम्भ स्थापित किया था। स्थानीय लोगों की ऐसी श्रद्धा है कि सप्त चिरंजीवियों में से एक, परशुराम, इस पर्वत पर विचरण करते हैं। इस पर्वत से महेन्द्र—तनय नामक दो प्रवाह निकलते हैं।

मलय पर्वत :-

भारतीय वाड्मय में मलय गिरि का वर्णन अनेक कवियों ने किया है। चंदन वृक्षों के लिए प्रसिद्ध यह पर्वत कर्नाटक प्रान्त में दक्षिण मैसूर में स्थित है। यह नीलगिरि नाम से भी जाना जाता है। इसका एक शिखर भी नीलगिरि के नाम से प्रसिद्ध है।

सह्य पर्वत (सह्याद्री): -

भारत के पश्चिमी सागर-तट पर महाराष्ट्र और कर्नाटक में स्थित यह पर्वत गोदावरी और कृष्णा नदियों का उद्गम-स्थल है। त्र्यम्बकेश्वर, महाबलेश्वर, पंचवटी, मंगेशी, बालुकेश्वर, करवीर आदि अनेक तीर्थ सह्याद्रि के शिखरों पर तथा इससे उद्भूत नदियों के तटों पर विद्यमान हैं। यह पर्वत शिवाजी महाराज के कतृत्व का आधार क्षेत्र रहा है। अनेक इतिहास-प्रसिद्ध दुर्ग सह्याद्रि के शिखरों पर स्थित हैं, जिनमें उल्लेखनीय हैं—शिवनेरी, प्रतापगढ़, पन्हाला, विशालगढ़, पुरन्दर, सिंहगढ़ और रायगढ़।

हिमालय

भारत के उत्तर में स्थित, सदैव हिममण्डित, विश्व का सबसे ऊँचा पर्वत, जिसे कालिदास ने ‘देवतात्मा' विशेषण से सम्बोधित किया था (“अस्त्युतरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयी नाम नगाधिराज:।") । उत्तर की ओर से परकीय आक्रमणों को रोकने में सुदृढ़ प्राचीर की भाँति खड़े पर्वतराज हिमालय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह पर्वत भारत की अनेक महान् नदियों का उदगम-स्थल है। गंगा, यमुना,सिन्धु, ब्रह्मपुत्र जैसी महिमामयी विशाल नदियाँ हिमालय से ही नि:सृत हुई हैं। भगवान् शिव का प्रिय निवास कैलाश पर्वत हिमालय में ही स्थित है। नर-नारायण का पवित्र स्थान यहीं है। गंगोत्री, यमुनोत्री, मानसरोवर, बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे सुप्रसिद्ध तीर्थ इसी महती पर्वत-श्रृंखला के क्रोड़ में बसे हैं। हिमालय के प्रांगण में ही राजा भगीरथ ने गंगा के अवतरण के लिए घोर तप किया था। यहीं देवी पार्वती ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने महान् तप से भगवान्शिव को पतिरूप में प्राप्त किया। यहीं बद्रीवन में भगवान् व्यास ने अनेक महाग्रन्थों का प्रणयन किया। महाभारत के युद्ध के बाद पाण्डवों ने हिमालय-गमन किया था। भारत की पारम्परिक, सांस्कृतिक जीवनगाथा के असंख्य आख्यान हिमालय से जुड़े हुए हैं। यह युगों-युगों से ऋषि-मुनियों, योगियों, तपस्वियों और दार्शनिकों का वासस्थान रहा है।

रैवतक पर्वत : -

गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ जिले के प्रभास क्षेत्र का पवित्र पर्वत,जो गिरनार नाम से भी प्रसिद्ध है,द्वारिका से कुछही दूरी पर है। माघरचित 'शिशुपाल वध' नाटक में इसका सुन्दर वर्णन है। पुराणों के अनुसार भगवान् शंकर ने इस पर्वत पर वास किया था और उन्हें कैलाश पर्वत पर लौटा लाने का अनुरोध करने के लिए आये हुएदेवताओं को शंकर जी ने इसी क्षेत्र में रहने को कहा था। अतएव ऐसी मान्यता है कि रैवतक पर्वत पर सभी देवताओं का और शिवजी के अंश का निवास है। इस पर्वत पर अनेक पवित्र जल-कुण्ड औरमन्दिरविद्यमानहैं। जैन सम्प्रदाय के भी अनेक मन्दिर इस पर्वत पर विद्यमान हैं। इसके शिखरों में गोरखनाथ शिखर सबसे उलूंचा है।

विन्ध्याचल : -

भारत के मध्य भाग में गुजरात से बिहार तक विस्तीर्ण यह पर्वत नर्मदा और शोणभद्र नदियों का उद्गम-स्थल है। विन्ध्याचल सात कुलपर्वतों में से एक है। कहा जाता हैकि उत्तर भारत और दक्षिण भारत को विभाजित करने वाली विन्ध्य पर्वतमाला को लांघकर ऋषि अगस्त्य दक्षिण गये थे और उन्होंने उत्तरतथा दक्षिण कोएकसूत्र में बाँधने का यशस्वी कार्य सम्पन्न किया था। पुराणों के अनुसार, यह पर्वत हिमालय से ईष्र्या करके मेरु से भी ऊँचा उठ रहा था। देवताओं की प्रार्थना पर अगस्त्य ऋषि विन्ध्य पर्वत के पास गये। अपने गुरु को आया देख उसने झुककर उन्हें प्रणाम किया। ऋषिवर ने दक्षिण से अपने वापस लौटने तक उसी नम्र अवस्था में रहने का उसे आदेश दिया। तब से विन्ध्य पर्वत उसी विनतावस्था में उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। अमरकण्टक का रमणीक पवित्र तीर्थ विन्ध्य पर्वत-श्रृंखला पर ही स्थित है। अरावली राजस्थान का प्रमुख पर्वत,जिसके आश्रय से उत्तर-पश्चिम की ओर से होने वाले परकीय आक्रमणों का प्रतिरोध किया गया। महाराणाप्रताप के शौर्य और कर्तृत्व का साक्षी यह पर्वत उनकी कर्मभूमि रहा है। प्रसिद्ध हल्दीघाटी अरावली की उपत्यकाओं में ही स्थित है। अरावली के सर्वोच्च शिखर का नाम आबू(अर्बुदाचल) है, जहाँ जैन सम्प्रदाय के पवित्र तीर्थ हैं। इस पर्वत का प्राचीन संस्कृत नाम ‘पारियात्र' था जिसकी सात कुलपर्वतों में गणना होती थी।

(महेन्द्रो मलय: सह्यो शुक्तिमान् ऋक्षवानपि। विन्ध्यश्च परियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वता: ॥)

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गडगा सरस्वती सिन्धुब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी। कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥5 ॥

गंगा : -

नामों से पुकारा जाताहै,हिमालय में गंगोत्री में गंगोत्री हिमानी के गोमुख विवर से निकलकर गंगा गिरि-शिखरों से क्रीड़ा करती हुई,हरिद्वार में समतल प्रदेश मेंप्रवेश करती है। आगे यहनदी उत्तर प्रदेश,बिहार,बंगाल कोअपने पवित्रप्रवाहसे पावनकरती हुईगंगासागर मेंजामिलती है। ऋग्वेद के नदी सूक्त के अनुसार वह भारत की नदियों में सर्वप्रथम है। गंगा के तट पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी जैसे अनेक सुप्रसिद्ध तीर्थ हैं। इसके तटों पर अनादि काल से ऋषि, मुनि और तपस्वीगण साधना करते आये हैं। गंगा—जल पवित्रता और निर्मलता का उपमान है। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका हैकि इसकी स्वयं शुद्ध हो जाने की क्षमता विश्वभर क जलों में सर्वोपरिहै। हिन्दू इस पावन नदी को माता या मैया कहकर पुकारते हैं। पुराणों के अनुसार गंगा विष्णु के चरण से उत्पन्न हुई, ब्रह्मा के कमंडलु में समायी, शिव जी ने इसे अपनी जटा में धारण किया और सगरवंशीय राजा भगीरथ अपने पूर्व-पुरुषों का उद्धार करने हेतु इसे धरती पर लाये। भागवतपुराण में तत्सम्बन्धी कथा विस्तार से दी गयी है। आदित्यपुराण के अनुसार पृथ्वी पर गंगावतरण वैशाख शुक्ल तृतीया को तथा हिमालय से उसका निर्गम ज्येष्ठ शुक्ल दशमी (गंगा दशहरा ) को हुआ।

सरस्वती : -

वेदों में उल्लिखित पवित्र नदी, जो हिमालय से निकलकर वर्तमान हरियाणा, राजस्थान, गुजरात के क्षेत्रों से प्रवाहित होती हुई सिन्धुसागर में मिलती थी। कालांतर में यह नदी विलुप्त हो गयी। इसके तट ऋषियों की तपोभूमि रहे हैं। इसके आसपास का प्रदेश सारस्वत प्रदेश कहलाता था जो अपनी सांस्कृतिक समृद्धि के लिए प्रसिद्ध था। पुराणों में कहीं-कहीं सरस्वती को ब्रह्मा की पत्नी तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में वाणी की देवी कहा गया है। सम्भव है कि इस नदी के तटवर्ती प्रदेश की विद्या—वैभव-सम्पन्नता के कारण इसे सरस्वती नाम मिला हो।

सिन्धु : -

पवित्र नदी, जिसका वैदिक साहित्य में भी उल्लेख आया है। हिमालय में कैलाश पर्वत से कुछदूर मानसरोवर के निकटसे उद्भूत होकर सिन्धुनदी कश्मीर, पंजाब औरसिन्ध प्रदेश में से प्रवाहित होती हुई पश्चिमी सिन्धु सागरमें जा मिलती है। सिन्धु नदी वेदों मेंउल्लिखित पवित्र नदी हैजिसके तटों पर वैदिक सभ्यता फली-फूली। ऐसी मान्यताहैकि 'हिन्दू' शब्द सिन्धुसे ही बना है। सिन्धु और उसकी सहायक नदियों सहित सात नदियों वाला प्रदेश सप्तसैंधव कहलाता था। वैदिक सभ्यता और संस्कृति यहाँ फली-फूली थी। किन्तु आज वही नदी और प्रदेश दोनों ही दुर्भाग्यवश पाकिस्तान में हैं।

ब्रह्मपुत्र : -

इसका उदगम-स्थल हिमालय में पवित्र मानसरोवर के समीप स्थित एक विशाल हिमानी है। यहमहानद पूर्व की ओर बहता हुआ असम और बंगाल में से होतेहुए गंगासागरमें मिलता है। भारतवर्ष की नदियों में ब्रह्मपुत्र की लम्बाई सर्वाधिक है। बड़ी दूर तक तिब्बत में सांपो नाम से बहने के पश्चात् अरुणाचल प्रदेश की उत्तरी सीमा पर यह भारत में प्रवेश करती है। गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के किनारे एक पहाड़ के शिखर पर कामाख्या देवी का पवित्र शक्तिपीठ अवस्थित है। अपुनर्भव, भस्मक्तूट, मणिकर्णश्वर आदि अनेक तीर्थ इसके तटों पर स्थित हैं।

गण्डकी :-

नेपाल में मुक्तिनाथ के समीप दामोदर कुण्ड सेउद्भूत गण्डकी बिहार प्रदेश से होतीहुई गंगा में मिल जाती है। यह पवित्र शालिग्राम शिलाओं के लिएप्रसिद्ध है जिनकी पूजा भगवान् विष्णु के प्रतीक के रूप में की जाती है। इसीलिए इसका एक नाम नारायणी भी है।

कावेरी : -

कावेरीमुख्यत: कर्नाटक और तमिलनाडुमें बहने वाली पवित्र नदी,जो कुर्ग में सह्याद्रि केदक्षिणी छोर से निकलकर पूर्वी समुद्र-तट पर गंगासागर में विलीन हो जाती है। इसके प्रवाह के बीच में तीन स्थानों पर क्रमश: आदिरंगम्, शिवसमुद्रम् तथा अन्तरंगम् नाम के तीन पवित्र द्वीप हैं जिन पर विष्णु-मन्दिर बने हैं। जो स्थान उत्तर भारत में गंगा- यमुना नदियों को प्राप्त है, वही स्थान दक्षिण भारत में कावेरी और ताम्रपणी को प्राप्त है। कावेरी से निकली नहरों ने तमिलनाडु प्रदेश को कृषि की समृद्धि प्रदान की है।

यमुना : -

यमुनाउत्तर भारत की पवित्र नदी, जो हिमालय में यमुनोत्री के शिखर से निकलकर प्रयाग क्षेत्र में गंगा मेंमिल जातीहै। गंगा-यमुना का यहसंगम-स्थल आस्तिकों के लिएतीर्थराजहै।इस नदी के तटपर इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली),मथुरा और वृंदावन जैसे ऐतिहासिक, धार्मिक नगर बसे हैं। नीलवर्णा यमुना के साथ श्रीकृष्ण का गहरा संबंध है। कृष्ण-भक्ति-साहित्य में कृष्ण के संबंध के कारण यमुना का महात्म्य भी गाया गया है। पुराणों में यमुना को सूर्यकन्या माना गया है। वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में भी इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है।

रेवा : -

पुराणोक्ता रेवा नदी नर्मदा नाम से प्रसिद्ध है। इसका उदगम विन्ध्य पर्वत के अमरकण्टक शिखर में है। यह गुजरात में भड़ौंच के पास सिन्धु सागर में समाहित होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसाररेवा नदी शिवके शरीर सेउत्पन्न हुईहै।रेवा के तट परअनेक तीर्थहैं। इनमें भेड़ाघाट, ओकारेश्वर, मांधाता, शुक्लतीर्थ, कपिलधारा आदि दर्शनीय हैं। स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड में रेवा-तट के तीर्थों का विस्तृत वर्णन है। रानी अहिल्याबाई होलकरद्वारा बनवाये गये अनेक मन्दिर व घाट नर्मदा के तट पर विद्यमान हैं। कृष्णाआंध्र प्रदेश की प्रसिद्ध पुण्य सलिला नदी,जो सह्मद्रि पर्वत में महाबलेश्वर के उत्तरमें स्थित कराड़ नामक स्थान के समीप सेनिकलकर गंगासागर में जामिलती है। यहदक्षिण भारत की बड़ी नदियों में से है जिसे महाभारत में रोगनाशकारिणी बताया गया है। राजनिघण्टु के अनुसार इसका जल स्वच्छ,रुचिकर,दीपक और पाचक होताहै। भीमा औरतुंगभद्रा कुष्णा की दो प्रमुख सहायक नदियाँ हैं।

गोदावरी : -

गोदावरी ब्रह्मपुराण के अनुसार गौतम ऋषि शिव की जटा से गंगा को ब्रह्मगिरि (सह्याद्रि) में अपने आश्रम के समीप ले गये। इसीलिए वहाँप्रकट हुई गोदावरी को गौतमी और दक्षिण की गंगा भी कहा जाता है। इसका उद्गम सह्याद्रि में त्रयम्बकेश्वर (ब्रह्मगिरि) से है और यह महाराष्ट्र से आन्ध्र प्रदेश में बहती हुई गंगासागर में विलीन हो जाती है। भगवान् राम चन्द्र जी ने गोदावरी के किनारे पंचवटी में निवास किया था। समर्थ रामदास स्वामी ने इसी स्थान पर 13 वर्ष तक घोर तपस्या की थी। गोदावरी के किनारे नान्देड़ क्षेत्र में श्री गुरु गोविन्द सिंह की समाधि विद्यमान है। गोदावरी के तट पर नासिक,पैठण,कोटिपल्ली राजमहेन्द्री, भ्रदाचलम् इत्यादि अनेक पावन क्षेत्र विद्यमानहैं। ब्रह्मपुराण मेंगोदावरी-तट के लगभग एक सौतीर्थों का वर्णनहै। मुस्लिम आक्रामकों ने इनमें प्राचीन मन्दिरों का बहुत विध्वंस किया। मराठा उत्थान के पश्चात्पुन: अनेक मंदिर बने। पंचवटी का कालाराम मंदिर दक्षिण-पश्चिम भारत के सर्वोतम मन्दिरों में गिना जाता है।

महानदी : -

महानदी यह मध्य प्रदेश तथा उत्कल प्रदेश की सबसे बड़ी नदी है जो मध्य प्रदेश के रायपुर जिले के दक्षिण-पूर्व में स्थित सिंहवा पर्वत-श्रृंखला से निकलती है। कटक के पास अनेक धाराओं में बहती हुई यह पूर्व में गंगासागर में विलीन होती है। उत्कल प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र इसके जल से सिंचित होता है। उत्कल प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र इसके जल से सिंचित होता है।

अयोध्या मथुरा माया काशी काजिच अवन्तिका।वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया।6 ॥

अयोध्या

मर्यादापुरुषोतम भगवान् श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या प्राचीन कोसल जनपद (अबउत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले) में सरयू नदी के दाहिने तट पर बसी अति प्राचीन नगरी है। यह इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की राजधानी थी। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान्राम की यहप्रसिद्ध जन्मभूमिहै। श्रीराम के लोकविख्यात रामराज्य केपश्चात्उनकेज्येष्ठपुत्र कुश ने अपनी राजधानी अन्यत्र बना ली और अयोध्या में श्रीराम-जन्मस्थान पर मन्दिर बनवा दिया। कालान्तर में विक्रमादित्य ने वहाँ जीर्णोद्धार कर मन्दिर-निर्माण कराया। अब से लगभग 1000 वर्ष पूर्व किसी राजा ने मन्दिर का पुनर्नवीकरण किया। 1529 ई० में विदेशी बर्बर आक्रमणकारी बाबर ने यहाँ के श्रीराम-जन्मभूमि-मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रयास किया,परन्तु रामभक्तों के अनवरत सशस्त्र प्रतिरोध के कारण अपने उद्देश्य में असफल होकर उसनेबिना मीनारों के तीनगुम्बदों वाले ढाँचे का निर्माण वहाँ किसी प्रकार करा दिया था जिसमें गुम्बदों के नीचे ध्वस्त किये गये मंदिर के जो खंभे लगाये गये थे उन पर मूतियाँ और मंगल-कलश उत्कीर्ण हैं। वे स्तम्भ अब वहाँ संग्रहालय में रखे हैं। मुख्य गुम्बद में चन्दन-काष्ठ लगा था औरप्रदक्षिणा भी थी। साधु-संत वहाँ भजन-पूजन करते थे, परन्तु औरंगजेब ने बर्बर सैन्यशक्ति द्वारा उस पर रोक लगायी। श्री राम-जन्मभूमि की मुक्ति के लिए समाज सतत संघर्ष करता रहा है जिसमें वह अनेक बार सफल हुआ और गुम्बद के नीचे भी पूजा होती रही। किन्तुविदेशी अवैध शासकों ने बार-बार व्यवधान डाले। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस की रचना अयोध्या में ही की थी। इसके लिए वे काशी से अयोध्या पहुँचे और संवत् 1631 की रामनवमी का दिन उन्होंने इस पावन कार्य के शुभारम्भ हेतु चुना। स्वाभाविक था कि यह कार्य उन्होंने रामजन्मभूमि पर निवास करते हुए ही किया, जिस पर उस समय मसीत (मस्जिद) की आकृति का परित्यक्त भवन खड़ा था। गोस्वामी जी के शब्दों में उस समय उनकी आजीविका थी – “माँगे के खैबो मसीत को सोइबी लैबे को एक न दैबे की दोऊ”

प्रमुख संत-महात्माओं के सम्मेलन एवं धर्म-संसद में लिए गये निर्णयानुसार विक्रम संवत् 2046 की देवोत्थान एकादशी के दिन नये भव्य श्री राम-जन्मभूमि-मंदिर का शिलान्यास किया गया। संवत् 2047 की देवोत्थान एकादशी के दिन से पुन: श्रीराम-मन्दिर के निर्माण-कार्य को आगे बढ़ाने के लिए गये हुए रामभक्तों के मार्ग में सैकड़ों अवरोध डालने के पश्चात मुश्लिम परस्त क्रूर राज सत्ताधारियों ने उस दिन श्री राम-जन्मभूमि पर और उसके चार दिन पश्चात् हनुमानगढ़ी तथा अयोध्या के मन्दिरों और गलियों में आग्नेयास्त्रों से गोली-वर्षा कर बहुत से बलिदानी वीरों के प्राण ले लिये और सैकड़ों को आहत कर दिया। किन्तु राम-कार्य के लिए सर्वस्वार्पण का संकल्प तोड़ा न जा सका। और नये-पुराने 'धर्मनिरपेक्ष' शासकों के राजनीतिक छल-छद्यों तथा राज्यसत्ता के हठ पूर्ण दुरुपयोग के कारण अन्तत: वह दिन भी आ गया जब 6 दिसम्बर, 1992 के दिन रामभक्तों ने राष्ट्रीय अपमान के प्रतीक उस ढाँचे को हटाकर उस पवित्र स्थल का जीर्णोद्धार कर दिया। वहाँ रामलला का जो लघु मन्दिर अब रह गया है उसको उस स्थान के अनुरूप भव्य रूप देने के मार्ग में अब भी कुटिल बाधाएं खड़ी की जा रही हैं। जैन तीर्थकर आदिनाथ का जन्म भी अयोध्या में हुआ था। बौद्ध साहित्य में इस नगर को साकेत कहा गया। वाल्मीकि-रामायण में भगवान श्री राम ने जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया है। रावण-वध के पश्चात् यह भावना व्यक्त कर वे लंका से शीघ्र अयोध्या लौट आये। सीता रसोई तथा हनुमानगढ़ी जैसे कुछ प्राचीन एवं अन्य अनेक नवीन मन्दिरों की यह नगरी जैन, बौद्ध, सिख, सनातनी आदि सभी धार्मिक पन्थों का पावन तीर्थ है। यहाँ अनेक जैन तथा बौद्ध मन्दिर हैं।

मथुरा

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यमुना-तट परस्थित प्राचीन नगरी,जो भगवान् कृष्ण की जन्मभूमि रही है। इसका प्राचीन नाम मधुरा था,शायद वही कालान्तर में मथुरा हो गया। बालक ध्रुव ने नारद जी के उपदेशानुसार यहीं मधुवन में कठिन तपस्या करके भगवत दर्प्राशन प्राप्त किया। त्रेतायुग में भगवान् राम के आदेश से अत्याचारी लवणासुर का वध करके शत्रुध्न ने मथुरा का राज्य संभाला।द्वापर युग में भगवान् श्रीकृष्ण ने मथुरा के अत्याचारी राजा कंस को मारकर अपने अवतार-कार्य का श्रीगणेश यहीं से किया था। कलियुग में शकों ने भारत पर आक्रमण करके मथुरा और अवन्तिका पर भी अधिकार कर लिया था। उनको विक्रमादित्य ने पराजित किया। पुन: आक्रामक मुस्लिम शासनकाल मेंऔरंगजेब ने कृष्ण जन्मभूमि-मन्दिर को ध्वस्त कर वहाँ मस्जिद का निर्माण किया। मथुरा-वृन्दावन क्षेत्र कृष्णभक्तों के लिए सदैव अपार आकर्षण और श्रद्धा का केन्द्र रहा है। कृष्ण-जन्मस्थान को मुक्त कराना करोड़ों कृष्णभक्तों की साधना है जिसे पूरा करने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं।

मायापुरी (हरिद्वार)

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गंगा-तट का यह प्रसिद्ध तीर्थ है। पहाड़ों से निकलकर गंगा यहीं मैदान में प्रवेश करती है। प्रसिद्ध कुम्भ मेला, जिसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं, हरिद्वार में भी लगता है। जिस वर्ष चन्द्र-सूर्य मेष राशि में और गुरु कुम्भ राशि में एक ही समय में होते हैं, कुम्भ पर्व का योग आता है। हरिद्वारतीर्थ-क्षेत्र में गंगाद्वार,कुशावर्त,विल्वकेश्वर,नीलपर्वत ( नीलकण्ठ महादेव) और कनखल नामक प्रमुख पाँच तीर्थ-स्थान हैं। दक्ष प्रजापति ने अपना प्रसिद्ध यज्ञ कनखल में ही किया था जिसका, सती के यज्ञाग्नि में जल जाने पर, शिवगणों ने विध्वंस कर दिया।

काशी

पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित तथा भगवान् शंकर की महिमा से मण्डित काशी को विश्व के प्राचीनतम नगरों में अनन्यतम स्थान प्राप्त है। वरणा नदी और असी गंगा के मध्य स्थित होने से यह वाराणसी नाम से भी प्रसिद्ध है। बौद्ध जातक कथाओं के अनुसार काशी महाजनपद की यह राजधानी भारत के छ: प्रमुख नगरों से सबसे बड़ी थी। अनेक विद्याओं के महत्वपूर्ण अध्ययन-केन्द्र, विभिन्न पंथ-सम्प्रदायों के तीर्थस्थल और भगवत्प्राप्ति के लिए परम उपयुक्त क्षेत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा है। यह शैव, शाक्त,बौद्ध और जैन पंथों का प्रमुख तीर्थ-क्षेत्र है। यहाँ के विश्वनाथ— मन्दिर में स्थित शिवलिंग की बारह ज्योतिर्लिगों में गणना होती है। काशी में शक्तिपीठ भी है। सातवें और तेईसवें जैन तीर्थकरों का यहीं आविर्भाव हुआ था। भगवान बुद्ध ने काशी के पास सारनाथ में अपना प्रथम धर्म-प्रवचन सुनाया था। जगदगुरु आद्य शंकराचार्य ने अपनी धार्मिक दिग्विजय-यात्रा यहीं से प्रारम्भ की थी। किसी नये पंथ, विचार अथवा सुधार का श्रीगणेश काशी में करना सफलता के लिए आवश्यक माना जाता था। कबीर, रामानंद, तुलसीदास सदृश भक्तों और संत कवियों ने भी काशी को अपनी कर्मभूमि बनाया था। शास्त्राध्ययन और शास्त्रार्थ की यहाँ अति प्राचीन परम्परा रही है।

मुगल आक्रामक औरंगजेब ने यहाँ स्थित विश्वनाथ-मंदिरको ध्वस्त कर उसके भग्नावशेषों पर मस्जिद बनवा दी। कालान्तर में रानी अहल्याबाई होलकर ने निकट ही नवीन विश्वनाथ—मंदिर की प्रतिष्ठापना की। इस मन्दिर के शिखर को महाराजा रणजीत सिंह ने स्वर्ण-पत्र से मण्डित किया था। काशी विश्वनाथ के मूल स्थान को मुक्त कराने के प्रयास किये जा रहे हैं।आधुनिक काल में महामना मदनमोहन मालवीय ने विश्व-प्रसिद्ध काशी हिन्दूविश्वविद्यालय की स्थापना कर विद्या—क्षेत्र के रूप में काशी की परम्परा को आगे बढ़ाया। यहाँ गंगा-तट पर दशाश्वमेध घाट प्रसिद्ध है, यहाँ भारशिव राजाओं ने कुषाणों को परास्त कर दस अश्वमेध यज्ञ किये थे।

कांची

सात मोक्षपुरियों में से एक-कांची दक्षिण भारत का प्रसिद्ध धार्मिक नगर और विद्या-केंद्र रहा है। इसे दक्षिण की काशी कहते हैं। प्राचीन काल से यह नगर शैव, वैष्णव, जैन तथा बौद्ध सम्प्रदायों का तीर्थ-क्षेत्र रहा है। इस नगरी के शिवकांची और विष्णुकांची नामक दो विभाग माने गये हैं। कांची के कामाक्षी और एकाम्बर नाथ के मंदिर प्रसिद्ध हैं। इस नगरी में 108 शिव-स्थल मानेगये हैं। विष्णुकांची में भगवान् वरदराज का विशाल मन्दिरहै। रामानुजाचार्य के तत्वज्ञान का उदगम-स्थान कांचीपुरी रही है। बौद्ध पण्डितों में नागार्जुन, बुद्धघोष, धर्मपाल, दिडनाग आदि का निवास कांची में ही था। ब्रह्माण्डपुराण में काशी और कांची को भगवान् शिव के नेत्र कहा गया है।

अवन्तिका

क्षिप्रा नदी के तट पर बसा मध्य प्रदेश का यह सुप्रसिद्ध नगर अब उज्जयिनी या उज्जैन के नाम से जाना जाता है। इसकी गणना भी सात मोक्षपुरियों में होती है। भगवान् शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों में महाकाल नामक शिवलिंग का यह पीठ है और भगवती सती के बाहुका एक अंश यहाँ गिरने के कारण इसे शक्तिपीठ भी माना जाता है। भगवान शंकर ने इसी स्थान पर त्रिपुरासुर पर विजयपायी थी। आचार्य सांदीपनि का आश्रम उज्जयिनी में ही था, जहाँ कृष्ण ने बलराम और सुदामा के साथ उनसे शिक्षा प्राप्त की थी। विद्या-केंद्र के रूप में अवन्तिका का महत्व दीर्घकाल तक बना रहा। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भूमध्य-रेखा और शून्यरेखांश का केंद्र-बिन्दु इसी नगरी में मिलता है। प्रति बारह वर्षों के बाद अवन्तिका नगरी में कुम्भ पर्व आता है। मौर्य शासनकाल में उज्जयिनी मालव प्रदेश की राजधानी थी। सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने यहीं प्रव्रज्या धारण की थी। बाद में यहाँ शकों का राज्य स्थापित हुआ, जिन्हें विक्रमादित्य ने पराजित किया। कालिदास, अमरसिंह, वररूचि, भतृहरि, भारवि आदि प्राचीन भारत के श्रेष्ठ साहित्यकारों और भाषाशास्त्रियों तथा प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर का अवन्तिका से संबंध रहा है। यहाँक्षिप्रा नदी के तट पर सिद्ध वटवृक्ष चिरकाल से प्रतिष्ठित है। प्रयाग के अक्षय वट की भाँति इसे नष्ट करने के भी प्रयत्न अनेक मुस्लिम आक्रामकों ने किये, परन्तु जहांगीर सहित उनमें से कोई भी अपने दुष्प्रयत्न में सफल नहीं हुआ।

वैशाली

बिहार की प्राचीन नगरी, प्रसिद्ध लिच्छवि गणराज्य की राजधानी जिसे सम्पूर्ण वज्जि संघ की राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त हुआ। यह नगरी एक समय अपनी भव्यता और वैभव के लिए सम्पूर्ण देश में विख्यात थी। 24 वें जैन तीर्थकर महावीर का जन्म वैशाली में ही हुआ था। इस नाते यहजैन पंथ का प्रसिद्ध तीर्थ एवं श्रद्धा-केंद्र है। बुद्धके समय में भारत के छ:प्रमुख नगरों में वैशाली भी एक थी। बुद्ध ने भी इस नगरी को अपना सान्निध्य प्रदान किया। वैशाली का नामकरण इक्ष्वाकुवंशी राजा विशाल के नाम पर हुआ माना जाता है। भगवान्राम ने मिथिला जाते हुए इसकी भव्यता का अवलोकन किया था।

द्वारिका गुजरात में सौराष्ट्र के पश्चिम में समुद्र-तट पर बसी यह नगरी श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित गणराज्य की राजधानी थी। द्वारिका हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। द्वारिका में रैवत नामक राजा ने दर्भ बिछाकर यज्ञ किया था। द्वारिकाधीश्वर श्रीकृष्ण के ही एक रूप श्रीरणछोड़ राय जी का विशाल मन्दिर द्वारिका का प्रमुख दर्शनीय स्थान है। रणछोड़राय जी के मन्दिर पर लहराने वाला धर्मध्वज संसार का सबसे बड़ा ध्वज है। इसी मन्दिर के परिसरमें जगदगुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा मठ है। भगवान श्रीकृष्ण के लीला-संवरण कर परमधाम-गमन के पश्चात् द्वारिका की अधिकांश भूमि समुद्र में डूब गयी।

पुरी (जगन्नाथपुरी)

उड़ीसा में गंगासागर तटपर स्थित जगन्नाथपुरी शैव, वैष्णव और बौद्ध, तीनों सम्प्रदायों के भक्तों का श्रद्धा-केंद्र है और पूरे वर्षभर प्रतिदिन सहस्त्रों लोग यहाँ दर्शनार्थ पहुँचते हैं। यह परमेश्वर के चार पावन धामों में से एक है। जगदगुरु शंकराचार्य का गोवर्धन मठ तथा चैतन्य महाप्रभु मठ भी पुरी में है। विख्यात जगन्नाथ मन्दिर करोड़ो लोगों का श्रद्धा-केंद्र है जिसे पुराणों में पुरुषोत्तम तीर्थ कहा गया है। वर्तमान जगन्नाथ मन्दिर 12 वीं शताब्दी में अनन्तचोल गंग नामक गंगवंशीय राजा ने बनवाया था, किन्तु ब्रह्मपुराण और स्कन्दपुराण के अनुसार (इस से पूर्व) यहाँ उज्जयिनी-नरेश इन्द्रद्युम्न ने मन्दिर-निर्माण कराया था। इस मंदिर में श्रीकृष्ण, बलरामऔरसुभद्रा की काष्ठ-मूतियाँ हैं। जगन्नाथ के महान् रथ की यात्रा भारत की एक प्रमुख यात्रा मानी जाती है। लाखों लोग भगवान् जगन्नाथ के रथ को खींचकर चलाते हैं। इस तीर्थ की एक विशेषता यह है कि यहाँ जाति-पाँति के छुआछुत का भेदभाव नहीं माना जाता। लोकोक्ति प्रसिद्ध है- 'जगत्राथ' का भात, जगत् पसारे हाथ, पूछेजात न पात।' पुरी के सिद्धि विनायक मन्दिर की विनायक मूर्ति मूर्तिकला की दृष्टि से भी दर्शनीय कृति है।

तक्षशिला

भारत वर्ष के पश्चिमोत्तर सीमा-प्रांत में,प्राचीन गांधार जनपद की द्वितीय राजधानी तक्षशिला सिन्ध और वितस्ता (झेलम) नदियों के मध्य स्थित प्राचीन ऐतिहासिक नगरी थी, जिसके भग्नावशेष वर्तमान रावलपिंडी से लगभग 30 कि०मी० पश्चिम में आज भी दृष्टिगोचर होते हैं। श्रीराम के भाई भरत ने इसे अपने पुत्र तक्ष के नाम पर बसाया था। प्राचीन भारत का यह प्रख्यात उच्च विद्या—केंद्र रहा है। ज्ञात इतिहास में विश्व में सर्वाधिक 1200 वर्षों तक निरंतर विद्यमान रहने वाला विश्वविद्यालय यहीं का था। तक्षशिला विश्वविद्यालय में पाणिनि, जीवक और कौटिल्य जैसी विभूतियों ने अध्ययन तथा अध्यापन किया था। तक्षशिला, प्राचीन भारत की राजनीतिक और व्यापारिक गतिविधियों का भी केंद्र रहा है । एरियन, स्ट्रेटों आदि ग्रीक इतिहासकारों तथा चीनी यात्री फाहियान ने इसकी समृद्धि का वर्णन किया है। सीमावर्ती प्रदेश होने के कारण इसका राजनीतिक महत्व बहुत रहा है। पश्चिमोत्तर के विदेशी आक्रमणों का प्रकोप इसे बारम्बार झेलना पड़ा। युगाब्द 5048 (ई० 1947) भारत-विभाजन के पश्चात् अब यह स्थान पाकिस्तान के अन्तर्गत है।

गया

गया बिहार प्रान्त में फल्गु नदी के तट पर बसा प्राचीन नगर है जिसका उल्लेख पुराणों, महाभारत तथा बौद्ध साहित्य में हुआ है। पुराणों के अनुसार गय नामक महापुण्यवान् विष्णुभक्त असुर के नाम पर इस तीर्थ-नगर का नामकरण हुआ। मान्यता है कि गया में जिसका श्राद्ध हो वह पापमुक्त होकर ब्रह्मलोक में वास करता है। भगवान् रामचन्द्र और धर्मराज ने गया में पितृश्राद्ध किया था। पितृश्राद्ध का यह प्रख्यात तीर्थ है। विष्णुपद मन्दिर यहाँका प्रमुख दर्शनीय स्थान है। गौतम बुद्ध को यहाँ से कुछ दूरी पर बोध प्राप्त हुआ था। वह स्थान बोध गया अथवा बुद्ध गया कहलाता है। वहाँ प्रसिद्ध बोधिवृक्ष तथ भगवान् बुद्ध का विशाल मन्दिर विद्यमान है।

प्रयाग: पाटलीपुत्र विजयानगरं महत्। इन्द्रप्रस्थ सोमनाथ: तथाऽमृतसर: प्रियम् ॥7 ॥

प्रयाग

उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना के संगम पर स्थित प्रयाग प्रसिद्ध तीर्थ है। अपने असाधारण महात्म्य के कारण इसे तीर्थराज कहा जाता है। गुप्त-सलिला सरस्वती का भी संगम होने के कारण इसे त्रिवेणी संगम भी कहते हैं। प्रयाग में प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ, प्रति छठे वर्ष अर्द्ध कुम्भ और प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है। इन मेलों में करोड़ों श्रद्धालु और साधु-संत पर्वस्नान करने आते हैं। प्रयाग क्षेत्र में प्रजापतिने यज्ञ किया था जिससे इसे प्रयाग नाम प्राप्त हुआ। भरद्वाज मुनि का प्रसिद्ध गरुकुल प्रयाग में ही था। वन जाते हुए श्रीराम, सीता और लक्ष्मण उस आश्रम में ठहरे थे। तुलसीकृत रामचरित मानस के अनुसार वहीं पर मुनि याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज मुनि को रामकथा सुनायी थी। समुद्रगुप्त के वर्णन का एक उत्कृष्ट शिलास्तम्भ प्रयाग में पाया गया है। यहीं वह अक्षयवट है जिसके बारे में मान्यता है कि वह प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होता। इसी विश्वास और श्रद्धा को तोड़ने के लिए आक्रांता मुसलमानों विशेषत: जहांगीर ने उसे नष्ट करने के बहुत प्रयत्न किये, किन्तु वह वटवृक्ष आज भी वहाँ खड़ा है।

पाटलिपुत्र

बिहार का सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक नगर, जो अनेक साम्राज्यों और राजवंशों की राजधानी रहा, आजकल पटना नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में इसे पाटलिपुत्र या पाटलीपुत्र के अतिरिक्त कुसुमपुर, पुष्पपुर या कुसुमध्वज नामों से भी जाना जाता था। यह गंगा और शोणभद्र नदियों के संगम पर बसा है। ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व बुद्ध के अनुयायी अजातशत्रु नामक राजा ने इस नगर का निर्माण करवाया था। स्वयं बुद्ध ने इसके उत्कर्ष की भविष्यवाणी की थी। यह दीर्घकाल तक मगध साम्राज्य की राजधानी रहा और इसने नन्द,मौर्य, शुग और गुप्त वंशों के महान् साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा। सिख पन्थ के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की भी यह कर्मभूमि रहा है।

विजयनगर

महान् विजयनगर साम्राज्य की स्थापना विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) के मार्गदर्शन में हरिहर और बुक़राय नामक दो वीर बंधुओं ने की थी, जिसकी यह राजधानी उन्होंने युगाब्द 4437 (सन् 1336) में बसायी। अपने गुरु विद्यारण्य स्वामी के नाम पर उन्होंने इसे विद्यानगर नाम दिया था। किन्तु बाद में यह विजय नगर से ही प्रसिद्ध हुआ। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर बसा है। वेदमूलक हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन विजयनगर साम्राज्य का उद्देश्य था। 'विजयनगरम्' में साम्राज्य- संस्थापक संगमवंश के पश्चात् सालुववंश और तुलुवबंश जैसे प्रतापी राजवंशों का भी आधिपत्य रहा। तुलुववंश के वीर पुरुष कृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य का पर्याप्त उत्कर्ष किया और मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किये गये मन्दिरों का जीर्णोद्वार किया। विजयनगर का साम्राज्ययुगाब्द4437 से4666 (ई० 1336 से 1565) तक उत्कर्ष पर रहा। उसके विदेशों से भी दौत्य—सम्बन्ध थे।

इन्द्रप्रस्थ

महाभारत में उल्लिखित यह नगर वर्तमान दिल्ली के समीप था, जिसे पाण्डवों ने बसाया था। कहा जाता है कि पहले यहाँ खाण्डव नामक बीहड़ वन था, जिसे काटकर इन्द्रप्रस्थ का निर्माण कराया गया। हस्तिनापुर का राज्य स्वयं लेने के लिए दुर्योधन के हठ और छल-प्रपंच के कारण कुरुवंश के राज्य का विभाजन कर पाण्डवों को यह बीहड़ प्रदेश दिया गया था। किन्तु मय दानव की अदभुत स्थापत्यकला ने इन्द्रप्रस्थ को अकल्पनीय भव्यता प्रदान कर दी। युधिष्ठिर ने यहीं राजसूय यज्ञ किया था। इसने अनेक उतार-चढ़ाव देखे।

सोमनाथ

गुजरात के दक्षिणी समुद्र-तट पर प्रभास नामक तीर्थ-स्थान में प्राचीन काल से ही अति वैभवपूर्ण नगर था। यहाँ सोमनाथ(शिव) मन्दिर अपनी भव्यता और वैभव के लिएविश्व भर मेंप्रसिद्ध था। कालान्तरमेंप्रभास नगर सोमनाथ नाम से हीप्रसिद्ध हो गया। लुटेरेमहमूद गजनवी ने सोमनाथ पर चढ़ाई करइसे ध्वस्त करके लूटलिया। गजनवी से लेकर औरंगजेब तक मुसलमानों ने अनेक बार इस मन्दिर पर आक्रमण किये। बार-बार इसका ध्वंस औरपुनर्निर्माण होता रहा। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदारपटेल के प्रयत्नों सेइस मन्दिर का पुनर्निर्माण हुआ।

अमृतसर

पंजाब का धार्मिक-ऐतिहासिक नगर, जो सिख पंथ का प्रमुख तीर्थ स्थान है।इसकी नींव सिख पंथ के चौथे गुरु रामदास ने युगाब्द 4678 (1577 ई०) मेंडाली। मन्दिर का निर्माण-कार्य आरम्भ होने से पूर्व उसके चारों ओर उन्होंने एक ताल खुदवाना आरम्भ किया। मन्दिर के निर्माण का कार्य उनके पुत्र तथा पाँचवे गुरु अर्जुनदेव ने हरिमन्दिर बनवाकर पूरा किया। सरोवर एवं हरिमंदिर के चारों ओरद्वार रखे गये जिससे सब ओर से श्रद्धालु उसमें आ सकें। महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर की शोभा बढ़ाने के लिए बहुत धन व्यय किया। तब से वह स्वर्णमन्दिर कहलाने लगा। अंग्रेजी दासता के काल में 13 अप्रैल 1919 को स्वर्णमंदिर से लगभग दो फलांग की दूरी पर जलियाँवाला बाग में स्वतंत्रता की माँग कर रहीएक शान्तिपूर्ण सार्वजनिक सभा पर जनरल डायर ने गोली चलवाकर भीषण नरसंहार किया था। डेढ़हजार व्यक्ति घायल हुएअथवा मारेगये थे। वहाँउन आत्म-बलिदानियों की स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है।

ये समस्त नदी-पर्वत-नगर—तीर्थ हमारे लिए ध्यातव्य हैं।

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा। रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ।। ८ ।।

वेद

संसार का प्राचीनतम साहित्य वेदों के रूप में उपलब्ध है, जो भारतीय आर्यों के सर्वप्रधान तथा सर्वमान्य ग्रंथ तो हैं ही, समस्त धर्म, दर्शन, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान के मूल स्रोत भी हैं। वेद चार हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। गुरु द्वारा शिष्य को कठस्थ कराये जाने की परम्परा के कारण इन्हें श्रुति भी कहते हैं। वेदों का चतुर्विध विभाजन यज्ञ के चार ऋत्विजों द्वारा प्रयुक्त मंत्रों के आधार पर किया गया है: (1) होता द्वारा देवों के आह्वान या स्तुति के लिए प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – ऋग्वेद (2) अध्वर्यु द्वारा यज्ञ-कर्म सम्पादन में उपयोगी मंत्रों का संकलन – यजुर्वेद (3) उद्गाता द्वारा सामगान में प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – सामवेद तथा (4) सम्पूर्ण यज्ञ के अध्यक्ष या कार्यनिरीक्षक ब्रह्मा के जानने योग्य उपर्युक्त तीनों वेदों के अतिरिक्त मंत्रों का संग्रह – अथर्ववेद है। वेदों के मंत्रों में प्राय: विभिन्न देवताओं की स्तुतियाँ हैं। स्तुति वाला मंत्रभाग संहिता कहलाता है। ऋग्वेद में छंदों में पद्यबद्ध ऋचाएँ हैं, यजुर्वेद में गद्य-पद्य दोनों प्रकार के यज्ञसम्बंधी मंत्र (यजुष्) हैं, सामदेव में सस्वर गाये जाने (सामगान) वाले मंत्र हैं तथा अथर्ववेद में विविध प्रकार की विद्याओं के मंत्र हैं। मंत्र के साथ उसके ऋषि,देवता तथा छन्द का नामजुड़ा रहता है। जिस तपस्वी महापुरुष को समाधि प्रज्ञा में उस मंत्र का साक्षात्कार हुआ,उसे उसका ऋषि तथा जिस शक्ति या तत्व की स्तुति और आहवान उसमें हो उसे उस मंत्र का देवता कहते हैं। वेदों का प्रमुख प्रयोजन यज्ञों को सम्पन्न कराने में है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यज्ञविधि का सविस्तार वर्णन करने वाले ग्रंथों को ब्राह्मण ग्रंथ कहा जाता है। यह वेद का कर्मकांड वाला भाग है। इसके अतिरिक्त आरण्यक और उपनिषद्ग्रंथों का उपासना एवं ज्ञानकांड भी है, जिसे वेदांत कहते हैं। वेदों के अध्ययन में छ: शास्त्रों-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष – की सहायता ली जाती है जिन्हें वेदांग कहते हैं।

पुराण

वैदिक परम्परा के वे ग्रंथ जिनमें सृष्टि,मनुष्य,देवों,दानवों,राजाओं, महात्माओं,ऋषियों तथा मुनियों आदि के प्राचीन वृत्तांत लिपिबद्ध हैं, पुराण कहलाते हैं। पुराणों के पाँच लक्षण या विषय कहे गये हैं : सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (विस्तार एवं प्रलय), वंश (सूर्य वंश, चंद्र वंश), मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। पुराणों में ब्रह्मा,विष्णु, शिव सूर्य, गणेश और शक्ति की उपासना पर बल दिया गया है। 18 पुराण प्रसिद्ध हैं : ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण या

लिंगपुराण, वराहपुराण, स्कन्दपुराण, वामनपुराण, कुर्मपुराण, मत्स्यपुराण, गरुड़पुराण तथा ब्रह्माण्डपुराण। पुराणों के रचनाकार पराशर-पुत्र व्यास हैं,जिन्होंने अपने सूत शिष्य रोमहर्षण या लोमहर्षण (सूत जी) को पुराण विद्या में निपुण बनाया। रोमहर्षण से यह विद्या उनके पुत्र उग्रश्रवा को प्राप्त हुई। इन्हीं पिता-पुत्र ने शौनकादि सहस्त्रों ऋषियों को एक बहुत बड़े यज्ञ के समय नैमिषारण्य में अठारहपुराण सुनाये। लोमहर्षण के छ: शिष्यों और पुन: उनके शिष्यों ने भी पुराण परम्परा को आगे बढ़ाया। वर्तमान रूप में उपलब्धपुराण परवर्ती काल मेंपुन: सम्पादित या पुनलिखित हो सकते हैं, जिन पर शैव, वैष्णव व शाक्त सम्प्रदायों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

उपनिषद्

उपनिषद् (उप+नि+सत्) का अर्थ है सत् तत्व के निकट जाना अर्थात् उसका ज्ञान प्राप्त करना। वेद, ब्राह्मण ग्रंथ या आरण्यकों के वे प्राय: अन्तिम— भाग जिनमें आत्मा, परमात्मा, मोक्ष आदि अध्यात्म विद्या का निरूपण है,उपनिषद् कहलाये। प्रामाणिक प्रधान उपनिषदों के नाम हैं और कौषीतकी। इनमें ईशोपनिषद् यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, शेष का संबंध भी ब्राह्मण ग्रंथों या आरण्य कों के माध्यम से किसी न किसी वेद से है। केन और छान्दोग्य सामवेदीयउपनिषद् हैं, कठ,तैत्तिरीय,बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर यजुर्वेदीय उपनिषद, प्रश्न,मुण्डक और माण्डूक्य अथर्ववेदीय उपनिषद् तथा ऐतरेय और कौषीतकी ऋग्वेदीय उपनिषद्हैं। उपनिषदों में दो प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है – परा विद्या और अपरा विद्या। स्वयं उपनिषदों का प्रतिपाद्य मुख्यत: पराविद्या है।

रामायण

भारत के दो श्रेष्ठ प्राचीन महाकाव्य हैं: रामायण और महाभारत, जिन्हें इतिहास—ग्रथों की संज्ञा प्राप्त हुई है। मुनि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य रामायण में संस्कृत भाषा में सम्पूर्ण रामकथा का वर्णन किया गया है। नरश्रेष्ठ राम और उनके परिवार के लोगों तथा सम्पर्क में आये व्यक्तियों के चरित्रों में भारतीय संस्कृति केउच्च जीवन-मूल्यों की रमणीक एवं भव्य झाँकी प्रस्तुत की गयी है। अन्यान्य भारतीय भाषाओं के लिए रामायण सदैव उपजीव्य रहा है। वाल्मीकि-रामायण में वर्णित रामकथा का तुलसीदास ने रामचरितमानस के रूप में लोकभाषा अवधी में पुनलेंखन किया और उसे जन-जन तक पहुँचा दिया। बंगला की कृत्तिवासी रामायण, असमिया की माधव-कदली रामायण, तमिल की कम्ब रामायण के अतिरिक्त भी विभिन्न भारतीय भाषाओं में समय-समय पर रामायण ग्रंथों का प्रणयन होता रहा है। अध्यात्म रामायण और गुरु गोविन्दसिंह द्वारा रचित गोविन्द रामायण भी प्रसिद्ध हैं। अनेक जनजातियों में भी स्थानीय अंतर के साथ रामकथा प्रचलित है। भारत वर्ष का कोना-कोना राममय है,इसलिए स्वाभाविक रूप से लोकगीतों में भी रामकथा गूंथी गयी है।

भारत (महाभारत)

कुष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा रचित भारत का श्रेष्ठ महाकाव्य है जिसमें पाण्डवों और कौरवों के संघर्ष और पाण्डवों की विजय की कथा के माध्यम से धर्म की संस्थापना और अधर्म के पराभव का शाश्वत संदेश दिया गया है। श्रीमद्भगवढ़ीता महाभारत का ही अंश है। यह महाकाव्य सैकड़ों उपाख्यानों का भंडार हैऔर इसके प्रसंगों, पात्रों तथा आख्यानों को आधार बनाकर भारत की सभी भाषाओं में विपुल साहित्य- रचना हुई है। कुरुवंश और विशेषत: कौरव- पाण्डवों की मुख्य कथा के अतिरिक्त इन सैकड़ों उपकथाओं के द्वारा,मानव जीवन से जुड़ी अगणित स्थितियों,समस्याओं, सिद्धांतों और समाधानों का संयोजन इस महाकाव्य के विशाल फलक पर किया गया है। एक कथन है कि जो महाभारत में नहीं है वहअन्यत्र कहीं भी नहीं है। भारतीय संस्कृति के उच्च-जीवनादर्शों के प्रतिपादक दो श्रेष्ठ काव्यों रामायण और महाभारत में से महाभारत अधिक जटिल जीवन का चित्रण करता है, क्योंकि इसमें जीवन के सभी पक्षों को विविध आयामों में आलोकित किया गया है।

गीता

कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध के समय मोहग्रस्त अर्जुन को भगवान् कृष्ण ने जो उपदेश दिया था, वह श्रीमद्भगवद्गीता में संग्रहीत है। यह महाभारत के भीष्म पर्व का भाग है। इसमें आत्मा की अमरता तथा निष्काम कर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कर्मयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग (राजयोग) और ज्ञानयोग का सुन्दर समन्वय इसमें हुआ है। इसमें 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता की गणना प्रस्थानन्त्रयी में की जाती है जिसमें इसके अतिरिक्त उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र सम्मिलित हैं। गीता पर अनेक विद्वानों तथा आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं। गीता के महात्म्य में उपनिषदों को गो और गीता को उनका दुग्ध कहा गया है।

दर्शन

दर्शनशास्त्र सत्य के साक्षात्कार के उद्देश्य से किये जाने वाले बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रयासों का शास्त्र है।आचार्य शंकर के शब्दों में श्रवण (अर्थात अध्ययन) , मनन और निदिध्यासन (ध्यान) के द्वारा आत्मस्वरूप परम सत् का साक्षात्कार 'दर्शन' है। इस शास्त्र में प्रकृति, आत्मा, परमात्मा के पर और अपर स्वरूप तथा जीवन के लक्ष्य का विवेचन होता है। वेद को आप्त (असंदिग्ध)ग्रंथ मानने वाले पारम्परिक दर्शन की छ: शाखाएँहैं जिनमें मोक्ष प्राप्त करना जीवन का अन्तिम लक्ष्य बताया गया है। इन छ:दर्शनों के नाम हैं : न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व- मीमांसा औरउत्तर- मीमांसा (या वेदान्त) । इसके अतिरिक्त जैन और बौद्ध दर्शनों के सिद्धांतों का उद्भव भी पारम्परिक भारतीय दर्शनों के सिद्धान्तों से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा लेकर हुआ है।